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श्रीमद राजचन्द्र प्राप्त होते है। इस जगतमे धन, यौवन, जीवन और परिवार सब क्षणभंगुर है। संसारी मिथ्यादृष्टि जीव इन्हें अपना स्वरूप, अपना हित मानता है। अपने स्वरूपकी पहचान हो तो परको अपना स्वरूप क्यो माने ? समस्त इन्द्रियजनित सुख जो दृष्टिगोचर होता है, वह इन्द्रधनुषके रगोकी भाँति देखते ही देखते नष्ट हो जाता है। जवानीका जोश सध्याकालकी लालीकी भॉति क्षण क्षणमे विनाशको प्राप्त होता है । इसलिये, यह मेरा गाव, यह मेरा राज्य, यह मेरा घर, यह मेरा धन, यह मेरा कुटुम्ब, इत्यादि विकल्प करना ही महामोहका प्रभाव है । जो-जो पदार्थ आँखसे देखनेमे आते है, वे सब नष्ट हो जायेंगे, इन्हे देखने जाननेवाली इद्रियाँ भी अवश्य नष्ट हो जायेगी। इसलिये आत्महितके लिये ही शीघ्र उद्यम करें। जैसे एक जहाजमे अनेक देशो और अनेक जातियोके मनुष्य इकट्ठे होकर बैठते है और फिर किनारे पर पहुँचकर विविध देशोकी ओर चले जाते है, वैसे कुलरूप जहाजमे अनेक गतियोसे आये हुए प्राणी एक साथ रहते है, फिर आयु पूरी होने पर अपने-अपने कर्मानुसार चारो गतियोमे जाकर उत्पन्न होते हैं । जिस देहसे स्त्री, पुत्र, मित्र, भाई आदिके साथ सबध मानकर रागी हो रहा है, वह देह अग्निसे भस्म हो जायेगी, फिर मिट्टोमे मिल जायेगी । तथा इसे जीव खायेंगे तो विष्ठा एव कृमिकलेवररूप हो जायेगी। इसके परमाणु एक-एक करके जमीन और आकाशमे अनत विभागरूपमे बिखर जायेगे, फिर कहाँसे मिलेंगे? इसलिये यह निश्चित समझें कि इसका संबंध फिर प्राप्त नही होगा। स्त्री, पुत्र, मित्र, कुटुंब आदिमे ममता करके धर्म बिगाडना, यह महान अनर्थ है। जिन पुत्र, स्त्री भाई, मित्र, स्वामी, सेवक आदिके सहवासके सुखसे जीवन चाहते हैं, वह समस्त कुटु ब शरत्कालके बादलोकी तरह बिखर जायेगा। यह संबध जो इस समय दिखायी देता है वह नही रहेगा, जरूर बिखर जायेगा, ऐसा नियम समझें । जिस राज्यके लिये और जमीनके लिये तथा हाट, हवेली, मकान एव आजीविकाके लिये हिसा, असत्य, छल-कपटमे प्रवृत्ति करते हैं, भोले भालोको ठगते है, स्वय बलवान होकर निर्वलको मारते हैं, उस समस्त परिग्रहका सबध आपसे अवश्य बिछड जायेगा। अल्प जीवनके लिये नरक व तिर्यंचगतिके अनतकाल पर्यंत अनत दुखसतानको ग्रहण न करें। उनके स्वामित्वका अभिमान करके अनेक चले गये, और अनेक प्रत्यक्ष चले जाते हुए देखते है। इसलिये अब तो ममता छोडकर, अन्यायका परिहार करके अपने आत्माके कल्याणके कार्यमे प्रवृत्ति करें। जैसे ग्रीष्म ऋतुमे चौराहेके वृक्षकी छायामे अनेक देशोंके राहगीर विश्राम लेकर अपने-अपने स्थानको चले जाते है, वैसे कुलरूप वृक्षको छायामे साथमे रहे हुएं भाई, मित्र, पुत्र, कुटुब आदि कर्मानुसार अनेक गतियोंमे चले जाते हैं। जिनसे आप अपनी प्रीति मानते हैं वे सभी मतलबके है। आँखके रागकी भॉति क्षणमात्रमे प्रीतिका राग नष्ट हो जाता है। जैसे पक्षी पूर्व सकेत किये बिना ही एक वृक्ष पर आकर बसते है, वैसे ही कुटुम्बके मनुष्य सकेत किये बिना कर्मवश इकट्ठे होकर बिखर जाते हैं। यह सब धन, संपदा, आज्ञा, ऐश्वर्य, राज्य और इद्रियोके विषयोकी सामग्री देखते हा देखते अवश्य ही वियोगको प्राप्त हो जायेगी। युवानी मध्याह्नकी छायाकी तरह ढल जायेगी, स्थिर नही रहेगी। चद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र आदि तो अस्त होकर पुनः उदित होते है, और, हेमत , वसत आदि ऋतुएँ भी चली जाकर फिर आ जाती हैं; परतु गई हुई इद्रियाँ, युवानी, आयु, काया आदि वापस नहीं आती। जैसे पर्वतसे गिरनेवाली नदीको तरगे रुके बिना चली जाती है, वैसे ही आयु रुके विना क्षण क्षणमे व्यतीत होती है। जिस देहके अधीन जीना है उस देहको जर्जरित करनेवाली वृद्धावस्था प्रति समय आती है। यह वृद्धावस्था युवानीरूप वृक्षको दग्ध करनेके लिये दावाग्निके समान है। यह भाग्यरूप पुष्पो ( मौर ) के नाशक कुहरेकी वृष्टिके समान है। स्त्रीकी प्रीतिरूप हरिणीके लिये व्याघ्रके समान है। ज्ञाननेत्रको अन्ध करनेके लिये धूलकी वृष्टिके समान है। तपरूप कमलवनके लिये हिमके समान है। दीनताकी जननी है। तिरस्कारको बढ़ानेवाली धायके समान है। उत्साह घटानेके, लिये तिरस्कार जैसी है। रूपंधनको चुरानेवाली है। बलका नाश करनेवाली है। जंघाबलको बिगाडने
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