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युमकीर-निबन्धाधली का पताका संचार बमों नहीं होता क्यों हमारे हृदयसे धार्मिक विचारीको सृष्टि उठती जाती है ? हम विषयोंके दास क्यो बनते जाते हर क्यों हम अपने पूर्वज-ऋषि मुनियोकी तरह प्रात्मध्यान करनेमें समर्थ नहीं होते ? क्यो अपने प्राचीन गौरवको भुलाये जाते हैं ? और क्यों हम स्वार्थत्यागी बनकर परोपकारकी ओर दत्त-चित्त नहीं होते ? इत्यादि।
परन्तु इन सब प्रश्नो अथवा 'हमारी यह दुर्दशा क्यो" इस केवल एक ही प्रश्नका वास्तविक और सतोषजनक उत्तर जब उनको प्राप्त नहीं होता अथवा यो कहिये कि जब इन दुर्दशामोंसे छुटकारा पानेका सम्यक् उपाय उन्हे सूझ नही पडता तो वे बहुत ही खेदखिन्न होते हैं कभी कभी वे निराश होकर अपने नि सार जीवनको धिक्कारते हैं, अपने आपको दोष देने लगते है और कोई कोई हतभाग्य तो यहाँ तक हताश हो बैठते हैं कि उनको मरणके सिवाय और कोई शरण ही नजर नहीं आता, और इसलिए वेअपना अपघात तक कर डालते हैं | बहुतसे मनुष्य विपरीत श्रद्धामे पडकर बारहो महीने दवा खाते खाते अपनी जीवन-यात्रा समाप्त कर देते हैं । उनके मनोरथका पूरा होना तो दूर रहा, उनको प्रकट होने तकका अवसर नहीं मिलता। वे उठ उठकर हृदयके हृदयमेही विलीन हो जाते हैं। मरते समय उन प्रसिद्ध मनोरथोकी याद (स्मृति) उन्हे कैसा बेचैन करती होगी और अपने मनुष्य-जन्मके व्यर्थ खोजानेका उनको उस वक्त कितना अफसोस तथा पश्चाताप होता होगा, इसकी कल्पना सहृदय पाठक स्वय कर सकते हैं।
ऊपरके इस वर्णन एव चित्रणपरसे पाठक इतना तो सहजमे ही जान सकते हैं कि हमारे भारतवासी प्राजकल कैसी कैसी दुखावस्थामोसे घिरे हुए हैं-प्रमाद और प्रज्ञानने उनको कैसा नष्ट किया है। वास्तवमे यदि विचार किया जाय तो इन समस्त दुखो और दुर्दशामोंका कारण शारीरिक निर्बलता है। निर्बल शरीरपर सहजमें ही