________________
१०
महापुराणे उत्तरपुराणम्
राज्ञाप्याज्ञापिता यूयं कैलासे भरतेशिना । गृहाः कृता महारनैश्चतुर्विंशतिरर्हताम् ॥ १०७ ॥ तेषां गङ्गां प्रकुर्वीध्वं परिखां परितो गिरिम् । इति तेऽपि तथा कुर्वन् दण्डरलेन सत्वरम् ॥ १०८ ॥ मणिकेतुः पुनश्चास्य स्नेहसौजन्यचोदितः । सचिवैर्बोधनोपायं स सहैवं व्यचिन्तयत् ॥ १०९ ॥ किञ्चिद्धितं प्रियं चोक्त' किञ्चिच्च हितमप्रियम् । किञ्चित्प्रियं सदहितं पर' चाहितमप्रियम् ॥ ११० ॥ अन्त्यद्वयं परित्यज्य शेषाभ्यां भाषता हितम् । इति निश्चित्य कैलासं तदैवागम्य दर्पिणः ॥ १११ ॥ कुमारान् भस्मराशिं वा व्यधात् क्रूरोरगाकृतिः । कुर्वन्ति सुहृदोऽगल्या हितं चेदप्रियं च तत् ॥ ११२ ॥ ज्ञात्वापि तन्मृतिं भूपमाकर्णयितुमक्षमाः । तत्स्नेहं तेषु जानानः संवृत्य सचिवाः स्थिताः ॥ ११३॥ तदा ब्राह्मणरूपेण मणिकेतुरुपेत्य तम् । महाशोकसमाक्रान्तो वावेदयदिदं वचः ॥ ११४ ॥ देव देवे धराचक्रं रक्षति क्षेममत्र नः । किन्त्वन्तकेन मत्पुत्रोऽहार्यारा जीवितावधेः ॥ ११५ ॥ प्रेयान् ममैक ४ एवासौ नायुषा तेन जीवितम् । नानीतश्चेत्वया सोऽद्य तेन मामपि पश्यतः ॥ ११६ ॥ तव विद्धयग्रतो नीतं । किं कुर्वन्ति न गर्विताः । " शलाटुभक्षणे 'लोलः किं पक्कं तत्त्यजेदिति ॥ ११७ ॥ तदाकर्ण्याह सन् राजा द्विज किं वेत्सि नान्तकः ' । सिद्धैरेव स वार्योऽन्यैर्ने त्यागोपालविश्रुतम् ॥ ११८ ॥ अपवर्त्यायुषः केचिद्वद्धायुर्जीविनः परे । तान् सर्वान् संहरत्येष यमो मृत्योरगोचरः ॥ ११९ ॥
कि अभी धर्मका एक कार्य बाकी है। उन्होंने हर्षित होकर आज्ञा दी कि भरत चक्रवर्तीने कैलास पर्वत पर महारत्नोंसे अरहन्तदेवके चौबीस मन्दिर बनवाये हैं, तुम लोग उस पर्वतके चारों ओर गङ्गा नदीको उन मन्दिरोंकी परिखा बना दो।' उन राजपुत्रोंने भी पिताकी आज्ञानुसार दण्डरत्नसे वह काम शीघ्र ही कर दिया ।। १०६-१०८ ॥
प्रेम और सज्जनता से प्रेरित हुआ मणिकेतु देव फिर भी अपने मन्त्रियोंके साथ राजा सगरको समझानेके लिए योग्य उपायका इस प्रकार विचार करने लगा ।। १०६ ।। कि वचन चार प्रकारके होते हैं - कुछ वचन तो हित और प्रिय दोनों ही होते हैं, कुछ हित और अप्रिय होते हैं, कुछ प्रिय होकर हित होते हैं और कुछ अहित तथा अप्रिय होते हैं। इन चार प्रकारके वचनोंमें अन्तके दो वचनोंको छोड़कर शेष दो प्रकारके वचनोंसे हितका उपदेश दिया जा सकता है। ऐसा निश्चय कर वह मणिकेतु एक दुष्ट नागका रूप धरकर कैलास पर्वत पर आया और उन अहङ्कारी राजकुमारोंको भस्मकी राशिके समान कर चला गया सो ठीक ही है क्योंकि मंत्रीगण जब कुछ उपाय नहीं देखते हैं तब हित होनेपर भी अप्रिय वचनोंका प्रयोग करते ही हैं ।। ११०-११२ ।। मंत्री यह जानते थे कि राजाका पुत्रों पर कितना स्नेह है अतः पुत्रोंका मरण जानकर भी वे राजाको यह समाचार सुनानेके लिए समर्थ नहीं हो सके । समाचारका सुनाना तो दूर रहा किन्तु उसे छिपा कर ही बैठ रहे ॥११३॥ तदनन्तरमणिकेतु ब्राह्मणका रूप रख कर चक्रवर्ती सगरके पास पहुँचा और बहुत भारी शोकसे आक्रान्त होकर निम्नाङ्कित वचन कहने लगा ।। ११४ ।। 'हे देव ! जब आप पृथिवीमण्डलका पालन कर रहे हैं तब हम लोगोंकी यहाँ सब प्रकार कुशल है किन्तु आयुकी अवधि दूर रहने पर भी यमराजने मेरा पुत्र हरण कर लिया है। वह मेरा एक ही पुत्र था । यदि आप उसे आयुसे युक्त अर्थात् जीवित नहीं करते हैं तो आज मुझे भी आपके देखते-देखते उस यमराजके द्वारा ले जाया हुआ समझें। क्योंकि अहङ्कारी लोग क्या नहीं करते हैं। जो कच्चे फल खानेमें सतृष्ण है वह भला पके फल क्यों छोड़ेगा ।। ११५ - ११७ ॥
ब्राह्मणके वचन सुनकर राजाने कहा कि हे द्विजराज ! क्या आप नहीं जानते कि यमराज सिद्ध भगवान् के द्वारा ही निवारण किया जाता है; अन्य जीवोंके द्वारा नहीं, यह बात तो आबालगोपाल प्रसिद्ध है । ।। ११८ || इस संसारमें कितने ही प्राणी ऐसे हैं कि जिनकी आयु बीचमें ही
१ प्रकुर्वीत क०, ख०, ग०, घ० । २ न्यवेदयदिदं ग० । ३ हार्याराजीवितावधिः घ० । त्यहार्यो ल० । ४ ममैप ल० । ५ श्राम्रफलभक्षणे । ६ सतृष्णः । ७ स राजा क०, घ० । सद्राजा ल० । ८ नान्तकम् क० घ० । ६ चरे ल० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org