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हमारी यह दुर्दशा क्यो? रोगोका प्राक्रमण हो जाता है, निर्बलता समस्त रोगोकी जड मानी गई है- एक कमजोरी हजार बीमारी' की कहावत प्रसिद्ध है। जब हमारा शरीर कमजोर है तो हमारे विचार कदापि दृढ नही हो सकते, जब हमारे विचार दृढ नही होगे तो हम कोई भी काम पूर्ण सफलता के साथ सम्पादन नहीं करसकेगे,हमारा चित्त हरवक्त डावाँडोल रहेगा तथा व्यर्थकी चिन्तामोका नाट्यघर बना रहेगा और इन व्यर्थकी चिन्तामोका नतीजा यह होगा कि हमारा कमजोर दिमाग और भी कमजोर होकर हमारी विचारशक्ति नष्ट हो जावेगी और तब हम हित-अहितका साग्वचार करनेकी योग्यताके न रहनेसे यद्वा तद्वा प्रवृत्ति कर अपना सर्वनाश कर डालेगे।
यही कारण है कि प्राचीन ऋषियोने शारीरिक बलको बहुत मुख्य माना है। उन्होंने लिखा है कि जिस ध्यानसे मुक्तिकी प्राप्ति होती है वह उत्तम ध्यान उसी मनुष्यके हो सकता है जिसका सहनन उत्तम हो-अर्थात् जिसका शरीर खास तौरसे ( निर्दिष्ट प्रकारसे ) मजबूत
और बज्रका बना हुआ हो । इसी लिये उन्होने इस शारीरिक बलकी रक्षाके लिये मुख्यतासे ब्रह्मचर्यका उपदेश दिया है और सबसे पहला-अर्थात् गृहस्थाश्रमसे भी पूर्वका-आश्रम 'ब्रह्मचर्याश्रम' कायम किया है। साथ ही वैद्यक शास्त्रके नियमोको पालन करनेका आदेश भी दिया है, और इन नियमोको इतना उपयोगी तथा ज़रूरी समझा है कि उनको धार्मिक नियमोमे गर्भित कर दिया है, जिससे मनुष्यउन्हे धर्म और पुण्यका काम समझकर ही पालन करे । वास्तवमे महर्षियोका यह काम बडी ही दूरदर्शिता और बुद्धिमत्तासे सम्बन्ध रखता है। वे अच्छी तरहसे जानते थे कि 'शरीरमाच खलु धर्मसा: धनम्' 'धर्मार्थ-काम-मोक्षाणा शरीर साधन मतम'--अर्थात् धर्मसाधनका ही नहीं किन्तु धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ऐसे चारोही पुरुषार्थोके साधनका सबसे प्रथम प्रौर मुख्य कारण शरीर है। शरीरके स्वस्थ और बलाध्य हुए बिना किसी भी पुरुषार्थका साधन