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श्री जैन पूजा-पाठ मंग्रह। विश्वसेन नृप जी दयो जग मार हो । पय लग्न मर हरपाय, हरपाय सुर पाउनग्य कीनी पंच फिर बन जाय ही, नप को ग्याग वग्म द्वादश भांति निभं थाय ही । वंशाम्ब नवी कृष्ण हग्यि घानि चव धर ध्यान ही, लह जान लोक अलोक पंन्यो भयो बोध कल्याण ही ।। समवशरण धनपति रच्यो जग मार हो, मानमथंभ त्रिशाल चत्र, चव गोपुर महिने जग मार हो। खाई मजल मगल. मगन बन बन कल्प-तम पनि चैत चंपक अंब ही, धुन गन्न मरित मुरूप मर तिय नच हलत नितंब ही । मध सभा द्वादश सभा मंडप कमन्न-ग्रामन जिन टये, चतु-वक्त्र अंगुल-चार अंतर भई धुनि मन हरपये ।।५।। तम अशोक त्रय रत्र हैं जग सार हा. चवमट चमर दुलंत, योजन वागी मागी जग मार हो । दंदभि मधुर धुरंत, घुग्न दंदभिसुमन वरप तंग आमनत्रय लम, तमपटल भा-मंडल विध्वंम काटि गवकी छवि नर्म । बम प्रानिहारिज महिन पारिज देश के भवि बोध हो, मंमेद गिर समभाव प्रणम भृन योग निरोध ही ॥६॥ फाल्गुण द्वादश कृष्ण ही जग मार हो । ध्यान शुक अमिधार. हन अधाति गिवपुरलियो जग मारहो।