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श्रष्टचत्वारिंशत्तम पर्व
मालिनी समवसरणलण्या वीक्ष्यमाणः कटाक्षः
सुकृतविकृतचिह्नरष्टभिः प्रालिहायः । अविहतविहतारिः प्राज्यवैराग्यभावः
स्वपरगुरुकृतार्थप्रार्थ्यसम्यकप्रसिद्धः ॥ ५० ॥
शार्दूलविक्रीडितम् पापैः क्वापि न जीयतेऽयमिति वा दुर्वादिभिश्चाखिलै
मान्वर्थमवाप्तवानिति विदां स्तोत्रस्य पात्रं भवन् । आर्यक्षेत्रमशेषमेष विहरन् सम्प्राप्य सम्मेदकं
स्थित्वा २दिव्यनिनादयोगरहितस्तत्रैव पक्षद्वयम् ॥५१॥ कुर्वाणः समयं प्रति प्रकृतिषु सावं गुणासङ्ख्यया
स्थित्यादि च विघातयन् स्वमितिकं दण्डादिकं वर्तयन्। सूक्ष्मध्याननिरुद्धयोगविभवो विश्लिष्टदेहत्रयस्तुर्यध्यानसमाश्रयात्समुपय॑श्चाष्टौ गुणान् शुद्धिभाक् ॥ ५२ ॥
आर्या चैत्रज्योत्स्नापक्षे पञ्चम्यां रोहिणीगते चन्द्रे । प्रतिमायोगं बिभत्पूर्वाहेऽवाप मुक्तिपदम् ॥ ५३ ॥
द्रुतविलम्बितम् विमलवाहनमाहवदुर्द्धर दुरितदूरतपश्चरणोद्यतम् ।
सुखनिधि विजये सुरसत्तमं नमत भक्तिभरादजितं जिनम् ॥ ५४॥ थे। ४६ ।। उन अजितनाथ स्वामीको समवसरण लक्ष्मी कटाक्षोंसे देख रही थी, वे पुण्योत्पादित चिह्नस्वरूप आठ प्रातिहार्योंसे युक्त थे, उन्होंने कर्मरूपी शत्रुओंमेंसे घातिया कर्मरूप शत्रुओंको नप्र कर दिया था और अघातिया कर्मरूप शत्रुओंको अभी नष्ट नहीं कर पाया था, उनकी वैराग्यपरिणति अत्यन्त बढ़ी हुई थी, वे निज और परके गुरु थे, कृतकृत्य मनुष्यकि प्रार्थनीय थे और अतिशयप्रसिद्ध अथवा समृद्ध थे ॥५०॥ 'यह न तो कहीं पापोंसे जीते जाते हैं और न समस्त वादी ही इन्हें जीत सकते हैं इसलिए 'अजित' इस सार्थक नामको प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार विद्वानोंकी स्तुतिके पात्र होते हुए भगवान् अजितनाथने समस्त आर्यक्षेत्रमें विहार किया और अन्तमें सम्मेदाचलपर पहुँचकर दिव्यध्वनिसे रहित हो एक मासतक वहींपर स्थिर निवास किया ॥५१॥ उस समय उन्होंने प्रतिसमय कर्म-प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणी निर्जरा की, उनकी स्थिति आदिका विधान किया, दण्डप्रतर आदि लोकपूरणसमुद्घात किया, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यानके द्वारा योगोंका वैभव नष्ट किया, औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीन शरीरोंके सम्बन्धको पृथक् किया, और सातिशय विशुद्धताको प्राप्त हो व्युपरतक्रियानिवर्ती नामक चतुर्थ शुक्लध्यानके आश्रयसे अनन्तज्ञानादि आठ गुणोंको प्राप्त किया ॥५२॥ इस प्रकार चैत्र दिन जब कि चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्रपर था, प्रातःकालके समय प्रतिमायोग धारण करनेवाले भगवान् अजितनाथने मुक्तिपद प्राप्त किया ॥५३॥
जो पहले विमलवाहन भवमें युद्धके समय दुर्जेय रहे, फिर पापनाशक तपश्चरणमें उद्यत रहे, तदनन्तर विजयविमानमें सुखके भण्डार स्वरूप श्रेष्ट देव हुए उन अजित जिनेन्द्रको हे भव्यजीवो!
१ समृद्धः ख०, ग०। २ दिव्यध्वनिरहितः। ३ निर्जराम् । ४ गुणसंज्ञया क०, ५०।
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