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पुरुषार्थ साथ
दशामें ) रहते समय न सर्वथा शुद्ध आत्मा है न सर्वथा अशुद्ध आत्मा है किन्तु द्रव्यार्थिक से शुद्ध... आत्मा है और पर्यायाकनयसे अशुद्ध आत्मा है ऐसा निर्धार है, अस्तु ॥ ८
कनियोंमें हेयता व उपादेयता बतलाते हैं
oraहारनय यों तो अन्तमें हेय ( त्याज्य ) है ही किन्तु प्रारम्भ में जबतक होन दशा रहती हैं अर्थात् निश्चयेन प्रकट नहीं होता तबतक वह भी अपेक्षाकृत उपादेय माना जाता है क्योंकि वह अशुभसे बचाता है शुद्धके सन्मुख करता है अर्थात् संयोगपर्यायमें रहते हुए भी कुछ विवेक जाग्रत होता है, उसको स्थूल रूपसे अच्छे और बुरेका ज्ञान होता है, कषाय मन्द होती है, शुभरागरूप' परिणाम होता है, परन्तु यह व्यवहारनय है, एकान्तरूप अप्रशस्त व्यवहारनयसे यह भिन्न है । इस व्यवहारनय में पुण्य व पापका खयाल नहीं रहता है अर्थात् दोनोंमेंस पुण्यको अच्छा मानता है, पापको बुरा मानता है, दया करना व्रत पालना शीलसंयम धारण करना, लोकोपयोगी कार्य करना, तीर्थाटन करना आदिको वह पुण्य या धर्म मानता है, जो यथार्थ ( निश्चय ) में धर्म नहीं है-मोक्षका कारण नहीं है, प्रत्युत बंधका कारण है किन्तु व्यवहार या उपचारसे उसको घर्म मान लिया जाता है इत्यादि भूल ही है । लेकिन उससे भी कुछ लाभ या बचत होती है, पापका बंध प्रायः नहीं होता पुण्यका बंध होता है जिससे नवग्रेवेयिकतक चला जाता है-अहमिन्द्र बड़ा विभूतिका धारी हो जाता है, परन्तु रहता मिथ्यादृष्टि हो है वहाँ आत्माकी रक्षा नहीं होतो, आत्माकै
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१. पू.पेचसहिद हे जिसस भाणेयं ।
मोहक्खोथविहीणी परिणामो अपणो धम्मो ॥८१॥ -- भादपाहुड़, कुन्दकुन्दाचार्य
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अर्थ-व्रतधारियों ( त्यागियों ) के भी भूमिकानुसार पूजादिक या देवभक्त आदिके भाव ( शुभरांग ) होते हैं, उनको पुण्य नामसे जिनशासन में कहा गया है अर्थात् शुभभावों को पुण्य कहा जाता है तथा उसीको 'धर्म' भी कहा जाता है ऐसा दोनोंमें अभेद माना जाता है, यही व्यवहार या उपचार है लेकिन यह व्यवहार धर्म Here aatat अपेक्षा है किन्तु निश्चयनयसे जो धर्म, अज्ञान ( मिथ्यात्य ) और रूप भाव ( लोभसे ) रहित हो वही धर्म आमाका धर्म है ( शुद्ध स्वभावरूप है. ) अर्थात् मोह ( मिथ्यात्व ) व रागद्वेषादि धर्म नहीं है वे अधर्म हैं। परन्तु मिथ्यादृष्टि अतीके जो शुभरागरूप धर्म होता है, वह व्यवहारयसे भी धर्म नहीं है किन्तु लोकाचार मात्र ( चरणानुयोग से ) धर्म कहा जाता है जो भ्रमरूप है || ८१॥ तथा और भी कहा है---
are अप्पम रओ रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो संसारवरणहेतुं धम्मोति हि विद्दिम् ॥८३॥
मात्रपाहुड़ 1
अर्थ---जब आत्मा रागादिक दोषोंको छोड़कर अपने शुद्ध स्वरूपमें रत ( लौन या स्थिर ) होता है, तभी संसार से तारनेवाला निश्चयधर्म ( वीतरागतारूप ) आत्माको प्राप्त होता है, जिसकी 'आत्मवर्म, कहते हैं ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है । अस्तु, अर्थात् जब आत्माका उपयोग अशुद्ध से हटकर शुद्ध में लगता है या शुद्धोपयोगरूप आत्माका भाव ( परिणमन ) होता है तभी निश्चय धर्मवाला कहलाता है ॥८३॥