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युगवीर- निबन्धावली
जो सदेव प्रपने धर्म-कर्ममें तत्पर और पापोंसे भयभीत थे, जिनको पद-पद पर सच्चे साधुओका सत्सङ्ग और सदुपदेश प्राप्त था, जो तनिकसा निमित्त पाकर एकदम समस्त सासारिक प्रपचोंको त्यागकर वनोवासको अपना लेते थे और श्रात्मध्यानमे ऐसे तल्लीन हो जाते थे कि अनेक उपसर्ग तथा परीषहोंके आने पर भी चलायमान नहीं होते थे, जो अपने हित-अहितका विचार करनेमे चतुर तथा कलाविज्ञानमें प्रवीण थे और जो एक दूसरेका उपकार करते हुए परस्पर प्रीति पूर्वक रहा करते थे
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परन्तु खेद ! आज भारत वह भारत नही है । आज भारतवर्षका मुख समुज्ज्वल होनेके स्थानमे मलिन तथा नीचा है | आज वहीं भारत परतन्त्रताकी बेडियोंमे जकड़ा हुआ है और दूसरोका मुह ताकता है । आज भारतका वह समस्त विज्ञान और वैभव स्वप्नका साम्राज्य दिखाई पडता है । और श्राज उसी भारतवर्ष मे हमारे चारो तरफ प्राय ऐसे ही मनुष्योकी सृष्टि नज़र आती है जिनके चेहरे पीले पड गये हैं, १२-१३ वर्षकी अवस्थासे ही जिनके केश रूपा होने प्रारम्भ हो गये हैं, जिनकी आँखें और गाल बेठ गये हैं, मुहपर जिनके हवाई उडती हैं, होठोपर हरदम जिनके खुश्की रहती है, थोडासा बोलनेपर मुख और कठ जिनका सूख जाता है हाथ और पैरोंके तलुनोसे जिनके अग्नि निकलती है, जिनके पैरोमे जान नही और घुटनोमे दम नही, जो लाठीके सहारेसे चलते हैं और ऐनकके सहारेसे देखते हैं, जिनके कभी पेटमे दर्द है तो कभी सिरमे चक्कर, कभी जिनका कान भारी है तो कभी नाक, आलस्य जिनको दबाये रहता है, साहस जिनके पास नही फटकता, वीरता जिनको स्वप्न में भी दर्शन नही देती, जो स्वयं अपनी छायासे प्राप डरते हैं; जिनका तेज नष्ट हो गया है, जो इन्द्रियोकी विजय नही जानते, विषय - सेवनके लिये जो प्रत्यत श्रातुर रहते हैं परन्तु बहुत कुछ स्त्रीप्रसंग करने पर भी संयोग-सुखका वास्तविक श्रानन्द जिनको प्राप्त