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श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह |
जो सुरतिय विभ्रम आरम्भ, मन न डिम्यो तुम तौ न अचंभ | अचल चलावे प्रलय समीर, मेरुशिखर डगमगें न धीर ॥ १५ ॥
धूमरहित वाती गत नेह, परकाशै त्रिभुवन घर एह । वातगम्य नाहीं परचंड, अपर दीप तुम बलो अखंड ॥ १६ ॥ छिपहु न लुपहु राहुकी छांहि, जगपरकाशक हो छिन मांहि । घन व दाह विनिवार, रवि अधिक धरो गुणसार ॥ १७ ॥ सदा उदित विदलित मनमोह, विघटित मेघराह अवरोह |
तुम मुखकमल अपूरवचंद, जगतविकाशी जोति मंद ॥ १८ ॥