Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

View full book text
Previous | Next

Page 457
________________ : 1 做好辈 पुरुषार्थ और व्यवहारमें परस्पर साध्यसाधनयना है अर्थात् निश्चय साध्य है और व्यवहार साधन है अर्थात् भेदृष्टि ( विकल्परूप परिणति ) के पश्चात् अभेददृष्टि । निविकल्प परिणति ) होती हैं ऐसा क्रम है। तब विकल्प ( व्यवहार) साघन सिद्ध होता है और निर्विकल्प ( निश्चय ) साध्य सिद्ध होता है। उसके पश्चात् अन्तिम ers ( मोक्ष की fafa ( प्राप्ति होती है। ऐसी स्थिति का पारा ( तिलौलिया रूप ) कारण सिद्ध होता, वह भी रूपान्तर हो करके अर्थात् निश्चयकी स्थिति में आकर ( तदवस्थ रहते हुए महीं ) यह सात्पर्य है । गा० नं० १५६ पंचास्तिकाय ग्रन्थकी टोकामें देखो, साक्षात् व परम्परामें यह स्पष्ट है। २. अमेद रत्नत्रय व भेदरत्नत्रय क्या है ? इसका खुलासा (१) जिस सम्यग्दृष्टि आत्मा के अनुभव में कोई खंड या भेदका अनुभव न हो, अर्थात् ज्ञान दर्शनचारित्रका भी भेद या free न हो, उसकी अभेद रनवयवाला शुद्ध या निश्चयसम्यग्दृष्टि कहते हैं। पर्यायकी अपेक्षासे उसीको atarrer भी कहते हैं । वास्तवमें यही मोक्षगामी आत्मा होता है। कारण कि वह निर्विकल्प समाषिवाला था शाकाकारमात्र अपनेको अनुभव करनेवाला हो सकता है, दूसरा नहीं । ( २ ) जिस सम्यग्दृष्टि जीवके अनुभव, ज्ञान-दर्शन वारित्रका भेदरूप ( रूपया विकल्प ) अनुभव हो, या रागादिरूप भेदका भी अनुभव हो, उसको सराग या नेदरत्नत्रयधारी सम्प्रदृष्टि कहते हैं । मोगामी उस अवस्थामें नहीं हो सकता यह नियम है। इसतरह अभेद रत्नत्रय व भेद रत्नत्रयका स्वरूप समझना चाहिये, अन्य प्रकार समझना गलत है । प्रश्न : सम्यग्दृष्टिके ऐसा क्यों होता है ? इसका उत्तर आत्मशक्ति (वीर्य की कमीसे या संयोगीपर्याय होने की वजहसे या पाकिभावों ( क्षायोपशमिकादिभाव के योगसे या अस्तित्वसे, अथवा उपयोगकी स्थिरता नहोनेसे, व पूर्णवीतरागता प्राप्त न होनेसे, सारांश यह कि हीन अवस्था या अपूर्णदशा होनेसे पूर्वोक सभी उपद्रव ( भेद वा विकल्प वगैरह ) होते हैं जो rait बात नहीं हैं । किन्तु वे सब विकल्प पर्याय होते हैं द्रव्यमें नहीं होते, द्रव्य और उसके गुण सदैव अछूते ( शुद्ध एकाकार-भेद रहित ) रहते हैं, यह अटल नियम है तथा सभी गुण भीतर ही भीतर गोगरूपसे कार्य करते रहते हैं, सिर्फ एक कोई गुण मुख्यरूपसे प्रकट काम करता है, जो सबकी जाहिर होता है । इसीसे street उपयोगको मिश्ररूप कहा जाता है । गोण-मुख्यरूप ) यह तात्पर्य है । जैसे कि ज्ञानके समय श्रद्धान भी रहता है और दोनों अपना २ कार्य करते रहते हैं कोई बाधा नहीं आती । ज्ञानको मुताके समय भवान गौण रहता है और श्रद्धानकी मुख्यताके समय ज्ञान गौण रहता है इत्यादि खुलसा समझना चाहिये, जिसमें भ्रम नरहे । नोट --- - पूर्णशुद्ध सम्यग्दृष्टिके ज्ञानमें विकल्प आदि कुछ नहीं उठते क्योंकि पूर्णशुद्धसम्यग्दृष्टि वह होता है जिसके साथ न संयोगीपर्याय हो, न उसके ज्ञानमें कोई विकल्प उपजे । किन्तु जिसके साथ संयोगीपर्याय हो और विकल्प भी उपजें, उसको व्यवहार या उपचारसे पूर्ण या शुद्धसम्यग्दृष्टि कहना चाहिये, यह निर्णय है, मूलना नहीं चाहिये ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478