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श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह।
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जलफल आदि मिलाय के. अरघ करो हरपाय ॥ दुःख जलांजलि दीजिये. श्रीजिन होय सहाय ॥ नमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय । अर्घ ॥ ॥
जवसाचा दोहा।
उननिस अङ्ग की आरती, सुनां भविक चितलाय मन वच तन सरधा करो. उत्तम नर भव पाय । १ । चौपाई जैनधर्म में शंक न यानं, सो निःशंकित गुण चित ठानें । जप तप कर फल बांटे नाही. निःकांक्षित गुण ही जिस माहीं २ पर को देख गिलानि न याने सो तीजा सम्यक गुग्ण टार्ने । आन देवको रंच न मानों सा निमंत गुण पहिचानी ||३|| पर को गुण देख ज ढाके, सो उपग्रहन श्री जिन भाएँ । जैन धर्म ते डिगता देखे. या बहुरि स्थिति कर लेखे ||४|| जिन धरमीसी प्रीत निवदिये गवत बच्छन् कहिये । ज्यों त्यो जैन उद्योत बढ़ाने, सो प्रभावना अङ्ग कहावे ॥५॥ ऋष्ट अङ्ग यह पलं जाई. सम्यकदी कहिये सोई । अब गुरण थाट ज्ञान के कहिये, भाखे श्री जिन मनमें गहिये ।। व्यंजन अक्षर सहित पड़ोजे व्यंजन व्यंजित अङ्ग कहा । अथ सहित शुध शब्द उचार दुजा ग्रंथ समग्रह धर ||७||