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हमारी यह दुर्दशा क्यों? नहीं होता, प्रमेहसे जिनका शरीर जर्जर है, इश्तहारी दवाप्रोकी परीक्षा करते करते जिनका चित्त घबरा उठा है, हकीमों, वैद्यों और डाक्टरोकी दवाई खाते खाते जिनका पेट अस्पताल और प्रौषधालय बन गया है, परन्तु फिरभी जिनको चैन नहीं पड़ता, जिनके विचार शिथिल हैं, जो अपने प्रात्माको नहीं पहचानते और अपना हित नही जानते, स्वार्थने जिनको अन्धा बना रक्खा है, परस्परके ईर्षा और द्वेषने जिनको पागल बना दिया है, विज्ञानसे जिनको डर लगता है, पापमयी जिनकी प्रवृत्ति है और चिन्तारूपी ज्वालामोसे जिनका. अन्त करण दग्ध रहता है ।।।
इसीसे आजकल हमारे अधिकाश भारतवासियोंके हृदयोमें प्रायः इस प्रकारके प्रश्न उठा करते हैं और कभी कभी अपने इष्ट मित्रादिकोसे वे इस प्रकारका रोना भी रोया करते हैं कि हमारी शारीरिक अवस्था ठीक क्यो नही ? हमारा दिल, दिमाग तथा जिगर (यकृतLiver ) ठीक काम क्यो नही करता? हमारे नेत्रोकी ज्योति कैसे मन्द है ? कानोंसे हमको कम क्यो सुनाई देता है ? तनिकसा परिश्रम करनेपर हमारे सिरमे चक्कर क्यो आने लगता है ? हम क्यों घुटनों पर हाथ धरकर उठते और बैठते हैं ? थोडीसी दूर चलने या जरासी मेहनतका काम करने पर हम क्यों हांपने लगते हैं ? हमारा उदर भोजनका पाक ठीक तौरसे क्यो नही करता ? क्यो हमेशा कब्ज (Constipation) और बदहज़मी (अजीर्णता-Dyspepsia) हमको सताती रहती है ? क्यो चूरन व गोली वगैरहका फिकर हरदम हमारे सिर पर सवार रहता है ? हमारा हृदयस्थल व्यर्थकी चिन्तायो और भूठे सकल्प-विकल्पोकी रङ्गभूमि क्यो बना रहता है ? क्यो अनेक प्रकारके रोगोने हमारे शरीरमे अड्डा जमा रक्खा है ? हमारा स्वास्थ्य ठीक क्यों नही हो पाता? किसी कार्यका प्रारम्भ करते हुए हमें डर क्यो लगता है ? कार्यका प्रारम्भ कर देने पर भी हम क्यो निष्कारण उसे चटसे छोड़ बैठते हैं । हममें हिम्मत, उत्साह और