Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
संपति के मतिश्रुते कश्च निबन्धः कानि द्रव्याणि के वा पर्याया इत्याह ।
अब इस समय सूत्रमें उपात्त किये गये पदोंके अनुसार प्रश्न खडे होते हैं कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान कौन हैं ? और निबन्धका अर्थ क्या है ? तथा द्रव्य कौन है ? अथवा पर्यायोंका लक्षण क्या है ? इस प्रकार प्रश्नमाला होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी एक ही वार्तिक द्वारा उत्तर कहें देते हैं। अधिक झगडेमें कौन पडे ।
मतिश्रुते समाख्याते निबन्धो नियमः स्थितः ।
द्रव्याणि वक्ष्यमाणानि पर्यायाश्च प्रपंचतः ॥२॥ __ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तो पूर्वप्रकरणोंमें भले प्रकार व्याख्यान किये गये हो चुके हैं। और निबन्धका अर्थ यहाँ नियम ऐसा व्यवस्थित किया है। द्रव्योंका परिभाषण भविष्य पांचवें अध्यायमें कर दिया जावेगा। तथा पर्यायें भी विस्तारके साथ भविष्य ग्रन्थमें वखान दी जावेंगी। अर्थात्-पतिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशम होनेपर इन्द्रिय और मनःस्वरूप निमित्तोंसे हो रहा अभिमुख नियमित पदार्थोको जाननेवाला ज्ञान मतिज्ञान है । श्रुतज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर जो सुना जाय यानी अर्थसे अर्थान्तरको जाननेवाला, मतिपूर्वक, परोक्षज्ञान, श्रुतज्ञान है। इस प्रकार मति, श्रुतका विवरण कहा जा चुका है। निबन्धका अर्थ नियत करना या मर्यादामें बांध देना है । जीव आदि छह द्रव्य और उनकी ज्ञान, सुख, रूप, रस, काला, पीला, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहहेतुत्व, वर्तनाहेतुस्त्र आदि सहभावी क्रमभावी पर्यायोंको मूल प्रन्थमें आगे कह दिया जावेगा । सन्तुष्यताम् तावत् ।
- ततो मतिश्रुतयोः प्रपंचेन व्याख्यातयोर्वक्ष्यमाणेषु द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु निबन्धी नियमः प्रत्येतव्य इति सूत्रार्थो व्यवतिष्ठते ।
तिस कारण इस सूत्रका अर्थ यो व्यवस्थित हो जाता है कि विस्तारके साथ व्याख्यान किये जा चुके मतिज्ञान श्रुतज्ञानोंका भविष्य ग्रन्थमें कहे जानेवाले विषयभूत सम्पूर्ण द्रव्योंमें और असंपूर्ण माने कतिपय पर्यायोंमें निबन्ध यानी नियम समझ लेना चाहिये ।
विषयेष्वित्यनुक्तं कथमत्रावगम्यत इत्याह । -
इस सूत्रों " विषयेषु " यह शब्द नहीं कहा है तो फिर अनुक्त वह शब्द भला किस प्रकार समक्ष लिया जाता है ! यह बताओ, ऐसा प्रश्न हो उठनेपर श्री विद्यानन्दस्वामी उत्तर कहते हैं।
पूर्वसूत्रोदितश्चात्र वर्तते विषयध्वनिः । केवलोऽर्थाद्विशुद्धयादिसहयोगं श्रयन्नपि ॥ ३॥