Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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शास्त्रका पूर्णरूप से अध्ययन कर व्याख्यान करता है । इसी प्रकार सर्वावधिका द्रव्य अपेक्षा विषय बहुत है । श्री नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवतीने तो सर्वावधिका द्रव्य एक परमाणु नियत किया है । फिर भी भावकी अपेक्षा बहुतसी अर्थपर्यायोंको विपुलमति जितना जानता है, उतना सर्वाधि नहीं जानता है | अतः अधिक विशुद्धिवाला मन:पर्ययज्ञान अल्पविशुद्धिवाले अवधिज्ञान से विशिष्ट है । ओर न्यून विशुद्धिवाला अवधिज्ञान उस विपुलविशुद्धिवाले मन:पर्ययसे विशेष आक्रान्त है । द्रव्यक्षेत्र अपेक्षा अधिक भी द्रव्योंको जाननेवाले क्षयोपशमसे भावापेक्ष सूक्ष्मपर्यायोंको जाननेवाला क्षयोपशम प्रकृष्ट विशुद्ध है ।
क्षेत्रतोऽवधिरेवातः परमक्षेत्रतामितः ।
स्वामिना त्ववधेः सः स्याद्विशिष्टः संयतः प्रभुः ॥ ३ ॥
क्षेत्रकी अपेक्षासे तो अवधिज्ञान ही इस मन:पर्यय से परम उत्कृष्ट क्षेत्रत्रालेपनको प्राप्त हो रहा है । अर्थात् — सम्भावनीय असंख्यात लोकस्थरूपी पदार्थोंको जानने की शक्तिवाला अवधिज्ञान ही केवल मनुष्य लोकस्थ पदार्थोंको विषय करनेवाले मन:पर्यय से विशेषित है । इस तीन सौ तेतालीस घन रज्जु प्रमाण लोकके समान यदि अन्य भी असंख्याते लोक होते तो वहांके रूपी पदार्थों को भी अवधिज्ञान जान सकता था । किन्तु मन:पर्यय ज्ञान तो केवल चौकोर मनुष्य लोकमें ही स्थित हो रहे पदार्थोंको विषय कर सकता है । अतः क्षेत्रको अपेक्षा अवधिज्ञान ही मन:पर्ययसे प्रकृष्ट है । तथा स्वामीकरके तो वह मन:पर्ययज्ञान ही अवधिज्ञानसे उत्कृष्ट है । क्योंकि अवधिज्ञान तो चौथे गुणस्थानसे प्रारम्भ हो जाता है । चारों गतियोंमें पाया जाता है । किन्तु मन:पर्यय छडेसे ही आरम्भ होकर किसी किसी ऋद्धिधारी मुनिके उत्पन्न होता है । अतः जिसका स्वामी संयमी है, ऐसा मन:पर्ययज्ञान उस असंयमीके भी पायी जानेवाली अवधिसे विशिष्ट है । सर्वावधिक ईश्वरसे भी विपुलमतिका संयमी स्वामी प्रकृष्ट है ।
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विषयेण च निःशेषरूप्यरूप्यर्थगोचरः । रूप्यर्थगोचरादेव तस्मादेतच्च वक्ष्यते ॥ ४ ॥
- सम्पूर्ण रूपी और पुद्गलसे बंधे हुये सम्पूर्ण अरूपी अर्थोको विषय करनेवाला यह मन:पर्ययज्ञान उस रूपी अर्थको ही विषय करनेवाले अवधिज्ञानसे विषयकी अपेक्षा करके विशिष्ट है । अर्थात् - रूपी पुगलकी पर्यायें और अशुद्धजीवकी अरूपी सूक्ष्म अर्थपर्यायोंको मन:पर्यय जितना जानता है, अत्रधिज्ञान उतना नहीं । इस मन्तव्यको हम भविष्य ग्रन्थमें रूपिष्णवधेः " " तदनन्तभागे मन:पर्ययस्य " इन सूत्रोंके विवरण करते समय स्पष्ट कर कह देवेंगे । पूर्वके समान यहां भी दोनोंमें विषयकी अपेक्षा विशेषसहितपना लगा लेना । क्योंकि विशेष द्विष्ठधर्म है । तथा च विषयकी अपेक्षा उस मन:पर्ययसे यह अवधिज्ञान भी विशिष्ट है ।
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