Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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स्वार्थ लोक वार्तिके
एवं मत्यादिबोधानां सभेदानां निरूपणम् । कृतं न केवलस्यात्र भेदस्याप्रस्तुतत्वतः ॥ ५ ॥ वक्ष्यमाणत्वतश्चास्य घातिक्षयजमात्मनः । स्वरूपस्य निरुक्त्यैव ज्ञानं सूत्रे प्ररूपणात् ॥ ६ ॥
इस प्रकार यहांतक भेदों सहित मति आदिक चार क्षायोपशमिक ज्ञानोंका सूत्रकारने निरूपण कर दिया है । केवळंज्ञानका यहां ज्ञानप्रकरणमें प्ररूपण नहीं किया गया है। क्योंकि यहां ज्ञानके भेदों के व्याख्यान करनेका प्रस्ताव चल रहा था । केवलज्ञानके कोई भेद नहीं है । वह तो तेरहवें गुणस्थानकी आदि जैसा उत्पन्न होता है, उसी प्रकार अनन्तकालतक एकसा बना रहता है । अतः भेद कथन के प्रकरण में केवलज्ञान प्रस्तावप्राप्त नहीं है । रही कारणोंके निरूपण करनेकी बात, सो भविष्य दशमें अध्यायमें आत्माके बातिकर्मोके क्षयसे इस केवलज्ञानका उत्पन्न होना कह दिया जायगा । इस केवलज्ञानके स्वरूप ( लक्षण ) का ज्ञान तो " मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम् इस सूत्र में केवलशद्वकी निरुक्ति करके ही प्ररूपित कर दिया गया है । अतः health लक्षण या कारणके कथनका उल्लंघन कर अब दूसरा विषय छेडेंगे ऐसा ध्वनित हो रहा है।
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इस सूत्र का सारांश |
इस सूत्र प्रकरण यों है कि पहिले साधारण बुद्धिवालोंके लिये अतीन्द्रिय हो रहे अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानके विलक्षण विशेषोंको प्रदर्शन करानेके लिये श्री उमास्वामी महाराजका सूत्र कहना सफल बताकर विशुद्धि आदिका लक्षण किया है। तथा विशुद्धिमें मन:पर्ययको अवधि से अधिक विशुद्धिवाला कहा गया है । क्षेत्रकी अपेक्षा अवधि ही मन:पर्ययसे प्रधान है । देशावधिका ही क्षेत्र लोक हो जाता है । परमावधि और सर्वावधि तो असंख्यात लोकों में यदि रूपी पदार्थ ठहर जाय तो उनको भी जान सकती थी । श्री धनंजय कविकी उक्ति है कि " त्रिकालतत्त्वं त्वमवैस्त्रिलोकी स्वामीति संख्यानियतेरमीषां । बोधाधिपत्यं प्रति नाभविष्यत् तेन्येपि चेद्व्याप्स्यदमूनमीदम् ॥ हे जिनेंद्रदेव ! तुम तीनों कालके तत्वोंको जान चुके हो, तुम तीनों लोकके स्वामी हो, यह उन काल और लोकोंकी त्रित्वसंख्या के नियत हो जानेसे कह दिया जाता है । ज्ञानका अविपतिपना इतने से ही पर्याप्त नहीं हो जाता है । यदि काल और लोक अन्य भी सैकडों, करोडों, असंख्याते, होते तो तुम्हारा ज्ञान उनको भी द्राक् विषय कर लेता । किन्तु क्या किया जाय, वे हैं ही नहीं । इस लोक- " त्रयमें ज्ञेय अल्प हैं । ज्ञान उत्कृष्ट अनन्तानन्त है । इस प्रकरण में शक्तिकी अपेक्षा अवधिज्ञान भी असंख्यात लोकस्थरूपी पदार्थोंको विषय कर सकता था, कह दिया है । किन्तु असंख्यात लोक हैं ही 1
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