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श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह। ऊंचे रहैं सूर दुति लोप, तीन छत्र तुम दिर्षे अगोप । तीन लोककी प्रभुता कहैं, मोती झालरसों छवि लहैं ॥ ३१ ॥ दंदुभि शब्द गहर गंभीर, चहुंदिशि होय तुम्हारे धीर । त्रिभुवनजन शिवसंगम करे, मानूं जय जय व उच्चरै ॥ ३२ ॥ मंद पवन गंधोदक इष्ट, विविध कल्पतरु पुहुप सुवृष्ट । देव करें विकसित दल सार, मानों द्विजपंकति अवतार ॥ ३३ ॥ तुम तन भामंडल जिनचंद, सब दुतिवंत करत है मंद। कोटिशंख रवितेज छिपाय, शशि निर्मल निशि करै अछाय ॥ ३४ ॥