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श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह । ३०१ निशदिन शशिरविको नहिं काम, तुम मुखचंद हरै तम धाम । जो स्वभावतै उपजै नाज, सजल मेघ तो कौनहु काज ॥ १६ ॥ जो सुबोध सोहै तुममांहि, हरि हर आदिकमैं सो नाहिं । जो द्यु ति महारतनमैं होय, काचखंड पावै नहिं सोय ॥ २० ॥ सराग देव देख में भला विशेष मानिया, स्वरूप जाहि देख वीतराग तु पिछानिया । कछु न तोहि देखके जहां तुही विशेग्विया, मनोग चित्तचोर और भूलह न पेग्विया ॥२१॥ अनेक पुत्रवंतिनी नितंविनी सपूत हैं, न तो समान पुत्र और मातने प्रमूत हैं। दिशा धरत तारिका अनेक कोटि को गिने, दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जनै ॥२२॥
नाराच छन्द ।