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যখলিল सुखादिका) उच्छेद ( अभाव ) नहीं होता अर्थात् वे सब मौजूद रहते हैं अन्यथा वह जड़ होजायमा यह दोष आता है। इसी तरह वहां कोई परिवर्तन नहीं होता हमेशा एकसा रहता है, परिपूर्ण ( कृतकृत्य ) अवस्था होजाती है। योष कुछ भी करने को नही रहता, स्वस्थ अवस्था होजाती है, आकुलसा आदिका नाम निशान नहीं रहता इत्यादि प्रकार गुणोंका समुदाय प्रकट होजाता है | ओगुण नष्ट होजाते हैं ।। २२४ ॥
___ आचार्य-धान्तपूर्वक अनेकान्त (स्याद्वाद) की सिद्धका जपाय { कूजी विधि या तरकीब ) बतलाते हैं।
अन्तिम शिक्षा देते हैं एकनाकर्षन्ती लथैयन्ती वस्तुतस्वमितरेण | अन्तेन जयति जैनीनीतिर्मन्थान नेत्रमिन गोपी ॥२२५॥
जैगनीतिमे निर्णय होना, सम्यक् वस्तुस्वरूपहिका । मंधानीसे धीक निकझता यथा दूध दधि दो का || जननीति स्याहाद' कहाती, अनेकाम्तमय होती है। अध्यार्षिक पर्यायाधिक दो मित्र, नाम परासी यह ही है। एकनीति जथ कड़ी ज होती, गुसरी होती रहती है। इसी सबसे वस्तुधि भी, क्रमसें निर्णय करती है !! एक हाथ पौथे काती है, एक धड़ासी भागे है।
ग्वालिमकी किरियावत् समझो सिद्धि भनेको होती है। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [जैनी मीप्ति: ] जनन्याय ( स्याहाद या अनेकान्तरूप ही. संसारमें बिजयको प्राप्त होता है अर्थात् तमाम विवादों और मतभेदों को मिटाकर सबमें मैत्री या एकता स्थापितकर विजयदुन्दुभि बजाता है क्योंकि [ एकेन अन्तेन वस्तुलपय भाकर्णET ] जैनतीति । ( स्याद्वादन्याय ) एक नयसे अर्थात् एक अपेक्षासे एकधर्म की पुष्टि या सिद्धि करती है, उसमी । मुख्यता रहता है । तथा [ इतरेण भन्सेन इलथयन्ती ] दूसरे मय या धर्मसे दूसरे धर्म को गोण करतो
१. कड़ी करमा या तानना या मुख्य करना । २. ढीली करना अर्थात् गौण करना। ३. धर्म। ४, स्यावादनाय । ५. रस्सी, जिससे घुमाया जाता है । ६. ग्वालिन, घुमानेवाली । ७, अनेकान्तकी।
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