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अष्टचत्वारिंशत्तमं पर्व
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सस्मिन् वहसि चेद्वैर जीर्णो मा भूर्गृहे वृथा । मोक्षदीक्षां गृहाणाशु शोकं हित्वेत्युवाच तम् ॥ १२० ॥ इत्युक्ते देव किं सत्यमेतद्यन्नान्तकात्परः । बलीति तन्न भेतव्यं मया किञ्चिद्वदिष्यता ॥ १२१ ॥ तेनान्तकेन ते नीताः सर्वेऽपि स्वान्तिकं सुताः । तस्मात्तदुक्तमार्गेण बहुवैर खलेऽन्तके ॥ १२२ ॥ इत्याह सोsपि तद्वाक्यवज्र निर्भिन्नमानसः । गतासुरिव निःस्पन्दो बभूव नृपतिः क्षणम् ॥ १२३ ॥ चन्दनोशीरसम्मिश्रसलिलैः सुहृदुक्तिभिः । उत्क्षेपैश्च मृदूत्क्षेपैः पुनरागत्य चेतनाम् ॥ १२४ ॥ ' मा माया मा वृथायामा भीमः कामो यमोऽधमः । भङ्गुरः सङ्गमः प्रेम्ण: कायोऽश्रेयोऽशुचिः क्षयी ॥ १२५ ॥ वार्मुकार्मुकनिर्भासि यौवनं तथयौ वनम् । जानन् जिनोऽहमद्यापि मूढोऽत्रैवेति चिन्तयन् ॥ १२६ ॥ भय्ये भगलिदेशेशसिंहविक्रमराड्भुवः । विदर्भायाः सुते राज्यं नियोज्यासौ भगीरथे ॥ १२७ ॥ राजते स्म तपोराज्ये दृढधर्मजिनान्तिके । तावदेव गृहे सन्तो न हेतुर्याचदीक्ष्यते ॥ १२८ ॥
सोsपि गत्वा भवद्वार्ता महीपतिमबूबुधत् । अनाकर्ण्यामसौ श्रुत्वा गाढं शोकाभिदीपितः ॥ १२९ ॥ कृत्वा भगीरथे राज्यं तपोऽयादहमप्यतः । इहान्वेष्टुं समायातः शोकायुष्मत्कुलद्विजः ॥ १३० ॥ इति देवः समभ्येत्य मायाभस्मावगुण्ठितान् । कुमारान् बोधयामास मायापि सुहृदां हिता ॥ १३१ ॥
छिद जाती है और कितने ही ऐसे हैं कि जो जितनी श्रयुका बंध करते हैं उतना जीवित रहते हैंमैं उनका मरण नहीं होता । यह यमराज उन सब जीवोंका संहार करता है पर स्वयं संहारसे रहित है ॥ ११६ ॥ यदि तुम उस यमराज पर द्वेष रखते हो तो घरके भीतर व्यर्थ ही जीर्ण-शीर्ण मत होओ। मोक्ष प्राप्त करनेके लिए शीघ्र ही दीक्षा धारण करो; शोक छोड़ो' ।। १२० ॥
जब राजा सगर यह कह चुके तो ब्राह्मण वेषधारी मणिकेतु बोला- 'हे देव ! यदि यह सच है कि यमराज से बढ़कर और कोई बलवान् नहीं है तो मैं जो कुछ कहूँगा उससे आपको भयभीत नहीं होना चाहिये । ।। १२१ ॥ आपके जो पुत्र कैलास पर्वत पर खाई खोदनेके लिए गये थे वे सब उस यमराजके द्वारा अपने पास बुला लिये गये हैं इसलिए आपको अपने कहे हुए मार्गके अनुसार दुष्ट यमराज पर बहुत वैर धारण करना चाहिये अर्थात् दीक्षा लेकर यमराजको जीतनेका प्रयत्न करना चाहिये ।। १२२ ।।
ब्राह्मणके उक्त वचन रूपी वासे जिसका हृदय विदीर्ण हो गया है ऐसा राजा सगर क्षण भरमें मरे हुए समान निश्रेष्ट हो गया ।। १२३ ॥ चन्दन और खससे मिले हुए जलसे, मित्रोंके वचनोंसे तथा पंखों की कोमल वायुसे जब वह सचेत हुआ तो इस प्रकार विचार करने लगा कि व्यर्थ ही खेदको बढ़ानेवाली यह लक्ष्मीरूपी माया मुझे प्राप्त न हो-मुझे इसकी आवश्यकता नहीं। यह काम भयंकर है, यमराज नीच है, प्रेमका समागम नश्वर है, शरीर अपवित्र है, क्षय हो जानेवाला है और इसीलिए सेवन करने योग्य नहीं है अथवा अकल्याणकारी है, यह यौवन इन्द्रधनुषके समान नश्वर है. ऐसा जानते हुए तीर्थंकर भगवान् वनमें चले जाते हैं। परन्तु मैं मूर्ख अब भी इन्हींमें मूढ़ हो रहा हूँ...ऐसा विचार कर सगर चक्रवर्तीने भगलि देशके राजा सिंहविक्रमकी पुत्री विदर्भाके पुत्र भव्य भगीरथ के लिए राज्य सौंप दिया और आप दृढ़धर्मा केवलीके समीप दीक्षा धारण कर तपचरण रूपी राज्यमें सुशोभित होने लगा सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पुरुष घरमें तभी तक रहते हैं जबतक कि विरक्त होनेका कोई कारण नहीं दिखाई देता ।। १२४-१२८ ।। इधर चक्रवर्तीने दीक्षा ली उधर वह मणिकेतु देव उन पुत्रोंके पास पहुँचा और कहने लगा कि किसीने आपके मरणका यह
श्रवणीय समाचार राजासे कह दिया जिसे सुनकर वे शोकाभिसे बहुत ही अधिक उद्दीपित हुए और भगीरथके लिए राज्य देकर तप करने लगे हैं। मैं आपकी कुल परम्परासे चला आया ब्राह्मण हूँ अतः शोकले यहाँ आप लोगोंको खोजने के लिए आया हूँ ।। १२६-१३० ।। ऐसा कहकर उस देवने
१ मा लक्ष्मीः माया मायास्वरूपा मा भूत् । २ व्यर्थदेय । ३ वामुक मेघरतस्य कार्मुकं धनुवि निर्भासते शोभते इत्येवंशीलं नश्वरमिति यावत् । ४ कोऽपि ग०, ब० ।
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