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महापुराणे उत्तरपुराणम् सगरश्चक्रव]ष शेषैः पुण्यैरभूदसौ। इति बुद्ध्वा विशां नाथमुपगम्येदमब्रवीत् ॥ ८॥ स्मरस्यावां वदिष्यावस्तवं कल्पेऽच्युताये। प्रारमहीगतमत्रस्थो 'बोधयत्वावयोरिति ॥ २॥ मनुष्यजन्मनः सार' साम्राज्यं चिरमन्वभूत् । किं भोगै गिभोगाभैर्भो भव्यैभिर्भयावहैः ॥ ८३॥ उत्तिष्ठ स्वविभो मुक्तावित्यस्य विमुखोऽभवत् । चक्रवर्ती स सिदयध्वा काललब्ध्या विना कुतः ॥ ८४ ॥ ज्ञात्वा तत्तस्य वैमुख्यमन्यालापैय॑वर्तयत् । हितेनापि न कुर्वन्ति विप्रियं क्रमवेदिनः ॥ ८५॥ धिग्भोगानीदशान्स्वोक्तेरेवं च्यावयतोऽधदान् । दुस्त्यजानिति निर्विणो मणिकेतुरगाद् दिवम् ॥ ८६॥ उपायमेकमालोच्य ततो ग्राहयितु पुनः । मणिकेतुमहीपालमवतीर्य महीतलम् ॥ ८७॥ आलम्ब्य लक्षणैर्लक्ष्य कान्त्येन्दु भानुमाभया । वामेन वपुषा कामं निर्जित्य विजितेन्द्रियः ॥ ८८ ॥ चारणत्वं समासाद्य भावयन् संयम परम् । तस्थौ जिनेन्द्रान् वन्दित्वा सगरस्य जिनालये ॥ ८९ ॥ दृष्ट्वा तं विस्मयापखो वयस्यस्मिन्निदं कुतः । तपस्तवेति पपृच्छ नृपः सोऽप्यन्यथाब्रवीत् ॥ ९॥ यौवनं जरसा प्रास्यं गलत्यायुः प्रतिक्षणम् । हेयः कायोऽशुचिः पापी दुर्धरो दुःखभाजनम् ॥ ११ ॥ सर्वदानिष्टसंयोगो वियोगश्चेष्टवस्तुभिः । गतोऽनादिर्भवावर्तः पुनश्चानन्त एव सः॥ ९२ ॥ कर्मारिभिरिदं सर्व दग्ध्वा तानि तपोऽग्निना । यास्याम्यनश्वरी शुद्धिं यथाई कनकोपलः ॥ १३ ॥
मित्र महाबल कहाँ उत्पन्न हुआ है ? इच्छा होते ही उसने अवधिज्ञानके प्रकाशसे जान लिया कि वह बाकी बचे हुए पुण्यसे सगर चक्रवर्ती हुआ है। ऐसा जानकर वह सगर चक्रवर्तीके पास पहुँचा
और कहने लगा ।।८०-८१॥ कि 'क्यों स्मरण है ? हम दोनों अच्युत स्वर्गमें कहा करते थे कि हमलोगोंके बीच जो पहले पृथिवीपर अवतीर्ण होगा उसे यहाँ रहनेवाला साथी समझावेगा॥२॥ हे भव्य ! मनुष्यजन्मके सारभूत साम्राज्यका तू चिरकाल तक उपभोग कर चुका है। अब सपके फणाके समान भय उत्पन्न करनेवाले इन भोगोंसे क्या लाभ है ? हे राजन् ! अब मुक्तिके लिए उद्योग कर'। मणिकेतुके इतना कहनेपर भी वह चक्रवर्ती इससे विमुख रहा सो ठीक ही है क्योंकि मुक्तिका मार्ग काललब्धिके बिना कहाँसे मिल सकता है ? ॥८३-८४ ॥ सगर चक्रवर्तीकी विमुखता जान मणिकेतु अन्य वार्तालाप कर वापिस लौट गया सो उचित ही है क्योंकि अनुक्रमको जाननेवाले परुष अहितकी बात जाने दो, हितके द्वारा भी किसीकी इच्छाके विरुद्ध काम नहीं करते॥५॥ इन भोगोंको धिक्कार है जो कि मनुष्योंको इस प्रकार अपने कहे हुए वचनोंसे च्युत करा देते हैं, पाप उत्पन्न करनेवाले हैं और बड़ी कठिनाईसे छोड़े जाते हैं। इस तरह निर्वेदको प्राप्त होता हा मणिकेतु देव स्वर्ग चला गया ॥ ८६ ॥ फिर कुछ समय बाद मणिकेतुदेव राजाको तप ग्रहण करानेका एक दूसरा उपाय साचकर पृथिवीपर आया ॥८७ ।। उसने चारण ऋद्धिधारी मुनिका रूप बनाया । वह मुनि अनेक लक्षणोंसे युक्त था, कान्तिसे चन्द्रमाको, प्रभासे सूर्यको और सुन्दर शरीरसे कामदेवको जीत रहा था। इस प्रकार जितेन्द्रिय हो उत्कृष्ट संयमकी भावना करता हुआ वह मुनि जिनेन्द्र भगवानकी वन्दनाकर सगर चक्रवर्तीके चैत्यालयमें जा ठहरा ॥८५-८६ ।। उस चारण मुनिको देख चक्रवर्तीको बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने पूछा कि आपने इस अवस्थामें यह तप क्यों धारण किया है ? चारण मुनिने भी झूठमूठ कहा कि यह यौवन बुढ़ापाके द्वारा ग्रास्य है-प्रसनेके योग्य है, आयु प्रतिक्षण कम हो रही है, यह शरीर चूँकि अपवित्र है, पापी है, दुर्धर है, और दुःखोंका पात्र है अतः छोड़नेके योग्य है। सदा अनिष्ट वस्तुओंका संयोग और इष्ट वस्तुओंका वियोग होता रहता है । यह संसार रूपी भँवर, अनादि काल से बीत रही है फिर भी अनन्त ही बनी हई है। जीवकी यह सब दशा कर्मरूप शत्रुओंके द्वारा की जा रही है अतः मैं तपरूपी अनिके द्वारा उन कर्म-शत्रुओंको जलाकर सुवर्ण पाषाणके समान अविनाशी शुद्धिको प्राप्त होऊँगा-मोक्ष प्राप्त करूँगा ॥६०-६३ ॥
१ बोधयित्वा ल० । २ हे ग०। ३ अस्यां दशायाम् । ४ सोऽपीत्यथाब्रवीत् क०, ख०, ग०,१०।
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