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अष्टचत्त्वारिंशत्तम पर्व
इत्युक्तः संसृतेर्भूपो वेपमानोऽपि नापतत् । पन्थानं निवृतेर्बद्धः पुत्रशृङ्खलया दृढम् ॥ १४ ॥ नातिहस्वोऽस्य संसार इत्ययात्स विषादवान् । उपायो निष्फलः कस्य न विषादाय धीमतः ॥ ९५ ॥ वशीकृतेन साम्राज्यतुच्छलक्ष्म्या निधीशिना । विस्मृताऽच्युतलक्ष्मीश्च कामिनां कान्तरज्ञता ॥ ९६ ॥ २लाभो लाभेषु पुत्राणां लाभः स्वर्गापवर्गयोः । लक्ष्यो साविति स्मृत्वा मन्येऽस्यां सोऽनुषक्तवान् ॥१७॥ कदाचित्ते सुता हप्ताः सिंहपोता इवोद्धताः । इति विज्ञापयामासुः सभास्थं चक्रवर्तिनम् ॥ ९८ ॥ यदि क्षत्रियपुत्राणां शौर्यसाहसशालिनाम् । यौवनं न पितुः ४प्रेषे दुःसाध्ये साधितेप्सितम् ॥ ९९ ॥ किं तेन जन्मना तेन जन्मिनो जीवितेन वा । ननु तत्सर्वसामान्य जन्मजीवितयोर्द्वयम् ॥ १०० ।। तदादिश विशामीश प्रैषं नः साहसावहम् । “पात्रेसमिततादैन्यं येनैनो वा निरस्यते ॥ १.१॥ तदाकर्ण्य मुदा पुत्राः सर्व चक्रण साधितम् । भो कि यन मे सिद्धं मध्ये हिमसमुद्रयोः॥१.२॥ पुष एवं मम प्रैषो राज्यलक्ष्मीमिमा मम । सम्भूय भूयसी यूयमनुभूध्वं यथोचितम् ॥ १०३ ।। इति भूयो नरेन्द्रण तेन ते सुनिवारिताः। जोषमास्थुर्विधेया हि पितणां शुद्धवंशजाः ॥ १०४ ॥ तेऽन्येद्युः पुनरासाद्य नृपं व्यज्ञापयमिदम् । न भुज्महे न चेत्प्रैष इत्यभ्यर्णात्मशुद्धयः ॥ १०५॥ तच्छुत्वैष स कः प्रैष' इति चिन्तयता मनाक । नन्वस्ति कार्यशेषोऽयं धर्म इत्यात्तहष्टिना ॥ १०६ ॥
मणिकेतुके इस प्रकार कहने पर वह चक्रवर्ती संसारसे भयभीत तो हुआ परन्तु मोक्षमार्गको प्राप्त नहीं कर सका क्योकि पुत्ररूपी सॉकलोसे मजबूत बंधा हुआ था।६४॥'अभी इसका संसार बहुत बड़ा है। इस प्रकार विषाद करता हुआ मणिकेतु चला गया सो ठीक ही है क्योंकि निष्फल उपाय किस बुद्धिमानको विषाद नहीं करता ? ॥६५॥ वह देव सोचने लगा कि देखो साम्राज्यकी तुच्छ लक्ष्मीसे वशीभूत हुए चक्रवर्तीने अच्युत स्वर्गकी लक्ष्मी भुला दी सो ठीक ही है क्योंकि कामी मनुष्योंको अच्छे-बुरे पदार्थोंके अन्तरका ज्ञान कहाँ होता है ? ॥६६॥ मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि यह चक्रवर्ती सब लाभोंमें पुत्र-लाभको ही लाभ मानता है, स्वर्ग और मोक्षलक्ष्मीका लाभ इसके लिए लाभ नहीं है, ऐसा समझकर ही यह पुत्रोंमें अत्यन्त लीन हो रहा है ॥७॥
किसी समय सिंहके बच्चोंके समान उद्धत और अहङ्कारसे भरे हुए वे राजपुत्र सभामें विराजमान चक्रवर्तीसे इस प्रकार निवेदन करने लगे कि शूरवीरता और साहससे सुशोभित क्षत्रिय-पुत्रोंका यौवन यदि दुःसाध्य कार्यमें पिताका मनोरथ सिद्ध नहीं करता तो वह यौवन नहीं है। ऐसे प्राणीके जन्म लेने अथवा जीवन धारण करनेसे क्या लाभ है ? जन्म लेना और जीवन धारण करन ही सर्वसाधारण हैं अर्थात् सब जीवोंके होते हैं। इसलिए हे राजन् ! हम लोगोंको साहससे भरा हुआ कोई ऐसा कार्य बतलाइये कि जिससे हमारी केवल भोजनमें सम्मिलित होनेसे उत्पन्न होनेवाली दीनता अथवा अधर्म दूर हो सके ॥८-१०१॥
यह सुन चक्रवर्तीने हर्षित होकर कहा कि 'हे पुत्रो ! चक्रसे सब कुछ सिद्ध हो चुका है, हिमवान् पर्वत और समुद्रके बीच ऐसी कौनसी वस्तु है जो मुझे सिद्ध नहीं हुई है ? तुम्हारे लिए मेरा यही काम है कि तुम लोग मिलकर मेरी इस विशाल राज्यलक्ष्मीका यथायोग्य रीतिसे उपभोग करो ॥१०२-१०३।। इस प्रकार राजाने जब उन्हें बहुत निवारण किया तब वे चुप हो रहे सो ठीक ही है क्योंकि शुद्ध वंशमें उत्पन्न हुए पुत्र पिताके आज्ञाकारी ही होते हैं ॥ १०४ ॥ आत्मशुद्धिसे भरे वे राजपुत्र किसी एक दिन फिर राजाके पास जाकर कहने लगे कि यदि आप हम लोगोंको कोई कार्य नहीं देते हैं तो हम भोजन भी नहीं करते हैं । १०५॥ पुत्रोंका निवेदन सुनकर राजा कुछ चिन्तामें पड़ गये । वे सोचने लगे कि इन्हें कौनसा कार्य दिया जावे । अकस्मात् उन्हें याद आ गई
१ विस्मृताच्युतलक्ष्मीश्च क०, ख०, ग०, घ० । विस्मृतोऽच्युत ल०। २ लाभालाभेषु क०, घ०। । सूर्य क०, १०, । ४ प्रेष्यदुःसाध्ये ग० । ५ मात्रभोजनसंमेलनजन्यदैन्यम् । ६ पापमिव । ७ नृपेन्द्रण क०, ख०, ग०, १०८ श्राधीनाः अाज्ञाकारिण इति यावत् । ६ प्रेष्य ग० ।
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