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_इसप्रकार परम्पर अतिशय प्रेयुमक्त, अत्यंत निर्मल सुख रूपी सरोवरमें मग्न, अत्यंत पवित्र और महान, जिनके चरणों की बंदना बड़े बड़े राजा आकर करते थे, चारों और जिन की कीर्ति फैल रही थी, और समस्त प्रकारके दुःखोंसे रहित, तथा पुण्य मूर्ति वे दोनो राजा रानी इंद्रके समान पुण्यके फलस्वरूप राज्यलक्ष्मीको भोगते थे। राजा उपश्रोणिकने राज्यको पाकर उसे चिरकाल पर्यंत भोग किया और समस्त पृथ्वीको उपद्रवोंसे रहित कर दिया, और उसकेराज्यमें किसी प्रकार के वैरी नहीं रहगये। उनकेलिये ऐसे राज्यये महाराणी इन्द्रीणीके साथ स्थित होना ठीक ही था क्योंकि भव्यजीवाको धर्मकी कृपा से ही राज्यसंपदाकी प्राप्ति होती है, धर्मसे ही अनेक प्रकारके कल्याणोंकी प्राप्ति होती है, धर्मसे उत्तमोत्तम स्त्रियां तथा चक्रवर्तिलक्ष्मी मिलती है और धर्मसेही स्वर्गके विमानोंके समान उत्तमोत्तम घर, आज्ञाकारी उत्तम पुत्र भी मिलते हैं, इसलिये भव्यजीवोंको श्री जिनेद्र भगवानके सारभूत उत्कृष्ट धर्मकी अवश्यही आराधना करनी चाहिये ।
इसप्रकार भविष्यत् कालमें होनवाले श्रीपद्मनाभतीर्थंकरके पूर्वभवके जीव महाराज श्रेणिकके चरित्रमें महाराज उपश्रेणिकको राज्यकी प्राप्तिका वर्णन करने पाला प्रथम सर्ग
समाप्त हुवा।
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