Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थचिन्तामणिः
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इस सूत्र के पूर्ववत "विशुद्धिक्षेत्रस्त्रामिविषयेभ्यो ऽधिमनः पर्यययोः " सूत्रमें कण्ठद्वारा कहा गया विषय शब्द यहां अनुवर्तन कर लिया जाता है । यद्यपि वह विषय शब्द " विशुद्धि, क्षेत्र " आदिके साथ सबको प्राप्त हो रहा है, तो भी प्रयोजन होनेसे विशुद्धि आदिक और पंचमी विभक्ति रहित होकर केवल विषय शब्दकी ही अनुवृत्ति कर ली जाती है। अर्थात् - एकयोगनिर्दिष्टानां सह वा प्रवृत्तिः सह वा निवृत्तिः", एक संबंधद्वारा जुडे हुये पदार्थों की एक साथ प्रवृत्ति होती है, अथवा सबकी एक साथ ही निवृत्ति होती है । इस नियम के अनुसार विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामि, इन तीन पदोंके साथ इतरेतरयोग- भावको प्राप्त हो रहा विषय शब्द अकेला नहीं खींचा जा सकता है । फिर भी प्रयोजनवश " कचिदेकदेशोऽप्यनुवर्तते " इस ढंग से अकेला विषय शब्द ही अनुवृत्त किया जा सकता है । " देवदत्तस्य गुरुकुलं " यहां गुरुकुलमें सहयोगी हो रहे, अकेले गुरुपदको आकर्षित कर देवदत्त को वहां अन्वित कर दिया जाता है ।
विशुद्धिक्षेत्र स्वामिविषयेभ्योऽवधिमनः पर्यययोरित्यस्मात्सूत्रात्तद्विषय शब्दोऽत्रानुवर्तते । कथं स विशुध्यादिभिः सहयोगमा श्रयन्नपि केवलः शक्योऽनुवर्तयितुं १ सामर्थ्यात् । तथाहि - न तावद्विशुद्धेरनुवर्त्तनसामर्थ्य प्रयोजनाभावात् तत एव न क्षेत्रस्य स्वामिनों वा सूत्रसामर्थ्याभावात् ।
" विशुद्धिक्षेत्रस्त्रामिविषयेभ्योऽधिमनः पर्यययोः " इस प्रकार इस सूत्र से वह विषय शत्रू यहां अनुवृत्ति करने योग्य हो रहा है। इसपर कोई प्रश्न करे कि विशुद्धि, क्षेत्र, आदिके साथ संबंध का आश्रयकर रहा भी विषय शब्द केवळ अकेला ही कैसे अनुवर्तित किया जा सकता है ! बताओ, तो इसका उत्तर यों है कि पहिले पीछेके पदों और वाध्य अर्थकी सामर्थ्य से केवल विषय शब्द अनुवर्तनीय हो जाता है। इसी बातको विशदकर दिखलाते हैं कि सबसे पहिले कही गयी विशुद्धिकी अनुवृत्ति करने की तो यहां सामर्थ्य प्राप्त नहीं है । क्योंकि प्रकरणमें विशुद्धिका कोई प्रयोजन नहीं है और तिस ही कारण यानी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होनेसे क्षेत्रकी अथवा स्वामी शब्दकी भी अनुवृत्ति नहीं हो पाती है । सूत्रकी सामर्थ्य के अनुसार ही पदोंकी अनुवृत्ति हुआ करती है । किन्तु यहां विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी, इन पदोंकी अनुवृत्ति करनेके लिए सूत्रकी सामर्थ्य नहीं है । " समर्थः पदविधिः ” अतः केवल विषय शब्द ही यहां सूत्रकी सामर्थ्य से अनुवृत्त किया गया है ।
नन्वेवं द्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु निबन्धन इति वचनसामर्थ्याद्विषयशब्दस्यानुवर्त्तने विषयेविति कथं विषयेभ्य इति पूर्वे निर्देशा तथैवानुवृत्तिप्रसंगादित्याशंका यामाह ।
यहां शंका उपजती है कि इस प्रकार तो द्रव्यों में और असर्वपर्यायों में मतिश्रुतोका निबन्ध हो रहा है। इस प्रकार वचनकी सामर्थ्य से विषयशब्दकी अनुवृत्ति करनेपर " विषयेषु 39 ऐसा सप्तमी विभक्तिका बहुवचनान्तपद कैसे खींचकर बनाया जा सकता है ? क्योंकि पूर्वसूत्र में तो
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