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महापुराणे उत्तरपुराणम् शार्दूलविक्रीडितम्
इत्थं षोडशभावनाहितमहापुण्योदयापादकः
धर्मः शर्मपरम्परां प्रविदधत्ते शिवे शाश्वते
सद्ध्यानात्खलकर्मजालमखिलं निर्मूलयनिर्मलः ।
तस्माद्धर्ममुपाद्ध्वमुज्झितमदाः शुद्धाप्तबुद्धं बुधाः ॥ ५५ ॥ तीर्थकृत्सु द्वितीयोऽपि योऽद्वितीयपथस्तुतः । स विधेयात् पुराणोरुमार्गनिर्वहणं कवेः ॥ ५६ ॥ तत्तीर्थे सगराभिख्यो द्वितीयश्चक्रवर्तिनाम् । अभूत् पुराणमेतस्य शृणु श्रेणिक धीधन ॥ ५७ ॥ atus प्राविदेहस्य सीतापाग्भागभूषणे । विषये वत्सकावत्यां पृथिवीनगराधिपः ॥ ५८ ॥ जयसेनो जनैः सेव्यो जनसेनास्य वल्लभा । रतिषेणस्तयोः सूनुर्धृतिषेणश्च तावुभौ ॥ ५९ ॥ सूर्याचन्द्रमसौ जित्वा सदा भातः कृतोदयौ । पितरौ च (न) मरुन्मार्गपृथिव्यौ वा ततः पृथक् ॥ ६० ॥ कदाचिद्रतिषेणोऽभूत् कृतान्तमुखगह्वरे । केनापि हेतुना किं वा न मृत्योर्हेतुतां व्रजेत् ॥ ६१ ॥ 3सजानिं जयसेनाख्यं ४सलतं चामरद्रुमम् । " शोकाशनिरवाधिष्ट तन्मृत्युधननिर्गतः ॥ ६२ ॥ ६ प्रलयः प्राप्तकालस्तावालिलिङ्ग यमाग्रगः । लब्धरन्ध्रा न तिष्ठेयुरकृत्वापकृतिं द्विषः ॥ ६३ ॥ भिषक्प्रायोर्जितोपायैः शनैः संलब्धचेतनौ । गुरुणा गुरुणेवैष तेन दुःखेन बोधितः ॥ ६४ ॥ विग्रहं तद्गृहं मत्वा निगृहीतु कृताग्रहः । हन्तु ं यमं समुद्युक्तस्तद्धि युक्तं मनस्विनाम् ॥ ६५ ॥
नमस्कार करो ॥ ५४॥ चूँकि धर्म सोलह भावनाओं से महापुण्य तीर्थंकर प्रकृतिको उत्पन्न करता है, श्रेष्ठ ध्यानके प्रभावसे समस्त दुष्ट कर्मों के समूहका नाश कर देता है, स्वयं निर्मल है, सुखकी परम्परा को करनेवाला है और नित्य मोक्षसुखको देता है इसलिए शुद्ध तथा आप्तोपज्ञ धर्मकी हे विद्वज्जनो ! मदरहित होकर उपासना करो ।। ५५ ।। जो तीर्थंकरों में द्वितीय होनेपर भी श्रुतके मार्ग में अद्वितीय हैं - अनुपम हैं वे अजितनाथ भगवान्, कविको पुराणका विशाल मार्ग पूरा करनेमें सहायता प्रदान करें ॥ ५६ ॥
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सगर चक्रवर्तीका वर्णन
द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ के तीर्थमें सगर नामका दूसरा चक्रवर्ती हुआ । हे बुद्धिमान् श्रेणिक ! तू अब उसका चरित्र सुन ॥ ५७ ॥ इसी जम्बूद्वीपके पूर्व विदेहमें सीता नदीके दक्षिण तटपर वत्सकावती नामका देश है । उसमें पृथिवी नगरका अधिपति, मनुष्योंके द्वारा सेवनीय जयसेन नामका राजा था। उसकी स्त्रीका नाम जयसेना था । उन दोनोंके रतिषेण और धृतिषेण नामके दो पुत्र थे । ५६-५६ ॥ वे भाग्यशाली दोनों पुत्र अपने तेजसे सदा सूर्य और चन्द्रमाको जीतते हुए शोभित होते थे । उनके माता-पिता आकाश और पृथिवीके समान उनसे कभी पृथक् नहीं रहते थे अर्थात् स्नेह के कारण सदा अपने पास रखते थे || ६०|| एक दिन किसी कारणवश रतिषेण की मृत्यु हो गई सो ठीक ही है क्योंकि मृत्युका कारण क्या नहीं होता ? अर्थात् जब मरणका समय आता है तब सभी मृत्युके कारण हो जाते हैं ॥ ६१ ॥ रतिषेणकी मृत्युरूपी मेघसे निकले हुए शोकरूपी वज्रने लतासहित कल्पवृक्ष के समान भार्यासहित राजा जयसेनको बाधित किया-दुखी किया ॥ ६२ ॥ उस समय अवसर पाकर यमराजके आगे-आगे चलनेवाली मूर्च्छाने उन दोनोंका आलिंगन किया अर्थात् वे दोनों मूच्छित हो गये सो ठीक ही है क्योंकि छिद्र, प्राप्त करनेवाले शत्रु अपकार किये बिना नहीं रहते ।। ६३ ।। जब वैद्यजनोंके श्रेष्ठ उपायोंके द्वारा धीरे-धीरे वे चैतन्यको प्राप्त हुए तो बृहस्पतिके समान श्रेष्ठ गुरुने राजा जयसेनको बड़ी कठिनाईसे समझाया ।। ६४ ।। तदनन्तर वह इस शरीरको दुःखका घर मानकर उसका निग्रह करनेके लिए आग्रह करने लगा । और यमराजको मारने
१ योऽद्वितीयः पथि श्रुते क०, ग० । पथि स्तुते ख०, घ० । २ आकाश पृथिव्यौ । ३ सभार्यम् । ४ लतोपेतं कल्पवृक्षमिव । ५ शोकवज्रम् । ६ मूर्च्छा ।
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