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३६ श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो भव, तारणतरण जिहाज ॥५॥ ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य. उद्यम होन न देत, सर्व जगमांहिं भरयो है। मोह महातम घोर, नाश परकाश करयो है ॥ पूजों दीपप्रकाशसों (हो) ज्ञानज्योतिकरतार । सीमंधर जिन आदि दे, वीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो भव, तारणतरण जिहाज ॥६॥ ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थङ्करभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं० कर्म आठ सब काठ,-भार विस्तार निहारा । ध्यान अगनि कर प्रकट, सरव कीनों निरवारा ॥ धूप अनूपम खेवतें (हो), दुःख जलें निरधार । सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो भव, तारणतरण जिहाज ॥७॥ श्रओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थङ्करभ्योऽष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं० मिथ्यावादी दुष्ट, लोभऽहंकार भरे हैं। सबको छिनमें जीत जैनके मेरु खरे हैं ॥