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अष्टचत्त्वारिंशत्तम पर्व
देवी विजयसेनाख्यां षोडशस्वमपूर्वकम् । प्रविशन्तं विलोक्यात्मवक्त्राब्जं गन्धसिन्धुरम् ॥ २२॥ प्रातः पृष्टवती स्वमान् देशावधिविलोचनः । जितशत्रुर्महाराजः फलान्येषामबूबुधत् ॥ २३ ॥ विजयादागतं देवं तदर्भ स्फटिकामलम् । विमलानुगसज्ञान नेत्रत्रितयभास्वरम् ॥ २४ ॥ दशम्यां माघमासस्य शुक्लपक्षे प्रजेश्वरम् । प्रजेशयोगे नीतिवो महोदयमसूत सा ॥ २५ ॥ सागरोपमकोटीनां लक्षाः पञ्चाशदुत्तरे । मुक्तिमाये जिने याते तदभ्यन्तरजीविनः ॥ २६ ॥ तदा विधाय देवेन्द्रा मन्दरे सुन्दराकृतेः । जन्माभिषेककल्याणमजिताख्यामकुर्वत ॥ २७ ॥ द्वासप्ततिगुणा लक्षाः पूर्वाणामस्य जीवितम् । चतुःशतानि पञ्चाशदुत्सेधो धनुषां मतः ॥ २० ॥ भतु: सुवर्णवर्णस्य पादे४ स्वस्यायुषो गते । अजितस्य जिताशेषबाह्याभ्यन्तरविद्विषः ॥ २९ ॥ पूर्वाणां लक्षया हीन भागत्रितयमायुषः । पूर्वाङ्गमपि नापत्यं निर्जितादित्यतेजसः ॥ ३० ॥ स्वया सम्भोगसौख्यस्य पर्यन्तोऽयं ममेति वा । राज्यलक्षया परिष्वक्तः श्लाघ्यान् भोगानभुङ्क्त सः ॥३१॥ स कदाचित्सुखासीनः सौधपृष्ठे विशां पतिः । उल्कामलोकतानल्पां जल्पन्तीवाध्र वां श्रियम् ॥ ३२॥ विषयेषु तदैवासौ विदा निर्विविदे वरः । लक्ष्मीमभ्यर्णमोक्षाणां क्षेप्तुं किं वा न कारणम् ॥ ३३ ॥ ब्रह्मलोकात्तदाभ्येत्य सुराः सारस्वतादयः । मुनीश्वराः प्रशस्योच्चैस्तत्तदेवान्ववादिषुः ॥ ३४ ॥
ब्राह्ममुहूर्तके पहले महारानी विजयसेनाने सोलह स्वप्न देखे। उस समय उसके नेत्र बाकी बची हुई अल्प निद्रासे कलुषित हो रहे थे। सोलह स्वप्न देखनेके बाद उसने देखा कि हमारे मुखकमलमें एक मदोन्मत्त हाथी प्रवेश कर रहा है। जब प्रातःकाल हुआ तो महारानीने जितशत्रु महाराजसे स्वप्नोंका फल पूछा और देशावधिज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाले महाराज जितशत्रुने उनका फल बतलाया कि तुम्हारे स्फटिकके समान निर्मल गर्भ में विजयविमानसे तीर्थंकर पुत्र अवतीर्ण हुआ है। वह पुत्र, निर्मल तथा पूर्वभवसे साथ आनेवाले मति-श्रुत-अवधिज्ञानरूपी तीन नेत्रोंसे देदीप्यमान है ।। २१-२४ ॥ जिस प्रकार नीति, महान् अभ्युदयको जन्म देती है उसी प्रकार महारानी विजयसेनाने माघमासके शुक्लपक्षकी दशमी तिथिके दिन प्रजेशयोगमें प्रजापति तीर्थकर भगवान्को जन्म दिया ॥२५॥ भगवान आदिनाथके मोक्ष चले जानेके बाद जब पचास लाख करोड़ सागर वर्ष बीतचुके तब द्वितीय तीर्थकरका जन्म हुआ था। इनकी आयु भी इसी अन्तरालमें सम्मिलित थी। जन्म होते ही, सुन्दर शरीरके धारक तीर्थंकर भगवान्का देवोंने मेरुपर्वतपर जन्माभिषेक कल्याणक किया
और अजितनाथ नाम रक्खा ॥२६-२७ ।। इन अजितनाथकी बहत्तर लाख पूर्वकी आयु थी और चार सौ पचास धनुष शरीरकी ऊँचाई थी। अजितनाथ स्वामीके शरीरका रङ्ग सुवर्णके समान पीला था। उन्होंने बाह्य और आभ्यन्तरके समस्त शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर ली थी। जब उनकी आयुका वतांश बीत चुकातब उन्हें राज्य प्राप्त हुआ। उस समय उन्होंने अपने तेजसे सूर्यका तेज जीत लिया था। एक लाख पूर्व कमअपनी आयुके तीनभाग तथा एक पूर्वाङ्ग तक उन्होंने राज्य किया। 'देखू , आपके साथ सम्भोगमुखका अन्त आता है या मेरा ही अन्त होता है' इस विचारसे राज्यलक्ष्मीके द्वाराआलिंगित हुए भगवान अजितनाथने प्रशंसनीय भोगोंका अनुभव किया॥२८-३१।।
किसी समय अजितनाथ स्वामी महलकी छतपर सुखसे विराजमान थे कि उन्होंने लक्ष्मीको अस्थिर बतलानेवाली बड़ी भारी उल्का देखी ॥३२।। ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ अजितनाथ स्वामी उसी समय विषयोंसे विरक्त हो गये सो ठीक ही है क्योंकि जिन्हें शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त होनेवाला है उन्हें लक्ष्मीको छोड़नेके लिए कौन-सा कारण नहीं मिल जाता ? ॥ ३३ ॥ उसी समय सारस्वत आदि देवर्षियों अर्थात् लौकान्तिक देवोंने ब्रह्मस्वर्गसे आकर उनके विचारोंकी बहुतभारी प्रशंसा तथा पुष्टि की ॥३४॥
१मत्तहस्तिनम् । २ मतिश्रुतावधिज्ञानानि एव नेत्रत्रितयम्। ३ भास्करम् ग० ४ चतुर्थभागे। ५ नृपतेः कार्य नार्पत्यं राज्यम् । ६ 'जल्पन्तीमध्रवां श्रियम्' इति पाठः शुद्धो भाति । ७ सौयः क०, ख०, ग०,०।
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