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________________ १९४ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह ॐ ह्रीं उत्तम आकिंचन्यधर्मागाय अध्य निर्वपामीति स्वाहा। उत्तम ब्रह्मचर्य शीलवाड़ि नौ राख. नाँ ब्रह्मभाव अन्तर लखो । करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नर-भव सदा ||१०|| उत्तम ब्रह्मचयं मन आनी, माता वहिन सुता पहिचानौ । सहैं बानवर्षा बहु सूरे, टिकै न नयन बान लखि क्रूरें || करे तियाके अशुचितन में, कामगेगी रति करें । बहु मृतक सड़हिं ममानमाहीं, काक ज्यों चोंचें भरें ॥ संसार में विपबेल नारी, तजि गये जोगीश्वरा । 'घात' धरम दर्शपैड़ चढ़ि के शिवमहल में पग धरा ॥ १० ॥ ओ ही उत्तमब्रह्मचर्यधर्मागाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा । जयमाला दोहा | दशलच्छन बन्दों सदा मनवांछित फलदाय | कहीं अारती भारती, हमपर होहु सहाय ॥ १ ॥ बेसरी छंद । उत्तम छिमा जहां मन होई, अन्तर बाहर शत्रु न कोई । उत्तम मार्दव विनय प्रकामे, नाना भेद ज्ञान सत्र भास ||२|| उत्तम आर्जव कपट मिटाव, दुरगति त्यागि सुगति उपजावै । उसम सत्य वचन मुख बोलें, सो प्रानी संसार न डोले ||३||
SR No.010003
Book TitleJain Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prakash Jain Thekedar Delhi
PublisherMahavir Prakash Jain Thekedar Dehli
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size13 MB
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