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पुरुषार्थसिद्धयुपाय अमूदृष्टि अङ्ग पल सकता है यह व्यवहारत्यको अपेक्षा कथन है ॥२६॥x निश्चयनयसे अपनी आत्माका अज्ञान (मिथ्याज्ञान ) निकालना, सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना, अमढ दृष्टि अङ्ग है।
भावार्थ-जीवनमें लोकाचार (चाल-चलन ) देव, शास्त्र, धर्म ये चागे बातें बड़े महत्व को है । इसके सम्बन्धमें कभी असावधानी या देखा-देखी बर्ताव नहीं करना चाहिये, यह साधारण शिक्षा ( उपदेश : है. जो सभी भव्य जीवांको मानना चाहिये । किन्तु सम्यग्दष्टि जीवके लिए तो स्वासकर यह निषेध : प्रतिबन्ध } है कि वह उक्त चारों बातों में पर्याप्त सावधानी रखें, मूर्खता या अज्ञानता न करे अर्थात विना परीक्षा किये ( सत्य असत्यका निर्णय न करके ) यद्वात्तमा प्रवृत्ति न करे तभी वह सम्यग्दर्शनकी रक्षा कर सकता है अन्यथा नहीं यह विशेष उपदेश है।
(१) निश्चयनयसे आत्माके शुद्ध । चोतराग ) स्वरूपमें भूल नहीं करना चाहिये अर्थात् उसको समझकर यथासंभव निर्विकल्प होकर उसी में उपयोगको लगाना चाहिए वैसा करनेका नाम ही निश्चय अमृदृष्टि अङ्ग है। यह स्वाचित है।
(२) ज्यवहारनपसे बाद्य पदार्थो में अर्थात् लोकनि गाल ( नदादा नहीं करना (मनमानी स्वच्छन्द प्रवृत्ति नहीं करना ) अर्थात् लोकविरुद्ध कार्य नहीं करना, लोक मर्यादाको बनाये रखना । भङ्ग नहीं करना ) शिष्टता बुद्धिमत्ता व सदाचार है । इसी तरह सच्चे सुमार्ग प्रदर्शक शास्त्रोंका अभ्यास करना, उनकी बालको मानना ! सच्चे धर्मको अपनाना ( कुधर्मको छोड़ना ) सच्चे येव ( बीतरागी सर्वज्ञ ) को पूजना मानना आदि {झूठोंको नहीं पूजना मानना) उनका त्याग करना, अर्थात् उनका त्यागना, यह सब पराश्रित होनेसे व्यवहारकोटिका अमूढ़ दृष्टि अङ्ग है ऐमा समझना चाहिए । समय समयपर योग्यतानुसार दोनों उपयोगी होते हैं किन्तु अन्तमें निश्चयके आलम्बनसे ही कल्याण होला है...दूसरेसे नहीं यह निष्कर्ष है ।
अमूढ़ता { निमूदता ) के दो भेद . (१) निश्चय अमहता-वस्तु के शुद्ध स्वरूप में नहीं भूलना, ज्यों-का-त्यों जानना व श्रद्धान रखना । जैसे कि अध्यात्यकी भाषा ( बोली या शैली) में आत्माके शुद्ध स्वरूपको जानना स्वाश्रित या स्वाधीन मानना व कहना निश्चय अमलता है। अर्थात् सम्यादाम स्वयं होनेवाला ( स्वाश्रित ) आत्माका गुण ( स्वभाव ) है, वह पसथित ( निमित्ताधीन ) नहीं है इत्यादि सत्य है । अपने स्वरूप में अज्ञानताको निकालना रूप है, अन्य या परके बावत अज्ञानताको निकालनेकी बात नहीं है अस्तु।
(२) व्यवहार अमूहता---अन्य वस्तुके स्वरूपको आगमकी भाषामें पराचित या निमित्ता. धीन कहना मबहार बमूढ़ता है, क्योंकि लोकमें वैमा मानते हैं । अर्थात् जैसे सम्यग्दर्शन, दर्शनमोहकर्मके उपशमादि होनेसे ही होता है अन्यथा नहीं होता इत्यादि । लोक व्यवहारमें जैसा चलन व्यवहार है वैसा ही मानना व करना सब व्यवहार अमूढ़ता है-उसको भूलना नहीं चाहिये । * कापणे पथि दुःखामा कापस्थेभ्यसंगतिः । असंपृक्तिर नुस्कोतिरमूला दृष्टिमन्यते ॥ १४ ॥२९ श्रावकाचार।
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