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श्री जैन पूजा-पाठ संग्रह। १५ तुम पुन्यको प्रेरथो हरी है मुदित धनपतिसौं चयो । अब वेगि जाय रचौ समवसृति सफल सुरपदको करौ । साक्षात् श्री अरहंतके दर्शन करो कल्मष हरौ ॥२॥
ऐसे वचन सुने सुरपतिके धनपती । चल आयो तत्काल मोद धार अती ।। वीतराग छवि देखि शब्द जय जय चयो ।
दे प्रदच्छिना चार बार वंदत भयो । अति भक्तिभीनो नम्रचित ह समवशरण रच्यो सही । ताकी अनूपम शुभगतीको, कहन समरथ कोउ नहीं । प्राकार तोरण सभामंडप कनक मणिमय छाजहीं । नगजडित गंधकुटी मनोहर मध्यभाग विराजहीं ॥३॥
सिंहासन तामध्य बन्यो अद्भत दिप । तापर बारिज रच्यो प्रभा दिनकर छिप ॥ तीनछत्र सिर शोभित चौसठ चमरजी ।
महाभक्तियुत ढोरत हैं तहां अमरजी ।। प्रभु तग्न ताग्न कमल ऊपर, अन्तरीक्ष विगजिया । यह वीतरागदशा प्रतच्छ विलोकि भविजन सुख लिया । मुनि आदि द्वादश सभाके भविजीव मस्तक नायके । बहुभांति बारंबार पूज, नमै गुणगण गायकं ।।४।।
परमोदारिक दिव्य देह पावन मही। क्षुधा तृषा चिंता भय गद दूषण नहीं ।