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अष्टचत्वारिंशत्तमं पर्व
जीर्णपर्णवदागण्य प्राणप्रान्तान् परिग्रहान् । राज्यभोज्ये नियुज्यार्यं धृतिषेणं धृतायतिम् ॥ ६६ ॥ यशोधरगुरूद्दिष्टं शुद्धमध्वानमाप सः । नृपैर्महारुताख्येन बहुभिर्मैथुनेन च ॥ ६७ ॥ कालान्ते कृतसंन्यासविधिः कल्पेऽन्तिमेऽच्युते । देवो महाबलो नाम जयसेनोऽजनिष्ट सः ॥ ६८ ॥ महारुतोऽपि तत्रैव मणिकेतुः सुरोऽजनि । आवयोर्योऽवतीर्णः प्राक् तस्यान्यो बोधको भवेत् ॥ ६९ ॥ इति तत्र तयोरासीदन्योन्यं सम्प्रधारणम् । तत्र द्वाविंशतिसागरोपमाण्यामर सुखम् ॥ ७० ॥ अनुभूयात्र साकेतनगरे ' कौशले नृपः । समुद्रविजयस्तस्य सुबाला रमणी तयोः ॥ ७१ ॥ महाबलोऽभवत्सूनुरिक्ष्वाकुः सगराह्वयः । पूर्वाणां सप्ततिर्लक्षाः तस्यायुःपरमावधिः ॥ ७२ ॥ चतुःशतानि पञ्चाशदुत्सेधेन धनूंषि सः । सर्वलक्षणसम्पूर्णः श्रीमांश्चामीकरच्छविः ॥ ७३ ॥ कुमारत्वे दशाष्टौ च लक्षाः पूर्वाण्ययुस्ततः । महामाण्डलिकत्वं च तस्य तावत्प्रमामितम् ॥ ७४ ॥ तदोदपादि षट्खण्डभूचक्राक्रमणक्षमम् । चक्र कीर्तिश्च दिक्चक्रमाक्रमन्त्यात्तविक्रमा ।। ७५ ।। आद्यचक्रिवदेषोऽपि कृत्वा दिग्विजयं चिरम् । गृह्णन् तत्सारवस्तूनि सर्वान् स्वाज्ञामजिग्रहत् ॥ ७६ ॥ ततो निवृत्य साकेतं साम्राज्यश्रीनिकेतनम् । भोगान् दशाङ्गान् निर्भङ्ग निर्विशन्नावसन् सुखम् ॥ ७७ ॥ तस्य षष्टिसहस्राणि पुत्राणां कृतिनोऽभवन् । तदाकारेण वा तस्य वेधसा व्यञ्जिता गुणाः ॥ ७८ ॥ तस्मिन् सिद्धिवने श्रीनाम्नश्चतुर्मुखयोगिनः । अन्यदाखिलभास्यासीत् केवलाधिगमस्तदा ॥ ७९ ॥ तत्कल्याणस्य देवेन्द्रैर्मणिकेतुः सहागतः । महाबलोऽजनि क्वेति सोपयोगोऽवधित्विषा ॥ ८० ॥
के लिए उद्यत हुआ सो ठीक ही है क्योंकि मनस्वी मनुष्योंको यही योग्य है ॥ ६५ ॥ वह प्राणोंका अन्त करनेवाले अथवा इन्द्रियादि प्राण हैं अन्तमें जिनके ऐसे परिग्रहोंको पुराने पत्तोंके समान समझने लगा तथा राज्यके उपभोगमें भाग्यशाली आर्य धृतिषेण नामक पुत्रको नियुक्त कर अनेक राजाओं और महारुत नामक सालेके साथ यशोधर गुरुके द्वारा बतलाये हुए शुद्ध मोक्षमार्गको प्राप्त हुआ - दीक्षित हो गया ।। ६६-६७ ।। जयसेन मुनिने आयुके अन्त में संन्यासमरण किया जिससे अन्तिम अच्युत स्वर्गमें महाबल नामके देव हुए ।। ६८ ।। जयसेनका साला महारुत भी उसी स्वर्ग में मणिकेतु नामका देव हुआ । वहाँ उन दोनोंमें परस्पर प्रतिज्ञा हुई कि हमलोगों के बीच जो पहले पृथिवीलोकपर अवतीर्ण होगा- - जन्म धारण करेगा, दूसरा देव उसे समझानेवाला होगा - संसारका स्वरूप समझाकर दीक्षा लेनेकी प्रेरणा करेगा । महाबल देव, अच्युत स्वर्ग में बाईस सागर पर्यन्त देवोंके सुख भोगकर कौशल देशकी अयोध्या नगरीमें इक्ष्वाकुवंशी राजा समुद्रविजय और रानी सुबालाके सगर नामका पुत्र हुआ । उसकी आयु सत्तरलाख पूर्वकी थी । वह चार सौ पचास धनुष ऊँचा था, सब लक्षणोंसे परिपूर्ण था, लक्ष्मीमान् था तथा सुवर्णके समान कान्तिसे युक्त था ।। ६६-७३ ।। उसके अठारह लाख पूर्व कुमार अवस्थामें व्यतीत हुए । तदनन्तर महामण्डलेश्वर पद प्राप्त हुआ । उसके बाद इतना ही काल बीत जानेपर छह खण्डोंकी पृथिवीके समूहपर आक्रमण करनेमें समर्थ चक्ररत्न प्रकट हुआ और दिशाओंके समूहपर आक्रमण करती हुई प्रतापपूर्ण कीर्ति प्रकट हुई ।। ७४-७५ ।। प्रथम चक्रवर्ती भरतके समान इसने भी चिर कालतक दिग्विजय किया, वहाँकी सारपूर्ण वस्तु के ग्रहण किया और सबलोगोंको अपनी आज्ञा ग्रहण कराई ॥ ७६ ॥ दिग्विजयसे लौटकर वह साम्राज्य-लक्ष्मीके गृहस्वरूप अयोध्या नगरीमें वापिस आया और निर्वित्ररूपसे दश प्रकारके भोगोंका उपभोग करता हुआ सुखसे रहने लगा ।। ७७ ।। उस पुण्यवान् के साठहजार पुत्र थे जो ऐसे जान पड़ते थे मानो विधाताने पुत्रोंके आकारमें उसके गुण ही प्रकट किये हों ||७८ || किसी समय सिद्धिवनमें श्रीचतुर्मुख नामके मुनिराज पधारे थे और उसी समय उन्हें समस्त पदार्थोंको प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था ॥ ७६ ॥ उनके कल्याणोत्सव में अन्य देवों तथा इन्द्रोंके साथ मणिकेतु देव भी आया था। वहाँ आकर उसने जानना चाहा कि हमारा
१ सुष्ठुभविष्यत्काल सहितम् । २ कोशले क०, ख०, ग०, घ० । ३ काष्ठासमूहं व्याप्नुवन्ती ।
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