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हमारी यह दुर्दशा क्यों ? एक समय था जब यह भारतवर्ष अपने उत्कर्ष पर था,अन्य देशोका गुरु बना हुमा था,सब प्रकारसे समृद्ध था और स्वर्गके समान समझा जाता था । यहाँ पर हजारो वर्ष पहलेसे आकाशगामिनी विद्याके जानकार, दिव्य विमानो द्वारा आकाशमार्गको अवगाहन करनेवाले, वैक्रियक प्रादि ऋद्धियोके धारक और अपने मात्मबलसे भूत,भविष्य तथा वर्तमान तीनो कालोका हाल प्रत्यक्ष जाननेवाले विद्यमान थे। भारतकी कीर्ति-लता दशो दिशाओमे व्याप्त थी । उसका विज्ञान, कला-कौशल और प्रात्मज्ञान अन्य समस्त देशोंके लिये अनुकरणीय था। उसमे जिधर देखो उधर प्राय ऐसे ही मनुष्योका सद्भाव पाया जाता था जो जन्मसे ही दृढान,निरोगी और बलाढय थे,स्वभावसे ही जो तेजस्वी,मनस्वी और पराक्रमी थे,रूप और लावण्यमे जो स्वर्गोंके देव-देवाङ्गनाप्रोसे स्पर्धा करते थे, सर्वाङ्ग सुन्दर और सुकुमार शरीर होनेपर भी वीररससे जिनका अङ्ग-अङ्ग फडकता था, जिनकी वीरता धीरता और दृढ प्रतिज्ञताकी देव भी प्रशसा किया करते थे, जो कायरता,भीरता और मालस्यको घृणाकी दृष्टिसे देखा करते थे, प्रारमबलसे जिनका चेहरा दमकता था; उत्साह जिनके रोम-रोमसे स्फुरायमान था, चिन्तामोमे जो अपना मात्म-समर्पण करना नही जानते थे, जन्मसरमे शायद कभी बिनको रोगका दर्शन होता हो,