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श्रीमदमृताचार्यविरचित
पुरुषार्थसिद्धयुपाय
पद्यानुवाद एवं भावप्रकाशनी भाषादीका सहित
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टीकाकार पं० मुन्नालाल रांधेलीय वर्णी,
शास्त्री, न्यायतीर्थ
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प्रकाशक स्वाधीन ग्रन्थमाला ९३, संतोषभवन, कटरा बाजार, सागर, म०प्र०
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आत्म-निवेदन
अपने मनोगतभावोंको स्वयं प्रकाशित करने में यद्यपि मुझे अत्यन्त संकोच हो रहा है; तथापि माधुनिक पद्धति के अनुसार अनिच्छासे उसे कुछ लिख रहा हूँ । चूंकि मैं ७६ अर्पका एक साधारण व्यक्ति ई, शिक्षाके क्षेत्रमें न्याय, व्याकरण, धर्म, साहित्य, कोशका अध्ययन अचस्तरपर करके अनेक पावधियां प्राप्त की हैं तथापि पूर्ण अनुभन्न प्राप्ति होनेके बिना असंतोष है। जीवन में संतोपको अति आवश्यकता है, उसकी प्राति हो जाने पर ही मनुष्य सुखो एवं शान्त होता है । यथार्थमें विचार या निर्धार किया जाय तो यह सुख शान्ति बाह्यसामग्रीमें नहीं है-वह आत्मामें ही है, लेकिन भूलसे प्राथी बाह्य सामग्री ( परिग्रह-यम-धाम्यादि, स्त्रीपुत्रादि, हेलमेलादि, पठन-पाठनादि, पदप्राप्ति आदि ) में समझता है और इसीलिये वह येन केन प्रकारेण उसे संचित करता है । फलस्वरूप सामग्रीके प्राप्त हो जानेपर अपने को सुखी व कृतकुल्य मान लेता है, जो कोरा
इसके विपरीत कार्य करने पर ही सुख प्राप्त करनेवालोंके असंख्यात उदाहरण पड़े हुए हैं, उनकी ओर हमको ध्यान देना चाहिये, वही सुख शान्तिका उपाय या सुमार्ग है। इच्छाएं कभी पूर्ण नहीं होती और कदाचित् थोड़ी-बहुत पूर्ण हो जाने पर भी और नवीन इच्छाएं बढ़ती जाती है, तब सुखको संभावना कैसे हो . सकती है? नहीं। यथासंभव इस लेखक भी लक्ष्यकी सिद्धिके अनेक उपाय क्रिये, द्रव्य कमाया, पुस्तकें लिखीं जैसा कि चलन-व्यवहार ( पद्धति ) है, सुखशान्ति नहीं मिली 1 अन्तमें उसीके लिये पूज्य श्री १०८ अमृतचन्द्राचार्यको अनुभवपूर्ण या गुरुवर्य पूज्यतम श्री कुन्दकुन्दाचार्य के साहित्य ( समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, अष्टपाहुड़ आदि महान् ग्रन्थों ) के गहन अध्ययनसे प्राप्त हुए सार ( अनुपम तत्त्व ) की कृतिरूप पुरुषार्थसिद्धयुषाय जैसे अन्यकी हिन्दीटीका (भाषप्रकाशनी ) लिखना प्रारंभ किया और अब पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। भाषाटीका लिखनेसे हमें क्या मिला है ? किस उद्देश्मकी पूर्ति हुई है ? यह तो हम नहीं बता सकते, अतः वह निरपेक्ष लिखी गई है । लेकिन यह कह देना अनिवार्य है कि इसके लिखने में हमारे पास न कोई संस्कृतटीका थी, न कोई ( बम्बई संस्करण पं. नाथूरामजी प्रेमी लिखितके अलावा ) हिन्दीटीका थी, अतएव कटिनाई पर्याप्त उठानी पड़ी है और संभव है कि कहीं स्खलन भी हो गया हो, उसके लिये मैं क्षमा प्रार्थी हूँ और निष्पक्षतासे त्रुटियां बतानेका 'मी इच्छुक है । साथ ही इसके मैं यह भी कह देना चाहता हूँ कि मेरे आद्यगुरु स्व० पूज्य श्री १०५ क्षुल्लक ५० गणेशप्रसादजी वर्णी रहे हैं । पश्चात् अन्य दो विद्वान्, जिनका मेरे ऊपर महान् उपकार है और में उसको आजन्म भूल नहीं सकता । ग्रन्थके भात्रको में कहां तक हृदयंगम कर सका हूँ इसका प्रमाणपत्र तो सहृदय विवेकी पाठक ही चेंगे, जो इसका रसास्वाद लेंगे। जितना बन सका है उतना स्पष्टीकरण अन्योंकी स्त्रीज द्वारा किया गया है एवं संगति बैठा ली गई है, कोई कोर-कसर व आलस्य नहीं किया गया है, बड़ी सावधानी रखी गई है, कृपया विवज्जन पाठक बारीकीसे देखेंगे। हिन्दीभाषामें पूर्ण आधुनीकरण न होनेसे अटि मालूम हो सकती है, किन्तु भावकी त्रुटि न होने से उसको उकवस्थान ही देना है, गिराना नहीं है, ऐसी मेरी प्रार्थना है। थायोपमिक शान और सत्संगति एवं पठनपाठनका अभाव इस्थादि
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पुरुषार्थसिधपाय अनेक कारण साथ रहे है, अधिक क्या लिखा जाय | अकेले अछे लेविलमासे दवाई नहीं बिकती, किन्तु गुणसे विकती है यह नियम है अस्तु ।
निरूपण-शैली इस अन्यको कथनशैली एवं निर्माणली अत्यन्त अपूर्वताको लिये हुए है, ऊपरी दृष्टि से तो यह कहा जाता है कि यह मुख्यतया श्रावकाधारका ग्रन्थ है, इसमें पेश्तर अणुब्रतोंका और उनके पालक श्रावकोंका तथा पश्चात् महावतोंका और उनके पालक मुनियोंका भी संक्षेपमें वर्णन किया गया है । अतएव यह गन्ध आचारग्रन्थ मालुम पड़ता है। इसी तरह इसका वर्णन एक निश्त्तयकी दृष्टिले या एक व्यवहारदृष्टि ( नय) से किया गया है इत्यादि, जो भ्रम है । इस ग्रन्थमें निश्चय और व्यवहारकी परस्पर संगति बैठालते हुए रलश्रयका यथार्थ वर्णन किया गया है। यह ग्रन्थ वारीकोसे विचार किया जाय तो एक ऐसा अमितीय लक्षणग्रन्थ है, जो साथ २ लक्ष्यको भी बताता जाता है। अतएव इसनी सानीका दूसरा ग्रन्थ देखने में नहीं आता इत्यादि।
इसके.सिवाय यह ग्रन्थ तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी झली है. इसके द्वारा कठिनसे कठिन ताला या प्रन्धि खुल सकती है, में ऐसी क्षमता है। अनादिकालसे व्यवहारमें भूला हुआ जीव किस प्रकार अमानी बन रहा है, एवं अधिर्वचनीय असीमित दुःख भोग रहा है ? उसके उद्धार के लिये प्रारंभसे ही निश्चय और व्यवहारका ज्ञान तथा दोनोंको संगति और हेय-उपादेयता बतलाई गई है, अर्थात् भूमिकाशुद्धिपूर्वक तत्वोंका निर्णय होनेसे ही जीवका उद्धार हो सकता है, अन्यथा नहीं, चाहे वह कितना ही उपाय क्यों न करे, सब व्यर्थ है । साध्यको सिद्धि नहीं कर सकता ) । अरे ! जो जोच ( प्राणी ) अपनेको भी यथार्थ न समझे वह फैसे संसारसे पार हो सकता है ? जब उसको अपना सच्चा ज्ञान हो और. यह समझे कि मैं अभी संसारसमुद्रौ गोता लगा रहा हूं, लेकिन अब इससे पार होना चाहता हूँ तथा उसका सही उपाय ( मागं ) यह है, तभी वह वैसा उधम या पुरुषार्थ करनेसे पार हो सकेंगी । यह खुलासा है,
इस सन्भमें मुख्थ-गौणरूपसे निश्कर-व्यवहारका कथन है, जिसको स्याब्रादनय या शैली कहा जाता है । पाठक, एकबार अवश्य अवलोकन-मनन करें, ऐसी प्रार्थना है, किंबहुना ।
आभार-प्रदर्शन इस ग्रन्थके प्रकाशनमें प्रियमित्र डा. पं० दरबारीलालजी न्यायाचार्य, बनारसवालोंका पर्याप्त सहयोग रहा है । अतएव हम उनके अत्यन्त आभारी हैं। उन.पं. जी समाजके प्रसिद्ध विद्वान एवं कई पुस्तकोंके लेखक और अनुवादक हैं । वर्तमानमें श्री ग० वर्षी जैन सन्यमालाके मंत्री हैं। अधिक क्या कहा जाय वे वर्तमान समाजके उदीयमान प्रकाशमय ध्रुवतारा हैं ।
श्री महाबीर प्रेस, भैलुपुर बनारसके मालिक श्री पं० बाबूलालजी फागुल्लके भी हम आभारी है, जिन्होंने अपने प्रेसमें सुन्दरताके साथ इसे छापा है । आपका सौहार्द हमेशा याद रहेगा। जो कुछ अशुद्धिर्या
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-लोक म० १३५ में कहा है कि रस्मनयरूप मोशमार्ग भवर्सला इ समझना इसका ६श्य है
इत्यय त्रितयात्मनि मार्ग मोक्षस्व वे सहितकामाः । अनुपरत प्रयतन्ते प्रयान्ति ते मुक्तिमाचिरण ।। १३५ ॥
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मारम-निवेदन हो गई है, उनको शुद्धकर पृथक्से शुरुभडिपत्र दिया गया है, उससे मिलानकर पाठक शुख पढ़ेंगे । हम उक्त प्रेसकी अभिवृद्धि निरन्तर चाहेंगे व चाहते हैं।
इस कार्य हमें येन केन प्रकारेण जिन २ मित्र बन्धुओंने सहायता दी है, उन सबका मैं हृदयसे आभार मानता है, उन्हें साधुवाद देता हूँ।
अन्य अन्धोंकी सहायता हमने इस टीकाके लिखने में अनेक बड़े खोटे अन्योंकी सहायता ली है तथा उनके रखरण दिये है 1 असे कि (१) समयसार, (२) प्रवचनबार, ( ३ ) पंचास्तिकाय, ( ४ .नियमसार, (५) बटरवंटागम, (६) राजवातिक, (७) मर्थिसिद्धि, (८) आप्तमीमांसा, (९) अष्टपाहुड़, (१०) बालापपद्धलि, ११) जीवकांखगोम्मटसार, (१२) कर्मकांडगोम्मटसार, (१३) वृहत्स्वयंभूस्तोत्र, (१४) आत्मानुशासन, (१५) तत्वार्थसूत्र, ( १६ ) रत्नकरंडश्रावकाचार, ( १७ ) बृहदश्यसंग्रह, ( १८ ) युक्त्यनुशासन { १९ । समयसारकलश, (२०) अध्यात्मतरंगिणी, (२१) स्वरूपसंबोधन, (२२) छहहाला, । २३ ) मोक्षमार्गप्रा : २) • It::, हरिणतक, ( २६ } मानार्णवं इत्यादि । अतएव उन सबका भी मेरे ऊपर आभार है। तथा उनके कर्ताओंका तो परोक्ष आभार है ही, जिसे हम कदापि भूल नहीं सकते।
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प्रस्तावना - भूमिका
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आजकल यह एक रिवाज सा हो गया है कि किसी प्रकाशनमें भूमिका होना ही चाहिये, बिना उसके oturn पोभा नहीं होती, न उसका महत्व प्रकट होता है । उसका कारण यह है कि भूमिकामें ही, यदि वह बुद्धिमानी से लिखी जाय तो पूरे ग्रन्थका रहस्य उकेल दिया जाता है, जिससे एकाएकी भीतर प्रवेश करनेकी उत्कंठा शान्त हो जाती है और संक्षेपमें ग्रन्थका पूरा परिचय मिल जाता है। इस लिहाज से यह पद्धति है नहीं है अपितु उपादेय है। किन्तु कई प्रकाशनोंमें ऐसा भी देखने में आता है कि भूमिका मुलसे लम्बी हो जाती हैं, जिसको पढ़ने की प्रथम तो इच्छा ही नहीं होती और यदि कदाचित् पढ़ना ही पड़े तो बेगारकी तरह चि नहीं लगता, मानो संकट आ गया हो। ऐसी स्थिति में इस प्रकाशनको यादमुक्ता अछूता ही रखना चाहता हूँ । कारण कि इस ग्रन्थका महस्व तो जग जाहिर है, तब ढोल पीटने की क्या आवश्यकता है ? व्यर्थ है। रहा इसके रचयिताका परिचय, सो वह भी गजटेड है, इतिहासवेत्ताओंने खूब प्रकाश डाला है, उससे हम नई बात कोई नहीं लिख सकते। हम सिर्फ इतना ही कह सकते हैं कि ग्रन्थकार ( पूज्य अमृतwater ) की यह मौलिक कृति ( रचना ) है, और इसमें वह सार-अमृत भर दिया है जो उन्हींको ग्रन्थराज समार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, इन तीन रत्नत्रयोंकी मार्मिक ( हार्दरूप ) टीकाओंके लिखने और अमान करनेसे उपलब्ध हुआ था, कहना न होगा कि इसकी सानीका दूसरा उनका ग्रन्थ नहीं हूँ। यह ग्रन्थ केवल आचारम्य नहीं है, अपितु मोक्षमार्गका सच्चा निरूपण करने वाला है । जीव ( आत्मा ) की प्रारंभिक ( अनादिकालीन ) अज्ञान अवस्थासे लेकर क्रम-क्रमसे होनेवाले विकासका निश्चय और व्यवहारनथके माध्यम से जो अनुपम वर्णन किया है वह अनिर्वचनीय है । इसमें श्लोक नं० ३ के द्वारा सन्थरचनाका मूल उद्देश्य और मूलमें भूल मिटानेको निश्चय व्यवहारमें भेद एवं उनका लक्षण तथा व्यवहारकी कर्यचित् उपादेयताकी सीमा दोनोंका ज्ञान हो जानेपर समताभाव ( माध्यस्थपना ) तथा उससे होनेवाला लाभ बताया गया है । इतना ही नहीं उत्थान और पतनका निदान भी विस्तारपूर्वक बतलाया गया है। जीव और कर्मोकी संतानपरंपरा चलने और मिटानेका उपाय बड़ी महराईके साथ वर्शाया गया है। प्रत्येक विषयका कम वर्णन एक आदर्श है, उसका अनुकरण सभीको करना चाहिये।
वैसे तो सारे ग्रन्थका आलोडन करके देखा जाय तो श्रावक या शिष्य (मुमुक्षु भव्यात्मा) का आचार याने for a है ? वह इसमें क्रमबद्ध बतलाया गया है, इससे इस ग्रन्थको 'श्रावकाचार' कहते हैं ( आवक+ आचार = शिष्यका कर्त्तव्य ) | अनादिकालसे भूळे गुमराह हुए शिष्यका पहिला कर्तव्य भूल या मियाको हटाना है अर्थात् स्वपर अपने और दूसरे को भिन्न भिन्न जानना है याने एकता बनाम अभेद भूल मिटाकर दो को पृथ्क २ जानना चाहिये, जो अनादिकालसे जीवको होती जारही है। यह सबसे बड़ा रोग है जो reer ही खोखली कर देता है । फलत: जिस श्रावक ( श्रोता या शिष्य ) ने ऐसा नहीं किया, उसने श्रावक
१. न सम्यक्स किंवा त्रिजगत् योऽयक्च मिश्यास्वसमे नान्यन्तनुभृताम् ॥ ३४ ॥ रत्नकरण्ड
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प्रस्तावमा भूमिका
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का ( अपना ) कर्तव्य महीं पाला यह निवार्य है । अतएव वह अनिवार्य है, करना ही चाहिये। उसके पश्चात् यदि सत्य समझकर उसका प्रयोग या उपयोग ( बैसा आचरण नहीं किया तो भी कुछ स्वभ महीं होता वह सिर्फ गड़े हुए धनके समान निरुपयोगी है । तदनुसार उसका प्रदर्शन करना दूसरा कर्तब्ध है, इसका नाम चारित्र या चर्या है 1 अनादिको भूल या मिथ्यात्व मिदने (छूटने के बाद निर्मूल हुए सम्यग्दृष्टिको उसका लाभ किस तरह से जाना चाहिये, यह बात स्वासतीरसे विस्तारके साथ इस ग्रन्थमें आचार्य बताई है। जयका रस यह है कि मानने । मने पूल रहनेसे जीवका कल्याण या उत्थान कदापि नहीं होता, कारण कि यह स्वयं अपना घात ( हिंसा या अधर्म ) करता रहता है जो जीवका कर्तव्य नहीं है अर्थात् वह अपने कर्तव्य ( अपनी रक्षा करना से स्वयं च्युत हो जाता है, अपनी रक्षा नहीं कर सकता बनाम 'अहिंसारूप परमधर्म नहीं पा सकता और उसके बिना जीवन बेकार है, ऐसा समझना चाहिये इत्यादि ।
तदनुसार अहिंसा परमधर्म की प्राप्ति एवं रक्षाके लिये मुख्य दो कार्य करमा आचार्यले बतलाए है। (१) मिथ्यात्वको हटाकर सम्यक्त्व प्राप्त करना ( २ ) मिथ्या आचरण (प्रवृत्ति को हटाकर सम्यक आच. रण करना, क्योंकि दोनों के विना' हिंसा जैसे महापाप ( अधर्म )का अभाव नहीं हो सकता अर्थात् अहिंसा परमधर्म नहीं चल सकता, जो कि जीवका स्वभाव या धर्म है ( श्रोता शिम्य श्रावकका कर्तव्य है)। उस परित्रकी भूमिकास्वरूप { १ ) हिंसा {२) झूठ (३) चोरी ( ४ ) कुशील ( ५ ) परिग्रह इन पांच पापोंको छोड़ने का उपदेश दिया गया है, एवं उनके स्थान में पांच अप्पयत ( एकदेशमारित्र ) धारण करनेका उपदेश, विचित्र या आश्चर्यजनक विधिसे दिया है । वह विधि । तरीका ) निश्चय और व्यवहारकी है। (१) निश्चयविधिसे चारिष का साक्षात् सम्बन्ध आत्माको शुखपरिणतिसे बतलाया गया है और (२) व्यवहारविधिसे चारित्रका सम्बन्ध बाधक्रियासे अर्थात् संयोगीपर्यायमें होनेवाली योगकषायकी क्रिया (शरीरके परिणमन से सम्बन्ध बतलाया है, जो कि बाह्यदृश्विाले लौकिक जनोंको द्रव्येन्द्रिमसे दिखता है, उसको समाचार भी कहते हैं। लोकमें उसकी ही प्रतिष्ठा है असएक वह भी पदके अनुसार कर्त्तव्य है या उपादेय है किन्तु परलोक ( मोक्ष के प्रति बह उपादेय नहीं है ऐसा बसलाया है । इसीका खुलासा अनेकान्तदृष्टिसे कवित्' उपादेय है और कथंचित् हेय है ऐसा विश्रिरूप किया है, किन्तु सर्वथा ( एकान्तसे ) वैसा नहीं है, इसका निषेध किया गया है, इस तथ्यको गहरी दृष्टिसे पर्याप्त समझना है जो उलझनमें पड़ा हुआ है। इसीके सिलसिले में उपाधानकारण व निमिसकारणका भी विवाद उठ खड़ा है। समाधान के लिये साक्षान्कारण ( निश्चम ) और परंपराकारण ( व्यवहार ) यह बसलाया जाता है अथवा सामान्यतः कारण और कारणका कारण ऐसा कहा जाता है। इत्यादि जो भी समझमें आये किन्तु उसका निर्धार अध्यात्मशास्त्रोंसे करना चाहिये व मामना चाहिये सभी विवाद मिट सकता है कारण कि अध्यात्मशास्त्रों में ही सत्य-उपदेश दिया गया है अतएव वह निकर्ष रूपयन है, स्वाधीनताको एवं शखताको लिये हुए होने से प्रामाणिक भी है। अतएव उसमें हर नहीं करना चाहिये यह तो व्यानुयोरका विषय है जो स्वतंत्र है। भावार्थ-माचार्धन सर्वत्र मुख्य-गौणदृष्टि रखकर जाम कथन किया है, अर्थात् पाँच लगा दिया है, जिससे अन्य अत्यन्त प्रियता भागई है और अज्ञानको हटा दिया है, इस प्रकार अपूर्वता ला दी है; यह महान् उपकार किया है । संक्षेपमें कहा जाय तो व्यवहारकी अभेददृष्टिको हटाने के लिये और भेददृष्टिको स्थापित करने के लिये ही इसका जन्म ( निर्माण । हुआ है, यह सत्य या सच्चा बस्तुका स्वरूप बतलाता है असत्य और मिलावटी ( नकली) स्वरूप महीं बतासा, वह भी निर्भीकताके साथ मह खास विशेषता है ।
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इस विषयमें किसनेही व्यामोही जीव विमा तथ्य समझे असत आक्षेप करते हैं कि यह अंथ मुहस्थों या धावकोंके लिये उपयोगी ( लाभदायक ) नहीं है, अतः इसके पढ़ने एवं स्वाध्याय करनेसे व्यवहार धर्म छूट जायगा-...पूजापाठ, दानपुण्य, संयम आदि, यह अत्यन्त नासमझी है। यह प्रस्थरत्न पेश्तर अज्ञान मिटाता है अर्थात् निश्चय और व्यवहारके भेदको न समझकर जी भूल हो रही है, उसको दोनोंमें भेद बताकर प्रबुद्ध करता है या सावधान करता है कि सब लोग निश्चय और व्यवहारको एक न समझकर जुदा खुदा समझे तथा दोनों फर्क ( भेद ) समझकर महण-त्याग करें, जो हिसकर हो उसे अपमावें तथा जो अहितकर हो उसे त्यागे, कोई जबर्दस्ती नहीं है। जैसे कि कोई आदमी यदि भोजन करने से बीमार होता है, और भोजन छोड़ देनेसे नोरोग होता है, ऐसा ज्ञान करानेवाला वैद्य दोनोंका स्वरूप बताकर यदि भोजन छुड़ाता है सो क्या वह कोई अनर्थ करता है कि उपकार करता है ? इसका निर्धार स्वयं ही रोगी और अन्य जीव कर लेने, कहनेकी जरूरत महीं है । स्वयं वह विवेक करलेने की बात है । अरे, जो जीव वस्तु के दोष गुण जान लेता है, वह खुदही दोषका स्याग और गुणका ग्रहण करने लगता है। ऐसी स्थितिमें जब विधेकी व्यवहारके दोष और शिकच्चयके गुण मान लेगा तब क्या वह अपना मार्ग या कर्तव्य निश्चित करनेमें दूसरोंको प्रतीक्षा करेगा ? नहीं । व्यवहारका अर्थ, असत्य या अनुपयोगी है, ओ सादन ( अभीष्ट की सिद्धि न कर सके । और मिश्चयका अर्थ, सत्य या उपयोगी है. जो साध्यकी सिद्धि कर देवे। इसमें न पूजा-41०का सम्बन है, न उस छोड़ने कारनेका है, यह तो पदार्थका निर्णय है। तब विचारना होगा कि जो व्यवहारक्रिया दंड आदि (शरीराश्रित ) और शुभराग या अशुभराग ( भक्तिस्तुतिरूप या भोगविलासादिरूप ) है ( अशुस आत्माश्रित ) उनसे क्या जीवको मोक्षकी (पाध्यकी ) प्राप्ति हो मागगी या वह संसारमें ही पड़ा रहेगा ? क्योंकि वह सब व्यवहाररूप साधन ( हेतु.) है अर्थात उनको उपचारसे ( कल्पमामात्र ) मोक्षका साधन कहा जाता है या कहा गया है, म कि निश्चयसे । निश्चयका अर्थ भूतार्थ और व्यवहारका अर्थ, अभूतार्थ भी है। तब का अभूतार्थ का त्याग करना बुरा है ? और उसका ग्रहण करना अच्छा है ? नहीं, नहीं, नहीं,।
हाँ, अबसक सत्यको जानते हुए भी स्यायको शक्ति न होनेसे उसको मजबूरी में (अगत्या....इच्छा विना) ग्रहण करना पड़ रहा है, सवतक वह कथंचित उपादेय है-वह भी अरूचिपूर्वक, म कि रुचिपूर्वक या स्वामी बनकर, किन्तु नौकरकी तरह होकर उसको विवेकी ग्रहण करता है और मनमें उसको छोड़नका ही विचार रखता है तथा यथाशचित्त छोड़ता भी जाता है, यह उसकी चर्या या वृत्ति हो जाती है, अर्थात् छेदके साथ उस व्यवहार कार्यको बह करता है यह भाव है। ऐसी स्थितिमें वह शानः शनै: मोक्ष प्राप्त कर लेता है, किन्तु ब्यवहारको उपादेय या अत्याज्य माननेवाले कभी भी उससे त्रिकालमें मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते, यह प्रय है, किम्बहुना । 'सब धान बाईस पसेरी नहीं तुलती' यह लोकोक्ति सत्य है विचार किया जाय, विवाद न किया जाय । आचार्य महाराजका यह स्पष्ट मत है, सभी तो उन्होंने बारह प्रसोका, उनके अतिचारोंका एवं सम्यग्दर्शनका, उसके अतिचारोंका पूर्णसया एक एक करके निरूपण किया है । तात्पर्य यह कि १२ अप, २२ परीषह, ११ प्रतिमाएँ, अनुहि भोजन, भौगोपभोगका त्याग, अष्टमूलगुण, सम्यग्दर्शनके आठ अंग, उमका निश्चय व्यवहाररूप, पंचलब्धियोंका विस्तृत कथन, प्रायोग्यलब्धि होनेवाली विशेषता, करणलब्धि भेद
१. सर्व स्वैव नियत्तं मवति स्वकीय-कोदयान्मरणजीवितःससौख्यम् । ___अशानमेतदिह यत्त परपरस्थ कुन पुमान् मरणनीवितसौख्यम् ॥ १६८ ॥ कला मोर-कमका अर्थ परिणमन या वस्तु का स्वभाव या कार्यपाय है अस्तु ( यह अशान अध्यक्षसाय है। १० २५४ आदि)
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प्रस्तावना-भूमिका
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और खुलासा, अर्थात् रत्नत्रयका आमूलचूलवर्णन, हिसा आदि पाँचपापोंका निश्चय-ज्यवहारस्वरूप, अहिंसाका स्वरूप, हिंसाके ४ भेद, उनका विस्तार एवं तर्क व समाधान, फलका भोक्ता, सत्य-असत्यका अनुपम निर्धार, अथवा गृहस्थ-अणुव्रतो के व्यवहारका पालन करते समय भी व्रतकी रक्षाका उपाय आदि पर्याप्त बत्तलाया गया है । गरज कि पंचाणुनक्त पालनेकी पूर्ण रीति बतलाई गई है। अतिचारोंका भी बढ़िया विश्लेषण किया गया है। मिन्यात न अनंतानुबंधी आदि चारों कषायोंका कार्य व उनमें होनेवाला विवाद मिटायर गया है । बाह्य व अन्तरंग परिग्रहका त्याग एवं श्रावकके उत्तम-मध्यम-जनन्यभेद, गृहथिरत, गृहनिरसका खुलासा आदि इसमें है। रत्नत्रय और वत पालनेका फल, गुणवत-विसावतोंके भेद व स्वरूप, सामायिकशिक्षावत पालनेकी विधि, देवपूजनकी प्रारक सामग्री, जपवासको समाति है कालपी मर्यादा, धुतकी मर्यादा, पिंडशुद्धि (आहार शुद्धि) गुणवतों व शिक्षाश्रतोंमें मानार्योका मतभेद, दाशाके ७ गुण व नवधा भक्ति, गुणोंके अर्थ करने में भूल, व विपरीत प्रचार, पात्रोंके ३ भेद, उसमपात्रों (मुनियों की वृत्ति ( बरताव ), उनका आहार, (अनुद्दिष्ट) प्रतिमास्वरूप, १२ वतीसे उनकी उत्पत्ति उनके भेद, सल्लेमा व विधि, आस्मातका स्वरूप व निषेध, एवं भेट, बारह ब्रतोंके अतिचार । पाँच अणुवल व मात शोलोंका समुदाय ही १२ बारह छत है, विरत पृथक है । साथ ही भानोपयोगी मात तत्वोंका अविपरीत श्रद्दान, ज्ञान, आचरण भी बतलाया गया है. अनुजीवी प्रतिजीवी गुणोंका सयुक्तिक विश्लेषण व विस्तृत परिशिष्ट आदि अनेक चीजें इसमें है। प्रश्नोत्तरके ख्यमें आनन और चमका भेद, १० पशवम का स्वरूप, १२ अनुप्रेमाओंका स्वरूप, २२ बाईस परीषहोंका स्वरूप, व कुछ विशेषताएँ, अन्तिम निष्कर्ष, मुनिपद प्राप्त करनेकी योग्यता, रत्नत्रयकी अपूर्णता और उससे होनेवाली हानि एवं आंशिक लाभ, चरित्रधारियोंके भेद, पुद्गलबंधक विषयमें प्रकाश, सम्यग्दर्शनसे बंध नहीं होता, साथमें रहनेवाले कमायभास होता है, इसका पूर्वपक्ष उत्तरपक्ष द्वारा निर्धार, निश्चय व्यवहारकी एकत्र स्थिति, मोक्षमार्गको एकता व उससे सिद्धि, मुक्तात्माका स्वरूप, अन्यातका खंडन, अन्तिम शिक्षा, अन्धकारको भावना व मान्यता ।
ग्रन्थकार आचार्य अमृतचन्द्रका कुछ परिचय
धोरप्रभुके वंशज, तीर्थप्रवर्तन-प्रकाशनको अपेक्षा नंदीसंघकी प्राकृतपट्टालिके अनुसार महावीरस्वामीकी २६ वीं पीढ़ीमें अईवली भुमिराज हुए, ३० वी पीड़ीमें माननन्दी मुनिराज हुए । माषनन्दी स्वामीके दो शिष्य रहे । ( १ ) जिनसेन ( २ ) धरसेन, जो आचार्यपदसे विभूषित हुए। लदनुसार श्रीजिनसेवाचार्यके शिष्य श्रीकुन्दकुन्दाथार्य और श्रीधरसेनाधार्यके शिष्य श्रीपुष्पदन्त व भूतबलि हुए, जिन सभी परमपूज्य आचार्योंने महान २ ग्रन्थ रचकर जैनधर्मका भारी उधीत क्रिया । इस हिसाबसे श्रीधरसेनाचार्य वर्धयाग ( महावीर ) तीर्थकरको ३१ वी पौड़ी में हुए और. कुन्दकुन्दस्वामी ( आचार्य ) पुष्पदन्त-भूतबलि आचार्य ३२ वी पीड़ीमें हुए। इसलिये धरसेनाचार्य के काकागुरु अर्थात् गुरु ( जिनमेन )के सहपाटी भाई ( घरसेन )के भी शिष्य होते है। सदनुसार श्री कुन्दकुन्दस्वामी और पुष्पदन्त-भूतवलि स्वामी परस्पर गुरुभाई सिद्ध होते हैं संक्षिस यह वंश परिचय है ।
ग्रन्थ रचना और काल परिचय पूज्य श्रीमाधमन्दी आचार्य एवं उनके शिष्य, जिनसेन व धरसेन ये सभी भगवान महावीर के निर्वाण होनेके पीछे ६८३ वर्ष बाद कभी हुए हैं, जिन्होंने अत्यन्त उच्चकोटिके अनेक अन्योंकी रचना की है, जिनमें
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কৰিয়াৰ अनेक ग्रन्थ नष्ट हो गये हैं और कुछ-एक आज भी जपलव्य है । असे कि जिनसेनके आदिपुराण आदि, धरसेनके पखंडागमसिद्धान्त आदि । समके शिष्यों द्वारा अर्थात् श्रीकुन्दकुन्दधारा प्रश्चनसार, समयसार,पंचास्तिकाय, नियमसार, अष्टपाड़ आदि अनेक अध्यात्मग्रन्थ रचे गये हैं जिनकी सारभूत-निष्कर्ष निकालने वाली टीकाएं हमारे पूज्यश्री अमृताचार्य महाराजने की है, उन्हींका रहस्य लेकर उन्हींकी यह 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' नामक अपूर्व रत्नत्रयप्रतिपादक ग्रन्थ एक मौलिक रचना है और भी अनेक ग्रन्थ आपने लिखे हैं। इन महाराजके गुरु श्रीमाधषचन्द्र धिचदेव है, जो प्रायः दसकी शताब्दी ( विक्रमकी के महान विद्वान है।
इसी तरह श्रीधरसेनाचार्यके शिष्य पुष्पदन्त-भूतबलिद्वारा रचे गये पखंडागम नामक सिद्धान्तग्रन्थकी टीका पुज्य श्रीवीरसेन महाराजने अन्सस्तत्त्व निकालकर की है, जिनके नाम पवल, जयश्चल, महाधवल रखे हैं और वर्तमान में जिनका पर्याप्त पठन-पाठन एवं स्वाध्याय चल रहा है, जैसाकि समयसार आदिका पठन-पाठन-स्वाध्याय अत्यधिकमात्रामें चल रहा है । बड़े ही उल्लास । हर्ष की बात है कि जिस प्रकार पूज्यतम महावीर भगवान के शिभ्य इन्द्रभूति नामक प्रधान गणधरने, भगवान को दिव्यध्वनि साक्षात् श्रवण करके वादशांगशास्त्रोंकी रचना की थी, उसी तरह उनके बंगभूत कितने ही शास्त्रोंकी रचना पूर्वोक्ति प्राचार्याने भी की है, जिनसे विवत्समाज और साधारण जनता आज भी लाभ उठा रही है. उनके हम अत्यन्त वृत्तज्ञ हैं, जिनके प्रकाशसे हम कुछ अनुगमपूर्वक लेखनी चला पाये हैं। मैं कोई इतिहासा नहीं है, न कोई ख्यातिप्राप्त लेखक विद्वान् हूँ, तथापि चंचुप्रवेशम्यायसे जो कुछ प्राप्त कर सका हूँ, वही आपके सामने रख रहा हूँ, आप निर्णय कीजिये और विशेष परिचय मुझे न होनेसे अन्धकारोंके बारे में अधिक लिस्बनेसे वंचित है, जिसका मुझे स्वेद है। इतना कुछ लिखनेका भी आधार 'आत्मधर्म' गजटका वर्ष २४ अंक दूसरा है, उसका मैं अत्यन्त आभारी है. मैं चाहता था कि कोई अन्य प्रसिद्ध विद्वान् उपोद्घात लिखता और इसके लिये प्रयत्न भी किया, किन्तु न जाने क्यों सफलता नहीं मिली, अमस्या मुझे खुद ही यह कुछ लिखना पड़ रहा है, पाठक क्षमा देंगे । यह अन्य, कलेवर ( २२६ श्लोक ) छोटा होने पर भी गजबका है, जैनागमका हृदय है, पाठकों द्वारा अवश्य पठनीय है, भाषा और भाव यथासंभव विकर बनाये गये हैं, साथ हिन्दी पद्यानुवाद मी लिख दिया गया है, जिससे सर्वोपयोगी बन गया है । अनेक अन्योंके उद्धरण व भाव देकर इसको समिपूर्ण सुन्दर थ ग्राह्य बनाया गया है। परिशिष्ट आदिमें उलयनपूर्ण विषयोंका यथासं भय काफी खुलासा किया गया है । यद्यपि इस ग्रन्थकी भाषाटीकाएँ अनेक लिखी गई है, किन्तु संभवतः इसमें कुछ विशेष सामग्री मिलाई गई है । अतएव यह ग्रन्थ आदरणीय होगा ऐसा मेरा विश्वास है । बुटियोंकी सूचना पानेका मैं अभिलाषी एवं कृता रहूँगा 1
कृपेच्छुः सन्तोषमवन, कटराबाजार, सगर
मुन्नालाल रांधेलीय (वर्णी)
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विषय-सची
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पीठिका पेज १ से ४० तक.---इसमें मंगलारण, गन्धरचनाका उद्देश, निश्चय व्यवहारका पक्ष आदि ८ श्लोक है।
(१ अध्याय पहिला, पेज ४१ से ७२ तक-इसमें जीवतस्त्र (द्रव्य ) का असाधारण लक्षण, उसका विशव विवेचन, सात भंग अनुजीवी प्रतिजीवी गुणका विश्लेष्टण, कर्तृत्व भोक्तृत्त्व, छह मतोंका सिद्धान्त, जीव व कमौका बन्धन कैसा? उसका खुलासा. बंधके भेद, परस्पर निमित्तता, शंकासमाधान, मूलमं भूलरूप प्रतिभासफा होना संसारका कारण है, पुरुषार्थसिद्धिका उपाय, ज्ञान और श्रद्धानके विश्यमें शंकासमाधान, मिथ्यात्वके भेद, सातत्वोंमें विपरीतताका प्रदर्शन, सम्यग्दर्शन प्राप्त होने की योग्यता, मोक्ष प्राप्त होनेकी योग्यताका निरूपण है।
(२) अध्याय दुसरा, पेज ७३ से १५१ तक-इसमें साधकको भूमिका, मुनिका लक्षण व कर्तव्य निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय, उपदेश देनेका क्रम, अक्रम उपदेश देने में हानि, प्रावकको धर्मकी आवश्यकता; सम्यग्दमिकी आराधना पहिले क्यों है? इसका समाधान, सम्यग्दर्शनका लक्षण व भेद, तथा उसके स्वामी कौन हैं, पंचलब्धियों का स्वरूप, पंद्रह द्रव्यों का स्वरूप व भेद, सम्यग्दृष्टिक ६६ गुण, तथा आठ अंगोंका निश्चय व्यवहार कथन, सम्यग्ज्ञानकी आराधना व साथ २ होने पर भी भेद व उसका कारण आदि २ कथन है। सम्यक्चारित्रकी आवश्यकता व उसका अन्तिम स्थान क्यों ? उसके उत्सर्ग अपवाद भेद व साधुओंके तीन भेद ।
(३) अध्याय तीसरा, पेज १५२ से १९५ तक-इसमें श्रावक धर्म ( अणुव्रत ) का कथन, मुनि व श्रावकका लक्षण, उसके भेद ध निश्चय व्यवहार रूपका खुलासा, फलभेद, निश्चयाभाम्रीका लक्षण, उससे होने वाली हानि, अन्यमतोंमें भी हिंसाका निषेध व अहिंसाका पोषण, परन्तु यथार्थ ज्ञान न होनेसे संसार परिभ्रमण ही होता है हिंसा आदि चार बातोंका निर्धार ।
(४) अध्याय चौथा, पेज १९६ से २१३ तक इसमें अष्टमूलगुण एवं उनमें मतभेदका प्रदर्शन ६ स्पष्टीकरण, हिंसाको प्रचुरता, तर्क व समाधान, उत्सर्ग व अपवादका स्पष्टीकरण ।
(५) अध्याय पाचयों, पेज २१४ से २९८ तक-इसमें अहिंसारूप धर्मको पालनेका उपाय, पालनेक ९ भेद, धर्म और चारित्रमें अभेद, अधर्म और सुखका समन्वय देखकर धर्मसे अचि या अथक्षा नहीं करना । धर्मका फल समय आनेपर अच्छा ही होता है, अधर्मका कल बुरा होता है, भ्रममें नहीं पड़ना चाहिये, हिंसाको धर्म माननेका खंडन, ( २ ) असत्यका कथन, महा असत्यके ३ भेद व उदाहरण, चौथे भेद ( सामान्य ) ३ भेदों ( गहित, सावध, अप्रिय ) का स्थरूप य उदाहरण । (३) चोरी पापका कथन, उससे होनेवाली हानि, ' (४) कुशील ( अब्रह्म ) का कथन, उसके भेद, विपक्षी ब्रह्मचर्यके भेद । ( ५ ) परिग्रह पापका स्वरूप, उसके भेद, हिंसाके साथ व्याप्ति, अन्तरंग व बहिरंग परिग्रहके नाम, मिथ्यात्व व अमंसानुबंधीका कार्य व गहबंधन, विशेषार्थ व भ्रम निवारण, रात्रि भोजन में हिंसाको अधिकता।
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- पुरुषार्थसिवमुपाप :.. ( ६ ) अध्याय छठवां, पेज २९९ से ३५७ तक इसमें सात शोल ( तीन गुणन्नत, ४ शिक्षाप्रत ) का स्वरूपक्रम, पिंड शुद्धिमें मक्खनका त्याग, श्रावकके १७ नियम शंका समाधान, दाताके ७ गुण, पात्रोंके भेद अनुद्दिष्ट भोजनका लक्षण, १२ अतोंसे ११ प्रतिमाओं का निर्माण आदि ।
(७) अध्याय सातवा, पेज ३५८ से ३६५ तक-इसमें सल्लेखनाका स्वरूप है, आत्मपात नहीं है, धर्म है।
(८) अध्याय आठया, पैज ३६६ से ३८८ तक-इसमें १२ यतोंके पांच २ अतिचार है, कुल' सम्यग्दर्शन व सल्लेखनाके मिलाकर ७० होते हैं।
(९) अध्याय नवमां, पेश ३८९ से ११३ तक-इसमें सकलधारिणका कथन, पालनेकी अभ्यास रूप विधि, प्रसंगवश शंका समाधान: विशेष छानवीन व सिद्धान्त कथन, सपके अन्तरंग बहिरंग भेद, निरुक्ति अर्थ, सम्यग्दर्शनको विशेषताएं, विनयकी विधि, ६ आवश्यक, ३ गुप्ति, ५ समिति १० धर्म १२ भावना २२ परोषह, इन सबका स्वरूप बताया गया है।
(१०) अध्याय बशमा, पेज ४१४ से ४३७ तक इसमें अन्तिम निष्कर्ष बतलाया है, ग्रन्थकर साहित है । रत्नत्रयको व मुमपी प्राप्त करनेको योग्यता, ऐक साय बंध व मोक्ष । मित्र उपयोग द्वारा) या संघर निर्जरा व आसबका सद्भाव बतलाया गया है, स्याडादन्यायसे सबकी सिद्धि, शंका, समाधान, अन्तिम प्रयोजन, अपना परिचय है ।
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ओं नमः सिद्धेभ्यः । श्रीमदमृतचन्द्राचार्यविरचित पुरुषार्थसिद्धयुपाय
'भावप्रकाशनी' हिन्दीटीका सहित ( हिन्दीपयानवाद, अन्वय, अर्थ, भावार्थादियुक्त)
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माषादीकाकारका मंगलाचरण देव-शास्त्र-गुरु-धर्मको प्रग बारम्बार तत्वज्ञान आधार अरु भवि-जीवन-हिसकार ॥ १॥
अन्धकारका मंगलाचरण तज्जयति परंज्योतिः समं समस्तैरनंतपर्यायः । दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ।। १ ॥
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उस उज्वल ज्योतिको नमते ओ अद्भुत गुणवाली है। तीनलोक तिहुकाल माप्ति नहिं जिसके सम उपकारी है ॥ एककालमें जो दरशाती दर्पण सम सब अोंकोहै अनन्त पर्याए जिनमें जानत है उन सर्वोको 11 १ ॥
साहचर्यसे-- धर्ममूलविज्ञानज्योतिके साथ धर्मको ममते हैं। वीतरागविज्ञान साथ रह अक्षय सुखको करते हैं ।
अन्वय-अर्थ " आचार्य महाराज इस श्लोक द्वारा गुणोंके माध्यमसे गुणी परमात्माका विनय या नमस्कार
१. मह सर्वनाम पर है अतः जो भी महात्मा ऐसे हों, उन सबको नमस्कार किया जाता है.---. उनकी मंगलकामना या स्मृति की जाती है, उन्हें बहुमान दिया जाता है। यह कार्यसमयसारको नमस्कार या कृतज्ञताका शापन है । आचार्य स्वयं तद्गुणलळ्यर्थी हैं। साहचर्यन्यायसे वीतरागधर्मको भी नमस्कार या बहुमान दिया गया है, सिर्फ विज्ञानको ही नहीं, यह तात्पर्य है ।
२. आश्चर्य व अतिशयजनक 1
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पुरुषार्थसिद्ध युपाय निम्न प्रकारसे करते हैं । यथा [यत्र] जिस परंज्योति या केवलज्ञानमें (विज्ञानमें) [स] युगपत् यानि एक साथ....एक काल ही | समस्तैरनंतपर्यायः सकला पदार्थमालिका | अपनी सम्पूर्ण अनन्त पर्यायों सहित रागरस पदार्थ गानाप
विगत वर्षगह या एनककी तरह, माने जैसे दर्पणके सामने आनेपर चेहरा मोहरा या बस्तु उसमें स्पट प्रतिबिम्बित होती हैं, उसी तरह [प्रतिफलति । झलकते हैं या जाने जाते हैं [तत् पज्योतिः जति ऐसी वह परंज्योति या केवलज्ञान जयवन्त रहे याने सदैव अनन्तकाल तक मौजद रहे उसका अस्त कभी न हो । अर्थात् उस गुणवाले मोक्षमार्गप्रदर्शक गुणी (केवली सर्वज्ञ) का हम ( आचार्य अमतचन्द्र विनय करते हैंकृतज्ञता प्रकट करते हैं, यह सारांश है। फलतः वीतरागता एवं विज्ञानता दोनों ही उपास्य व आदरणीय एवं प्रापणीय हैं । इस तरह बहुअर्थोमंगलाचरण आचार्यप्रवरने किया है। मंगलाचरणके प्रयोजन' अनेक है जो विनयगुण में शामिल हैं ।।१॥ .
भावार्थ.....कति शुभोपयोग या धर्मानुरागका परिचय मंगलाचरणके द्वारा हुआ करता है । संयोगो पर्याय में रहते हुए भी जीवोंको कृति या प्रतिसे उनके भावों (परिणामों) का पता बराबर लग जाता है. कोई असाध्य वस्तु नहीं है। जब परोपकार करनेकी अभिलाया या धर्म सथा धर्मात्माओं के प्रति कृतज्ञताका भाव होता है या उसका प्रबल देग प्रकट होता है तब वह किसीका रोका हुआ नहीं रुकता। यद्यपि विवेकी सम्यग्दृष्टि जॉब उसको रोग या विकार जैसा हेय ही जानता व मानता है तथा शक्तिहीनतासे संयोगीश्यायमें अभिच्छा या अरुचि उसका प्रयोग, उपयोग या सेवन करना ही पड़ता है। इसलिये वे विकारी भाव ज्ञानपूर्वक होनेसे ज्ञानभावरूप ही हैं, अज्ञानभावरूप नहीं हैं, न होते हैं तथापि अचि या अनिच्छा साध रहनेसे अधिक बन्धके कर्ता ने नहीं होते, अल्पबन्धके का ही में होते हैं, परन्तु इकदम रुकते नहीं हैं। तभी तो पूज्य, कुन्दकुन्दाचार्यप्रभूति महात्ती आत्राोंने छठवें गुणस्थान में रहते हुए शुभोपयोग और शुद्धोपयोग बनाम व्यवहार और मिश्यका सदुपयोग किया है. दोनोंका अविरोधरूपसे प्रवर्तन अपने में किया है । जो प्रत्येक ग्रन्थमें मंगलाचरण में प्रस्फुटित हुआ है। यहाँ पर भी वही समानाना है । परिणमनके अनुसार शुद्धोपयोगो मोक्षमार्गीका उपयोम बदलकर शुभोपयोग रूप हो जाता है। स्वभावके अनुसार उपयोग क्षायोपशमिकदशामें बदलता रहता है तभी तो परमात्माके अनुपम गणोंको प्राप्तिका भाव रखकर परमात्माके गणीका कीर्तन संभवत: आचार्यने किया है। परन्तु ध्यान रहे कि यह अशुभराग नहीं हैं कारणकि इसमें विषय-कषाय बढ़ानेको चाह या इच्छा नहीं है न किसी तरहकी संपलेशता है जिससे अधर्मानुगग या अशुभोपयोग मानाजा सके, यह रहस्य है । अस्तु, यहाँपर यह प्रश्न हो सकता है कि लक्ष्यको सिद्धि ( केवलज्ञानकी प्राप्ति ) बिना वीतरामताक नहीं हो सकलो, उसका होना साथमें अनिवार्य है। परन्तु आचार्य महाराजने उसका नाम भी नहीं लिया, यह कैसा ? इसका समाधान यह है कि दोनों सहभावी या
१. (१) नास्तिकता ( अधार्मिकता) दोपको मिटानके लिये (२) शिष्टाचार पाल के लिये याने पूर्व परम्पराको चलाने के लिये ( ३ ) विनोंकी शान्तिके लिये ( ४ ) जाकार स्मरण करने के लिये इस प्रकार चार प्रयोजन मंगलाचरणके माने गये हैं। आचार्य में उन्हें लक्ष्य रखा है।
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५. सम्यग्दर्शमाधिकार अविनाभावी हैं । अतएव किसी एकका नाम लेने से दोनोंका ग्रहण हो जाता है, लोकमें ऐमा न्याय है। जैसे कि माताका नाम लेनेसे पिताका नाम आ जाता है या रूपके कहनेसे सहचर रसका भी कथन या ग्रहण हो जाता है। तदसूसार यहाँ पर भी विज्ञानता---परंज्योति के साथ बीतसमताका भी उपादान हो जाता है औरहत या केवलज्ञानी होने के लिये वीतरागता व विज्ञानता दोनोंकी आवश्यकता होती है व मानी गई है। अस्तु, ये दोनों आत्माका स्वभाव है तथा ज्ञान के साथ वैराग्य होता है अतः जोड़ोदार भी हैं। ज्ञानका अर्थ यहाँ भेदविज्ञान है, किन्तु साधारण शान नहीं है जो सभी जीवों में रहा करता है, कारणकि वह जीवद्रव्यका साधारण लमाण है, जो दूसरे द्रव्योंमें नहीं पाया जाता । हमेशा गुण हो। पूज्य होते हैं, वेष वगैरह पूज्य नहीं होते क्योंकि वे जड़ पुगलकी पर्यायरूप हैं इत्यादि । गुण और गुणीका परस्पर भेद न होनेसे गुणोंके नमस्कार द्वारा गुगीका नमस्कार अनायारा) आनुषंगिक ) सिद्ध हो जाता है ) किम्बहुना ।
आचार्य या साध-मधिमा करा ' को माध्यस्थ्यभावका बनाम समताभाव या निर्विकला कलाका भलीभांति निर्वाह करना है अर्थात् उसकों रागद्वेषसे रहित होकर निन्दा-स्तुति, कांच-कंचन, शत्र-मित्र, आदि सब में कोई विकारीभाव या पक्षपात नहीं करना चाहिये 'सस्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद इत्यादि भावना भी वर्जनीय बतलाई है, कारण कि उससे बन्ध होता है। इसीलिये स्वामी समन्तभद्राचार्यने रत्नकरंडयावकाचारमें "विषयाशाबशातीतो निरारंभापरिग्रहः ज्ञानध्यानतपोरक्तः तपस्वी म प्रशस्यले लिखा है। सब आरंभपरिग्रह, विषयवासनासे रहित सिर्फ ज्ञान, ध्यान व तपमें लीन रहने वाला साधु या श्रमण होता है व होना चाहिये, शेष सभी कार्य उसके लिये वर्जनीय हैं...पदवीके त्रिस्त हैं इत्यादि । शास्त्ररचना आदि कतंत्र्य है। आचार्य शास्त्र-रचनाकर सराहनीय कार्य किया है, पदके अनुकूल है।
पुनः परमज्योतिः ( केवलज्ञान ) की और विशेष महिमा ( तारीफ) है-उसका ज्ञेयोंके साथ नित्य सम्बन्ध सिर्फ निमित्तनैमिलक है याने शेय-जायक सम्बन्ध है, उत्पा-उत्पादक सम्बन्ध नहीं है, यह बताया जाता है ।
ज्योति: प्रकाशको कहते हैं सो वह ज्योतिः या प्रकाश जोवद्रव्य ( वेतन ) में होता है और पुद्गलद्रव्य ( रत्न वगैरह जड़ ) में भी होता है। परन्तु ज्योतिका महत्व सिर्फ प्रकाश करनेसे नहीं होता किन्तु, खुद अपनेको जाननेसे होता है। ऐसी स्थिति में पुद्गलद्रव्य ( अजीव) की ज्योति ज्ञान या चेतनता रहित होनेसे वैसी आदरणीय नहीं होती जैसी कि आत्मा ( जीव ) को ज्योति आदरणीय होती है 1 अस्तु, इराके सिवाय जड़की ज्योति जड़को ही प्रकाशित करती है चेतनको प्रकाशित नहीं करती । जैसे कि एक्सरा शरीरके मामूली स्थूल विकारको बताता है . १. तीन भुवनमें मार वीतराग-विज्ञानता । त्रिय शिवकार ममह श्रियोग सम्हारिके ।।
-छहकाला १-१ मंगलमय मंगलकरन धौलसम-विज्ञान 1 नगों नाहि जाने भत्रै अरहता दिगहान् ।। ---मोक्षमार्ग प्रकार
२. तत्त्वार्थमूत्रमें उपयोगो लक्षणम्' कहा गया है । अ०२ मूत्र ।।८।। .. "गुणाः पूज्याः पुसां न - विकृतवषो न च वयः ---स्वयं मुस्तोत्र
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पुरुषार्थसिद्ध पा
सूक्ष्मविकारको नहीं बताता, जीवको तो कतई बता ही नहीं सकता । शरीर जड़ है अतः उसको aar देता है | किन्तु उसको यह ज्ञान नहीं है कि में कीम हूँ व ये कौन हैं और मैं क्या कर रहा हूँ इत्यादि । फलतः दर्पणको उपमा सर्वथा फिट नहीं बैठती, साधारण समझानेको उसका उदाहरण दिया जाता है । अस्तु,
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केवलज्ञानरूप परंज्योति: ( चेतन ) हमेशा ज्ञेयों याने पदार्थोंसे सदैव जुदी ( पदार्थ व दर्पेणकी तरह ) या पृथक सत्ता ( अस्तित्व ) रखती है तथापि उन सबको अखिलपर्यायों सहित यह युगपत् ( एक ही समय में ज्यों-की-त्यों जानती है । न वह ज्योतिः पदार्थोंके क्षेत्रमें जाती है न पदार्थ ज्योति के क्षेत्रमें आते हैं, किन्तु अपने-अपने स्थान और चतुष्टय (द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव ) में रहते हुए अपनी अपनी विशेषता या स्वभाव के द्वारा ( प्रकाश्य प्रकाशकरूप ) एक दूसरेसे अस्थायी संयोग सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं । अतएव ऐसे सम्बन्धको निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धके नामसे कहा जाता है_उत्पाद्य उत्पादक सम्बन्धके नामसे नहीं कहा जाता । अतः बेसा मानना भ्रम व अज्ञान है, कारण कि कोई fract उत्पन्न नहीं कर सकता, यह अटल नियम है । न कोई वस्तु किसीमें प्रवेश करती है न तदात्मरूप होती है, न उसको उत्पन्न करती है, न उसका कार्य करती है। अतः वस्तु पूर्ण स्वतंत्र है, अपना-अपना कार्य ही करती है। एक दूसरेमें पृथक् रहते हुए सहायक या निमि तता अवश्य कर सकती है किन्तु उसके उत्पन्न करने में असमर्थ या अकिचित्कर ही रहती है । वस्तु या पदार्थ में ऐसी शक्ति ही नहीं है जो परमें प्रवेश कर सके या उसका उत्पादनरूप कार्य कर सके इत्यादि । इसीसे यह भी सिद्ध होता है कि आत्मामें अनन्तशक्ति रहते हुए भी परके करने की शक्ति उसमें नहीं है, सिर्फ परको जानने की शक्ति उसमें है। इसी तरह प्रत्येक द्रव्यका हाल समझना चाहिये।
ज्ञानकी हालत बदलती है, एकसी सदैव नहीं रहती । प्रतिक्षण अर्थ पर्याय याने सुक्ष्म पर्याय बदल जाती है उसकी क्षणमात्रकी स्थिति है । तभी तो सूक्ष्म निगोदिया लव्यपर्यातकका अक्षरके अनन्त भाग बराबर सूक्ष्मज्ञान बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञान ( अनन्त ) तक बढ़ जाता है । सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग बराबर शरीर एकहजार योजनकी अवगाहनावाला बढ़ते-बढ़ते हो जाता है । तब यहाँ प्रश्न होता है कि जत्र प्रत्येक वस्तु ( पदार्थ ) परिणमन या परिवर्तनशील है तब पुद्गलका परमाणु भी कभी बढ़ जाना चाहिये याने अधिक प्रदेश वाला मोटा बन जाना चाहिये? इसका उत्तर यह है कि शुद्धनिश्चयनयसे परमाणु एकप्रदेशी सूक्ष्म है अतएव वह उतना हो हमेशा रहता है सिर्फ उसमें रहने वाले गुणोंकी हालत ( पर्याय ) बदलती है याने कभी उन गुणोंकी शक्ति बढ़ जाती है और कभी घट जाती है ऐसा होता है । परन्तु व्यवहारनयसे या [ अशुद्ध निश्चयसे परमाणुको बहुप्रदेशी बनने की योग्यता ) ( शक्तिमात्र ) बतलाई गई है afer यह संभावनासत्य है, कार्यसत्य नहीं है ( व्यक्ति नहीं होती ) । हाँ, उपचारसे उस समय बहुप्रदेशी कह दिया जाता है, जब कि यह परमाणु दूसरे परमाणुओंके साथ संयुक्त होता है अर्थात् स्कन्धमें बहुप्रदेश होनेसे ( जो बहु परमाणुओंसे बनता है ), जैसा स्कन्ध बहुदेशी माना जाता है वैसा हो, परमाणुको भी उपचारसे बहुप्रदेशी मान लेते हैं, यह समाधान समझना चाहिये । निश्चयसे परमाणुका परिमाण ( एकप्रदेश ) नहीं बढ़ता, न घटता है । किम्बहुना |
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१. सम्यग्दर्शमाधिकार
वस्तुके स्वभाव अनेक तरह के होते हैं। जैसे कि ---(१) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, यह वस्तुका स्वभाव है (२) गुण व पर्याय, वस्तुका स्वभाव है। (३) परिणमनशीलता, यह भी बस्तुका स्वभाव है। इसी में नित्य व अनित्य स्वभाव भी आ जाता है। फलतः पुष्करपलासवत् निलेप' ( तादात्म्यरहित ) प्रत्येक वस्तुका स्वभाव होनेसे ज्ञायक परज्योति भी ज्ञेयोंसे भिन्न ( शुद्ध-तादात्म्यरहित ) रहती है।
तथा परज्योतिः निष्चयसे अपने ज्ञेयाकार चैतन्यको ही जानती है और यहार से . परपदार्थोंको यह तथ्य ( रहस्य ) भी समझना चाहिये, जो सत्य है। इसी तरह परंज्योति ( केवलज्ञान ) और अर्हन्तपना ( सर्वज्ञवीतरागता ) यह सब पुण्यका फल है, पापका फल नहीं है। कारण कि पापकर्मों याने घातियाकर्मो के अय होने पर ही वह अवस्था होती है, उनके उदय अस्तित्व में नहीं होती जिससे उनका फल माना जाय: नहीं माना जा सकता। किन्तु बह पुण्यकर्मोका याने अघालिग्रा कोंके उदय या अस्तित्व रहते ही होता है अतएव उनहीका फल मानना चाहिये. भ्रममें नहीं पड़ना चाहिये। तथा उनकी सब गमनादि किया जायिको है। निमित्तको अपेक्षा ) किन्तु सामान्यतः स्वाभाविक्री है-वस्तुस्वभावसे वैसा परिणमन होता है। अस्तु, विशेष टीकासे देख लेना चाहिये । वे मोक्षमार्गके नेता ( प्राप्त करनेवाले ) हैं या उपदेश देनेवाले हैं, सर्वज्ञ हैं, वीतराग हैं । अतराव गमनादि सब क्रियाओंके होते हुए भी वोत रागविज्ञानतासे कर्मबंध नहीं करते, न नया भव धारण करते हैं यह फल होता है ।
विशेष--आचार्य महाराजने परंज्योति ( केवलज्ञान ) की महिमा उक्त श्लोक द्वारा मुख्यरूपसे एकप्रकारको बललाई है और वह इस प्रकारको कि वह परमज्योतिः गुगपत् ( एक कालमें ) सम्पूर्ण पदार्थोंको उनकी कालिक अनन्त पर्यायों सहित हस्तामलकवत् स्पष्ट यथार्थ जानती है । इत्यादि शेष सब यथाशक्ति ऊपर दर्शाया गया है। अर्थात् परंज्योतिमें अनेक प्रकारको महिमाएँ हैं तथापि आचार्यने 'स्थालीलंडुलन्याय से एक अद्वितीयपना मुख्यतासे बता दिया है। लेकिन इससे सिर्फ उतनी ही महिमा नहीं समझना चाहिये, अपित और भी अनेक महिमा समझना चाहिय, अनेकान्तदष्टिसे विचार किया जाता है। अस्तु, सबसे बड़ी संख्या (राशि) केवलज्ञानके अविभागी प्रतिच्छेदों ( अंशों ) की है, वहे अनंतानंत है। उनसे कम संस्था, पदार्थों (विषयों। की है, वह अनंत है तथा उन पदार्थोके वाचक शब्दों ( अक्षरों ) की संख्या और भी कम है (सीमित है। एवं पदों, वाक्यों और शास्त्रोंकी संख्या बहुत कम है । अनंत अनेक प्रकारके होते हैं (द्रव्यगत, गुणगत, पर्यावगत इत्यादि ।
परंज्योतिके प्रति आस्था और विनय प्रकट करने के पश्चात् आचार्य अनेकान्तको वनाम स्याद्वायरूप जिनवाणीको भी साध्यका साधक होनेसे नमस्कार करते हैं--
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१. पुण्यफला अरहन्ता तेसि किरिया पृणो हि ओदगिया । मोहादीहिं विरहिंदा सम्हा सा वायगत्ति मदा ॥४५।।
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पुरुषार्थसिद्धयुगाय परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥२॥
पद्य जिनवाणीको नमन करत है अनेकाम्तमय जो होती। वादविवाद मिटाती वह है 'स्यावाद' संगति करती ॥ इसी नीभिसे मेल होत है, सारे काम सिद्ध होने । जन्मांधोंको ज्ञान कराती .... हाथी, मिल अंगहि जेसे ॥२॥
अन्वयार्थ आचार्य ( अनेकान्तं नमामि ) अनेकान्त बनाम 'स्यावाद' को अथवा निमित्तकारणरूप जिनवाणीको नमस्कार करते हैं, जिससे कि जीवोंको ज्ञान या बोध होता है। पुन: बह अनेकान्त कैसा है ? [ परमागमस्यबीजं | परमागम याने जिनोपदेशका बीजरूप है अर्थात् जिनेन्द्रदेव ( अर्हन्त तीर्थकर) का उपदेश ( पदार्थकथन ) सब स्याद्वादरूप या अनेकान्तरूप होता है, एकान्तरूप कभी नहीं होता जो असत्य माना जाये । तथा [ निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् ] जिस प्रकार जन्मसे अन्धे मनुष्योंका हाथ के बावत होने वाले विवादको, नीतिल सर्वाग दृष्टि रखने वाला चतुर व्यक्ति तुरन्त ही मिटा कर हाथीका यथार्थ ज्ञान करा देता है, उसी तरह (सकलनविलसितानां विरोधमथन । अनेक नयों या पक्षपातोंके द्वारा उत्पन्न होने वाले मतभेदोंको करने वाले या मरे वाले गनु.जमा विवाद विरोध ) को वह अनेकान्त नष्ट कर देता है, ऐसी अद्भुतशक्ति उस अनेकान्त-शासनमें है अतएव उसको नमस्कार करना उचित ही है। वह भी वीतरागता व विज्ञानताकी तरह हितकारी-उपकारी है, यह भी एक कृतज्ञता-प्रकाशनरूप विनयगुण है-शुभराग है, जो पुण्यबंधका कारण है। अस्तु, अनेकान्तकी महिमा इस श्लोक में बतलाई गई है। जिसके दृष्टान्तका खुलामा निम्न प्रकार है---
किसी नगरमें जन्मसे अन्धे (,प्रज्ञाचक्षु ) बहुतसे मनुष्य रहते थे। उनको हाथीके जानने की प्रबल इच्छा थी। एक बार उस नगरमें अचानक हाथी आ गया, लोग उसको देखनेके लिये दौड़ पड़े ! जन्मांध मनुष्य, ओ पहिलेसे ही हाथी जाननेको उत्सुक थे, कब मानने वाले थे, वे भी चल दिये और हाथोके पास पहुँचकर हाथीके अंगोंको पकड़ गये और अपने आप ही सोचने लगे कि हाथी ऐसा होता है। जिसमे हाथीके पाँव पकड़े वह खम्भा जैसा हाथीको मानने लगा। जिसने पेट पकड़ा वह विटा जैसा हाथीको मानने लगा, जिसने सूड पकड़ी बह डेंडा जैसा हाथीको मानने लगा, जिससे अखें पकड़ो, वह दिया जैसा मानने लगा, जिसने कान पकड़ा वह सूप जैसा मानने लगा, जिसने पूछ पकड़ी वह बारा जैसा कहने लगा, इत्यादि भिन्न-भिन्न प्रकार हाथी उनके ज्ञानमें झलक गया। पीछे वे आपसमें हाथी के स्वरूपको लेकर झगड़ने लगे। कोई
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१. मूलाधार.--जिससे उत्पति होती है, उपादान कारण । पाठान्तर. "जीवं' शब्दका अर्थ प्राणाधार या रचनेवाला होता है।
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1. सम्यग्दर्शनाधिकार कहता है हाथी खम्भा जैसा होता है, कोई कहता है विष्टा जैसा होता है. कोई कुछ कहता है, कोई कुछ कहता है, इत्यादि । इतने में कोई समझदार अनेकदाष्ट्रवाला या सर्वागों को जानने देखने वाला वहाँ आया और उनके विवादको समया! और कहा, भाई ! क्यों लड़ते हो? मत लड़ो हम तुमारा अगड़ा मिटा देते हैं। बात इस तरह है कि तुम सबका कहना कुछ-कुछ सत्य है-झूठ नहीं है, किन्तु पूरा हाथी वह नहीं है, जिसे तुम लोग मान बैठे हो, यह गलत है। हाँ, सब अंगोंको परस्पर मिला दिया जाए तो पूरा व सही हाथी होता है ( बन जाता है ), बस क्या था, उन लोगों की समझ में आ गया और सब एक मत हो गये, विवाद तुरन्त मिट गया। यह सब अनेकान्तसे या स्याहादरीतिसे समझानेका ही फल है, जिसको वह समझाने वाला स्वयं ही समरता था। अतएव उसने बताया कि सब अंग मिल कर ही अंगो ( पूरा) बनता है, बिना अंगोंके अंगो नहीं बनता, इत्यादि।
इसी तरह प्रत्येक पदार्थ या वस्तु अनेक धोका पिंडाव होता है...उसमें अनेक धर्म था अंग बसते हैं । अतएव किसी एक धर्म जान लेने मात्रसे पूरे पदार्थका ज्ञान हो जाना नहीं माना जा सकता, अपितु वह आंशिक ज्ञान छद्मस्थ या क्षायोगशसिक ज्ञानियों को होता है, इसीलिये उनको एक साथ पूरे पदार्थका ज्ञान नहीं हो सकता, वह सिर्फ क्षायिकज्ञानी सर्वज्ञ केवली को ही होता है अन्यको नहीं। लेकिन कथन-~-निरूपण या उपदेश सबका एक साथ पूरा नहीं हो सकता । किन्तु थोड़ा-थोड़ा होता है, बस इसीका नाम 'स्याद्वाद' है-कथंचित् या थोड़ा-थोड़ा कथन है। लेकिन उसमें विशेषता यह है कि बह क्रमशः कहा गया वस्तुका अंश शेष अकथित अंशोंके साथ सम्बद्ध रहता है, वह अकेला उतना हो वस्तुमें नहीं रहता, परस्पर वे सापेक्ष रहते हैं । फलतः अनेक धर्मवाला पदार्थ होरेसे एक धर्मरूप या एकान्तरूप ( तावन्मात्र) पदार्थ नहीं है, न माना जा सकता है । सब विरोध या विवाद, जो एकान्त माननेसे होते हैं, अनेकान्त से नष्ट हो जाते हैं । अन्तका अर्थ धर्म है।
बिशेष—अनेक धमोंमें, नित्य धर्म, अनित्य धर्म, स्वभाव धर्म, विभाव धर्म, निवनय धर्म व्यवहार धर्म, उत्पादन मनौव्यधर्म, द्रध्यपर्याय व गुणपर्यायधर्म, सामान्यधर्म विशेषधर्म आदि बहुतसे शामिल हैं। उन सबसे पदार्थका सम्बन्ध है अतएब सबका विचार किया जाता है । यही अनेकान्तको जानकारी है । गौण और मुख्य यह अनेकान्तको रोति व नीति है ।
विश्लेषण .. 'स्याद्वाद' यह शब्दको शक्ति या स्वभाव है, जो उसमें अकृत्रिम या स्वाभाविक है। कोई भी शब्द ( पूदगलकी पर्याय ) किसी भी बस्तुका एक बारमें पूरा नहीं कह सकता, किन्तु थोड़ा-थोड़ा कह सकता है अतएव जितना आगम या उपदेश ( दिव्यध्वनि ) है वह सब स्याद्वादरूप या थोड़ाथोड़ा कथनम्रूप है । फलतः जिनध्वनिका आधार या बीज 'स्याद्वाद' या अनेकान्त ही ठहरा, क्योंकि उसी रूप वह होता है, अन्यरूप नहीं होता, ऐसा स्पष्ट समझना चाहिये।
___ इसके विरुद्ध जो एकान्ती शब्दको 'स्यावाद' रूप नहीं मानते किन्तु पूर्ण या सर्वथा मानते हैं कि शब्दोंके द्वारा जो कुछ एकबार कहा जाता है बस उतना ही पदार्थ है, और उसमें कुछ
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पुरुषार्थसिद्धथुपायं बकाया नहीं रहता इत्यादि, बस इसीसे उनको अनेकान्तका ज्ञान नहीं होता और वे अज्ञानी ( अधूरे ज्ञानी-मिथ्याज्ञानी) बने रहते हैं अर्थात् उनको शब्दको शक्तिका ज्ञान न होनेस भटकते रहते हैं, अहंमन्य अहंकारी बन जाते हैं। फलतः स्याद्वादी हो वस्तुके स्वरूपको यथार्थ समझ सका है, एकान्तबादी नहीं, यह सारांश है। इसीलिये आचार्यने स्थावाद या अनेकान्तको उपकारीहितकारी समझकर नमस्कार किया है। इस तरह वीतराग विज्ञानताके साथ अनेकान्त या स्थाद्वादका सम्बन्ध जोड़ा गया है।
दिव्योपदेश ( दिव्यध्वनि ) का क्रम और उसमें निश्चम-व्यवहाररूपता ध्वनि या शब्द, अर्थ या पदार्थ, ये दो पृथक-पृथक चीजें हैं। इनका परस्पर वाचक-वाच्य सम्बन्ध पाया जाता है। ध्वनि या शब्द वाचक होते हैं और अर्थ या पदार्थ वाच्य हुआ करते हैं। परन्तु कुछ शब्द ऐसे भी हुआ करते हैं जिनमें पदार्थोंको कहने की शक्ति नहीं रहती तथा कुछ पदार्थ भी ऐसे होते हैं जो वचनों या ध्वनियोंसे नहीं कहे जा सकते.....अनिर्वचनीय होते हैं ऐसी स्थिति में दिव्यध्वनि भी सभी अर्थों को नहीं कह पाती और ऐसे अर्थ प्रायः तीन चौथाई याने बारह आने भर हैं, सिर्फ चार आना भर पदार्थ ऐसे हैं जो दिपध्वनि द्वारा कहे जाते हैं । वे भी क्रम-क्रमसे कहे जाते हैं, युगपत् (एक साथ ) नहीं कहे जाते । यही बात गोम्मटसारमें' कही है।
तात्पर्य यह कि जितने पदार्थ दिव्यध्वनि द्वारा कहे जाते हैं उनमेसे श्रोतागण थोड़े पदार्थोको अपनी-अपनी भाषा में जान पाते है उन्हें उनका ज्ञान हो जाता है और गणधरदेव उसमेंसे भी थोड़े पदार्थोंका समावेशग शास्त्रों का योगदार हैं ! जसले सनात् अंग पूर्वके ज्ञाता आचार्य और थोड़ा अपनी रचनामें लिख पाते हैं। इस तरह कमती-कमती ही आगे ज्ञान ब रचना होती जाती है । इस व्यवस्थाके अनुसार कभी भी एक बार सभी पदार्थोंका कथन और उनका साास्थरूपमें प्रणायन या समावेश नहीं होता, यह नियम है। इस तरह काम-क्रमसे पदार्थोका कथन होता है तथा एक पदार्थका कथन भी उसके सम्पूर्ण धर्मों सहित एक बार नहीं होता किन्तु अनेक बार उसके अनेक धर्मोका कथन करना पड़ता है। यह क्रम व्यवस्था बहुत शब्दों और अर्थोंमें । बाधक-बाच्यरूपमें ) पाई जाती है, इसका खंडन कोई नहीं कर सका।
दिव्योपदेश ( परमागम ) का रूप व भेद व परिचय मय उदाहरणके निश्चयसे यह तो प्रायः सभी विद्वान् जानते हैं कि शब्द या वचन ( ध्वनि ) यह पुद्गलको पर्याय है और जङ्गरूप है किन्तु प्रयवहारसे जब उन शब्दों का संयोग सम्बन्ध जीवद्रव्य के साथ हो जाता है तब उन शब्दों या वचनोंको जीवको कहा जाता है। इस अपेक्षासे जीव बोलता है,
१. पण्णवणिज्जा भावा आणतभागो दु अणभिलप्माण । पागवणिज्जाणं पुण अणंतभागो दु सुदणिवद्धो ।।३३४11 ---जीवक्रांड
__अर्थ-जितने पदार्थ केवली के शानमें आते हैं वे सब वचनीय ( वक्तव्य ) नहीं है किन्तु अनिर्वचनीय उनमें वहृत याने बारह आना है, और वचनीय कम याने चार आना भर हैं। उनमेंसे भी शास्त्रमें जो निबद्ध किये जाते हैं याने गुंथे या भरे जाते हैं वे अनन्त भाग है-सबसे थोड़े हैं यह क्रम हैं ऐसा समझना चाहिये।
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७. सम्यग्दशनाधिकार उपदेश देता है, यह भी कहा जाता है एवं सत्य बोलता है, झूठ बोलता है, उभय बोलता है, अनुभव बोलता है, यह भी कहा जाता है । इसी तरह अन्त देव भी उपदेश देते हैं--मोक्षमार्ग संसारमार्गका निरूपण करते हैं, विहार करते हैं, व्यान धरते हैं इत्यादि उपचारसे कहा जाता है ! परन्तु निश्चयसे वे सिर्फ ज्ञाता, दृष्टा है..सिर्फ सब बातोंको जानते हैं। लेकिन संयोगी पायमें रहनेसे उनको यह लांछन लगाया जाता है। अस्तु, जब तक संयोगो पर्याय में रहते हुए भी जीव कषायसहित (विकारी भाव सहित ) होता है तब तक इतना जरूर होता है कि उसके जितने वचन निकलते हैं, वे सब प्रायः कषायपूर्वक या कषायके निमित्तसे निकलते हैं, यह नियम है। तभी तो कषायसहित जीवोंके वचनोंके चार भेद माने जाते हैं (१) सत्यवचन, (२) असत्यवचन, (३) मिश्रवचन, (४) अनुभयवचन। इनका सम्बन्ध जीवके आभप्राय (कषायरूप इरादा ) के साथ है अर्थात् जैसा इरादा ( अभिप्राय ) होता है वैसा ही नाम वचनोंका पड़ता है। जैसे कि यदि किसीका स्रोटा इरादा हो, बचन वह सत्य भी बोलता हो तो उसको असत्य वचन ही कहा जायगा । वह जीव असत्यवचन ( झर) का अपराधी होगा; कारण कि उसका इरादा बोलनेके समय खराब था... दूसरे प्राणीको नुकसान पहुँचानेका था---अतएव 'सत्यमपि विपदे' इस वाक्यद्वारा समन्तभद्राचायंने उसको असत्यवचनमें शामिल किया है ( रत्नकरंडथावकाचार इलोक मं० ५५) । तात्पर्य यह कि संयोगी पर्यायमें कषाय या अभिप्रायके अनुसार हो सत्य, असत्य आदिका निर्णय होता है बिना कषायके चार भेद बचनोंके नहीं होते।
___अर्हन्त भगवान्के बिना कषायो यचनोंके दो भेद (१) सत्यवचन (२: अनुभरा वचन ( न सत्य न असल्य या अक्षर रहित निरक्षर वचन ) ऐसे माने गये हैं। शेष दो भेद असत्य और मिश्र नहीं माने गये हैं। गोम्मटसारमें' उनको याने सत्यवचन और अनुभव वचनको उदाहरण देकर समझाया गया है।
१० दशा प्रकारका सत्यवचन
भत्तं देवी चंदप्पहाडिगा तह य होदि जिणचन्दी। सेदो दिग्धो नदि कुरीति य हवे अयण ॥२२३।। सको जंबूदीवं पल्लट्टदि पावदजवयणं च ।
परलोपमं च कमसो जगपदसनादिदिटुंता ॥२२४॥ गो. जीवकांड अधई ----सत्यके १० भेन, भिन्न २ अपेक्षासे माने आते हैं यह लोकरीति है-यवहारनय हैं जो पर्यायाश्रित हैं । अतः वह भी पर्यायको अपेक्षाले सत्यमें शामिल होता है। जैसे कि मद्रास देश (जनपद) में 'भक्त भात-भेड-भाटु, यह चांवलोंकी पर्याय सत्य मानी जाती है। फिर भी वह कचित् सत्य है, उस देशकी अपेक्षा सत्य है-सब देशोंकी अपेक्षा सत्य नहीं है। (१) यह सत्यका पहला उदाहरण है, इसके द्वारा सत्यका परिस्म दिया गया है, जानकारी कराई गई है। (२) सम्मलिसत्यका उदाहरण, देवी-पट्टरानो-स्त्री आदि बचन सम्मतिपसे सन्य है; कारणकि उनसे
एक निश्चित अर्थ का बोध होता है । वह रूढिरण्य भी कहलाता है ।
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पुरुषार्थसिनथुपाये सत्य और अनुभवका यथार्थ अर्थ मिनिमित्त ( निमित्त बिना---स्वाभाविक ) एवं अनिर्णीत होता है अथवा विशेष और सामान्य भो होता है अथवा साक्षर और निरक्षर भी होता है इत्यादि । स्वभावानुसार { बाय निमित्तके बिना ) जो पुदगलद्रव्यमें ध्यान या बचन या शब्द निकलते हैं वे सत्य ही निकलते हैं, परन्तु उन्हें कथंचित् सत्यवचन कहा जाता है इसलिये कि वे बचन किसी भी पदार्थको पूर्ण कहने में असमर्थ होते हैं, कुछ थोड़े धर्मको ही कहते व कह सकते हैं, सिर्फ स्वाभाविक परिणमन पुद्गलका होनेसे वे सत्य हैं कृत्रिम या (३) स्थापनासत्यका उदाहरण वह चन्द्रप्रभ भगवानको प्रतिमा है, ऐसा कथन या वचन स्थापनामिक्षेपसे
सत्य माना जाता है। (४) नामसत्यका उदाहरण----जैसे यह जिनदत्त है, देवदत्त है, इत्यादि नामरूप कथनके द्वारा सत्य माना
जाता है। (५) मुख्यसत्य-अनेक धमों या गुणोंमसे एकनाक मुख्यका कथन करना मुरूपसत्य कहलाता है, जैसे--
यह 'काला है' आदि । (६) इसी प्रकार प्रतीत्यसत्य, (७) व्यवहारसत्य, (८) संभावनासत्य, (९) आगमसत्य (भानसत्य) और (१०) उपमासत्य इनका भी स्वरूप जान लेना चाहिए ।
नौ प्रकारका अनुभव वचन आमंतणि आपणदणी याचनिया पुच्छगी 4* एगवणी । पच्या सवयी, इशानुलोमा य" ।।२२५।। पवमो अणवस्वरगदा" असचनमोसा हवति भासाओ ।
सोदारार्ण जम्हा वसादलस-संजण्या 1॥२२६||- जोकका अर्थ.....जो वचन न व्यक्त ( स्पष्ट) हो, न अव्यक्त ( अस्पष्ट ) हो यानि अनिर्णीत हो अर्थात् किसी प्रकारका निर्णय न हो सके, उस वचन या कथनको अनुभवत्रचन ( चौथा भेद ) कहते हैं । उसका परिचय नौ प्रकारके दृष्टान्त देकर कराया गया है अर्थात् नौ स्थानों या वाक्यप्रयोगोंमें प्रदर्शित किया गया है। जैसे-.--(१) आमंत्रणी किसीको जोरसे लाने में या टेरने में जब तक स्पष्ट उच्चारण न हो.....ठीक-ठीक शब्द, बोले जाय, न सुनाई पड़े, तब तक उनको अनुभयवचन भागना चाहिये । इसको आमंत्रण या सम्बोधन कहा जाता है। यहो आमंत्रणी भाषा है। (२) आज्ञावचन--किसीको आजा देना कि ऐला करी इत्यादि (३) याचनावचन---किसीसे कुछ मांगने के बदन । (४) पृच्छनावचन--किसीसे कुछ पूछनेके क्सन (५) प्रज्ञापनवचन--किसीको कुछ बताने या जाहिर करनेके वचन--सूचना देनेवाले वचन । (६) प्रत्याख्यानवलनत्यागने पा छोड़लेके बच्चन कि यह तुम छोड़ो आदि । (७) संशयवचन-जिसमें कोई निर्णय न हो सके। (८) इमछानुलोम प्रचन--पूछनेकालेकी इच्छापर फैसला देनेके बचन, कि जैसा चाहो सो करो इत्यादि। (९) अनक्षरत्रचन---इशारा या संकेतरूप बचन, जिसमें बचन न बोले जाय, सिर्फ गुनगुन-सा किया जाय इत्यादि । ये सत्र अस्प होनेसे अनुपयवाचभमें शामिल किये गये हैं। इनके सिवाय और भी अस्पष्ट या अव्यक्त कथन ( निरूपण-शब्दोच्चारण ) अनुभयवचनमें अन्तभूत होता है। विस्तारभयसे विशेष नहीं लिखाण शास्त्रमें देख लेना।
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१. सम्यग्दर्शनाधिकार नैमित्तिक नहीं है, यह निश्चित है। इसी तरह प्रारम्भिक अवस्था ( दर्शनकाल ) में वे वचन स्पष्ट साक्षर या निर्मात न होनेसे अनुभयरूप हैं। पश्चात् वे ही बचन स्पष्ट साधार निर्णीत हो जानेसे सत्यरूप हैं ऐसा निर्णय समझ लेना चाहिये। विशेष खुलासा वक्ष्यमाण है । भगवान्को दिव्यध्वनि (धर्मोपदेश ) जब नियमित बिना इच्छा, कषाय या अभिप्रायके स्वभावतः चार बार ( प्रातःकाल, मध्याहकाल, सायंकाल, अर्धरात्रिको छह-छह घड़ी तक) निकलती है तब वह प्रारम्भमें अस्पष्ट अक्षररहित अनिर्णीत निकलती है ( कर्णतक न पहुँचे तब तक ) ज्ञानरूप होती है। पश्चात् जब थोताओंके कर्ण में वह ध्वनि पहुँचती है तब वह स्पष्ट रूपसे अक्षर-पदसहित परिणत होकर जानी जातो है--समझ में आती है अत्तएव उसको 'सत्यबचनरूप कहते हैं। यहाँ पर ऐसा भेद समझना चाहिये कि यह सिर्फ मागध जातिके देवोंका अतिशय नहीं है किन्तु वस्तुका स्वभाव है, उन भावावर्गणाओंमें स्वयं सब भाषाओं ( वचनों के वोज हैं, उपादानता है अताब के अनेक भाषामा परिणम जाती हैं और श्रोतागण अपनी-अपनी भाषामें समझ लेते हैं। फलत: वे अक्षररूप और अमक्षररूप ( अक्षरसहित व अक्षररहित ) दोनों प्रकारको होती हैं, यह तात्पर्य है। मागध' जातिके देव, सिर्फ दियध्वनिको विस्ताररूप करते हैं और भगवानकी स्तुति करते रहते हैं । अतएव 'अर्धमागधीभाषा'का अर्थ यही है कि दिव्यध्वनि ( जिनवामी )को आधा और दुरतक बढ़ा देना याने पूरे समोशरण और उसके बाहिर भी पहुँचा देना-ध्वनि-विस्तारक यंत्रकी तरह आवाज बढ़ा देना इत्यादि । अर्धमागधी भाषाका दूसरा अर्थ भी किया जाता है जो विचारणीय है।
निश्चय व व्यवहारकी दशा * वाणी या उपदेश सब; व्यवहार रूप है कारण कि पदार्थोंका बोध जीवोंको बचनों या शब्दोंको सहायतासे ही होता है । अतएव पराश्रितताके नाते सब व्यवहारकोटिमें आजाता है। ज्ञानकी दशा निश्चयरूप है क्योंकि वह बिना किसी इन्द्रियादि परकी सहायतासे होता है अतः वह स्वाश्रित है ( आत्मामात्रके आश्रित है। ऐसी स्थिति में निश्चय और व्यवहारको ठीक-ठीक समझना चाहिये। परकी ( शब्दादिक या इन्द्रियादिकको ) सहायता लेना ही ज्ञानकी व्यवहार .. दशा है ऐसा समझना चाहिये, इत्यादि
अथवा शब्द स्वयं अपनेको कहते हैं अतः निस्त्रयरूप हैं और पर ( ज्ञेयों पदार्थों को कहते हैं अत: व्यवहाररूप हैं । इसी तरह ज्ञान स्वयं अपने को जानता है अत: निश्चयरूप है और पर ( शेयों)को जानता है यह व्यवहार रूप है। ऐसा निर्धार समझना चाहिये ।
परमागम ( दिव्यध्वनि )की महिमा यद्यपि परमागम या जिनवाणी में अनेक विशेषताएँ----महिमाएँ हैं तथापि आचार्य महाराजने इस श्लोकद्वारा एक ही मुख्य महिमा बतलाई है जो मूलभूत या वीजभूत है और वह
१. मागधाः स्तुतिपाठकाः, इत्यमरः ।
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है 'अनेकान्त' बनाम स्याहाद याने कथंचित या अपेक्षासे कथन करना । अर्थात् जिनवाणी या जिनबचन, कभी एकबार सम्पूर्ण कथन ( पदार्थका निरूपण ) नहीं कर सकती, यह नियम है और यह मूलभूत योग्यता उसमें है, इसका उल्लंघन वह कभी नहीं कर सकती। फलतः क्रम-क्रमसे यह पदार्थों व उनमें रहने वाले धर्मोका कथन करती है। इतना ही नहीं, यह स्वभाव सभी वचनों या झाब्दोंमें पाया जाता है, चाहे वे दाद किसीके भी हो, शब्दों में इतनी ही सामर्थ्य व शक्ति है ऐसा समझना चाहिए । यही खास महिमा परमागमको है और शेष महिमाग पीछे बनाई जा चुकी हैं। किम्बहना । अर्हन्त के शरीरगत या सामान्यपूरूषके शरीरगत भाषावणाओंके निषेक क्रम-क्रमसे ही प्रवनिरूप या उपदेशप होते हैं। वे एकसाथ पूर्ण वस्तुको नहीं कह सकते यह साधारण नियम है जो टल नहीं सकता. अस्तु ।
परमागममें निश्चय-व्यवहारका अविरोष व सद्भाव
(ज्ञान व कधनको अपेक्षाले निर्णय ! अर्हन्तदेवका उपदेश कभी निश्चयरूप होता है याने द्रव्याथिकनयसे द्रव्यमात्र शुद्धरूप) का कवन वे करते हैं. जिससे निश्चयपना उसमें पाया जाता है। और कभी उनका उपदेश व्यवहाररूप होता है अथात् उसी द्रव्यकी संयोगी पर्यायका कथन पर्यायाथिकन्यसे दे करते हैं जो पर्यायाधित होनेसे व्यवहाररूप ( अनु ) है इत्यादि। इसी तरह कभी निश्चयनयसे अर्थात् द्रव्याथिकनबसे वे जीवद्रव्यको. बंध आदिसे रहित (एकत्व विभक्तरूप ) याने परके साथ तादाम्यसे रहित कहते हैं अतएव वह कथन निश्चयरूप ( शुद्ध ) है एवं कभी वे संयोगी पर्याय में पर्यायार्थिकमयकी अपेक्षा कर्मबंध सहित ( संयोगरूप) जीवको कहते हैं अतएव वह पर्यायाथित कथन होनेसे व्यवहाररूप है इत्यादि, तथापि निश्चय और व्यवहारका विरोध रहित अस्तित्व एक ही द्रव्य ( जोत्र )में अनेकान्तदृष्टिसे पाया जाता है कोई विरोध नहीं आता, दोनों बिरोधी धौंका सहअस्तित्त्व ( सहावस्थिति ) एक जगह एककाल वराबर पाया जा सकता है पाने दोनोंकी परस्पर संधि रहती है। इसी प्रकार रागके साथ विराग भी निर्विरोध रह सकता है। एक ही जीवद्रव्यमें संयोगीपर्याय में पर्यायाथिकन यकी अपेक्षासे रागका रहना और द्रव्याथिकनयकी अपेक्षासे जोवद्रव्यमें राग जैसे दोषका जीवद्रव्यके साथ तादात्म्यरूपसे नहीं रहमा दोनों विरोधी चीजें पाई जाती हैं इत्यादि । यह निश्चय-व्यवहारका सद्भाव समझना चाहिये । सर्वत्र मयोंके आधारसे अनेक धर्म वस्तुमें निराबाध सिद्ध हो जाते हैं। परमागम या दिव्यध्वनिमें उपदेश निश्चय और व्यवहार दो रूप होता है।
१. जं सुतं जियउत्तं श्रनहारो तह य जाण परमत्थो ।
त जायऊण जोई लहइ मुई खवह मलपुंज ।। ६३३ --सूत्रपाहुइ, कुन्दकुन्दाचार्य
अर्थ-जिन भगवान् या अहम्त देवको वाणी या उपदेश निश्चय और व्यवहार दो रूप होता है इसलिये जो जीव | योगी ) उस उपदेशको प्रथाविधि (निश्चयको निश्चयरूप और व्यवहारको व्यवहाररूप } जान लेता है वह कमल ( कर्मबंधन) को नष्ट करके आत्मिक सच्चे सुखको प्राप्त कर लेता है, अन्यथा नहीं। यह विवको सम्पादृष्टि ही कर सकता है, दूसरे एकान्ती मिथ्यादृष्टि नहीं कर सकते, उनमें बह
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सम्यग्दर्शनाधिकार
आगम ( परमागम ) के तीन भेद
(१) गणधर सूत्ररूप आगम-वह है जिसकी रचना चार ज्ञानके धारो गणधर द्वादशांगरूप करते हैं । तथा जो अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य दो रूप होती हैं। वह सब शब्दरूप या द्रव्यश्रुतरूप 'है। संक्षेप-रचनाका नाम सूत्र है ।
१.
(२) प्रत्येकबुद्धसूत्ररूप आगम-जो स्वयंबुद्ध गणधरसे कमती ज्ञान बाले बड़े-बड़े तपस्वी ऋषि महर्षियोंके द्वारा संक्षेप-शास्त्र बनाए जाते हैं, उन्हें प्रत्येकबुद्धसूत्र कहते हैं ।
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(३) अभिनदशपूर्वरूप आगम-जो शास्त्र अभिन्न दशपूर्वके ज्ञाता आचार्योंके द्वारा बनाये या रखे जाते हैं, उनको अभिन्नदपूर्वं सूत्र कहते हैं । उनके नाम वगैरह शास्त्रोंमें दिये गये हैं वहाँ उन्हें देख लेना |
अथवा आगमके तीन भेद
(१) शब्दागम ( अर्थागम (३) ज्ञानागम ।
यथा-
(१) शब्दागम केवलोकी जो ध्यान या शब्द निकलते हैं, उसको शब्दागम कहते हैं । वह अक्षररूप ( अकारादि स्पष्ट अक्षर सहित ) और अनक्षररूप ( स्पष्ट अक्षर रहित गर्जनात्मक या घरघराहट रूप ) निकलती है 1 अथवा निकलते समय अक्षर रहित और सुनते समय अक्षर सहित समृदायरूप 'ओम्' वीजाक्षरकी तरह समुदायरूप, जिसमें सब भाषाओं के बीज भरे हुए हैं ऐसी fafe भाषा या ध्वनिरूप वह है । इसीका नाम निरक्षरी ध्वनि व साक्षरी ध्वनि है ऐसा खुलासा समझना चाहिए।
सामर्थ्य नहीं है। स्aादरूप उपदेशको समझनेवाला स्वाहादी भेदज्ञानों सम्यग्दृष्टि जीव ही जिनवाणीका यथार्थ ज्ञाता होता है ।
दूसरा अर्थ---
अर्थ-farerit (नि) व्यवहाररूप ही होती है अर्थात् जिनेन्द्रदेवका उपदेश माने ज्ञानगत tant narai की सहायताये होता है यह पति searer सद्ध होता है। तथापि उस व्यवहाररूप वाणी ( उपदेश ) से जो जीव निश्चयको समक्ष लेते हैं वे सम्यग्ज्ञानी होकर सच्चे सुखको प्राप्त करते हैं एवं कर्ममको न कर देते हैं अर्थात् संसारको त्यागकर मोक्षको चले जाते हैं, यह ता है ||६|| इस प्रकार व्यवहारको निश्चयका कारण माना जाता है तथा उसमें निमित्तता पाई जाती है। वास्तव में तो अभिन्न प्रदेशी व्यवहार ही निश्चयका कारण होता है, ऐसा समझना चाहिये।
विशेष --- यहाँ पर कार्यको अपेक्षासे जिनवाणीमें निश्चय और व्यवहार दो भेद किये गये हैं, कारणको arrate नहीं बनते, ऐसा समझना चाहिये। इसका भावार्थ यह है कि स्वयं व्यवहाररूप जिनवाणी बार्थ (सत्य) तत्व ( वस्तुस्वरूप ) का कथन ( वर्णन ) करती है ( वह बागीका कार्य है ) सब उसको निश्चय वाणी कहते हैं और जब वही वाणी अंगुतार्थ (असत्य) का कथन करती है तब उसको
राणी कहते हैं, यह भेद समझना चाहिये ।
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पुरुषार्थसिधुपाय (२) अर्थागम-शब्दोंके द्वारा जो अर्थ या त्राच्यरूप पदार्थ कहा जाता है, उसको अर्थागम कहते हैं। कारण कि शब्दोंका व अर्थोंका याच्यवाचक नित्य सम्बन्ध रहता है ऐसा समझना चाहिये।
(३) ज्ञानागम-शब्दोंका और अर्थोंका जो ज्ञान श्रोताओंको होता है, उसको ज्ञानागम कहते हैं । आगम शव्दका अर्थ आना या प्राप्त होना है । अतएव परीक्षामुखमें लिखा है.--- 'आतवचनादिनिधनमर्थज्ञान मायम:' ।
...-परीक्षामुख ३३९९ अर्थ-जिनेन्द्रदेव ( आप्त )के वचनों आदिके निमित्तसे जो पदार्थोंका शाम होता है, उसको आगम ( ज्ञानागम) कहते हैं। यहाँ पर वचनोंको गौण करके सिर्फ ज्ञानको मुख्यता की गई है ऐसा समझना और कोई भेद नहीं है । अस्तु, वह ज्ञान शब्दों द्वारा आता है याने प्रकट होता है अतएव वह आगमरूप सिद्ध होता है । यथार्थतः वे वाचक शब्द ही आगम हैं----आये हैं ...सन्दरूप परिणत हुए हैं।
उस ज्ञानागमके सिलसिले में ही नय व प्रमाणका विवेचन किया जाता है
ज्ञानके याने जाननेके साथनके दो भेद माने गये हैं (१) नय तथा (२) प्रमाण । पदार्थोंका ज्ञान नयसे व प्रमाणसे होता है । नयसे आंशिक ( थोड़ा ) ज्ञान होता है और प्रमाणसे सम्पूर्णका ज्ञान होता है यह मूल भेद है।
यहाँ प्रश्न होता है कि जब नयसे पदार्थका पूरा ज्ञान नहीं होता-थोड़ा-थोड़ा होता है लब उसमें प्रामाणिकता ( सत्यता ) कैसे आसकती है ? इसका उत्तर निम्न प्रकार है
मिथ्यासमूहो मिथ्या चेक मिश्य कामततास्ति नः | निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृस् ॥१६॥
-प्रातमीमांसा अर्थात् नय भी प्रमाणको तरह प्रामाणिक होते हैं। लेकिन तभी, जब वे परस्पर सापेक्ष भाने जाते हैं। अर्थात् नत्रका विषय पदार्थका एक अंश व देश है जो सत्यरूप है। इसलिये उसका जानना उतने अंशमें सही है, परन्तु वह पदार्थको उत्तना मात्र ही नहीं बताता या भानता, जिससे वह अप्रामाणिक सिद्ध हो सके । अतएव सभी नय या वस्तु के अंश मिलकर वस्तु या पदार्थको पूरा बनाते हैं तथा परस्पर मेल या सहयोग रखते हैं। ऐसा नहीं कि एक नय ( अंश) दूसरे नयको छोड़ देला हो- उसका अभाव या खंडन कर देता हो? अतएव गौण-मुख्यरूपसे सभी जय कार्य करते हैं । इससे वे प्रामाणिक हैं-अप्रामाणिक नहीं हैं । ऐसी स्थिति में वे परस्पर सापेक्ष नय वस्तुरूप हैं और वस्तुरूप होनेसे अर्थक्रियाकारी हैं। इसके विपरीत यदि वे नय परस्पर सापेक्ष न होनिरपेक्ष हों तो वे मिथ्या हैं-सम्यक नहीं है, क्योंकि निरपेक्ष नयोंको मिथ्या कहा गया है और सापेक्षोंको सम्यक् । अतः सापेक्ष अंशोंको विषय करने तथा प्रमाणका अंश होनेसे मय प्रमाण हैं।
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१. सम्यग्दर्भमाधिका भावार्थ---यद्यपि निरपेक्ष एकान्त मिशह और इसलिए उनके समूहरूप अनेकान्तको मिथ्या कहा जा सकता है पर जैन दर्शनमें न निरपेक्ष एकान्तको स्वीकार किया है और न उनके समूहको अनेकान्त माना है। अपितु उन्हें मिथ्या ही कहा है। किन्तु सापेक्ष एकान्त और उनके समूह अनेकान्तको अङ्गीकार किया तथा उन्हें वस्तु ( सम्यक् ) एवं अर्थक्रियाकारी बतलाया है। अतः सापेक्ष एकान्ताको विषय करने वाले नय प्रमाणस्वरूप ही हैं। इसके सिवाय प्रमाणके द्वारा द्वारा गृहीत पदार्थके अशको ही नय ग्रहण करता है इसलिए उसका पदानुसारी होनेसे प्रमाणको तरह वह भी प्रामाणिक है।
विशेष—अनेकान्तरूप ( स्याहादरूप -- कथंचितुरूप) आगमका ज्ञान हो जानेसे निश्चय और व्यवहाररूपनाका भी उससे ज्ञान हो जाना संभव है । अर्थात जिस प्रकार शब्द या बचन पदार्थको थोड़ा-थोड़ा कहते हैं अतएव वे अनेकान्तरूप हैं ( अनेक तरहका कथन करनेवाले हैं ) उसी तरह वे वचन या शब्द, निश्चयरूप भी हैं-निश्चयका याने द्रव्यका कथन करनेवाले हैं तथा व्यवहाररूप भी हैं..-संयोगी पर्यायका कथन करनेवाले हैं।' इस तरह परमागमके भेद, कम व निश्चय-व्यवहाररूपताका वर्णन हुआ।
वक्ता और श्रोतामें निश्चय व्यवहार प्रदर्शन निश्चय नयशे शुद्ध आत्मा बोलती नहीं है, बोलना शब्द है और पुद्गलको पर्याय है, जीवकी नहीं है अलएब आत्मा अवक्ता ही है-वह ज्ञाता दुष्टा है। फलतः द्रव्यार्थिक नयसे आत्मा वक्ता नहीं है किन्तु पर्यायाथिक नयसे अर्थात व्यवहार नयसे आत्माका ब जड़ शरीरका संयोगसंबंध होनेसे जड़ शरीरको शब्दपर्यायको आत्मा ( जीव ) की मान ली जाती है। बस, यही तो व्यवहारमा उपचार है और यह कलंक ही जीवको बदनाम कर देता है कि 'आत्मा वक्ता है। इत्यादि । इसी तरह आत्मा द्रव्याथिकानय या निश्चय नयसे धोता भी नहीं है कारण कि उसके कान नहीं हैं जिनसे वह सुन सके । कान पुदगलको रचना है और आत्मा चेतनरूप ज्ञाता दृष्टा है तब वह श्रोता नहीं हो सकता। किन्तु संयोगी पर्यायमें व्यवहार नयसे अर्थात् पर्यायार्थिकनयको अपेक्षासे जीव या आत्माको कह दिया जाता है कि आत्मा श्रोता है-सुनसा है इत्यादि। यह सब उपचार है ( करवत्ता मात्र है; पराश्रित है, अभूतार्थ है)। इस प्रकार संयोगी पर्याय में निश्चय और व्यवहार दोनोंका अस्तित्व नवित्रक्षासे सिद्ध होता है, कोई विरोध नहीं आता ! फलतः अनेकान्त या स्यावाद ( शब्दरूप व ज्ञानरूप व नयरूप ) सभी विवादों या विरोधोंको मिटा देता . है भो उसका स्वभाव है। किम्बहुना, अनेकान्तको अच्छी तरह जानना व समझना मुख्य कर्तव्य है। अनेकान्त अनेक तरहसे घटित किया जाता है याने निश्चयसे व व्यवहारसे, स्वचतुष्टय तथा परचतुष्टयसे भी युगपत् अनेकान्त सिद्ध होता है। जैसे कि युगपत् अस्ति ब नास्ति एकत्र निर्विरोध सिद्ध होते हैं। ज्ञान व अज्ञान भी इसी तरह समझना चाहिये।
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१. द्रव्याश्रितो निश्चय :-.-शर याने परसे भिन्न हुन्छ मात्रका कथन करनेवाला प्रत्याधिक भय ।
पर्यायाश्रितो व्यवहार :-संयोगी पर्यायका कथन करनेवाला पर्यायाथिक नय ।
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पुरुषार्थसिद्धपा
अनेकान्त अनेकरूप ( भेव )
अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनय साधनः । अनेकान्तः प्रमाणातं तदेकान्तोऽपायात् ।। १०३ ॥
- स्वयंभूस्तीय
अर्थ :--- अनेकान्त याने वस्तुमें अनेक धर्म एवं अनेकान्त याने स्याद्वाद अर्थात् उन वस्तुगत are धर्मका कचित् कथन, ये दोनों चीजें ( वाच्य व बाचक ) प्रमाण और नयके द्वारा सिद्ध होती हैं अर्थात् प्रमाण और नम अनेकान्तके योतक हुआ करते हैं । अतएव उनको अनेकान्त के साधन ( हेतु ) नामसे कहा गया है— साध्य- अनेकान्त के साधक प्रमाण व नय हैं ऐसा कहा है । अस्तु, यदि प्रमाण व नय न होते तो अनेकान्तको कौन बताता ? प्रमाण और नय ही ज्ञापक हैं तथा अनेकान्त रूप पदार्थ ज्ञेय है, यह निर्णय है । ज्ञानका और ज्ञेयका परस्पर ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध ही है दूसरा कोई कर्त्ता कर्म ( उत्पाद्य उत्पादक ) संबंध नहीं है । प्रमाण समुदायरूप वस्तु ( अखंड ) को जानता है जो अनेक धर्मरूप है और नय खंड-खंडको जानता है जो एक धर्मरूप है । अथवा प्रमाण अनेकान्त व नय अनेकान्त व पदार्थ अनेकान्त ऐसा तीन तरहका अनेकान्तहोता है। इसके सिवाय प्रमाण खुद अनेक भेदरूप हैं व लय खुद अनेक भेदरूप है जो वस्तु के भिन्न-भिन्न रूपों को बताते हैं । परन्तु तारीफ यह है कि वे सब रूप ( पहलु ) परस्पर वस्तुमें ही सापेक्ष रहते हैं, उनके पृथक्-पृथक् प्रदेश नहीं रहते सभी व्याधित रहा करते हैं। अतएव वे सब प्रामाणिक होते हैं । प्रश्न- यद्यपि क्षायिकज्ञान ( केवलज्ञान ) युगपत् पूर्णरूप से पदार्थोंको जानता है, अतएव उसको प्रामाणिक मानना तो ठीक है किन्तु क्षायोपशमिक ज्ञान ( मतिज्ञानादि चार ज्ञान) और सभी नय पदार्थको पूर्णरूपसे नहीं जानते, अपितु थोड़ा-थोड़ा जानते हैं तब उनको प्रामाणिक नहीं माना जा सकता ? इसका उत्तर- इस प्रकार है कि जितना अंश ( अपूर्ण ) वे जानते हैं उतना वह सही जानते हैं अतएव गंगाजल की तरह वह सत्य ही है किन्तु वह अंशरूप ही है, अंशी या पूरा नहीं है, सब मिलकर पूरा होता है यह भी वही बताता है अतएव वह सत्यवक्ताकी तरह सत्य है, भ्रमात्मक नहीं है, कथंचित् वह भी प्रामाणिक है ( अंशकी अपेक्षा से ) फलतः आप्तमीमांसा में स्वामी समन्तभद्राचार्य ने कहा है
ज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वमासनम् ।
क्रमभाषि व यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् ॥१०१॥
----आप्तमी०
अर्थ :- भगवन् ! आपका युगपत् सब पदार्थोंको यथार्थं प्रत्यक्ष जाननेवाला तत्त्वज्ञान ( क्षायिक केवलज्ञान ) प्रमाण है, निःसन्देह है । किन्तु जो क्षायोपशमिक ज्ञान ( मत्यादि चार ) और नय हैं वे भी प्रमाण हैं कारण कि वे स्याद्वाद नय ( न्याय ) से संयुक्त हैं अर्थात् उनको भी कथंचित् प्रामाणिक माना जाता है, पूर्ण प्रामाणिक नहीं माना जाता । जैसा कि केवल-ज्ञानको सर्वथा प्रामाणिक माना जाता है, यह तात्पर्य है ।
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१. सम्यग्दर्शनाधिकार विशेषार्थ-ज्ञान दो तरहका होता है-(१) अक्रममावी और ( २) क्रमभावी । जो एक ही समयमें क्रमरहित एकसाथ सम्पूर्ण द्रव्यों, उनके समस्त गुणों और त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायोंको हस्तामलककी तरह प्रत्यक्ष ( साक्षात् ) जानता है, जिसे केवलज्ञान, अनन्तज्ञान या सायिकज्ञान भी कहते हैं, वह अक्रमभावी ( युगपत्सर्वप्रतिभासनरूप ) तत्त्वज्ञान है और वह प्रमाण है तथा जो भिन्न-भिन्न समय में क्रमसे द्रव्य-गुग-पर्यायोंको परोक्ष ( असाक्षात्-इन्द्रियादि द्वारा ) जानता है वह क्रममावी ( अयुगपत् प्रतिनिरूप) सवर नगर वह भी समान्दनयसे संस्कृत होनेके कारण प्रमाण है । इसे सीमितज्ञान क्षायोपशमिकज्ञान और स्याबादनयरूपज्ञान भी कहते हैं । अथवा सर्व प्रत्यक्षज्ञान या क्षायिकज्ञानका ही नाम अक्रममादीज्ञान है और एकदेशप्रत्यक्षज्ञान या क्षायोपसमिकज्ञानका नाम क्रमभात्री ज्ञान है।
इस प्रकार दोनों ही ज्ञान पदार्थोंको प्रकाशित करने वाले होनेसे प्रमाण हैं। फिर भी अक्रमभावी ज्ञानमें प्रमाणता स्वाचित है-मात्र आत्मापेक्ष होनेसे स्वयं है और वह निश्चय या साक्षातरूप है । तथा क्रमभावोज्ञानमें प्रमाणता वक्ताके वचन ( स्याद्वादरूप कथनों) पर निर्भरित है । अतएब वह व्यवहाररूप या असाक्षात् (परोक्ष ) रूप है।
यहाँ प्रश्न हो सकता है कि जब क्रमभावी ( स्याद्वादरूपं ) ज्ञान और अक्रममावी ( केवल ) ज्ञान दोनों समस्त पदार्थोके प्रकाशक हैं तो दोनों समान एक हो सिद्ध होते हैं, उन्हें पृथक्पृथक् माननेको आवश्यकता नहीं है ? इसका उत्तर यह है कि क्रमभाबी तो क्रमश: और परोक्ष ( असाक्षात् )उन्हें जानता है किन्तु अक्रमभावी युगपत् और साक्षात् ( प्रत्यक्ष ) जानता है । तात्पर्य यह कि इन दोनों ज्ञानोंमें साक्षात् और असाक्षात्का भेद है । अत: दोनों सम्पूर्ण पदार्थों के प्रकाशक होनेपर भी उक्त भेदके कारण पृथक-पृथक् कहे गये हैं । यथा
भ्यालादकालज्ञाने सर्वतप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच ह्यवस्थम्यसमं भवेत् ॥
-आप्तमी १०५।
दूसरा प्रश्न यह है कि क्रमभावी झान जब पदार्थोको असाक्षात् जानता है तो उसे प्रमाण नहीं माना जाना चाहिए ? इसका समाधान यह है कि जिस प्रकार गंगाका जल विभिन्न नहरोंमें विभक्त हो जाने पर भी बह मंगाका ही जल माना जाता है, भले ही नहरोंके कारण उसमें भेद आ जाय, पर वह गंगाका हो जल कहा जायगा, उसी प्रकार स्याद्वादरूप शान अक्रमभावी ( केवल ) ज्ञानका अंश होनेसे वह प्रमाण है । इसके अतिरिक्त विषयभूत पदार्थ दोनोंके एक-से हैं, भिन्न नहीं।
इस तरह पूर्वोक्त अक्रमभावी परज्योति ( केवलज्ञान ) और परमागम ( क्रमभावी स्थाद्वाद ) ज्ञानमें अंश-अंशीका परस्पर सम्बन्ध होनेसे आचार्य महाराजने दोनोंका जयकार एवं नमस्कार किया है।
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पुरुषार्था
तत्त्वयि विषय जिन्हें विभाव हे व ये हैं- (१) नैयायिक ( २ ) वैशेषिक, ( ३ ) सांख्य, (४) मीमांसक, ( ५ ) वेदान्ती, (६) चार्वाक और ( ७ ) बीद्ध 1 इनके विवादों और स्याद्वाद द्वारा किये गये समाधानोंको आगे कहा जायेगा || २ ||
आचार्य मंगलाचरण करनेके पश्चात् अपना ध्येय बतलाते हैं ---
१८
लोकत्रयैकनेत्र निरूप्य परमागमं प्रयत्नेन । अस्माभिरुपोद्भियते विदुषां पुरुषार्थसिद्धयुपायोग्यम् ॥ ३॥
पथ
dinate अनुपम जो है re ga ऐसा परमागम मंथनकर, निज उद्देश्य है उद्देश्य अचार निश्चित, विद्वानोंके आत्म-प्रयोजन सिद्धिकरनका, मूलमंत्र है
deer है । बताना है ॥ . लिये अहो ! 'धर्म' गहो ॥ ५ ॥
अन्य अर्थ[ लोक ये क्रमे ] तीनों लोकोंको बताने वाले अर्थात् उनका स्वरूप आदि कहने वाले अद्वितीय नेत्रके समान [परमाम प्रयत्नेन निरूप्य ] परमागम या द्वादशांगरूप जिन वाणीका गहरा प्रयत्नपूर्वक अध्ययन या अभ्यास करके उसका [ अस्माभिः ] हम [ अयोधियते ] उपदेश देते हैं क्योंकि [ अयं विदुषां पुरुषार्थसिद्घुपायः ] यही धर्मोपदेश, विद्वानों या विवेकियों( समझदार जीवों ) के लिये अपने इष्ट प्रयोजनकी सिद्धिका उपाय ( मार्ग ) है, इसके अतरिक दूसरा कोई उपाय नहीं है । अर्थात् उस परमागमका दोहनपूर्वक उसीसे प्रस्तुत पुरुषार्थसिद्ध छुपाय free rent उद्धृत किया जाता है में स्वयं उसका कर्त्ता नहीं हूँ || ३ |
भावार्थ--- करुणासागर आचार्य संसारी भव्य जीवोंका हित करनेके उद्देश्यसे इस ग्रन्थकी रचना करके उसके द्वारा सत्यार्थ ( निश्चय ) धर्मका निरूपण कर रहे हैं अथवा उपदेश दे रहे हैं । और वह भी उपदेश, तब दे रहे हैं, जबकि उन्होंने द्वादशांग जिनवाणी ( परमागम ) का पर्याप्त अध्ययन या मंथन करके सारभूत धर्मरत्नको प्राप्त कर लिया है एवं अनुभव प्राप्त कर चुके हैं । ऐसा करने या बतानेका प्रयोजन सिर्फ प्रामाणिकता लानेका है, रूपाति आदि चाहनेका नहीं है । इससे वह उपदेश विश्वसनीय माना जाता है । तथा यह प्रात विद्वान् समझदार ही समझ सकते हैं और वे ही उसको अपना सकते या पाल सकते हैं, यह तात्पर्य है । यों तो अनादिकाल से संसारी जीव सच्चे ( सत्यार्थ ) उपदेशके बिना भूलभटक रहे हैं, पार नहीं हो पाये हैं । नहीं मालूम कितनी बार निमित्त मिले परन्तु उनसे अज्ञानतावश लाभ नहीं उठा पाया, व्यर्थ ही काल गमाया | आचार्य महाराजने यही सब सोच-विचार कर यह प्रयास किया है कि संज्ञीपंचेfrom fart मनुष्य तो हित-अहित को समझें और जो अनादिसे चाह रहे है उसकी प्राप्त करें । are प्रत्येक प्राणीको सुख-शान्ति प्राप्त होनेकी है और दुःख व अशान्ति नष्ट होने की है । परन्तु
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१. सम्यग्दर्शनाधिकार उपायमें भूले हुए हैं, इसलिये उपेय ( साध्य ) की सिद्धि कदापि नहीं हो सकती, न उस भूलके कारण अभी तक हो पाई है। सिर्फ चाह कर लेनेसे ही कार्य सिद्ध नहीं होता, जब तक उपाय न किया जाय । यद्यपि वस्तुका संयोग-वियोग होगा अर्थात् कार्य सिद्ध होना व न होना स्वतंत्र है, परतन्त्र नहीं है, जब जैसा होना है तभी तैसा होगा, यह निश्चय है तथापि श्रद्धा में यह विश्वास रखते हुए भी परीक्षाके तौर पर या कषायके वश होकर संयोगीपर्याय में जीवोंके कर्मधारा बहती है अर्थात् कुछ करमे धरनेका भाव या विकल्प अवश्य हुआ करता है और उसको पुत्तिके लिये जीव तरह-तरहके प्रयत्न या पुरुषार्थ भी करता है अतएवं उपाय करना कोई आश्चर्यकी चीज नहीं है न मिथ्याकी निशानी है, कारणकि अन्तरंगमें वस्तुस्वभावको दृढ़ श्रद्धा रखते हुए विवश अरुचि या अनिच्छापूर्वक वह वैसा करता है अर्थात् वह उसका स्वामी या कर्ता नहीं बनता, यह विशेषता उसके रहा करती है इत्यादि विवेकशीलता है जो विवेककी हमेशा रक्षा करती
यही सब सोच-विचार कर आचार्य महाराजने भी अपने उद्धारका और अन्य जीवोंके उद्धारका उपाय, इस ग्रन्थको बनाकर तथा उसमें हितकी बातें ( धर्मका सच्चा स्वरूप ) लिखकर और अहितको वाते ( धर्मका मिथ्या स्वरूप ) निकालकर जीवोंको लक्ष्य कर उपदिष्ट किया है एवं उनका ध्यान आकर्षित किया है तथा उसमें लगाया है अर्थात् जीवोंको धर्म ( कल्याण के उपाय ) के विषयमें सम्यकथावान, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् आचरण कराया है या कराना चाहते हैं। बस, यही उनका अभिधेय है जो इस ग्रन्थ में उत्तरोत्तर दर्शाया गया है, यही उनको प्रतिज्ञा, अभिलाषा या हार्दिक इच्छा रही है व अन्त तक उसका निर्वाह किया गया है। इस अन्य में मुख्यतया रत्नत्रय या सम्यग्दर्शनादित्रयका ही वर्णन किया गया है तथा उसीके सिलसिलेमें उसके .. निमित्त व भेद व अतिचार आदिका भी अतीव विशेषताके साथ कथन किया गया है जो दर्शनीय अनुभवनीय एवं करणीय है । फलतः यह ग्रन्थ अनुपम है, निश्चय धर्म ( कर्तव्य ) और व्यवहारका बड़े मार्मिक शब्दों द्वारा स्वरूप बताया गया है, अतः यह बेजोड़ है । वीतरागता व विज्ञानता ( मिथ्यात्वका छूटना ) ही धर्म है तथा सरागता च अज्ञानता (मिथ्यात्वपन ) ही अधर्म है ॥३॥
श्री अमृतचन्द्राचार्य यह बताते हैं कि संसारमें धर्मतीर्थ ( रथ ) को चलाने वाले या । प्रसार करने वाले सन्त-महात्मा कैसे होना चाहिये
मुख्योपचारविवरणनिरस्तदुस्तरविनयदुर्योधाः । व्यवहारनिश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् ।। ४ ।।
पञ्च मुख्य और उपचार कथन कर जन-अज्ञान मिटाते हैं । ऐसे ज्ञाता व्यवहार-निइन्नय, जगमें तीर्थ चलाते हैं।
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पुरुषार्थसिबधुपाय नाममेद है निश्चय-पवार, जिसे मुख्य उपचार कहा।
अर्धभेद नहिं दोनों में कुछ यही अवसंक जीत्र महा 1 || अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ मुख्योपचारबिवरणनिरस्ता सविने मदुर्बोध: J जो सन्त महात्मा, मुख्य उपचारके कथन या विश्लेषण द्वारा दुरन्त या कष्टसाध्य( अनादिकालीन ) शिष्योंके अज्ञान या मिथ्यात्वरूप अन्धकारको मिटा देते हैं अथवा मिटाने में समर्थ होते हैं, ऐसी अपूर्व या . अनुपम योग्यता वाले धक्का था उपदेशक हो [ व्यवहारनिश्चयज्ञाः ] व्यवहार और निश्चयके समीचीन ज्ञाता माने जाते हैं और वे ही महापुरुष | जगति तीर्थं प्रवत्त यन्ते ] संसारमें धर्मतीर्थ (धर्मरथ ) को चला सकते हैं, अर्थात् सच्चे आत्महितकारी रत्नत्रयरूप अहिंसा धर्मका प्रचार कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं ।। ४ ।।
भावार्थ-शास्त्रों में महात्माओंके अनेक नाम होते हैं, कोई-कोई मुख्य व उपचार ( गौण) के ज्ञाता कहलाते हैं, और कोई कोई व्यवहार निश्चयके ज्ञाता कहलाते हैं, तथा कोई-कोई निमित्त उपादानके ज्ञाता कहलाते हैं, तो कोई-कोई अध्यात्म व आगमके ज्ञाता कहलाते हैं इत्यादि, किन्तु सभी एक जिनशासनके ही ज्ञाता या उपासक हैं-सभीका तत्त्वनिर्णयके विषय में एक मत (सिद्धान्त अविरोष पाया जाता है, लक्ष्य भी सभीका एक ही रहता है कि किसी सरह अज्ञानी जीवोंका अंधकार नष्ट हो और वे ज्ञानी बनें, अर्थात् उनकी मिथ्यादष्टि छुटे और सम्यग्दष्टि हो । फलस्वरूप ये संसारसे पार हो । जीवोंको सबसे बड़ा रोग रागद्वेषमोहका है और उसके छूटे बिना उन्हें सच्चा सुख व शान्ति मिल नहीं सकती। जिसकी चाह रहती है। फलतः उसका ही सच्चा उपाय करना चाहिये। परन्तु उस अपायको बसाने वाले सच्चे ज्ञानी व हितैषी ही हो सकते हैं व होना चाहिये तथा वे कैसे कब हो सकते हैं जब ३ निश्चय और व्यवहारके अच्छे ज्ञाता हों एवं मुख्य और उपचार कथन ( निरूपण) के द्वारा स्याद्वाद या अनेकान्तको स्थापना या पुष्टि करते हुए एकान्ती मिथ्यादृष्टि जीवोंके अनादिकालीन अज्ञान या एकान्तको सरलता पूर्वक आसानी से दूर करनेमें कुशल व समर्थ हो । अर्थात् स्वयं जो नय-प्रमाण-युक्तिका कुशल ज्ञाता हो, स्याद्वादनयका प्रयोग करने में पटु हो, तथा कल्याण कारिणी बुद्धिवाला हो, सम्यादष्टि स्वारका ज्ञाता हो, इत्यादि गुणसम्पन्न होना ही चाहिये तभी वह धर्म प्रवर्तन कर सकता है यही बात आचार्यने इस श्लोकमें प्रदर्शित की है। किम्बहना। सारभूत बात तो यही है। इसके बिना ही इस समय जैनधर्मका प्रचार व प्रसार कम होता जा रहा है। इसको पुष्टि स्थविर आचार्य समन्तभद्र महाराज अपने युक्त्यनुशासनमें करते हुए
कालः कलिर्धा कलुषाशयो वा श्रोतुः प्रधनुर्वचनानयो था।
स्वच्छासनकाधिपतित्वमी-प्रभुत्वशकरपवादहेतुः ॥१२॥ अर्थ-जिनेन्द्रदेव ! आपके पवित्र सर्वजनीन धर्मका प्रचार कम होने का कारण हमें यह प्रतीत होता है कि एक तो कलिकाल ( खोटा काल ) है, दूसरा लोगोंके विचार (भाव) दुष्ट व खोटे हो गये हैं, तीसरे वक्ता और श्रोताके कथनमें मैत्रा या संधि नहीं बेठती अर्थात् नय
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१. सम्यग्दर्शनाविकार और विवक्षाका भेद व समझने का भेद रह रहा है, एकता स्थापित नहीं होती। फलत: विवाद खड़ा हो जाता है, इत्यादि अनेक कारण बाधक होनेसे जैनधर्मका प्रचार दिन-प्रतिदिन घटता जाता है, यह दुःख व पश्चात्तापकी बात है।
इसी प्रकार आचार्य अनेकान्तरूप वस्तुको सिद्धि करते है । यथा---
विवक्षिसी मुख्य इतीप्यतेऽन्यो गुणोऽसिवक्षा न मिरास्मकस्से । सथारिमित्रानु भन्यादिशक्ति यायधेः कार्यकरं हि वस्तु ।
ऋ० स्वयंभू. ५३ । अर्थ-पदार्थोंके जिस धर्म या अंशका उपदेश या कथन किया जाता है वह मुख्य या विवक्षित कहा जाता है तथा जिस धर्मका कथन न किया जाय, वह गौण ( उपचरित) या अविवक्षित माना जाता है किन्तु नष्ट नहीं हो जाता अर्थात् वस्तुके मुख्य व गौण दोनों धर्म परस्पर साक्ष ( एक दूसरे की अपेक्षासे) रहते हैं, जो अनेकान्त का सूचक है। जैसे कि एक ही देवदत्त किसीका शत्रु है तो किसीका मित्र है और किसी का न शत्र है न मित्र है ( अनुभयरूप है ), फलत: अनेक धर्म वाला है । सारांश यह कि विरोधी दो आदि अनेक धर्मवाली वस्तु या अनेक धर्मवाला पदार्थ ही कार्यकारी होता है, एक धर्मवाला नहीं, पदार्थ स्वभावतः सामान्य-विशेषरूप या उत्पाद-व्यय-धीच्यरूप है या गुणपर्यायरूप। दूसरे शब्दोंमें निश्चयव्यवहाररूप या मुख्-गौणरूप या विवक्षित-अविवक्षिारूप है। इस प्रकार जो सभी बातोंका ज्ञान रखता हो, अनेकान्तसे परिचित हो, युक्ति-आगम कुशल हो वही संसारमें धर्मका प्रचार कर सकता है ।(प्रारम्भमें किसीको समझाते समय व्यवहारी बैंगसे ही दृष्टान्त वगैरह देकर द्रव्य या पदार्थका यथार्थ बोध कराया जाता है) अतः वह कचित् प्रयोजनीय होता है, किन्तु जब वही जीव पदार्थका असली स्वरूप जान लेता है तब अपने आप वस्तुके नकली स्वरूप व उसके प्रदर्शक साधनोंसे उपेक्षा हो जाती है ---हेयबुद्धि कर लेता है। निश्चयका ज्ञाता व रुचिया
१. जो जिमयं पविज्जइ तामा व्यवहारणिच्चयो भुयाए ।
एक्शेण विणा छिज्जद तिस्थ अण्णोण उप सच्चं ॥
॥ क्षेपक समयसारे
अर्थ---जो जीव जिज्ञासु होकर जिनमत या जिनधर्मको जानना चाहता है उसका कत्तव्य है कि वह यथावसर निश्चय घ व्यवहार दोनों नोंका सहारा ( आश्रय ) लेबे अर्थात् दोनोंके स्वरूपको समझे और वत्तविमें लाये । किन्तु बरावरीका दोनोंको न समझे, न हमेशा उपादेय माने । हाँ, हीनदशामें रहते समय यदि व्यवहार कार्य ( क्रिया या प्रवृतिरूप धर्म सुभराम ) छोड़ दिया जाय तो तीर्थयात्रा आदि बाह प्रभावना मिट जायगी, यह हानि होगी तथा निश्चय कार्य या धर्म ( लत्त्वनिर्ण यरूप स्वभाष ) को छोड़ दिया जाय तो वीतराग सत्यता नष्ट हो जायगी सत्य-असत्यका भेद ही न रहेगा इत्यादि हानि होगी। फलतः व्यवहार और निश्चयका ज्ञासा अवश्य होना चाहिए, वहीं जिनमतको धारण-पालन कर सकता है, यह मूल श्लोकका भाव या आशय ( रहस्य ) है, इति ।
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पुरुषार्थमुपाथ
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शुद्धवस्तुका ही आलम्बन ग्रहण करता है। इसी लिये वह शुद्धको अशुद्ध में नहीं मिलाता, खालिश रखता है। किन्तु खाली व्यवहारका ज्ञाता किसrat कथन या उपदेश देता है, अतएव वह हितकारी मार्गदर्शक नहीं है, किन्तु वह हेय है । अतः निश्चय व्यवहार या मुख्य गौणका ज्ञाता होना अनिवार्य है ।
ain अनेकान्ता
२२
व्यवहारनयसे धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप तीन तरह का है। विभाव ( मिथ्यात्वादि अधर्म ) का शत्रु ( विपक्षी ) है और स्वभाव ( सम्यग्दर्शनादि सुधर्म ) का मित्र है । तथा निश्चयन धर्मं वीतरागतारूप होनेसे अनुभवरूप है अर्थात् किसीका न शत्रु है न किसी का मित्र है किन्तु आत्मरूप है, इसी प्रकार धर्म दुःखहर्ता व सुखकर्त्ता या संसारहर्त्ता व मोक्ष कर्त्ता है इत्यादि अनेकान्तता उसमें पाई जाती है— उसका जानना अनिवार्य है ॥ ४ ॥
आचार्य निश्चय और व्यवहारका स्वरूप और नामान्तर बतलाते हैं जिनमें बहुधा संसारी जीव भूले हुए हैं
निश्चयमिह भूतार्थं व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् । भूतार्थबोधविमुखः प्रायः सर्वोऽपि संसारः ॥ ५ ॥
पथ
रूपको fear से, कल्पितको व्यवहार कहा । संसारीजन भूल रहे हैं, भेद न जानत उनमें
! ये जन कर सकते हैं मिज अह पर काम जहाँ । उसके खातिर करना होगा ज्ञान उभवका प्रथम यहाँ ॥ ५ ॥
अन्ययअर्थ- गणवरादिक आचार्य कहते हैं कि [ इह ] परमागममें या लोकमें [ भूतार्थ farai वर्णयन्ति ] भूतार्थका नाम निश्चय समझना अर्थात् जो नय, सत्य या यथार्थताको बतावे या कहे उसको निश्चयनय जानना और [ अभूतार्थं व्यवहारं वयन्ति ] अभूतार्थका नाम व्यवहार समझना अर्थात् जो नय, असत्य या अयथार्थताको बतावे या कहे उसको व्यवहार नय समझना चाहिये । किन्तु [ प्रायः सर्वोsपि संसारः ] देखा जाता है कि बहुधा ( अधिकतर ) संसारके प्राणी [ भूतार्थबोधविमुखः ] निश्चयके ज्ञानसे रहित हो रहे हैं अर्थात् उनको निदचयका ज्ञान नहीं है, केवल व्यवहारका ज्ञान है अतएव वे अज्ञानी हैं यह स्वेद की बात है ॥ ५ ॥
भावार्थ---यथार्थ तत्त्वज्ञानके बिना जीवन निष्फल है चाहे वह देवेन्द्र, नरेन्द्र, नागेन्द्र कोई भी हो, क्योंकि वह कभी संसारसे पार नहीं हो सकता, न उनकी अभिलाषा पूरी हो सकती
१. असत्य | २. कष्ट या दुःखकी बात । ३. संसारमें । ४. कर्म भूमिमें !
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१. सम्यग्दर्शनाधिकार है। सभी जीव सुख-शान्ति चाहते हैं, दुःख व अशान्ति नहीं चाहते, परन्तु इष्टसिद्धि चाहने मात्रसे नहीं होती। जब तक कि सच्चा उपाय न किया जाय । ऐसी स्थिति में सच्चा उपाय या मार्ग बताने वाले सद्गुरु ही होते हैं, जो ज्ञान-वैराग्य सम्पन्न हैं एवं कुशल वक्ता हैं सथा जिनके स्वपर कल्याणको भी भावना है। इसीलिये उनका कहना है कि सबसे पहले कल्याणार्थी जीवोंको निश्चय और व्यवहार का भेदरूप सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना चाहिये और उसके लिये सभी अनुयोगोंके शास्त्रोंका अध्ययन, मनन, धारण करना चाहिये तथा सबका निष्कर्ष निकालकर अन्तर निकालना चाहिये। उसमें जो उपादेय हो उसको ग्रहण करना चाहिये और जो हेय हो उसको छोड़ देना चाहिये। परन्तु निर्णय या परीक्षा बिना यह कार्य नहीं हो सकता है। उसके लिये बाह्य निमित्त मिलानेका एमया करना चाहिये । शास्त्र पढ़ना, प्रमाण-नय-निक्षेप आदिके स्वरूपको जानना, स्मरण रखना, हेय, उपादेय व उपेक्षणीय इन तीन तरहके सेयोंका आनना अनिवार्य है । पश्चात् तदानुकूल क्रिया करना आवश्यक है, ऐसी स्थिति में नयोंका यथार्थ स्वरूप समझना मुख्य कर्तव्य है।
यहाँ पर प्रश्न हो सकता है कि जब लोकव्यवहार था लोकयात्राको चलाने के लिये प्रमाण, मथ और निक्षेप ने तीन साधन माने जाते हैं तब उनमें से पहिले नय-साधनपर जोर क्यों दिया जाता है ? इस समाधान यह है कि जब सारा संसार अज्ञान अंधकारसे व्याप्त हो तथा पूर्ण प्रकाशका मिलना असंभव हो तबएस गाढांधकारके समय कार्य चलानेको तारागणों ( तरइयों) का या छोटे-छोटे दीपकोंका उजेला ( प्रकाश ) ही सहायक या समर्थ होता है किन्तु वह प्रकाश स्पष्ट या निर्मल होना चाहिये, धूमिल या कुहरा जैसा मलीन नहीं होना चाहिए, जिसमें स्पष्ट न दिख पढ़े एवं टकराने की या भूल-भटक हो जानेको संभावना न हो । ठीक उसी तरह अनादिकालसे अज्ञान-अंधकार द्वारा व्याप्त लोकके प्राणियोंको आंशिक कामचलाऊ या लोकव्यवहारचलाक ज्ञान (नयरूप आंशिकज्ञान ) होना अनिवार्य है और वही शक्य व संभव है। परन्तु वह नयरूप आंशिकज्ञान भी स्पष्ट व निर्मल होना चाहिये, धूमिल ( मलीन ) या धोखा देने वाला कुहाकी तरह नहीं होना चाहिए, तभी प्रयोजन या लोकयात्रा या इष्टसिद्धि हो सकती है अन्यथा नहीं । फलतः लोकयात्राके मुख्य साधन नयोंका ठीक-ठीक ज्ञान होना अनिवार्य है क्योंकि वे ही प्रगाढ़ अज्ञानांधकार में हर प्राणियोंको निकालने में समर्थ हैं। इसीसे सदगुरु आचार्य अधिक जोर देते हैं कि निश्चय और व्यवहार दोनों नयों का ज्ञाता होना चाहिए । यद्यपि आरम्भमें व्यवहार अपेक्षणीय है, परन्तु समर्थ अवस्थामें उससे लक्ष्यकी सिद्धि नहीं हो सकती। अर्थात् उस व्यवहाररूप अशुद्ध मान्यतासे शुद्ध स्वरूप वस्तुकी प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती, जो अभीष्ट है, क्योंकि शुद्धसे ही शुद्धकी प्राप्ति होती है। इस यथार्थ निर्णय या सिद्धान्तके बल पर ही वस्तुको या लोककी व्यवस्था निराबाध चलती आई है व आगे भी चलेगी । सत्य हमेशा सत्य रहता है और असत्य असत्य ही रहता है। तदनुसार जब जीब ( आत्मा ) के सत्यनय ( निश्चयनय ) का उदय' या प्रकाश होता है, तभी उसे अपना या दूसरेका यथार्थ रूप अथवा शुद्ध स्वरूप दिखने लगता है और उसीका श्रद्धान या विश्वास होने लगता है एवं वही उसे सुहाता है दूसरा कुछ नहीं सुहासा अर्थात् यही
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पुरुषार्थसिन्धुपाय उसे प्रिय लगता है, उसीमें उसका उपयोग या चित्त लगता है, यह स्वाभाविक है। हो, जब तक उस शुद्ध स्वरूपका दर्शन या उसको प्राप्ति एवं उसका अनुभव या स्वाद नहीं आता तब तक जोत्र बराबर भूला रहता है और नकलीको असली मानता है व उसीमें संतुष्ट रहता है, जो कूपमंडूक जैसा है अथवा तिलीके तेलको हो सर्वोत्कृष्ट मानता है, या मुड़को ही उत्तम मानता है किन्तु जिसने घीका स्वाद या मिश्रीका स्वाद ले लिया हो वह कभी गलत या नकली धारणा या सत्यता नहीं कर सकता, न करेगा, यह पक्का है, अटल है। फलत: स्वाभावभाव या सहज स्वभावकी अपेक्षासे नय व प्रमाण दोनी साधनोंक द्वारा यथार्थ ज्ञान होता है किन्तु तीसरे साधन (निक्षेप ) द्वारा, व्यवहारका चलाना मात्र माना जाता है, यह सारांश है।।
अनादिसे संयोगीपर्यायमें रहने वाले तमाम जीवोंको पेश्तर पर्यायको अपेक्षा शुद्ध व अशुद्ध का ठीक-ठीक ज्ञान करानेके लिए ही निश्चयचय और व्यवहारनयका उपदेश दिया है कि संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंको निश्चयनय और व्यवहारमय ( साधनरूप ) का स्वरूप जानना अनिवार्य है। क्योंकि वह एक निर्णय करनेकी या सत्य असत्यको पहचाननेकी कसौटी है। उसके साथ-साथ दोनोंकी यथावसर आवश्यकता भी है और उनकी परस्पर संधि या सापेक्षता भी है। कारण कि वस्तु एक स्वभाववाली नहीं है, अनेकस्वभाव ( धर्म ) वाली है तब उसका कथन पूरा तो एक साथ नहीं होता। किन्तु काम-क्रम से होता है लेकिन वे अनेक धर्म उस समय भी वस्तुके साथ-साथ गौणरूपसे ( अविवक्षित ) बराबर मौजूद रहते हैं, नष्ट नहीं हो जाते अथवा दृष्टिके बाहर नहीं हो जाते किन्तु दृष्टि के भीतर ही रहते हैं, जब अमुक धर्मको विवक्षा होती है। ऐसो
१. तिलतलमेव मिष्टं येत न दृष्टं घृत क्यापि ।
अविदितपरवान्दो पदति जनो विषय एवं रमणीयः ।।
अर्थ----जिस पुरुषने जन्मसे तिलीका तेल ही खाया है, कभी भी नहीं खाया, यह तिलीफे तेलकी ही प्रदांसा (तारोफ) करेगा, क्योंकि उसको दृष्टि में दूसरी कोई श्रेष्ठ वस्तु है ही नहीं उसीका संस्कार है। इसी तरह जिसको वषयिक सुखका ही अनाहिसे स्वाद आया है अर्थात् जो परारित व्यवहार में ही लीन हो रहा है या पग रहा है किन्तु कभी स्वामित निश्चयरूप आत्मिक सुखका स्वाद नहीं मिला है यह कभी उसकी चाह, मचि या प्रशंसा नहीं करेगा, यह स्वाभाविक संस्कार है । पीलिया रोगीकी तरह (अशुद्ध दृधि वाले को तरह ) यथार्थ वस्तु को देख नहीं सकता इत्यादि समझना ।
*बस, उन्न प्रकारके कथनका नाम हो 'स्यावाद है । अर्थात् वस्तुमें परस्पर सापेक्ष ( संधिपूर्वक ) रहने वाले अनेक धर्मोंका शब्दशक्तिके अनुसार क्रमशः कथन करना 'स्याद्वाद' कहलाता है। इसीका दूसरा माम कथंचिट्ठाद या अपेक्षावाद है । और अनेकान्तबाद उसका विषय है।
१. इसीका नाम 'स्यात्नय' है । अर्थात् क्रम-कापसे अनेक धर्मोको जानना, कारण कि भायोपशमिक शानके अंशोंका यही स्वभावहै ( शक्ति है कि थोड़ा-थोड़ा परस्पर सापेक्ष जानना । इस प्रकार 'स्यावाद या स्यात् नय, वस्तु ( पदार्थ ) को जानने व कहने वाला है इति ।
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१. सम्यग्दर्शदनाधिकार सापेक्षता परस्पर संब धर्मोकी रहती है। इसीका माम विरोध रहित संधि है, जो कभी पृथक् या विनष्ट नहीं होती। तदनुसार ही वस्तुको जानना व कथन करना। बस. यही अनेकान्तको शैली है या पद्धति है । फलतः निश्चय और व्यवहारसे बस्तुको जाननेके लिए ही आचायंने इस नन्थको रचना की है।
नयोंके भेद व स्वरूप इस इलोकमें नयके निश्चय व व्यवहार ये दो भेद बतलाये हैं और उनका समान्य लक्षण भी बतलाया है जो सर्वत्र व्याप्त (घटित) हो सकता है। भूतार्थ----निश्चय और अभूतार्थ-व्यवहार यह स्वरूप, आत्मभूत व अनात्मभूत--इन नामोंमें भी व्यवहृत किया जा सकता है अथवा अभिन्न प्रदेश और भिन्न प्रदेश इन दो नामोंमें भी कहा जा सकता है। इसी तथ्यको द्रव्यार्थिक व पर्यायाथिक नामसे भी कहा जाता है । अस्तु ।
आचार्योन नयोंके लक्षण, कारण और कार्यको अपेक्षासे किये हैं । यथा---प्रवचनसार गाथा १८९ में शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चमः' और 'अशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको व्यवहारः' जो मय शुद्ध { परसे भिन्न स्वाश्रित) द्रव्यका या वस्तुका कथन करे, उसको निश्चयन समझना और जो नय, असद्ध या संयोगी द्रक्ष्यका निरूपण करे, उसको व्यवहारनय जाम्वना. ऐसा कहा है। यह तो शब्दनयको अपेक्षा कार्यका प्रदर्शन है, उससे निश्चय और व्यवहारका लक्षण गठित किया गया है और वैसा ही लोकमें कथन किया जाता है। तथा कहीं कहीं कारणको अपेक्षासे भी लक्षण बताया जाता है, जैसे कि दिव्यध्वनि निश्चय और व्यवहार रूप है अर्थात् दिव्यध्वनि पुगलकी { भाषावर्गणाकी ) पर्याय है, ऐसा कहना निश्चयकी कथनी है, इसमें रंचमात्र अभूतार्थता नहीं है। कारण कि पर्याएं सब द्रव्यमे ही हुआ करती हैं जो सत्यरूप हैं, स्वाश्रित है। और दिव्यध्वनि नैमित्तिक है अर्थात् केवल ज्ञानके निमित्तसे प्रकट या उत्पन्न होती है ( पराश्रित है)। अतएव वह व्यवहाररूप है, ऐसा कहना व्यवहारकथन है। यहां पर कारण की अपेक्षा कथन है और उपादानकारण ( भाषावर्गणाएँ पौद्गलिक ) और निमित्तकारण { केवलज्ञानादिक ) हैं। इस प्रकार दो तरहका कथन शब्दों द्वारा होता है अतएव वैसा ही शब्दात्मक लक्षण बनाया गया है। लेकिन अब नयात्मकज्ञान विषय ( ज्ञेय) होने की अपेक्षासे विचार या चिन्तवन या अनुभव किया जाता है तब पदार्थके आंशिक शुद्ध ज्ञान होने या करनेको निश्चयनय कहते हैं और पदार्थ के आंशिक अशुद्ध ज्ञान होनेको व्यवहारनय कहते हैं, यह सिद्धान्त है। परन्तु इसके सम्बन्ध में यह विशेषता है कि केवलीसर्वज्ञका ज्ञान नयात्मक ( खंडरूप) नहीं होता वह सर्वांशरूप युगपत् होता है किन्तु क्षायोपशमिकज्ञानियोंका श्रुत ज्ञान हो नयात्मक होता है और प्रामाणिक होता है। कारण कि वह सापेक्ष होता है, निरपेक्ष नहीं । अर्थात् पदार्थके सर्वांशोसे वह सम्बद्ध या अनुस्यूत रहता है असंबद्ध या अन्ननुस्थत नहीं रहता या उन सबमें प्रदेशभिन्नता नहीं रहता इत्यादि विशेषता समझना । इसीका माम 'स्यात् ( कथंचित् ) नयज्ञान हैं', किम्बहुना।
१. एसो बंधसमासो जोबाणं णिच्छएण णिट्ठिो । अरहंतहिं जदीणं यवहारो अण्णाहा भणिदो ।
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पुरुषार्थविश
निश्वयनयके भेव च लक्षण
froarrus दो भेद होते हैं ( १ ) शुद्धनिश्वयनय ( २ ) अशद्धनिश्चयनय । (१) जो तय, द्रव्य (पदार्थ) के परसे भिन्न शुद्ध स्वरूपका निश्चय करावे या ज्ञान करावे उसको शुध freeurs कहते हैं यह ज्ञानात्मक है तथा जो द्रव्यके शुद्ध स्वरूपका कथन या निरूपण करे उसको उपचारसे निश्चयनय कहते हैं कारण कि शुद्धद्रव्यके निरूपकः शब्दोको यहां पर न ( जानका भेद ) मान लिया जाता है, यही उपचार है। ज्ञान और शब्द जुदे जुड़े है। जैसे कि आत्मा परसे भिन्न ज्ञानदर्शनरूप चेतनाका frue है' ऐar are atध करानेवाला नय ही शुद्ध निश्चयनका लक्षण व स्वरूप है । ( २ ) तथा रामादिक विकारीभाव आत्मा हैं ऐसा अशुद्ध बोध करानेवाला नय अशुe fraurant लक्षण है। इसका खुलासा इस प्रकार है कि 'रामादिक विकार या दोष. आत्मा सहज स्वभाव नहीं हैं क्योंकि वह सो गुणी या निर्दोष है-- ज्ञानदर्शनसुखबलवाला अनादिसे हो है ( जन्मजात विरासतरूप है ) किन्तु संयोगी पर्याय, जो अनादिसे हो रही है, उसके हैं ( शुद्ध या पृथक आत्मा नहीं हैं ) अथवा औपाधिक एवं विनश्वर हैं सदा (कालिक ) स्थायी नहीं हैं अतएव यह अशुद्धता है। फिर भी ( तथापि ) वे रागादिक विकार आत्माके हो प्रदेशों में होते हैं यह निश्चय या यथार्थ बात है, अतएव उक्त मान्यता या कथममें कुछ सत्यता भो है । फलतः ज्ञानदर्शनादिक ( गुणों ) और रागादिक ( विकारों-दोषों ) दोनोंके एक आत्माके प्रदेशों में ही उत्पन्न होनेसे अशुद्धपना व निश्चयपना दोनों सिद्ध होते हैं। इसप्रकार अशुद्ध निश्चयनया स्वरूप समझना चाहिए ( बृहत् द्रव्य-संग्रह गाथा नं० दार में भी देख लेना ) ।
व्यवहारतका लक्षण और भेद
१) जो नय, अशुद्धता ( परके संयोग सहितरूप ) का परिचय या बोध करावे उसको व्यवहारनय कहते हैं अर्थात् यह अन्यको अन्यमें मिलाकर बतलाता व कहता है, शुद्ध नहीं बताता. व कहता, यह मेद है | जैसे आत्माको द्रव्यकर्मादि व शरीरादिसे बद्ध या संयुक्त बतलाना व कहना जो अशुद्ध व गलत है क्योंकि आत्मा (जीव ) व द्रव्यकर्मा ( जडपुदगल ) दोनों पृथक-पृथक है, कोई किसी नहीं हैं. सबका गुण-स्वभाव आदि जुदा-जुदा है- तादात्म्यरूप अभेद नहीं है ।
arearers ३ तीन भेद हैं ( १ ) भेदाश्रित ( २ ) पराश्रित (३) पर्यायाश्रित | अखंडद्रव्य ( वस्तु ) में खंड कल्पना करना मदाश्रित व्यवहार कहलाता है अर्थात् प्रदेशोंका मेद न होनेपर भी. संख्या स्थापना करना । जैसे कि आत्माको असंख्यात प्रदेशी मानना या कहना इत्यादि । इसी तरह आत्मा या प्रत्येक द्रव्य, स्वाश्रित या स्वाधीन है अथवा स्वसहाय है, परन्तु उसको पराश्रित या परसहाय मानना, कहना भी व्यवहार है। जैसेकि द्रव्योंका सभी कार्य परया निमित्तादिकी सहायता से होता है, इत्यादि व्यवहार ( अभूतार्थं ) है, कारण कि कार्यपर्यायें सब उसी द्रव्यमें उपादानसे ही प्रकट या उत्पन्न होती हैं ऐसी वस्तुस्थिति है । तथा पर्यायोंके द्वारा द्रव्यमें भेद हो जाता है ऐसा मानना व कहना, यह भी व्यवहार है। कारण कि द्रव्य कभी नहीं बदलता, न भेदरूप होता है । जैसे नर नरकादि पर्यायोसे जीव द्रव्य नहीं बदलता, किन्तु वैसा मानना व्यवहार या उपचार हो है । इसप्रकार व्यवहारयके ३ तीन भेद माने गये हैं ।
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१. सम्यग्दर्शनाधिकार
saurfer a fufर्थकनका स्वरूप व भेद
( १ ) जिस नयका उद्देश्य या मुख्य प्रयोजन द्रव्यकी शुद्धताको बताना या ज्ञान कराना हो अर्थात् जो न सिर्फ द्रव्यके शुद्ध स्वरूपको बतलावे उसको द्रव्याथिक कहते हैं । जैसेकि संयोग पर्याय रहित सर्वथा शुद्ध सिद्ध परमात्मा के स्वरूपका ज्ञान कराना, क्योंकि वे सर्वथा शुद्ध अर्थात् कार्यकारणभावसे रहित पूर्ण शुद्ध जीव द्रव्यरूप हैं । संसारदशामें जीवद्रव्य कार्यकारणरूप होता है तथापि आत्मद्रव्य के साथ उनका तादात्म्य सम्बन्ध नहीं होता वह आत्मद्रव्य परसे भिन्नतारूप शुद्ध रहता ही है, अस्तु । द्रव्यार्थिकमय ३ तीन भेद ( उपनयरूप ) माने गये हैं । यथा १) गम ( २ ) संग्रह ( व्यवहार । तोनोंके लक्षण निम्नप्रकार हैं।
安道
( १ ) जो नय दो पदार्थोंमेंसे एकको मुख्य और दूसरेको गौण करके भेदरूप या अमेदरूप बतलावे ( जनावे ) उसको गमनय कहते हैं। अथवा कार्यके संकल्पमात्रको बतानेवाला नय ( ज्ञान ) नैगमन कहलाता है । जैसे कि रसोई बनाने के संकल्पमात्र करते समय किसीके पूछनेपर fear कर रहे हो ? जवाब देना कि रसोई बना रहे हैं इत्यादि यहाँ कार्य पर्याय द्रव्यका आरोप है।
(२) जो नय, जातिभेद ( विरोध न करके समुदायरूपसे द्रव्य ( पदार्थ ) को ग्रहण करे या बताने उसको संग्रहनय क है। जैसे वृक्षोंके समूहको वन कहना या जानना, का भेद न कर जीवमात्र सबको बराबर मानना 'यह जोवराशि है इत्यादि ।
( ३ ) जो नय, अभेदसे मेद करे अथवा संग्रहनय द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ से पृथक.पृथक् बतावे या करें, उसको व्यवहारना कहते हैं । जैसे वनमेंसे, यह नीम है, यह सागोन है, यह आम है इत्यादि । या जीवराशिमेंसे, यह त्रस है, यह स्थावर है, यह एकेन्द्री है, यह दो इन्द्रिय है, यह देव है, यह मनुष्य है इत्यादि ।
पर्यायार्थिकनका स्वरूप व भेद
(२) जिस नयका उद्देश्य द्रव्यको पर्यायमात्रको ( संयोगोपयको ) ग्रहण करने या anter हो अथवा जो नय, मुख्यतासे पर्यायको हो बतावे या कहे, उसको पर्यायार्थिकन कहते हैं। उसके चार भेद हैं यथा ( १ ) ऋजुसूत्र ( २ ) शब्द ( ३ ) समभिरूड ( ४ ) एवंभूत ।
1
१.
ण कुदोनिवि उपणो जम्हा क ग ते सो सिद्धो ।
उपादि ण किचि वि कारणमवि तेण ण य होदि ॥ ३६॥ पञ्चास्तिकाय
अर्थ - सिद्ध परमात्मा किसीसे अर्थात् कर्मक्षयद्वारा उत्पन्न नहीं होते किन्तु स्वयं स्वोपादानसे होते हैं अतएव कार्यरूप नहीं है तथा किसको अर्थात् स्वकीय संसार को तथा परको उत्पन्न नहीं करते अतएव कारणरूप भी नहीं है किन्तु ज्ञातादृष्टा मात्र शुद्ध द्रव्यरूप हैं इति ।
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पुरुषार्थसिधुपाय (१) जो नय भूतभविष्यत् पर्यायको ग्रहण न कर सिर्फ वर्तमान पर्यायको ग्रहण करे या ज्ञात करावे, उसको ऋजुसूत्रनय कहते हैं। जैसे यह पुरुष जवान है इत्यादि ।
(२) जो नय लिंग, वचन, कारक, काल, उपसर्ग आदिके भेदसे पर्याय में भेद करे या जतादे, उसको शब्दनय कहते हैं। जैसे-दार, भार्या, कलत्र इत्यादि भेद समझना, सभापतिउपसभापति इत्यादि।
(३) जो नम लिंगादिकका भेद न कर रूढिरूप अर्थ ( पर्याय ) को ग्रहण करे उसको समभिरूढ़ नय कहते हैं। जैसे-गाय, बैल, घोड़ी, घोड़ा यहाँ लिंग भेद होनेपर भी सबको पशु या तिर्यञ्च बताना। अथवा लिंगादिकका भेद न होनेपर भी जो नय, पर्याय शब्दके भेदसे अर्थात् वर्तमान समयको क्रिया देखकर भेद करता है उसको मनिला बहरे हैं। जैसे देकर { इन्द्र ) को रनवासमें शचीपति, राज्यसभा ( दरवार ) में इन्द्र, लड़ाई के समय पुरन्दर आदि कहना या जानना।
(५) जो नय शब्दका जैसा अर्थ हो वैसा परिणमते समय ( क्रिया करते समय ) हो वैसा माने या कहे, जिसको एवंभूतनय कहते हैं। जैसे पूजा करते समय ही पुजारी कहना, अन्य समय नहीं इत्यादि ।
ध्ययहारनय या उपनयके भेद (१) सद्भुत व्यवहारनय (२) असद्भुत व्यवहारनय : ३ ) उपचरित व्यवहारनय ( ४ ) अनुपचारित व्यवहारमय ये चार भेद हैं । अर्थात् मूल में न्यवहारके एक समूत व्यवहार, दूसरा असद्भुत व्यवहार दो भेद हैं पश्चात् सद्भूत व्यवहार के उपचरित व अनुपचारित ऐसे दो भेद होते हैं कुल ४ चार भेद समझना चाहिये । अथवा सामान्य संग्रह भेदक व्यवहार व विशेष संग्रह भेदक व्यवहार, कारण कि संग्रहनय द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थों में भेद करना, ग्रही एक मुख्य प्रयोजन व्यवहारमयका है। जैसेकि द्रव्ये ( संग्रहरूप ) जीव व अजीब दो भेद रूप हैं सथा जीव संसारी व मुक्त दो तरहके होते होते हैं इत्यादि भेद करना ।
(२) ऋजुसूत्रके दो भेद-एक सूक्ष्म ऋजुसूत्र, अर्थात् जो एक समय ही स्थित रहे। प्रतिक्षण विनश्वर पर्याय या अर्थपर्यायरूप। दूसरा स्थूल ऋजुसूसूत्र अर्थात् जो अनेक समयतक स्थित रहे । मनुष्य तिर्यञ्चादि व्यंजनपर्यायरूप।
{ ३-४-५ ) शब्द-समभिरूढ़-एवंभूत थे तीनों एक २ भेदरूप ही हैं । इनमें भेद नहीं है । इत्यादि।
१. पदार्थ के एकनय या अंशको ग्रहण करके उसको अनेक या अनेक तरहसे भेष या विकल्पों द्वारा जापित करना या कहना उपनय कहलाता है । यह मूलनयोंका सहायक या धापेक्ष रहता था होता है ।
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अदाल
१. सम्यग्दर्शनाधिकार विशेष-द्रश्याथिकनयके १० भेद । पर्यायाथिकनायके ६ भेद । नैगमनयके ३ भेद । संग्रहनयके २ भेद । व्यवहारनयके २ भेद । ऋजुसूत्रनयके २ भेद । शब्द-समभिरूट-एवंभूत-नयका १, १ भेद । तथा उपनय, सद्भूत व्यवहारके शुद्ध व अशुद्ध दो भेद । उपनय, असद्भुत व्यबहारमयके ३ भेद । उपनम, उपरित असद्भुत व्यवहारनयके ३ तीन भेद इत्यादि सब विस्ताररूप कथन आलापपद्धति ग्रन्थसे समझ लेना चाहिये।
उपसंहार __ इस श्लोक द्वारा आचार्यने यह बताया है कि अनादिकालमे संयोगी पर्याय में रहते हुए जीव मात्र व्यवहारनय ( अभूतार्थ } भयका आश्रय लेनेके कारण वस्तु (द्रव्य ) के असली स्वरूप या स्वभावको भूल गये हैं अर्थात् नकली या मिथ्या या विपरीत ज्ञानश्रद्धानवाले हो रहे हैं। फलतः उनका आत्मकल्याण होना या मोक्षमार्गको प्राप्त करना दुःशक्य है । अतएव निश्चयनय { भूतार्थ) द्वारा सबका या खासकर मोक्षमार्गापयोगी जीवादि सात तत्त्वोंका असली स्वरूप व स्वभाव जानकार भूल या अज्ञान मिटाना अनिवार्य है क्योंकि उसके बिना जोबोंका कल्याण नहीं हो सकता । सारांश यह कि जो जीव सदैव चाहते हैं कि 'सुखशान्ति प्राप्त हो व दुःख अशान्ति दूर हो उन्हें अभीष्टसिद्धि कदापि नहीं हो सकती जबतक अनादिको भूल न मिटे । बढ् अनादिकी भूल संक्षेप में अपने या वस्तुके स्वभावको नहीं समझकर उससे विचलित हो जाना एवं परवस्तुको अपना भान केला है ( कलश २०२० १७६-१७७ के अनुसार ) अथवा परके साथ अभेद या एकत्त्व करने लगता है, जो भ्रम है--कभी परके साथ एकत्व होता नहीं है अर्थात् तादात्म्य नहीं होता, कारण कि वस्तुका एकत्व विभक्त स्वभाव नियत है । इसप्रकार तथ्यको जानकर रत्नत्रयधर्मको धारणपालन करना चाहिये, यही सार है या मनुष्य जीवनका मुख्य कर्तव्य है।
व्यवहारनय व निश्चयनयके आलम्बनका अर्थ (१) व्यवहारमय अथवा अभूतार्थ नयके द्वारा बताए गये या जाने गये पदार्थ के अशुद्ध या असत्य स्वरूपको वैसा जानना एवं वसी श्रद्धा । मान्यता) करना, व्यवहारमयका आलम्बन करना कहलाता है, जो हेय है । ( २ [ निश्चयनय अथवा भूतार्थ मयके द्वारा बताए गये या जाने गये पदार्थके शुद्ध या सत्य स्वरूपको वैसा जानना एवं वैसी श्रद्धा करना निश्चयनयका आलम्बन करना कहलाता है जो उपादेय है 11५।।
... प्रश्न होता है कि जन्न व्यवहारनय अभूतार्थ है और फलस्वरूप हेय है तब उसको ग्रहण करना एवं उसका उपयोग यापूस्तमाल करना अथवा उसकी अपेक्षा करना व्यर्थ है, कारण कि वह अकिचिकर जेसा सिद्ध होता है ? आचार्य इस प्रश्नका समाधान, अनेकान्तकी दृष्टिसे प्रारम्भिक दशामें उसका उपयोग लेना आवश्यक है, यह कहकर करते हैं :
अबुधस्य बोधनार्थ मुनीश्वराः देशयन्स्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवेति यस्तस्य देशना नास्ति ॥६॥
ARTS
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पुरुषार्थसिदभुपाय
निश्चयके अज्ञानी जो जन जनको समझाने हेतु । ध्यपहारनन नपयोग करत है, मुनिजन करुणा सेतु' ।। जो केवल व्यवहार मानते. निश्चय और महीं कुछ भी।
उनको जिन्न उपवेका न लगता, घे अपात्र एकाम्सी भी १६॥ अन्वय अर्थ--[ मुभीश्वराः ] गणधरादिक आचार्य । अयुश्वस्य बोधनाय अभूता देशयन्ति ! करुणाबुद्धिसे अज्ञानी और भूलेभटके (विपरीत बुद्धि ) जीवों को प्रारम्भमें निश्चयका ज्ञान करानेके लिये, व्यवहारमयका आलम्बन करके उपदेश देते हैं क्योंकि बह अनिवार्य है किन्तु [ यः केवल व्यवहार एवं अति जो जीव सिर्फ व्यवहारको हो सबकुछ मानता है अर्थात् जिसकी दृष्टिमें न कोई दूसरा ( निश्चय ) है और न उसको जिज्ञासा है ऐसा एकान्तीजीव है । तस्य देशना मास्ति ] उसको जिन वाणीका उपदेश देना ही व्यर्थ है, कारण कि वह उसको न समझ सकता है और न उसपर उसका कोई प्रभाव ( असर ) हो सकता है। फलतः वह उपदेशका पात्र नहीं है ॥६॥
भावार्य-अनादिकालसे संसारी जीव, संयोमीपर्याय में रहते हुए अनेक तरहसे अज्ञानी व भूलवाले ( विपरोतबुद्धि ) बन रहे हैं। उनमेंसे कितने ही जीव ऐसे हैं कि जो तत्त्वों ( पदार्थों) का नाम न स्वरूप तक नहीं जानते, न उन्हें द्रध्यगुण पर्यायका ज्ञान है न निश्चय और व्यवहारका ही ज्ञान है ऐसे भोले हैं, तथा कुछ ऐसे भी हैं, जो तत्वोंके नाम, लक्षण, भेद आदि सब जानते हैं किन्तु विपरीत बुद्धि व श्रद्धा होनेसे भूले हुए हैं। उनसबको ठीक ठीक समझानेके लिये आचार्य उपाय बतला रहे हैं। वह उपाय प्रारंभ दशा या हीन अवस्थामें 'व्यवहारनय' का आलम्बन करना है अर्थात् उसके द्वारा बोध कराना है अथवा उसकी सहायता लेना है ( उसे मुहरा माना है ) दूसरा (निश्चय नय) उपाय ( साधन नहीं है। कारण कि उतनी बुद्धि व विचारशक्ति उनमें नहीं पाई जाती यह स्वाभाविक है, एवं प्राचीन संस्कार पड़े रहते हैं। अस्तु,
___ नियमानुसार पदार्थोंका ज्ञान जीवको दो नयोंसे होता है.--१) निस्चयनयसे ( २) व्यवहारनयसे । परन्तु उनमेंसे निश्चयनय, पदार्थके सत्य ( असली भूतार्थ) स्वरूपका ज्ञान कराता
१. पुलके समान पार करनेवाले या लगानेबाले ।
___ अबुधका अर्थ भोले या बालक भी होता है उनको समझानेके लिये व्यवहार सहित निश्चयका उपदेश दिया जाता है यह करुणाभाव मुरुओंके रहता है। सद्गुरु शुभोपयोगके समय (धर्मानुरागवश ) सम्यग्दृष्टियोंको तथा सम्यग्दर्शनके सन्मुख मन्दकगायो मिथ्याष्टियोंकी तो व्यवहार सहित निश्चयका पदेश देते ही हैं किन्तु जो तीवकषायी एकान्सी (मिथ्या दृष्टि है उन्हें भी श्यवहारनय द्वारा सदाचारमें लड़ाते हैं, असदाचार छुड़ाते हैं तथा असनी पंचेन्द्रिय तकके जीवोंको दूसरोंके द्वारा बनवाते है ( रक्षा करनेका उपदेश देकर उनके प्राण बनाते हैं. ) अर्थात् किसी न किसी तरह उनका भला करते हैं यह रहस्य है।
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१. सम्यग्दर्शनाधिकार
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ज्ञान ) कराता है यह "हैं और व्यवहार नय पदार्थोके असत्य ( नकली अभूतार्थ) स्वरूपका बोध . मूल भेद है । अतएव व्यवहारनय प्रारम्भमें कामचलाऊ अस्थायी साधन है लेकिन य अवश्य है । और निश्चयन हमेशा कार्यकारी व स्थायी साधन है और उपादेय है । फलतः व्यवहारनयका प्रयोजन जबतक उसकी सहायतासे निश्चयनयका या पदार्थोके असली स्वरूपका ज्ञान नहीं हो जाता care लिए है, हृाके लिए उसका आलम्बन व प्रयोजन नहीं है (निका उद्योत होने पर वह स्वयं सिरोहित या अनावश्यक हो जाता है, कारण कि निश्चयrय स्वयं स्वसहाय है पर सहाय नहीं है। तभी तो 'स्वाश्रितो निश्चयः', 'पराश्रितो व्यवहारः' कहा गया है। सारांश व्यवहार नयकी उपयोगिता ( सार्थकता तभीतक है जबतक निश्चयलयका राज्य नहीं होता है। जिस } प्रकार म्लेच्छ भाषाका उपयोग तबतक किया जाता है जबतक कि म्लेच्छ ( अनार्थ ) जीव आर्यभाषा नहीं जानता, जब वह आर्यभाषा जान लेता है तब फिर अनार्य भाषाका प्रयोग बन्द कर दिया जाता है । ऐसा हो प्रयोजन व्यवहारनधका समझना चाहिये । परन्तु दोनों नय परस्पर सापेक्ष ( संधिरूप ) एकत्र अवश्य रहते हैं व माने जाते हैं अर्थात् एकके अभाव में दूसरा नय अपना कार्य करता है । सारांश यह कि जब एक नय अपना कार्य नहीं करता तब दूसरा ( विपक्ष ) नय अपना कार्य करता है और एक दूसरेकी सत्ता ( अस्तित्व ) स्थापित करता है क्योंकि एकके बिना दूरेका नामनिर्देश हो नहीं सकता ऐसा परस्पर जोड़ा है, हो, गणनुदरा बहती है ि अधिकरण भी दोनों नमोंका एक ही द्रव्य है ।
वहान भेद व कार्य
पर्याव्यवहारय तीन प्रकारका होता है ( १ ) भेदाति वा भेदरूप मान्यता ( २ ) श्रित या पर्याय मान्यता ( ३ ) पराश्रित या निमित्ताधीन मान्यता । इन सीनोंका उदाहरण प्रयोजनवश व्यतिक्रमरूपसे दिया जाता है । और जीवद्रव्यका ज्ञान करानेके लिये व्यवहारको विधि ( प्रक्रिया ) बतलाई जाती हैं। यथा---
( १ ) जब कोई अज्ञानी मनुष्य जीवके निश्चय स्वरूपको जानना चाहता है तब यदि उसको इकदम प्रारंभ में यह बताया जाय कि जीवका निश्चयस्वरूप 'एकत्वविभक्त' है इत्यादि, तब बिना दिखाये या व्यवहारनयकी सहायता व आलम्बन लिये वगैर अनंत कालतक वह जोवcount नहीं जान सकता, यह पक्का है । इसलिये प्रारंभकालमें जीवका ज्ञान, पर्यायाश्रित व्यवहारनयका आश्रय लेकर कराया जाता है कि - जिसके मनुष्य देवनारकतिचिका शरीर हो या पाँच इन्द्रियां हों, वही जीव कहलाता है । उस जिज्ञासु श्रोताको यह ज्ञान हो जाता है कि मेरे मनुष्य शरीर व इन्द्रियाँ हैं, अतः में जीव हूँ । यहाँ पर जीवका ज्ञान संयोगी पर्याय द्वारा कराया जाता है जो व्यवहारयरूप है या व्यवहारका कार्य हैं अर्थात् इस प्रकार जीवद्रव्यका श्रोता या जिज्ञासुको ज्ञान होना व्यवहारनपाश्रित है, निश्चयनयाश्रित ज्ञान नहीं है। उपचरितज्ञान है कारण कि शरीर या इन्द्रियाँ सब पुद्गलको पर्याय हैं जो जीवद्रव्यसे भिन्न हैं ।
( २ ) इसी तरह पराश्रित ( निमित्ताश्रित ) व्यवहारनयका उदाहरण ऐसा है— जो इन्द्रियों
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সুখবিসুকায় के द्वारा जाने वह जीव है। यहाँ भी इन्द्रियों ( साधनों-निमित्तों ) को पराधीनतासे जीवको सिद्धि बतायी गई है, जो सरासर व्यवहारनयका ही भेद है अर्थात् श्रोताको यह अभूतार्थ ज्ञाम होता है कि मैं इन्द्रियोंसे जानता हूँ अतएव में जीव हूँ। क्योंकि भिश्चयनयो जीवका स्वरूप स्वाधीन व स्वाश्रित है, पराश्रित या निमिताश्रित नहीं है यह दूसरा व्यवहारनयका उदाहरण है।
(३ ) इसी तरह भेदाश्रित व्यवहारका उदाहरण यह है-जो ज्ञान व दर्शनसे जानता है वह जीव है। यहाँ पर अखंड व अवक्तव्य जीवद्रव्यमें ज्ञान व दर्शनका भेद करके कथन किया जाता है अतएन वह व्यवहारनयका विषय है निश्चयनयका विषय अखंडपिंड है। यद्यपि व्यवहारनय हेय है परन्तुर, दाम उत्तान जीवतत्त्यक विषयमें कुछ अज्ञान भिटाया है अतएव वह कचित् अपेक्षणीय है सर्वथा उपेक्षणीय नहीं है. प्रारंभ अवस्थामें कार्यकारी है। व्यवहारनय पदार्शका अशुद्ध स्वरूप बतलाता है, जिससे वह आत्मकल्याणका साधक नहीं है बाधक है व त्याज्य है। फलतः तीनों प्रकारका व्वहारनय है तो हेय, परन्तु प्रारंभमें अज्ञानियों को समझानेके लिये थोड़ा उपादेय भी है किन्तु श्रद्धान गलत या विपरास नहीं होना चाहिये, यह निष्कर्ष है !
अशुद्ध या विभावरूप प्रवृत्तिको या क्रियारूप परिणमनको उपादेय या आत्महितकारी न मानकर निमित्त या उपाधिरूप ही मानना और बस्तु स्वभावपर हमेशा दृष्टि रखना, उसको नहीं हटाना अर्थात् पर { विभाव ) की ओर दृष्टिको नहीं जाने देना ही मूलमें भूल नहीं करना है और निज स्वभाव ( ज्ञानदर्शनादि } से दृष्टिको विचलित करना ही. मूल में भूल'च अपराध है, यह ध्यान रखना चाहिए। फलतः असंयम या संयम (द्रव्यभावरूप) दोनों बन्धके कारण या निमित्त हैं विकार है अतएव ज्ञानी वीतरागो उनको भी त्याग देता है वह ज्ञातादृष्टा मात्र स्वस्थ होता है, एकाकी स्वरूप रमता है।
इसके विपरीत जो केवल व्यवहारनयावलम्बी अशुद्धज्ञानी और अशुद्धाचरणी हैं वे जिनवाणीके उपदेशके पात्र नहीं है क्योंकि वे उसको समझ नहीं सकते न उनको रुचि होती है, यह खराबी उनमें पाई जाती है तब उन्हें उपदेश देना ही व्यर्थ है 1 अथवा कभी-कभी उसका उल्टा फल भी होता है । फलतः संयोगी पर्यायमें होनेवाली प्रवृत्ति या क्रियाको वस्तुका परिणमन निश्चयरूप समझते हुए उसके द्वारा अपनी आत्माका कल्याश नहीं हो सकता ऐसा दृढ़ श्रद्धान करना और हेयको हेय उपादेयको उपादेय मानकर कार्य करते रहना मना नहीं है वह तो वस्तुस्थितिकी मर्यादा है, उसको सम्यग्दृष्टि नहीं तोड़ सकता उसका वह पालन या रक्षा हमेशा करता है। अतः सम्यग्दृष्टि उच्च है। कोई भी सरागी जीव संयोगी पर्यायमें रहते हुए सब सरहका व्यवहार कार्य करना नहीं छोड़ सकता किन्तु उसको करता हुआ उससे सदा विरक्त या उदासीन ( रुचिरहित ) रहता है तथा यथाशिक्ति उसे छोड़ता भी है, यह विशेषा रहती है।
उपसंहार व्यवहारनयके शानीको ही निश्चयनयका ज्ञान व आदरण होता है, परन्तु उसका तरीका पूर्वोक्त प्रकार ही है अन्य प्रकार नहीं है अर्थात् पेश्तर व्यवहारमयका आलम्बन करते कराते हुए
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再度
१. सम्यग्दर्शनाधिकार
आत्मा,
दृश्यमान
जैसे अरूपी अदृश्य पदार्थ का रूपी शरीरादि साधनों द्वारा ज्ञान कराया जाता है, जोकि यद्यपि है अशुद्ध ( व्यवहार ) ज्ञान, तथापि मुख्य लक्ष्य निश्चयका ज्ञान कराना होनेसे वह वोखा देना या मायाचार व कपट करना ( गुमराह करना ) नहीं कहा जा सकता, बल्कि उस ftary rtant उसकी योग्यता के अनुसार सान्त्वना ( तसल्ली ) देना है, जिससे वह घबड़ाने न पावै । ऐसा करते २ जब उस जिज्ञासुको स्वयं ही निवमनयरूप सत्यज्ञान प्रस्फुटित ( प्रकट ) होता है तब अपने आप वह निश्चय व्यवहारकी समझ लेता है और पेश हुने बुद्ध शान जानकर उसको छोड़ देता है क्योंकि वह तो शरीरादि साधनों को हो जीव जनानेवाला भ्रम ज्ञान था ऐसा मेदज्ञान उसको प्रकट हो जाता है । वह व्यवहारज्ञान असत्यार्थ है और निश्चयशान सत्यार्थ ऐसा दृढ़ ज्ञान श्रद्धान उसको हो जाता है व उसके होनेमें पर ( कोई शरीरादि व इन्द्रियादि) सहायक नहीं होते, उसका आत्मा ही सहायक ( स्व सहाय ) होता है और मेरा आत्मा या जीव यही है, जो अपनेको अखण्ड fros रूपसे नियत जानता है । फलतः व्यवहारनयसे साध्यसाधनभाव या कार्यकारणभाव परके साथ माना जाता है और निश्चयनयसे अपने भीतर हो सब पाया जाता है 1 जब जिज्ञासु और आचार्यका एक मत हो जाता है तभी साध्य ( सम्यग्ज्ञान की सिद्धि रूप अन्तिम लक्ष्य पूरा हुआ समझा जाता है । यही आशय उक्त श्लोक द्वारा आचार्यने दरशाया है। इसकी पूर्ति न होनेतक सभी ज्ञान प्राय: अज्ञान कोटि में शामिल रहते हैं क्योंकि दे प्रमाणरूप नहीं हैं। हितकी प्राप्ति ओर अहितका परिहार कराने में समर्थ ज्ञान हो प्रमाण माना जाता है और वह सम्यग्ज्ञान ही है, किम्बहुना ॥ ६ ॥
आचार्य पूर्वोक्तको ही पुष्ट करने के लिए एक दृष्टान्त देते हैं
माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य | व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ||७||
पच
जिसकी निश्चयज्ञान नहीं वह व्यवहर निश्चय जानत है । सिंह ज्ञान नहिं होता जिसको खिल्लीको सिंह areत है ॥ पर यह भ्रम मिट जाता तब है, जब सध्या सिंह fee year | इसलिये कहा है, द्योतक निश्चय प्रकटाता ३७।। अन्वय अर्थ --- [ यथानवगीतसिंहस्य ] जिस तरह जिसे किसी आदमीको सच्चे शेरका ज्ञान नहीं है, परन्तु जिज्ञासा जरूर है वह [ माणवक एव सिंह भवति ] बिल्लीको ही सच्चा सिंह मान
व्यवहार
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१. हिताहिलासपरिहारसमर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तदिति ॥-- परीक्षासूत्र १-२ |
२. जर जिणमयं पविञ्जय ता मा बबहार विच्चये सुईए । एक्केण विना छिज्जद तित्यं अणेण उण तच्च ॥
क्षेपकगाथा | ५
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पुरुषार्थसिद्धधुपाये लेसा है एवं कथञ्चित् सन्तुष्ट भी हो जाता है। [ तथा मनिश्चयशस्थ हि व्यवहार एवं निश्चयमा याति ] उसी तरह जिस जीवको निश्चयका यथार्थ ज्ञान नहीं है, वह जीव व्यवहारको ही निश्चय मान लेता है व सन्तुष्ट हो जाता है ।।७।
भावार्थ-अनादिकालसे ब्यवहारको ही निश्चय माननेवाले जीव संसारमें बहुधा अधिक पाये जाते हैं, वे भूले-भटकके जीव अज्ञानी जोव है, कारण कि उनकी निश्चयका न ज्ञान है न महत्व है, व्यवहारदष्टि ( मान्यता ) ही उनको सदैव रहती है। उनके सामने निश्चय जैसी महत्वपूर्ण कोई वस्तु है ही नहीं। रिकार हाती घामो सामने सना शेर न होनेसे बिल्लीके बच्चेको ही वह शेर समझता है । ऐसी स्थिति में कभी उद्धार या भला नहीं हो सकता। सच्चे शेरके जाने विना नकली शेरको जान लेने माथसे उसको शेरका मचा ज्ञाता नहीं कह सकते । नतीजा यह होता है कि उसकी नकली धारणा इतनी मजबूत हो जाती है कि कदाचित् सच्चे शेरका प्रत्यक्ष दर्शन होनेपर भी वह उसको सच्चा और नहीं मानता, झूठा मानता है। अतः जबतक निश्चय ( सत्य ) का दर्शन व ज्ञान न हो तबतक तो वह किसी तरह व्यवहार या असत्यको अपनाये, किन्तु जब सत्यका दर्शन व ज्ञान हो जाय तब वह व्यवहाररूप धारणा ( मान्यता) को छोड़ देवे या छोड़ देना चाहिये । यह आशय या रहस्य है। यही बात जीवकाण्ड गोम्मटसारमें श्रीनेमिचन्द्राचायने लिखी है |७|1
तदनुसार मिथ्या या व्यवहार श्रद्धा तुरन्त छोड़ देना चाहिये, हम नहीं करना चाहिये, वही भद्र परिणामी समझा आयगा । जैसे कि जबतक असली शेरका दर्शन या प्रत्यक्ष न हो तबतक भले ही नकली शेर ( बिल्ली )को तसल्ली के लिए सच्चा शेर मानता रहे किन्तु जब सच्चे शेरका दर्शन व प्रत्यक्ष हो जाय तब तो भ्रम या अज्ञान ( व्यवहारपना ) छोड़ ही देना चाहिए, अन्यथा यह मूर्ख ही कहलायगा और धोखा खायमा, उससे लाभ या मनोरथ सिद्धि न होगी यह तथ्य है। कदाचित् परीक्षाके समय नकली शेर, दूसरे असली शेरका मुकाबला नहीं कर सकेगा। न अपनी व दूसरोंकी वह रक्षा भी कर सकेगा, दुसरे जबर्दस्त या बलवानके देखते ही भाम प्रायगा इत्यादि । उसी तरह प्रकृतमें भी समझ लेना चाहिये । जैसेकि व्यवहाररूप ( सराग ) सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानसम्यक्त्रारिसे भाव व द्रव्य शत्रु ( रागादिक विभाव भाव व द्रव्य कर्म ) नष्ट नहीं हो सकते न आत्मांकी उनसे रक्षा हो सकती है किन्तु निश्चय वीतरागतारूप सम्यग्दर्शनादिसे ही कर्मशत्रुओंका क्षय (विनाश:) होकर आस्माकी रक्षा होती है व मोक्ष जाता है इत्यादि, अतएवं निश्चय ही उपादेयः व हितकारी है ऐसा समझकर उसका ही आलम्बन या ग्रहण करना चाहिए, उससे कभी धोखा न होगा, हमेशा लय या साध्यकी सिद्धि होगी। किम्बहुना आचार्यका दिया हुआ शेर (सिंह) का दृष्टान्त बिलकुल फिट बैठता है । म्लेच्छ भाषाका दृष्टान्त मी बी श्रीकुन्दकुन्दाचार्य ने दिया है संगत वैठता है उनसे सब श्रम मिट जाता है, खुलासा समझमें आ जाता है इति ।
१. सम्माट्ठी ज़ोयो इ8 पक्यां तु सदहदि । सदाहदि असबभावं अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥२७॥ सुत्तायो त सम्म परसिज्जतं जदा ण सहदि । सो चैव हबइ मिछाइट्टी जीवो तदो पहुदी ॥२८॥
-जोक्का
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६. सम्यादर्शनाधिकार .... आगे आचार्य-निश्चयनय और व्यवहारमयके ज्ञानको आवश्यकता बतलाते हुए उसका फलं व महत्त्व बतलाते हैं
व्यवहारनिश्चयौ यः प्रबुध्य तन्वेन भवति माध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ||८||
पद्य जिल जीवने व्यवहार चयझान सम्यक कर किया। यह त्याग दोनों पक्षको 'मध्यस्थ' मानो हो गया ।। बह ही सहन जिनदेशनाका लाभ पूरा रन नर ।
वह तस्वज्ञानी जैनवाशी समझकर होता अमर 14 अन्वय अर्थ---[ यः शिष्यः । जो शिष्य भव्यश्रोता [ सवेन व्यवहारनिश्चयो प्रबुध्य ] व्यवहारनय व निश्चयनयके स्वरूप व भेदको सम्यकप्रकारसे जान लेता है और [ माध्यस्थः भति ] माध्यस्थभावको धारणकर लेता है अर्थात निश्चय और व्यवहारमें रागद्वेषरूपपक्ष नहीं करता [स एक शिष्यः ] बहो शिष्य (श्रोता )[देशनायाः अधिकलं फलं प्राप्नोति ] जिनेन्द्रदेवके उपदेश ( शिक्षा ) का सम्पूर्ण फल प्राप्त करता है, मोक्ष जाता है 11८11
भावार्थ-जिनवाणीके लिखनेका और उसको सुननेका मुख्य उद्देश्य है कि उससे भूले भटके अज्ञानी जोव वस्तुका निश्चय और व्यवहार स्वरूप समझें अथवा अपना अनादिकालीन भ्रम व अज्ञाम मिटावें तथा ओ हेय हो उसे छोड़े व जो उपादेय हो उसको ग्रहण करें और ऐसा करके अभी सिद्धि प्राप्त करें ( साध्यको सिद्ध करें)। परन्तु इसके लिये और क्या क्या करना अनिवार्य है, यह जिज्ञासा स्वभावतः होती है जिसका उत्तर है कि जिनवाणीमें यह सामर्थ्य है कि वह स्वतः निश्चय और ववहारका कथन करती है अथवा स्याद्वादरूप कथन करती है । अर्थात् वस्तुमें रहनेवाले धौ को क्रमशः कहती है क्योंकि उसमें यह सामर्थ्य नहीं है कि एक ही बारमें सब धर्मोको कह सके । यतः वे सभी धर्म एक ही आधारमें परस्पर मेलसे रहते हैं । अतएव अनेक धर्मवाली वस्तु अनेकान्तरूप कहलाती है तथा उसकी कहनेवाली वाणी या भाषाका नाम 'स्यावाद' है। इस तरह अनेकान्तसाद वस्तु तथा उसको कहनेवाली भाषाका परस्पर वाच्यवाचक सम्बन्ध है ! अतएव यह जिनकाणी स्थाद्वादवाणी मानी जाती है जो सब एकान्तरूप विवादोंको मिटाकर मैत्री स्थापित करती है। ऐसी वाणी के द्वारा ही निश्चय और व्यवहारका उपदेश होता है। दूसरी कोई भाषा या वाणी में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह निश्चय और व्यवहारको कहनेवाली बाणीके' अवलम्बन या सहायता ( निमित्त से जीवोंको सम्यग्ज्ञान होता है और सम्यग्ज्ञानसे माध्यस्थ्य ( वीतरागतारूपनिर्विकल्प ) भाव
१. पूर्वकथित गाथा ६ सूत्रपाहुट । २. माध्यस्थभावका अर्थ 'श्रामण्य' होता है या निर्विकल्प पक्षपातरहित, रागद्रेशरहित होता है ।।१५६॥
--प्रवचतर
RANE
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पुरुषार्थसिखधुपाय उत्पन्न होता है, जिसे सम्बकचारित्र कहते हैं एवं उसका फल मोक्षकी प्राप्ति है, यही सम्पूर्ण फलको प्राप्ति है । संक्षेप में ऐसा समझना कि इन सबमें मूल कारण जिनदेशना--निश्चय और व्यवहारका उपदेश है। उसके बाद निश्चयथ्यवहारका सूत्रानुसार जानना है, उसके पश्चात् माध्यस्थ्यभावका होना है। इस तरह तीनों परस्पर अनुस्यूततया सम्बद्घ है। देशमाके अविकल फल आत्मकल्याण या जीवोंके उद्धारके लिये तीनों अनिवार्य है किसीको भी श्रुटि नहीं होना चाहिये ।
ऐसी स्थिति में सम्यग्दष्टिको स्याहादरूप जिनवाणी, एवं निश्चयव्यवहारका ज्ञाता और माध्यस्थ परिणामी अवश्य २ होना चाहिये तभी वह मोक्षमार्गी व मोक्षमामो परम सुखी आदि महत्त्वपूर्ण फलवाला हो सकता है अन्यथा नहीं, यह सारांश है। फलतः जिनदेशनाके प्राप्त होने पर भी जिन जीवोंका हृदय परिवर्तन नहीं होता ( मिथ्याश्रद्धान नहीं छूटता ) वे कभी संसारसे पार नहीं होते । उनको न जिनवाणीका ज्ञान होता है न वे स्याद्वादको जानते हैं न उनको निश्चय व्यवहारका ज्ञान होता है न माध्यस्थ्यभाव होता है। निश्चयव्यवहारनयके सम्बन्ध निर्णय -----
एवं व्यवहारणयो पलिमिली जाण जिच्छयायेण । णिच्छत्रणयासिदा पुण मुणिको पाति णियाण ।। : १७२ ।।
--समयसार कुंदकुंदासायं अर्थ--निश्चयरूपसे । वास्तविकमें ) व्यवहारनय हेय या निषिद्ध है क्योंकि उससे मोक्ष नहीं होता, किन्तु निश्चयनप उपादेय है कारण कि उसके आलम्बनसे मुन मोक्ष जाते हैं अर्थात् मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं इत्यादि लाभ होता है, अस्तु ।
व्यवहारनयके भेदोंमें भेद
( १ ) लोकन्यवहार, अलेक तरहकी क्रियाओंरूप (२) शास्त्रव्यवहाररूप, जिसके पराश्रित आदि ३ भेद होते हैं। मोक्षमार्गमें वे ही बाधक होते हैं। लोकव्यवहार बाधक नहीं होता यह तात्पर्य है, अस्तु ।। ८ ।।
निश्चयनय और व्यवहारनमें भूल तथा कारणकार्यमें भूल कोज नसनिश्चयसे आत्माको शुद्ध मान, भये हैं स्वछन्द न पिछाने ।पजशुक्षुता । कोज व्यवहार दान शो तप भाषको ही, बातमको हित आम छोडत न मुद्रता ।।
१. आस्माफी शुद्धि---क्रियाका आदिको छोड़ देना है उसकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि आत्मा सदैव
शुद्ध है, यह अशुद्ध नहीं होता ऐसी मान्यता निश्चयाभास है । २. मुर्खता--दानादिसे आत्मकल्याण मानना व्यवहाराभास है ।
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২. মালঘিষ্টাৰ कोज यबहारनय निश्चय के मारगको भित्र भित्र पहिचान करे निज उता :
जब माने निश्चय के भेद व्यवहार सद, कारण है उपचार माने तब बुद्धता ॥
भावार्थ- (१) संसारमें बहुतसे जीव ऐसे हैं कि जिन्हें नयोंका अर्थात् निश्चयनय, व्यवहारनय, द्रव्याथिकनय, पर्यायाथिकनयका तो ज्ञान नहीं है किन्तु एक सामूहिक मिथ्याज्ञान या अज्ञान पाया जाता है जिससे वे शरोर और जीवको एक ही मानते हैं अतएव वे 'बहिरात्मा' कहलाते हैं। उनका ख्याल ( मान्यता ) ऐसा है कि जब शास्त्रों में लिखा है और उपदेश दिया जाता है कि जीव ( आत्मा ) 'शुद्ध' है---अशुद्ध नहीं है, तब उसको शुद्ध करने के लिये क्रियाकांड या उपवासादि तपश्चरण क्यों किया जाय ? व्यर्थ है । पिवस्व पेषणं वैयर्थम्' यह न्याय है अर्थात पिसे हुएको फिर पीसना बेकार है। ऐसा मानकर वे स्वच्छंद होकर वनगजको तरह मनचाहा खानापीना कुकर्म व पाप करना अपना कर्तव्य समझ लेते हैं गरज कि उनको किसी बात का भय व परहेज नहीं रहता। सो आचार्य कहते हैं कि वे अत्यन्त मूर्ख (मूढ़ ) हैं, उन्होंने आत्मा (जीव) की शुद्धताको समझा ही नहीं है और खोटी या गलत धारणाकर संसारमें परिभ्रमणकर रहे हैं। (२) बहुतसे जीव ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि 'आत्मा अनादिसे अशुद्ध है, उसको शुद्ध करनेके लिये दान तथा शील, संयमादि क्रिया करना चाहिये, वे जरूरी हैं, उनके करने से आत्माका हित या कल्याण होता है या आत्मा शुद्ध हो जाता है इत्यादि । आचार्य कहते हैं कि वे भी मूढ मिथ्यादष्टि हैं उन्होंने भी आत्माको शुद्धता-अशुद्धताको नहीं पहिवाना है एवं भूले हैं। ( ३ ) बहुतसे जीव ऐसे हैं कि जो शुद्धता होने के या मोक्ष प्राप्त करनेके दो मार्ग ( उपाय ) मानते हैं व कहते हैं यथा ( १ ) निश्चय मोक्षमार्ग ( २ ) व्यवहार मोक्षमार्ग, और दोनों पृथक् २ हैं। आचार्य कहते हैं कि वे जीव उदंड हैं अर्थात् ही और लड़ाकू हैं अर्थात् व्यर्थ ही बकवाद
और वितंडा करनेवाले हैं, कारण कि मोक्षका मार्ग एक ही है दो नहीं हैं। और वह व्यवहारमार्ग इस प्रकार कहा गया है कि जो जीव अखंड द्रव्य ( वस्तु ) में ज्ञानके द्वारा खंडकल्पना या निर्धार करते हैं परन्तु प्रदेश भेद नहीं करते, वह भेदाश्रित व्यवहार कहा जाता है और वही निश्चयका कारण' है व हो सकता है, दूसरे प्रकारका कोई व्यवहार निश्चयका कारण नहीं हो सकता, यह सारांश है अर्थात् भिन्न प्रदेशी व्यवहार निश्चयका कारण नहीं हो सकता इत्यादि । अतएव निश्चय (अखंड में खंड करना, व्यवहार या उपचार है ऐमा जानना चाहिये तभी वह ज्ञानी सम्यग्दष्टि हो सकता है अन्यथा अज्ञानी व मिथ्यादष्टि ही समझना चाहिये, किम्बहुना । फलतः नयोंका ज्ञान होना एवं विवक्षाको समझना वस्तु स्वरूपको समझने के लिये अनिवार्य है- बिना उसके तत्त्वका स्वरूप व निश्चयव्यवहारका ज्ञान होना असंभव है इति । देखो, सिद्धान्त यह है कि संघोगी पर्याय ( संसार
१. उदंडता या हठ है-दो मोक्षमार्ग मानना है, जो हो नहीं सकते। २. ज्ञानीपना-सम्यग्दृष्टि है, वास्तवमें निश्चय ( अखंड में खंड करना व्यवहार है। और यही व्यवहार 'निश्चयका कारण हो सकता है जो अभिन्न प्रदेशी है इत्यादि सत्य रूप है। ३. जो छहकालामें पं. दौलतरामजी ने कहा है ।
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पुरुषार्थ साथ
दशामें ) रहते समय न सर्वथा शुद्ध आत्मा है न सर्वथा अशुद्ध आत्मा है किन्तु द्रव्यार्थिक से शुद्ध... आत्मा है और पर्यायाकनयसे अशुद्ध आत्मा है ऐसा निर्धार है, अस्तु ॥ ८
कनियोंमें हेयता व उपादेयता बतलाते हैं
oraहारनय यों तो अन्तमें हेय ( त्याज्य ) है ही किन्तु प्रारम्भ में जबतक होन दशा रहती हैं अर्थात् निश्चयेन प्रकट नहीं होता तबतक वह भी अपेक्षाकृत उपादेय माना जाता है क्योंकि वह अशुभसे बचाता है शुद्धके सन्मुख करता है अर्थात् संयोगपर्यायमें रहते हुए भी कुछ विवेक जाग्रत होता है, उसको स्थूल रूपसे अच्छे और बुरेका ज्ञान होता है, कषाय मन्द होती है, शुभरागरूप' परिणाम होता है, परन्तु यह व्यवहारनय है, एकान्तरूप अप्रशस्त व्यवहारनयसे यह भिन्न है । इस व्यवहारनय में पुण्य व पापका खयाल नहीं रहता है अर्थात् दोनोंमेंस पुण्यको अच्छा मानता है, पापको बुरा मानता है, दया करना व्रत पालना शीलसंयम धारण करना, लोकोपयोगी कार्य करना, तीर्थाटन करना आदिको वह पुण्य या धर्म मानता है, जो यथार्थ ( निश्चय ) में धर्म नहीं है-मोक्षका कारण नहीं है, प्रत्युत बंधका कारण है किन्तु व्यवहार या उपचारसे उसको घर्म मान लिया जाता है इत्यादि भूल ही है । लेकिन उससे भी कुछ लाभ या बचत होती है, पापका बंध प्रायः नहीं होता पुण्यका बंध होता है जिससे नवग्रेवेयिकतक चला जाता है-अहमिन्द्र बड़ा विभूतिका धारी हो जाता है, परन्तु रहता मिथ्यादृष्टि हो है वहाँ आत्माकी रक्षा नहीं होतो, आत्माकै
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१. पू.पेचसहिद हे जिसस भाणेयं ।
मोहक्खोथविहीणी परिणामो अपणो धम्मो ॥८१॥ -- भादपाहुड़, कुन्दकुन्दाचार्य
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अर्थ-व्रतधारियों ( त्यागियों ) के भी भूमिकानुसार पूजादिक या देवभक्त आदिके भाव ( शुभरांग ) होते हैं, उनको पुण्य नामसे जिनशासन में कहा गया है अर्थात् शुभभावों को पुण्य कहा जाता है तथा उसीको 'धर्म' भी कहा जाता है ऐसा दोनोंमें अभेद माना जाता है, यही व्यवहार या उपचार है लेकिन यह व्यवहार धर्म Here aatat अपेक्षा है किन्तु निश्चयनयसे जो धर्म, अज्ञान ( मिथ्यात्य ) और रूप भाव ( लोभसे ) रहित हो वही धर्म आमाका धर्म है ( शुद्ध स्वभावरूप है. ) अर्थात् मोह ( मिथ्यात्व ) व रागद्वेषादि धर्म नहीं है वे अधर्म हैं। परन्तु मिथ्यादृष्टि अतीके जो शुभरागरूप धर्म होता है, वह व्यवहारयसे भी धर्म नहीं है किन्तु लोकाचार मात्र ( चरणानुयोग से ) धर्म कहा जाता है जो भ्रमरूप है || ८१॥ तथा और भी कहा है---
are अप्पम रओ रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो संसारवरणहेतुं धम्मोति हि विद्दिम् ॥८३॥
मात्रपाहुड़ 1
अर्थ---जब आत्मा रागादिक दोषोंको छोड़कर अपने शुद्ध स्वरूपमें रत ( लौन या स्थिर ) होता है, तभी संसार से तारनेवाला निश्चयधर्म ( वीतरागतारूप ) आत्माको प्राप्त होता है, जिसकी 'आत्मवर्म, कहते हैं ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है । अस्तु, अर्थात् जब आत्माका उपयोग अशुद्ध से हटकर शुद्ध में लगता है या शुद्धोपयोगरूप आत्माका भाव ( परिणमन ) होता है तभी निश्चय धर्मवाला कहलाता है ॥८३॥
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. বাবুমানাধিকাৰ स्वभावका घात होता ही रहता है, संवरपूर्वक निर्जरा नहीं होती, संसारका अन्त ( मोक्ष ) नहीं होता इत्यादि कमी बनी ही रहती है इत्यादि हानि व लाभ समझना ।
सारांश-~-धर्म दो तरहका होता है ( १ ) व्यवहारधर्म .२) निश्चयधर्म । अथवा एक पौकिकधर्म दूसरा पारलौकिकधर्म । व्यवहार शब्दके अनेक अर्थ है जैसे व्यवहारका अर्थ, लोकप्रवृत्ति या लोकयात्रा या चालचलन होता है तथा व्यवहारका अर्थ भेद करना भी होता है या सलूक करना होता है इत्यादि । परन्तु यहाँपर - धर्मका प्रकरण होनेसे सम्यधर्म व मिथ्याधर्मका: विचार किया जाना है। जो धर्म ( आत्म स्वभाव ) सम्यग्दर्शन पूर्वक हो उसको सम्यक्थमं समझना चाहिए। और जो धर्म मिथ्यादर्शनके साथ हो उसको मिथ्याधर्म समझना चाहिये । तदनुसार मिथयाधिक शुभ रागरूप या सुभप्रवृत्तिरूप ( सदाचाररूप-क्रियाकाण्डरूप ) धर्मके अत्यधिक होनेपर भी वह मिथ्याधर्म में ही गभित ( शामिल ) है, उससे उसको मोक्ष नहीं होता तथा सभ्यग्दृष्टिके वह शुभरागरूप धर्म कचित् या उपचारसे मोक्षका कारण माना जाता है कारण कि उसकी श्रद्धा उस शुभरामरूप धर्मके बारे ( विषय ) में सही है अर्थात् उसको वह मोक्षका कारण नहीं मानता, संसार ( बंध ) का ही कारण मानता है और मिथ्या दृष्टि वैसा नहीं मानता, यह वास भैद धर्म के विषयमें है । फलतः लोकव्यवहार ( लोकाचार ) को अपेक्षा शुभ किया या शुभ प्रवृत्ति कथंचित् उपादेय है। किन्तु परलोकको अपेक्षा वह उपादेय नहीं है, हेय है अर्थात् वह व्यवहारधर्म ( शुभ प्रवृत्तिरूप ) सर्वथा उपादेय नहीं है। निष्कर्ष यह कि मिथ्यात्वके साथ ( शुभरागरूप व्यवहारधर्म ) तथा सम्यक्त्वके साथ भी उक्त व्यवहारधर्म, उपादेय व कार्यकारी, किसी भी हालतमें नहीं है-उससे मोक्ष नहीं हो सकता। किन्तु मोक्ष सिर्फ निश्चयधर्म अर्थात् सम्यग्दर्शनपूर्वक बोतरागतारूप धर्मसे ही हो सकता है अन्यथा नहीं, यह तात्पर्य है। अर्थात् जबतक निश्चयधर्म प्राप्त नहीं होता या निश्चनयका उदय नहीं होता तबतक व्यवहारधर्म या भेद बतानेवाला मय उपादेय है और जब निश्चयधर्मको या निश्चयनयको प्राप्ति हो जाती है सब व्यवहारधर्म व व्यवहारनयको छोड़ दिया जाता है एवं भेदरूप या विकल्परूप या शुभरागरूप निश्चयनय (अशुद्धनिश्चय ) को भी निर्विकल्प दशा ( समाधि ) के समय छोड़ दिया जाता है, एक ज्ञासा-दृष्टामात्र स्वस्थ रह जाता है, किम्बहुना उपादेय व हितकारी निश्चय ही है | इस विषयमें एक-लौकिक दृष्टान्त दिया जाता है।
एक समय दो आदमी किसी तीर्थयात्राको पैदल चले। उनमेंसे एक आदमीको कुछ कमती (धुंधला ) दिखता था और दूसरेको पूरा साफ साफ दिखता था। चलते २ दोनोंको भूख व प्यासकी इच्छा हुई और वेचैन होने लगे । थोड़ी देरके बाद एक गांव मिला, जहाँपर बहुतसे होटल की दोनों ठहर गये और खाने-पानेको होटलोंमें गये, जो आदमी कम दृष्टिवाला था वह पासवाले एक गंदले (छोटे) होटल में चला गया और वहाँपर उसने खराब बासा विकारी भोजन किया और मलीन विषैला पानी भी पिया । तथा दूसरे अच्छी दष्टिवाले ने अच्छे बड़े साफ होटलमें जाकर भोजन किया, पानी पिया। इसके बाद दोनों आगे चल पड़े। चलते-चलते बीच में वह कम दृष्टिवाला एकदम बीमार हो गया-तड़फड़ाने लगा, चिल्लाने लगा। दूसरा साफ दृष्टिवाला अक्का
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पुरुषार्थपा
East होगा या बड़ा गया कि इसे क्या हो गया है ? आचर्य में पड़ गया। लेकिन हिम्मत करके उसको पीठपर रखा तथा बस्ती में ले जाकर बवाई कराई किन्तु वह मर गया । घर वापिस लौटा और उसके घरवालोंको खबर दी व सब हाल कह सुनाया, सब लोग समझ गये कि यह सब खराब या अशुद्ध विकारों खाने-पीने का नतीजा है अर्थात् उसकी गलती फल है। बस, इसी प्रकार व्यवहारनय । अशुद्धनय | के आलम्बन लेनेका फल मिलता है ( वरवादी होना ) और निश्चयनयके आलम्बनका फल ( आबादी या रक्षा मिलता है ऐसा संक्षेप में समझना चाहिये ।
यही कथंचित्
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उपसंहार
व्यवहारके दो भेद हैं ( १ ) मिध्यादृष्टिका व्यवहार, जिसको मिथ्या व्यवहार कहते हैं ( २ ) सम्यग्दृष्टिका व्यवहार जिसको सम्यक् व्यवहार कहते हैं, भिन्न २ तरहका होता है। मिध्यादृष्टिका. व्यवहार मूलमें भूलरूप है अर्थात वह भेद ज्ञान रहित है, संयोगी पर्यायके साथ एकत्वरूप है । और सभ्य दृष्टिका व्यवहार मूलमें भूलरूप नहीं है किन्तु भेदज्ञान सहित है तथापि सरागरूप अशुद्ध है अतएव वह हेय ही हैं इसीसे वह कथंचित् उपादेय भी ( होनदशामें ) माना जाता है, जो मज बूरीकी निशानी है, या बलात्कार के समान है । तभी तो वह सम्यग्दृष्टि उससे भी अरुचि या अ योग करता है उसका स्वामी नहीं बनता इत्यादि । ऐसे भव्य सम्यग्दृष्टि जीवको ही व्यवहारनयसे मोक्षमार्गी कहा जा सकता है किन्तु मिथ्यादृष्टि जोवको कदापि ( व्यवहारनयसे भी ) मोक्षमार्गी नहीं कहा जा सकता और यह सब श्रद्धापर ( भावपर ) निर्भर है, किया या आचरणपर निर्भर नहीं है किम्बहुना, इस तथ्यको निष्पक्ष होकर ठीक २ समझना चाहिये ||८||
1
नोट-दर्शन ज्ञान चारित्र ( धर्म ) तीनों निश्चय और व्यवहाररूप होते हैं अतएव तीनों में जो भूल या भ्रम है उसको निकालना चाहिए तभी आत्मकल्याण होगा, अन्यथा नहीं, यह ध्यान रहे इति ।
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प्रथम अध्याय
जीव द्रव्यका लक्षण अस्ति पुरुषाश्चदात्मा विवर्जितः स्पर्शरसगन्धवर्णैः । गुणपर्ययसमवेतः समाहितः समुदयव्ययधौव्यैः ॥१॥
पद्य आतम अथवा पुरुष नाम है, जीवद्रव्यका तुम जानो। निश्चयरूप कहा है उसका, उसको भी तुम पहिचानो। है चैतन्यरूप अ6 परसे भिन्न रसादिक-वर्जित है।
गुणपश्रय संयुक्त टोयकर, उत्पादिक प्रश्न अर्जित है ॥६॥ ___अन्वय अर्थ-आचार्य निश्चयनयसे जीवद्रव्यका स्वरूप बताते हैं कि [ पुरुनः ] जीव द्रव्य विदामा ] चैतन्यस्वरूप ( दर्शनजानवाला ) और [ स्पर्शरसगन्धवणे: विवर्जितः ] रूप रस गन्ध स्पर्श, इन पुद्गल के मुणोंसे रहित ( परसे भिन्न ) एवं [ गुगधश्रयासमवेतः ] गुण और पर्यायोंके साथ अभिन्न तादात्म्यरूप, एवं [ समुदयव्ययधौव्यैः समाहितः ] उत्पादव्ययध्रौव्यरूप वस्तुके स्वभाव सहित । अस्ति ] है । अर्थात् एकत्त्व विभक्त रूप जीव द्रव्य है----अन्यप्रकार नहीं है 11९||
भावार्थ-लक्षण या स्वरूप दो तरहका होता है (१) निश्चयरूप अर्थात् असली ( भूतार्थ) और (२} ब्यवहाररूप ( नकली कामचलाऊ अभूतार्थ )। तदनुसार इस श्लोक द्वारा जीवद्रव्यका असाधारण ( आत्मभूत ) असली स्वरूप बताया गया है जो अन्य द्रव्योंमें नहीं पाया जाता, यह विकाल जीवके साथ रहता है, कभी जीवसे भिन्न नहीं रहता । जैसे कि चेतना गुण जीवद्रव्यका मुख्य गुण है उसके साथ जीवका अकालिक सम्बन्ध है और उसके साथ व्याप्यव्यापक सम्बन्ध भी है अतएव उसके साथ जीयका एकत्व है। यद्यपि चेतनाके तीन भेद किये गये हैं-(१) ज्ञानचेतना .(२). कर्मचेतना और (३) कर्मफल चेतना । परन्तु कार्य, वेतनाका एक जानना ही है । विषयभेदसे उक्त तीन भेद किये गये हैं या जो अपनेको खुद जाने ( स्वसंवेदन या आत्मसंवेदन करे अनुभवे )
१.
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अरसमरूपमगंध अन्वतं घेदणागूणभराई । जाण अलिंगगणं जोत्रमाणसिंमाणं ।। -समयसार ४९ अन्येभ्यो श्यतिरिक्तमात्मनियतं बिभ्रत्यथरवस्तुतामाधानोज्नशून्यमेतदमलं, ज्ञान तथास्थितम् । मध्यावन्तविभागमुक्तसहजस्फारप्रभाभास्वरः शुद्धज्ञानधनो यथास्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति ॥२३५।। समयसार कलश
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पुरुषार्थसिद्धयुपाय वह ज्ञानचेतना है ( आत्मचेतना है ) और जो कर्म अर्थात् क्रिया को जाने ( प्रवृत्ति निवृत्ति करावे ) वह कर्मचेतना है तथा जो कर्मके फल सुख-दुःखको जाने-ज्ञान करावे, वह कर्मफल नेतना है । इन तीनोंमेंसे 'ज्ञानचेतना' सिर्फ सम्यग्दष्टि के होती है ऐसा कहा गया है। क्योंकि स्त्र और परका भेद विज्ञान सिवाय सम्यग्दृष्टिके और किसीको नहीं होता अर्थात् सत्यार्थ नहीं होता जो हितकारी है। परसे भिन्नताका ज्ञान होना सम्यग्दष्टिका ही कार्य है मिथ्याष्टिका नहीं है । मिथ्यादृष्टिके विपरीत ज्ञान होने से वह अपने आत्माको परसे भिन्न नहीं जानता मानता, अपितु पर रूप ही जानता मानता है, जैसी संयोगीपर्याय है तद्रूप हो जानता है इत्यादि । फलतः वस्तुका या आत्माका स्वरूप, परसे अर्थात् रूप रसादिक पुद्गलके गुणोंसे पृथक् है अर्थात् तादात्म्यरूप { अभिन्न या एकात्वरूप ) नहीं है । और अपने गुणपर्यायोंके साथ हमेशा रहता है ( एकत्वरूप है) तथा उत्पाद व्यय प्रौव्य इन तीन साधारण गुणोंबाग है, जो सभीमें (द्रव्य मात्रमें ) रहते हैं, कारण कि वे द्रव्यका स्वभाव हैं। 'सत् द्रव्यलक्षण उत्पादच्ययोध्ययुक्तं सत्' ऐसा द्रव्यका लक्षण कहा गया है । (तस्वार्थसूत्र अध्याय ५वाँ सू० २९, ३०)
प्रत्येकका लक्षण निम्न प्रकार है-- ( १ ) नवोन पर्यायकी उत्पत्ति होना, उत्पाद कहलाता है जो समय २ होता है वस्तुका स्वभाव है 1
(२) व्यय-प्रति समय जो पूर्व पर्याय का विनाश ( अभाव ) होता है वह व्यय है।
(३) ध्रौव्य... जो हमेशा स्थिर ( कायम ) रहता है वह ध्रौव्य है ऐसी चीज द्रव्य है। अर्थात् मूलभूत वस्तु है । परन्तु वह भी परिणामी ध्रुव ( नित्य ) है कूटस्थ नित्य (ध्रुव) नहीं है जैसा कि अन्य मतवाले मानते हैं।
(४) गुण-जो द्रव्यके आश्रय ( आधार ) रहते हैं और जिनमें गुण नहीं रहते (द्रव्या. श्रयाः निर्गुणा: गुणाः, तत्त्वार्थसूत्र ५-४१)।
(५) पर्याय जो बदल करके भी तद्रप ( द्रव्यरूप ) रहे, अन्यरूप न हो इत्यादि ( 'तद्भावः परिणामः, त० सूत्र ५-४२) अर्थात जैसी द्रव्य हो वैसी हो पर्याय होतो है (परिणाम होता है)
पर्यायके भेद---- ( १ ) अर्थपर्याय---जो प्रति समय बदलती रहती है, प्रत्येक गुणको अवस्था परिवर्तित होती है । ( एक समयकी है ) ।
१. अशुद्धा चेतना वेधा सधथा कर्मचेतमा ।
वेतनस्थात् फलस्यास्थ स्यात्कर्मफलचेतना ।।१९५॥ --पंचाध्यायी उत्तरार्ष : अर्थ-चेतनाके मूल में दो भेद हैं (१) शुद्धचेतमा (२) अशुद्धचेतना । अशुद्धचेतनाके दो भेद है (१) कम चेतना (२) कर्मफलतना । शुद्धचेतनाका (१) एक भेद ज्ञानचेतना, ज्ञानका अर्थ आत्मा है। अभेष
विवक्षासे ।
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४२
(२) थ्यंजनपर्याय--जो समुदाय रूप स्थूल ( व्यक्त होती है अनेक समयकी पर्यायोंके मेल रूप है । बह विभावरूप व स्वभावरूप दो सरहकी होती है, उनमेसे भेद है।
नोट---यह विभाव व्यंजनपर्याय, जीव और पुद्गल दो हो द्रव्योंमें होती है शेष चार द्रव्योंमें नहीं होती। (आलापपद्धतिमें देखो) निश्चयसे जीव द्रव्य के उक्त चार लक्षण ( स्वरूप) नेतमत्व, स्पर्शादिभिन्नत्त्व, गुणपर्ययवस्व, उत्पादध्ययनौव्यत्त्व हैं जो आत्मभूत लक्षण हैं (अभिन्न प्रदेशो हैं ) और कोई २ लक्षण अनात्मभूत { भिन्न प्रदेशी ) भी होता है। उसका नाम व्यवहारी लक्षण है जो संयोगावस्था में होता है 1 अभिन्मप्रदेशी लक्षणका नाम निश्चयलक्षण है ऐसा जानना।
सम्यग्दृष्टिका लक्षण जो आत्मा ( जीवद्रव्य ) के उक्त प्रकार अनेकान्त स्वरूपको निश्चयनघसे जानता व मानता है वही सम्यग्दृष्टि होता है मग नहीं ।
तदुक्तं जो सच्चमणेयन्स णियमा सहदि सत्तभंगहि । लोयाण पाहसदो ववहारपवत्तणटुं च ॥३१॥
___ स्वा का अमु० अर्थ-जो जीव सातमंगरूप ( भेदरूप अनेक धर्मरूप) अनेकान्तमय बस्तुको यथार्थ जानता है व श्रदान करता है वही सम्यग्दष्टि होता है यह नियम है तथा जो जीव अनेकान्तमय तत्वको नहीं समझता बह मिथ्यादष्टि होता है। और ऐसा अनेकान्तका ज्ञाता जीव हो संयोगी पर्यायमें रहता हआ अच्छी तरह लोकबहार चला सकता है कोई विघ्न-बाधा नहीं आती यह महान् लाभ होता है अस्तु ।
सातभंगोंके नाम (१) स्यादस्ति (२) स्यान्नास्ति (३) स्यादस्तिनास्ति (४) स्यादवक्तव्य (५ स्यादस्ति अवक्तब्ध (६) स्थान्नास्ति अवक्तव्य (७) स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्य । ये सात धर्म वस्तुमें पाये जाते हैं, जो प्रश्न होने पर बताये जाते हैं। और भी ४७ शक्तियों तक विचार किया जाता है । ज्ञानकी महिमा अपरंपार है ऐसा समझना ।
सम्भंगीका स्वरूप एकस्मिन्नतिरोधेन: प्रमाणनयवाक्यतः ।
सदादिकरूपना सा च सप्तभंगीत समता .. अर्थ-प्रमाणको अपेक्षा ( आलम्बन । से या नयकी अपेक्षासे एक ही पदार्थमै चिरोधरहित अर्थात् स्थाद्वादका सहारा लेकर जो सत्, असत्' आदि सात प्रकारकी कल्पना ( विकल्प ) की
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पुरुषार्थसिद्धपुपाय जाती है, उसको सप्तभंगी कहते हैं। उसके दो भेद हैं-(१) प्रमाणसप्तभंगी ( २ ) नयसप्तभंगी इसि । केवलज्ञानको छोड़कर ७ ज्ञानके भेद और ७ नयों के भेद इत्यादि जामना ।
विशेषार्थ नोट-इस श्लोक द्वारा आचार्य महाराजने पुरुष ( आत्मा ) का श्रद्धेय व उपास्य तत्व क्या है ? यह खासकर बसलामा है, उसीसे उद्धार हो सकता है। वह तत्त्व एक चेतन द्रव्य है शेष पाँच जड़ ( अचेतन ) द्रव्य हैं। जब तक मल्यात्मा चेतन व अचेतनका पृथक् २ शाम श्रद्धान नहीं करता तब तक अज्ञानी रहता है और जब चेतन व जड़का भेद जान लेता है और उसमें भी जड़को उपादेय न मानकर एक अपने शुद्ध स्वरूप आत्माको ही उपादेय-श्रद्धेय व उपास्य मानता है तभी निश्चमसे सम्यग्दृष्टि होता है और मोश्चमा अधिकारी ना जाता है ! पलतः दड़की या मृर्तकी उपासना करनेवाला ( सन-धन-जन-प्रतिमा या शास्त्र आदि पुद्गल द्रव्य व उसकी पर्यायोंका उपादेय रूपसे आदर करनेवाला) कभी संसारसे पार नहीं हो सकता न वह सम्यग्दृष्टि कहा जा सकता है अरे ! जड ( अचेतन संयोगोपर्याय ) का उपासक या पूजक ( आत्मज्ञान रहित) कैसे पार पायेगा यह विचारणीय है। बस, यही खास तत्त्व इस श्लोकमें बतलाया गया है।
सारांश-चेतनको चेतनकी उपासना व श्रद्धा करना और सबसे सम्बन्ध विच्छेद करना, यही कार्यकारी है। बह चेतन पुरुष पूर्वोक्त प्रकारका है अन्य प्रकारका नहीं है। यदि भिन्न प्रकार माना जायगा तो मिथ्यात्व होगा इत्यादि । आत्मा ( चेतन) का आलम्बन, आत्मा ही है मान्य: इति मति ( प्रतिमा शास्त्र आदि) का आदर स्मारकरूप निमित्त होनेसे उपचार मानकर किया जाता है सत्य नहीं यह भेद है इसको ठोक २ सपझना चाहिए।
अनुजीवी व प्रतिजीवी गुण जीव ( आत्मा) द्रव्यमें (१) अनुजीबी और (२) प्रतिजीवी दो तरहके गुण रहते हैं । अर्थात् जीवमें विद्यमान रहते हैं या पाये जाते हैं।
(१) अनुजीवीगुणका अर्थ है स्वाश्रित गुण अर्थात् जो अपनी ही अपेक्षासे घटित हो सदा रहे अन्धको अपेक्षा न रखें । जैसे कि जीवद्रश्यमें चेतना-ज्ञानदर्शनसुखबल विशेष गुण अथवा सुख, बोय, जीवस्व वगैरह, जिनसे जीवन सिद्ध होता है व स्वतः सिद्ध हैं-पराश्रित या आपेक्षिक नहीं हैं इत्यादि ।
(२) प्रतिजीबोगुणका अर्थ है पराश्रितगुण अर्थात् जो परको अपेक्षासे घटित होते हैं या प्रतिपक्षी गुणा, जिनमें जीवनका सम्बन्ध नहीं है अर्थात् जो अनुजीवी नहीं हैं भिन्न हैं। जैसे कि अव्याबाधस्थ, यह परकृत बाधासे रहित होने के कारण प्रकट होता है, अनुजीवी नहीं है प्रतिपक्षी हैं। अवगाहस्य, यह परको स्थान नहीं देने से प्रकट होता है या परमें प्रवेश न करनेसे प्रकट होता है। अगुरुलधुत्व, यह परका प्रवेश न होने देनेसे प्रकट होता है। नास्तित्त्व, परमें न रहनेसे यह
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जीव व्यका लक्षण
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प्रकट होता है ( परचतुष्टको अपेक्षा रखता है ) इत्यादि दोनोंका अर्थ समझना। इससे भिन्न सद्भाव रूप या अभाव रूप अर्थ नहीं समझना जैसा कि अन्यत्र लिखा है अस्तु । यथा अभावरूप भुणोंको प्रतिजीवी गुण काहते हैं, ऐसा जो लक्षण लिखा है वहाँ पर अभावरूपका अर्थ, अनुजीवो गुणों के अभावरूप या प्रतिपक्षी रूप अर्थ समझना चाहिए अर्थात जो अनुजीवी रूप नहीं हैं। इसीसे उनका नाम प्रतिजीवी' मार
पाय हि जीप टम्ग (आत्मा) का जीवन उनके आश्रित नहीं है ऐसा स्पष्ट समझना चाहिए ।। ९ ।। निश्चयनयसे पुनः जीवका स्वरूप बताते हैं...
परिणममानो नित्यं ज्ञानवियतैरनादिसंतत्या । परिणामानां स्वेषां स भवति कर्ता च भोक्ता च ॥१०॥
पद्य
अपनी पर्यायों का कर्ता द्रव्य हमेशा होता है। उनही का वह मोका होता भिम नहीं सब थोना है 14 जीव द्रव्य भी का मोक्ता ज्ञानादिक पात्रों का। है अनादिका नियम अकृत्रिम हिस्सा नहीं परायों का १०॥
अन्वय अर्थ-[स जीवः ] निश्चयनयसे वह जीव द्रव्य | निस्थं अनादिसंतस्या ज्ञान विवः परिणममान: ] हमेशा अनादिकालसे अस्त्रण्ड सन्तानरूपसे (धारावाहिक ) ज्ञानकी पर्यायों द्वारा परिणत हो रहा है। त्र] और [ स्वेषां परिणामानां कर्ता मौका भवति ] उन अपनी पर्यायोंका ही वह स्वयं कर्ता तथा भोक्ता होता है, अन्यका नहीं, न अन्यका कोई सम्बन्ध है, ऐसा समझना चाहिए 11१०॥
भावार्थ-वास्तविकरूपसे विचार करनेपर यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक द्रव्य अपनी २ गुणपर्यायोंका ही धनो कर्त्ता व भोक्ता है अन्यका कदापि नहीं है यह वस्तुस्वभाव है। यदि कहीं हर एक वस्तु दूसरे की कर्ता व भोक्ता हो जाय या होने लगे तो तमाम लोककी व्यवस्था हो बिगड़ जाय, कोई भी कार्य नियमित न रहेगा, जिससे एक तरहको अराजकता सरीखी उत्पन्न हो जायगी, सुखशान्तिके दर्शन न होंगे, संसार दुःखी दरिद्री हो जायगा इत्यादि । अताव वस्तु अपनी मर्यादा कभी नहीं छोड़ती अटल रहती है उसके लिए किसी व्यवस्थापक या नियन्ताको आवश्यकता नहीं रहती अतः वस्तु सब स्वतन्त्र है व स्वतः सिद्ध है, परकृत ( ईश्वरादिजन्य ) नहीं है । देखो
जीवद्रव्य ज्ञानमय है अतएव सदैव वह अपनी ज्ञानपर्यायके साथ रहता है ज्ञानको नहीं छोड़ता अन्यथा यह अज्ञानी ( ज्ञानशून्य जड़ ) हो जाय जो असम्भव है कभी झानी अज्ञानी नहीं होता और अज्ञानी ज्ञानी नहीं होता यह पनका नियम है। इसके विरुद्ध किसी शक्ति विशेष ( ईवकरादि ) के द्वारा अन्यथा हो जाता है ऐसा कहना मूर्खता है क्योंकि वस्तुके स्वभावको कोई बदल नहीं
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पुरुषार्थसिद्धभुशक सकता । मिथ्याज्ञामके समय भी जीव जानता ही है चाहे उल्टा क्यों न जानें, पर जानना गुण या स्वभाव नहीं छोड़ता अस्तु ।
ज्ञानकी पर्यायके भेद बानवी मुख्यतः दो पर्याएँ होती है ( १) शुद्धपर्याय ( २ ) अशुद्धपर्याय । जबतक ज्ञानके साथ पर द्रव्य का संयोग रहता है तबतक ज्ञानकी अशुद्धपर्याय रहती है यह सामान्य नियम है। विशेषतः जबतक ज्ञान के साथ मोहनीय कर्मका सम्बन्ध रहता है अर्थात् मिथ्यात्वादि व रागद्वेषादिका सम्बन्ध रहता है तबतक ज्ञानको अशुद्धपर्याय अथवा विभावपर्याय मानी जाती है। और जब ज्ञानके साथसे मोहकर्मका सम्बन्ध छूट जाता है तब ज्ञानकी शुद्धपर्याय पूर्ण प्रकट हो जाती है। इसके बीच में जबतक पूर्ण मोह कर्मका सम्बन्ध नहीं छूटता तबतक शुद्धाशुद्ध (मिश्र ) अवस्था ज्ञानको रहती है ऐमा समझना। चूंकि संयोगी पर्याय, अशुद्धपर्याय कहलाती है फिर भी एक दूसरेका तादात्म्य न होनेसे ( ऐक्य व समवाय न होनेसे ) द्रव्यकी अपेक्षासे वह शुद्धपर्याय ही मानी जाती है। भावार्थ-द्रव्यगत सामान्य पर्याय की शुद्धपर्याय और पर्यायगत विशेषपर्यायको अशुद्धपर्याय माना जाता है । फलत. सामान्यपकोषका क्षय ( बिनाश ) नहीं होता और विशेषपर्यायका प्रतिक्षण क्षय होता है ऐसा सिद्धान्त है।
संयोगीपर्याय में होनेवाले रामादिकको अशुद्ध निश्चमयसे कथंचित् जीवके कहा जाता है तथा कश्चित् जीयके नहीं हैं-औपाधिक हैं ( संयोगज है ) ऐसा कहा जाता है किन्तु पुद्गलके हैं ऐसा कहना गलत है.----संभवता नहीं है। द्रव्याथिकनवमें था निश्चयनयसे प्रत्येक द्रव्य शुद्ध है (परसे भिन्न है ) और पर्यायार्थिकनयसे अशुद्ध है ( व्यवहाररूप है ) ।
झानकी अणु व महत्पर्याय ज्ञानकी सबसे छोटी पर्याय ( अक्षर पर्याय ) सूक्ष्मनिगोदियालन्ध्यपर्याप्तक तिर्मचजीवके होती है तथा सबसे बड़ी ( महान् ) पर्याय सर्वज्ञ केबली ( मनुष्य ) के होती है परन्तु कोई ऐसा समय नहीं आता जिसमें ज्ञानपर्यायका पूर्ण ( सर्वथा ) अभाव या क्षय हो जाता हो जैसा कि अन्य मतवाले मानते व कहते हैं । यथा---- (१) नैयायिक वैशेषिक-मोक्ष, ज्ञान गुण व उसकी पर्यायोंका अभाव हो जाता है, हमेशा ज्ञान
गुण आत्मद्रव्यसे जुदा रहता है पीछे परस्पर संबंध होता है। वे गुण
गुणीमें भेद मानते हैं। (२) सांख्य-मोक्षमें, झेयाकार ज्ञानका अभाव हो जाता है-ज्ञान शून्य रहता है । व पुरुष
( आत्मा ) का स्वरूप चैतन्य मानता है यह केसी विरुखता है ? आश्चर्यजनक है। (३) बौद्ध ---मोक्षमें, दीपकके बुझ जानेकी तरह ज्ञान ( आत्मा) नष्ट हो जाता है इत्यादि । न
मालूम आत्मा कहाँ चला जाता है विचित्रता है।
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जीव च्यका लक्षण
(४) जैन. मोक्षमें वायोपशमिक ज्ञानका अभाव हो जाता है. क्षायिक ज्ञान रहता है अर्थात्
ज्ञानका सर्वथा अभाव कमी नहीं होता, हमेशा रहता है। ( ५ ) जैन-आत्मा व ज्ञान एक है मुणगणी में भेद नहीं है, व असंख्यात प्रदेशी है---प्रदेश कभी
घटबत नहीं होते—सभी प्रदेशों में ज्ञान रहता है, ज्ञानसे खाली कोई प्रदेश नहीं रहता । सभी प्रदेशों में सुख व दुःखका ज्ञान होता है। आत्मा छोटा व बड़ा नहीं होता शरीर छोटा बड़ा होता है इत्यादि। हां, प्रदेशों में संकोच विस्तार (संहार
विसर्पण ) होता है, दीपकले प्रकाशकी तरह जानना । (६) चार्वाकमत--यह जीवकी उत्पत्ति मानता है अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन
पांच तत्वों के मिलनेसे नया जोव उत्पन्न हो जाता है और मरकर पुनः पांच रूप बटवारा हो जाता है-सब अपने २ में मिल जाते हैं इत्यादि । उदाहरणके कि वे गोबरका नाम लेते हैं कि उसमें गबरोला वगैरह कितने ही भिन्न २ तरहके जीव पैदा हो जाते हैं ऐसा समझना, वह सब मिथ्या कल्पना है, जीव कभी पैदा नहीं होता न मरता है तथा उनकी संख्या भी घटबढ़ नहीं होती, सदैव नियमित रहती है किम्बहुना । जीव यह नाम ही सदैव जीवित रहनेकी अपेक्षासे बड़ा है और वह स्वतः सिद्ध है कृत्रिम नहीं है वह नित्य अविनाशी है परन्तु परिणामी है। कहा भी है कि...
तदर्ह अस्सनेहाती रोष्टेर्भवस्मृतेः ।
भूतानन्वयनात सिदः प्रकृतिहः सनातनः ।। आचार्य कहते हैं कि जो जीव निश्चयनयका आलम्बन करते हैं वे ही पुरुषार्थ की सिद्धि ( सफलता ) को प्राप्त कर सकते हैं अर्थात् कृतकृत्य हो सकते हैं, संसारसे पार हो सकते हैं यह फल दिखते हैं
सर्वविक्तातीर्ण यदा स चैतन्यमचलमाप्नोति । भवति तदा कृतकृत्यः सम्यक्पुरुषार्थसिद्धिमापनः॥११॥
१. शर्व अर्थात् शंभुको' तरह विकारीपर्यायके छूटनेसे, यह आशय भो निकाला जा सकता है । भर्तृहरिशतके
एको रागिषु राजते प्रियसमादेहार्द्धधारी हो । मीरागेषु जिनो विमुक्तललनासंगो न यस्मात्परः । दुरिस्मरवाणपक्षविषयासक्तमुग्यो जनः । शेष: कामविम्बितो हि विषयान् मोक्तुं न मोक्तुं क्षमः १
1॥ ९७॥ २. शुद्ध सत्तामात्र अकेलापन ( एकत्त्वविभक्तरूप)।
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पुरुषार्थसिद्धुपायं
पद्य
रागादिक धिकारसे जब यह आतम छुटकारा पाता। तभी होन कृतकृत्य और भवसिन्धु 'पार बह हो जाता ।। निश्चयका आलम्ब करे से यह पुरुषार्थ सिद्धि होती।
जब तक व्यवहार ग्रहण करत है शुद्ध देश। उसकी रही । अन्बय अर्थ आचार्य कहते हैं कि [ यदा स: निश्चयनय के आलम्बन ( ग्रहण अनुभवन ) करनेसे जिस समय जोवद्रव्य [ मत्रविवत्तीतीर्ण अचलं चैतन्यं प्राप्नोति ] सम्पूर्ण विभावपर्यायोसे छूटकर ( जो ब्यवहारनयके आलम्बनसे हुआ करती हैं ) शुद्ध 'चैतन्यरूप सर्वविशुद्धज्ञानरूप अचल अवस्था ( पद ) को प्राप्त करता है [ तदा कृतकृत्यः सम्यक पुरुषार्थसिद्धिमापनः भवति ] उस समय वह कृतकृत्य ( सर्वथा शान्त-पूर्ण मनोरथ ) और सम्यक् पुरुषार्थकी सिद्धि { सफलता या मोक्षप्राप्ति ) को बह प्राप्त हो जाता है या कर लेता है, अन्यथा नहीं, इस प्रकार फल प्राप्त हो जाता है जब यह जीव निश्चयनयका आलम्बन ( आराधन ) करता है किम्बहुना ।
भावार्थ-जबतक संगोषः अभवः सोमव्यवहा{ असूद्ध यांचे जीवके साथ रहती है। तबतक जीव अनेक ( नाना) अवस्थाएँ धारण करता है। उस समयतक वह कृतकृत्य । सफल मनोरथ-निष्काम ) नहीं हो पाता और फलस्वरूप उसको अचलपद ( मोक्ष) नहीं मिलता अथवा उसके पुरुषार्थको सिद्धि नहीं होती, उसका सारा प्रयत्न निष्फल या बेकार जाता है अर्थात् साध्यकी सिद्धि नहीं होती, ८४ लाख योनियोंमें घोर दुःख उठाता हुआ भटकता फिरता है । यह सब अशुद्ध या व्यवहारनयके आलम्बनका फल है। अतएव सारांशरूपमें आचार्य कहते हैं कि यदि किसी जीवको संसार दुःखसे छूटनेकी अभिलाषा हो तो उसको चाहिये ( कर्तश्य है कि वह व्यवहारनयका आलम्बन करना क्रम २से छोड़ देवे या छोड़ता चला जाय और निश्चयनयका आलम्बन लेता जाय ( नकलीको छोड़कर असलीको ग्रहण करे ) यही पुरातन व उचित मार्ग है, ( उपाय है। दूसरा मार्ग सब मिथ्या गुमराह करनेवाला है। फलतः द्रव्य { आत्मा ) अनुसार चरण या बर्ताव करे अर्थात् आत्मा ( द्रव्य ) जैसी शुद्ध वीतराग ( रागादिक दोषोंसे रहित ) है वैसा ही उसे आचरण या चारित्र धारण करना चाहिये तभी बुद्धिमानी या भेदविज्ञानता है। जीवको इन सब बातोंका ज्ञान या पता जब सम्यग्दर्शन होता है तभी लग पाता है। सम्यग्दष्टि बड़ा चतुर व परीक्षक है मिश्चय व व्यवहारका पूर्ण ज्ञाता है। स्वानुभवसे आत्माको प्रत्यक्ष जाननेवाला है, कारण कि उस समय ( स्वसंवेदनके बच ) वह इन्द्रियादिको सहायता नहीं लेता। ऐसी हालतमें उसे अपनी शुद्धताका परिचय व स्वाद आ जानेसे उसे अकथनीय निराकुल सुख प्राप्त होता है और फिर उसको वैषयिक सुख नहीं भाते-उनसे विरक्ति या अरुचि हो जाती है इत्यादि विशे. षताएँ प्राप्त हो जाती हैं किम्बहुना यह सब निश्चयनयके आलम्बनका फल है- हेयोपादेयके जान का फल है इति ।
१. मुक्त।
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जीव का लक्षण
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पक्ष ) Tetrisो प्राप्त करना हो जीवनका लक्ष्य होना चाहिए - बहुरूपिया के रूप तो अनादिसे बहुत धारण किये हैं परन्तु स्थिर रूप कोई नहीं रहा है । राजा रंक मनुष्य, पशु, कीड़ा-मकोड़ा देव नारक आदि सब रूप न मालूम कितनी बार धारण कर २ के छोड़े हैं। इसका कारण अनेक तरहकी इच्छाओं एवं विकल्पोंका होना तथा उनके निमित्तसे तरह का कर्मबंध होना है । जब कोई विकल्प या इच्छाएं नहीं रहती - निश्चल समुद्रकी तरह स्वयं अपने में स्थिर हो जाता है तब न कोई खतरा रहता है न कर्मोंका आस्रव व बंध होता है । फलस्वरूप अभीष्ट स्थान ( मोक्ष-अचल या परिवर्तन रहित पद ) सदाके लिए प्राप्त हो जाता है जहाँ पर कोई विकार या दोष उत्पन्न नहीं होता अनन्त कालतक एक-सा सुखिया व ज्ञाता दृष्टा बना रहता है | यह सब व्यवहारनयके छोड़ने एवं freenas ग्रहण करनेका फल है । निःस्वार्थ भावका होना दुर्लभ है। निश्चयनयसे जिनाशाके अनुसार हेय, हेय हो रहता है और उपादेय, उपा देय रहता है। किन्तु लोक पद्धतिके ( व्यवहारके ) अनुसार प्रयोजनवश हेय उपादेय माना जाता है यह भेद है। सभी तो लोकका न्याय सच्चा न्याय नहीं माना जाता यह तात्पर्य है अस्तु ।
तथापि संयोगी पर्यायमें
अनेकान्तदृष्टिसे कथंचित् व्यवहारमें उपादेयता बतलाई है, किन्तु हमेशा के लिये वह उपादेयता नहीं है हेयता है ।
earवयः ।
व्यवहश्णनयः स्वाद् यद्यपि पदव्यामि निeिvai g तदपि परममर्थमस्कार मात्र परविरहितमम्सः पश्यतां नैष
किंचित् |१५||
-समयसार कलश
अर्थ- संयोगी पर्याय विद्यमान ( मौजूद ) ज्ञानो जीवोंको यद्यपि व्यवहारनय, ( अरुचि पूर्वक) हाथके सहारेकी तरह सहायक है जबतक कि होनावस्था पाई जाती है ( बालककी या वृद्ध पुरुषकी तरह) परन्तु वह पराधीनता सुखदायक नहीं है-- दुःखदायक ही है । नीतिमें भी कहा जाता है कि 'पराधीन सपनेहु सुख नाहीं कर विचार देखो मनमाहीं' तदनुसार स्वाधीनता अर्थात् निराकुलतामें ही वास्तविक सुख है ऐसा समझना चाहिये। ऐसी स्थिति में जो जीव ( ज्ञानी) निश्चयनसे परसे भिन्न चिच्चमत्कार के पिंड ( एकत्त्वरूप ) सर्वोत्कृष्ट अपनी आत्माके स्वरूपको देख व जान लेते हैं जो कि एकत्वविभक्तरूप व स्वसहाय है, उनकी दृष्टिमें परकी सहायताका कोई महत्त्व नहीं है और न वे उसको उपादेय मानते हैं अपितु उस परसहायतारूप araarat या तुच्छ हो समझते हैं, अपने कार्यमें उसको बाधक ही मानते हैं, साधक नहीं मानते इत्यादि पश्चात् आत्मशक्तिके बढ़ने पर उसका सम्बन्ध विच्छेद भी कर देते है और स्वावलम्बी बन जाते हैं । सम्यग्दृष्टि ज्ञानी अगत्या व्यवहारनयका आलम्बन लेता है (विद्वता बेगारकी तरह करता ) aara उसको वैसा करने में प्रसन्नता या रुचि नहीं होती किन्तु दुःख
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पुरुषार्थसिद्धयुपाय
या अरुचि ही होती हैं अतः वह होने का विषाद व मेटने का उपाय हमेशा करता रहता है अस्तुaraहारको छोड़कर frrचयका आलम्बन करनेसे होनेवाला लाभ बतलाया जाता है |--
आत्मस्वभाव
परभावमिश्रमापूर्णमान्तविमुकम् । थिलीन संकटपनि दपजालं, प्रकाशयन् शुनयोऽभ्युदेति ||१०||
अर्थ - निश्चयनयसे आत्माका स्वरूप, परसे सर्वथा भिन्न अर्थात् परपदार्थ के साथ तादात्म्य सम्बन्ध रहित है, गुणोंकर भरा हुआ है अर्थात् अपने सम्पूर्ण गुणों सहित है ( उसमें औगुण या दोष नहीं है वह गुणोंका पिंड है ) आदि व अन्तसे रहित अनादिनिधन ( नित्य ) है तथा एकअकेला है ( अद्वितीय - एकस्वरूप है ) संकल्प ( रागादिभाव ) और विकल्प ( ज्ञानमें उठनेवाली तरह २ की लहरों) से रहित है । द्रव्यदृष्टिसे अशुद्धता ( संयोगीपर्याय ) रहित है, उसमें परसे भिन्नतारूप शुद्धता सदैव रहती है इत्यादि ऐसा आत्मा के शुद्ध स्वाधीन स्वरूपको दरशानेवाला शुद्धनय ही है, व उस निश्चयमय ( शुद्ध नय ) का आलम्बन करने पर ही जीवका कल्याण होना संभव है (लाभ संभव है) व्यवहारमयका आलम्बन करनेसे कल्याण अर्थात् मुक्ति नहीं हो सकती है सम्यग्ज्ञानका होना सच्चा आलम्बन हैं, शेष सब भ्रम है । इसोका नाम 'स्वपरका भेदविज्ञान' है अतः उसको येनकेन प्रकारेण प्राप्त अवश्य करना चाहिये किम्बहुना ||११||
आगे आचार्य व्यवहारनयको अपेक्षासे जीवका स्वरूप बताते हैं---
नैमित्तिकताका प्रदर्शन द्वारा
atani परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमैन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥ १२ ॥
पद्य
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date होने कारण स्वयं जीवके भावे हि हैं वे भिज्ञ भाव कहे हैं प्रभुने यतः जीव में होते हैं ॥ हैं विभिन्न कारण वे उसमें कर्मबंध जो होता है ।
उपादान कारण है पुद्गल, कर्मरूप परिणमता है ॥१२
१. अशुद्ध निश्चयनमसे जीव ( अशुद्ध ) की कार्यपर्यायरूप, उसमें उत्पन्न हुए ।
२. अपने आप ही उपादान शक्ति ।
३. परिणम जाते हैं हो जाते हैं, प्रकट हो जाते हैं ।
४. कर्मपर्यायरूपसे परिणम जाते हैं ।
५. संयोगी पर्यायरूप अशुत्र अवस्था ।
६. विकारपरिणाम अशुद्धोपयोग |
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जीप दृष्यका लक्षण
5 . अन्वय अर्थ--[अ] इस संसारमें अथवा जीवकी अशुद्ध ( संयोगी ) पर्याय में [ जीवकृत परिणाम ] जो रागादिरूप विकारीपरिणाम प्रकट होते हैं उनको निमित्तमा प्रपद्य ] सिर्फ निमित्तरूप बना करके [ अन्य पुद्गलाः ] दूसरे जड़ पुद्गलस्कंध [ स्वयमेव क्रममावेन परिशमन्ते ] स्वयं अर्थात् अपने आप अपनी योग्यतासे हो ( स्वोपादानतासे ) कर्मपर्यायरूप अर्थात् ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूप ( मूलभेद दे उत्तरभेदरूप ) परिणम जाते हैं । अर्थात् कर्म यह पुद्गल द्रव्यकी कार्यपर्याय है जो पुद्गल द्रव्यमेंसे स्वयं ही प्रकट होती है सिर्फ उसके लिये सहायता देनेवाले जीवद्रव्यके रागादिरूप विकारीभाव होना चाहिये ओ कि अशुद्ध निश्चयनयसे संसारी या अशुद्ध जोचके कार्यपर्याय रूप है, परन्तु वे खाली निमित्त कारण है ( दर्शकरूप ) और कुछ नहीं हैं यह तात्पर्य है। यही निमित्तनैमित्तिकरूपसे कर्तृत्त्व भोक्तृत्वका होना व्यवहारनयकी अपेक्षा जीवका लक्षण या स्वरूप है ऐसा समझना चाहिये ॥१२॥ . भावार्थ---जीव और पुद्गल, इन दो द्रव्योंका संयोग सम्बन्ध अनादि कालसे स्वयं-भिन्न पर द्रव्यकी सहायता या निमित्तसा बिना होता चला आया है। उससे दोनों अनादिकालसे विकृत हो रहे हैं, जिसका नतीजा यह संसार दशा है। प्रतिसमय आस्रवबंध-उदय-निर्जरा आदि कार्य होता रहता है । फलस्वरूप जन्ममरण रोग आधि व्याधि भूख-प्यास आदिके असह्य दुःख उठाना ( भोगना पड़ रहे हैं। सिवाय संक्लेशता व आकुलताके एक क्षणको भी सुखशान्ति नहीं मिलती, अतएव उस सबका छूटना अत्यावश्यक है--उपादेय है यह निश्चयकी बात है अस्तु । इस विषयमें विशेष प्रकाश डालनेकी आवश्यकता मालूम पड़ती है।
___नोट----पुद्गल द्रव्यका परिणमन अनेक प्रकारका होता है ज्ञानावरणादि कमरूप व शरीरादिनोकर्मरूप । खाये हुए अन्न आदिका जैसे खलरसरुधिरादिरूप परिणमन होता है जो उसका स्वभाव है।
विशेषार्थ-खुलासा द्रव्याधिकनय या शुद्ध निश्चयनयको अपेक्षासे जीव आदि छहों द्रव्ये अबद्ध हैं स्वतंत्र व शुद्ध हैं..-परसे भिन्न स्वत: परिणमनशील हैं, एक दुसरेका कुछ भी विचार या सुधार नहीं कर सकतीं, अपना २ कार्य स्वयं करती रहती हैं तथा अपना स्वभाव कभी नहीं छोड़ती यह अकाट्य नियम है इत्यादि, यह द्रव्याथिकनय बनाम निश्चयनयका कथन या निरूपण है। किन्तु संयोगरूप पर्यायाथिकनय या व्यवहारमयकी अपेक्षासे जीव और पुद्गल ये दोनों द्रव्ये अयुतसिद्ध संयोगसम्बन्धसे बद्ध हो रही हैं ---परस्पर संधिरूपसे मेल किये हुए हैं। इतना ही नहीं अपितु एक दूसरेमें निमित्तता भी करती रहती हैं। अर्थात संयोगीपर्यायमें जो जीवद्रव्य के रागादिरूप विकारीभाव (परिणाम-पर्याय ; होते हैं उनकी व साथी योगोंकी सहायता या निमित्ततासे नवीन पुद्गल द्रव्योंका आस्रव ( आगमन ) व बंध व कर्मभोकर्म रूप परिणमन ( कार्यपर्याय ) तथा स्थिति अनुभागका पड़ना, उदयमें आकर फल देना आदि कार्य हुआ करते हैं। उदय होनेके समय पुनः परिणाम बिगड़ते हैं अर्थात् उनमें रागादि विकार होता है तब उनके निमित्तसे पुन: आसव-बंध-उदय आदि होता है। इस तरह भावसंच { विकार) से ब्यबंध और
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पुरुषार्थसिडधुपाय द्रव्यबेधसे भावबंध, इस प्रकार निमित्तनैमित्तिकरूपसे संतानपरंपरा चलती रहती है जब तक कि 'मोह रागद्वेष' का विनाश नहीं हो जाता।
यहाँ पर इतरेतराश्रय दोष तो होता नहीं है, कारण कि वे सब बदलते जाते हैं जैसे कि बीज व वृक्ष बदलता जाता है..नया र होता जाता है। परन्तु यह शंका हो सकती है कि यह उपर्युक्त प्रकारको निमित्तनैमित्तिकता द्रव्यकर्म के साथ है कि उदयके साथ है ? इसका उत्तर यह है कि उदयके साथ फलको निमित्तनैमित्तिकता है न कि कर्मके अस्तित्वके साथ। कारण कि जब कर्मरूप पर्याय उदयमें आती है ( व्यक्त होती है। तभी उसका फल सुख-दुःख होता है तथा रागद्वेष शाम होते हैं । आश्रम और बंध होता है। यदि उदय न हो खाली सत्ता में कम रहें तो कोई हानि नहीं हो सकती। जब कर्म उदय में आते हैं और फल देते हैं तभी परिणामों के अनुसार बंधादि हुआ करता है । अतएव यह कहना कि 'कर्म फल देते हैं। उपचार है । व्यवहार है ), निश्चय ( सही ) यह है कि कर्मका उदय साक्षात् फल देता है और कर्म परंपरया फल देते हैं अर्थात् वे मूलकारण हैं उनकी ही उदय अवस्था होती है किम्बहुना।
द्रव्यकर्म व भावकर्मका निर्धार सामान्यतः पुद्गलकी अशुद्ध ( संयोगी ) पर्यायका नाम 'द्रव्यकर्म' है। यतः द्रव्य अर्थात पुद्गल द्रव्य की कर्म अर्थात् कार्यपर्यायको ही 'द्रव्यकर्म' कहा जाता है। तथा भाबकर्म अर्थात् जीदद्रव्यको अशुद्धपरिणामरूप कार्यपर्यायको गावकर्म कहा जाता है ।
भावार्थ-पूदगलको विकारी पर्यायका नाम द्रव्यकर्म है और जीवकी विकारीपर्यायका नाम भावकर्म है ऐसा जानना तथा जबतक फल देनेको सामर्थ्य कर्म में रहती है तबतक वह कर्म कहलाता है शक्ति नष्ट हो जानेपर वह पुद्गल रह जाता है।
नोट----कर्मोका कार्य है सुखदुःखको सामनी उपस्थित करना या सुखदुःखके वेदने में निमिसता करना अतः उन्हें कर्मनामसे कहा जाता है। इनकी रचना (निर्माण) पुद्गल द्रव्यसे होती है। इसी तरह पुद्गल द्रध्यसे ही शरीरका निर्माण होता है और वह भी संक्षेप या अल्परूपमें कर्म जैसा कार्य करता है अत: उसे नोकर्म कहते हैं (थोड़ा काम करनेवाला नोकषायकी तरह ऐसा समझना। यह खुलासा द्रव्यकर्म व भावकर्मका प्रसंगवश किया गया है। इसके सम्बन्धमें दूसरी विचारधारा निम्नप्रकार की है--
सूक्ष्म और प्राचीन शंका व समाधान
( इतरेतरराश्रय दोष बाबत ) प्रवचनसार आदि आगमग्रन्थोंमें भावकर्मबंध बद्रध्यकर्मबंधक विषयमें 'इत्तरेतराश्चय' दोषका खंडन करते समय यह समाधान किया गया है कि अनादिकर्मबंधमें यह दोष (इतरेतराश्रय) नहीं आता, कारणांक अनादिकाल से ही आत्मा कर्मबन्ध सहित अशुद्ध पर्यायवाला रहा है तब
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जीव दृष्यका लक्षण
उसके पहिले कोई पृथक् २ दो द्रव्ये शुद्ध (पृथक् २) रही ही नहीं है, जिनको एक दूसरेका निमित्त ( आश्रय ) माना जाय । अर्थात् भावकमको-जुदे रागादिको, द्रव्यकर्मका निमित्त माना जाय या द्रव्यकर्म (पर्यायरूप कर्म ) को भावकर्म ( रागादि ) का निमित्त माना जाय, यह नहीं बन सकता, कारण कि जुदी स्थितिमें कर्मरूप अथवा कार्यरूप पर्याय जीव द्रव्य या पुद्गल द्रव्यमें होती ही नहीं है यह नियम है ।...किन्तु कर्मरूप पर्याय जीव व पुद्गलको अनादिसे अयुतसिद्ध रही है अर्थात् संयोगरूप-मिली हुई रही है ऐसा जानना चाहिए। फलतः तब ऐसा ही कहने में व मानने में आता है कि अनादि कर्मबंध, बिना पृथक् निमित्तके ही होता है अर्थात् वही संयोगावस्था उपादान व निमित्तरूप है अन्य कोई निमित्त ( भिन्न ) उसमें नहीं है। तथा इसमें युक्तिव आगम दोनों प्रमाणोंसे विरोध भी नहीं आता। का-.. "नैवं ( दोषः ) अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्मसंबद्धस्यात्मनः तत्र हेतुत्वेनोपादानात्"
(प्रवचनसार माथा नं० २२१ । अर्थात् इतरेतराश्रयताका या भिन्न निमित्तताका दृषण यहीं नहीं आता, कारणक-संयोगी पर्याय अनादि प्रसिद्ध द्रव्यकर्मोसे संबद्ध ( संयुक्त ) आत्मा ( पिण्डरूप ) ही अपने बंधनादिमें स्वयं कारण है, दूसरा कोई नहीं है, यह निर्णय है अस्तु स्वर्ग स्वसे बंध जाता है जैसे रस्सी अपनेको बाँधने में समर्थ स्वयं है अन्यकी अपेक्षा नहीं रखती।
अनाविकर्मपर्याय और अनादि कर्मबंधका खुलासा पुद्गलद्रव्यकी कर्मपर्याय और कबंध, दोनों अनादिकालके हैं-उनको आदि नहीं है। इसलिए तत्वार्थसूत्रकार पूज्य उमास्वामी महाराजके कथन 'अनादिसम्बन्धे च ॥४ा अ०२ के सूत्रसे कोई विरोध नहीं आता, सिर्फ समन्वय करनेकी बात है। कृपया सुक्ष्म शंकाका समाधान भी सुक्ष्म दष्टिसे ही होना सम्भव है वह किम जाय यह शास्त्रीय चर्चा है, किम्बहुना। मेरी समझमें जैसा आया है वैसा लिख दिया है, विचार किया जाय। मेरा क्षायोपशमिक ( अल्प) ज्ञान है। स्वतः या गुरुनियोगात अतत्त्व ( अन्यथा ) श्रद्धान भी हो सकता है आश्चर्य नहीं है। कर्मपर्यायकी अवधि स्थिति भी अनादि सक एक-सो रहे यह नियम नहीं है. वह बदलती रहती है-नया २ बंध व उसकी स्थिति व अनुभाग घटबढ होता ही रहता है। बंध भी वही हमेशा नहीं रहता वह भी बदलता जाता है इत्यादि । प्रायोग्यलब्धिके समय व करणलब्धिके समय क्या २ होता है उसका विचार किया जाय आश्चर्यकी बात नहीं है अस्तु ।
नोट-संयोग, संयोगको जन्म देता है यह प्राकृतिक नियम है है ) जैसे अनादिकालसे लोक संयोगरूप रहा है अत: उससे वैसा ही संयोगरूप लोक उत्पन्न होता रहता है । तदनुसार द्रव्यकर्म ( पुद्गलकी विकारी कार्यापर्याय ) तथा भावकर्म (जीवको विकारी कार्यापर्याय ) दोनोंका संयोग ( अयुतसिद्ध ) संबंध अनादिकालसे चला आ रहा है और आगे भी चला जाता है, जबतक दोनोंका वियोग (पृथक्तारूप संबंध विच्छेद ) नहीं होता। वियोग होना यह भी द्रव्यका स्वभाव है।
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৪াখিব संयोग होना, वियोग होना, यह सब वस्तुका स्वभाव है और उसका होना नियत व निश्चित है जो अन्यथा कभी नहीं हो सकता । इसको स्वभाव इस लिए कहा जाता है कि यह किसी के निमित्त से नहीं होता अपितु जब जो होनेका होता है तब वह निराबाध हो ही जाता है और उसके पीछे (बदौलत ) निमित्तादि सब एकत्रित हो जाते है । स्वाभाविक परिणमनको कोई बदल नहीं सकता वह अवृत्रिम होता है किम्बहुना । अनादि कर्मबन्धमें कारण, अनादि कर्मबन्ध ही है, उससे भिन्न कोई स्वतन्त्रे कारण न है न हो सकता है, अन्यथा निमित्त में उपादेयता व बलात्कारता सिद्ध हो जायगी जो अनिष्ट है वह असम्भव है, युक्ति व आगमके प्रतिकूल है इत्यादि । बन्धादिका करनेवाला व फल भोगनेवाला जीव द्रव्य होता है यह कथन अपेक्षासे सम्बन्ध रखता है धाने आपेक्षिक ( कथञ्चित् ) है। यथा-...-
___कर्मबन्धके होने में विशेषता जन जीवके संसारदशामें देवगुमशास्त्रके प्रति श्रद्धाभक्ति स्तुति पूजाप्रभावना आदिके शुभर भाव होते हैं, उन भावोंके निमित्तसे पद्गलद्रव्य पुण्यकर्मरूप स्वयं परिणम जाता है तथा जीवके साथ बंध जाता है। और उसमें स्थिति व अनुभाग ( फल देनेको शक्ति ) पड़ जाता है। इतना ही नहीं जब वह पुण्यकर्म उदयमें आता है तब सुखदुःखको सामग्री उपस्थित होती है एवं मोह या रागद्वेष के अनुसार जीव उस समय सुख व दुःखका अनुभव करता है अर्थात् सुखो-दुःखी होता है। तथा फलको भोगते समय जो जीवके परिणाम हर्षविषादरूप होते हैं-(संक्लेशरूप या विशुद्धता रूप होते हैं ) उनके निमित्तसे पुनः नवीन कर्मोंका बंध होता है इत्यादि बंधकी परम्परा (श्रृंखला) चाल रहती है। तात्पर्य यह कि जैसे शुभ या अशुभभाव संयोगी पर्याय में होते हैं वैसा ही पुण्यकर्म या पापकर्मका बंध प्रतिसमय जीवको होता है। इसी तरह-...
जब जीवके विषयकषायको पोषण करनेके या सेवन करनेके या किसीको मारने सताने आदि रूप अशुभभाव होते हैं तब नवीन पाय कर्मोका बंध होता है एवं उनमें स्थिति अनुभाग पड़ता है। यदि उस समय तीनकषाय' । संक्लेशता रूप परिणाम ) हो तो उन बंधे हुए पापकों में स्थिति व अनुभाग ( फलदानशक्ति ) अधिक पड़ेगा और मंदकषाय हो तो स्थिति अनुभाग
१. आवहारमयकी अपेक्षा जीक द्रव्यका स्वरूप ।
तिक्काले चपाणा इंदियबलमाऊ आणपापो य । ववहारा सो जीबी णिच्छयणयदो टू चेवणा जस्स ॥३॥ पागलकम्मादीणं कता बहारदो दू गिन्छयदो ।
चेवणकम्माणादा सुद्धणयां सुद्धभावाण ।।८॥--वृहतद्रव्यसंग्रह। २. प्रशस्तरागरूप। ३. अप्रशस्तराम । ४. विषयानुराग, विषय सेवनकी अधिक लालासाका होना या अतिआसक्ति होना--प्रचुर राग।। १५. धर्मानुराग या विषयादिस अरुचि या उदासीनताका होमा ।
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जीव द्रक्ष्यका लक्षणे क्रमती पड़ेगा। इसके विपरीत पुण्यकर्मों में स्थिति अनुभाग अधिक पड़ेगा इत्यादि । तथापि वह बंध और स्थिति अनुभाग पुद्गल द्रव्यमें स्वयं ही होगा यह वस्तुस्वभाव है क्योंकि वह जड़ है जसे कुछ ज्ञान नहीं है। लेकिन परस्पर अनादिसे निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध पाया जाता है यह विशेषता बस्तुभावकी है। दुष्टान्तके तौर पर जब कोई मंत्र या विद्या साधनेवाला जीव ( ब्यक्ति ) कोई संकल्प- इरादा या रागद्वेषादि विकारीभाव धारणकरके धूली-पानी-अन्न-कंकरपत्थर आदिके माध्यम ( विचौलिया या निमित्त ) से मंत्र, तंत्र, जंत्र विद्या सिद्ध करके उन चोजोंका ( जो स्वयं जड़रूप हैं) पर जीवों के प्रति उपयोग करता है ( उन्हें प्रयुक्त करता है तब दे निमित्त बनकर अन्य जीवोंको सुखदुःखके दाता लोकमें माने जाते हैं, यह मान्यता व्यवहारकी है। निश्चयकी मान्यता यह नहीं है, कारण कि वे धूली आदि जड़रूप हैं एवं उस जीवसे भिन्न हैं उनको कुछ ज्ञान नहीं है कि किसको क्या करना है ? इत्यादि । हो, निश्चयनयसे वह जीव ही जिसके प्रति मंत्रादि का प्रयोग किया जाता है, अपने ऊपर उपस्थित हुए दुःख व सुखका (पर्यायका) ज्ञाता व भोक्ता है। यदि उस समय उस जोवकी दु:खरूप पयोधका वियोग होनेवाला होगा तो हो जायगा एवं फलस्वरूप वह सुखमय ( सुखी ) स्वयं हो जायगा और दुःखपर्यायका वियोग न होनेवाला होगा तो मंत्रादि कुछ नहीं करेंगे ठप्प रह जावेंगे । परन्तु उसी कालमें निमित्त मौजूद होने में अज्ञानी जीवोंका भ्रम हो जाता है कि निमित्तोंने ही यह सब कार्य किया है इत्यादि । वस्तुतः सुख व दु:ख रूप परिणमम जीवद्रव्यमें ही स्वयं होता है, अन्य के द्वारा अन्यमें कुछ नहीं होता। फलत: पुद्गलद्रव्य ही स्वयं पुण्यरूप व पापरूप परिणमती है इत्यादि । उक्त दृष्टान्तसे वस्तुका परिणमन व व्यवस्थापन स्वय सिद्ध स्वतन्त्र समझना चाहिये।
निष्कर्ष परिणाम ही पुण्य और पाप कर्मके बंधनेमें निमित्त कारण होत हैं तथा पुद्गलद्रव्य ही उपादान कारण होती है यह सारांश है । पुद्गल द्रव्य धूली वगैरहमें भी मंत्रादिक निमित्तसे स्वयं विशेष शक्तिरूप परिणमन हो जाता है तथापि परके प्रति निमित्तरूप ही रहता है।
बंधके मुख्य भेव ३ हैं (१) जीवबन्ध-संयोगीपर्याय में जीवके जो विकारोभाव ( रागद्वेषगोहरूप) होते हैं, वहीं जीवबन्ध कहलाता है। कारण कि उनके नष्ट हुए बिना जीव कभी मुच ( मोक्षगामी ) नहीं होता यह नियम है । फलतः मुख्य बन्ध वही है ।
(२) कर्मबन्ध-पुद्गलद्रव्यको पर्यायरूप कर्मपरमाणु ( बन्ध योग्य ) अब अपने रूप रस गन्ध स्पर्श आदि स्वाभाविक गुणोंके द्वारा परस्पर स्कन्धरूप होते हैं अर्थात् बंधते हैं, उसीका नाम 'कर्मबन्ध' है। वह भी जबतक संयोगी पर्यायमें रहता है तबतक जीव मुक्त नहीं होता।
(३) उभयबन्ध-भावबन्ध और द्रव्यबन्धका जबतक परस्पर संयोग सम्बन्ध है तबतक दोनों (जीव व पुद्गल ) बंधे हुए हैं । और जब दोनों पृथक् २ हो जाते हैं तभी मुक्ति होतो है यतः दोनोंका परस्पर वियोग होना ही मोक्ष है इति ।
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पुरुषार्थसिद्धधुपाय नोटबन्धका अर्थ, एक क्षेत्रमें श्लेषरूप { धनिष्ठ ) सम्बन्धका होना, परन्तु संयोग रूप ही रहना, तादात्म्य रूप नहीं होना इत्यादि। आस्रव और अन्धमें यह भेद है कि आस्रव कार्मापा द्रव्यके आने मात्रको कहते हैं और बन्ध उस आये हुए द्रव्यके दो-चार समय ठहरनेको कहते हैं अर्थात् जो आकर तुरन्त चला जाय वह बन्ध नहीं है ईर्यापथ आस्रव ही है। स्थिति अनुभाग जिसमें पड़े असलमें वही बम है | - Teni , २३ ।
कर्मके भेद व उनका लक्षण कर्म ३ प्रकारके माने जाते हैं। यथा-१ द्रव्यकर्म, २ नोकर्म, ३ भावकम । प्रत्येक कर्मका स्वरूप निम्नप्रकार है
द्रध्यकर्म व स्वरूप (१) द्रव्यकर्म, पुद्गलपिडकी पर्यायरूप है, उसके ज्ञानाबरणादि ८ मूल भेद हैं और १४८ सबके उत्तर भेद हैं । जो निम्न प्रकार हैं। उनमें धातियाकर्म
(क ज्ञानावरणकर्म, जीवके व्यक्त ज्ञान गुणको धातता है, अर्थात् ज्ञानको प्रकट नहीं होने देता, वह ज्ञान गुणको प्रकट न होने में निमित्त कारण है।
नोट'--आवरण सब व्यक्तताके घातक होते हैं, शक्तिके घातक नहीं होते, अतः स्वभावकी व्यक्ति दशाके घातक होनेसे उन्हें घातिया कर्म कहा जाता है । जो जीवके ज्ञान गुणको धाते उसे ज्ञानावरण ( घातिया कर्म ) कहते हैं । इसके ५ भेद होते हैं ।
( ख ) दर्शनावरणकर्म, यह जीवके दर्शन गुणको व्यक्त ( प्रकट ) नहीं होने देता अतः वह भी धातिया कर्म है, इसके ९ भेद है।
(ग) अन्तरायकर्म--जो जीवके बल ( वीर्य ) गुगको पाते उसको अन्तरायकर्म कहते हैं। उसके उदय में जीवको अनन्त बल प्रकट नहीं हो पाता। फलस्वरूप ५ पाँच प्रकारकी शक्तियाँ ( सामर्थ्य ) प्रकट नहीं होती । जैसे दान देनेको शक्ति, लाभ होने की शक्ति, भोग करनेकी शक्ति, उपभोग करनेकी शक्ति ( क्षमता या उत्साह ) और बल या पुरुषार्थ करनेकी शक्ति प्रकट या जाग्नत
१. बन्धरूप पर्यायोंका मूलकारण ‘क्रिया' हैं परिणति है । अर्थात् क्रिया ( भावरूप का ही फल हर तरहकी
पर्यायोंको प्राप्त करना व दुःखका भोगना है। क्रिया दो तरहकी होती है (१) भावरूप अर्थात् उपयोगरूप (२) योगरूप ( परिस्पन्दनरूप ) इन दोनोंक रहले मोर व सुख प्रास नहीं हो सकता। अतएव ( उपयोगशुद्धि व योगशुद्धि दोनोंकी प्राप्ति होना मुक्तिका कारण ( उपाय या मार्ग ) है ऐसा समझना चाहिए । देखो, प्रवचनसार गाथा ११७१२५ तथा २०५-६ चरित्राधिकार ।
उपयोगमें वीतरागताका होना-रामाविका दूर होना उपयोगद्धि है। आत्माके प्रदेशोंका स्थिर या अचल होमा योगशुद्धि है अस्तु। :
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जीव द्रव्यका लक्षण
नहीं होती है ( यह निश्चयपना है)। बाहिरमें उक्त कार्योके करने में अन्तराय या विश्न उपस्थित हो जाता है यह कहना व्यवहारपना है। इसके भी दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्त राय, उपभोगान्तराय, वीर्यान्तराय ये पांच भेद होते हैं।
(घ) माहनीयकर्म----यह जीवके सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्र गुणको वातता है एवं समुदाय रूपसे 'सुख' गुणको धात्तता है, आकुलता उत्पन्न करता है। इसके २८ भेद होते हैं । दर्शन मोहके ३ भेद, चरित्रमोहके २५ भेद, कुल २८ भेद । इनका प्रत्येकका स्वरूप जहाँ-तहाँ प्रकरणमें कहा जायगा जो समझ लेना ( इति धातियाकर्म )
अघातियाकर्म (च) आयुकर्म ----यह जीवको पर्यायमें स्थिर रखता है बेडोको तरह बाँधे रहता है, परन्तु यह स्वभावका धातक न होनेसे अघातियाकर्म कहलाता है । जबतक इसके चार भेदोंका यथास्थान उदय रहता है तबतक बढ़ासे निकल नही पाता यह विशेषता है । इसके नरकायु वगेरह ४ चार
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( छ । नाभकर्म----इसके उदयसे अनेक तरहके शरीर जीवको प्राप्त होते हैं। इसके ९३ भेद माने जाते हैं।
(ज) गोत्रकर्म-इसके उदय से जीव को मोचा ऊंचा कुल ( जाति या गोत्र ) प्राप्त होता है। इसके २ भेद है १ नीच गोत्र २ उत्पन्न गोत्र ।
( झ ) वेदनीयकर्म-इसके उदयसे जीवको इष्ट अनिष्ट बाह्य सामग्री प्राप्त होती है । इसके १ सात्तावेदनीय २ असातावेदनीय दो भेद हैं।
ही नोकर्मका स्वरूप सोकर्म शरीर व इन्द्रियोंको कहते हैं। जिस प्रकार ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म जीवको सुख दुःखादि देने में निमित्तता करते हैं, ( सहायता देते हैं ) उसी प्रकार शरीरादि भी कुछ कम ( अल्परूपमें ) सुख दुःखादि देनमें निमित्तता करते हैं अतएव इनका नाम नी ( ईषत् ) कर्म ( कार्य करनेवाले ) पड़ता है, ऐसा समझना चाहिए । शरीरके भेद औदारिक ( स्थूल ), वैक्रियिक, आहारक आदि होते हैं, जो संसारी जीवके बराबर पाये जाते हैं व कोंके साथ २ रहते हैं इत्यादि इनको ही साधन भी कहते हैं इत्यादि।
भावकर्म व स्वरूप जीवके जो रागद्वेष मोहरूप ( कषायरूप ) भाव होते हैं, उनको ही भावकर्म या विकारीभाव कहते हैं, असल में यही कर्म जीवको संसारसे बांध देता है अर्थात् संसाररूप नाना तरहकी पर्यायों में जकड़ देता है क्योंकि उन भावकर्मोसे तरह २ का नया कर्मबन्ध होता है और उसके उदय आनेपर दुःख सुखको सामग्री मिलती है तथा उसके भोगने में हविषाद च सुख दुःखकी कल्पना
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पुरुषार्थसिद्धयुपाये { मान्यता ) होती है, एवं उस समय रागद्वेषादि होनेसे पुनः नया बन्ध होता है ऐसी शृंखला चलती रहती है इत्यादि सब जीवके भावरूप कर्मों ( परिणामों ) का ही फल ( कार्य ) है ऐसा समझना चाहिये तभी तो उक्त तीनोंको ( द्रव्यकर्म-मोकर्म-भावकर्मको) हेय बतलाया गया है। आत्मानुशासन में 'परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयो: प्राशाः स्पष्ट कहा गया है अस्तु ।
नोट-कर्मके उत्तर भेदोंका वर्णन आगे यथावसर पृथक् रूपसे कहा जायेगा सो समझ लेना यहाँ विस्तार भयसे नहीं लिखा गया है ऐसा समझना ||१२||
ब्यवहारनवसे जिस प्रकार जीवद्रव्यके विकारीभाव ( रामादि ) कर्मपर्यायके उत्पन्न होनेमें निमित्त कारण माने जाते हैं उसी प्रकार पदाल द्रव्यमी मार्य म वर्ग का उदय भी जीवद्रध्यके विकारीभावोंके होने में निमित्तकारण होता है यह बताया जाता है--
परिणममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकै वैः । भवति हि निमित्तमात्र पोद्गलिक कर्म तस्यापि ॥१३॥
पध
जीव सक्ष चेतनभावों परिणमता है स्वयं अहो । अतः उन्हींका कत्ता है वह निश्चयसे यह तुम्ही कहो।। है मिमित्तकारण उसमें भी जब विभाष उ8के होते।
पुद्गलकम उदय आनेपर रागादिक प्रकटिस होते . १३ ।। अन्वय अर्थ--[ अॅप ] और भी आचार्य शेष कहते हैं कि [ चिदात्मकः स्वकै भावैः स्वयमपि परिणममानस्य चिस: ] जो जीव ( निश्चयो ) ज्ञानदर्शनरूप में चैतन्य भावोंके द्वारा ( सहित ) स्वयं परिणमन करता है उसके विकाररूप परिणमनमें ( रागावोंके होने में ! यथार्थतः [ पौद्गलिक कर्म निमित्तमात्रं भवति ] द्रव्यकर्म, अर्थात् पुद्गल कर्मरूप पर्याय जो उदयमें आती है वह निमित्तकारण बन जाती है । अर्थात् जीवके राग रूप विकारीभात्रोंका और पुद्गलमय द्रव्यकर्मोके उदयका परस्पर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध मान ला है ।।१३॥
__ भावार्थ-संयोगोपायमें जीवद्रव्यके बिकारीभाव, पुद्गलद्रव्यके वि भावों (पर्यायों ) के होने में सिर्फ निमित्तकारण होते हैं ( उपादानकारण नहीं होते, उप कारण स्वयं वह पुद्गलद्रव्य होती है ) और पुद्गलद्रव्य अथवा पुद्गलद्रव्यको कर्मरूप पर्यायो दय, जीवद्रव्य के विकारीभाव होने में सिर्फ निमित्तकारण होता है किन्तु उपादान कारण स्वयं व्य है क्योंकि उसीमें वैसा विकाररूप परिणमन होता है और वह योग्यतानुसार समय पर पता है क्योंकि पर्याय ( भाव ) प्रति समय बदलती है एक-सी स्थायी ( कूटस्थ-नित्य) नहीं यह नियम है जो अन्यथा नहीं हो सकता। जीव और पुद्गल दो द्रव्यों ही ऐसी हैं जिनाम अवस्थाके समय विकाररूप (अशुद्ध ) परिणमन होता है शेष द्रव्योंमें विकारी परिण नहीं होता।
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जीव द्रव्यका लक्षण
- संदनुसार जोवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य दोनों अनादिकालसे संयुक्त [ अपृथक सिद्ध हो रहे हैं। अतएव उनके परस्पर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध पाया जाता है। और यह कथन पर्यायाश्रित होनेसे व्यवहारनयका कथन है। किन्तु निश्चयनका कथन नहीं है, कारण कि द्रव्यमें कोई विकार नहीं होता, चाहे वह संयोग पर्याय में ही क्यों न रहे। विकार तो सब हो जब एक द्रव्यका दूसरे द्रव्य में प्रवेश या तादात्म्य हो, सो वैसा कभी होता नहीं है एक दुसरेसे सदैव भिन्न रहता है। अर्थात् तादात्म्यरूप नहीं होता, संयोगरूप होता है, जिससे द्रव्यगत शुद्धता हमेशा रहती है, frent afवकारता या विकारताका अभाव कहते हैं। यह विश्लेषण समझना चाहिये, इसमें जीव बहुत भूले हुए हैं अस्तु । फलतः परस्पर निमित्तनैमितिकताका समझना अनिवार्य है, तभी भेदज्ञानी सम्यग्दृष्टि हो सकता है जो संसारसे पार होता है इत्यादि । इस तरह भावकर्म ( जीवके रामादिभाव ) और rare | ज्ञानावरणादिका उदय ) में परस्पर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध समझना चाहिये ।।
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शंका-समाधान
जो जीव अच्छी तरहसे निमित्त और उपादान को नहीं समझते न निमित्तनैमित्तिकताको हो समझते हैं वे ऐसी शंका ( प्रश्न ) अवश्य करते हैं कि कर्म ( ज्ञानावरणादि ) जो जड़ पुद्गल हैं, उनकी कोई ज्ञान नहीं है और जीव चेतन्यका स्वामी ज्ञानी ध्यानो है । फिर जड़कर्म, जीवकैसे भुला देते हैं अर्थात् विपरीत बुद्धि ( मिध्यादृष्टि ) कैसे कर देते हैं, जिससे संसारमें घूमना व दुःख भोगना पड़ता है इत्यादि ? इसी तरह चेतनजीवद्रव्य, जड़ पुद्गलद्रव्यको कर्मरूप कैसे बना देती है, जिससे वे जीवद्रव्यको ही सुख दुःख देने लगते हैं इत्यादि ?
इसका समाधान इसप्रकार है कि पूर्वोक कथन व्यवहारमयकी अपेक्षाका है अतः वह अभूतार्थं कथंचित् सत्य है— सर्वथा सत्य नहीं है ) कारण कि निश्चयनयकी अपेक्षा से कोई भी द्रव्य, किसी भी orer कर्ता हर्ता भोक्ता नहीं है ( सभी स्वतन्त्र है । तब जीव पु में व पुद्गल जीवमें विकार वगैरह कुछ कर ही नहीं सकता। ऐसी स्थिति में पुद्गलकर्म जीव ई विकार अर्थात् विपरीत बुद्धि, रागद्वेष मोह, सुख, दुःख आदि कार्य नहीं कर सकते तथा कोई सुख-दुःख आदि देनेकी नई शक्ति नहीं पैदा कर सकती, सभी द्रव्ये, अपं स्वयंसिद्ध शक्तिके द्वारा ही करती हैं ऐसा ध्रुव नियम है । फलतः जिस समय पर्याय) विपरीत बुद्धिवाला होता है या सुखी दुःखी होता है, उस समय उसो उसीसे प्रकट होती है, कहीं अन्य जगहसे या अन्यके द्वारा नहीं प्रकट होती. बसती है और समयपर व्यक्त होती है, क्योंकि द्रव्य स्वाधीन है पराधीन नहीं। पुद्गलकर्मका उदय भी साथ में रहता है, जिससे यह भ्रम उत्पन्न हो जाता है। जड़ निमित्तने, यह सुखदुःख आदि फल दिया है जो गलत है । सुखदुःखरूप परिष होना स्वयं' जोवद्रव्यका अशुद्ध कार्य है-पुद्गलद्रव्यका लेशमात्र कार्य नहीं है, १ . अज्ञानी जीव मानते हैं इत्यादि । इसी तरह कर्मरूप परिणमत या कलदान शक्ति, ही कार्य है जो उसमें स्वयं ही उसकी अपनी योग्यता ( उपादान शक्ति ) से
श्रा, पुद्गलकर्म में कार्य अपनी २
द्रव्य, (संयोगीकी वैसी पर्याय • उसी द्रव्यमें
उस समय
स उदयरूप
( पर्याय )
भ्रमसे प्रका
पन्न )
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पुरुषार्थसिधुपाय होता है। जीवद्रव्य तो उसका निमित्तरूप साथी है लेकिन भागीदार नहीं है किम्बहना । मन्त्र द्वारा मन्त्रित धूली आदिमें भी यही निर्णय ( व्यवस्था) है। अर्थात् धुलीमें स्वयं बैसी शक्ति होनेसे वह प्रकट होती है उसमें उस समय मन्त्रका पाठ निमित्त कारण है। इसी तरह जिस जीव ( व्यक्ति ) पर उस धूलीका प्रयोग किया जाता है, उसपर दुःख आपत्तिका आना या दूर होना उसीकी पर्यायरूप कार्य है जो व्यक्त होता है। वह धूली आदिका पढ़ना तो निमित्त मात्र है। वह कार्यकर्ता असल में नहीं है। नहीं तो । अन्यथा) जिसपर भी वह धूली आदि पड़तो उसके लिए भी वैसा कार्य हो जाना चाहिये परन्तु नहीं होता मन भाम है। बार अवश्य विश्वास करना चाहिये सभी वह पक्षपात रहित विवेकी समझा जायगा । निमित्त उपादानको भूल मिटाना एवं सत्य निर्णय करना, भ्रम या अज्ञानको मिटाना मुमुक्षु जोत्रका मुख्य कर्त्तव्य है। बही धर्म है वहीं कर्म हैं वही शर्म है, इत्यादि ।
इसी प्रसंगमें यह जान लेना भी आवश्यक है कि कोई भी कर्मकान कार्या--विना कारणके अर्थात उपादान कारणके बिना नहीं होता, जिससे उसको अकृत अर्थात निराधार-कारणरहित) माना जा । फलतः यत् यत् कार्य तत्तत् केनापि जन्य', काय स्वात् घटादिवत्' इस व्याप्तिके अनु. सार कार्य मात्र कारणपूर्वक होते हैं तथा 'उपादानकारणसदश हि कार्य भवति' यह भी नियम है । ऐसी स्थिति में भावकम व द्रव्य कर्म, इन दोनोंका निर्धार करना अनिवार्य है। भावकर्म ( रागादिविकार) का उपादानकरण अशुद्ध निश्चय नयसे जीवद्रव्य (संसारी) है, अजीवद्रव्य (पुदगलकर्म) नहीं है अर्थात भावकर्मका का स्वय' जीवद्रव्य है। और द्रव्यकर्म (ज्ञामावरणादि ) का का या उपादान कारण स्वयं पुद्गलद्रव्य है। यह सत्य निर्णय है। इसके विरुद्ध मानना गलत है। यथा- यदि भाबकर्म व द्रव्यकर्म दोनोंके कर्ता अथवा उपादान कारण, जीव और पुद्गल दोनोंको माना जाय तो उनका फल भी दोनों को भोगना पड़ेगा (सांझकी दुकानकी तरह ) परन्तु ऐसा होता नहीं है न हो सकता है कारण कि जड़ पुद्गल क्या सुखदुःख आदि भोगेगा ? असम्भव है। ऐसा समझना चाहिये' अस्तु ।
विशेषार्थ-भावकर्म ( रागादिरूप विकारी भाव--अशुद्धभाव ) कार्य ( जन्य हैं ) अतएव शंकाकार शंका करता है कि वे जीव और पुद्गल (द्रव्यकर्म ) दोनोंके नना चाहिये क्योंकि
१. कार्यस्थापकृतं न कर्म न च तज्जोयप्रकृत्यायो
रज्ञायाः प्रकृतेः स्वकार्यफलभुगभावानुषंगात् कुतिः । नकस्याः प्रकृतेरवित्त्वलसनाज्जीयोऽस्य कर्ता ततो जीवस्यैव च कर्म तश्विदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः ॥२०३||--- समयसारकलश
अर्थ:-भावकर्म ( रागादि ) व द्रव्यकर्म ( ज्ञानावरणादि ) बोनों कार्य कारण ( उपादान कर्ता ) के वे महीं हो सकते यह नियम है । अतएव अशुद्ध नि ( कर्सा) जीवद्रव्म है और द्रव्यकर्मका कारण ( कर्ता ) पुद्गल ट्रेश्य है ऐस किन्तु शद्ध निश्चयनयसे वैसा नहीं है ।।२०३
रूप हैं अतएव विमा से मायकर्मका कारण में समझना चाहिये,
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जीव मुल्यका लक्षण
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संयोग पाया जाता है। इस शंकाका खंडन किया जाता है कि दो द्रव्योंके अर्थात् जीव और पुद्गलके दे नहीं हो सकते ( नकस्य द्वौ कसरी यस: यह जोक १४ में कहा है ) 1 इसी तरह एकके दो कर्म भी नहीं हो सकते इत्यादि । क्योंकि यदि दो द्रव्योंका कर्म ( कार्य ) उन्हें ( रागादिको ) माना जाय तो दोनों को उनका फल भोगना पड़ेगा ? यह दोष आयगा | परन्तु पुद्गल तो जड़ है अतएव वह तो फल ( सुखदुःखादि ) भोग नहीं सकता इत्यादि । और यदि इस दोष ( आपत्ति ) को टालने के लिए यह कहा जाय कि वे 'रामादिभावकर्म' जीव द्रव्यके हैं, तो वह न्यायके विरुद्ध होगा। क्योंकि दोनोंके संयोग ( सोझयाई) से होनेवाले फलके भोक्ता दोनों ही होंगे, एक पुद्गल या जोव अकेला नहीं हो सकता इत्यादि ।
तब न्याय दृष्टिसे यह निर्धार (फैसला ) किया जाता है कि 'रामादिभावकर्म' का कर्ता या भोका, ( जो कथंचित् चेतनरूप हैं आत्मा के प्रदेशों में होते हैं ) जीव द्रव्य है, और जडरूप भावhi (गुण) कर्त्ता व भोक्ता पुद्गल द्रव्य है इति । अर्थात् अशुद्धनिश्वयनयसे अशुद्धोपादान रूप जीव द्रव्य, ( संयोगीपर्याय में रहते समय ) रागादिभावकर्मका कर्ता है क्योंकि उसके प्रदेशों में ही वे होते हैं किन्तु शुद्धनिश्चयनयसे जीव द्रव्यके नहीं हैं, यतः जीवद्रव्य सबसे भिन्न है - (त्रिकाली ) शुद्धोपादानरूप है । अथवा व्यवहारनयसे वे जीवद्रव्यके हैं। क्योंकि यथार्थरूपमें विचार किया जाय तो वे औपाधिकभाव हैं अर्थात् पुद्गलकर्मकी उपाधि या संयोगसे होते है, ( विनश्वर हैं ) अतएव पुद्गल ही हैं ऐसा समझना चाहिये । इसीको स्याद्वाद या अनेकान्तकी शैलीसे कहा जाय तो कथंचित् जीवके हैं और अथंचित् पुदगलके हैं ऐसा मानना व कहना पड़ेगा fare अशुद्ध निश्चयनयसे जीवके प्रदेशों में होनेवाले रागादि भी चेतनरूप है और शुद्धनिश्चयसे वेतनरूप नहीं है अस्तु । यहाँ प्रश्न उठता है कि अशुद्ध निश्चय माननेकी क्या आवश्यकता है, एक शुद्ध निश्चय ही मानना चाहिए ? इसका उत्तर है कि--यदि अशुद्ध निश्चय या व्यवहारHarita farरोंको जीव द्रव्यके न माने जायेंगे तो जीवद्रव्य, प्रमादी व अज्ञानी बन जायगा, कोई उपाय उनके निकालनेका न गा और संसार में ही रहा जायेगा | निकलेगा नहीं । यह महान् दोष होगा । अतएव अशुद्ध ' पर्याय अवश्य है । फलतः जीव ( ( त्यागना चाहिए। इसीलिए एक
यवहारयको माननेकी भी आवश्यकता संयोगी आ) रागादिका कर्त्ता व भोक्ता है, अतएव उन्हें निकालना बुद्धिका खंडन किया गया है कि-
राग जन्मनि उत्तरति म !
अर्थ- जो अज्ञानी भेट { जीव ) के नहीं हैं, पर ( पु संसार व मिथ्यात्वसे छुटकारा भी रागादिक हैं ऐसा मानना उदार हो सकता है ||२२११
1
ततो परद्रव्यमेव कल्यन्ति ये तु ते वाहिनी, शुद्धवधुराम्चबुद्धयः ॥ २२१ || - समयसारकलश
शून्य जीव, ऐसा एकान्त मानते हैं कि रागादिक आत्मा के ही हैं अर्थात् परके निमित्तसे ही वे उत्पन्न होते हैं। वे कभी पा सकते. मिथ्यादृष्टि संसारी ही बने रहते हैं । अतएव जीवके ए । यही अनेकान्तकी पद्धति है, उसको अपनाना चाहिये तभी
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गुण
आचार्य संसारपरिभ्रमणका मूल कारण बतलाते हैं कि संयोगी पर्याय में भूल जाना ( करना ) ही एकमात्र संसारका कारण है, दूसरा नहीं । यथा
{ विपरीत श्रद्धान व ज्ञान ही कारण है )
14
६२
एवमयं कर्मकृतैर्भारिसमाहितोऽपि युक्त इव । प्रतिभाति वालिशानां प्रतिभासः स खलु भवबीजम् ||१४||
पद्य
1
संयोगपर्याय माहिं जे भाव अनेकों होते हैं। ते तव मित्ररूप दोनों नहीं एक होते हैं ।। तौ भी अज्ञानी जीवों को, एकरूप rs दिखते हैं। वही भूल भषकारण जानो, ज्ञानी उसको सजते है ।"
अन्वय अर्थ -- [ एवं ] पूर्वोक्तप्रकार [ अ ] यह जीवद्रव्य, संयोगीपर्याय ( मिश्रपर्याय ) में भी [ कर्मकृतंरितोऽपि ] कर्मकृत अर्थात् पाधिक या नैमित्तिक कर्मके निमित्तसे होने वाले ) रागादिक विभाव भावोंके साथ समवेत अर्थात् तादात्म्यरूप एक नहीं है तथापि [ वालज्ञान युक्त व प्रतिभाति ] अज्ञानी जीवोंको समवेतरूप अर्थात् तादात्म्यरूप एक मालूम पड़ते हैं। बस [ प्रतिभाव ] बही गलत या उल्टा (विपरीत) ज्ञान या मान्यता, [ खलु मवचजमस्ति ] संसारका बीज अर्थात् मूलकारण है ऐसा समझना चाहिये ||१४||
भावार्थ- जीवोंके संयोगीपर्याय में जो कर्मकृत अर्थात् कर्मोदय होने पर विकारीभाव अथवा auranप खोटे परिणाम होते हैं, निश्चयनयकी अपेक्षासे वे भाव, जीवद्रव्यके नहीं हैं, अर्थात् उनका जीवद्रव्य के साथ ज्ञानादिक स्वभाव भावोंकी तरह समवेत ( समाहित या तादात्म्यरूप } सम्बन्ध नहीं है अपितु संयोग संबंधमात्र है, और इसीलिये वे रागादिक विकारीभाव आत्मा ( जोवद्रव्य ) से पृथक् भी हो जाते हैं-सदैव उनका संयोग, जीवद्रव्यके साथ नहीं रहता- इस प्रकार वस्तु व्यवस्था है। तथापि अज्ञानी जीव उस व्यवस्थाको ( जो शाश्वतिक है ) भूल जाते हैं और विपरीत श्रद्धा व ज्ञान करने लगते हैं । वे मानते व कहते हैं कि वे कजनित ( औपाधिक) regure विकारीभाव ( भावकर्म तथा उनके निमित्तसे प्रकट होनेवाले पुद्गल द्रव्य के ज्ञानावरणादिभाव ( कर्मपर्याय ) परस्पर एक हैं, भिन्नर नहीं है अर्थात् जीव ( आत्मा ) और वे एक दूसरे कर्त्ता व भोक्ता हैं। जीव, कर्मों ( पुदगल कर्मों) को करता ( बनाता है और कर्म, जीव को करता अर्थात् बनाता है इत्यादि विपरीत बुद्धि ( श्रद्धान ज्ञान ) करते रहते हैं, जो मिथ्या है-वस्तुव्यवस्था या प्राकृतिक नियमके विरुद्ध है इत्यादि ।
फलतः उक्त प्रकारकी गलत धारणा कर लेना महान् अपराध है। जिसका फल यह होता है कि उसीमें हमेशा लीन या दत्तचित्त होनेसे, संसार व उसका दुःख नहीं छूटता, हमेशा गलती पर गलतो जीव ( अज्ञानी ) करता जाता है व सजा ( दंड ) पाता है । यही गलत मार्ग पर
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ear है, जिससे girl ( सुखकी प्राप्ति ) कभी नहीं हो सकती ।
हां, यदि वह अज्ञानी जीव, कभी अपनी भूलको समझे और उसको सुधारे अर्थात् विपरीत sara ज्ञानको छोड़कर सम्यक् (अविपरीत यथार्थं । श्रद्धान व ज्ञानको प्राप्त करें और अपनाचे तो बरावर सिद्ध हो अन्यथा नहीं ऐसा समझना । अनादिकालसे यहो तो हो रहा है। जो कहा' भी उसका विचार करो अस्तु ।
त्यजतु अपदिदानीं मोहमाजम्मीढम् | रत्पयतु रसकानां रोचनं ज्ञान ॥ इह कथमपि नात्मानात्मना साक्रमेक. 1
किल कलयति काले क्वापि सादात्म्यत्रुतिम् ॥ २६ ॥
समयसारका
अर्थ :- हे संसारके प्राणियों ( जगत् ) ! अनादिकालसे लगा हुआ ( भूतकी तरह ) अज्ञानभाव (परमें एकबुद्धि - विपरीतता ) को छोड़कर तुम शुद्ध सच्चे ज्ञानका स्वाद लेओ ( उसको चखी, अनुभव करो ) क्योंकि अभी तक तुमने झूठे अज्ञानका ही स्वाद लिया है। अतएव athसे लाभ उठाओ ! देखो, कभी तीन कालमें भी आत्मा (जीव ) का पर ( जड़ कर्मादि ) के साथ तादात्म्य ( सर्वथा एकस्व अभेद ) नहीं हो सकता - दोनों संयोगरूप जुबेर रहते हैं । फिर भूलसे तुम क्यों उनको अपना मानते हो अर्थात् वे तुम्हारे स्वभाव नहीं हैं विभाव ( विकार हैं, ऐसा सम्यग्ज्ञान प्राप्त करो और मिथ्याज्ञान छोड़ो इत्यादि । अतः तेरा कल्याच भेदज्ञानसे ही होगा arrer नहीं, यह निश्चय रख, किम्बहुना । सर्वोत्कृष्ट चीज जीवका ज्ञान ही है, जिससे सब बातोंका पता लगता है, अतः उसीकी आराधना करना चाहिये । यही बात आगे भी कही जाने वाली है ध्यान देना चाहिये ||१४
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आचार्य कहते हैं कि संसार में भूलका मूलकारण ( बीज ) विपरीत बुद्धिका होना है ( परमें एकस्वका ज्ञान हो जाना है ) उसको हटानेका मुख्य उपाय 'रत्नत्रय' को प्राप्त करना है अतएव उसीका क्रम निश्चयनय से बताया जाता है—
विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतच्चम् | यत्तस्मादविचलन स एव पुरुषार्थसिद्धयुषयोऽयम् ||१५||
१. अपनी मृध भूल आप, आप दुख उठायो । ज्यों शुक नभ चाल विसर नलनी लटकायां ॥ चेतन अनिरुद्ध शुद्ध दशबोधमय विशुद्ध तत्र, अड़ रस फरसरून पुल अपनायो || २. श्रद्धान (विपरीत अभिप्राय
|
३. निश्चय करना था जानना --- ज्ञान ।
४. आत्मस्वरूप ।
५. निजस्वरूप ( आत्मस्वरूप ) ।
६. चलायमान नहीं होना अर्थात् स्थिर रहना चारित्र |
५. वही स्थिरतारूप चारिष ।
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शुपसिबभुवन
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पद्य
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miyanArrainingrejianp.
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विपरीतभिनिवेश हटाकर, सम्यक निश्श्य करता है।
और उसी में लीन होयकर, सम्यक् चारित धरता है ।। घा ही पक उपाय जीव के, पुरुषारय की सिद्धि का ।
मोक्ष दशा का बोज वही है, संसारी अड़ कटने का ।१५।। अन्यय अर्थ-[ य: ] जो जीव, सबसे पहिले [विपरीताभिनिवेशं निरस्य ] अनादिकालसे ध्याप्त विपरीतश्रद्धानको ( मिथ्यादर्शनको) हटाकर अर्थात् निकालकर एवं [ निजतन्वं सम्यम् व्यवस्य ] आत्माके एकत्त्व विभक्त स्वरूपको यथार्थ जानकर [ यत् तस्माद विचलनं ] जो फिर अन्तमें उस अपने आत्मस्वरूपमें स्थिर या निश्चल होता है अथवा निश्चयचारित्र धारण करता है अर्थात् राग-द्वेष रहित वीतरामधर्मरूप चारित्रको प्राप्त करता है। सारांश---सम्यग्दर्शन, सम्यम्ज्ञान, सम्यक् चारित्र रूप अवस्थाको प्राप्त होता है । स एव ] वही तीनोंका समुदाय हो । अयं पुरुषासिन्युपायः ] प्रत्यक्ष या साक्षात् । निश्चयसे ) पुरुषार्थकी सिद्धिका एक अनुपम उपाय है, अर्थात् मोक्षका निश्चयरूप मार्ग है-निर्विवाद ( प्रधान ) रास्ता है ऐसा जानना ॥१५॥
भावार्थ---अनादिकालसे संसारी जीव प्रायः विपरीत बुद्धि करके अर्थात् परपदाकि साथ अपना अभेद ( एकत्त्व ) रूप श्रद्धान और शान करके उसीमें लोन या मस्त हो रहे (भूल रहे ) हैं वह भूल ही संसारका मूल या जड़ ( बीज ) है अर्थात् निदान है । उसीसे संसार फल-फूल रहा है । { बढ़ रहा है ) जब इस तथ्यको (वास्तविक रहस्यको) जीव समझ जाता है या अपनी भूलका ज्ञान उसे हो जाता है तब उसके संसारको जड कट जाती है अति उसका मिथ्यादर्शन. मिथ्या
. मिथ्याचारित्र न होकर सम्यग्दर्शन. सम्यग्ज्ञान. सम्यकचारित्ररूप उत्पन्न होता है। अर्थात् मिथ्या अन्धकार मिटकर सम्यक उजेला प्रकट होता है। उसके प्रकाशमें वह अपनी पूरानी करतूत { कृति मान्यता ) पर अत्यन्त पछताता है दुःख : जाता है और आगेका सुधार करता है । यद्यपि संसारके या संयोगी पर्यायके सभी काम वह करता है जिनमें जन्ममरण, खाना-कमाना, लड़नाझगड़ना, विवाह शादी करना आदि सभी काम शामिल हैं। तथापि अरुचिपूर्वक आसक्त या दत्तचित्त न होकर एक विगारीको तरह विवशतामें करता है उत्साह और रुचिसे नहीं करता, इतना ही नहीं, यथाशक्ति उनका करना छोड़ता जाता है और अन्समें क्रमशः सबका त्याग कर देता है। जिससे वह एक समय संसारसे पार हो जाता है। यही उसकी न्यायवृत्ति है दैनिकचर्या है। ऐसा करके ही बह---
अनादिकालीम भिगोदादिकी अनन्तपर्याए छोड़ देता है। पचपरावर्तनरूप संसारसे मुक्त होकर मोक्ष स्थान प्राप्त कर लेता है।
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१. नित्यनिगोदमें रहनेका काल, किसी के अनादि अनन्त है . किसीके अनादि सान्त है ।
इतरनिगोदमें रहनेका काल २॥ हाई पुद्गलपरावसन प्रमाण ( अनन्त ) है।
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লী রুন্ধা কম্বot अतएव इस पुरुष ( जोव ) को हमेशा ऐसा अपूर्व पुरुषार्थ करना चाहिये जो पहिले कभी न किया गया हो। तह पुरुषार्थ सम्यग्दर्शनाटिलता प्राप्ति करना है और संसारके दुःखोंसे छूटकर मोक्षके सुखोंको पाना है । संसार में रहना और दुःखसुख भोगना परिसहादिको बढ़ाना-दुर्गतियोंका बंध करना यह कुपुरुषार्थ है । इसकी तारीफ नहीं होती प्रत्युत निन्दा ही होती है। ऐसा समझकर मोक्षका व उसके मार्ग ( उपाय ) का ही पुरुषार्थ करना चाहिये, उसीका पुरुषत्त्व सफल माना जाता है।
जब जीवकी क्षुद्र पर्यायोंका विचार किया जाता है तब रोंगटे खड़े हो जाते हैं. दुःखकी कथाएँ ( कहानियाँ ) हृदयको व्यथित कर देतो हैं, जिनको भोगा है सुना है देखा है। फिर भी अज्ञान और कषाय के वैगमें यह जीव सब भूल जाता है, अपना सन्तुलन खो देता है यह बड़े दुःखको बात है। तब अभिमान काहेका ? पर्याएं सब विनश्वर है-एकसी सदेव रहती नहीं हैं। अतएव विवेको जीवको एकत्त्व व अन्यत्व भावना भानी चाहिए। एकत्वका अर्थ मेरा 'चेतनारूप आत्मा' अकेला है अर्थात् अपने गुणों के साथ ही अभेदरूप है, और गुणों के साथ अभेदरूप नहीं है। तथा परसे भिन्न है, ( अन्य है) परद्रव्य के साथ कभी एकरूप या तादात्म्यरूप न होकर भिन्न ही है (विभक्त है) भिन्न रहता है। तब अपना ही बल भरोसा रखना चाहिये, दूसरोंका नहीं यह सारांश है । इसपर ध्यान देना चाहिए, जो कोई मोक्ष जाना चाहता है । इति ।।१५।।
प्रसंगवश-सम्यग्दर्शनावित्रयका संक्षेपस्वरूप .... आचार्य ने स्वयं आगे श्लोक २२, ३१, ३९ में क्रमशः कहा है) (१) विपरीत श्रद्धाका छोड़ना अर्थात् पर द्रव्यके साथ मेरा : आत्माका ) एकत्त्व है ( अभेद है ) ऐसी धारणाको हटाना, सम्यग्दर्शन गुण है । अथवा अपने गुणोंके साथ ही मेरा एकत्व है अन्यके साथ नहीं है, ऐसी भावना ( श्रद्धा ) भी निश्चय सम्यग्दर्शन है । विशेष आगे समझना, कर्मजनित औपाधिक पुद्गलकी पर्यायोंको आत्मा [ जीव ) की मानना व जानना व उनमें लीन रहना मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र है।
(२) मेरा आत्मा पर सबसे भिन्न है, ऐसा जानना या निश्चय करना 'सम्यग्ज्ञान' है अथवा अन्यत्व भावना ( श्रद्धा ) भाना, निश्चय सम्यग्ज्ञान है।
(३) आत्माके यथार्थस्वरूपको जानकर व श्रद्धानकर, उसमें स्थिर होना लीन होना तन्मय होना, निश्चय सम्यक्चारित्र है। यह सामान्य कथन है। आगे प्रत्येकका विस्तारके साथ कथन किया जायगा सो जान लेना। यहांतक संसार व मोक्षका बीज ( निदान ) बताया गया है। अस्तु । आगेके पेजमें चारित्रका दूसरा लक्षण ग्रन्थान्तरकी अपेक्षासे लिखा गया है सो समझ लेना।
म
स्थावरकायों में रहनेका काल, असंख्यात पगलपरावर्तन प्रमाण है।
असपर्यायमें रहनेका काल कुछ अधिक दो हजार सागर प्रमाण है। नोट- संख्यातसे बड़ा पल्य, पत्यसे बड़ा सागर, सागरसे बड़ा परावर्तन होता है ऐसा समझना चाहिए।
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पुरुषार्थसिद्धथुपाय . मिथ्यावृष्टियों व सम्यग्दृष्टियों के भेद व उनका अस्तित्त्र ( क ) मिथ्यादृष्टि २ दो तरह के होते हैं--(१) अनादिमूढ़ मिथ्यादृष्टि (२) सादि मह मिथ्यादष्टि अथवा अनादि अनन्त मिथ्याष्ट्रि... अनादि सात मिध्यादष्टि | जैसे निगोदिया--कोई अनादि अनन्त होते हैं व कोई अनादिसान्त होते हैं ( भिगोदका अर्थ सम्मूच्र्द्धन जन्म होता है ) 1 एकेन्द्रीसे लेकर असैनी पंचेन्द्रियलक सभी जीव, प्रायः अनादिमढ़ मिथ्याष्ट्रि ( अगृहीत मिथ्यादृष्टि ) माने जाते हैं, कारण कि उनके 'आप्त-आगम-पदार्थोंका ज्ञान नहीं होता क्या आप्त है क्या आगम है क्या पदार्थ है यह वे नहीं समझते । तथा संज्ञी पञ्चेन्द्री जीवोंके यथासम्भव सभी मिथ्यात्वके भेद पाये जाते हैं (खुलासा षटखंडागम पुस्तक १ सूत्र ४३ में देख लेना)! .
(ख ) सम्यग्दृष्टि ३ तीन सरहके ९ नो तरहके. २ दो तरहके होते हैं । किन्तु सभी संजी जीवोंको सभी सम्यग्दर्शन नहीं होते। क्षायिक सम्यग्दर्शन केवली व श्रुतकेवलोका निमिस मिलने बाला ( मनुष्या) के ही होता है यह विशेषता है। वह निमित्तता अपनो अपेक्षासे भी मिलती है पर की अपेक्षा से भी मिलती है इत्यादि, सम्यादर्शनके १० भेद भी होते हैं।
ज्ञान और श्रद्धानके विषय में शंका समाधान सामान्यतः श्रद्धान ज्ञानपूर्वक ही होता है, विना ज्ञान के नहीं होता ऐसा नियम है । इस प्रकार माननेपर यह शंका होती है कि जब पूर्वमें यह बताया गया है कि एकेन्द्रियादि असेनी पर्यन्त जीवोंके आप्त, आगम, पदार्थोंका ज्ञान नहीं होता तब क्या उनके उनका श्रद्धान हो सकता है ? यदि श्रद्धान होता है तो यग्दृष्टि क्यों नहीं हो सकते, क्या प्रतिबन्ध है ? इसके सिवाय ज्ञानपूर्वक श्रद्धान होता है यह नियम खंडित होता है इत्यादि ? इसका समाधान यह है कि सामान्य ज्ञान वेतनालक्षण, सभी जीवोंके सदैव रहता और सामान्य श्रद्धान ( बनिरूप पर्याय ) भी रहा करता है। अतएव ज्ञान व श्रद्धानका समन्वय (संगम ) खंडित नहीं होता। हाँ, विशेष ज्ञान अर्थात् भेदशान या प्रत्यक्ष ज्ञान ये हमेशा हर जीवके नहीं होते तथापि परोक्ष ज्ञान ( अनुमान-आगम आदि) बराबर सैनी जोबके रहा करते हैं या श्रुतज्ञान सभीके रहा करता है, तब ज्ञानपूर्वक श्रद्धान होने में कोई बाधा ( आपत्ति ) नहीं आती । फलतः सम्यश्रद्धान ( विशेषश्रद्धान ) सम्यग्ज्ञान ( भेदज्ञान) पूर्वक बराबर होता है चाहे वह सम्यग्ज्ञान परोक्ष ही क्यों न हो ऐसा समझना चाहिये । अतएव असैनी जीवोंसक आप्त आगमके ज्ञान विना उनका सम्यक् श्रद्धान नहीं हो सकता।
इसके सिवाय एकेन्द्री आदि जीवोंके मिथ्यादर्शन ( विपरीताभिनिवेश) कैसे पाया जा सकता है जब कि उनके आप्त-आगम-पदार्थोंका ज्ञान ही नहीं होला, और मिथ्यादर्शन माना अवश्य गया है, यह एक प्रश्न है ? इसका भी समाधान इस प्रकार है कि अनादिमूढ़ मिथ्यात्व तो उनके होता है क्योंकि उस समय भी उनके अन्य अज्ञानरूप निरावरण सामान्यज्ञान पाया जाता है,
१. आशामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् ।
विस्तारार्थाभ्यां भवमवगाउपरमावगाः च ॥११॥ आत्मानुशासन । नोट--प्रत्येकका लक्षण वहीं देख लेना--अन्य बच आयमा अस्तु ।
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जीवण्यका लक्षण
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अतएवं उसके साथ मिथ्यादर्शन या मिथ्याश्रद्धानका होना सम्भव है असम्भव नहीं है । इसके सिवाय विशेषज्ञान ( भेदज्ञान या प्रत्यक्ष ज्ञान ) के बिना जो श्रद्धान अवश्यम्भावी है वह तो होगा ही, क्योंकि झान जीबका स्वभाव है । अतएव ज्ञानपूर्वक श्रद्धानका होना अनिवार्य है अथवा श्रद्धान शालकी पर्याय है सो ज्ञानके साथ वह अविनाभावरूपसे रहेगा ही किम्बहुना विशेष षड्खंडागम पुस्तक १ सूत्र ४३ में समझ लेना )।
मिथ्यात्वके सात भेद (१) ऐकान्तिक मिथ्यात्त्व ( सिर्फ एक कोटि या धर्मका ज्ञान होना कि वस्तु इसी का है) ( २ ) सांशयिक मिथ्यात्व ( दो कोटियोंमेंसे किसी एक कोटिका भी निश्चय नहीं होना )। ( ३ ) मूमिथ्यात्व ( किसी वस्तुका स्पष्ट ज्ञान नहीं होना-अनध्यवसायरूप ज्ञानका होना) { ४ ) व्युदनाही मिथ्यात्व ( गहीत मिश्याटवे, नई २ मिथ्यात्व पोषक क्रिया में चिका
होना )। ( ५ ) स्वाभाविक मिथ्यात्व ( अगृहीत मिथ्यात्व, अपने आप अनादिसे विपरीत ज्ञान
होना )। (६ ! वैनयिक मिथ्याल ( मब चीजों में समान विनयादि करना-उनमें भेद न मानना )। (७) विपरीत मिथ्यात्व ( भ्रमका होना----जैसे रस्सी में साँपका ज्ञान हो जाना आदि )।
चारित्रका दूसरा लक्षणा---( वीरसेनाचार्य कथित षट् खण्डागमटीका } 'पापक्रिपाभिवृतिश्चारित्रम्' अर्थात् पापक्रियाओंका टूटना ही चारित्र कहलाता है। यहाँ पर पाप, घातिय कर्मोको समझना चाहिये तथा मिथ्यात्त्व, अविरति, प्रमाद, कषाय ये चार पापक्रियाएँ हैं। पाक इनके द्वारा ही धातिया कर्मों का आस्रव व बंध होता है। धातिया मिथ्यात्व कर्मों में मुख्य कर्म, मोहनीय है और पाप क्रियाओं में मुख्या पाप क्रिया है। जिस भाव ! परिणाम ) से आत्मा के अनुजीवीगुणोंका पात हो, उन्हें पाप कहते हैं। चाहे वह भाव शुभरूप हो अशुभरूप हो, दोनोंसे आत्माकी असली दशा र शक्ति बोतगग विज्ञानताको व्यक्तिरूप । का घात होता है। अतएव मिथ्यात्वादि चाने प्रकार के भावोंका भेद प्रभेद सहित अभाव होना 'सम्यक् चारित्र' कहलाता है। उसके होने पर ही मुक्ति होती है जब वह पूर्ण { विकल्पशून्य स्थिर ) हो जाता है ।। घट्खंडागम सूत्र २२ पुस्तक ६11 साधारण रूपसे विषय और कषाय दोनों पापरूप हैं ऐसा कहा गया है।
चारित्र के २ भेद-मुख्य । (१) स्वरूपाचरण चारित्र (२) संयमाचरण चारित्र।
स्वरूपाचरण चारित्रके भेद--(१) आंशिक ( अपूर्ण ) (२) समग्र (पूर्ण)
नोट-इनका खुलासा तत्तत् प्रकरण में किया जायगा, यहाँ पर अभी नाममात्र सामान्यरूप कहा गया है।
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सम्यग्दर्शनके भार प्रकार ( मोक्षमार्गप्रकाशक प्रन्यमें ) दान--देवगुरुशास्त्रका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।
+---3-3२-तत्त्वार्थधद्धान करना सम्यग्दर्शन है। -+-2- ३-परद्रव्योंसे भिन्न आत्माका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। ४---आत्माके स्वरूपका श्रद्धान करना सभ्यग्दर्शन है।
अथवा ३ भेद या प्रकार --उपशम सम्यग्दर्शन। २~-क्षयोपशम सम्यग्दर्शन या वेदक सम्यग्दर्शन । ३- क्षायिक सम्यग्दर्शन । नोट---इसी तरह ९ प्रकार व १० प्रकार भी होते हैं जो शास्त्रों में लिस्ने हैं सो देख लेना।
सम्यग्दृष्टि-सम्यग्ज्ञानीकी विचारधाराले भिन्न, मिथ्यावृष्टिको
साततत्त्वोंमें विचारधारा ( विपरीताभिनिवेश ) १-जीवतत्त्व, अर्थात् जीवका स्वरूप, चैतन्य ज्ञानदर्शनादि स्वभावरूप हैं, परसे भिन्नरूप है ( विभक्तरूप है ) व अपने गुणों पर्यायों के साथ एकस्वरूप है । ऐसा श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है। परन्तु मिथ्यादर्शनके रहते हुए जीव, क्रोधमानादि विभावभावोंको और अपनेसे भिन्न पर पदार्थों को भी अपना ही मानता है और उनमें रागलेषादि करता है ऐसी विपरीत-विचारधारा या श्रद्धा जीवतत्त्वके सम्बन्धमें होती है-यह मासा है और भी इसी तरह समझना।
२---अजीवतत्व, पूदगल धर्म अधर्म काल आकाश, इन अचेतन द्रव्योंमें एकता या अभेद मानना कि ये और हम एक { अभिन्न ) ही हैं। मैं इनका स्वामी व कर्ता भोक्ता इत्यादि हैं ऐसी विपरीत धारणा करना अजीब तस्वके सम्बन्धमें विपरीत श्रद्धा ( विचारधारा.) या मिथ्या दर्शन कहलाता है। जिनमें चेतना न हो ये अजीव तत्व कहलाते हैं। अतएव जीव ( चेतन । का और अजीव ( जड़ ) का अभेद या एकत्त्व कभी नहीं हो सकता फिर भी वैसा मानना मिथ्यात्त्व है। सामान्यत: सभी सजातीय या विजातीय द्रव्ये या पदार्थ, स्वभावतः एक दूसरेसे भिन्न हैं—कभी एकत्त्वरूप ( तादात्म्यरूप) नहीं होते । यह नियम है । परद्रव्य, परगुण, परपर्याय, को अपना मानमा विपरोत श्रद्धा है। अर्थात् अजीव चोजोंका स्वामी कर्ता व भोक्ता अपनेको मानना, अजीव तस्त्वमें विपरीत श्रद्धा कहलाती है।
....आस्रवतत्त्व, अनादिकालसे जोध और अजीव द्रव्यका संयोग सम्बन्ध ( एक क्षेत्रमें रहना) हो रहा है। लेकिन संयोगरूप अशुद्धताके कारण वे दोनों द्रव्य पर्यायसे अशुद्ध हो जाती हैं या मानी जाती हैं। इसलिये परस्पर उनका निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध होनेसे विपरीत धारणा
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जीव व्यका कक्षा
आत्मा कर लेता है कि जिससे उन संयुक्त परपदार्थोंमें रागद्वेष मोह आदि विभावभाव करने लगता है को इष्ट सुखद मानता है बस यही आस्रव तत्त्वमें विपरीतत्ता है अर्थात वे जो विभावभाव प्रकट होते हैं अथवा आत हैं { आस्रवरूप हैं आगन्तुक हैं ) उनको जीव अपने स्वाभा. यिया स्वभावरूप मान लेता है, हासिष्ट बुद्धि करता है। जो त्रिकालमें जीवके नहीं हैं, के तो संयोगी पर्यायजन्य हैं व आम्रवरूप हैं, इस तथ्यसे वह भूल जाता है और अशुद्ध परिणमन या भाव करने लगता है जिससे संसारमें धमता रहता है। वह जो रागादिरूप विकारीपर्याय है सोन अकेले जीव की है न अकेले अजीव (पुद्गल ) की है किन्तु दोनोंके मेल से होती है अतः कथंचित् दोनों की है। अशुद्ध निश्चयनयसे जीवकी है और व्यवहारनयसे अजीबको है ऐसा निर्धार है । इसमें विपरीत धारणा ( मान्यता ) करना विभावोंको सुखदायक हितकारी समझना आसक्तत्वमें विपरीतता समझना चाहिये। रागादिकको जीबके मानना जो कि औपाधिक है आस्रब तत्त्वमें विपरीतता है इत्यादि । उपादानको अपेक्षासे आत्माके प्रदेशोंमें रागादिक आस्रव होते हैं अस्तएव कथंचित् जीवके हैं और निमित्तकी अपेक्षासे कर्मोके उदय होने पर होते हैं अतएव कर्मोके हैं ( औपाधिक हैं ) इत्यादि जानना ।
----बन्धसत्त्व, अनादिकाल से जीवद्रव्य और कमनोकर्मरूप पुद्गल स्कन्धों का संयोगरूप परस्पर बन्ध रहा है अर्थात् धनिष्ट ( सान्द्र) सम्बन्ध पाया जाता है, उसमें जो विपरीत श्रद्धा हो जाती है कि यह बन्धावस्था मेरी ( जीब को ) है अर्थात् बन्ध का कर्ता व फल भोका मेरा आत्मा ( जीवद्रव्य ) है, इत्यादि मिथ्या कल्पना है, कारण कि वन्ध रूपोका रूपीके साथ होता है अरूपी के साथ नहीं होता, इस न्याय से पुद्गल रूपी है अतः अन्य रूपो पुगल के साथ उसका बन्ध होगा---किन्तु जो अरूपी । अमूर्तिक ) जीवद्रव्य है उसके साथ कर्मादिरूप पुद्गल का बन्ध कभी नहीं हो सकता, इस तथ्यको भूलकर जीवका ( आरमाका )बन्ध मान लेना, फलमें रति अरति करना-यही विपरीत श्रद्धा 'बन्धतत्त्व' के प्रति समझना चाहिये। फलतः बन्ध यह पुद्गलकी पाय है इत्यादि समझाना ही सम्यग्दर्शन है, जोधकी पर्याय नहीं है किम्बहुना 1 बन्धके फल में हर्ष विषाद करना सुख दुःख मानना विपरीतता.
नोद-आस्रव और बन्धों क्या भेद है यह पहिले श्लोक नं०१२ की व्याख्या में बताया गया है।
५-संवरतत्व, रागादिक विकारी भावोंका न होना संवर कहलाता है तथा उसके निमित्त से नवीन कर्मोका न आना अर्थात् कक जाना भी संवर कहलाता है । भेद सिर्फ यह है कि पहिला ( मुख्य निश्चयरूप) भाव संवर है और दूसरा ( गौणरूप-व्यवहाररूप ) द्रव्यसंवर कहलाता है। इसके विषयमें विपरीत धारणा या बद्धा होना कि 'यह संवररूप पर्याय सब जीवको है, इसमें दूसरे ( पुद्गल ) का हिस्सा नहीं हैं इत्यादि विपरीतता है क्योंकि कथंचित् दोनोंका हिस्सा इसमें है। भाव या परिणाम ( विकाररूप ) नहीं होना अर्थात् वैराग्यरूप परिणामोंका होना, जीवकी पर्याय है और कार्माण द्रक्ष्यका च आना ( बन्द हो जाना ) पुद्गलकी पर्याय है. यह निर्धार है। ऐसा मानना ही सम्यक श्रद्धान व सम्यग्दर्शन है इत्यादि । आत्माके हितकारी वैराग्य और शान हैं उनको सुखदायक न मानकर दु:खदायक मानना संबर के प्रति विपरीत भावना है।
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पुरुषार्थसिद्धधुपाय ६-निर्जरातत्त्व, एक देश अर्थात् कुछ थोड़े, पूर्वबद्ध कमों का आत्मासे सम्बन्ध छूटना निर्जरा कहलाता है, वह द्रव्यानर्जरा है तथा विकारी भावोंका थोड़ा हटना या न होना भावन निर्जरा कहलाता है। परन्तु इसके विषयमें विपरीत धारणा या श्रद्धा होना निर्जरा तत्त्वमें विपरीतता है। जैसे कि यह निजरासन जोबकी ही है- ( मेरी है। पूदुगलकी नहीं है जबकि दोनोंकी है इत्यादि भूल है। अर्थात् चाह । अभिलाषा ) आदि विकारीभावोंको कमती न कर उन्हें बढ़ाना, निर्जराके प्रति विपरीत श्रद्धा है क्योंकि उनसे अधिक कर्मबन्ध होता है।
--मोक्षतत्त्व, संयोगोपर्वायका, जो कि जीव और पुद्गलका गठबन्धनरूप अनादिसे है, वियोग हो जाना मोक्ष कहलाता है अर्थात परस्परका घनिष्ट सम्बन्ध छुट जाना मोक्ष माना जाता है । इसके विषयमें विपरीत श्रद्धाका होगा कि मोक्षपर्याय अकेले जीव की ( मेरी ) ही है, मोक्षके समय सिर्फ जीव ही संसार-शरीर-भोगोंसे पृथक होता है किन्तु दुसरा कोई ( शरीरादि परद्रव्ये ) नहीं, यह विपरीत धारणा मोक्षके सम्बन्धमें है। क्योंकि जब दो चीजोंका संयोग है तब वियोग होनेपर क्या दोनों एक दूसर.... पुक् न होगी। यह प्रश्न होता है। तब कहना पड़ेगा कि बराबर दोनोंको पृथकता होती है इत्यादि। फलतः मोक्षपर्याय जीव पुद्गल दोनों की है जबतक कि संयोगीपर्याय में दोनों रहते हैं। वैसे तो द्रव्य हमेशा मुक्त । परसे भिन्न-तादात्म्यरहित ) है व रहती है, परन्तु उसकी यहाँ विवक्षा नहीं है इत्यादि । विकल्प न करना मोक्ष है, परन्तु विकल्पोंको मोक्षका कारण मानना विपरीतता है। आकुलता (दुःख) रूप है।
पूर्वोक्त प्रकारको विपरीत धारणा ( श्रद्धा ) संयोगीपर्यायमें होना ही सात तत्वोंमें विपरीत श्रद्धाका ( विचारधाराका ) होना कहलाता है। अतएव उसका मिटाना अनिवार्य है। सम्यग्ज्ञान पूर्वक सम्यक श्रद्धानके हर बिना जीवका उद्धार संसारसे कदापि नहीं हो सकता यह नियम है। फलतः सम्यग्दर्शन सभ्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रको प्राप्त करना ही पुरुषार्थकी सफलता कही गई है, शेष सफलताएँ मोक्षोपयोगी नहीं हैं अतः उनका कथन नहीं किया गया सार बात बतलाई गई है किम्बहूना ! सात तत्वोंकी विपरोनताका कथन व स्वरूप स्व० ५० दौलतरामजीने छहढालाकी द्वितीय ढाल में और स्व०५७ सोबरमलजो सा०ले मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रन्थके चतुर्थ अधिकारमें विस्तारसे कहा है सो समझ लेना। लिखनेका ढंग भिन्न २ प्रकारका है किन्तु भाव सबका प्रायः एक-सा है अस्तु ।
विपरीतभाष ( अभिनिवेश) जो जीव पुद्गलकी कर्मरूप पर्यायों ( आठ कर्मो) को तथा उनके उदयरूप निमित्तोंसे होनेवाले कार्यों ( फलों) को अपना मानते व सुखी-दुःखी होते हैं वे महामिथ्यादष्टि हैं जैसे कि नामकर्मके उदयसे होनेवाली गतियों ( नारक तिर्यंच मनुष्य देव पर्यायों) में तथा जालियों (एकेन्द्रियादि ) में, गोत्रकर्म के उदयसे होने वाले कुलों ( नीच ऊंच ) आदिमें अपनायत बुद्धिसे
१. अन्यमतावलंबियों (नैयायिकादिकों ) के द्वारा माने गये मोक्षके स्वरूप को मानना भी मोक्षके विषय में
विपरीत मान्यता कहलाती है।
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tarका लक्षण
अहंकार ममकार करना यह सब परसे एकत्र मानने रूप मिथ्यास्त्र हैं। असल में परद्रव्ये व faareera कोई आत्मा के नहीं हैं, आत्मा हमेशा टंकोस्कोर्ण ज्ञायक स्वभाव पुष्करपलाशखत् निर्लेप ( शुद्ध परसे भिन्न एकत्वविभक्त ) है, परन्तु भ्रमवश व एक आधार, एक काल में aftarai, विपरीत बुद्धि हो जाती है यह तात्पर्य है यही मूलमें भूल, संसार परिभ्रमण या पंचपरावर्तनका कारण है अतः उस मूलको निकालना सम्यक् पुरुषार्थं है, जीवनकी सफलता है अन्यथा जैसा मनुष्य जन्म पाया तैसा न पाया एक बराबर है किम्बहुना ।
सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेकी योग्यता क्या है ?
( कौन जोव सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर सकता है )
जो जीव चारों गतियों में से किसी एक गतिमें रहनेवाला हो, भव्य हो, संज्ञी ( मनसहित ) हो, विशुद्ध परिणामी ( मन्दकपायी ) हो, जगला हुआ हो ( बेहोश या अनुपयुक्त न हो ) अथवा स्त्रोन्मुख हो, विचारशील हो, पर्याप्तक हो (शक्ति सम्पन्न हो । ज्ञानी हो ( साकार उपयोगवाला हो ) निकट संसारी हो ( जिसका संसारमें रहनेका काल अधिक से अधिक अर्धपुद्गल परावर्तन मात्र रह गया हो। ऐसी योग्यता वाला हो, वही सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है। अर्थात् उसीमें योग्यता है दूसरे में नहीं है, यह नियम है अस्तु ।
मोक्ष प्राप्त होनेकी योग्यता क्या है ? ( अनेक कारणोंसे मोक्षको प्राप्ति होती है } पह
पद स्वभाव पूरे उदय, निश्चय उद्यम काल है पक्षपात मिध्याध्व नऊ, सर्वांगी शिव चाल ||
अर्थ - पद अर्थात् मुनिपदका होना स्वभाव अर्थात् सम्यग्दर्शनादिका होना, पूरब उदय अर्थात् कर्मों को निर्जा होना ( परका संयोग छूटना ) यथार्थ ( निश्चय ) पुरुषार्थका करना, ( अनुकूल वा साधक पुरुषार्थं करना ) काललब्धि ( उस कालकी प्राप्ति ) का होना, पक्षपातका छूटना (निर्विकल्पता होना या स्वभावलीनता रहना) मिध्यात्वका छूटना (विपरीत बुद्धिका हटना ) इन सब अनेक मुख्य कारणोंके प्राप्त हो जाने पर ही जीव मोक्षको प्राप्त कर सकता है अन्यथा नहीं यह नियम है। बस, यही मोक्ष प्राप्त होनेकी योग्यता है
।
इन्होंमें सब शुद्धियां अन्त
१. चदुर्गादिभव्य सणी सुविसुद्ध जग्गमाणपज्जतो ।
संसारतडे विडो गाणी पावे सम्मतं ॥ ३०७ ॥ स्वा. का. अनुप्रेक्षा । दुर्गादिभवणी पज्जतो सुज्झगो व सागारो ।
जागारी सल्लेसो सलोि सम्ममुवगमई । ६५२ ।। जीव. गोम्मटसार । दुर्गादिभिच्छो राणी पुण्णो गन्भज त्रिशुद्ध सागारों |
पढमुसगं स गिदि पंचमवरल चरिमहि ॥ २॥ लम्बिसार
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বুবলিরুবাই भूत हो जाती है किम्बहुना । यहाँ पर पूरव उदयका अर्थ निर्जरा समझना चाहिए कारण कि उदय रहते हुए मोक्ष नहीं होता या हो सकता यह तात्पर्य है अस्तु । मोक्षको प्राप्ति सवांगी या अनेकांगी होती है, एकांगी नहीं होती जैसा कि अन्य लोग एक-एक कारणसे मोक्ष मानते हैं। अकेले दर्शनसे या ज्ञानसे या चारित्रसे इत्यादि) । तदक्तम्---
सामग्री जनिका कार्यस्य नैकं कारणमिति ।
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द्वितीय अध्याय
भूमिका आचार्यदेव, संसारस्थ जीवोंमेंसे असाधक व साधक ( संसारी एवं मोक्षगामी) दो तरहके जीवोंकी छटनी करके मोक्षमागियों में भी अवती और व्रती तथा प्रतियोंमें भी एक देशवती ( श्रावकवती-विरताविरत ५ गुणस्थानबाले ) व सर्बदेशवती ( मुनिप्रती-विरत ६ गुणस्थानवाले } बताते हुए मुख्य साधक व्रती मुनियोंकी वृत्ति कैसी होती है? यह बताते हैं, अर्थात् उनकी वृत्ति लोकमें रहते हुए भी अलौकिक होती है उनके विरक्ति या निवृत्तिरूप वृत्ति मुख्य रहती है। यथा
उत्तम साधकको दशा अनुसैरता पदमेतत् करविताचारनित्यनिरभिमुखा । एकान्तविरतिरूपा भवति मुनीनामलौकिकी वृत्तिः ॥१६॥
पध जो धारसे है मिश्रपद, पर्याय संयोगी में सदा । सब काम करते हुए भी, नहिं रुचि रखते सर्वदा ॥ वृक्ति उन्हीं की दो सरह, होती प्रवृत्ति निवृत्तिमय ।
पर रुचि मुख्य निवृत्तिरूपा, अलौकिकता ग्रह हर समय 11१६|| अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ एसत्पदमनुसरताम् ] पूर्वोक्त पुरुषार्थसिद्धिके कारण भूत रत्नत्रयपद ( मोक्षमार्ग) को प्राप्त करनेवालोंमें-से, अर्थात् अविरत सम्पग्दष्टि, अणुवती । बतातो श्रावक ( महादती ( मुनिव्रती ) इन तीनों मोक्षमागियोंमें से [ मुनीनां वृत्तिः ] मुनियोंकी वृत्ति ( वर्ताव या अवस्था) [ करविताचारनित्यनिरभिमुखा एकान्सविरतिरूपा अलौकिकी मबति]
१. प्राप्त करने वाले। २. यह पूर्वोक्त मोक्षमार्गीपद ( स्थान )। ३. शिथिलाधार या मिथरागविरागरूप । ४. विरक्त अरुचिकारक । ५, सर्वया निवृत्तिरूप-पूर्ण वीतरागताके सन्मुख उद्यमरूप । ६. रागी जीहोरो भिन्न प्रकार, या आंशिक प्रतियों या चिन्तकों ( अतियों से भिन्न प्रकार ।
गुहल्यो मोक्षमार्गस्थो निर्मोही नैव मोहवान् । अनगारः गृही श्रेयान् निर्मोही मोहिनो मुनेः १५३॥ र, श्रा.
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पुरुषार्थसिद्धधुपाय व्रत अवतरूप चितकबरी या शिशिलाचाररूप ( रागविरागयुक्त ) अवस्था ( पाँचवे गुणस्थानवाली श्रावकब्रतकी दशा ) से निरन्तर विरक्त या अरुचि रूप ऐसी सर्वथा या पूर्ण वीतरागतारूप अनुपम या अलौकिक ( लौकिकजनोंसे भिन्न प्रकारकी होती है अर्थात् पूर्ण शुद्ध व निर्मल होती है ।।१६।।
भावार्थ--मोक्षमार्गी मूल में दो तरहके होते हैं (१) चिन्तक (२) साधन । चिन्तक अव्रती होते हैं, जो खाली तत्त्वोंकी श्रद्धा एवं विचारधारा रखते हैं जैसे चौथे गुणस्थानवाले सम्यग्दृष्टि जीव । साधक, मोक्षमार्गकी साधना करने वाले आणुनती व महायतो जीव । श्रावक व मुनि ) । परन्तु सामान्यतः मोक्षमार्गी ३ तीन तरह के होते हैं, (१ ) अव्रती (२) अणुव्रती (३) महानती, छिकिन सबमें मुख्य या श्रेष्ठ मुनिराज होते हैं यह यहां बताया गया है, मुनियोंका पद दर्जा या स्थान उच्च होता है। इसका मुख्य कारण यह है कि संयोगीपर्याय में रहते हुए प्रवृत्ति व निवृत्तिरूप ( ग्रहण भोजनादि स्वरूप तथा त्याग परिग्रहादि स्वरूप ) दोनों कार्य करते हैं परन्तु प्रवृत्तिरूप कार्यसे अत्यन्त विरक्त वा उदासीन रहते हैं हमेशा शुद्धताका आलम्बन लेते हैं, अशुद्धताका त्याग करते हैं अर्थात् रामको छोड़ते हैं --वैराग्यको धारण करते हैं, यही अलीफिकता उनके पाई जाती है। तथा मुनियोंका यही कर्त्तव्य भी है.---संसार, शरीर, भोगोंसे जुदा रहना।
जो श्रमण मुनि होकर भी इसके विपरीत आचरण या वृत्ति करते हैं वे महान् गलती व अपराध करते हैं। रागी द्वेषी मुनि कभी संसारसे पार नहीं हो सकता। चाहे वह राग प्रशस्त ( शुभ ) ही क्यों न होवे, वह बंधका ही कारण है मोक्षका कारण नहीं है। यद्यपि उस भूमिकाम वह होता जरूर है परन्तु साधु मुनि उसको इष्ट या उपादेय नहीं मानता, विगार या बलात्कार ही समझता है एवं उससे अरुचि रखता है, उसका स्वामी नहीं बनता इत्यादि । तब सच्चे मुनिको दुनियांके या गृहस्थरागियोंके कार्योमें पड़ना ही नहीं चाहिये । गको सो उसे कृतकारित अनुमोदना ६ मनवचनकायसे छोड़ ही देना चाहिये क्योंकि बह बिघस्प है। मोक्षमार्गकी साधना उनका मुख्य कर्तव्य है। झूठी प्रशंसा या बाहवाहमें आकर उनको बन्धकारक कार्य कदापि नहीं रखना चाहिये। लोकषणा या लोकस्याति सदा घर्जनीय है। इसीलिए प्रतिक्रमणादि करनेकी विधि शास्त्रों में कही गई है। उसमें मुख्यतः स्वामित्व छुड़ाया गया है-शुद्ध स्वरूपका अनुभव कराया गया है । अस्तु । इसका विचार हमेशा मुनि या त्यागीको करना चाहिये व अमल (कवि) में लाना चाहिये । यदि न कर सके तो उसपर श्रद्धा तो रखना ही चाहिये, जिससे सम्यग्दृष्टि बना रहे, मिश्यादृष्टि न हो जाय ( 'जं सक्कइ सं कीरइ' इत्यादि गाथा भावपाहुड़में लिखी है ) ।
अपराधके अनुसार दंड ( सजा ) मिलता है यह बताते हैं
संसारमें चार तरहके जोव होते हैं ( १ ) अज्ञानी ( मिथ्यादृष्टि । (२) ज्ञानी ( सम्यग्दष्टि अन्ती) ( ३ ) अणुव्रती ( देशवती) ( ४ ) महानती ( पूर्णन्नती)) १) अज्ञानी मिथ्या. दृष्टि सबसे बड़ा ( भयंकर ) अपराधी है क्योंकि वह परको अपना मानता है और उसमें अत्यधिक रागद्वेष भी करता है बेहद आसक्ति रखता है। फलस्वरूप उसको संसारको जेल में हो लम्बी करोड़ों
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सागर रहना पड़ता है ग्रह सजा मिलती है। (२) ज्ञानी सम्यग्दष्टि, उससे कम अपराधी होता हैं, क्योंकि वह पर वस्तुको अपनी तो नहीं मानता किन्तु उसमें राग कुछ करता है, जो अपराध है। उसका फल या दंतु उसको अर्धपुगल परावर्तन कालतक ( म्यादो ) संसार में रहनेका मिलता है, अधिक नहीं । (३अणुवतीको, परवस्तुमें राग कम होनेसे उसका दंड और थोड़ा मिलता है अर्थात वह निरतिदार अणुव्रत पाले तो संभवतः तीसरी पर्याय ( भव ) में ही वह संसार की जेलसे छूट सकता है। ४) महाबतीको, परमें पूर्णराग छूट जानेसे बहुधा वह उसी पर्यायसे मोक्ष जा सकता है, परन्तु यह सब अपराधोंके सर्वथा छूट जाने की बात है किम्बहुना । यह न्याय दृष्टि पर निर्भर है, कर्तव्य पालनेकी बदौलत फलका मिलना है इत्यादि ।
मुनिका लक्षण और कर्तव्य : लक्षण दो तरहका होता है ( १ ) अन्तरंग लक्षण ( आत्मभूत ) या निश्चय लक्षण और (२) बाह्य लक्षण ( अनात्मभूत ) या व्यबहार लक्षण, दूसरे शब्दोंमें भावलक्षण व द्रव्यलक्षण
इति । अर्थात् एकलक्षाः बारामानुयोगी पनि का होता है, जिससे मनिको बाहिर पहिचान होती ' है, उसका सम्बन्ध शरीरकी क्रियाओंसे रहता है। दूसरा लक्षण करणानुयोगको पद्धतिका होता है, जिसका सम्बन्ध आत्माके भावों (परिणामों ) से रहता है यह भेद दोनों में पाया जाता है। चरणानुयोगको पद्धतिसे मुनि या मोक्षमार्गी वह कहलाता है, जो २८ मूलगुण पालता हो अर्थात् ५ महाव्रत ५ समिति ५ इन्द्रियोंपर विजय ( वशीकरण ) ६ आवश्यक ७ शेषके गुण । जैसेवस्त्रत्याग करना ( दिगंबररूप नग्नवेष धारण करना ), केशलंच करना, याबज्जोवन स्नानका त्याग करना, दतौन नहीं करना, भूमिपर सोना बैटना, खड़े २ हाथ में आहार लेना, दिनमें एक बार अल्प शुद्ध आहार लेना ! इनसे प्रत ( प्रतिज्ञा ) की रक्षा होतो है अर्थात् ये बाह्य कर्तव्य निमित्त कारण हैं जो मुनिके लिये अनिवार्य हैं। इनके द्वारा मुनिकी पहिचान होती है। अन्तरंग लक्षण बाहर नहीं दिखते, वे कार्यानुमेय होते हैं अर्थात् जैसा अन्तरंग परिणाम ( शुद्ध या अशुद्ध ) होता है ( उपयोगी होता है ) उसके निमित्तसे वैसा ही योग (शरीरादिका व्यापार अर्थात कार्य होने लगता है जो नैमित्तिक है। उससे उन साधकोंके भावोंका पता ( परिचय ) लगा लिया जाता है कि वे कैसे हैं इत्यादि ।
मुनिके ६ छठवां गुणस्थान ( प्रमत्त नामका ) होता है, जिसका सम्बन्ध मुख्यतया भावोंसे है, कारण कि गुणस्थान वगैरह सब जीवके पांच 'भावोपर ही निर्भर रहते हैं ऐसा नियम है। ६ वें गुणस्थानवाले मुनिके भावोंकी अपेक्षासे प्रमादरूप भाव रहा करता है। प्रमादका अथं च्युत हो जाना होता है अर्थात् प्रतिज्ञाका भंगकर देना माना जाता है, जो कि तीव्र कषायके उदयमें होता है अर्थात् जब जोवके ( मुनिके ) द्रव्य कषायका तीग्ररूपसे उदय होता है और उसके परिणाम विचलित होते हैं अर्थात् शुद्धोपयोग ( वीतरागता ) में स्थिर म रहकर पंचमहावतादि धारण
१. औपमिकक्षायिको भावी मिथश्च जीवस्य स्वतत्त्रमौदयिकपरिणामिको उ ।। १ ।। अध्याय २
तः सू०।
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पुरुषाथसिद्धयुपाय करनेके ( शुभ रागरूप ) होते हैं तब वह प्रमादी कहा जाता है इसलिये कि उसने जो प्रारम्भमें दीक्षाचार्यसे अपने उपयोगको शुद्ध बीतरागतामें { अपने स्वरूपमें ) लगानेको प्रतिज्ञा की थी उससे वह ध्युत होकर शुभ रागमें लाने लगा है, बस यही प्रमाद व शिथिलाचार है। ( उस समय वह व्यवहार मोक्षमार्गमें लगा हुआ है ) बाह्य वेशमा यो प्राव रहता है। यही टाँका लगाना कहलाता है अर्थात जिस भाव (शद्धोपयोगरूपवीतराग भाष अथवा श्रामण्यरूप निष्पक्ष भाव या माध्यस्थ्य भाव ) से मुक्ति होती है, उसमें बड़ा लग गया होता है, जिससे मोक्ष जाने में विलम्ब हो जाता है-वह जबतक नहीं छूटता अर्थात् रागभाव हटकर बोतरामभाव नहीं होता तबतक वह संसार में रहता है मोक्ष नहीं जा सकता यह तात्पर्य है। अतएव प्रमादका छोडना मोक्षगामी को अनिवार्य है। उसके प्रत्याख्यानावरण कषायका अभाव (क्षयोपशम ) रहता है तथा संज्वलन कषायका तोवोदय रहता है। फलस्वरूप मुनिपना और महाव्रतपना तो उत्पन्न हो जाता है {बाह्य आरम्भ व परिग्रहका त्याग हो जानेसे ) किन्तु अन्तरङ्ग परिग्रह के सद्भाव (मौजूद ) रहने से मलोत्पन्न हुआ करता है। अर्थात् प्रमाद या अतिचार लगा करता है। इसीका नाम तभंग या व्रतमें छेद होना है। तभी तो ६ छठवें गुणस्थानवाला मुनि ध्यान ( वीतरामतारूप स्वरूपस्थिरता से च्युत होकर शास्त्र रचला, तीर्थ वन्दना, धर्मोपदेश, क्षेत्रविहार, भोजनार्थ चर्या, प्रायश्चित्त विधि आदि कार्य किया करता है, जो मोक्षमार्ग में बाधक हैं किन्तु शुभ रागवश या परोपकारार्थ धर्मानुराग होनेसे ( अन्य धर्मात्माओंको धर्ममें लगानेका करुणाभाव होनेसे ) वह विवश होकर.-..-भीतरसे हेय जानता हुआ भी बाहिर में वैसा करता है इत्यादि विराग व गरूप निश्चय व व्यवहाररत्नत्रयका एकत्र संगम ( एकाधिकरणवृत्ति ) पाया जाता है। इसीका नाम निश्चय और व्यवहारकी सन्धि है । अस्तु।
इस प्रकार चित्रलाचरण ( करविताचार) को हेय जानकर वह एकरूप शुद्ध वीतराग मार्गका ही अवलम्बन करने का प्रतिसमय प्रयत्न करता रहता है । प्रतिक्रमणादि किया करता है।
यह उसकी प्रमाद दशाको प्रतिक्रिया है। अतएव जबतक अन्तरंग परिग्रह ( १० वें सक ) रहेगा ....... तबसक पूर्ण वीतरामता प्राप्त न होगी न केवलज्ञानादि होंगे इत्यादि त्रुटि बनी रहेगी और मोक्ष
न होगा। ऐसी स्थिति में उस अन्तरङ्ग परिग्रह अथवा मोहकर्म के २१ भेदों को हटाने के लिए वह सातवें गुणस्थानमें पूर्ण तयारी कर आठवें गुणस्थानसे कार्यवाही शुरू ( प्रारम्भ ) कर देता है अर्थात् श्रेणी माड़ने लगता है। परिणामोंकी दशाके अनुसार कोई विशुद्ध परिणामी ( शुभोपयोगी ) उन शेष मोहकर्मको प्रकृतियोंको जड़से न निकालकर उन्हें दवा देता है-कुछ शक्ति हीन कछ. समयको कर देता है। उपशमरूप करता है और कोई शद्ध परिणामीलोपयोगी ) उन शेष मोहकमकी प्रकृतियोंको जड़से निकानकर क्षय या नष्ट कर देता है । फलस्वरूप जो आत्मशक्तिकी निर्मल या निखरी दशा ( वीतरामता) से कार्य । उपयोग ) लेता है (क्षपक श्रेणो माइता है ) वह उन विवक्षित कर्मप्रकृतियोंका क्षय करके विजय पा लेता है और थोड़े ही १. मिथ्यात्व, कोथ, मान, माया, लोभ ये पांच और हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद,
पुरुषवंद, नपुंसकवेद ये नो कुल मिलाकर १४ प्रकार होता है।
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भूमिका श्री समय में ३ घातिया कर्मोकी प्रकृतियोंका भी क्षय कर केवली सर्वज्ञ पीतरागी बन जाता है। और जो विशुद्ध या समल ( मलीन ) आत्मशक्तिका प्रयोग करता है (उपशम श्रेणी माड़ता है। वह उन कर्म प्रकृतियोंका क्षय नहीं कर सकने के कारण केवली सर्वज्ञ वीतरागो नहीं बन पाता व संसारमें बहुत समयतक निवास करता है । यह परिणामोंके भेदसे वणी चढ़ने में या प्रक्रिया ( साधना ) करने में व फल प्राप्त करने में भेद जानना । देखो ! मुनिमार्ग सरल नहीं है बड़ा कठिन है-लोहे के चना हैं, जिसको हर कोई प्राप्त नहीं कर सकता वह मोक्ष का मार्ग है- वीतराग परिणामरूप है, शुद्ध धर्म और चारित्ररूप है। उससे भिन जो सरागपरिणामरूप है, अशुद्ध धर्मरूप है, अचारित्र रूप है वह कभी मोक्षमार्ग नहीं हो सकता । अतएव शुभरागरूप चारित्रको शुभप्रवृत्तिको चारित्र कहना या मानना व्यवहार है, निश्चय नहीं है किम्बहुना | मुनिलिङ्ग या मुनिके स्वरूप वात्रत नीचे टिप्पणी में अन्य ग्रन्थोंका उद्धरण दिया गया है सो स्पष्ट समझ लेना । अस्तु ।
उपधि ( २४ चौबीस प्रकार प्ररिग्रह ) का त्याग करना उत्सर्गमार्ग मुनिका है उसीसे वह मोक्ष जा सकता है, मोक्ष जानेका वही एक ( अद्वितीय ) उपाय या साधन है, किन्तु यक्षिके अभाव में देशकाल आदिके अनुसार अरुचिपूर्वक कुछ परिग्रहको भी मुनि रखता है जैसे आहारादि करना पीछी कमण्डलु आदि लेना वसतिकाका आश्रय लेना, आदि २1 परन्तु वह अपवाद मार्ग है जो सदैव हेय है और उसमें भी प्रतिबन्ध है अर्थात् अपवाद मार्ग में भी जो लोकमर्यादा एवं चरणानुयोगकें विरुद्ध ( बदनामी करानेवाले ) कार्य हैं उन्हें वह नहीं कर सकता । अन्यथा वह जयदत्ती कह.. लायेगी। सभी रसोंका ग्रहण करना, सभी पर्वोंमें आहार लेना, द्रव्यकी याचना करना आदि अपवाद मार्गको दुषित ( कलंकित वदनाम ) करनेवाले हैं अतएव वे यथायोग्य हेय हैं। तात्पर्य यह कि अपवादमार्ग में सभी को छूट ( स्वतन्त्रता ) नहीं है । जैसे कि चौथे गुणस्थानवाला सागार ( गृहस्थसम्यग्दृष्टि ) यद्यपि अवती या असंयमी होता है, जिसके प्रसस्थावर जीवोंकी हिंसाका भी त्याग नहीं होता, न इन्द्रियसंयम वगैरह वह पालता है ( पंचेन्द्रियोंके विषयोंका सेवन करता है ) तथापि अप्रयोजनभूत ( प्रयोजन रहित ) सभी कामों के न करनेका प्रतिबन्ध (निषेध) उसके बराबर रहता है और उसका पालन उसके लिए अनिवार्य है, अन्यथा वह सम्यग्दृष्टि नहीं है ऐसा समझना चाहिए। उसी तरह व्रतो भी प्रतिबन्ध रहित स्वेच्छाचारी कभी नहीं हो सकता यह न्याय व सिद्धान्त है, इसको सदैव ध्यान में रखना चाहिए। उपधि । परिग्रह ) वाला जीव मूर्च्छाबानू, आरम्भवान्. असंजमी होता है ऐसा प्रवचनसार में खुलासा लिखा है किम्बहुना ।
१. भावो य पदमलिगं ण दव्वलिगं व जाण परमत्थं ।
भावी कारणभूदो गुणदोसाणं जिणा त्रिति ॥ २॥ भावपाहुड |
farararaaraat निरारम्भोपरिग्रहः, ज्ञानध्यानतपोरवतः तपस्वी स प्रशस्यते ॥१०॥ रत्नकरण्डा ॥ पूज्यपाद वैराग्यं तस्यविज्ञानं नैर्ग्रन्यं समचित्तता, परोषह्यचेति पंचते ध्यानहेतवः ॥
एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते ।
ततो मयं ज्ञातुर्न लिगं मोक्षकारणम् ॥ २३८ ॥ समयसारकलश | ज्ञान - आत्मा ।
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पुरुषार्थसिद्धथुपात्र
निश्चयरत्नत्रय और व्यवहाररत्नत्रय १...वीतरागता सहित स्वाचित अनुभवरूप ) सम्यग्दर्शनादित्रय-निश्चयरत्नत्रय कहलाता है जो दसवें गुणस्थान तक मुनियोंके आंशिक ( कुछ रहता है इसीलिए बे काचिन देशचारित्री कहलाते हैं पूर्ण या यावाल्यातचारित्रो नहीं कहलाते । और
२-प्रशस्त सासहित सभ्यग्दर्शनादित्रय–व्य प्रहाररत्नत्रय कहलाता है वह भी दश गुणस्थानतक आदिशक ( एक देश ) रहता है। सभी वह चित्रलाचरणी । रागविरागस्य मिन भाववाला ) कहलाता है। इस प्रकार निश्चय व्यवहारकी संधि (एकत्र सहावस्थिति ) रहती है कोई ... विरोध नहीं आता, परन्तु वह मिश्रपना मोक्षका मार्ग नहीं है। मोक्षका मार्ग खालिश (शुद्ध) वीतरामरत्नत्रय है, दूसरा नहीं ऐसा समझना चाहिए । फलतः मोक्षमार्ग दो नहीं हैं कथनरूप मोक्षमार्ग, अर्थात् फरक बताने के लिए शब्दों द्वारा अशुद्ध मोक्षमार्गका कयन करना ( शब्दरूप ) व्यवहार मोक्षमार्ग है क्योंकि शब्द जड और जड पराश्रित है अत: वह व्यवहार या उपचार है। मोक्षमार्ग स्वाचित है जो नेतनता रूप है और वही अनिर्वचनीय है, उसकी प्राप्ति हो जानेपर मोक्ष प्राप्त हो जाता है, उसमें कोई सन्देह नहीं है। चाहे उसका कथन किया जाय या नहीं, वह .बराबर जीवको मोक्ष पहुँचा देगा इत्यादि । निश्चय और व्यवहारका भेद समक्षना चाहिए। किम्बहुना । ज्ञान या चेतना मोक्षका मार्ग है जहतारूप नहीं है, यह सारांश है । अस्तु ।
न्यायपद्धति यह है कि असलीको पहिचान या भेद करनेके लिए, नकल का भी कथन किया जाता है किन्तु वह नकली-कली ही रहता है, अभीष्ट सिद्धि नहीं कर सकता व उसको आदर नहीं दिया जा सकता अर्थात् ब्रह मान्य नहीं होता। तदनुसार निश्चय ( सत्यभूतार्थ ) मोक्षमार्गका महत्व दिखलाने के लिए, यदि व्यवहार ( असस्य अभूतार्थ. ) मोक्षमार्ग का स्वरूप ( फरक बताने के लिए) बतलाया जाता है तो वह सत्यरूप नहीं हो जाता है, अपितु वह असल्म ही रहता है यह खुलासा है ।।१६।। उक्तञ्च।
धर्मप्रथत्तक दीक्षादायक मुनि { धर्माचार्य गुरु ) का कर्तव्य भारतीय सनातन शिष्ट परंपराके अनुसार धर्मोपदेशकों आचार्यों गुरुओं अर्थात् धर्मप्रवर्तकोंहितोपदेशकोंका यह कर्तव्य रहा है कि वे स्वयं धर्मात्मा (धर्म के नेता-प्रापक ) बनकर दूसरोंके लिए धमपिदेश देते रहे हैं, तभी सनका प्रभाव दूसरों पर पड़ला रहा है। जिसके उदाहरण---- तीर्थकर गणधर-आचार्य आदि हैं, जिन्होंने स्वयं मोक्षमार्गको प्राप्तकर दूसरोंको बताया है। दिव्य
१. एको गोशपथो म एए नियती दानियल्यात्मकः ।
तव स्थितिमति यस्तमनिश यायेच्च चेतसि ।। तस्मिमेव निरन्तरं विहरसिं प्रख्यात राज्यस्पशन् । सोऽवयं सम्यस्य सारमनिराजित्योदयं विन्दति ।।२४०। समयसारकलश।
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भूमिका ध्वनि द्वारा, ग्रन्थ रचना द्वारा, जबानी उपदेश द्वारा, इधर-उधर जाकर प्रचार द्वारा धर्मोपदेश दिया है । पश्चात् श्री कुन्दकुन्दाचार्य, धरसेनाचार्य, समन्तभद्राचार्य, उमास्वामी आचार्य, अमृतचन्द्राचार्य, पुष्पदन्त भूतवली आचार्य, पूज्यपादाचार्य, जिनसेनाचार्यगुणभद्राचार्य आदि कितने ही चोटीके विद्वान् धर्माचार्यों ने स्वयं उदाहरण बनकर लोकमें कार्य किया है। तदनुसार ( उसी परंपराके अनुकूल ) अमृतचन्द्राचार्य आमेको पड़ीके लिए सावधान कर रहे हैं ( स्मरण दिला रहे हैं । कि तुम सब आगे होनेवालोंका भी यही कर्तव्य है कि पूर्व परंपरा अनुसार पेश्तर शिष्यको उच्च वीतराग धर्मका ही उपदेश देकर परंपरा कायम रखना, उसमें शुटि कर अपराध न करना अन्यथा दण्डका पात्र होना पड़ेगा इत्यादि ।
आगे आचार्य दो इलोकोंके द्वारा उपदेश देनेका क्रम बतलाते हैं-- बहुशः समस्तविरतिं प्रदर्शितां यो न जातुं गृह्णाति । तस्यैकदेश विरतिः कथनीयानेन बीजेन ||१७|| यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः । तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ॥१८॥
पद्य
बार-बार समझाने पर जो, सकल त्याग नहिं कर सकता । इसीलिये आदेश उसे है.--एक देश व्रत घर सता || पर यह है अपवाद मार्ग, जो शक्तिहीन जम अपमाते । मिलता नहीं मोक्ष है उनको, व्यवहारी अन पनपाते ||१५|| . इस ही की पुष्टि में कहते-पहिले 'यती धर्म कहना'। नहीं अतामा 'गृही "धर्म को' जिससे दनीय होना ।। क्रमिक ३ भंग करने के काण, अपराधी बह होता है। सौर्य पाप सम उसको जानो, आज्ञा' लोप जु करता है. 11१४॥
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१. बारवार। २. सकलयाम ( महावत )। ३. यदि कदाचित् । ४. एकदेश त्याग ( अपत्याग )। ५, हेतु ( अगत्या )।
दण्डनीयपद (दण्डका पात्र) ७. आजा। ८, अणुव्रत ( वेशवत अल्पत्याग )
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अन्वय अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि [ यः ] जो शिष्य ( दीक्षार्थी उदासी ) [ बहुशः प्रदर्शित समस्त बार-बार विस्तार के साथ कहे गये या समझाये गये सकल त्याग व्रतको अर्थात् महाव्रतको (सुनि धर्मको ) [ कदाचित् ] किसी कारणवश खासकर अपनी शक्तिहीनता (कमजोरी ) के कारण [ न गृह्णाति ] नहीं ग्रहण कर सकता है ( हो ) [ वस्थ ] उस जैसे शक्तिहीन शिष्य को [ अनेन बीजेन ] इस कमजोरी के सबब ( हेतु से ) [ एकदेशविरशि: कथनीया ] एक देशव्रत ( अणुव्रत ) धारण करनेका उपदेश देना चाहिए या अणुव्रतकी ( श्रावक धर्मकी ) दीक्षा देना चाहिये, ऐसी आज्ञा है. यह क्रम या पूर्व शिष्ट परंपरा है ऐसा न्याय समझना ||१८||
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इस कथनको पुष्टिमें आगेका श्लोक लिखा गया है-( सम्बन्ध रखता है ) [य: अपमतिः ] जो कम बुद्धिका धारक दीक्षाचार्य ( गुरु ) यह गलती करता है कि पेश्तर [
श] उच्च यतिधर्म ( मोक्षका कारण सकलव्रत या महाव्रत ) को न कहकर अर्थात् धर्मका महत्वपूर्ण विवेचन या उपदेश न देकर गृहीधर्म अर्थात् श्रावक ( अणुव्रत ) का ही विवेचन करता है - महत्व दिखलाता है [ तरच भगवत् प्रवचने मिप्रहस्थानं प्रदर्शितम् ] उस कम बुद्धि दीक्षाचार्यका जैन शासनमें छोटा दर्जा अथवा दण्डके योग्य पद ( स्थान ) कहा गया है अर्थात् वह दण्डका पात्र है ऐसा बतलाया गया है। कारण कि वह स्वाधित अपराधी है, स्वयं गलती करनेवाला है, जिसका दण्ड ( प्रायश्चित् ) उसे अवश्य मिलता है या मिलना चाहिए । क्योंकि उसने जिनाज्ञा भंग करके चोरीका अपराध किया है, क्रम भंग किया है प्राचीन परंपराको तोड़ना जिनाशाको भंग करनेवाला महान् अपराधी होता है ||१८||
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भावार्थ - जैन शासन में जिनाशा पालनेका स्थान सर्वोपरि ( पहला ) है वह सच्चा जैन ( आज्ञा सम्यक्त्वी ) माना जाता है जो जिनाज्ञाकी अवहेलना नहीं करता वही सपूत है ( सम्यग्दृष्टि है ) जो प्राचीन शास्त्रीय परंपरा संस्कृति ) के अनुसार सदैव चलता है व भी चलाता है। इसके विपरीत जो चलता है - मनमाना बर्ताव करता है, प्राचीन ( संस्कृति ) की परवाह नहीं करता और उसको तोड़ता है तथा अन्य लोगोंको भी उसके तो, का उपदेश देता है, उन्हें प्रेरित करता है वह कुपूत ( मिथ्यादृष्टि ) है । पूर्ण ज्ञानी वीतरागीकी आज्ञा या उपदेशको नहीं मानना और रागद्वेषी कम बुद्धिवालोंकी आज्ञा मानना व महत्त्व देना महान मूर्खता व अज्ञान है, उनके समझकी कमी है अस्तु । इन्हीं सब सारभूत बातोंको लक्ष्यमें रखकर उपर्युक्त श्लोक बनाये गये हैं जिनमें स्पष्ट निर्भयता के साथ मुनियों-धर्मप्रवर्तक आचार्य के कर्तव्यका निर्देश किया है और कत्र्तव्यच्युत होनेपर भय ( भत्सना ) बतलाया गया है अर्थात् उनको
९. अपराध मार्ग ( दोषीक अवस्था ) 1
१०. पुष्ट करते या मानते या समर्थन करते ।
११. सुनिधर्म ( अनगार धर्म ) ।
१२. गृहस्थधर्म ( सागारधर्म ) |
१३. क्रमका उल्लंघन ( प्राचीन परंपराका खण्डन ) । १४. आशाका चुराना ।
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भूमिका कर्तव्यहीन व निन्दाका पात्र बतलाया गया है ताकि ( जिससे ) कोई विरुद्ध कार्य न करे, जैन परंपरा अक्षुण्ण ( निर्दोष ) चली जाय इत्यादि । फलतः दोक्षार्थी शिष्यको पेश्तर उच्च और मोक्षदायक धर्मका ही महत्त्व बताकर उपदेश देना चाहिए, क्योंकि वही असली धर्म या चारित्र है, पिससे जीव संसार से पार हो सकता है । परन्तु जब वह शिष्य सुन व समझ करके स्वयं अपनेको उसके योग्य न पाये ( रागादिसहित शक्तिहीन माने) तब वह दीक्षाचार्यको उस धर्म पालनेसे स्पष्ट इन्कार कर देवे कि महाराज अभी हम इतने ऊँचे धर्म ( यतिधर्म-महाव्रत) को नहीं पाल
. हमसे अभी निर्वाह होना असंभव है क्षमा करें और इससे छोटे धर्मकी हमें दीक्षा देखें इत्यादि । इसके विपरीत यदि उक्त क्रमको न जाननेवाला कोई नया अनुभवशून्य दीक्षाचार्य, पेशतर ही कदम श्रावधर्मका निरूपण व महत्त्व बताकर शिष्यको परीक्षा किये बिना हो। श्रावकधर्मकी दीक्षा दे देबे तो वह दण्डका पात्र अवश्य हो जाता है क्योंकि उस अनभिशने शास्त्रोंकी आज्ञा या परंपरा भंग की है अतः वह चौर्य कर्मका अपराधी सिद्ध होता है। यह विचार किया जाय । दीक्षाचार्य बनमा सरल काम नहीं है, बड़ो भारी जिम्मेवारी उसके कपर है यह ध्यान रहे। यह स्वाश्रित अपराधका नमूना है। अस्तु । स्वयं गलती करना तथा दूसरोंको गलत उपदेश देना महापाप है किम्बहुना । व्रत या मोक्षमार्गके विषयमें हमेशा सावधानी व विवेकशीलताको आवश्यकता है, अन्यथा पूर्वापरका विचार किये बिना कषायवश या अज्ञानतावश तीव्र अपराध होता है इत्यादि ।।१७-१८।।
आगेके इलोकसे और भी पराश्रित अपराधका खुलासा किया जाता है अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽपि' दरमपि शिष्यः । अपदेऽपि संप्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ।।१९।।
पद्य जो उत्साह बहुत सबसा है...-धर्म दीक्षा लेने में । उसको अकम कथनी करके, लुभा देस है थोड़े में । ऐसा दक्षिाचार्य दण्ड का पात्र होत है जिनमत में ।
वचित करता नकली देकर असल धर्म के बदले में ॥५॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ अतिदुरमान प्रोत्सहमान : शिष्यः ] अत्यन्त (बहुत भारी) उत्साह रखनेवाला शिष्य ( दीक्षार्थी ) [ यतः ] जबकि [ अक्रमकथनेन ) आचार्य द्वारा बिना क्रमके यद्वातद्वा कथन करनेसे अर्थात् मुनिधर्मका कथन पेत्तर करना चाहिए था परन्तु वह न करके पेश्तर श्रावकधर्म ( गृहिधर्म ) का कथन किया, जिससे कि वह शिष्य | अपदेऽपि संप्रतृप्तः ] होनपद (श्राक्क्रपद ) में ही सन्तुष्ट हो गया अत: फलस्वरूप [तेन दुर्मतिना प्रतारितो भथति ] वह उत्साही शिष्य, उस दुर्बुद्धि या अल्पबुद्धि ( अज्ञानी ) दीक्षाचार्य ( गुख ) द्वारा ठगा जाता है--मुनिधर्मसे १. अलि पाय ठीक बैठता है।
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पुरुषार्थसिद्धघुमान वंचित किया जाता है। अतः यह पराश्रित अपराध भी उसके ऊपर आता है अर्थात् उस आचार्यको लगता है ऐसा दुहरा अपराध ( स्वाश्रित व पराश्रित ) का भागी वह अज्ञानी गुरु होता है यह खुलासा है । गलती या भूलका फल सभीको मिलता है चाहे वह छोटा हो या बड़ा हो। लेकिन समझदारसे यदि छोटी भी गलती होती है तो वह बड़ी समझी जाती है और मूर्खसे यदि बड़ो भी गलती हो तो वह छोटो समझी जातो है ऐसा लोकका न्याय है जो गलत है। शास्त्रीय न्याय इसके विरुद्ध होता है, जो अभिप्राय पर निर्भर रहता है अन्य क्रिया आदि पर निर्भर नहीं रहता ऐसा समझकर परिणाम ( भाव) हमेशा शुद्ध रखना चाहिए। यहाँ तक श्रमण संस्कृतिको मुख्यता बरलाई गई। आगे यथावसर और अधिक बताया जायगा यहाँ । तो प्रसंगवश प्रकाश डाला गया है किम्बहुना |१९||
श्रावकको धर्मको आवश्यक्ता ( रत्नत्रयरूप ) आचार्य कहते हैं कि यद्यपि मुनिधर्म मुख्य है और थावकधर्म गौण है तथापि मोक्षका मार्ग दोनों हैं । अतएव वायकको श्रावकधर्मके पालनेका उपदेश दिया जाता है। उसको संतोषपूर्वक धारण करना चाहिए यह सामान्य कथन है----
एवं सम्यग्दर्शनबोधचरित्रत्रयात्मको नित्यम् । तस्यापि मोक्षमार्गो भवति निषेव्यो यथाशक्ति ॥२०॥
पध मोक्षमार्ग है निविधरूप, म्बबहाने से पहिचानी । घह ही एक रूप होता है, निश्चयनयसे तुम जानी ।। पूर्ण अपूर्ण भेद दो होते, यथाशकि धारे बुधजन । एकदेश म सकलदेश, ""चारिन-धर्म कहते गुरुजन ॥२०॥
अथवा हो गुरु इतमा धिवेकी जो, पात्र अपात्र समझ सके । अरु मोक्षमार्ग यथार्थ क्या है, ज्ञापना भी कर सके ।
१. श्रावक (गृहस्थ) २. योग्यतानुसार एकदेश ( अणुव्रत ) अर्थात् अल्प वीतरागतारूप धर्म (चारित्र ) सकल वेश ( महाव्रत) ३. नय। ४. पंडित-दुद्धिमान् । ५. चारित्र बनाम धर्म । ६. आचार्य आदि। ७. बता सके...दूसरोंको उपदेवा द्वारा समझा सके।
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फिर शिष्य का कर्तव्य यह है, आत्मशक्कि विचार के ।
खुद मोक्षमार्ग संभालना, ना पंचना' में आय के ॥२०॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ एवं ] पूर्वोक्त प्रकार [ सम्यग्दर्शनरोधचरित्रवारमको मोक्षमार्ग: ] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तीन भेदरूप मोक्षका मार्ग है [तस्थापि यथाशक्ति नित्यं निषेव्यो भवति ] सो श्रावकको भी अपनी शक्ति के अनुसार उसका निरन्तर सेवन करना चाहिए अर्थात् शक्तिके अनुसार एकदेशरूप मोक्षमार्ग भी प्राप्तव्य है, उसे नहीं छोड़ना चाहिएअमृत जितना मिल सके ले लेना चाहिए, इसी में बुद्धिमानी है सिर्फ थोड़ा संतोषकी जरूरत है।।२०।।
भावार्थ- साधारण रूपसे, मोक्षमार्ग, निश्चय और व्यवहार ( अभेद व भेद ) के भेदसे दो प्रकार कहा गया है, जो कारण कार्यकी अपेक्षासे सत्य है ( स्वभावरूप या सत् है ) परन्तु यह व्यवस्था अभिन्न प्रदेशोंकी ही है, भिन्न प्रदेशोंकी नहीं है, जैसी कि बिना समझे अज्ञानीजन कहा . करते हैं व मानते हैं। सदनुसार सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र ये तीनों आत्माके स्वभाव हैं और अभिन्न प्रदेशी हैं, एकात्माके प्रदेशों में ही व्याप्त रहते हैं, अतएव वे मोक्षके कारण ( मार्ग) अवश्य हैं, किन्तु जबतक साधक या मुमुद जीवकी उनमें भेवदृष्टि रहती है अर्थात् उसके ज्ञानमें ( उपयोगमें ) विकल्प रहता है अथवा उपयोग निर्विकल्प या स्वस्थ नहीं होता तबतक संवर व निर्जरा नहीं होती अपितु आस्रव व बन्च होता है, जिससे मोक्षका होना असंभव है। मोक्षका कारण उपयोगशुद्धि और योगशुद्धि है । अर्थात् उपयोग और योगकी अशुद्धता संसारका कारण है और उन्हींकी शुद्धता मोक्षका कारण है यह भेद है वास्तविकता है। फलतः सम्यग्दर्शनादिके विषयमें भेद या विकल्प होना व्यवहार दशा है और विकल्प नहीं होना निर्विकल्प दशा है ( समाधि व ध्यान है-एकाग्रता है--सामाधक हैं ) उसीसे मोक्ष होता है किम्बहूना । विकल्पका कारण रागद्वेषादि विकारी भाव हैं अतः उनके रहते आत्म-कल्याण कदापि नहीं हो सकता यह भाव है । अस्तु। व्यवहार नयकी दृष्टिसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रके अनेक भेद बताये गये हैं परन्तु निश्चमकी दृष्टि से सबमें अभेद है--विकल्प या प्रदेश भेद नहीं है।
प्रतादिक धारण करनेकी कचि या अभिलाषा होना यह शुभोपयोग या धर्मानुराग है, जिससे पुण्यबन्ध होता है मोक्ष नहीं होता यह शुद्ध कथनी है किन्तु उक्त भाव कब होते हैं जब जीवका उपयोग निज स्वरूप में स्थिर । एकाग्र नहीं रहता याने शद्धोपयोगसे च्यत होता है। इस च्यत होनेका नाम ही छेद है अर्थात् शुद्धोपयोगमें छेद हो जाता है । अखण्डमें खण्ड हो जाता है) जो एक अपराध है। कारण कि वह छेदका होना अर्थात् हिंसाका होना है-स्वभाव भावका घात है, जिसका फल बन्धको सजाका मिलना है यह न्याय ( निर्णय ) है। ऐसी स्थितिमें प्रतिज्ञा भ्रष्ट होना अर्थात् प्रतिज्ञामें छेद करना, सम्यग्दृष्टि विरागीके लिए कभी इष्ट ( उपादेय ) नहीं होता उसका प्रयत्न हमेशा प्रतिज्ञापर दृढ़ रहने का ही रहता है। यदि कहीं उसकी प्रतिज्ञा पर आँच आती है तो उसको असह्य विषाद ( दुःख ) होता है और तत्काल वह उसे हटानेका प्रयास करता
१. ठगोरी बातोंमें आकर।
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पुरुषार्थ सिधुपाय है इत्यादि । यद्यपि चरणानुयोग या लोकपद्धतिसे ( व्यवहार दृष्टिसे ) ऐसा रूपक है कि गुरु शिष्यका उपकार करे, और शिष्य गुरुकी आज्ञाका पालन करे, अर्थात् एक दूसरे पर जिम्मेवारी आती है, जो उचित है वैसा करना ही चाहिए। किन्तु मिश्चयनयसे अपनी-अपनी जिम्मेवारी अलग-अलग है, स्वयं ही समझदारीसे हेय उपादेयका ख्याल रखते हुए कार्य करना चाहिए। दूसरे पर छोट देने से एनं स्वर्ग पानी कागदी बन जानेसे कार्य सिद्ध नहीं होता उल्टा ठगाया जाता है ऐसा समझना चाहिए।
निश्चयनयसे मोक्षमार्ग एक और एकरूप (वीतरागतारूप) ही है। जिसका कथन व्यवहारियोंने सरामरूपसे किया है और निश्चयनयावलम्बियोंने बीतरागरूपसे किया है अर्थात् एक ही वस्तुका दो तरह से वर्णन किया है अतः वर्णन ( कथन ) दो तरह का है । वस्तु दो तरह की नहीं है यह सारांश है । इसका खुलासा अन्यत्र किया गया है देख लेना अस्तु ॥२०॥
नोट-श्रावकधर्मके भेद व उनका स्वरूप आगे प्रकरण ३७ वें श्लोक से लगाय विस्तारके साथ किया गया है ( चारित्राधिकारमें तथा १२ बारह व्रतों से श्वावकको ११ ग्यारह प्रतिमाएँ ( कक्षाएं ) बनती हैं, उनका कथन भी इलोक नं० १७४ में किया गया है सो देख लेना । श्रावकको प्रतिमाओंका धारण करना अनिवार्य रहता है। व्रताचरण की नाव नहींसे डलती है, उसे मेष्ठिक थावक कहते हैं।
आचार्य कहते हैं कि मोक्षमार्गी ( मुमुक्षु ) का कर्तव्य है कि वह सीन भेदरूप मोक्षमार्ग से पहिले सम्यग्दर्शन की आराधना { प्राप्ति ) करे क्योंकि वह मूल है ।
तत्रादौ सम्यक्तं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन । तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च ॥२१॥
पद्य
सम्यक्त्वको प्राप्तव्य जानो मूल भावक धर्मका । जिस प्राप्त होते उदय होता काम अरु चारित्रका इस माँसि क्रम है मार्गका जो 'भोक्षमार्ग' विख्यात है।
कर हस्तगत उसको प्रथम ही गुणी शिवपुर जाम है ॥२१॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [सत्र ] तीन भेदरूप मोक्षमार्ग मेसे [ आदौ अनिलबस्नेन । सम्यक्रवं समुपाश्रयणीयम् ] सबसे पहिले हर तरह प्रयत्न करके सम्यग्दर्शनको प्राप्त करना चाहिए, ( श्रावकका यह कर्तव्य है ) [ यतः ] क्योंकि [तस्मिन् सवि एष ज्ञान परिभवति इस सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेपर अवश्य ही सम्यग्ज्ञान व सम्यकचारित्र प्रकट होता है अर्थात कान और चारित्र दोनों सम्यक्पदवीको प्राप्त कर लेते हैं, यह सारांश है ॥२१॥ ..
भावार्थ- सम्यग्दर्शन मोक्षमार्गकी पहली सीड़ी है, उसके विना ज्ञान और चारित्र सम्यक् नहीं होते किन्तु मिथ्या ही रहते हैं और जब सम्मादर्शन प्राप्त हो जाता है तब वही शाम व
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सम्यग्दर्शन चारित्र जो उस समय मिथ्याज्ञान मिथ्याचारित्रके रूप में रहता है, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्रके रूपमें परिणत हो जाता है अर्थात उनका नाम व भाव (विशेषण ) बदल जाता है. यह विशेषता उत्पन्न हो जाती है। इसलिए सबसे पहिले उस सम्यग्दर्शनको ही मोक्षमार्गी भव्यात्माको प्राप्त करना चाहिये । तभी उसका पुरुषार्थ सफलः समझा जाता है ( समझा जायगा)। फलतः मोक्षमार्गका वही मूल है, उसके बिना सद निष्फल है ( साध्यके साधक नहीं है । और यह नियम है कि जिसको एक बार भी सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है यह नियम से अर्धपुद्गल परावर्तन कालके भीतर मोक्ष चला जाता है आगे वह संसारमें नहीं रह सकता । सम्यादर्शनका लक्षण आचार्य श्री स्वयं आगे बतानेवाले हैं । २२ में ।। अतएव यहां बताना व्यर्थ है । यहाँपर तो उसको प्राथमिकता और आवश्यकता मात्र बतलाई गई है किम्बहूना ।
इस श्लोकमें 'यलेन' इस पद विशेषके रखने का क्या महत्त्व है ? यह विचारणीय है। साधारणतः हर एक कार्य यत्स्व या पुरुषार्थ पूर्वक तो होते ही हैं..कोई नई बात नहीं है फिर 'यत्नेन' यह पद लिखनेकी क्या विशेषता है, सो बताते हैं। बत्नका अर्थ या प्रयोजन यह है कि कोई जीवनको सफल बनाना चाहता है तो उसको चाहिए कि वह मोक्षके कारणभत 'सम्यग्दर्शन'को पहिले प्राप्त करे और जिस तरहसे भी हो प्राप्त करे चाहे उसके पोछे वर्तमान पर्यायको भी छोड़ना पड़े तो भी निर्मोह होकर छोड़ देवे। इसका तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शनका मूल्य सबसे अधिक है, कारण कि उसी प्रा हो जाने सारी बार जनमरगाए जाती हैं। लेकिन उसकी प्राप्तिका यही एक उपाय है कि वह मुमुक्षु भन्यजीव पेश्तर अपनी पर्याय बुद्धि ( संयोगी पर्यायमें एकत्त्व बुद्धि व राग द्वेषादिभाव ) छोड़ देवे, जो अनादिकाल से हो रही है तथा अपने शुद्ध ज्ञायक
उपयोगको लगावे अर्थात पर्यायष्टि छोड़कर द्रव्यदुष्टि करे अथवा अशुद्धष्टि छोडकर शुद्धदष्टि करे, तभी पूरुषार्थकी सफलता है। यह पुरुषार्थ जीबने अभीतक नहीं किया है जो सम्यक् पुरुषार्थ है और जिससे संसार छूटकर मोक्षकी प्राप्ति होना है। अतएव यत्न पद द्वारा उसीपर जोर दिया गया है। यद्यपि बस्तुका परिणमन स्वतन्त्र है, वह किसीके अधीन नहीं है-- उसके लिये निमित्सकी आवश्यकता नहीं होती वह अपने आप होता रहता है तथापि व्यवहारमयसे उसको पुरुषार्थ (निमित्त ) के अधीन कहा जाता व माना जाता है, उसी दष्टिसे यहां यत्नको मुख्य बतलाया गया है। तथा हमेशा एक-सा उपयोग नहीं रहता बदलता रहता है, अतएव पर्याय
की दृष्टि होनेपर इस प्रकारकी रागबुद्धि ( कवाय या कर्मधारा) स्वयं प्रकट होती है कि हम · ऐसा पुरुषार्थ करें (निमित्त मिलावें । और उसी प्रकार योगोंकी प्रवृत्ति भी वह करने लगता है " इत्यादि परन्तु धद्धा में परिवर्तन नहीं होता यह नियम है।
. जब सम्यग्दर्शनको प्राप्त करनेको बुद्धि जीव (आत्मा) को हो तब समझना चाहिये कि अब इसका भला (कल्याण ) होने वाला है और उसकी सूचना उस जीवको स्वयं शुद्ध स्वसंवेदन द्वारा मिल जाती है, जिसे मानस प्रत्यक्ष या स्वानुभव कहते हैं, और उसका आलम्बन एकमात्र आत्मा ही रहता है। पश्चात् उसका संस्कार पड़ जानेसे बारम्बार स्मरण होकर उसीकी ओर उपयोग जाता रहता है, जिससे वह एकदम भूल नहीं जाप्ता । फलतः सच्चा प्रकाश सम्यग्दर्शनके
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पुरुषार्थसिद्धपाय
प्राप्त होनेपर ही आत्मामें होता है, जिससे अनादिकालीन मिध्यान्धकार नष्ट हो जाता है व सही २ दिखने लगता है उसकी बदोलत सुमार्ग पर चलनेसे अभीष्ट स्थानकी प्राप्ति हो जाती है अतएव सबसे बड़ा प्रथम उपकारी सम्यग्दर्शन ही है ऐसा निश्चय कर लेना चाहिये | अस्तु ||२१||
सम्यग्दर्शन पहिला अधिकार
आचार्य निश्चय और व्यवहार दो नयोंकी अपेक्षा से सम्यग्दर्शनका स्वरूप बताते हैंजीवाजीवादीनां तच्चार्थानां सदैव कर्त्तव्यम् ।
श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ||२२||
पद्म
विपरीतता से रहित जो श्रद्वान है जीवादि का सम्यक्त्व उसीका नाम है जो रूप हैं व्यवहार का ॥
यवहार हैं इसलिए कि सम्बन्ध है पका । निश्चय उसे कहना जहाँ, सम्बन्ध हो निजश्वका ॥ २२ ॥
अन्वय अर्थ --- [ जीवाजीवादीनां सवार्थानि ] जीव अजीव आदि सात तत्त्वोंका जो [ विपरीताभिनिवेश विश्रितं श्रद्धानं ] विपरीत ( मिथ्या ) अभिप्राय ( धारणा-मत्सव्य ) से रहित श्रद्धान किया जाता है वह व्यवहार सम्यग्दर्शन कहलाता है, कारण कि वह पराश्रित है अर्थात् मोक्षमार्गोपयोगी जीवादि सात तत्वोंके श्रद्धानरूप है तथा [ यत् आत्मरूप ] जो सिर्फ परद्रव्योंसे भिन्न एक अपनी (निज ) आत्माका श्रद्धान है वह निश्चय सम्यग्दर्शन है, । [ तत् सदैव व्यम् ] सो वह श्रद्धान सदैव करना चाहिए अर्थात् वह अनिवार्य है क्योंकि उसके बिना आत्मकल्याण नहीं हो सकता ऐसा आचार्यदेव' कहते हैं ||२२||
भावार्थ — निश्चय सम्यग्दर्शन में मिथ्या अभिप्रायसे रहित सिर्फ एकस्व विभक्तरूप (परसे free a अपने गुणोंसे अभिन्न ) अपनी आत्मा श्रद्धानकी मुख्यता रहती है जो स्वाश्रित कहलाती है | और व्यवहार सम्यग्दर्शनमें मिथ्या अभिप्रायसे रहित पर द्रव्यों ( सात तत्त्वों ) श्रद्धानको मुख्यता रहती है जो पराश्रित है, यह खास मैत्र समझना चाहिए। यद्यपि दोनों तरहकी श्रद्धा में प्रदेशभेद आत्मामें नही पाया जाता है-एक आत्मामें हो सभी तरह की श्रद्धाएँ रहती हैं, अतएव मेद नहीं मानना चाहिए अर्थात् निश्चय सम्यग्दर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शनमें भेद मानना व्यर्थ हैं ऐसी आशंका हो सकती है ? तथापि विकल्परूप श्रद्धा होनेसे भेद
१. एक नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः । पूर्णाननस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् ॥
सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा व तावानयं ।
तमुक्त्वा नवतरवसन्ततिमिमात्मायमेकोऽस्तु नः ॥ ६ ॥ समयसारकलश |
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সুহাল अवश्य माना जाता है व मानना चाहिए । अर्थात् निश्चय श्रद्धामें कोई विकल्प नहीं होता और व्यवहारश्रद्धा में विकल्प होता है जो व्यवहारका रूप है । ऐसा होनेपर भी दोनों प्रकारके सम्म ग्दर्शनोंमें सम्यकथद्धा ( विपरीताभिनिवेशरहित ) होनेसे दोनों कथंचित् प्रामाणिक या मोक्षके मार्ग समझे जाते हैं--प्रद्धामें विपरीतता न होनेसे । यदि कहीं श्रद्धामें विपरीतता हो जाय तो निःसन्देह मोक्षमार्गता नष्ट हो जाय । जैसे लिपीके श्रद्धा विपरीतता होनेसे वह व्यवहारनयसे भो मोक्षमार्गी नहीं माना जा सकता। इत्यादि
विशेषार्थ -यद्यपि यह पूरा लक्षण (विपरीताभिनिवेशरहित तत्वार्थ श्रद्धान ) निश्चयसम्यग्दर्शनका है, तथापि कारणमें कार्यका अरोप होनेसे व्यवहार या उपचाररूप भी है, यह विशेषता है । इसके सिवाय जबतक सात तत्त्वोंका श्रद्धान विपरीत अभिनिवेश ( श्रद्धान ) से रहित न हो, तबतक मुख्यरूप कारणके सद्भावमें अकेले तत्वार्थश्रद्धानको सम्यग्दर्शन मानना या कहना भी सरासर उपचार या व्यवहार समझना चाहिए। सारांश यह कि 'सम्यग्दर्शन रूप कार्य, तत्त्वार्थश्रद्धानरूप मुख्य कारण, तथा विपरीत श्रद्धानसे रहित नियमरूप ( अविनाभावो ) कारण, के सद्भावमें ही होता है अन्यथा नहीं । तब विपरीत अभिप्राय ( श्रद्धान ) रहित तस्वार्थ श्रद्धानमात्रको हो, जो कारणरूप है-उपचारसे या उमेद शिक्षा सम्म (बार्ग, मान लेना व्यवहार नहीं तो और क्या है ? विचार किया जाय !
नोट--विपरीताभिनिवेश रहितका अर्थ है, अगृहीत मिथ्यास्त्रका छूटना।
श्रद्धाभेद न होनेसे ही ४ चार भेद बताये गये हैं ( विपरीत श्रद्धा नहीं होती ) अर्थात् सम्यग्दर्शनके अनेक तरहसे शास्त्रोंमें भेद बताये गये हैं जैसे कि सर्वार्थ सिद्धि टोकामें उपशमक्षयोपशम-क्षायिक' तीन भेद बतलाये गये हैं, षट्खण्डागममें भी ये ही ३ तीनों भेद बतलाये गये हैं, राजवातिक, श्लोकवातिक सभी में इनका उल्लेख है तथा आत्मानुशासनमें १० भेद बसलाये गये हैं ( आज्ञासम्यक्त्वादि ) नाटक समयसार भाषाछन्दोबद्धमें ९ भेद बसलाये गये हैं। सराग वीतराग भेद तो सर्वत्र कहे गये हैं। इसके सिवाय निम्न ४ चार भेद भी बतलाये गये हैं। अस्तु । इन सबमें मलकारण तो एक है और वह 'विपरीताभिनिवेशरहित है अर्थात् विपरीताभिनिवेश ( मिथ्या भाव या धनान ) नष्ट हुए बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता अतः विपरीताभिनिवेशका क्षय ( अभाव ) होना ही चाहिए यह अनिवार्य है सो वह सभी सरहके सम्यग्दर्शनों में चाहे वह निश्चय सम्यग्दर्शन हो या व्यवहार सम्यग्दर्शन हो, रहना जरूरी है, उसमें विवाद ( मतभेद ) नहीं हो सकता यह ध्रुव है। सिर्फ प्रयोजन भेद बतानेके लिए ४ चार भेद, चार तरह के माने गये हैं सो समझना चाहिए।
१. क्षायिक सम्यग्दर्शन, कर्मभूमिया मनुष्यणी अर्थात् द्रव्य स्त्री मनुष्यके भी होता है पर्याप्तक दशामें, इसमें
सन्देह नहीं करना । जोधकाण्ड गोम्मटसारकी गाथा नं० ७०४ तथा आगे ७१२ आदिमें भी देख लेना . संस्कृत्त टीका एवं पं० टोडरमल्लजी कुत भाषा-दीका खुलासा लिखा है। लेखक ।
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প্ৰকাৰিয়াৰ सम्यग्दर्शनके चार भेद और उनका पृथक् २ प्रयोजन ( १ ) तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । जोवाजीवादिक सात सत्त्वों ( पदार्थों ) को यथार्थ (सम्यक् ) विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धा करनेको सम्यग्दर्शन कहते हैं, ऐसा स्थविर आचार्य उमास्वामि महाराज अपने तत्वार्थसूत्र ग्रन्थमें नं० २ अध्याय में कहते हैं। इसका प्रयोजन सिर्फ इतना है कि अन्यवादियोंके द्वारा माने गये तस्योंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन नहीं कहलाता, कारण कि उनमें यथार्थता नहीं पायी जाती ये सब एकान्त द्वारा कल्पित किये गये हैं, उनका खण्डम हो जाता है। युक्ति आगम प्रमाणसे उनकी सिद्धि नहीं होती, अतएव वे निराधार सिद्ध होते हैं, जैसे कि सांख्य मतवालोंके २५ तत्त्व, नैयायिक मतवालोंके १६ तत्त्व, चार्वाक मतवालोंके ५ तत्व इत्यादि । फलत: जनमतावलम्बियों के द्वारा अनेकान्त ( स्याद्वाद-कथंचित् कथन ) न्याय ( दुष्टि ) से जो मोक्षमार्गोपयोगी जीव अजीब आदि सात तत्त्व सिद्ध किये गये हैं, उनका श्रद्धान करना ही 'सम्यग्दर्शन' हैद हो सकता है.---अन्यका श्रद्धान करना सम्बग्दर्शन नहीं हो सकता। इस प्रकार अन्यको व्यावृत्ति करना मात्र, उक्त सूत्र द्वारा सम्यग्दर्शनका लक्षण बतानेका प्रयोजन { उद्देश्य है ऐसा सम्मान :
(२) सच्चे देव मुरु शास्त्रकी श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है। यह प्रण भी पृथक् प्रयोजन रखता है ! अर्थात् देवगुरु शास्त्रकी परीक्षा करके जो सिद्ध हो ऐसे सच्चे ( वीतराग सर्वश ) देवकी तथा उन्हींके द्वारा कहे गये सच्चे शास्त्रोंको तथा उन्हीके अनुयायी ( शिष्य ) सच्चे तपस्वियोंको . श्रद्धा प्रतौति भक्ति आदि करनेको 'सम्यग्दर्शन' कहते हैं किन्तु उनसे भिन्न ( विपरीत ) जो कुदेव ( रागो द्वेषी अल्पज्ञ ) हैं, उन्हींके द्वारा बनाये गये जो रागादिपोषक शास्त्र ( कुशास्त्र ) हैं तथा उन्हीके अनुयायी जो पाखण्डो तपस्वी ( कूगुरु ) हैं, उनकी श्रद्धा भक्ति स्तुति करना सम्यग्दर्शन नहीं है। ऐसा उनसे भेद करने के लिए या उनके प्रति सेवाभाव या प्रवृत्ति हटाने के लिए उक्त लक्षण बताया गया है । यह पृथक् प्रयोजन है परसे व्यावृत्ति लक्ष्य है।
(३) स्वपरका भेद ज्ञान करना सम्यग्दर्शन है । अर्थात् आत्मा ( जोच ) क्या है और पर { शरीरादि ) क्या है ? ऐसा पृथत २ समीचीन ( सम्यक् ) ज्ञान व श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है। जबतक प्रत्येक पदार्थकी भिन्नताका यथार्थ ज्ञान श्रद्धान न हो तबतक सम्यग्दर्शन हो ही नहीं सकता। पदार्थको स्वतन्त्रताका ज्ञान होना अनिवार्य है, आत्माकी स्वाधीनताका जानना जरूरी है। इसका मुख्य प्रयोजन यह है कि जब यह प्रतीति हो जायगी कि मेरा आत्मा सब परसे भिन्न है तब स्वयं वह परमें रागद्वेषादि विभीव भाव नहीं करेगा, उनसे विराग हो जायगा, जिससे उसका भला होगा, भूल मिटेगी जो कर्तव्य है एवं लक्ष्यभूत है, अर्थात् वही जीव प्रतिज्ञाका निर्वाह ( पालन ) कर सकेगा इत्यादि, परसे ममत्त्वका छुड़ाना इसका प्रयोजन है । अस्तु
४) आत्मश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । अर्थात् अपनी आत्माका जो कि एकत्व विभक्तरूप है, सम्पक श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। इसका प्रयोजन सिर्फ अपना ही बल सरोसा करनेसे मोक्ष
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सम्यग्दशन
होता है, परके बल-भरोसेपर मोक्ष नहीं होता। अतएव सदैव स्वावलम्बन करना चाहिये, यह बताना है। परावलम्बन छोड़ना और स्वावलम्बन करना ही उचित व हितकर है, यह सारांश है । जबतक संयोगो पर्याय में परका आलम्बन व ग्रहण त्याग रहता है तबतक जीव संसार से पार नहीं होता, उसो की चपेट में या धर-पकड़ में जाय उलझा रहता है यह नियम है, Eिर भी समाइसे काम लेनेपर वह संसारसे पार होता है कोई असंभव बात नहीं है इसलिए आगे शंका समाधान किया जाता है समझ लेना।
नोट-उपर्युक्त सभी सम्यग्दर्शनोंमें मूल बात विपरीताभिनिवेश रहित पना होना अनिवार्य हैं ध्यान रहे। सम्यग्दर्शन हो जानेका परिचय ( शान ) कैसे होता है ? इसका उत्तर निम्न प्रकार है।
सम्यक्त्वं तत्वतः सूक्ष्मं केवलज्ञानगोचरम् ।
गौनरं स्थावधिस्वाम्सपीय ज्ञानयोद्वयोः ॥ २७.५॥ पञ्चास्थायी असरार्ध अर्थ--सम्यग्दर्शन आत्माका अत्यन्त सूक्ष्म गुण है अतएव उसका परिचय ( निश्चय या ज्ञान ) प्रत्यक्षरूपसे पूरा तो केवलज्ञानके द्वारा होता है तथा अपुर्णरूपसे या थोड़ा २ प्रत्यक्ष ( देश प्रत्यक्ष ) अवधि ( सर्वावधि-परमावधि ) ज्ञान एवं मनःपर्यय झानसे भी होता है। इसके सिवाय उसका परोक्ष ज्ञान, मतिथ त ज्ञानसे भी होता है ऐसा समाधान समझना चाहिए । अर्थात् उसकी जानकारीका होना असम्भव नहीं है किन्तु येन केन प्रकारेण सभी जीवों को हो सकती है किन्हींको प्रत्यक्षरूपसे व किन्हींको परीक्षरूपसे ( अनुमानादिद्वारा ) लेकिन प्रत्यक्षरूपसे, मतियुक्त ज्ञान व देशावधिज्ञान द्वारा उसका परिचय नहीं हो सकता यह नियम है किम्बहुना । . हमारा { जीयका ) आत्म कल्याण कैसे हो?
इस प्रश्नका उत्तर {१) संक्षेपमें उन प्रश्नका उत्तर एक ही है और वह 'सम्यग्दर्शन'को प्राप्त करना है. व मिथ्यात्वको छोडना है। यही एक अद्वितीय और सर्वोत्कृष्ट उपाय (मुख्य) है। दूसरा उपाय, चारित्रको धारण करना या परिग्रह तथा कपायको छोडना गौंण है-- मुख्य नहीं है । कारण कि संसारकी मुख्य जड़ : नीव रूप) मिथ्यात्व हो है उसोके होने पर कषायभाव व परिग्रह धारण करना होता है. ये सब उसीकी डाली पते हैं। मिथ्यात्वको बदौलत ही गति आदि सब प्राप्त हुआ करती हैं। और मिथ्यात्वके छूट जानेपर एवं सम्यग्दर्शनकै प्राप्त होनेपर क्रमशः अधिकसे अधिक अर्धपुद्गल परावर्तनकालमें सभी तरहका संसार छूट जाता है और सदा स्थायी मोक्ष प्रात हो जाता है किन्तु मिथ्यात्वका अंश भी रहते संसार नहीं छूटता न जन्म, मरण, रोग, शोक आधिव्याधि दुःख ही छूटते हैं न आकुलता छूटती हैं न परिग्रह च कषाय छूटती है तब निरन्तर जोर दुःखी हो रहता है किम्बहुना । इसीलिए आचार्य प्रवर स्थविर श्री कुन्दकुन्द महाराजने स्वविरचित द्वादशानुप्रेक्षामें एक ही मुख्य उपाय आत्मकल्याणका बताया ( कहा ) है यथा-- . .
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पुरुषार्थसिद्धयुपाय दसणमट्टा भट्टा ईसमस स्थि णिवाणं ।
सिझस्ति धरियमा समक्ष सिज्झस्ति ॥१५॥ एकस्वानुप्रेक्षा संस्कृताया--दशनपटा भ्रष्टाः दर्शनभदस्य नास्ति निर्माणम् ।
सिध्यन्ति चास्त्रिना दर्शनभ्रष्टा न सिध्यन्ति ॥ १५॥ अर्थ-जो जोत्र सम्यग्दरेट अनि रहित हैं, जिनको सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता या होकर छूट जाता है, वे मिथ्यात्वके रहते हुए मोक्ष नहीं जाते न जा सकते हैं, तथा वे ही महाभ्रष्ट संसारमार्गी कहलाते हैं । ऐसा समझना चाहिए कि मिथ्यादृष्टि ही महाभ्रष्ट हैं-मोक्ष मार्गसे च्युत या महापातकी हैं । अतएव आत्मकल्याण के लिए 'सम्यग्दर्शन'को प्राप्त करना आद्य के मुख्य है-वही एक उपाय है। इसके विरुद्ध चारित्रको आत्मकल्याणका मुख्य उपाय मानना भ्रमपूर्ण है. इसलिए कि जो जीव सम्यग्दर्शन सहित होते हैं वे कदाचित् चारित्र । अन्तरंग बहिरंग या निश्चय व्यवहार ) से भ्रष्ट भी हो जायें तो भी वे शुद्धि करके (छेदोपस्थान करके } मोक्षको जा सकते हैं किन्तु सम्यग्दर्शन रहित जो जीव हैं के चारित्र सहित होनेपर भी ( द्रश्यलिंगी जैसे मुनि ) मोक्ष नहीं जा सकते, यह अकाट्य नियम है। सारांश-सम्यग्दर्शन ही आत्मकल्याणका मुख्य उपाय हैचारित्र व कषायका त्याग----परिग्रहका त्याग मुख्य उपाय नहीं है यतः बह पशुओं तककै पाया जाता है, परन्तु वे मोक्ष नहीं जाते, सम्यग्दर्शनकी कमी होने से यह भाव है।'
नोट---सम्यग्दष्टि ही अन्य सब विकल्पोंको छोड़कर अपने झायक स्वभाव आत्मामें ही उपयोगको लगाता है उसीका आलम्बन लेकर आत्मकल्याण कर सकता है अन्य कोई जीव नहीं ऐसा समझना चाहिये और वही यथार्थ व्यवहार चारित्र धारण कर सकता है इत्यादि। तब यहाँ प्रश्न होता है कि क्या चारित्रका महत्त्व कम है ? वह धारण नहीं करना चाहिये।
- इसका सयुक्तिक समाधान (२.) चारित्रका महत्व कमती नहीं है न उसके धारण करनेका निषेध है किन्तु बह सम्यग्दर्शनके साथ हो तो उसका महत्त्व है और वह धारण करने योग्य भी है क्योंकि उसासे लक्ष्य ( मोक्ष सुख ) की सिद्धि हो सकती है अन्यथा नहीं यह नियम है । चारित्र धर्म है और उसका
SPARENCE
H
१, उक्तब्ध--
न सम्यक्त्वसमं किञ्चिकाल्ये त्रिजगत्यपि ।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्त्वसमं नान्यत्तनुभृताम् ११३४१ रन था. समन्तभद्राचार्य ।। अर्थ-तीन लोक और तीन काल में सम्यग्दर्शनके समान दुसरा कोई पदार्थ, आरमा { जीब) का कल्याण करने वाला नहीं है वह अद्वितीय व अनुपम है। अतएव उसीकी प्राप्ति व सेवा करना चाहिए । और मिथ्यात के समान कोई दूसरा पदार्थ, क्षात्माका अकल्याण ( अहित या बुरा ) करनेवाला नहीं है अतएव जीचोंको साहिये कि उसको छोष्ट देखें इत्यादि ॥३४॥
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सम्यग्दर्शन
मूल कारण सम्यग्दर्शन है। फलतः सम्यग्दर्शन के सद्भाव ( मौजूदगी ) में ही ज्ञान व चारित्र पूजनीय ( आदरणीय ) होता है अर्थात् सम्यग्दर्शन के होनेपर ही वह ज्ञान व चारित्र सम्यक् ( सत्य सही ) कहलाता है, और मोक्षका मार्ग बनता है यह विशेषता उनमें आ जाती है । अन्यथा वे संसारका ही मार्ग रहते हैं । अतएव मूल व मुख्य सम्यग्दर्शन ही सिद्ध होता है । निश्चय और व्यवहार दो तरहका चारित्र होता है। निश्चय चारित्र तो निश्चय सम्यग्दर्शन के साथ ही आंशिक होता है जो मुक्तिका कारण है । किन्तु व्यवहार चारित्र जो शुभराग रूप होता है, गिरती अवस्थाका है जो पोछे होता है । अर्थात् जब जीन शुद्धोपयोग ( वीतरागता ) से च्युत होता है अर्थात् हटता है तब वह शुभ लगता है अर्थात् व्रत संयमादि धारण करने में लगता है, सो उससे पुण्यका बन्ध ही होता है निर्जरा नही होती, जिससे यह संसार में तबतक रुका ही रहता है- युक्त नहीं होता 1 अतएव वह भी हेय माना गया हैं, जिसको अज्ञानी जोव उपादेय समझते हैं। लेकिन अपवाद मार्गके समय ( शक्ति हीनता के समय ! उसको अवश्य ही धारण कारना चाहिये, जिससे अशुभ में उपयोग न चला जाय, यह ध्यान रखना चाहिए व शंका मिटा देना चाहिये । वह भी कञ्चित् महत्त्वको चीज है- सर्वथा उपेक्षणीय नहीं है अपेक्षणीय है। चारित्रके प्रकरणमें ( ३७ में इसपर विस्तारसे प्रकाश डाला जायगा इत्यादि । सम्यग्दर्शनका आनुषंगिक या अविनाभावी सम्यक्चारित्र माना गया है । कोई भी सम्यग्दृष्टि ऐसा न मिलेगा जिसको सम्यक्चारित्र न हुआ हो व मोक्ष न गया हो ऐसा यथार्थ समझना चाहिये । अस्तु सम्यग्दर्शनादि तीनों रत्नत्रयरूप धर्म माने गये हैं जो परस्पर सम्बंद्ध रहते हैं। इसके सिवाय -
सम्यग्दर्शनके दूसरी तरहले भेव
(१) निसर्गजभेद, ( २ ) अधिगमज, मेद अथवा सराग व वीतरागभेद ।
(१) (क) जो सम्यग्दर्शन, विना किसीके उपदेशसे स्वतः ही विपरीत अभिप्रायसे रहित प्रकट हो, उसको निसर्गज या स्वभावज कहते है । इसमें मुख्यता, निमित्तकी नहीं होती और खासकर उपदेश या शिक्षाको आवश्यकता नहीं रहती । जैसे मेड़िया, शेर वगेरह पशुओं में क्रूरता शूरता स्वतः जन्मजात होती है, पक्षियों में उड़ना ( आकाशमें गमन करना ) आदि स्वभावतः होता है, कोई उन्हें सिखाता नहीं है। इसी तरह निसगंज सम्यग्दर्शन समझना, यह लो आत्माका गुण है अतः वह कभी भी विकसित हो सकता है, कोई आश्चर्य नहीं है । यद्यपि अन्तरंग (दर्शनसोहका उपशमादि ) और बहिरंग ( जिनबिम्बदर्शनादि ) निमित्त उस समय रहते हैं तथापि उनसे वह नहीं होता इत्यादि, किन्तु स्वकीय योग्यता ( उपादान) से ही वह होता है यह खुलासा है ।
I
(२) (ख) जो सम्यग्दर्शन, दूसरेके उपदेश या शिक्षाको मुख्यतासे उत्पन्न होता है उसको अधिगमन सम्यग्दर्शन कहते हैं ] इसोका नाम देशना सम्यक्त्व है, अथवा आज्ञा सम्यक्त्व हैं। इसमें परके उपदेश आविकी मुख्यता रहती है खुदकी जानकारीकी मुख्यता नहीं रहती । ऐसा जीव, केवल इतना ज्ञान व श्रद्धान रखता है कि 'जिनेन्द्र भगवान्का कहा हुआ सभी सत्य
१. उक्तव - सणमूको श्रम्मो व चारितं खलु धम्मो इत्यदि ।
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7
पुरुषार्थलिश्रूयुपाय
है---प्रमाणिक है' इत्यादि । अतः श्रद्धामात्र से वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है। अर्थात् एक श्रद्धान, स्वयं जानकर करना, और एक श्रद्धान, विना स्वयं जाने, आज्ञा मात्रसे करना, इनमें भेद है ! लेकिन सामान्यतः श्रद्धानकी अपेक्षा दोनों ही सम्यग्दृष्टि हैं। इसी आधार पर निसगंज व अधि गज दो भेद किये गये है । 'पुरुषप्रामाण्यात् वचनप्रामाण्य' ऐसा न्याय है अस्तु । पुरुष में प्रमाणता परीक्षापूर्वक विरोध रहित वचन ( कथन या उपदेश ) से ही होती है अतएव बढ़ भी आवश्यक है-करना चाहिये इत्यादि । किन्तु विपरीत अभिप्राय ( मिथ्यात्व ) से रहित होना सर्वश्र अनिवार्य है | निसर्गजका अर्थ, स्वयंबुद्ध, और अगिमका अर्थ बोधितबुद्ध, भी होता है किम्बहुना -..
५.२
सराग व वीतराग भेव
( ग ) रागके साथ जो सम्यदर्शन रहता है अर्थात् जो राग से उत्पन्न नहीं होता, किन्तु वीतराग से उत्पन्न होता है, परन्तु उसके साथ २ राग रहता है, उसको साग सम्यग्दर्शन कहते हैं। फिर भी श्रद्धानमें अन्तर नहीं रहता, अतएव वह मोक्षका मार्ग | उपाय ) माना जाता है । अन्तर सिर्फ देरीसे मोक्ष जानेका है, अर्थात् वह जबतक सराम सम्यग्दृष्टिको वीतरागता प्राप्त न होगी तबतक संसारमें ही रहेगा मोक्ष न जायगा इत्यादि ।
घ) रागके साथ जो सम्यग्दर्शन नहीं रहता रागको छोड़ देता है विरागके साथ रहता है, उसको वीतराग सम्यग्दर्शन कहते हैं वह जल्दी से जल्दी जोवको मोक्ष पहुँचा देता है यह भेद है।
सम्यग्दर्शन प्राप्त न होनेकी योग्यता ( सामग्री ) ( पंचल विधयोंका स्वरूप )
सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेके लिये पाँच लब्धियां (प्राप्तियाँ ) बतलाई गई हैं, जिनके प्राप्त होने पर सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है । उनके नाम १-क्षयोपशम २ - विशुद्धि, ३ – देशना, ४ --- प्रायोग्य, ५- करण इति ।
( १ ) 'क्षयोपशमला - ज्ञानावरणादि कमका विशेष क्षयोपशम होना, जिससे तत्त्वविचार किया जा सके अर्थात् तस्वविचारके योग्य बुद्धिविशेषका उत्पन्न होना, जो संज्ञी पंचेन्द्रिय हो सकता है, नीचेवाले जीवोंके नहीं हो सकता यह नियम हैं। ऐसी योग्यता प्राप्त हो जाना क्षयोपशमलब्धि है ।
१.
अपका अर्थ ----यसमानकाल में उदय आनेवाले सर्वघाती स्पर्धकों का उदयमें न आना ( रुक जाना ) तथा आगे उदयमें आनेवाले सर्वधात्री स्पर्धकोंके निषेकका उपशमरूप हो जाना, उदयमें नहीं जाना तथा शेष वर्तमान में सभी स्पर्धकोंका क्षय हो जाना क्षय अवस्था
देशात का उदयमें मौजूद रहना, दब जाना, उपशम अवस्था कहलाती है। कहलाती है, जो कर्माकी है अस्तु ।
क्षयोपशमा कहलाती है। वर्तमान में सभी पर्वों का
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सम्यग्दर्शन
२.विशुद्धिलब्धि-मोहका अर्थात मिथ्यात्व आदि प्रकृतिका मन्द उदय होनेसे मन्दकपायरूप परिणामोंका होना, विशुद्धिलब्धि कहलाती है जहाँ तत्व विचारका भाव ( रुचि हो सकता है अथवा सामान्यतया 'मोहनीकम' का मन्द उदय होना लिया जा सकता है।
. (१) देशनालब्धि-देवगुम आदिका उपदेश मिलना अथवा उसको धारणाका होना, देशनालब्धि कहलाती है। वह साक्षात् मिलता है व पूर्वका संस्कार रहता है। जो समय पर काम आता है।
(४) प्रायोग्यलब्धि-विशेष योग्यताकी प्राप्ति होना, प्रायोग्यलब्धि कहलाती है। जैसे कि...पूर्वबद्ध कर्मोकी स्थिति घटकर. अन्त: कोडाकाडा सागर के बराबर जायक करोडको एक करोड़ से गणित करना, कोडाकोड़ी कहलाता है, उससे कम हो स्थिति रह जाय, तथा बंधनेवाले कर्मों की स्थिति-अन्तः काडाकोड़ीके मंख्यासवें भाग बराबर कम होती जाय, अधिक न पड़े ) अर्थात उस समय से लगाकर आगे २ स्थिति घटती हो जावे, जबतक सम्यग्दर्शन प्राप्त न हो, और सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जानेके बाद भी वही क्रम जारी रहे। इसके सिताय प्रायोग्य लब्धि में कितनी हो पाप प्रकृतियोंका नया बंध होना भी मिट जाय । प्रकृतिबंधापसरण )। ऐसी अवस्थाका प्राप्त हो जाना ही प्रायोग्यलब्धि कहलाती है। इसीको काललब्धिके नामसे भी कहा जाता है। उसके अनेक भेद, सर्वार्थसिद्धि में बतलाये गये हैं देख लेना। ३४ प्रकृतिबंधापसरण होते हैं ऐसा लब्धिसारमें लिखा है किम्बहना ।
तब प्रश्न होता है कि क्या स्थितिका घटना सम्यग्दृष्टि प्राप्त होनेके पहले हो ( मिथ्यात्त्व के काल में ) होने लगता है कि सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाने के बाद (पश्चात् ) होता है ? क्योंकि पंचलब्धियोंका काल तो मिथ्यात्वका काल है ।
इस प्रश्नका उत्तर निम्न प्रकार हैं---
(पहिलेसे ही होने लगता है) सम्मत्तहिमुहमिछो विसोहिधीहि चन्द्रमाणो हु।
अंतोकोडाकोडिं सतण्डं बंधणं कुणई ॥ ९ ॥ लब्धिसार । अर्थ :--'जो जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेके सन्मख होता है अर्थात् है तो मिथ्याष्टि किन्तु सम्यग्दर्शनकी प्रागभाव दशामें अवस्थित है, वह परिणामोंको विशुद्धता बढ़नेके सबब { प्रति समय निर्मलता या मन्दता बढ़ती जाती है ) आयु कर्मको छोड़कर बाकी ७ सात कर्मोका बंध, अंतः कोडाकोड़ी सागरको स्थितिचाला द्वितीयादि समयोंमें अर्थात् आमे २ पल्यके संख्यातवें भाग स्थिति घटाला हुआ करता है और ऐसा करता हुआ अन्तमुहर्त मात्र तकको स्थिति अन्तमें कर देता है। यह प्रायोग्यलब्धिका फल या माहात्म्य है, इसमें परिणामोंको मुख्यता है ।
यह पहिला क्रम { प्रक्रिया ) स्थितिबंधको कम करनेका है। इसीका दूसरा नाम (१) पहिला स्थितिबंधापसरण है। परन्तु इसमें यह विशेषता है कि जब कोई सम्यक्रवके सन्मुख मिथ्या- ...
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पुरुषार्थसिपा
दृष्टि जीव ७ सात सौ या ८ आठ सौ सागर प्रमाण ( उतनी वार) प्रारंभ जैसा क्रम पूरा करले अर्थात् स्थितिबंधासरण पूरे करले सब कहीं एक प्रकृतिबंधासरण होता है अर्थात् एक प्रकृति का बंध होना मिट जाता है अर्थात् बंध नहीं होता । और उक्त क्रम ( चारा या शृंखला ) के अनुसार ही पेश्वर स्थितिबंधासरण करते हुए ३४ चौंतोस प्रकृतिबंधासरण करता है, प्रायोग्यलब्धि कालमें हो ऐसा नियम है ।
१४
यह प्रायोग्य
कब होती है ?
1
जब सयसम्मुख मिध्यादृष्टि परिणाम मध्यम दरजेके होते हैं । अर्थात् जब न तो क्षपक श्रेणी चढ़नेवाले की तरह ऊँने दरजेके विशुद्ध परिणाम हो जिससे नवीन की स्थिति सर्व जघन्य पड़ रही हो तथा पूर्वबद्ध कर्मोकी स्थिति, अनुभाग प्रदेशसत्त्व, भी अति जघन्य (सूक्ष्म) न रह गया हो। इसी तरह तीव्र संक्लेश परिणामवाले संज्ञो पंचेन्द्रिय जीवकी तरह, aata ant उत्कृष्ट स्थिति न पड़ रही हो, और पूर्वबद्ध कर्मोकी स्थिति अनुभाग- प्रदेश उत्कृष्ट नहीं होना चाहिये। ऐसी मध्यम योग्यतावाले परिणामको ही 'प्रायोग्यलब्धि' कहते हैं तभी वह होती है । गाथा नं० ७८ लब्धिसार । यह सब सम्यग्दर्शन प्राप्त होने को सामग्री है | यह वार २ मिल जाती है, परन्तु सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता । क्योंकि विना करrefo ( ५ वीं ) प्राप्त हुए, सम्यग्दर्शन नहीं होता यह नियम है। और करणलब्धिरूप परिणामों के होने पर उसे कोई रोक नहीं सकता : नियमसे वह हो जाता है । तथाहि आगे कहा जाता है
भी
( ५ ) करणलब्धिकारणका अर्थ परिणाम हैं। अतः सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेके योग्य परिणामोंका प्रकट होना, करणलब्धि कहलाती है । वे परिणाम जब ऊँचे दरजेके विशुद्ध होते हैं, जो अनुपम और अपूर्व हों, जिनका मिलान न पीछेवालोंसे हो न आगेवालोंसे हो अर्थात् पहिले करणaf माँहनेवाले और पीछे करणलब्धि मांडनेवाले सभी सदृश जीवोंसे जब सदृश या विसदृश परिणाम हों तथा सम समग्रवाले अर्थात् साथ २ करणलब्धिवाले जीवोंके परिणाम सदृश या समान हों अथवा उनमें भेद न हो सके, तब सम्यक्त्वके वासक कर्मों ( ७ या ५ प्रकृतियों का उपशम क्षयोपशम या क्षय होता है और सम्यग्दर्शन प्रकट हो जाता है यह नियम है ।
वे परिणाम तीन तरह होते है ( १ ) अधःकरण ( २ ) अपूर्वकरण ( ३ ) अनिवृत्तिकरण । अधःकरण में नीचे-ऊँचे वालोंके परिणाम समान मिलते हैं । अपूर्वकरणवालोंके परिणाम कभी एकसे नहीं मिलते | अनिवृत्तिकरण वालों के परिणाम समान ( एकसे ) ही होते हैं-भिन्न प्रकार नहीं होते यह तात्पर्य है । यही पांचवीं लब्धि सर्वोत्कृष्ट है जिससे साध्यकी सिद्धि होती है । शेष चार लब्धियाँ अनन्तवार होती व छूट जाती हैं, परन्तु मिथ्यात्व नहीं छूटता इति ।
fnengष्ट दो तरह के होते है ( १ ) साबि मिथ्यादृष्टि ( २ ) अनादिमिध्यादृष्टि । सादि मिथ्यादृष्टि उनको कहते हैं, जिनको एक बार सम्यग्दर्शन प्राप्त होकर छूट जाय और मिथ्यादर्शन पुनः प्राप्त हो जाय । यदि वह थोड़े ही काल रहे तो उसका बाह्य आवरण नहीं बदलता और यदि afe समय रहे तो बदल जाता है। उसका उत् संसारमें रहनेका कुछ कम अगल
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सम्यग्दशन
परावर्तन मात्र है ( अधिककी म्याद नहीं है) उतभेमें योग्यता प्राप्त कर कभी भी मोक्ष जा सकता है। इस तरह बार-बार सम्यग्दर्शन प्राप्त होकर बार २ छूटनेपर अर्धपुद्गल परावर्तनकालमेंसे धरती होता ही जायगा ऐसा समझना चाहिए। पुरा अर्धपुदगल परावर्तनकाल, पहली बार सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेवाले सम्यग्दष्टि जीवके माना जाता है, सभीके नहीं यह तात्पर्य है। जनन्यकाल मध्यम अन्तर्मुहूर्तका है।
नोट-अन्त: कोड़ाकोड़ी सागरको स्थिति प्रायोग्य लब्धिसे लेकर सम्बग्दर्शन प्राप्त हो जानेतक होती है अर्थात् आगे भी होती है और पीछे भी होती है कोई एक नियम नहीं है । लेकिन कारणकार्यभाय करण लब्धिके साथ ही सम्यग्दर्शनका है अन्यके साथ नहीं यह तात्पर्य है इति ।
सभ्यग्दर्शनका महत्व ( निष्कर्ष ) आ संसारत एवं धावसि परं, कुर्वेऽहमिन्युक्लर्कद्वारं ननु मोहिनामिह महाहकाररूपं समः ॥ सद्भतार्थपरिग्रहेण विलयं अधेशवार बजेत ।
सरिक ज्ञानधनस्य बन्धनमहो भूयो भवेदारमन:?:५५।। समयसारकलश । करणलब्धिके द्वारा किस प्रकार मिथ्यात्व द्रव्य नष्ट होता है ? इसका प्रदर्शन किया जाता है।
('निमित्त कत्तुं त्वको अपेक्षा चर्चा है ) जिस भव्य योग्यता सम्पन्न जीवको सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेवाला होता है, उसके पांचवीं करणलब्धि (योग्यपरिणामोंकी प्राप्ति होती है अर्थात जिन विशेष परिणामोंके निमित्तसे मिथ्यावद्रव्य हटकर सम्यग्दर्शन प्राप्त होना है वे सर्वोत्कृष्ट नम्बर ३ के 'अनिवृत्तिकरण' नामके अतिनिर्मल परिणाम उत्पन्न होते हैं। उनके निमित्तसे, क्रमशः ७ सात आवश्यक कार्य पूर्व में होते हुए---आठवा कार्य अन्तरकरण (दुर करना या यहाँ वहाँ हटाना ) और नवमां कार्य, उपशम करना रूप किया जाता है या होता है। तब उदयकालमें मिथ्यात्व द्रव्यके निषेक मौजूद न १. किमन्तरकरणणाम ? विपनिलय कम्माणं हेनिमोवरिमट्टिदीओ मोत्तम मन्दो अन्तोमुटुसमेताम् । द्विधौणं परिणामक्सिसेण णिसेगाणामभावीकरणमंतकरणमिदि भण्णदे ।।
जयधवल अ० १० ९५३ अर्थ : विवक्षित कमों के निषेक, जो आगे समत्रोंमें उदयमें आवेंगे तथा पिछले समयोंमें उदयमें आ चुके हैं,
उनको छोड़कर वर्तमान कालमें जो उदयमें आने योग्य हो, उनको अन्तर्मुहूर्त के लिये उदयके अयोग्य कर देना या दुर हटा देना अन्तरकरण कहलाता है। उसमें निमितकारण जीयके विशेष
निर्मल परिणाम होते हैं इति । अथवा--अधिक स्थितिबाले और कम स्थितिवाले (उत्कृष्ट व जघन्य स्थितिवाले) निषेकको छोटकर
मध्य स्थितिघाले ( मध्यवर्ती ) कर्मोको उदयके अयोग्य करना अन्तरकरण कहलाता है समझ लेना।
WAPUR
MAHARASHTRA } ..
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警察
पुरुषार्थत्रिचचुषा
रहने के कारण उनका अभाव ( कार्यहीनता ) हो जाता है अर्थात् अन्त तक मिथ्याका द्रव्य दबा रहता है अथवा उदयमें आनेसे दूर ( अन्तर या बंचित ) रहते हैं ( उदयाभावी क्षय ) यह तात्पर्य है । अन्तरकरण और उपशमकरण का स्वरूप नीचे टिप्पणी में लिखा है सो समझ लेना। अभी यहाँ पर करपलब्धि ३ भेद ( जातियाँ ) और उनमें होनेवाले आवश्यक या ९. नत्र प्रकारके विशेष कार्य बतलाए जाते हैं यथा---
( १ ) अधःकरण में ४ चार आवश्यक होते हैं । १ - समय २ अनंतगुणो विशुद्धता ( निर्मलता ) का होना (२) स्थितिबंधापसरणका होना अर्थात् नवीन बंधको स्थिति एक २ अन्तर्मुहूर्त कमी होते जाना ( ३ ) प्रशस्त (पुण्य) प्रकृतियों ( कर्मों) का अनुभाग ( रस ) अनंतगुणा बढ़ते जाना ( अनुभाग वर्धन ) ४ --- अप्रशस्त ( पाप ) प्रकृतियोंका अनुभाग समय २ अनंतवें भाग घटते जाना कुल ४ आवश्यक
( २ ) अपूर्वकरण ३ तीन आवश्यक होते हैं । १-पूर्व कर्मोको स्थितिको अन्तर्मुहूर्त घटाना, अर्थात् स्थितिकांडक घात करना, २- पूर्वबद्ध कर्मो के अनुभागको अन्तमुहूर्स तक घटाना अर्थात् अनुभागकiss घात करना, ३---गुणश्रेणी निर्जंरा करना अर्थात् असंख्यात गुणित कर्मों को निर्जरा योग्य करना कुल ३ हुए ।
(३) अनिवृत्तिकरण में २ दो आवश्यक होते हैं। -अन्तकरण करना ( वर्त्तमान में उदय आनेवाले मिथ्यात्वके निषेकोंको दूरकर देना या हटा देना अथचा उदयमें न आने देना या उसके अयोग्य कर देना ( उदयाभावी क्षय करना ) २ -उपशमकरण करना अर्थात् अगले समय में उदय आनेवाले मिध्यात्वके निषेकोंका उपशम कर देना । इस तरह सब तरहकी बंदिश ( रुकावट ) हो जानेसे ही मिध्यात्व द्रव्य नष्ट होता है यह विधि है अस्तु ।
अर्थ --- अनादि काल से संसारी जीवोंको, परद्रव्यके कत्तपिनेका ( कि हम सभी के कर्ता हैं ) मिया अहंकार हो रहा है, यही अज्ञानरूपी अन्धकार छाया हुआ है, अतएव सत्यार्थं नहीं सूझता, ( यथार्थ नहीं दिखला ) यह दुःखकी बात है । आचार्य कहते हैं कि यदि निश्चयके ज्ञान या आलम्बनसे एक बार भी अन्तर्मुहूत्राको ) मिथ्यात्व छूटकर सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाय ( सम्यi ज्ञान सम्यग्दर्शन रूप सूर्यका प्रकाश हो जाय ) तो फिर किसी प्रकार भी वह जीव संसारमें बँधा या रुका नहीं रह सकता - अधिक से अधिक उसका निवास संसारमें अर्धपुद्गल परावर्तन काल तक ही रहेगा यह नियम है । बस, यही सम्यग्दर्शनका अन्तिम निष्कर्ष ( निचोड़ ) है ऐसा समझना चाहिये और यह आश्चर्य या कुतूहलसे भी नहीं कहा जा सकता कि सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर 'सम्यग्दृष्टि' संसार में हमेशा बंधा रहता है । वैसा कहना गलत है, अज्ञानता है । तथा
इसी तरह यह कहना भी गलत (असत्य) है कि सम्यग्दृष्टिके बंध नहीं होता । यथार्थ बात (सत्य कथन ) यह है कि सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेके कालसे सम्यग्दृष्टि अनंत संसारका बन्ध नहीं होता । उत्कृष्ट स्थितिवाले कर्म ( मोहादि ) नहीं बंधते किन्तु अल्प स्थितिवाले ( अन्तः hterate कम स्थितिवाले ) कर्म बराबर बँधते हैं, सर्वथा निर्वन्ध वह नहीं हो जाता, जलक
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दर्शन
संयोगपर्याय मौजूद रहती हैं, यह विशेषता बतलाई गई है । द्रव्यदृष्टिको अपेक्षासे तो कभी जीव ( आत्मा ) बंधता हो नहीं हैं, वह अबंध - परसे भिन्न शुद्ध है इत्यादि । सम्यग्दर्शन संसारकी जड़ ( मिथ्यात्व ) को नष्ट करता है। मिथ्यादृष्टिका संसार अनादि अनंत रहता है, अस्तु ।
क्रमबद्धपर्यायका ज्ञान व श्रद्धा को ही न है ? हा उत्तर सम्यको ही हो सकता है जो ज्ञायक स्वभावका आलम्बन करता है, सर्वज्ञताका अस्तित्व अपने में निश्चित करता है अर्थात् जो आस्तिक है वही क्रमबद्ध पर्यायका विश्वास कर सकता है किन्तु जो नास्तिक है वह नहीं कर सकता यह नियम है, ऐसा जानना अस्तु । पर्यां मात्र क्रमसे होती हैं, जिस क्रमसे सवंज्ञ केवलीने देखी हैं, उसी क्रमसे वे होती हैं अन्यथा ( कम भंग करके ) नहीं होती चाहे कोई कुछ भी करें, सब व्यर्थ है, मिथ्या मान्यता है । अथवा पूर्व पर्यायका व्यय होकर ही उत्तर पर्यायका उत्पाद होता है, यह क्रम हमेशा अटल रहता है । अर्थात् वह नहीं बदलता यह क्रमबद्धता पाई जाती है इसको समझना चाहिये ।
१७
अधिगमज सम्यग्दर्शन के भेद
( १ ) स्वाधिगमज, ( २ ) पराधिगमज |
क) जो सम्यग्दर्शन स्वयं ही जीवादि तत्वों की प्रमाणनयादिके द्वारा जानकारी प्राप्त करके उत्पन्न होता है, उसकी स्वाधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं । यह महान् दृढ या पक्का होता है, अर्थात् उसमें भ्रम या सन्देह नहीं होता इत्यादि, उसमें भारी विशेषता रहती है। यदि कदाचित् कोई ऐसी दृढ श्रद्धावाले सम्यग्दृष्टिको भुलाना हो तो वह कदापि नहीं भूल सकता । तभी तो बड़े २ उपसर्ग घोर दुःख दारिद्र आदि उपस्थित होनेपर भी वह विचलित नहीं होता मेरुकी तरह अटल रहता है अतः यह सर्वोत्कृष्ट है, प्रथम उपासनीय है ।
"
( ख ) जो सम्यग्दर्शन, परके उपदेश आदिके द्वारा जीवादि तत्वोंका कथंचित् (कुछ) ज्ञान होनेपर या न होनेपर खाली आज्ञा या उपदेश पर निर्भर रहकर उन जीवादि तत्वोंका श्रद्धान करता है व कराता है, उसको पराधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं, जो अपेक्षाकृत कमजोर होता है । अर्थात् वह संभवत: कुछ विकृत हो सकता है, रूप बदल सकता है। वह विवेक रहित तोता जैसा है।
'जैसे किसी कमबुद्धि विद्यार्थीको जी स्वयं परीक्षा नहीं कर सकता, मास्टर ( शिक्षक ) बताता है कि दो और दो र + २ मिलाकर ४ चार होते हैं। वह विद्यार्थी उसको सत्य मान लेता है कि गुरूजीका बताना सही व सत्य है और बेसा विश्वास या श्रद्धान भी वह कर लेता है । फिर कुछ समय बाद कोई इन्स्पेक्टर ( निरीक्षक परीक्षक ) शाला (विद्यालय ) में आकर परीक्षा लेता
पंचास्तिकाय
१. सर्वज्ञता आत्माका स्वभाव है वह ज्ञेयके निमित्तसे नहीं होती स्वतः होती हैं । गा० ४१ टीका ।
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سمر
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૧૮
पुरुषार्थसिद्धये
है और पूछता है कि विद्यार्थिन् । २ और २ दो कितने होते हैं ? विद्यार्थी तुरन्त उत्तर देता है कि साहब ! ४ चार होते हैं। इसपर वह परीक्षक उसकी बुद्धिकी परीक्षा करने को पुनः पूछता है कि विद्यार्थिन् ! तुमारा उत्तर गलत है, तीन और एक ३+१मिलाकर चार होते हैं। यह सुनकर निशार्थी भ्रम में पड़ जाता है कि गुरूजीका बताया सत्य है कि आफीसर साहबका बताया सत्य है ? यह निर्धार न कर पाने से निरुतर रह जाता है व अचक जाता है अथवा कह देता है कि हमें तो गुरुजीने ऐसा ही बताया था कि दो और दो चार होते हैं । तब साहब (परीक्षक ) समझ जाता है। कि यह विद्यार्थी भबुद्धि है, स्वयं परीक्षा ( निर्णय ) नहीं कर सकता, खाली रट लेता है इत्यादि । पश्चात् जब वही बात ( प्रश्न ) दूसरे तीव्र बुद्धिवाले छात्रसे परीक्षक पूछता है तब वह निःशंक होकर जवाब देता है कि साहब दोनों सही हैं २ दो में २ दो मिलाने पर भी चार ४ होते हैं और २ तीन में १ मिलाने पर भी ४ चार होते हैं, कारण कि वह जोड़ आदि हिसाब खुद जानता था । साहब उसको बुद्धिमान समझकर खुश होता है व इनाम भी देता है। बस ऐसा ही हाल स्वाधिगमन व पराधिगमका है। स्वयं परीक्षा करना या जानना श्रेष्ठ होता है ।
atara aers भेव
१ संसारी, २ सिद्ध ( मुक्त ) | संसारियों में अस व स्थावर । त्रसोंमें दो इन्द्री पञ्चेन्द्री तक ४ भेद | अथवा भव्य या अभव्य । भव्यों में निकट भव्य, व दूर भव्य, व दूरानदूर भव्य, ये तीन भेद होते हैं । निकट भव्य ( व्यक्त सम्यग्दृष्टि ) तद्भव मोक्षगामी या दोन्चार भवमें ही मोक्ष जानेवाले होते हैं | दूर भव, ( अव्यक्त सम्यग्दृष्टि ) कई भवों के बाद मोक्ष जाने वाले होते हैं । दुरानदूर भव्य, कभी मोक्ष नहीं जाते सिर्फ उनके मोक्ष जानेकी शक्ति मात्र रहती है जिससे वे भव्य कहलाते हैं किन्तु उनकी शक्ति कभी व्यक्त नहीं होती अर्थात् कार्यपर्याय प्रकट नहीं होती अतएव वे सदाकाल अभव्योंकी तरह संसारमें ही निवास करते हैं। अभव्य जीवोंके उस जातिकी शक्ति ही नहीं रहती, जिससे वे मोक्ष जा सकें । ये सब शक्तियां पारिमाणिक भावरूप है- स्वामीविक व अकृत्रिम हैं, नैमित्तिक या अधिकादि रूप नहीं हैं, यह वस्तुका स्वभाव है इत्यादि । अशुद्ध भेदोंमें बहिरात्मा जीव हैं | और शुद्ध परमात्मा है । परमात्मामें सकल परमात्मा तथापि सभी द्रव्योंमें जीव द्रव्य, ज्ञानवान्
संयोगी पर्याय शुद्ध व अशुद्ध दो भेद माने जाते हैं । मेदोंमें अपूर्ण शुद्ध - अन्तरात्मा हैं और पूर्ण शुद्ध अरहन्त हैं और निकल परमात्मा सिद्ध हैं इत्यादि चेतन होनेसे श्रेष्ठ द्रव्य है किम्बहुना ।
।
द्रव्योंके भेद
१ जीवद्रव्य, २ पुल द्रव्य, ३ धर्म द्रव्य ४ अधर्म द्रव्य, ५ आकाश द्रव्य, ६, काल द्रव्य, ari ata aorat छोड़कर शेष ५ द्रव्यें अजीव द्रव्यें हैं (जनशून्य जड़ हैं ) । इनका लक्षण निम्न प्रकार है ।
१- पुद्गल द्रव्य -- जो द्रव्य घटती-बढ़ती है अर्थात् मिलती बिछुड़ती है, उसको पुद्गल द्रव्य कहते हैं। या संयोगी पर्याय जिसके होती है या विकार रूप होती है ।
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सम्यग्दर्शन
९९
२- धर्मद्रव्य - जो जीव व पुद्गल दोनों क्रियावान् द्रव्योंके चलने में सहायता देती है, उसको धर्मद्रव्य कहते हैं 1 जैसे मछली चलने में जल सहायता देता है।
३ - अधर्मद्रव्य - जो जीव पुद्गल दोनोंको स्थित होने में सहायता देती है, उसको अध द्रव्य कहते हैं । जैसे पथिकको छाया मदद देती है ।
४-आकाश द्रव्य जो सभी द्रव्योंकी ठहरनेके लिए स्थान देती है, उसको आकाश द्रव्य कहते हैं ।
५—काल द्रव्य - जो सभी प्रयोको परिणयन या परिवर्तन करने में सहायता देती है, उसको कालद्रव्य कहते हैं । -- पञ्चास्तिकायके भेद 1
नोट-- उपर्युक्त छह द्रव्योंमेंसे कालद्रव्यको छोड़कर शेष पांच द्रव्ये अस्तिकाय कहलाती है कारण कि उनके प्रदेश परस्पर मिले हुए सदैव रहते हैं, पृथक नहीं होते । कालद्रव्य प्रदेश, एक २ पृथक रहते हैं -- इकट्टे नहीं रहते इत्यादि ।
आकाश द्रव्यके भेद
१---लोकाकाश, २-- अलोकाकाश | आकाशद्रव्य के प्रदेश यद्यपि अखंड ( मिले हुए) रूप रहते हैं तथापि आधे भूत पदार्थोंके सद्भावसे दो भेद माने जाते हैं । जहाँ पर बहों द्रव्यें संयोगरूपसे रहती हैं, उसको लोकाकाश कहते हैं और जहाँ पर एक अकेला आकाश ही रहता है, उसको अलोकाकाश कहते हैं ।
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१- निश्चयकाल द्रव्य
२- व्यवहारकाल द्रव्य ।
निश्चयकाल द्रव्य -- जो परिणमनस्वभाववाले मूल कालाणु हैं, उनको निश्चयकाल द्रव्य कहते हैं । जैसे रत्नोंकी राशि ( ढेर रूप ) पृथक २ रूप ।
२--व्यवहारकाल द्रव्य --जो मूल द्रव्य ( कालाणु) की पर्याएँ होती हैं समयादि रूप, उनको व्यवहारकाल द्रव्य कहते हैं, जिसके अनेक भेद होते हैं ।
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१- अणुरूप, २ स्कन्धरूप ।
१ अणुरूप जिसका परिमाण एक प्रदेशमात्र होता है, कम या बढ़ नहीं होता, उसको अणुरूप पुद्गलद्रव्य कहते हैं । उसमें रूप रस गंध स्पर्श रहता है । उसमें बहुप्रदेशी बननेको शक्ति संभावना सत्यरूप मानी जाती है । अर्थात् उसकी बहु प्रदेशरूप कार्यपर्याय प्रकट नहीं होती । फलतः स्कंध अवस्थामें भी उसका पृथक् २। मूल ) परिमाण उतना एक प्रदेशमात्र )
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पुरुषार्थसिमुपाय ही रहता है, वह अधिक क्षेत्र नहीं घेर लेता। हाँ, संकोच विस्तार शक्ति उसमें मानी गई है जो स्कंध पर्यायके समय कार्य करती है अर्थात् अपना परिचय देतो है-स्कंध अवस्थामें हो संकोच विस्तार होता है, पृथक अवस्था नहीं यह तात्पर्य है अस्तु
२.-स्कंधरूप पुद्गल----अनेक परमाणुओंके परस्पर मिलने से अर्थात् अपने २ रूप रस गंध स्पर्श के द्वारा परस्पर संयोग होनेसे, जो स्कंधरूप पिड अवस्था उनकी होती है, उसको स्कंधरूप पुद्गलद्रव्य कहते हैं।
__ सामान्यतः पुदगलद्रव्यके ६ छह भेद १--सूक्ष्मपुदगल-जो पृदगलटव्य (परमाणु या स्कंधरूप ) दृष्टिगोचर न हो अर्थात् देखनेम न आवे, उसको सूक्ष्मपुद्गल कहते हैं, जैसे कार्माणद्रव्य आदि ।
२. स्थूलपुद्गलद्रव्य, जो दृष्टिगोचर हों व अन्यत्र ले जाये जा सकें, उनको स्थूल पुद्गल कहते हैं जैसे घृत, दूध, पानी आदि ।
३--सूक्ष्मस्थूल पुद्गलद्रव्य-जो दृष्टिगोचर तो न हों ( आँखोंसे न दिखें ) किन्तु कानों आदिसे सुने जाय, ग्रहण किये जाय, या जाने जाय, उनको सूक्ष्मस्यूल पुद्गलद्रव्य कहते हैं । जैसे शब्द गंध आदि ।
४-स्थूलसूक्ष्म पुद्गलद्रव्य---जो दृष्टिगोचर तो हों किन्तु पकड़ने में न आवे उनको स्थूलसूक्ष्म पुद्गलद्रव्य कहते हैं। जैसे प्रकाश छाया अन्धकार आदि।
५-स्थूलस्थूल पुद्गलद्रव्य----जो दृष्टिगोचर हों, लोडेफोड़े जाय एवं अन्यत्र लेजाये जा सकें किन्तु पुनः जुड़ न सके, उनको स्थूलस्थूल पुद्गलद्रव्य कहते हैं । जैसे पत्थर काष्ठ इत्यादि ।
६-सूक्ष्मसूक्ष्म पुद्गलद्रव्य-जिनकी शक्तिका अर्थात् अविभाग प्रतिच्छेदों का और दूसरा भेद न हो सके न किया जा सके, उन पदार्थों को सूक्ष्मसूक्ष्म पुद्गलद्रव्य कहते हैं । जैसे परमाणु जघन्य गुणवाले, जिनका बंधन न हो सके ( बंधके अयोग्य पुद्गलके निबंध परमाणु ) दो मुण कम से कम अधिक हों तो बंध होता है अन्यथा नहीं।
नोट-पुद्गलद्रव्यके अनेक तरहके परिणमन (पर्याय ) होते हैं जैसे कि कभी स्थल कभी सूक्ष्म, कभी कठोर, कभी कोमल, कभी तरल, कभो श्रिमा हुआ ऐसा समझना चाहिये यह वस्तुका स्वभाव है किम्बहुना।
संक्षेपमें निश्चय और व्यवहारका निर्धार-जीवद्रव्यमें (१) रागद्वेषादिक विकल्पोंसे रहित-निकिल्प वीतरागमय "निर्णयात्मक दशा' का नाम निश्चय है। जो स्वाश्रित स्वभावरूप है ।
(२) रागद्वेषादि विकल्पों सहित विकल्प सरागतामय 'निर्णयात्मक दशा' का नाम -
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सम्यग्दर्शन
201 व्यवहार है। जो पराश्रित विभावरूप हैं। कारण कि आगे दोनों प्रकार से बस्तु ( पदार्थ-तत्त्व) का निर्णय करना अभीष्ट है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचरित्र और उनके विषय भूत पदार्थ तथा उनके अंगोंका वर्णन उभयरूपसे किया जाने वाला है। अतएव भ्रमनिवारणार्थ भूमिका तैयार की जा रही है। निश्चय और व्यवहार दोनों का स्वरूप पृथक् २ है तथा मान्यता भी पृथक २ रूप है। फलतः संयोगीपर्याध में उभय दशाएँ हुआ करती हैं। उनको यथार्थ पृथक् २ समझना अत्यन्त जरूरी है तभी आत्मकल्याण हो सकता है अन्यथा नहीं ।
उपसंहार कथन सम्यग्दर्शनके सम्बन्धमें पर्याप्त विवेचन किया जा चुका है, जिसका उसके साथ घनिष्ट सम्बन्ध था। यों तो सम्यग्दृष्टिके समुदायरूपसे ६३ गुण होते हैं जो स्वामिकातिकेय मुनिने अपने महान ग्रन्थमें लिखा है। प्रथा
। सम्यग्दृष्टिके ६३ गुण १-संवेग, २ निर्वेद, ३ निन्दा ४ गहाँ ५ उपशम ६ भक्ति ७ अभुकंपा ८ वात्सल्य ये आठ मूलगुण होते हैं ( धर्म व धर्मके फूलमें अनुराग होना संवेग कहलाता है ) अस्तु । शंका आदि पाँच अतिचारीकी छूटना ( अभाव होनी रूप ५ गुण, सात भयोंका छूटना रूप ७ गुण, तीन शल्योंका छूटना रूप ३ तीन गुण, पच्चीस दोषोंका छूटना रूप २५ गुण । आठ मूलगुणपालना रूप ८ गुण, सात व्यसनोंका त्यागना रूप ७ गुण कुल ६३ गुण होते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव उन्हें प्राप्त करता है व करना अनिवार्य है। इसके सिवाय सम्यग्दष्टिके सम्यग्दर्शनके आठ अंग ( अवयव या चिह्न) भी होते हैं, जिनके बिना सम्यग्दर्शन अधूरा रहता है या पहिचान नहीं होती, और फलस्वरूप वह सम्यग्दर्शन जीवको मोक्ष नहीं पहुंचा सकता, ऐसी स्थिति में उनका संचय करना अनिवार्य है। परन्तु वे आठों ही अग निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो २ प्रकारके होते हैं। इसका कारण यह है कि सम्यग्दर्शनके स्वामी दो तरहके जीव होते हैं . १) सरामी जीव (२) वीतरागी जीव । अतएव सरागी जोव, व्यवहाररूप आठ अंग पालता है और वीतरागी जीव, निश्चय रूप आठ अग पालता है यह निर्धार है ।। २२ ।।
परमार्थदशियोंने शुद्ध-निश्चयनयसे वीसरामता रूप अगोंको महत्त्व दिया है और अपरमार्थशियोंने व्यवहारनयसे सरागतारूप अंगोंको महत्त्व दिया है। फिर भी दोनों नयोंकी अपेक्षासे आगे आठ अंगोंका कथन आचार्य कर रहे हैं। उनमें पहिले...१. सुसो मुद्धादेसो गायत्रो परमभावदर्सीहि । व्यवहारदेसितः पृणये हु अपरिमेट्टिदाभादे ॥ १२ ॥
___-समयसार अर्थ : परमार्थदर्शी बोतरागियोंने ( निश्चयसम्बादष्टियोंने ) शुद्ध वीतरागताके आलम्बन लेनेका उपदेश दिया है क्योंकि उसीसे आत्मकल्याण होता है यह निश्चयनयका उपदेश है। और. अपरमार्थ-... दशियों शरागिओने ( व्यवहारसम्यग्दृष्टियोंने ) अशुद्ध सागताके आलम्बन करनेका उपदेश दिया है।
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पुरुषार्थसिद्धयुपाय --- ( संज्ञा राहत ) अंगका स्वरूप यताते हैं सकलमनेकान्तात्मक मिदमुक्त वस्तुजातमखिलः । किमु सत्यमसत्यं वा न जातु शंकेति कर्तव्या ।। २३ ।।
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पध मशामषिन जय ३ सब बहु धर्मबाले है स्वसः । सर्वज्ञवोध विशगता से पा लिया साचा पत्ता ।। उसमें नहीं संभव महो! शंका करन की योग्यता ।
अखएक निःसन्देह रहना, अंग है निःशंकिता ॥२३॥ अन्वय अर्थ-खिलज: विश्वदी सर्वज्ञ बीतराग भगवान् ने [ इदं सकलं धस्तुजातं अनेकाम्सात्मकं 3 | यह कहा है कि संसारमें मौजूद तमाम पदार्थ ( जीवाजीनादि तस्व) अनेक धर्म वाले हैं. कोई भी एक धर्मवाला नहीं है। इस प्रकार वस्तुको व्यवस्था है, जो स्वतः सिद्ध है
और सत्य है। ऐसा जिनवाणी में या दिव्योपदेशमें दृढ़ विश्वास करना अथवा श्रद्धान रखना ही निश्चय सम्यग्दर्शनका पहला अंग कहलाता है । निःसंशयरूप ) । अतएव उसमें [ किम् सत्यं का असत्यं इत जात शंका न केतच्या ] यह शंका या संशय कभी नहीं करना चाहिए कि यह भगवान्का कथन : सर्वपदार्थ अनेक धर्मात्मक हैं । सत्य है कि असत्य है इत्यादि । तभी निःशंकित अंग ( चिह्न) चल सकता है अर्थात् सम्यग्दर्शनका निःशकिल अंग ( अवयव चिह्न ) माना जा सकता है अन्यथा नहीं. यह मल श्रद्धा है। यहाँ पर शंकाका अर्थ सन्देह या संशय लेना चाहिए. दसरे भय या प्रश्न नहीं लेना चाहिए क्योंकि जहाँ जैसा प्रकरण होता है वहाँ वैसा ही अर्थ लिया जाता है यह नियम है। परन्तु यह विशेषता खासकर मोक्षमार्गोपयोगी सात तत्त्वोंके विषय में समझना चाहिए ॥ २३ ।।
भावार्थ-साम्यग्दर्शनका मूलमंत्र ( चिह्न जिनवाणी या जिनागम या जिनोपदेशमें या सात तत्त्वों में शंका या संशयका नहीं करना है। यदि नि:संशयपना श्रद्धामें रहता है कि 'नान्यथावादिनो जिना: जिनेन्द्र भगवान्का उपदेश ( तत्त्वोपदेश ) कभी अन्यथा अर्थात् असत्य नहीं
ऐसा कुन्दकुन्द महाराजका कहना है । शुभरागको अशुद्ध निश्चयसे उपयोगी कहा है शुद्ध निश्चयनयसे
उपयोगी नहीं है यह सारांश है। १. अनेक धर्ममय । २. ज्ञेय या पदार्थ या वस्तु । ३. शंकाके ३ तीन अर्थ होते है, एक संशय या सन्देह अर्थ, दूसरा भय अर्थ, तीसरा प्रदान या जिज्ञासा
अर्थ । इनमरा ग्रहां संधाय या सन्देह अर्थ प्रयोजनीय है। ४. सूक्ष्म जिनोदितं सत्त्वं हेतुभिर्ने बाध्यते । आज्ञासिद्धं तु तना ह्यं नान्यथाआदिको जिनाः ।।
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सम्यग्दर्शन
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होता, तो वह अखंड सम्यग्दृष्टि माना जाता है व रहता है अर्थात् उसका सम्यग्दर्शन खंडित कभी नहीं होता ! अटल रहता है । और कदाचित् उक्त मुलमन्त्र में ही कोई शंका या संशय करता है, तो वह सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता, किन्तु वह मिथ्यादृष्टि है ऐसा जानना । सम्यग्दृष्टिकी मुख्य पहिचान (चिह्न) जिनवाणी में पक्की श्रद्धा करना है, इसीके आधार पर सारा दारोमदार है | ऐसी स्थिति में यह ध्यान रखना चाहिए |
मोट-मूलकी रक्षा करते हुए ( जिनेन्द्र के कथनपर अटल श्रद्धान रखते हुए। यदि लोकिक rain किसी कारणवश सराग सम्यग्दृष्टि, स्वार्थ पूर्ति के लिए या पराधीनतामें आकर या अज्ञानता या असमतामें कोई गलती कर बैठे तो वह सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट ( च्युत या खंडित ) नहीं हो जाता किन्तु वह सम्पदृष्टि रहता हुआ अपराधी या अतिचार सहित अवश्य माना जाता है । इसका कारण यह है कि उसकी श्रद्धा जिनोपदेशके विपरीत ( विरुद्ध ) नहीं होती और अपनी reater गलती वह मानता है व उसे हेय समझता है इत्यादि । उसके अन्दर जिनवाणी या जिनोपदेशके प्रति सत्यनिष्ठा है. यही उसकी सम्यग्दृष्टि है ( विचारधारा है । जिसकी सम्यग्दृष्टि को खास आवश्यकता है | वह गलती पर दुःख मानता है ( पश्चात्ताप या खेद करता है । तथा यथाशक्ति उसको छोड़ने का प्रयत्न भी करता है ये शुभ लक्षण उसके होते हैं।
freiter in freeचय और व्यवहारपना बताया जाता है ( निरतिचार व सातिचारपनाका स्पष्टीकरण )
(क) निश्चयपना - जबतक नि:शंकपना शुद्ध रूपमें रहता है अर्थात् उसमें सिर्फ रागादिसे रferent war निर्विकल्पना रहता है, तबतक उस निःशंकित अगकी निश्चय दशा समझना चाहिए | संक्षेपमें बही निरतिचारता व बीतरागता है ऐसा समझना चाहिए, शुद्ध दशा वह है ।
( ख ) व्यवहारपना---जब नि:शंकपना होने के बाद, उस नि:शंकपने में रुचि या भक्ति या आदर बुद्धि-शुभ प्रवृत्ति या उसको प्राप्त करनेकी बांछा अभिलाषा आदि होती है तब उसकी व्यवहार दशा समझना चाहिए। वह अशुद्ध दशा है सराग दशा है इत्यादि । परन्तु मोक्षमार्गोपयोगी सात तत्वोंमें निश्चय और व्यवहार दोनों सम्यग्दृष्टियोंकी श्रद्धामें अन्तर ( फरक ) नहीं होता यह नियम है-मूलमें भूल कदापि नहीं होती अन्यथा मिथ्यादृष्टि तुरन्त बन जाय ध्यान रखना किम्बहुना !
नोट - निश्चयनयसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ये तीनों रत्न ( गुण ) शुद्ध वीतरागता रूप हैं तथा उनके अंग (चिह्न) भी शुद्ध वीतरागता रूप होना चाहिए, परन्तु जब उनके साथ अशुद्धता या रागादिका संयोग सम्बन्ध हो जाता है तब वे सब मूल व अंग व्यवहार रूप हो जाते हैं - शुद्ध रूप नहीं रहते, यह तात्पर्य है । सभी तो सम्यग्दृष्टि के यहाँ ५ अतिचार बतलाये हैं ।
१. शंका करना, २ . आकांक्षा करना, ३. ग्लानि करना, ४ अन्य दृष्टि ( मिथ्यादृष्टि ) की प्रशंसा करना, ५ . उसकी स्तुति करना ।
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पुरुषार्थसिद्धपुचाथं
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इसका मतलब यह है कि मूलमें ( जिनोपदेश या कथनमें ) अटूट श्रद्धा रखते हुए अर्थात् उसमें शंका या संशय न करते हुए जब अपनी अज्ञानता या असमर्थता के कारणसे किसी (सूक्ष्मादि ) तत्व या पदार्थ में स्वयं कोई शंका अर्थात् जिज्ञासा ( जाननेको इच्छा ) भ्रम या संशय उत्पन्न हो जाता है या हो जाय, उसको दूर करनेके लिए अपनी खुद की त्रुटि समझते हुए जब कुछ विशेष ज्ञानियोंसे पूछता है या प्रश्न या शंका करता है तब उसका सम्यग्दर्शन पूर्वोक अटल श्रद्धा जिनवाणी में तो खंडित नहीं होता किन्तु शुभ राग - जिज्ञासा रूप अवदंय होता है, जिससे निर्मल वीतरागता रूप सम्यग्दर्शन, मलीन अर्थात् रागादिसहित हो जाता है, अतएव वह दोष या afaचार है लेकिन अनाचार या मिथ्यात्व नहीं है, यह वास्तविक भेद है । अनाचार या मिध्यात्व मूल श्रद्धा हो ( जिनवाणी के प्रति ) नष्ट हो जाती है किम्बहुना मूल श्रद्धा हर समय उपादेय और ग्राह्य है- सम्यग्दृष्टिका वह प्राण है ( अस्तित्त्व रूप जीवन है । इति । चाहे वह निश्चय सम्यग्दृष्टि हो या व्यवहार सम्यग्दृष्टि हो, सभीको मूल सात तत्त्वों में या वस्तु मूलस्वरूप ( एकत्व विभक्त ) में अटल श्रद्धा रहना चाहिये । अस्तु ।
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( १ ) यह कि जिस तरह पतंग की डोर ( रस्सी ) हाथमें रहनेसे पतंग गुमतो नहीं है न कोई हानि होती है, उसी तरह सम्यग्दर्शन ( जिनवचमें दृढ़ श्रद्धान ) के साथ रहते हुए जीव ( आत्मा ) भ्रष्ट या बरबाद अर्थात् मिथ्यादृष्टि अनन्त संसारी नहीं होता-- वह भव्य संसारसे पार जल्दी या देर-अवेरमें अवश्य होता है । बीच में यदि क्षणिक रागादिरूप विकारीभावसे वह कथंचित् बिगड़ भी जाय तो भी वह अपना बिगड़ेका सुधार कर लेता है अर्थात् मलसीको सुधार कर निर्दोष बन जाता है और पश्चात् मोक्ष चला जाता, सिर्फ सम्यग्दर्शन सुरक्षित रहना चाहिए ( नष्ट होकर मिथ्यात्व नहीं हो जाना चाहिए, यह शर्त है | )
(२) क्षणिक राग और स्थायी रागमें बड़ा अन्तर है । स्थायी राम मिथ्यादृष्टिके होता है, जो रागादि परको अपना मानता है व उसको दूर नहीं करना चाहता है अर्थात् उसको त्यागता नहीं है इत्यादि उसीमें तन्मय रहता है। और क्षणिक राग, सम्यग्दृष्टिके होता है, जो रागादिको भिन्न समझकर उनसे पृथक होनेका या उनको पृथक करनेका प्रयत्न ( पुरुषार्थ ) करता है । वह रोग मिटाने को दवाई की तरह परद्रव्य में क्षणिक रामादि करता है वह भी refa पूर्वक जैसे काँटेको निकालने के लिए दूसरे काँटेसे क्षणिक ( कुछ समयको ) राग करता है । फिर सब छोड़ देता है इत्यादि । जबतक इच्छा या कषाय पूर्ण नहीं होती तब तक ही वह अपवादमार्गको
१. पंचास्तिकायें-- गाया नं० १३६ 'अयं हि ( प्रशस्तरागः ) उपरितनभूमिकायाम लज्जास्पदस्यास्थानरागनिषेधार्थ, तीव्ररागज्वरविमोशर्थं वा कदाचिद् ज्ञानिनोऽपि भवतीति ।' लामो सम्यग्दृष्टि जीवको जबतक ऊपरके गुणस्थान अर्थात् १० के बाद के गुणस्थान प्राप्त नहीं हो इसका अर्थ यह है कि जाते अथवा पूर्ण वीतरागी वह नहीं बन जाता तबतक अशुभ रागसे बचने के लिए ( पाप अन्धसे रक्षा करनेके लिए एवं तीन राग ज्वरको शान्त करनेके लिए ) यह (सगदृष्टि ) ज्ञानी भी अरुचिपूर्वक
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सम्यग्दशन
अपनाता है चाहे वह मुनि हो या गृहस्थ ( श्रावक ; हो, संयोगी पर्यायका वह तकाजा ( फल ) है। इसमें क्षेत्र काल आदि भो निमित्त रहा करते हैं। परन्तु वह सब दोषरूप या अतिचार रूप ही रहते हैं अनाचार रूप नहीं होते जबतक कि दृढ़ सम्यग्दर्शन मौजूद रहता है। वे अनन्त संसार के कारण : हेतु ) नहीं होते जबतक साश्रमें मिथ्यादर्शन न हो तबसक महाबंध होता ही नहीं है ! अनाचारका अर्थ खंडित हो जाना या छूट जाना होता है। फलतः सम्यग्दर्शनको रक्षा सेवा आराधना सदैव करना अनिवार्य है। उसके साथ अपराध भी होंगे व होते हैं परन्तु वे सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट नहीं कर सकते अर्थात् सम्यग्दर्शनको नहीं छुड़ा सकते और इसोलिये वे संसारमें रस्वनेको समर्थ मुख्यतया मिथ्यादर्शन ( मोह ) हो है और सहायक अनन्तानुबंधी कषाय भी हैं। क्योंकि उसके उदयमें ही मिथ्यात्व कर्मका बंध होता है। अतः बह संसारका परम्परया कारण ( हेतु या निमित्त ) है ऐसा समझना चाहिये । क्षणिक रागको अपना मानना और क्षणिक रागरूप उपयोगका होना ये दोनों पृथक्-पृथक् चीजें हैं। क्षणिक रागको अपना ( आत्माका } मानना मिथ्यादर्शन है और क्षणिक सगरूप उपयोगका होना सम्यग्दष्टिका विकारी भाव है... मिथ्यादर्शन नहीं है, उसे वह भिन्न और हेय ही समझता है। अतएव उसके अनन्त ( अक्षय अनन्त ) संसार स, बंध नहीं होता, कार के में रहनेका काल सिर्फ अधिकसे अधिक अर्ब पुद्गल परावर्त मात्र (परिमाण) ही रहता है जिसमें अनेक तरह के अनंतका बंध होता है, अनंत छोटे बड़े अनन्त किस्मके होते हैं। ऐसा समझना चाहिये किम्बहुना ।
निश्चय सम्यग्दर्शनके प्रकार-- ( १ ) जिनवाणी या जिनागमके कथन या उपदेश पर पूर्ण विश्वास करना यह निश्चय आज्ञा सम्यग्दर्शन है। यह एक प्रकार है।
(२) पर द्रव्योंसे भिन्न गुणपयाय वाला उत्पाद व्यय ध्रौव्ययुक्त चैतन्य स्वरूप आत्मा है, ऐसा विश्वास करना भी निश्चय सम्यग्दर्शन है। यह दूसरा प्रकार है। थोड़ा बहुत रद्दोबदल. ( हेरफेर ) लक्षणमें होने पर भी जबतक श्रद्धान नहीं बदलता अर्थात् वह विपरीत अभिप्राय सहित नहीं होता, तबसक कोई हानि नहीं होती वह मोक्षमार्गी रहता है, मूल चीज नहीं बदलना चाहिये यह खास समाधान है विचार किया जाय अस्तु ।
सामान्यापेक्षया--लौकिक पदार्थोंमें संशयादि करना, मिथ्यात्वका सूचक नहीं होता किन्तु विशेषापेक्षया-मोक्षमार्गोपयोगी पदार्थोमें, संशयादि करना मिथ्यात्त्वका सूचक हो
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प्रशस्त राग करता है अर्थात उसके भी प्रशस्त राग हुआ करता है, परन्तु वह उसकी मजबूरी की दशा है-पराधीन ( संयोग को ) विवशता है.---शौकिया नहीं है अर्थात् विना वाह के होता है, और असे यह हेम ही ( बलात्कार ) समझता है वह उसमें प्रेम ( राग या हर्ष ) नहीं करता विगारी की तरह वह उस कार्य को करता है। जैसे कि किसी दीन दुःखी प्राणी को देखकर उसके प्रति विशेष करुणाभाद ( दयालुता ) और उसका उपचार वह अवश्य २ करता है, उससे रहा नहीं जाला इत्यादि समझना यह अपवाद अबस्था है किम्बहुना।
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पुरुषार्थसिद्धयुपाय सकता है। मोक्षमागोपयोगी तत्त्वोंमें संशयादि करना मिथ्यात्वका सूचक हो सकता है ऐसा निर्णय समझना चाहिये । यहाँ पर श्रद्धान कारणरूप है और सम्यग्दर्शन कार्यरूप है-ऐसा परस्पर कार्यकारणभाव है इसको नहीं भूलना चाहिये ।
___ कार्यकारणभावमें भ्रमबुद्धि और उसका निराकरण ( खंडन ) किसी भी कार्य (नवीन पर्याय ) की उत्पत्तिमें निश्चयनयसे मूलद्रव्य या शक्ति, तथा उसको पर्यायका व्यक्ति, ( प्रकटता ) कारण होती है, दूसरा कोई कारण नहीं होता, यह अटल { ध्रुव ) नियम है। इस तथ्यको समझनेवाला व्यक्ति ही सम्बग्दृष्टि है व हो सकता है। तदनुसार कार्यकारण भाव सही आंका जा सकता है उसमें कोई भ्रम या संशय नहीं हो सकता। फलतः द्रव्य और पर्याय दोनों ही नई २ कार्यरूप पर्यायोंकी उत्पत्तिमें कारण होते हैं अर्थात् अपने अपने में ही सच्चा कार्यकारणभाव सिद्ध होता है परके साथ सिद्ध नहीं होता बह केवल भ्रमबुद्धि है। द्रव्यमें शक्ति व व्यक्ति ( पर्याय ) दोनों चीजें रहती हैं। जीव द्रव्यमें, सम्यग्दर्शनकी शक्ति ( योग्यता ) ब व्यक्ति ( पर्याय ) अर्थात् सम्यग्दर्शनका प्रकट होना, यह जब संगम होता है, तभी उस जीवको मोक्षपर्याय मिलती है। अकेले एक कारण (द्रध्य या शक्ति) से अथवा पर्याय या व्यक्ति मात्रसे, मोक्षकी प्राप्ति कदापि नहीं होती न हो सकता है। जिसका खुलासा यह है कि जिस जीव द्रव्यमें मोक्ष जानेकी योग्यता ( भव्यत्त्व ) रहती है, उसी जीवके सम्यग्दर्शनरूप पर्याय प्रकट (व्यक्त) होती है और वही पर्याय, जब मोक्ष जानेके योग्य (अनुकूल ) शुद्ध परिग्रह रहित मोरासमतारूप होती है तभी यह साक्षात् मोक्ष पायके प्राप्त होनेमें कारणरूप होती है उसके पहिले नहीं। फलतः द्रव्य सहित अव्यवहित पूर्वपर्याय, उत्तरपर्याय ( मोक्षरूप ) में कारण पद्धती है यह निष्कर्ष निकलता है, जो सत्यरूप ही है, भ्रम या अन्यथारूप नहीं है। ऐसी स्थिति में सब बातोंकी योग्यता कर्मभूमियाँ पुरुष ( मर्द) में ही पाई जाती है, स्त्री पर्याय में नहीं, अतः वह मोक्ष नहीं जा सकती, साक्षात् कारण ( नग्नत्त्वादि वीतरागभाव ) की कमी ( श्रुटि) होनेसे वह असंभव है। कारण कि उतना आत्मबल उसके नहीं होता उसको ढकनेवाले विकारीभाव (लज्जा आदि उसके विशेष पाये जाते हैं, जिससे वह बल प्रकट नहीं हो पाता, दबा रहता है इति भावः ।
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१. इदमेवेदशमेव तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा । इत्यकंपायसाम्भोवत्सम्माऽसंशया ऋषिः ।। ११॥
-रलकरड था. समन्त ..अर्थ:-जस्ता जिनक्षणी तयका स्वरूप ( अनेकान्तात्मक ) कहा गया है वैसा ही है अन्य नहीं है अन्य प्रकार भी नहीं है इत्यादि संशय या शंका रहिस पक्षान करमा निकित अंग होता है जैसाकि खड्ग' का पक्का पानो अटल या स्थिर या विश्वासनीय होता है, उसमें संशय नहीं रहता वह नहीं बदलता इत्यादि जानना।
जीवाजीवाम्रबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तरवम् ॥४॥त. सूत्र।
से ही मोक्षमार्योपयोगी साल तत्व है, दूसरे नहीं है। ऐसा बट बड़ान करणा संशयादि नहीं करना पहिला अङ्ग है ।।११।। इति,
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सम्यग्दर्शन
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नोट- यहाँ पर, उपादान व निमित्त दोनों कारण सिद्ध हो जाते हैं जो अभिन्न रूप हैं | द्रव्य उपादान है और निमित्त ( अन्तरंग ) उसको अव्यवहित ( समर्थ ) पूर्व पर्याय है। इसमें कोई विरोध नहीं आता, किन्तु बाह्य या भिन्न चीजोंको निमित्त मानना, व उसके जरिये कार्यका होना, मानने में स्पष्ट विरोध उपस्थित होता है किम्बहुना इसे समझना चाहिये तभी सम्यग्दर्शन शुद्ध व निर्मल-भूल-भ्रम रहित हो सकता है अन्यथा नहीं यह पक्का हैं अस्तु । प्रतिकूल- विसदृश-विजातीय, पर्यायसे कभी अनुकूल सजातीय पर्याय उत्पन्न नहीं हो सकती । जिस प्रकार दूध या दही पर्याय ( अनुकूल ) से ही घी पर्याय उत्पन्न हो सकती है किन्तु पानी जैसी प्रतिकूल पर्यायसे घृतपर्याय उत्पन्न कदापि नहीं हो सकती ऐसी वस्तु व्यवस्था है । उसी तरह अशुद्ध या रागद्वेषरूप पर्यायसे अशुद्ध रागद्वेषरूप ही पर्याय उत्पन्न होगी, विरागरूप शुद्धपर्याय प्रकट न होगी ।
'पादानकारण
हि कार्य मति इति नियमात्
ऐसी स्थिति में
'हेतुद्राविष्कृतकार्यलिंगा-अलंघ्यशक्तिर्भवितव्यतेयंम्'
यहाँ पर हेतुद्वय
पदसे दो हेतु अवश्य लिये जाते हैं किन्तु वे दो हेतु कौन हैं ? इसके उत्तर में द्रव्य और पर्याय ये दोनों ही हेतु कहना पड़ेंगे, जो उपादान व निमित्तरूप हैं ) इत्यादि । विचार किया जाय ! च भ्रम या विवाद मिटा जाय किम्बहुना ।
१- अपने एकत्त्वविभक्त चैतन्य रूप अशुद्ध स्वरूपमें सन्देहादि नहीं करना, निश्चय नि:शक्ति अङ्ग है, जो स्वाश्रित है।
२-जिनवाणी, जिनदेव, आदिमें सन्देह नहीं करना, व्यवहाररूप, निःशंकित अङ्ग है जो पराश्रित है । अथवा मृत्यु आदि पर पदार्थका भय ( शंका ) नहीं करना सो व्यवहार निःशंकित अङ्ग है अर्थात् सात प्रकारका भय नहीं करना ( त्यागना ) व्यवहार निःशंकित अङ्गका पालना कहलाता है यह तात्पर्य है ।। २३ ।।
२- सम्यग्दर्शनका निःकांक्षित अंग बतलाया जाता है ( जिनाना के विरुद्ध परद्रव्यकी आकांशा नहीं करना ) इह जन्मनि विभवादन्यमुत्र चक्रियकेशवं त्वादीन् । एकान्तवाददूषित पर सैमयानपि च नाक क्षेत् ||२४||
पद्य
निःकीक्षित वह अंग सही है, जिसमें वोछा नहिं परकी । धन की नारायण पदवी, इह भष परभव नहिं जियकी ।।
१. परलोक ।
२. नारायण ।
३. अन्य धर्म व अन्य शास्त्र ( जैन धर्म व जैन शास्त्रों भिन्न धर्म व शास्त्र
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मानुपxedasti
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पुरुषार्थसिद्धधुपाय जाप्ति धर्म अरु शास्त्रादिक जे, एक पक्ष के पोषक है।
भाकांक्षा उनकी महिं करना, तब निकाक्षिस पासक हैं ॥२४॥ अन्वयअर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ इह जन्मनि विभवादीनि ] इस जन्म या इस भवमें बाह्य धनधान्यादिक परिग्रहको तथा [ अमुत्र प्रक्रिस्वकेशवादीन् ] परभवमें (परजन्ममें ) चक्रवर्तीनारायण आदि महान् पदवियोंकी [ 4jऔर [एकान्तवाददूषित रसमयानपि ] एकान्त पक्ष या एक धर्मको पुष्टि करनेवाले ( बस्तु अनेक धर्मात्मक नहीं है एक धर्मवाली है ऐसा समर्थन करनेवाले ) अन्य धर्म ( वैदिकादि ) तथा अन्य मास्त्रों ( वेदादि ) की [ नाकक्षित् ] आकांक्षा या प्राप्तिको इच्छा नहीं करना बही निःकांक्षित अङ्ग है । ऐसो दृढ़ निरपेक्ष श्रद्धानालेसे ही-नि:कांक्षित अङ्ग पल सकता है। अर्थात् परद्रव्य हेय ( वर्जनीय ) है ऐसी जिनवाणीकी आज्ञा है, उसको मानने वाला ही निःकांक्षित अङ्गका धारी हो सकता है । और उस आशाके विरुद्ध परद्रव्यको आकांक्षा करनेवाला एवं उसका संग्रह करनेवाला कैसे निःकांक्षित अङ्गको पाल सकता है ? नहीं पाल सकता । क्योंकि परद्रव्य आत्माकी है ही नहीं, आत्मा उससे भिन्न है ( अतादात्म्यरूप है) इत्यादि ॥२४॥
भावार्थ-जीव ( आत्मा) परद्रव्यसे भिन्न एकत्त्व विभक्तरूप शुद्ध अद्वितीय है इसलिये उसको सदैव अपने स्वरूपमें ही स्थिर रहना चाहिए तथा परकी आकांक्षा नहीं करना चाहिये अन्यथा वह अपराध करना कहलायागा, और उसकी बराबर सजा मिलेगी, तब संसारसे वह पार न होगा ( संसार नहीं छूटेगा), जिनेन्द्रदेवका सत्य उपदेश तो यह है। इसके विरुद्ध जो चलते हैं वे जिनाज्ञाको न माननेके कारण मिथ्यादृष्टि हैं, सम्यग्दृष्टि नहीं है, क्योंकि जिनाज्ञा ( उपदेश ) को माननेवाला ही सम्यग्दुष्टि हो सकता है। तब आत्मकल्याणके इच्छुक जीवोंको चाहिए कि वे पहिले जिनवाणीको ही श्रद्धा करके सम्यग्दष्टि बमें अर्थात् सम्यग्दर्शनको प्राप्त करें। यहीं एक सपना और पहिला ( मुख्य ) उपाय है। इसके सिवाय परद्रव्यको न आकांक्षा करें न उसका बल भरोसा रखें। न उसका संग्रह करें, सिर्फ अपना ही बल भरोसा रखकर अपने शायक स्वभावका ही आलम्बन करें उसी में लीन ( तन्मय ) होयें तथा जो परद्रव्यका संयोग अनादिकालसे है उसका यथा शक्ति पदके अनुसार त्याग करें, ब अरुचि रक्खें संसार शरीर भोगोंसे विरक्त रहें । संक्षेपमें सांसारिक सुखोंकी वांछा या अभिलाषा नहीं करना नि कांक्षित अङ्ग कहलाता है।
१. कर्मपर वो शान्ते दुःखैरन्तितोदये पापबोजे सुखेऽनास्था अज्ञानाकांक्षणा स्मृता ।।१.२४॥ रत्मा ।
__ त्यर्थ:----सांसारिक सुखोंको अर्थात् परद्रव्योंकी जो आत्मासे भिन्न है ( विकाररूप है } पराधीन हैं ( वेदनीय आदि क के अधीन है--निमित्ताधीन है ) विनश्वर है ( मनित्य है ) आकुलसा (दुख ) रूप है और दुःख या आकुलताका बीजरूप हैं ( निमित्तरूप है ) उनमें उपादेयताको श्रद्धा नहीं. करमा- अर्थात् उन्हें इष्ट हितकारी नहीं मानना न उनको आकाक्षा करना। यही नि:काक्षिस अंह है। जिनशाका पालना है कि परद्रव्य अपना नहीं उसको आकांक्षा मत करो।
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दर्शनशानचारित्रप्रसारमा सस्वमात्मनः ।
एक एव सदा सेव्यो मोक्षमार्यो मुमक्षुणा १२३९॥ समयसारकलश । अर्थ-स्त्राश्रित स्वभाव दर्शन झान चारित्र ये तीन ही आत्माके स्वभाव ( वैभन्न ) हैं, अन्य परद्रव्य कुछ भी आत्माका नहीं है । अतएव मोक्षमार्ग तीनोंका समुदायरूप एक ही है, दूसरा नही है। अतएव मुमुक्षु उसीका सेवन करे या करना चाहिए ।।२३९||
निःकांक्षित अङ्गके निश्चय और व्यवहार दो रूप (१) जबतक सम्यग्दृष्टि जीब अपने शुद्ध स्वरूपमें लीन रहता है अर्थान में परद्रव्यसे भिन्न हूँ ( एकत्त्व विभक्तरूप) अतः मुझे परद्रध्यकी वांछा ( रागादि ) नहीं करना चाहिए 'यह भगवान्की आज्ञा है उसपर मैं दह हूँ ऐसा विचार कर जबतक वह शुद्धात्म स्वरूपमें-सब विकल्पों व रागादिकोंको छोड़कर अचल या स्थिर अथवा निर्विकल्प होता है कोई रामादि नहीं करता तबतक उसे निश्चय निकांक्षित अङ्ग समझना चाहिये । बीतरामताके समय ) क्योंकि यह स्वाचित है।
(२) और जब नि:क्रांक्षित अङ्गको पालनेकी बांछा या अभिलाषा होती है या उसमें भक्ति पूज्यता आदिकी भावना होतो है ( शुभराग होता है ) तथा घरकी उच्च पदोंकी वांछा नहीं होती ! तब उसको व्यवहार नि:कांति अङ्ग कहते हैं ( सविकल्प या सरागताकै समय ) यतः यह पराश्रित निःकांक्षितपना है। अर्थात् पर वस्तुकी आकांक्षा या चाहको छोड़ देना निःकाक्षित
मिथ्या धारणा अपने खातिर ( लिए ) सुखादिककी या विषय सुख प्राप्त होनेकी वांछा नहीं करना, निश्चयनिःकांक्षित है तथा दूसरोंको सुखादि होने की वांछा करना उनका भला चाहना, व्यवहार निःकांक्षित है। यह गलत या विरुद्ध धारणा है. क्योंकि जिनाज्ञाके विरुद्ध है ! जिनाज्ञा तो उत्सर्ग रूप यही है कि 'परद्रव्यकी आकांछा { राग या विकार ) नहीं करना' ( अपने लिये या परके लिए) बस वही सच्चा निःकांक्षित अङ्ग है । उक्त आज्ञामें कोई अपवाद ( शतं ) नहीं है ऐसा समझना चाहिये इति । जैन न्याय यह है कि जबतक जीव परद्रव्यको ग्रहण विसर्जन करता है तबतक वह विशुद्ध नहीं है, संसारसे पार नहीं हो सकता न कर्मक्षय कर सकता है, जिससे मोक्ष प्राप्त होता है। ऐसी स्थिति में वह मूच्छीवान ( परिग्रह वाला ) आरम्भवान् और असंजमी रहता है, तभी . वह संसारी होनेसे मोक्ष नहीं जा सकता यह खुलासा है। इसके सिवाय जब आत्मा अकेला है तब परपरिग्रहादिका संग्रह करना मूर्खता है, उसकी चाह करना प्रतिज्ञाभने दोष है इत्यादि । अतएव आत्मार्थी मुमक्षको परकी आकांक्षा करना निषिद्ध है किम्बहना। निश्चयनयसे किसी किस्मकी आकांक्षा नहीं करना, रागद्वेषरहित निर्विकल्प रहना निःकांक्षित अङ्ग है । और व्यवहारनयसे सांसारिक सुखोंकी (दृश्यमानबाह्य ) चक्रवतिन्ध आदि पदोंकी, धनादि वैभवोंको, परसमय (शास्त्र वेदादि ) और परधर्म ( वैदिकादि ) की वांछा नहीं करना सब निकोक्षित अङ्ग है, ऐसा समझना
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पुरुषार्थसिद्ध पुपाय नाहिए ! साक्षः म सुचित करती है मति जब किसी तरह का पर्यायाश्रित भय रहता है या लज्जा रहती है सब उसको निवारण करनेके लिए सरह २ के विकल्प, या रक्षाका उपाय यह जीव करता है । यह जब निर्भय हो जाता है तब न कोई विकल्प करता है न प्रतीकारका उपाय ही करता है यह नियम है। और तभी ग्रह जीव निईन्द होता है. वही दशा हितकारी है इति । आकांक्षा या चाह बुराई है ( अवगुण है ) अनाकांशा निर्मोहता भलाई है-हितकारी है ( गुण है ) इति 1 भय व आकांक्षाका होना पर्याय (अशुद्ध ) दुष्टि है जो अणिक है ाज्य हैं। जीवन, मरण, दवाई सेवन, अन्नादि ग्रहणका राग भी हानिकारक माना गया है अस्तु, द्रव्यदष्टि करनेपर आकांक्षा, भय, आदि कुछ विकल्प नहीं होता और पर्याय दृष्टि करनेपर आकांक्षा भय आदि सभी होता है ऐसा समझना चाहिये। इस तरह निश्चय और व्यवहार दो तरहका निःकांक्षित अङ्ग बताया गया है ॥२४॥
३--निविचिकित्सित अंग का स्वरूप व कर्तव्य शुतृष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेषु' । द्रव्येषु पुरीषादिषु विचिकित्सा नैव करणीया ॥२५॥
क्षुधा तृषादिक ये सब पुद्गम की पर्याएँ हैं। औध पृथक् हैं इससे सो भी युक्दशा अपनाए हैं । इससे धुधजन नहिं करते हैं, ग्लानि द्वेषता उन सब से।
अव्यरूप विध्मदिक से भी ग्लानि छोप्त ध्रुधिबल से ||२५|| अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ क्षुष्याशीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेषु पुशेषादिषु अग्रेषु ] भूख-प्यास जाड़ा गर्मी इत्यादि तरह २ की पुद्गलकी पर्यायों में अथवा संयोगीपर्याय होनेवाले भूख-प्यासादिक रूप विकारीभावों { परिणामों ) में तथा टट्टी आदि पुद्गलद्रव्यमें भी { सबको पर जान करके । [ विचिकिमा नैव करीया ग्लानि धुणा या संक्शता नहीं करना, बहो निर्विचिकित्सित अङ्ग कहलाता है । वस्तुस्वभावका ज्ञाता बैसा नहीं करता, उसको वह दोष मानता है ।।२५।।
भावार्थ सम्यग्दृष्टि भेदज्ञानीको जब सब द्रव्यों और उनकी क्षणिक विकारी ( अशुद्ध ) व अविकारी ( शुद्ध पर्यायोंका भिन्न २ ज्ञान हो जाता है तथा अपने स्वभाव विभाव भावोंका भी यथार्थ ज्ञान हो जाता है और उन भावोंके फल ( कार्य ) का भी पता लग जाता है, ( बोध
१. उत्पन्न होते या प्रकट होते। २. विकारी परिणाम-तरह २ को इच्छाओंका होना व रागडेष आदिका होना सब जीवद्रव्यके विकारभार
हैं जो संयोगीपर्याय में हुआ करते हैं ।
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सम्वन्दशन
हो जाता है ) इतना ही नहीं, सब द्रब्धगुण पर्याय स्वतन्त्र है--सब अपनी २ योग्यता । स्वभाव या उपादान ) से ही होते व मिटते हैं...-उनको कोई निमित्त ( कर्मोदयादि ) उत्पन्न नहीं करता न मिटाता है। ऐसी स्थिति में यदि हमारो ( जीवक्री ) इस संयोगोपर्यायमें कोई क्षुधा तृषादिकके विकारीभाव ( पर्याय ) अनचाहे भी अपनी स्वतन्त्रतासे स्वयं ही उतान्न हो जायें या हमारा ( आत्मद्रव्यका । उन पर कोई दवाउरा ( प्रभाव ) नहीं हैं वे स्वयं हो सकते हैं। फलत: न हम उनका कुछ कर सकते हैं न वे हमारा कुछ कर सकते हैं ऐसा दृढ़ श्रद्धान सम्यग्दृष्टिको होनेसे वह विकारोभावोंके होते समय अधीर खेद-खिन्न, चिन्तातुर व संक्लेषित नहीं होता, उसे वस्तुस्वभाव मानकर वह सन्तोष ही धारण करता है तथा यह यह भी जानता है कि ये तो बिकारीभाव हैं
और विनश्वर हैं नष्ट हो जावेंगे, अगर हम इनमें रागद्वेषादिक करते हैं तो हम और भी नये विकारोंसे और सज्जन्य कर्मबन्धसे बंध जावेंगे, जिससे हानि ही होगी। अतएव हमको विकल्प या सक्लेपता आदि न करके सन्तुष्ट हो रहना चाहिए जिससे नई आपत्ति न आने पावे और
यात्परता रहे. का होगा दन्द हो जाते, ऐसे बुद्धिमत्ता पूर्ण उच्च विचारोंसे हो सम्यादष्टि * कोई ग्लानि वगैरह विकारोभाव ( संक्लेशता दुःख) नहीं करता, स्वभाव भावमें स्थिर रहता है
तभी आत्मकल्याण होना सम्भव है। यही ज्ञायक स्वभावमें लीन होना है। शरीरादिक सब संयोगो. पर्यामरूप हैं अशुचि हैं अत: उनमें आस्था नहीं रखना चाहिए इत्यादि निर्विचिकित्सित अङ्गको समझना।
नोद-संयोगी अवस्थामें, भूख-प्यास आदिका लगना अर्थात् वैसा भाव होना पुद्गलकी पर्याय है तथा जीवके विकारी माद (पर्याय ) हैं और टट्टी आदि मल, सब पुद्गलकी पर्याय है ( जड़ रूप है ) यह वास्तविक भेद है।
निश्चय और व्यवहारको दो रूप निविचिकिस्थित अंगके निम्नप्रकार हैं। (१) निश्चयनिर्विचिकित्सित अङ्ग- वह है जिसमें कोई विकारीभाव न हो अर्थात संयोगीपर्यायमें विकागेंभावों । क्षुधादिक । के होनेपर भी स्वस्थ रहे, अपनी चीतरामता न छोड़े, शुद्ध स्वरूपमें लीन व तन्मय रहे, कोई सगादि व क्लेशता आदि न करे इत्यादि । कारण कि उनको पर जानकर रागद्वेष नहीं करता न करना चाहिए तभी बीरता है अस्तु ।
नोट- क्षुधा तृषादिक ये सब पुद्गलकी पर्याय हैं, उसी में होती व मिटती हैं तथा जीवद्रव्यमें भी वैसे रागादिरूप विकारीभाव होते हैं ऐसा निर्धार समझना चाहिये।
1) व्यवहार निविचिकित्सिता---वह है कि बाहिर शरीरादि अशुचि वस्तुओंसे घृणा या ग्लानि नहीं करना, इसमें पराश्रितता है। शरीर आत्मासे भिन्न है अत: उससे द्वेष या ग्लानि नहीं करना ऊपरी बात है। भीतरी बात भी तब है जब रागादिक बिकारीभाव आत्मामें से निकलें, न होवें अर्थात् रागादिक बुरे है ऐसा द्वेष रूप विकल्प भी भीतर न होवे, इत्यादि । क्योंकि लोकाचारमें कोई बाहिर जाति-पातिको ग्लानि छोड़ देते हैं, परन्तु ग्लानि या दुश्मनी बराबर रखते
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হ্রাথমিক্স हैं, धनी गरीबोंसे घृणा करते हैं इत्यादि बुराइयाँ नहीं छूटती अतएव बह पाखण्ड ढोंग या वेष समझा जाता है 'इत्यादि।
अन्यत्र निविचिकित्सिताका अर्थ निर्दयतारहित किया है अथवा दधासहित होना निर्विचिकित्सिता . कहलाता है । विचिकित्सिता - निर्दयता, उससे रहित इति ।
नोट---व्यवहार दृष्टि या मषिके समय भी यदि निश्चयदृष्टि ( अन्तर्दृष्टि ) रहे या रखो जाय तो वह सम्यक व्यवहार होनेसे कथंचित उपादेय होता है अर्थात् मन्द रागादिकके उदयमें वेसे भाव व शारीरिक क्रिया हो सकती है, परन्तुगतो कि हेप जानता हुआ { अरुचिपूर्वक) यदि करे तो दोषावायक नहीं होता। मिथ्यादष्टि नहीं हो जाता) कारण कि वह विवशता ( मजबरी ) की अवस्था होनेसे चिरस्थायी नहीं होती, सदैव अरुचिरूप रहती है क्योंकि पर होने के कारण एकत्त्व विभक्त दृष्टिवाला उसमें रुचि प्रोति उपादेयता कभी स्थायी नहीं कर सकता यह निश्चित है। ऐसा जीव ( सम्यग्दृष्टि ) ही यथार्थमें निर्विचिकित्सित अङ्ग पाल सकता है जो जिनवाणोंमें श्रद्धा रखता है कि विकार या विभाव सब पर हैं, अतएव उनको मत अपनाओ
अर्थात् अपनी आत्मामें उन्हें यथासम्भव स्थान मत देओसदेव पृथक् रहो, बाह्य वस्तुएँ सो । दृश्यमान पृथक हैं ही ऐसा समझना चाहिये, परके संयोगसे कोई अपवित्र या पवित्र नहीं होता यह वस्तुव्यवस्था ( स्वभाव ) है किम्बहुना । शेष सब भ्रम है इति ।
संयोगी पर्यायमें अनादि कालसे निश्चय और व्यवहारनयमें परस्पर सापेक्षता अर्थात् कथंचित् निमित्तनैमित्तिक' सम्बन्धाता चली आती है, तब परस्पर सर्वथा ( अत्यन्ताभावरूप)
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१. स्वभावतोऽशुत्रों काये रत्नत्रयपश्चित्रिते. निर्जुगुप्सा मुणप्रीतिमता निविचिकित्सिता ॥१३॥ रत्न श्रा
अर्थ:--स्वभावसे अपबित्र ( नवद्वार मलबाही ) किन्तु रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शनादित्रय ) के संयोगये पवित्र ( उपचरित ) ऐसे शरीर में सानि नहीं करना, निविचिकित्सित अंग कहलाता है यह व्यवहारनयका लक्षण है क्योंकि पराश्रित ( शरीराश्रित ) है अतः उपचार है। निश्चयसे आत्मामें रागादिक (ग्लानि वगैरह) का न करना मिविचिकित्सित अंग है यह स्वाश्रित है। छह्वालामें 'मुनि तन मलिन म देख धिनावे' यह भी व्यवहारका कथन है अस्तु । २. मूलाचार अन्य गाथा ५७५८ पंचाचार अधिकार। छह तव्हा सीदुण्हा दंसमसयमचेलभाको य।
अरविरदिइस्थिचरियाणिसीधियासेन्जअकोसो 1॥५॥ बधजायणं अलाहो रोगतशफासजल्लसक्कारो। तह चे पणपरिसह, अपणाणमर्दसणं खमणं ।।५८॥ उक २२ परीषहौंको लानिदेष संक्लेशता रहित परिणामोंसे जीतना सहन करना, धर्म या चारित्र है, उससे सम्यग्दर्शन मुण निर्मलविचिकित्सारहित होता है यह तात्पर्य है।
बृहत् हैन्यसंग्रह गाथा ४१ 'जीवादीसदहणं सम्मत्तं रूवमप्पणं तं तु । दुरभिनिवेसविमुक्क गाणं सम्म खु होदि सघि जम्हि ॥४१॥
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सभ्यग्दशन
असम्बन्धता नहीं कहा जा सकती किन्तु तादात्म्य सम्बन्ध परस्पर न होनेसे कचित् असम्बन्धता कही जा सकती है यह तात्पर्य है। निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध तो लोकमें ( समुदायावस्थामें अशुद्धोपयोग तक) प्रायः सभीका है अन्यथा लोकव्यवस्था ही सब बिगड़ जायगी ऐसा समझना चाहिए। हाँ, जन्यजनकता परस्पर नहीं होतो, उपादानउपादेयता नहीं होती यह तात्पर्य है किम्बहुना । परस्पर सापेक्षता इसीका नाम है अर्थात् साथ २ रहना और यथासम्भव एक दूसरेको मदद या सहायता देना बावा या विन खड़ा नहीं करना इत्यादि। गौण और मुख्य रूपसे अपनी २ सत्ता अशी कायम रखना पर भी सीमित है अनु । आठों कर्मोंका व नोकर्म, भावकर्मोका अनादिसे ऐसा ही तो निमित्तभंगितिक सम्बन्ध चल रहा है इति । तथापि भेद दोनोंमें रहा है, पर्याय भी जुदो २ होती हैं परन्तु संयोग अवस्थामें वे विकारी पर्या कहलाती हैं। खाने-पीने आदिके भाव होना जीवके विकारी भाव हैं पर्याय हैं तथा टट्टी पेशाब आदि पुद्गलके भाव (पर्याय ) हैं ऐसा समझना चाहिए किम्बहुना। निश्चय व्यवहार निविचिकित्सिल अङ्गका संक्षेप रूप नीचे देखो।
४.अमूढदृष्टि अंगका स्वरूप बताया जाता है
( अज्ञानता निकालना रूप) लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे । नित्यमपि तत्त्वचिना कर्तव्यममूहदृष्टित्वम् ॥२६॥
stola PERMORE.
पद्य
कचिवन्त सम्यग्दृष्टि को नहि मूकता करनी कभी । जोहों कुशास्त्र कुधर्म अरु जो हो कुदेवादिक सभी । निमलता वह अंग है सम्यक्त्यका सूचक सदा ।
इसके बिना खपिटुत कहा सम्यक्त्वका दरजा सदा ॥२६॥ अन्वय अर्थ---[ सवाचिना] वस्तुके स्वरूपमें रुचि या श्रद्धा रखनेवाले---सम्यग्दृष्टि जीवको [लोक शास्त्राभासे समयाभासे देवताभासे च लोकाचारमें अर्थात लौकिक प्रवत्तिमें (दूसरोंकी देखा-देखोसे) तथा खोटे । एकान्तपक्षी हिंसादि पोषक ) शास्त्रों में ( कशास्त्रोंमें ) कुधमों में और कूदेवोंमें [ नियमपि हर समय । अमुश्विं कर्तव्यम् ] महता नहीं करना चाहिये अर्थात परीक्षा और विवेकके साथ ( सावधानी पूर्वक ) मान्यता और सेवा करनी चाहिये, तभी उसके १. आत्मामें होनेवाले ( अन्तरंग ) रागादि विकारीभावोंसे भी धूणा या श्व नहीं करना कि ये बुरे है
इत्यादि, निश्चयनिबिचिकित्सित अंग है ( स्वाश्रित है ) तथा बाहिर पुरीषादि या शरीरादि परद्रव्यमें ग्लानि या द्वेष नहीं करना, व्यवहार निर्विचिकित्सित्त अंग है ऐसा खास भेद समझना चाहिए ॥२५॥
२. कुधर्म :
जामुद्धताका त्याग करना । अर्थात् अज्ञानता को छोड़ना व ज्ञानको उत्पन्न करना ।
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पुरुषार्थसिद्धयुपाय अमूदृष्टि अङ्ग पल सकता है यह व्यवहारत्यको अपेक्षा कथन है ॥२६॥x निश्चयनयसे अपनी आत्माका अज्ञान (मिथ्याज्ञान ) निकालना, सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना, अमढ दृष्टि अङ्ग है।
भावार्थ-जीवनमें लोकाचार (चाल-चलन ) देव, शास्त्र, धर्म ये चागे बातें बड़े महत्व को है । इसके सम्बन्धमें कभी असावधानी या देखा-देखी बर्ताव नहीं करना चाहिये, यह साधारण शिक्षा ( उपदेश : है. जो सभी भव्य जीवांको मानना चाहिये । किन्तु सम्यग्दष्टि जीवके लिए तो स्वासकर यह निषेध : प्रतिबन्ध } है कि वह उक्त चारों बातों में पर्याप्त सावधानी रखें, मूर्खता या अज्ञानता न करे अर्थात विना परीक्षा किये ( सत्य असत्यका निर्णय न करके ) यद्वात्तमा प्रवृत्ति न करे तभी वह सम्यग्दर्शनकी रक्षा कर सकता है अन्यथा नहीं यह विशेष उपदेश है।
(१) निश्चयनयसे आत्माके शुद्ध । चोतराग ) स्वरूपमें भूल नहीं करना चाहिये अर्थात् उसको समझकर यथासंभव निर्विकल्प होकर उसी में उपयोगको लगाना चाहिए वैसा करनेका नाम ही निश्चय अमृदृष्टि अङ्ग है। यह स्वाचित है।
(२) ज्यवहारनपसे बाद्य पदार्थो में अर्थात् लोकनि गाल ( नदादा नहीं करना (मनमानी स्वच्छन्द प्रवृत्ति नहीं करना ) अर्थात् लोकविरुद्ध कार्य नहीं करना, लोक मर्यादाको बनाये रखना । भङ्ग नहीं करना ) शिष्टता बुद्धिमत्ता व सदाचार है । इसी तरह सच्चे सुमार्ग प्रदर्शक शास्त्रोंका अभ्यास करना, उनकी बालको मानना ! सच्चे धर्मको अपनाना ( कुधर्मको छोड़ना ) सच्चे येव ( बीतरागी सर्वज्ञ ) को पूजना मानना आदि {झूठोंको नहीं पूजना मानना) उनका त्याग करना, अर्थात् उनका त्यागना, यह सब पराश्रित होनेसे व्यवहारकोटिका अमूढ़ दृष्टि अङ्ग है ऐमा समझना चाहिए । समय समयपर योग्यतानुसार दोनों उपयोगी होते हैं किन्तु अन्तमें निश्चयके आलम्बनसे ही कल्याण होला है...दूसरेसे नहीं यह निष्कर्ष है ।
अमूढ़ता { निमूदता ) के दो भेद . (१) निश्चय अमहता-वस्तु के शुद्ध स्वरूप में नहीं भूलना, ज्यों-का-त्यों जानना व श्रद्धान रखना । जैसे कि अध्यात्यकी भाषा ( बोली या शैली) में आत्माके शुद्ध स्वरूपको जानना स्वाश्रित या स्वाधीन मानना व कहना निश्चय अमलता है। अर्थात् सम्यादाम स्वयं होनेवाला ( स्वाश्रित ) आत्माका गुण ( स्वभाव ) है, वह पसथित ( निमित्ताधीन ) नहीं है इत्यादि सत्य है । अपने स्वरूप में अज्ञानताको निकालना रूप है, अन्य या परके बावत अज्ञानताको निकालनेकी बात नहीं है अस्तु।
(२) व्यवहार अमूहता---अन्य वस्तुके स्वरूपको आगमकी भाषामें पराचित या निमित्ता. धीन कहना मबहार बमूढ़ता है, क्योंकि लोकमें वैमा मानते हैं । अर्थात् जैसे सम्यग्दर्शन, दर्शनमोहकर्मके उपशमादि होनेसे ही होता है अन्यथा नहीं होता इत्यादि । लोक व्यवहारमें जैसा चलन व्यवहार है वैसा ही मानना व करना सब व्यवहार अमूढ़ता है-उसको भूलना नहीं चाहिये । * कापणे पथि दुःखामा कापस्थेभ्यसंगतिः । असंपृक्तिर नुस्कोतिरमूला दृष्टिमन्यते ॥ १४ ॥२९ श्रावकाचार।
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सम्यग्दर्शन
१५ लेन-देन रिश्तेदारी आदि जैसी मानी जाती है वैसी ही मानना, लोकमें असत्य नहीं मानी जानी सत्य मानी जाती है। इसका माम व्यवहार कुशलता है। सम्परदुष्टि दोनों नयोंको समझता व वर्तता है कदाचित् भूल हो जानेपर पछताता है, उसमें दुःख मानता है. भूलको मिटाने का प्रयत्न करता है इत्यादि । व्यवहार में लोकव्यवस्था न आस्था नहीं बिगड़ती वह लोकव्यवहारी चतुर जीव, सबको ज्यों-का-स्यों । हेय उपादेव ) समझता हुआ प्रवृत्ति करता है ( श्रद्धा जुदी २ रहती है-उसीका जसे फल लगता है क्रियाका नहीं । किम्बहमा। मढ़ता अज्ञान है अपराध है और वह बन्धका कारण हैं। लेकिन वहांपर व्यवहाग्नयसे अमढता रखना अर्थात मढता नहीं करना । इसका मतलब, कुदेव, कुगुरु, कुधर्म, कुशास्त्रके ( परके ) बाबत भूल या अज्ञान निकालनेका है, जिससे उनका आदर आदि न किया जाय, छोड़ दिया जाय- सम्यग्दर्शन में दोष न लगे इत्यादि वचत होती हैं जो इष्ट है ऐसा समझना इति ।
५----उपगहन अंगका स्वरूप बताते हैं "धर्मोऽभिवर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया । परदोषनिगृहनमषि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम् ॥ २७ ।।
आतम धर्म बलाना निश्यथ उपगृहन कहलाता है। मदिन आदि भावना दलसे परके दोष दृवासा है। सह उपमहान व्यवहारमयका-दोनों भेद जान करके।
सम्यग्दृष्टि अपनाता है - यथायोग्य पदमें रहके 11 २७ ।। 'अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [सदा स्मधर्मः बनायः सम्यग्दष्टिको हमेशा आत्मधर्मको बीतरागता रूप भावको बढ़ाना चाहिये। तथा [ मार्दवाचिभावना उपहाण गणार्थ
१. वीतरागताप, निश्चय धर्म तथा कलायकी मन्दतारूप शुभ धर्म, व्यवहार धर्म। २. मान या अहंकार न करनेस बिनय प्रकट होनेसे-धर्मानुराग होनेसे । ३. हुकना-प्रकट न करना, यह भी कषायकी मन्दतामें हो सकता है। अपने गणों को प्रकट या जाहिर नहीं
करना, मान कषायको मन्दताका फल है। और दूसरोंके औगुणोंको प्रकट नहीं करना यह भी कयाय
को मन्दताका फल ( कार्य । है-दोनों ही कषायको मन्दतासे होते हैं। ४, विकार या दोष । ५. आत्मधर्म। . ६. बढ़ाना-पूर्ण करमा । , पंडित विद्वान् । ८. उपगृहन अंग पालना 1
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सपासमुकाय परदोषनिगहममपि विधेयम् ] मानादि कषायको छोड़कर गुण या धर्मको बढ़ानेके लिये ही---दुसरौं के दोषोंको भी ढकना चाहिये, जिससे अपना व पराया धर्म बढ़ जाय या बढ़ सके ।। २७ ।।
यहाँ पर निश्चय उपगृहन व व्यवहार उपगृहनका निरूपण किया है ! स्वाचित व पराश्रित ) इति ।
भावार्थ-पुण्यबंधका कारण विशुद्धता रूप धर्म ( व्यवहार धर्म ) मानादि कषायोंकी मन्दतासे ही बढ़ सकता है अन्यथा नहीं। कारण कि जबतक मान आदि कषायोंका तीव्र उदय रहता है तबतक बहुत अहंकार ( गवं-धमंड ) आदि विकारीभाव जीवके होते रहते हैं। बह जीव संसारमें नामवरी उच्चता ख्याति आदि बहुत चाहता है एवं अपने सामने दूसरोको तुच्छ ( नगण्य ) लेखता है अर्थात् मानके पहाड़ पर चढ़ा रहता है। ऐसी स्थिति में तीत्र मान कषायवश अपने में मौजूद ब मैर मौजूद गुणोंको प्रकट करता है. उन्हें दूसरोंसे प्रकट करवाता है तथा अदेखसक्राभावसे दूसरोंके थोड़ेसे दोषोंको चढ़ाबढ़ाकर प्रकाशित करता है, उन्हें नीचा दिखाता है, जिससे दोनों से किसी के भी गुण या वर्म नहीं बढ़ पाते, कारण कि पापकर्मका बंध होनेसे विघ्न आ जाता है इत्यादि हानियाँ होती हैं। अर्थात् चाह या चिन्तवन के अनुसार पदार्थोंका परिणमन या कार्य कभी नहीं होला यह तात्पर्य है।
(१) कषायको मन्दतारूप धर्मको उपगृहन अङ्ग कहना व्यवहारनयका विषय है। (वह पराश्रित है ।
(२) निश्चयनयको अपेक्षा कषायोंका अभाव होना वीतरागतामें स्थिर होना सच्चा उपगूहन है। जिससे जीवको पाप 4 पुण्य दोनोंका बंध न होनेमें पूर्ण रक्षा होती है ऐसा समझना चाहिये।
धर्मके यो रूप माने जाते हैं ( १ ) निश्चय रूप--वीतरागतामय, पुण्यपाप परिणामोंसे रहित पूर्ण शुद्ध 1 { मोक्षका कारण)
(२) व्यवहार रूप----शुभरागमय, पुण्यपरिणाम सहित, अपूर्ण शुद्ध । ( संसारका कारण) फलत: मोक्षका मार्ग एक ही है और वह निश्चय रूप पूर्ण शुद्ध है ऐसा समझना चाहिये।
१. स्वयंशद्धस्य मार्गस्य बालाशकजनाश्रयां । वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति तद वदन्त्युपगृहमम् ।। १५ ।।
अर्थ : स्वभावसे शुह दोष रहित वीतराग मोक्ष मार्गमे । रत्न-त्रय ) में यदि किन्हीं अज्ञानी या असमर्थ लोगोंके द्वारा दोष ( वाच्यता ) लग जाय मा लगा दिया जाय तो उसको दूर करना या एक देना अपगृहन अंग कहलाता है। यहां पर भी अपने दोषोंको दूर करना वीतरागता धारण करना, निश्चय उपगृहन है ( स्वाश्रित ) और दूसरोंके दोच्चको दूर करना या वैसी भावना रखना, व्यवहार उपगृहन है ( पराश्रित है ) यह भेद समझना चाहिये ।। १५ ।।
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বাল उसको कलंकित करना महान अधर्म है या धर्मका व्याधात है। उसकी शुद्धि करना धर्मात्माओं का कर्तव्य है। धर्म स्वभावको ( वस्तुस्वभावो धर्मः ) कहते हैं तदनुसार स्वभाव ( प्राणभूत गुण ) का घात यथासंभव नहीं करना चाहिये अथवा विभावभाव ( विकारी परिणाम ) नहींकरना चाहिये और उसके लिये आत्मबलका प्रयोग करना चाहिये। अन्यथा पुरुषार्थहीनता समझो जावेगी किम्बहुना । मोक्ष पुरुषार्थका हीनता जीवनका सबसे बड़ा अपराध है, इसको कभी नहीं भूलना।
सामाजिक व्यवस्था या लौकिक व्यवस्था का स्थान धार्मिक व्यवस्थासे भिन्न रहता है। उसमें निग्रहानुग्रहका समावेश रहता है ( रागद्वेषका भाव रहता है ) तथापि उसमें भी विवेको जीव शुद्ध भावसे भाग लेते हैं। लोकरीति के अनुसार सच्चा न्याय ( शासन ) करते हैं। अर्थात् शुद्ध हुदयवाला जीव शंकाभय, लोमलालच, उच्चतानीचता ( जातिपांति ) अज्ञाताला, अरक्षा ( कटोरता या निर्दयता] स्वार्थपरता । लापरवाही) अप्रीति, अनुन्नति । उपेक्षा ) आदि निम्न या क्षुद्र विचारोंसे सर्वथा दुर रहता है, तभी वक्ष श्रेष्ठ व आदरणीय बनता है। सत्य निर्णय करने के लिये कोई दवाउरा या स्वार्थ नहीं होना चाहिये, न भय व घृणा होना चाहिये। तभी समाजोन्नति व देशोन्नति कर सकता है व हो सकती है। अर्थात् उसके लिये भी बाहिर आठों अङ्ग होना चाहिये इति ।
समाजशास्त्र ( लोक शासन ) में भी दंडव्यवस्थाका होना अनिवार्य है अन्यथा वगावत या गड़बबड़ी ( अराजकता ) का होना संभव व शक्य है । धार्मिक व्यवस्था भी ऐसा ही नियम है।
{१) निश्चय उपमूहन-अपने शुद्ध वीसरागतारूप धर्मको बढ़ाना-उसमें वित्तको लगाना दृढ़ रखना, उपयोग हटने पर पुनः पुनः आत्मबल द्वारा उसीमें लगाना । बस, यही निश्चय उपमूहन अंग कहलाता है । इसके विषय में पूज्यपाद स्वामी कहते हैं यथाअधिधाभ्यामसंस्कारैखशं शिप्यते मनः, तदेव ज्ञानसंस्कारैः स्वतस्सवेऽवतिष्ठते ॥११॥
( समाधिशतक) अर्थात्---अनादिकालके अज्ञानका संस्कार ( वासना ) होने से जीवोंका चित्त स्थिर नहीं होता बार २ चल चूक हो जाता है, अतएव भेदज्ञानके द्वारा ज्ञानका संस्कार डालनेसे तथा १: वेसणधरणविश्वगणे जीवे दट्यूण धम्मभत्तीए । उपगृहणं करितो सणसुद्धो हदि एसो ॥६४|| पंचाचार अधिक मूलापारे।
अर्थ --- जो लीय अपनी आत्मामे मा दूसरों की आत्मामें मोजूद दर्शन वा चारित्रगुणको मलीन (विवर्ष) या अशुस बेखकर, उसको निकाल देता है...शुज व निर्मल कर देता है । दोषरहित बना देता है ) अर्थात अपने आस्माकी अशुद्धतासे रक्षा करता है वहां जीय शुद्ध सम्यग्दृष्टि अर्थात् उपगृहन अंगका पालनेवाला होता है ऐसा जानना ॥२४॥
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पुरुषार्थसिद्धषुषाय अज्ञानका संस्कार हटानेसे ही उपयोग स्थिर हो सकता है. दूसरी तरहसे नहीं यह नियम है, पो करा।
(१) व्यवहार उपगृहन-बुभ रागरूप है, मार्दव आदि धर्म की भावनारूप है अर्थात् कषायकी मन्दतारूप-पुण्यबन्धके कारणरूप है ऐसा भेद समझना चाहिए। परन्तु इसमें भी हेय बद्धि रखने वाला ही मोक्षमार्गी बहलाता है किबहुना सर्वत्र विरागभाव और रागभावका ही मूलभेद है ऐसा समदाता परन्तु संगीमीयमें दोनों तरह के भाव होते हैं कोई नई या अपूर्व या अनहोनो चीज नहीं है। अतः कोई भ्रम या संशय नहीं करना चाहिये, सभी नियत है-- अनियत कोई नहीं है। वस्तुका स्वभाव व परिणभन सब स्वतन्त्र है, सम्बग्दष्टि, इस सबको आगम द्वारा जानता व श्रदान करता है क्योंकि वह केवलीको वामीका पूर्ण श्रद्धालु होता है अस्तु । इस प्रकार निश्चय व व्यवहार उपगूहनका कथन किया गया है ||२७||
___ ६. स्थितिकरण अंगका स्वरूप बताते हैं कामक्रोधमदादिषु चलितुमुदितेषु वर्त्मनो न्यायात् । श्रुतमात्मनः परस्य च युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम् ।।२८।।
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पद्य
TREATME0:011
धर्म मार्ग से विचलित करने वाले कामादिक होते। उदय अवस्था होने पर वे विचलित धर्महिसं करते। उसी समय जो युति से या शास्त्र देशना से करते ।
स्थिर निज पर को धर्महि में, सरवां अंग पाल सकसे ॥२८॥ अन्वय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [ न्यायान वर्मभो न्यायमार्ग अर्थात् धर्ममार्गसे [चजितु] विचलित करनेके लिए या विचलित करने वाले [ कामझोत्रमदादिपु उहिलेषु वेदत्रय, क्रोध मान
आदि कषायोंके उदय होने पर, परिणामोंमें विकार हो ही जाता है अतएव सम्यग्दृष्टिको [ आत्मनः परस्य च ] स्वयं अपनी आत्माको तथा परकी आत्माको [ श्रुतं युक्रया अपि J शास्त्र या आगमके उपदेश द्वारा अथवा युक्तिके द्वारा अथवा आर्थिक सहायता द्वारा [ मिथलिकरणं कार्यम् । न्यायमार्ग में स्थिर करना चाहिये। तभी छटवां स्थितिकरण अङ्ग पल सकता है ऐसा जानना बारा
१. वेदत्रय। . २. धर्म या स्वभाव । ३. वनामवरणादापि चलला धर्मवत्सलः । प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञ: स्थितिकरणमच्यते ॥१६॥र० श्रा
अर्थ----दर्शन शान चारित्ररूप धर्म ( न्याय ) से विचलित होनेवाले जीवोंको धर्मसे प्रीति रखनेवाले । जीवोंके द्वारा जो पुनः धर्म में स्थिर किया जाता है, उसको विद्वानोंने स्थितिकरण अंग कहा है ऐसा समझना पाहिये ॥१६॥
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सम्यग्दर्भम यहाँ पर निश्चय व्यवहार दोनों भेद कहे गये हैं।
भावार्थ-जन्न संसारी जीवोंके कर्मोंका और खासकर मोहनीय कर्मका या उसके भेद क्रोधादि २५ का तथा मिथ्यात्वादि का कुल २ का उदय आता है तब जीवोंके मन या क्षयोपशम ज्ञान उपयोगमें विकार उत्पन्न होता है अथवा रागादिरूप विकारीभाव प्रकट होते हैं । सत्ता में रहनेपर कुछ नहीं होता यह नियम है । ऐसो स्थिति में जीव, धर्भ ( स्वभाव-न्याय ) से विचलित या भ्रष्ट अवश्य हो जाते हैं। उस समय विवेकी जीवोंका कर्तव्य हो जाता है कि वह स्वयं अपनेको आगमके स्वाध्याय या तत्त्वचिन्तवनके द्वारा परिणामोंको ) सुधारे--उपयोगको विकारकी औरसे हटाकर स्वभावमें लगावे और दूसरे जोवों को भी समझाये ( उपदेश देव । अथवा आवश्यकताके अनुसार विपत्तिकालमें धनादिक ( पुंजी) की सहायता देकर धर्म में स्थिर करे, यह एक उपाय धर्म साधन का है। कारण कि संयोगोपर्यायमें कर्म उदयमें आते हैं.ारीर बेकाम होता है धनादिक समाप्त हो जाता है तब रागोद्वेषी मोही जीवको आकुलता हो जाती है चित्त विक्षिप्त हो जाता है गहस्थाश्रमके चलानेकी जिम्मेवारी उसपर रहती है इत्यादि, अत: सब द्वारे बन्द हो जाने पर चिन्ता व धर्ममें शिथिलाचार होना संभव है। तथा 'न धर्मों धार्मिकैविना' धर्मके चलानेवाले धर्मात्मा जीव ही होते हैं उनके बिना धर्म नहीं चल सकता 1 ऐसी कठिन परिस्थितियों में धर्मवत्सल दयालु धर्मात्माको धर्म से एवं उसके पालनेवाले धर्माश्माले निरपेक्ष वात्सल्य होना ही चाहिए। तभी वह स्थितिकरण अङ्गको पालनेवाला हो सकता है इत्यादि । सर्वत्र विवेककी महती आवश्यकता है। सूत्रकार उमास्वामी महाराजने भी 'परस्परांपग्रहो जोदानाम्' ऐसा सुत्र लिखा है।
स्थितिकरण अंगके २ भेद ( १ ) निश्चय स्थितिकरण---रत्नत्रय धर्म में निर्विकल्प होकर उपयोगको लगाना अर्थात् यथासंभव वीतरागतारूप स्वभाव, दत्तचित्त होना, निश्चय स्थितिकरण कहलाता है यह स्वाश्रित है । वास्तव में यस्तुका स्वभाव उत्सर्गरूप' है अर्थात् परके त्यागस्य परसे भिन्न रहना' है, अपवाद वस्तुका स्वभाव नहीं है निभात्र है ऐसा जानना चाहिए । कदाचित् कर्मोदयके समय परिणाम धर्मसे विचलित हों तो उनको धर्ममें पुनः लगाना स्वकीय स्थितिकरण है वह अनिवार्य व निश्चय रूप है अस्तु।
(२) व्यवहार स्थितिकरण..जब जीवका उपयोग शद्ध स्वरूपसे हटता है तब जो कोई दुसरा धर्मात्मा, धर्मसे संयत हो रहे अन्य जीवको देखकर उसके निवारणार्थं मन में एक करुणाभाव या दयापरिणाम उपस्थित करता है वह शुभराम हप है। उसके बलसे प्रेरित होकर वह उन अन्य
१. प्रवचनसार माथा २२४ देखी।
कि किन्त्रणत्तिता अषणरत कामिणोऽयदेहेखि । ___ संगत्ति जिवंरिदा अडिकम्मत्तिमूहिष्टा ।।२२४।।
अर्थ .....जब देह भी साथी आमासे भिन्न है...आत्मा अकेला है तब अन्य चीजोंको भिन्नताका क्या प्रश्न या सके है ? बैं तो सन्न प्रत्यक्ष जुदे हैं ही ऐसा सत्य समझना चाहिए यह जिनेन्द्रदेवका कहना है ।२२४६ ..
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पुरुषार्थसिधुपायं जीवोंको धर्म में लगानेका जो प्रयत्न करता है, उसको व्यवहार स्थितिकरण अङ्ग कहा जाता है यतः वह पराश्चित है पुण्यबन्धका कारण है। इसमें विराग व शुभ रागका असली भेद है किम्बहुना । स्वाचित पराश्रितका भी बड़ा भेद है अस्तु ॥२८॥
७-वात्सल्य अङ्गका स्वरूप बताते हैं अनवरतमहिसायो शिवसुखलक्ष्मीनिवन्धने धमें। . सर्वेष्वपि च सर्मिषु परमं वात्सल्यमालम्व्यम् ॥२९॥
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पद्य मोक्षरक्ष्मी संगम' कारण-धर्म अहिंसारू है। अरु उसके पालनहारे भी, प्रीति योग्य कर्तब यह है ॥ अ सातवाँ सम्यग्दर्शन, रक्षक वस्सल होता है।
इसीलिए वह धरण योग्य है-सम्पष्टि धरता है ॥२९॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि । अनवरतं ] निरन्तर सम्यग्दष्टिको [ शिवसुखलक्ष्मीनिधने अहिंसायां श्वमें ] मोक्ष लक्ष्मोके सुखकी प्राप्ति के कारणभूत अहिंसा परम धर्ममें | अपि] और [ सर्वेषु सधर्मिषु परमं वात्सल्य आलम्म्यम् ] अहिंसा धर्मके पालनेवाले धर्मात्मा जीवों में नि:स्वार्थ वात्सल्य करना चाहिए ( प्रीतिका बर्ताव या प्रदर्शन करें) यही वात्सल्य अङ्ग कहलाता है ।।२९।।
भावार्थ-साधारणतः वात्सल्य, प्रेम या प्रीति करनेको कहते हैं । परन्तु उसके दो रूप होते हैं। (१) प्राणिमात्रसे प्रीति करना' । (२) धर्मात्माओं व धर्मसे प्रीति करना । साधारण प्रीति तो स्वार्थ या रागादिके कारण संसारी जीव किया ही करते हैं-स्त्री पुरुषसे पुरुष स्त्रीसे, तन धन जन सभोसे यह प्राकृतिक है। परन्तु यह अशुभराग (प्रीति ) कहलाता है जो पापबंधका कारण माना गया है। किन्तु जो धर्मानुराग निःस्वार्थ होता है, उसको शुभराम कहते हैं, उससे पुण्यबन्ध होता है। अतः वह अशुभको अपेक्षा अच्छा माना जाता है। इसी अभिप्राय ( दृष्टिकोण ) को मुख्यता देते हुए आचार्य महाराजने मोक्षके या उत्तम सुखके कारणभूत अहिंसा धर्ममें अथवा उसके सेवकोंमें चि या वात्सल्य करनेका उपदेश सराग अवस्थामें दिया है जो उचित ही है । संसारमें
और तन-बन आदि संयोगी पर्यायमें रहते हुए यदि कोई पापबन्धसे बच जाय यही बड़ा लाभ त्व हित है। आजकल अधिकांश लोगोंकी विषय-कषायको बढ़ानेको प्रवृत्ति हो गई है। धर्म और सच्चे धर्मात्माओंसे प्रीति हटती जा रही है। ऐसे अज्ञानी जीव, इस असार संसारमें ही मोक्षका व सुखका ख्वाब ( स्वप्न ) देख रहे-ख्यातिलाभ पूजा आदिको बाहमें ही मान हो रहे है यह बड़े दुःखको बात है, कैसे उद्धार हो यह चिन्ता है । जबतक विपरीत बुद्धि ( विचारधारा ) नहीं छूटती तबतक
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• १. शप्ति।
२. सत्त्वेषु मैत्रीम् ।
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सम्यग्दर्शन कल्याण होना असम्भव है। सम्यग्दर्शनके प्राप्त हुए बिना तथा उसके अङ्ग पाले विना कल्याण कदापि नहीं हो सकता यह नियम है । आत्म-कल्याणका कर्ता उसका स्वभाव या धर्म ही है जो उसी में रहता है और बह 'उत्सर्गरूप' है। अर्थात सबके त्यागरूप अथवा सबसे पृथक् स्वतन्त्ररूप सदा स्थायी : नित्य ) स्वस्थ...र वस्तुमें रहता है, वह कभी अपवादरूप नहीं होता (पराश्रित या बदनाम नहीं होता) ऐसा नियम है । आत्माको लक्ष्य करके कहा जाय तो, आत्मा भी जबतक अपवाद मार्गको ( शिथिल व सदोष मार्गको ) असाहता . प्रयको छोड़कर अपना शुद्ध या उत्सर्म सनातन मार्गको नहीं अपनाता, तबतक वह संसारमें ही भटकता रहता है किम्बहुना वह मार्ग शुद्ध अहिंसा या वीतरागतारूप है अन्य रूप नहीं है इति ।
उसके निश्चय और व्यवहार रूप (१) वीतरागतारूप या अहिंसारूप निजस्वभावमें रत या लीन रहना उसी में दत्तचित्त रहना तन्मय होना, निश्चय वात्सल्य है वह उपेक्षारूप है । तथा स्वाथित या स्वाधीन है।
(२) साधक धर्मात्माओंसे अनुराग करना, उनमें भक्ति, आदरभाव रखना उनके प्रति उत्सुक होना-हर्ष मनाना, इत्यादि ब्यवहार वात्सल्य है जो उपेक्षारूप है ( पराश्रित है ) । इनमें से पद व योग्यताके अनुसार पालन करना उचित होता है। परन्तु विवेकष्टि जामत रहना चाहिये अस्तु । इस प्रकार निश्चय और व्यवहार दो रूप वात्सल्य अङ्ग कहा गया है इसको समझना चाहिये ॥२९॥
८ प्रभावना अङ्गका स्वरूप बताते हैं अस्मा प्रभावनीयः रत्नत्रयतेजसा सततमेव । दानतपोजिनपूजाविधातिशयैश्च जिनधर्मः ॥३०॥
पञ्च रत्नत्रय सम्पादन करके जीव प्रभावित होता है। दानादिकके करनेसे, जिन धर्म प्रमावित होता है ॥ निश्चय अरु व्यवहार प्रभावन समक्ष को निम दिन प्यारे ।
अतिशय नाम प्रभावनका है, उससे होत करम न्यारे ॥३०॥ भन्थय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि विवेकीको चाहिये कि वह [ ससतमेव ] निरन्तर [ नप्रयोजसा आग्मा प्रभावनीय: ] रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकनारित्रका उजेला करके अर्थात् उन्हें प्राप्त करके अपनी आत्माको प्रभाधना करे, अर्थात् मिथ्यादर्शन,
१. आतमके अहित विषयकवाय, इनमें मेरी परिणति न जाय । ...-40 दौलतरामजी कृत विनती २. निज आत्माको प्रभावना होती है----आत्मामें अतिशय या विशेषता प्रकट होती है।
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पुरुषार्थसिद्ध्यर्थं
मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्रके द्वारा अनादिकालसे व्याप्त प्रबल अन्धकार को नष्टकर स्वच्छ बनावे, ( निर्मल करे ) [ च ] और [ दानतपो जिनपूजावियातिशयः जिनधर्मः प्रभावनीयः ] बड़े २ दान देकर अर्थात् चारों प्रकार के अनुपम दानोंसे, पंचकल्याणकादिसह जो तथा उच्चकोटि का तपश्चरण धारण करके, उच्च ज्ञान प्राप्त करके या मन्त्रादि विद्या साधन करके 'जैन धर्म' या जनशासनकी प्रभावना ( महत्व ) संसार में प्रकट करे-- चढ़ावे | इसीका नाम आठवां प्रभावना अङ्ग है। लोकमें अपने उत्कृष्ट धर्मको हर तरहसे जाहिर करना प्रभावना कहलाती है, गृहस्थका या अनगारका यह भी कर्तव्य है ||३०||
भावार्थ- दानादि देने के भाव व क्रियाएँ सब शुभराग हैं । कषायकी मन्दता होनेपर वे हुआ करते हैं, उससे लोक में प्रतिष्ठा बढ़ती है--नामबरी होती है, परलोक में सहायक पुण्य बन्ध होता है, मनमें प्रसन्नता होनेसे पापका आस्रव नहीं होता, इत्यादि लाभ होता है | यद्यपि यह भी हेय माना गया है किन्तु पदके अनुसार उसका होना अनिवार्य है । समय २ पर सभी तरहका विकास आत्मामें होता है कोई आदर्यकी बात नहीं है । सम्यग्दृष्टि सरागी और विरागी दोनों तरह होते हैं फलतः सराग अवस्थामे पुण्य भी कथञ्चित् उपादेय है ( पापसे बचनेके लिए और संसार में सुखद जीवन बिताने के लिए ) अनादिसे ऐसा ही होता चला आ रहा है । पुण्यको उपादेय मानना यह व्यवहारनय का कथन है - निश्चयनयका नहीं है। जो बन्धका कारण और अपामार्गरूप हो वह अकिचनरूप ( परिग्रह रहित ) कदापि नहीं हो सकता इत्यादि, वह उत्सर्ग मार्गी नहीं माना जा सकता इति ।
आठ अङ्ग के दो प्रकार ( भेव )
( १ ) निश्चय प्रभावना वीतराग सम्यग्दर्शनादिको प्राप्ति करना रूप निर्विकल्प दशा ( पक्षपात रहित अवस्था ) का होना है जो निश्चय प्रभावना कहलाती हैं। उससे निजधर्म ( आत्मधर्म ) की प्रभावना होती है तथा अप्रभावना ( मिथ्यात्वादि ) नष्ट होती है इत्यादि । यह स्वाश्रित ( अपनी ) प्रभावना है।
( २ ) व्यवहार प्रभावना - लोकमें जिनधर्म या जिनशासनको प्रभावना करना और उसके.. लिए दान, तप, जिनपूजा करनेरूप शुभरागका आत्मामें होना यह सब शुभ उपयोग और शुभ योग दोनों व्यवहार प्रभावनाके अ ( सूचक ) हैं ऐसा समझना । वह पराश्रित होने से व्यवहाररूप प्रभावना है। दान परद्रव्य ( धनादि ) से होता है तप, शरीररूप परद्रव्यसे होता है, पूजा, अष्टद्रव्य ( जलादि परद्रव्य ) से होती है इत्यादि समझना ।
१. आहारदान, औषविदान, शास्त्रदान, अभयदान ।
२. नित्यपूजन, आष्टात्रिक पूजन, चतुर्मुख पूजन, कल्पद्रुम पूजन । ३. अकी
तम्यतं चेतदतस्तापोऽशुभास्ववः । तत्तत्प्रसादाय सदा श्रेयसे कीर्तिमर्जयेत् ॥८५॥
2.
-- सागारधर्मामृत २ अध्याय
B
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শাল उपसंहार रूपमें--( इस प्रकरणमें लोक नं० २३ से ३० तक ८ श्लोक हैं )
सम्यग्दृष्टिमे रागद्वेष मोहका ही भिन्न २ प्रकार से त्याग कराया गया है यथा पहले श्लोकमें मोहका त्याग करना बतलाया गया है। २.....श्लोक में रागका त्याग करवाया गया है। ३-श्लोक में देषका त्याग करवाया गया है। ४...-इलोकमें अन्य धर्मियोंसे सम्पर्क छोड़ना बताया गया है ( उनमें रुचि करनेका निषेध है।। ५..वें एलोकमें धर्मरक्षा करना बतलाया गया है ( रागद्वेष छुड़ाया गया है । ६-श्लोक में अटल या दढ़ रहने को कहा गया है ( घबड़ाने का निषेष है)। ७-लोकमें धर्म और धर्मात्माओंसे निष्काम प्रीति करनेका उपदेश है । ८- श्लोकमें प्रभावना करनेका उपदेश है। विना प्रभावनाके उत्कर्ष नहीं हो सकता इत्यादि । सबका सारांश आत्मोन्नति करनेका ही है-- अवनसिके कारणोंको छोड़नेका है किम्बहुना । इस प्रकार आचार्यदेवने अङ्गी सम्यग्दर्शनके प्रत्येक अङ्गों। निशंकितादि ८ ) का वर्णन बहुत ही महत्व के साथ निश्चय व्यवहार द्वारा किया है जो एक अनुपम चीज है, परन्तु उसका अनुगमहर एक ममक्ष जीवको होना चाहिए, तभी वह अभीष्ट सिद्धि कर सकता है। अन्यथा नहीं यह लिया है। हमने यथाशक्ति रहस्यको समझ कर कुछ प्रकाश, विशेषार्थ के रूपमें आगे के पेजमें डाला है सो समझना चाहिये ।।३०॥
इति सम्यग्दर्शन अधिकार ( थावकधर्मान्तर्गत )।
विशेषार्थ (मीमांसा) सम्यादष्टिके सम्यग्दर्शनमें निश्चयपना व्यवहारपना किस तरह घटित ( सिद्ध होता है ? इसका खुलासा किया जाता है।
तथा वैसा न माननेसे क्या हानि व लाभ होता है यह भी बताते हैं ।
मूल या प्रारंभमें, मोक्षमार्गके उपयोगी सात तत्वोंकी अपेक्षा ( आधार ) लेकर या उनके सम्बन्धमें विचार करना अनिवार्य है, कारण कि उन्हीं के माध्यमसे निश्चय और व्यवहारका निर्धार मुख्य है और लाभदायक भी है ! उनसे भिन्न लौकिक सत्त्वोंकी अपेक्षा विचार करनेसे अभीष्ट सिद्धि नहीं होती। अतएव उनका विचार करना गौण माना गया है अस्तु ।
सम्यग्दर्शनका लक्षण - 'तरवार्थश्रद्धाने सम्यग्दर्शनम् ॥ २॥ सूत्र, उमास्वामी प्राचार्य ।'
अर्य-जीवादि मात तत्त्वोंका सम्यक् अर्थात् विपरीत अभिप्राय या श्रद्धान रहित ( यथार्थभूतार्थ ) श्रद्धान होना या करना सम्यग्दर्शन' कहलाता है। इसीका नाम निश्चय सम्यग्दर्शन है। . तथा इसके विरुद्ध या अतिरिक्त प्रकार श्रद्धान करना, मिथ्यादर्शन कहलाता है यह सारांश है। इसी प्रसंग या सिलसिले में, निश्चयपना और व्यवहारपना-सम्यग्दर्शनमें निम्न प्रकार माना जाता है
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पुरुषार्थसिरप (१) जिस समय जीव (आत्मा) को विपरीत अभिप्राय रहित ( सम्यक ) तत्त्वोंका पूर्ण अर्थात आठ अंगों ( निःशंकितादि ) सहित अष्टांगों ज्योंका त्यों श्रद्धाम होता है उस समय उसको निश्चय सम्यग्दर्शन अश्रवा अष्टांगी सम्यग्दर्शन वाला सम्यग्दष्टि जीव कहते हैं यह निष्कर्ष है। तथा
(२) जिस समय जीवको विपरीत अभिप्राय रहित उक्त सात तत्त्वों का ही अपूर्ण अर्थात् कुछ अंगों सहित या एक दो अंगों सहित सम्यग्दर्शन होता है, उस समय उसको उपचार या व्यवहार से सम्यग्दर्शन बाला ( अष्टांग विना भो ) सम्यग्दष्टि कहते हैं । अर्थात् आंशिक सम्यग्दर्शन के समय भी पूर्ण सम्यग्दृष्टि जैसा उसको कहना या मानना, यही सम्यग्दर्शनमें व्यवहारपना या उपचारपना है। जैसे कि मोक्षमार्गोपयोगी तत्त्वोंमें अकेला संशय ( शंका ) न होने पर या अकेली आकांक्षा न होने पर या दोनोंके न होने पर भी यह सम्यग्दृष्टि तो कहलायेगा ( सम्यक श्रद्धा मूल में होनेसे ) किन्तु आंशिक सम्यग्दर्शन होनेसे उसका नाम व्यवहार सम्यग्दृष्टि होगा। यह खास भेद समझना चाहिये । इसी तरह सम्यग्ज्ञान व सम्यकचरित्रमें भी निश्चय और व्यवहारका रहस्य ( प्रयोजन-अर्थ ) समझना अनिवार्य है।
भावार्थ----जबतक पूर्ण या सर्वांग न होवे तबतक अपूर्णतामें अंगी कहना या मानना, उपचार या व्यवहार है। और जब पूर्ण या सर्वागी हो जाय, तब अंगी कहना निश्चय या भतार्थ है। इस तथ्यको हृदयंगम करना विवेकी या सम्यग्दृष्टिका कर्त्तव्य है। देखो, इसी सिद्धान्तको लेकर चौथेसे तेरहवें गुणस्थानके पहिले तक ९ गुणस्थानोंमें पूर्ण मोक्षमार्ग ( सम्यग्दर्शनादित्रय) नहीं होता अपितु आंशिक था अपूर्ण होता है, परन्तु वह आंशिक निश्चय होनेसे प्रामाणिक होता हैमाना जाता है । फलतः उसको व्यवहारनयसे पूर्ण मोक्षमार्गवाला या मोक्षमार्गी कहा जाना है ! इस तरह सम्यग्दर्शनादि तीनोंमें निश्चय-व्यवहारपना घटित होता है। उसके माननेसे धोखा नहीं होता--भ्रम या मिथ्यात्व मिट जाता है यह लाभ तो बराबर होता है किन्तु जबतक पूर्णता न हो ( अधुरापन रहे ) तब सक कार्य सिद्ध नहीं होता यह नियम है। तदनुसार व्यवहार या अधूरापनका मिटाना अनिवार्य है अर्थात् पूर्णता ( निश्चयपना ) को प्राप्त करना परम कर्तव्य है या सिद्धिका माधक है। फलतः निश्चय उपादेय है और व्यवहार हेय है किम्बहुना इसे समझना .... चाहिये।
इसके पहिले भी भेद बताया गया है इलोक नं. ५ आदि में व इलोक नं० २२ में खासकर निश्चय व्यवहारके भेद बताए गये गये हैं कि व्यवहार तीन तरहका होता है (१) भेदाश्रित अर्थात् खंड रूप या अखंडमें खंड करना रूप । अथवा खंडको पूर्ण वस्तु मानना रूप । पराश्रित अर्थात् वस्तुको पराधीन मानने रूप । (३) पर्यायाश्रित अर्थात् पर्यायके भेदसे वस्तुको भेद मानने रूप। इत्यादि सब उपचार या कल्पना मात्र है, सत्य नहीं है। किन्तु यथार्थ श्रद्धान व ज्ञानके होते हुए यदि वैसा विकल्प हो तो यह व्यवहार रूप माना जाता है, उसमें हेय बुद्धि रहती है अत: बह कथंचित् उपादेय रूप है। लेकिन यदि विपरीत श्रद्धान ज्ञानरूप हो तो वहीं मिथ्यारूप है सर्वधा हेयरूप है हानिकर है
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सम्यग्दर्शन ऐसा समझना चाहिये इत्यादि, निश्चय और व्यवहार तथा सम्यग्व्यवहार व मिथ्या व्यवहारमें फरक जानना सम्यग्ज्ञान है। सर्वत्र संगति या एकार्थताका बिठालना बुद्धिमानी है। निश्चय और व्यवहारके स्वरूप में एवं भिधारमें बहुधा लोग भूले हुए हैं जैसा कि इलोक सं०५ में आचार्य देवने कहा था, अस्तु पुनः संक्षेपमें एक बार दोनोंका स्वरूप ऐसा है कि
१--जो पदार्थ जैसा या जितना है, उसको वैसा या उतना ही जानना व मानना निश्चय है। उपचार और व्यवहारमें अभेद विवक्षा मानो गई है यथा
-----जो पदार्थ जैसा व जितना है, उससे कमको भी वैसा उसना मानना व्यवहार है। और
३-जो पदार्थ जैसा है, उससे उल्टा (विपरीत) उसको मानमा मिथ्यात्व है, इसमें मिथ्या श्रद्धान मुख्यतया पाया जाता है यह भेद है किम्बहुना लोकाचारका निश्चय व्यवहार दूसरे तरहका होता है।
नोट-निश्चय सम्यग्दर्शनके निश्चय रूप आठ अंग होते हैं और व्यवहार सम्यग्दर्शनके व्यवहार रूप आठ अंग होते है ! ऐसी स्थिति में व्यवहार सम्यग्दर्शनको निश्चय सम्यग्दर्शन मानना भी उपचार है तथा व्यवहार सम्यग्दर्शनके एक अंगसे सम्पूर्ण व्यवहार सम्यग्दर्शन मानना भी उपचार है एवं निश्चय सम्यग्दर्शनके एक अंगसे सम्पूर्ण निश्चय सम्यग्दर्शन मानना भी उपचार है इत्यादि सर्वत्र जानना चाहिये । सारांश थोड़ेको बहुत मानना या बहुत को थोड़ा मानना यह सब उपचारका रूप है अस्तु 1॥ ३० ॥
(२) सम्यग्ज्ञान अधिकार आचार्य, आठ अंग सहित सम्यग्दर्शनका निरूपण करने के पश्चात् आठ अंग सहित सम्यम्ज्ञानका कथन प्रारंभ कर रहे हैं क्योंकि बह मूलभूत है उसको पहिले प्राप्त करना चाहिये ( अवश्य प्राप्तव्य है ! यह बताते हैं...
इत्याश्रितसम्यत्त्वैः सम्यग्ज्ञानं निरूप्य यत्नेन । आम्नाययुक्तियोगैः समुपास्यं नित्यमात्महितैः ॥३१॥
पा पूर्वविधि से सम्यग्दर्शन, प्राप्त जिन्हों को हो जाता। फिर भी अपने हित के खातिर, सम्यग्ज्ञान शेष म्हसा ।। भत: उसे भी प्रयास करत , स्वरूप निश्चित कर पेश्तर 1
आम्नायाविक द्वारा उपका स्वरूप होत है असिंहदसर ॥३१॥ अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि जिन्होंने [ इत्याश्रितसम्यक्त्वैः आत्महितैः ] पूर्वोक्त आठ अंग सहित सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लिया है और आत्मकल्याण के इच्छुक हैं, उनको चाहिए १. बहुत मजबूत अटल ।
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पुरुषार्थसिन्धुपाय कि [आभागकर गैसला निकाय ! सर आगम ( आम्नाय ) अनुमान ( युक्ति ) प्रत्यक्ष ( योग-स्वानुभव ) इन तीन प्रमाणोंके जरिये सम्पज्ञानका निर्णय ( निश्चय ) करके, [ यस्लेम मित्य समुपास्यम् । बड़े प्रयत्न या पुरुषार्थ के साथ उसको हमेशा अपनाचे अर्थात् उसकी आराधना या सेवा अवश्य करें यह जरूरी है क्योंकि उसके बिना आत्मकल्याण | साक्ष्य ) की सिद्धि नहीं हो सकती ॥ ३१॥
भावार्थ-विश्वके सम्पूर्ण पदार्थोंमें ज्ञानका दर्जा और महत्त्व सबसे ऊंचा है कारण कि उसके बिना कोई व्यवस्था हो ही नहीं सकती। कौन पदार्थ किस प्रकारका है, किस कामका है ? इत्यादि बातोंका पता लग हो नहीं सकता। तब अन्धकार में रहना जैसा लोक में रहना सिद्ध होता है। अतएव ज्ञान तो उत्कृष्ट है हो किन्तु उसमें भी 'सम्यग्ज्ञान' सर्वोत्कृष्ट वस्तु है, जो अभीष्ट ( साध्य सिद्धि करता है क्योंकि उसके सिवाय अन्य किसी भी पदार्थ में यह शक्ति ( सामर्थ्य ) नहीं है कि वह अभीष्ट सिद्धि कर सके इत्यादि । अतएव उस सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति करना अनिवार्य है, परन्तु उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है ? उसके उत्तर में आचार्य महाराज कहते हैं कि 'युक्ति' अर्थान् प्रमाण व नयसे अथवा अनुमानसे सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है अथवा 'आम्लाय' से अर्थात् पूर्व परम्परासे ( गुरु आदिके उपदेश द्वारा ) अथवा 'योगोंसे' अर्थात् प्रथमानुयोग आदि चार अनुयोगोंके द्वारा अथवा स्वानुभव प्रत्यक्ष द्वारा उत्पन्न होता है इत्यादि अनेक साधन हैं, जिनसे सम्परज्ञान उत्पन्न होता है । युक्ति आदिका स्वरूप नीचे टिप्पणी में देखो'। ऐसा समझना चाहिये।
नोट-इस श्लोकमें मुख्यतया सम्बग्ज्ञानके उत्पादक निमित्त कारणोंका उल्लेख किया गया है भेदोंका उल्लेख नहीं है तथापि थोड़ा प्रकाश डाल देना संगत प्रतीत होता है, उससे आगे लाभ ही होगा, अतएव निम्न प्रकार भेद समझना चाहिये । सम्यग्ज्ञानका लक्षण भी आगे श्लोक नं० ३५ में कहा जायमा सो जानना ।
सम्यग्ज्ञानके २ भेद (१) प्रत्यक्ष भेद, (२) परोक्ष भेद, अथवा (१) निश्चयसम्यग्ज्ञान (२) व्यवहार सम्यग्ज्ञान ।
प्रत्यक्षज्ञानके २ भेद (१) सकल या सर्वप्रत्यक्ष, जैसे केवजशान । - (१) विकल या एकदेश प्रत्यक्ष, जैसे
१, भयप्रमाणाभ्यां निश्चयः 'युक्तिः । तस्बोललेखि जान 'स्मृतिः' 1 इन्द्रियग्राहिवर्तमानकालाछिनपदार्थ
झान 'मनुभवः' । एतदुभयं संकलनात्मक ज्ञानं 'प्रत्यभिज्ञानं'। ध्याप्तिशानं 'सर्कः' । व्याप्यव्यापक
सम्बन्धी हि 'व्यामिः। २. जो सिर्फ आत्माकी सहायतासे उत्पन्न हो, उसको प्रत्यक्ष कहते हैं। जो इन्द्रिय व मनकी सहायता से
उत्पन्न हो, उसको परोक्ष कहते हैं। ३. जिसमें मनकी अकेलेकी कुछ सहायता हो व कुछ अकेले आत्माकी सहायता हो, उसको एकदेश (आशिक)
प्रत्यक्ष कहते हैं। जिसमें अकेले आत्माको सहायता हो, वह सर्थदेश ( सकल ) प्रत्यक्ष कहलाता है।
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सम्पज्ञान
raft a neः पर्यज्ञान। जिनमें थोड़ी सहायता इन्द्रिय व मनकी रहती है और थोड़ी सहायता आत्माकी रहती है, उन्हें एकदेश प्रत्यक्ष कहते हैं। जिसमें ( केवलज्ञान में ) सिर्फ अकेले आत्माकी ही सहायता रहती है, वह सर्वदेश या सकल ( पूर्ण ) प्रत्यक्ष कहलाता है, यह भेद है । अथवा प्रत्यक्ष के दूसरे भेद
( १ ) पारमार्थिक प्रत्यक्ष ( २ ) सांध्यावहारिक प्रत्यक्ष ।
(फ) झाग अपने कि अपनी ही ( आत्माकी ही ) सहायता से स्पष्ट जाने या जानता हो, उसको पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं ।
( ख ) जो ज्ञान इन्द्रियादिक की सहायतासे वत्र्त्तमान अवस्था में मौजूद पदार्थो को कुछ स्पष्ट जाने या जानता हो, उसको व्यवहारनयसे प्रत्यक्ष कहते हैं अर्थात् वह सोन्यावहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है । जैसे कि हमने उस चीजको प्रत्यक्ष देखा है ऐसा लोकमें कहा जाता है, जो सच (सत्य) माना जाता है । ऐसे ज्ञान, मति और श्रुत दोनों हैं। जो इन्द्रिय और मनकी सहायता बिना नहीं हो सकते यह नियम है ।
( १ ) निश्चय सम्यग्ज्ञान-परद्रव्यों से भिन्न पुष्करपलाशवत् निर्लेप अपनी आत्मा मात्रका aar (far अभिप्राय रहित ) ज्ञान होना, निश्चयसम्यग्ज्ञान कहलाता है । यतः यह स्वाश्रित है, विषय-या भेद नहीं है । शुद्ध स्वरूपका स्वानुभव रूप है इति ।
( २ ) व्यवहार सम्यग्ज्ञान- अपनी आत्मासे भिन्न परपदार्थोंका यथार्थ ज्ञान होना, व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहलाता है क्योंकि वह पराश्रित है विषय विषयोका भेद है ।
भोट-नयों का स्वरूप पेश्तर ( श्लोक नं० ५ में ) कहा जा चुका है अतएव उसको पुनः न कहकर अभी प्रमाणोंका स्वरूप व भेद कहा जाता है। सम्यग्ज्ञान ( प्रमाण ) के ५ भेद हैं, उनमें से पहिले
( १ ) मतिज्ञान विषय और विषयीके सन्निपात ( सन्मुख या संयोगी ) होनेपर जो इन्द्रिय और मनकी सहायता से विशेष ज्ञान होता है, उसको मतिज्ञान कहते हैं । वह परीक्ष ज्ञान है। उसके चार भेद ( अवग्रहादि ) होते हैं । यथा
( क ) अवग्रह ज्ञान - विषय और विषयी ( इन्द्रियादि) के सन्निपात होनेपर जो प्रथम ( आद्य ) ज्ञान होता है, उसको अवग्रह ज्ञान कहते हैं। जैसे 'यह मनुष्य है' इत्यादि ।
( ख ) अवग्रह ज्ञानसे जाने हुए पदार्थको विशेष जानने की इच्छा ( जिज्ञासा ) का उत्पन्न होना उसे ( २ ) ईहाज्ञान कहते हैं। जैसे कि यह मनुष्य कहाँका है इत्यादि ।
( ग ) विशेष लक्षणोंसे उस जिज्ञासित पदार्थका यथार्थ ज्ञान हो जाना ३ ) अवाय ज्ञान कहलाता है, जैसेकि बोली या रहन-सहनसे ऐसा निश्चय होजाय कि यह मनुष्य दक्षिणी है या गुजराती है इत्यादि ।
(घ) पक्के या मजबूत ज्ञान होतेको ( ४ ) धारणा ज्ञान कहते हैं, जो बहुत कालतक न भूले ( विस्मृत न हो ) इसमें आत्मबलको विशेष आवश्यकता रहती है इत्यादि ।
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पुरुषार्थासामुपाय नोट-ये सब ज्ञान बीयन्तिराय कर्म, व ज्ञानावरणी कर्मके क्षयोपशम होनेपर ही होते हैं, विना उनके नहीं होते ऐसा नियम है अस्तु ।
(२) श्रुतज्ञान-मतिज्ञानसे जाने हुये पदार्थोंकी विशेषताओंको जाननेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। जैसे सूर्यका ज्ञान होनेपर दिनका ज्ञान होना या चन्द्रमाका ज्ञान होनेपर रात्रिका ज्ञान होना इत्यादि।
श्रुतज्ञानके दो भेव ( १ ) अक्षरात्मक ( शब्दज)। (२) अनक्षरात्मक (लिंगज )।
अक्षरात्मक श्रुतज्ञानके दो भेद ( १ ) अंगबाह्य ( अनेक भेद रूप ) (२) अंगप्रविष्ट ( १२ भेद रूप ) ।
अथवा
(१) द्रव्यश्रुत
(२) भावश्रुत नोट-इसका विशेष कथन इसी श्लोकके अन्त में किया गया है सो समझ लेना ।
( ३ ) अवधिज्ञान----जो ज्ञान, द्रव्य क्षेत्र काल भावकी सौगा सहित रूपी पदार्थाको एकदेश स्पष्ट जाने या जानता हो, उस ज्ञानको अवधिज्ञान कहते हैं। उसके सामान्यतः ३ सीन भेद होते हैं ( १ ) देशावधि (२) परमावधि ( ३ ) सर्वावधि ।
अथवा ( १ ) भवप्रत्यय अवधि क्षयोपशम निमित्तिक अवधि ।
( क ) भवप्रत्यय (निमित्तक ) अवधि-देवनारकी और किसी २ मनुष्य तिर्यचके भी होता है।
( ख ) क्षयोपशम निमित्तक अवधि---मनुष्य और तिथलोंके ही होता है। उसके ६ छह भेद होते हैं यथा वर्तमान-हीयमान-अनुगामी-अननुगामी-प्रतिपाती-अप्रतिपाती इति
(१) जो समय २ बढ़ता ही जाय, उसको बर्द्धमान कहते हैं। जैसे सूर्यका प्रकाश । (२) जो समय २ घटता ही जाय, उसको हीयमान कहते हैं। जैसे आयु कर्मके समय । (३) जो एक भवसे दूसरे भवमें भी साथ चला जाय, उसको अनुगामी कहते हैं जैसे कर्म।
( ४ ) जो साथ न रह जाय, उसी पर्याय में साथ छोड़ देवे, उसको अन्ननुगामी कहते हैं जैसे शरीर।
( ५ ) जो नष्ट हो जाय अर्थात् छूट जाय, उसको प्रतिपाती कहते हैं, जैसे रागादिक । (६) जो मष्ट न हो अर्थात् छूटे नहीं, उसको अप्रतिपाती कहते हैं, जैसे ज्ञानादिकगुण ।
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सम्यग्ज्ञान
१२९ नोट---उपर्युक्त विशेषता सिर्फ अवधिज्ञानमें बतलाई गई है। अत: वह पूर्वोक्त अनेक प्रकारका होता है दृष्टान्त तो समझने के लिए दिये जाते हैं। अवधिज्ञानमें स्वयं वैसा परिगमन होता है सो जानना।
(४) मनःपर्ययज्ञान...जो ज्ञान, दूसरे के मनमें स्थित रूपी पदार्थको जाने व जानता हो, उसको मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं । यह देश प्रत्यक्ष कहलाता है। इसके (1) ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान, (२) विपुलमति मनःपर्ययज्ञान, ऐसे दो भेद होते हैं।
__नोट-मनःपर्ययभानमै अवधिज्ञानसे अधिक विशुद्धता ( निर्मलता) होती है और उत्कृष्ट देशावधिसे लेकर मनःपर्ययज्ञान व केवलज्ञान संयमी जीवोंके ही होते हैं तथा वे तद्भव मोक्षगामी भी हुआ करते हैं । आगे २ के ज्ञानोंका विषय सूक्ष्म २ है इति ।
(५) केवलज्ञान-जो ज्ञान तीन लोक स्थित सम्पूर्ण ज्ञेयों ( पदार्थों ) को उनको श्रेकालिक पर्यायों सहित युगपत् स्पष्ट हस्तामलककी तरह जाने या जानता हो, उसको केवलज्ञान कहते हैं, वह अनुपम व अद्वितीय सदा स्थायी है ऐसा समझना चाहिये। इसके निश्चय और व्यवहार दी भेद होते हैं। अपनेको जानना निश्चय और परको जानना व्यवहार है ऐसा समझना चाहिए।
परोक्षज्ञानके ५ भेद (१) स्मृति. (२) प्रत्यभिज्ञान, (३) तर्क, { ४ ) अनुमान, ( ५ ) आमम । परन्तु ये श्रुतज्ञानमें अन्तर्भूत होते हैं ऐसा समझना चाहिये । इसके दूसरे नाम भो नीचे लिखे गये हैं।
लक्षण व स्वरूप ( क ) स्मृत्तिज्ञान--पूर्वमें जाने हुए पदार्थका स्मरण होनेपर जो वर्तमानमें ज्ञान होता है उसको स्मृतिज्ञान कहते हैं। वह स्मरण संस्कारके रहनेपर होता है-विना संस्कार बड़े नहीं होता-- जैसे हमने उसे देखा है इत्यादि।
(ख ) प्रत्यभिज्ञान-जो ज्ञान स्मृति और अनुभव ( प्रत्यक्ष ) दोनोंके मेलसे जोड़रूप होता है, उसको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। जैसे किसीके मुंहसे यह सुना था कि गवय ( गुरांसपा ) गायके समान होता है। उसके बाद किसी जंगल में गवय ( नीली गाय-गुरांय ) को देखा, देखते ही पहिली बात याद आगई कि अहो! यहो गवय है या होना चाहिये जो पहिले सुन रखा था इत्यादि ।
यहाँपर 'वह' स्मृतिज्ञान है 'यह' अनुभव ज्ञान है। ऐसा जानना अथवा किसीको छुटपनमें देखा था फिर बहुत समय के बाद मिलाप हुआ उस समय यह तो यही है जिसे छुटपनमें देखा था, ऐसा जोडरूप ज्ञान, प्रत्यभिज्ञान कहलाता है । उसके सादृश्य प्रत्यभिज्ञान आदि अनेक भेद होते हैं।
१. मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिदोध इत्यनन्तरम् ॥१२॥
...सूत्र प्रथम अध्याय, ये दूसरे नाम मलिशान है।
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पुरुषार्थसिद्धपा
( ग ) 'तर्कज्ञान --- व्याप्ति ( अविनाभाव ) के ज्ञानको तर्कज्ञान कहते हैं । व्यासिका अर्थ अविनाभाव है, अर्थात् एकके बिना दूसरा न रह सके ऐसे सम्बन्धको व्याप्ति कहते है, उसका ज्ञान हो जाना 'तर्कज्ञान कहलाता है । जैसेकि अग्निके बिना धूम नहीं रहता, आत्माके बिना चेतना नहीं रहती यह व्याप्ति है । इसीका नाम साहचर्यनियम यां अविनाभाव है ऐसा समझना । ( ध ) तुमज्ञान-पान ( हेतु) से ( अभीष्ट ) की ज्ञात होना, कहलाता है जैसेकि धुअस अग्निका ज्ञान हो जाना कि यहाँ अग्नि अवश्य होगी इत्यादि ।
अनुमानज्ञान
५३.०
,
(ङ) आगमज्ञान आप्तके वचनों ( उपदेशों शब्दों को आगम कहते हैं, और उन arrier ज्ञान होना, आगमज्ञान कहलाता है। अथवा उन वचनोंके निमित्तसे वाच्यों अर्थाव पदार्थों का ज्ञान होना भी उपचार से आगमज्ञान कहलाता है । उसीके ( १ ) शब्दागम ( शब्दरूप निकलना ) ( २ ) अर्थागम ( पदार्थोंको बताना ) ( ३ ) ज्ञानागम ( उससे ज्ञानकी उत्पत्ति होना ) ऐसे तीन भेद होते हैं ।
दर्शनचेतना ( उपयोग ) के भेद ४
१ - त्रक्षुदर्शन, २- प्रचक्षुदर्शन, ३ अवधिदर्शन, ४ -- केवलदर्शन |
नोट - मन:पर्ययदर्शन, नहीं माना गया है, कारण कि उस ज्ञानके होने में उपयोग नहीं जोड़ना -- लगाना पड़ता है, अर्थात् उस ओर उन्मुख नहीं होना पड़ता है यह विशेषता पाई जाती है । अवधिज्ञानमें उस ओर उपयोगको लगाना पड़ता है तब वह जानता है अतएव उपयोगको ere are at 'अवधिदर्शन, कहलाता है यह मेद समझना अर्थात् अवधिज्ञानमें उपलोग लगाना पड़ता है और मन:पर्यय ज्ञानमें उपयोग नहीं लगाना पड़ता यह विशेषता रहती है अस्तु ।
तना या ज्ञान ३ भेव ( चेतनाएं )
ज्ञानका नाम चेतना है, उसके अनेक नाम हैं- जैसे ज्ञान, नेतना, अनुभव, निश्चय, अध्यवसाय इत्यादि । तदनुसार चेतना ( ज्ञान ) के ३ भेद कहे गये हैं यथा
( १ ) कर्मफल चेतना - अर्थात् बँधे हुए कर्मोंके उदय आनेपर जो फल ( सुख-दुःखादि अवस्था ) प्रकट होता है, उसकी वेदना या जानना या भोगना अनुभव करना, केवल इतनी ही शक्ति उसके रहती हैं, प्रतीकार या उपाय करनेकी शक्ति नहीं रहती कारण कि सानोंका अभाव रहता है। ऐसे एकेन्द्री जीव होते हैं ( स्थावर जीव ) ।
(२) कर्म चेतना - अर्थात् सुख दुःखादिको जानकर उसके संयोग वियोग करनेका उपाय
१. अन्यथानुपपत्वं यत्र तत्र येण किं । नान्यथानुपपत्त्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ?
अर्थ - अपर निश्चित अन्वयव्यतिरेक होता हैं, बहार और किसीकी ( पक्ष, हेतु, साध्यकी ) aretreat नहीं होती, बही सबसे बड़ा साध्यका साधक ( सूचक नियम है ऐसा सिद्धांत है समझना
चाहिये।
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सम्पशान
१११ सूझना व यथासम्भव उपाय कर सकना, यह शक्ति जिसके पाई जाती है उसे कर्मचेतना कहते हैं। ऐसे हीन्द्रियादि जीव होते हैं।
(३) ज्ञानचेतना-अर्थात अपनी आत्माका ज्ञान हाना अथवा स्बपरका भेद विज्ञानका होना ज्ञानचेतना कहलाती है। यह संजी पवेन्द्री जीवोंके ही होती है अन्यके नहीं होती यह नियम है । यहाँपर ज्ञानका अर्थ 'आत्मा' होता है ऐसा पंचाध्यायीमें कहा गया है।
नोट-(१) संक्षेपमें दो भेद होते हैं ( १ ) शुद्ध चेतना ( २ ) अशुद्ध चेतना । कर्मफल व कर्मचेतना अशुद्धचेतना कहलाती है और ज्ञानचेतना शुद्धचेतना कहलाती है क्योंकि वह पदार्थक शुद्ध स्वरूपको बतलाती है।
२) ज्ञानगुण सर्वोत्कृष्ट पदार्थ है अतएव उसकी साधना आराधना करना प्रत्येक समझदार विवेकी मनुष्यका कर्तव्य है, उसके विना उद्धार ( कल्याण) नहीं हो सकता यह नियम है। उसके लिए ज्ञानी पुरुष पत्राचार आदि पालते हैं। उनमेसे ज्ञानाचारके आठ अङ्ग होते हैं जिनके पालनेसे ज्ञानगुणमें वृद्धि होती है अर्थात् वह विशेषरूपसे प्रकट होता है ऐसा थ्यवहारनयसे कहा गया है ! यथा
१-शब्दाचार, २-अर्थाचार, ३--उभयाचार, ४.कालाचार, ५-चिनयाचार, ६-उपधानाचार, ७-बहुमानाचार, ८-अनिवाचार, इनका यहाँ नाम मात्र लिखा जाता है आगे श्लोक नं० ३६ में आचार्य स्वयं कहनेवाले हैं किम्बहुना।
सम्यग्ज्ञानीकी विचारधारा सम्यग्दृष्टि सम्यग्ज्ञानी विचार करता है कि अहो ! जबतक यह जीव शुभोपयोगकी भूमिका में रहता है तबतक यह वैसा ( शभ) व्यापार ( क्रियाएँ । भी किया करता है अर्थात शभोपयोगके उदय (आवेश ) कालमें पञ्चाचारोंका पालना अर्थात् ज्ञानकी कपरी ( बाह्य ) विनय करना, पञ्चमहादतोंका पालना, ( धारण करना ) पांच समितियोंका पालना, तीन गुप्तियोंका पालना बारह लोंका पालना.बारह तपोंका धारण करना. वाईस परिषदोंको सहना, आदि सभी प्रशस्त कार्य उसके हुआ करते हैं, जो शुभरागके उदयका फल हैं अर्थात् औदायिक भावोंकी महिमा है ऐसा समझना चाहिये। धारण या पालन करनेकी प्रवृत्ति सब शुभभावोंको सूत्रक है--शुद्ध भावोंकी सूचक नहीं है किन्तु लक्ष्य उसका यही रहता है कि जबतक शुद्धोपयोगको प्राप्ति नहीं होती तबतक वीचके लिए यह आलम्बन है किन्तु यह हेय अवश्य है । शुद्धभावोंको सूचक निवृत्ति है, जो छोड़ना रूप या त्याग करना रूप है यह न्याय है अस्तु !
अब शुद्धोपयोगकी भूमिकामें जीव रहता है तब उसके सभी व्यापार बन्द हो जाते हैं अर्थात वह शुभ या अशुभ सभी व्यापारोंसे निवृत्त हो जाता है, सिर्फ वह शुद्ध स्वरूपमें ही लीनसा करता है. बाहिरी त्याग-ग्रहणको प्रक्रिया सब बन्द हो जाती है। परन्त यह सब कार्य गुण स्थानोंके क्रमानुसार होता है। वैसे तो सम्यग्दृष्टि सम्यग्ज्ञानीके चतुर्थ गुप्मस्थानमें ही ज्ञान १. अधारमा ज्ञानशब्देन पलोक नं० १९६, उत्तरार्ध पञ्याध्यायो।
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dameMINE
पुरुषार्थसिवयपाय दष्टिसे ( ज्ञाता भेदज्ञानी हो जानेके कारण ) या सभोका त्याग जैसा मनोभाव हो जाता है अर्थात् सभीसे उसकी विरक्ति या अरुचि हो जाती है क्योंकि भेदज्ञानके साथ वैराग्य व सुख अवश्य होता है तथा त्यागकी भावना भी अन्तरमें प्रबल प्रकट हो जाती है वह हमेशा परसे भिन्न होनेकी प्रतीक्षामें जागरूक रहता है। कमी सिर्फ शक्तिकी रहती है, जो क्रमश: प्रकट होती है। त्याग करनेके लिये उसको आत्मबल चाहिये जो कर्मोपाधि { रागादि ) के वियोग होने पर ही होता है। फलतः बलके विना विमा रुचिके भी विगारीकी सरह वह दुनियाँके कार्य करता है, उनके करने में उसे उत्साह व हर्ष नहीं होता किन्तु वह दुःख ही मनाता है, यह विशेषता उसके पाई जाती है, जो मिथ्यादृष्टि अज्ञानीके नहीं होती। वह सम्यग्दृष्टि विवेकी निरन्तर औदयिक भावोंके त्यामनेका पुरुषार्थ करता रहता है चाहे वे शुभ रूप हों या अशुभ हों, उनमें उपादेयता कतई नहीं रखता तथा पुरुषार्थ करनेको वह निमित्त कारण ही मानता है, वस्तुका परिणमन उसके आधीन नहीं मानता। अतएव वहनद्धिमान कार्य सिद्ध न होने पर भ्रम या दःस्त्र नहीं करता, और परुषार्थ करना भी बन्द नहीं करता, कारण कि वैसा भाव संयोगी पर्यायमें हुआ ही करता है कि किसी कार्यको करनेकी इच्छा होना, जो कर्मधारा या कषाय भाव है वह उसके मौजूद रहता है। परन्तु अटल श्रद्धान यही रहता है कि 'जो जन्न जैसा होना है वैसा ही होगा अन्यथा नहीं' इत्यादि।
देखो ! अविरल सम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थानवाला, संयम धारण नहीं कर सकता किन्तु संयम धारण करनेकी छटपटी ( प्रबल इच्छा ) उसके सदैव रहा करती है यह उसका मानसिक चित्र है। बाहिरमें त्याग संयम नहीं दिखता है यह सत्य है, उसका कारण वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम कमती रहता है तथा रागादिका उदय प्रबल रहता है, जिससे, त्याग करने की हिम्मत व उत्साह उसके नहीं होता, क्योंकि संयोगी पर्याय में सभी कारणकूट चाहना पड़ते हैं। तब आत्मा में हिम्मत व बल आवरणके अभावसे होता है यह यथार्थ है। सदनुसार ज्यों रागादिक व उसके संस्कार मन्द पड़ते जाते हैं व उत्साह बढ़ता जाता है तथा वीर्यान्सरायका अधिक क्षयोपशम होता जाता है, त्यो २ त्याग व संयम बढ़ता जाता है। वैसे तो उसके अप्रयोजन भूत पदार्थोंका त्याग होता ही है, जो बड़ी बात है। भीतर विराग तो सभीसे रहता है, जिससे संवर व निजंग प्रतिक्षण हुआ करतो है अतः वह मोक्षमार्गी है, संसारमार्गी नहीं है अस्तु ।
सम्यग्दर्शन और स्यागमें अविनाभाव नहीं है सम्यग्दर्शन या सम्वरज्ञान जिस जीवको हो जाता है उसके उसी समय पर द्रव्यका त्याग ( सम्बन्ध विच्छेद ) भी हो जाना चाहिये ऐसा नियम ( अविनाभाव या व्याप्ति नहीं है न कोई बलात्कार रूप सम्बन्ध है जो जबर्दस्ती त्याग करा ही देता हो । दोनों ( ज्ञान व त्याग ) स्वतंत्र गुण हैं व समय २ पर होते हैं । जिस प्रकार ज्ञान का, वैराग्य-सुख त्यागको भावनाके साथ गठबंधन (व्याप्ति) है, वैसा त्यागके साथ नहीं है। कारण कि त्यागके लिये विशेष शक्तिको आवश्यकता होती है, वह जबतक उत्पन्न न हो. तबतक इच्छा रहते हुए भी त्याग नहीं कर पाता। बुराईका ज्ञान हो जाना अलग बात है और बुराईका त्याग करना दूसरी बात है, अतएव झामके साथ त्यागका नियम बताना अज्ञानता है वैसा कदापि नहीं होता । हो यह बात अवश्य है कि सम्य
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सम्यग्ज्ञान
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ज्ञानके ही सम्यक त्याम हो सकता है जो मोक्षके लिये उपयोगी है । मिथ्याज्ञानीके लिये वह असंभव है, उसका त्याग, संसारमार्गी है वह अधिक से अधिक पुण्यबंध कर सकता है किन्तु संसार छेद नहीं कर सकता ऐसा समझना चाहिये अस्तु । सम्यग्दृष्टिके तत्काल त्यागका भ्रम निकालना afrat है । किम्बहुना भावकी अपेक्षासे वह सबसे बड़ा त्यागी है, जिसने संसारकी जड़ fromrani त्याग कर दिया है किन्तु बाहिर चरणानुयोगको अपेक्षासे अत्यागी व असंयमी हो रहता है अस्तु ।
त्यागी व परिग्रहीका निर्धार
लोकव्यवहार में जो बाह्य परिग्रहका त्याग कर देता है वह त्यागी ती कहलाता है और निश्चयमें जो अन्तर्दृष्टि ( भेदज्ञानी ) होता है वह त्यागी कहलाता है। यह दृष्टिभेद पाया जाता है । परिग्रहका अर्थ 'ममत्व" होता है अर्थात् 'यत्र २ ममत्र तत्र २ परिग्रहस्वम् ऐसी व्याप्ति है । तदनुसार सम्यग्दृष्टिके रुचिपूर्वक परमें एकत्व ( हिस्सेदारी स्वामित्व ) न होने से वह परिग्रह रहित यथार्थत: है परन्तु संयोगी पर्याय में शरोरादि परका संयोग अवश्य रहता है अथवा परिग्रही माना जाता है। इसके विपरीत बाह्य परिग्रहका त्यागी होकर भी यदि सम्यग्दृष्टि ! अन्तर्दृष्टि ) नहीं है तो वह निश्वयसे परिग्रही है, जो परमें हिस्सेदारी अर्थात् स्वामित्त्व व राग करता है। भावलिंगी मुनिके यद्यपि शरीरमात्र परिग्रह देखने में आता है, तथापि area ( हिस्सेदारी स्वामित्व व राग ) न होनेसे वह निश्चयसे परिग्रही नहीं है । सबूत में वह शरीरका संस्कार आदि कुछ नहीं करता निर्मोही रहता है। इस तरह व्यवहारदृष्टि व निश्वयदृष्टि भिन्न २ प्रकारकी रहती है कभी एक नहीं होती और तत्व निर्णय भी भिन्न २ प्रकारका होता है, परन्तु तत्त्व या वस्तु नहीं बदलती चाहे उसका निरूपण या कथन कोई किसी प्रकार करे यह ध्यान रहे । अतएव 'सत्य हमेशा सत्य ही रहता है' ऐसा न्याय है। फलत: fresent निर्धार सही माना जाता है, उसमें हट करना मिथ्यात्व है। सम्यग्दृष्टिकी विचारधारा सत्य रहती है. आचरण विवशतामें अन्यथा व असत्य भी हो सकता है, जिसे वह अपनो कमजोरी या गलती समझता है ऐसा समझना चाहिये | सारांश - ममत्त्व वाला त्यागी नहीं है, और ममत्व रहित त्यागी है, यह भेद है । परमें अपना कुछ हिस्सा मानने वाला महान् परिग्रही है ! मिथ्यादृष्टि ) और परमें अपना हिस्सा न मानकर सिर्फ उसमें कुछ राग करनेवाला 'अल्प परिग्रही' है, यह तात्पर्य है । लोकमें बाह्य परिग्रहको त्यागने वाला त्यागी कहलाता है और शास्त्र में अंतरंग परिग्रहको त्याग करने वाला त्यासी कहलाता है तथा दोनोंका पूर्ण त्याग करनेवाला परिग्रह रहित 'निष्परिग्रही' मोक्षगामी होता है दूसरा कोई नहीं यह नियम है। फलत: करणानुयोगसे सम्यग्दृष्टि गृहस्थ भो कथंचित् त्यागी कहा जा सकता है, क्योंकि उसके पर प्रदार्थ में रुचि व स्वामित्व नहीं रहता इत्यादि ॥ ३१ ॥
१. ममत्त्वके दो अर्थ है ( १ ) राग करना या ममता करना ( २ ) मेरा कुछ हिस्सा इसमें है ऐसा
भानना ।
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पुरुषार्थसिचुपाय
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प्रश्न होता है कि सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान जब एक ही साथ । युगपत् ) होते हैं तब दोनों पृथक् २ कहनेकी क्या आवश्यकता है? आचार्य महाराज युक्ति सहित इसका उत्तर देते हैंपृथगाराधनमिष्टं दर्शनसह भाविनोऽपि बोधस्य | लक्षणभेदेन यतो नानावं संभवत्यनयोः ॥ ३२ ॥
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सहभावी होते भी कोई एक रूप नहीं होते हैं । रूप रसादिक पुगल के क्या एक कभी भी होते हैं ? छड़े के दो सींग साथ ही होकर जुदे जुड़े रहते । क्षणभेद जुदा करता है- armi Se धरते ||३२||
अन्वय अर्थ -- आचार्य कहते हैं कि [ दर्शनाविनोऽपि श्रोधस् ] यद्यपि दर्शन या सम्यम्दर्शनके साथ २ ( युगपत् ) ज्ञान या सम्यग्ज्ञान होता है, काल भेद नहीं है तथापि दोनोंको [ पृथगाराधनमिष्टं ] पृथक २ ( भित्र सतावाला ) कहा गया है और उनको पृथक् २ प्राप्त करना भी बतलाया गया है । यमः लक्षणभेदेन अमयोः नानावं संभवति ] कारण कि दोनों का लक्षण पृथक २ होनेसे दोनोंमें मेद पाया जाता है. दोनों एक नहीं हो सकते। ऐसा न्याय है ||३२||
भावार्थ- सब पदार्थो का परस्पर संयोग रहने पर भी सभी पदार्थ, परस्पर अपना २ लक्षण जुदा २ होने से पृथक् २ माने जाते हैं, वे कभी एक ( समवायरूप या तादात्मरूप ) नहीं होते
V
नियम है। इसी तरह एक साथ उत्पन्न होने पर भी सभी एक नहीं हो जाते, जैसे कि पुद्गल द्रव्यमें रूपरसादिक एक साथ उत्पन्न होते हैं तो भी लक्षण उनका जुदा २ होनेसे वे जुदे ही माने जाते हैं । अथवा गायके बछड़े के दोनों सींग साथ २ प्रकट होते हैं किन्तु दोनों अपनी सत्ता जुदी २ रखते हैं । तब सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ र प्रकट होने से वे कैसे एक हो सकते हैं ? कदापि नहीं हो सकते, क्योंकि उनका लक्षण जुदा २ पाया जाता है। सम्यग्दर्शनका लक्षण 'तत्त्वोंका सम्यकश्रद्धान करना है' और सम्यग्ज्ञानका लक्षण 'तत्वोंका यथार्थ जानना' है । इत्यादि क्षणभेद दोनोंका है तथा दोनों आत्माके गुण हैं व जुदे २ हैं । फलतः दोनोंको जुदा २ मानना अनिवार्य है । इसके बाबत बड़े २ प्राचीन ग्रन्थोंमें अच्छा प्रकाश डाला गया है सो देख लेना forget a retriमें 'कार्यकारण भाव' और दीप और उसके प्रकाशका दृष्टान्त देकर खुलासा किया गया है इति ।
नोट- कोई-कोई एकान्ती, दर्शन-ज्ञानका एक काल होनेसे दोनोंको जुदा २ नहीं मानते, एक मानते हैं, अतएव असलमें उनका खण्डन करनेके लिए यह श्लोक लिखा गया है ऐसा समझना चाहिये ।
१. दर्शन व ज्ञान दोनों
२. सर्वे पदार्थाः भिन्नाः लक्षणभेदात । यत्र २ लक्षणभेदः तव पार्थभेदः इति ।
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सैन्यज्ञान
AON
जैनमत ( दर्शन ) के अनुसार कालद्रव्यको समय पर्याय बहुत सूक्ष्म है, उससे सूक्ष्म और दूसरी पर्याय नहीं है अतएव उसका पृथक् २ शान होना क्षयोपशम ज्ञानियोंको असम्भव है वह बड़ा जल्दी बदल जाता है जैसे कि कौआके आँखोंकी गोलक जुदी २ है किन्तु पुतली एक है और वह इतनी जल्दी घूमती बदलतो है कि मानों एक ही समयमै वह बदल गई ऐसा भान ( प्रतीत ) होता है किन्तु उसमें समय भिम्न लग जाता है। हाँ, स्थूलदुष्टिसे एक ही समयमें बदलना मालूम पड़ता है। अपना कामलके सौ पत्रोंके छेदने जैसी बात है, वे भी एक समयमें नहीं द्रिदते, अनेक समय लग जाते हैं। इसी तरह दर्शन व ज्ञानका समय कथंचित् जुदा २ हो सकता है सर्वथा नहीं है, अत: भ्रममें नहीं पड़ना चाहिए किन्तु सत्य निर्धार करना चाहिये ।
इसके सिवाय एक साथ उत्पन्न होना तथा एक साथ कार्य करना ये दो बातें अदी २ हैं। कार्य करनेका समय भिन्न २ हो सकता है यत: क्रमशः उनमें अर्थक्रिया होती है ऐसा उनका स्वभाव है तथा विषयभेद भी पाया जाता है इति ।
नोट-कहने में जुदा २ आता है, अतएव व्यवहारमयसे जुदा २ कहना सम्भव है किन्तु निश्चयनयसे एक काल उत्पन्न होते हैं, अतएव कालभेद दोनोंमें नहीं है परन्तु सत्ता दोनोंकी जुदी २ है, एक नहीं है ऐसा खुलासा समझना चाहिये ।।३।। आचार्य आगे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें कारणकार्यरूप बिशेष सम्बन्ध बताते हैं । ( वाली विशेषण बदलने रूप, इस्पाच-उत्पावकरूप नहीं
विवक्षाभेवसे पौर्वापर्यपना) सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः । ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात् ॥३३॥
सम्यग्दर्शनशान उभय में कारयकार्यपन! जानी । श्री जिनदेव कहत हैं ऐसा, तुम भी उसे सत्य मानो १ कारण सम्पनी कहा है-सम्बरमाम कार्य जानो। इससे पहिले 'दर्श साध्य है, पीछे ज्ञान साध्य मानो ॥३३॥
* १. सम्यग्दर्शन। २. सम्यग्दर्शन पूरा नाम : नामैकदेशे नाममात्रग्रहणमिति न्यायः । 'सम्यक्' यह विशेषण है, सो वह पहिले
दर्शनमें लगता है, पीछे शानमें लगता । अतएव विशोषण लगनेको अपेक्षासे सम्मक दर्शन कारणरूप है और सम्परज्ञान कार्यरूप है ऐसा खुलासा समझना चाहिये किन्तु उत्पत्तिकी अपेक्षा पहिले ज्ञान पीछे दर्शन समझना चाहिये ।
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पुरुषार्थसिद्धयुपायें अन्वय अर्थ-[जिनाः सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक कारणं वदन्ति । सर्वजदेव कहते हैं कि सम्यगझान कार्य रूप है और सम्यग्दर्शन कारणरूप है [ सस्मात् ] इसीलिये [ सम्यवानन्तरं ज्ञानाराधनमिष्टम् ] सम्यग्दर्शनके पश्चात् सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करना लिखा है क्योंकि सम्यग्दर्शनके बिना सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता यह नियम हैं। ऐसा पौर्वापर्य सम्बन्ध स्वभावतः है, कृत्रिम नहीं है अर्थात् विशेष्यविशेषणको अपेक्षा यहाँ पर कथन किया गया है ।।३३।।
भावार्थ-वस्तु स्वभाव बदल नहीं सकता क्योंकि वह पारिणामिक भाव है औपाधिक भाव अर्थात् नैमित्तिक भाव नहीं है। जीवद्रव्यमें ही दोनों पाये जाते हैं, कारण कि चेतना गुणके ये ( दर्शन व ज्ञान ) दोनों भेद हैं। इनका कार्य पृथक् २ है तथा आवरण भी इनके पृथक २ हैं
कार्य पदार्थ जेय का सामान्य ज्ञान कराना है और शानका कार्य पदार्थका विशेष ज्ञान करान
नाहैपदार्थ सामान्यविशंषात्मक होता है। दर्शन या खानको आवरण करनेवाला दर्शनावरण कर्म माना जाता है और ज्ञानको आवरण करनेवाला ज्ञातावरण कर्म माना जाता है। अब दोनोंका क्षयोपशम होता है तब क्रमशः सामान्यज्ञान अथवा दर्शन व भद्धान (प्रतीतिविश्वास होता है तथा विशेषज्ञान प्रकट होता है। अतएव परस्पर पौर्वापर्य भाव तो है किन्तु उत्पाद्य उत्पादक भाव नहीं है। ऐसी स्थिति में कार्यकारण भाव मानना गलत है। सत्य बात इतनी ही है कि दर्शन मोहकमके क्षयोपशमादिसे विपरीतता हटकर यथार्थता या सम्यक्पना प्रकट होता है जिससे पेश्तर दर्शन या श्रद्धान-सम्यक होता है, पश्चात् उसके साथ ही ज्ञान भी सम्यक हो जाता है अर्थात् दोनोंके मिथ्या विशेषण हटकर सम्यक् विशेषण लग जाते हैं। उसमें पहिले कारणता 'दर्शन को है क्योंकि पहिले उसी में 'सम्यक विशेषण लगता है अर्थात् पहिले दर्शन या श्रद्धान ( इत्थंभूत प्रतीति ) हो सुधरता है और उसीकी बदौलत ज्ञान भी सुधरता है यह खुलासा है । फलतः विशेषण लगनेको अपेक्षा कारणकार्यभाव समझना चाहिये और कुछ नहीं, अन्यथा कल्पना करना मिथ्या है। उत्पत्तिको अपेक्षा पहिला नम्बर ज्ञानका ही है, इसका खुलासा आगे किया जाता है सो समझ लेना।
ज्ञान और श्रद्धान घे दो पृथक् २ गुण है, परन्तु साथ २ एक आत्मामें रहते हैं सामान्यज्ञान और सामान्यश्रद्धान समी अवस्थावालों के हर समय रहता है किन्तु विशेष ज्ञान और विशेषनवान हर समय नहीं रहता यह नियम है। अतः विना ज्ञान ( सामान्य ) के श्वद्धान मानना तथा विना श्रद्वान ( सामान्य ! के ज्ञान मानना भ्रम च अज्ञान है। विना ज्ञानकै भी श्रद्धान होता है, यह कहना विशेषज्ञान या प्रत्यक्षज्ञानसे सम्बन्ध रखता है अर्थात् प्रत्यक्षज्ञान न होने पर भी ( परमाणु वगैरह सूक्ष्म पदार्थोंका ) उनका श्रद्धान जिनवाणी के द्वारा हो जाता है। परन्तु यह विशेष ज्ञानकी चर्चा है--सामान्य ज्ञानकी नहीं है किम्बहुना विवक्षाको हमेशा समझना चाहिए अस्तु ।
, नोट-कोई गुण किसी गुणको उत्पन्न नहीं करता, सभी गुण अपनी ३ योग्यता या भवि तव्यतासे प्रकट होते हैं । आपसमें निमित्तता करते हैं परन्तु एकता या उत्पादकता नहीं करते न बलात्कारता करते हैं। ऐसी स्थितिमें 'सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानमें विशेषण साथ लगना रूप कारणकार्यपना बतलाया गया है जो सत्य है। इसके अतिरिक्त भायों में परिवर्तन भी तो साथ र होता है,
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सम्यग्ज्ञान
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अतएव सम्यग्दर्शनरूप भाव, सम्यग्ज्ञानरूप भावके होने में निमित्तकारण अवश्य है, फलतः उक्त प्रकारका कारण कार्यपना मानना लाजमी है, अस्तु ।
भावार्थ---ज्ञानगुण आत्माका प्राण या स्वभाव है, सो जब वह सत्य या सही ( यथार्थ ) होता है तभी उसकी यथार्थताका समर्थन करनेके लिए पुष्टिरूप ( छाप-शीलरूप) 'इत्यंभूत प्रतीति होती है....अर्थात् जो ज्ञानने जाना है वह सत्य है अन्यथा नहीं है, यह पक्कापन ही सम्यकपना या विशेषण है जो पहिले प्रतीति या श्रद्धान या सम्बग्दर्शन में लगता है उसके पश्चात् उसी समय वह सम्यक् विशेषण ज्ञानमें भी लगता है। ऐसी स्थितिमें श्राद्वान मुख्य माना जाता है, जो कारणरूप है और ज्ञान गौणरूप माना जाता है, जो कार्यरूप है, यह खुलासा समाधान है। फलत: उत्पत्तिको अपेक्षासे ज्ञानका दर्जा पहिला है और श्रद्धानका दर्जा दुसरा है, किन्तु विशेषणकी अपेक्षासे दर्शनका दर्जा पहिला है और ज्ञानका दर्जा दूसरा है किम्बहुना ॥३३॥ आचार्य पूर्वोक्त विषयको वोण और प्रकाशका उदाहरण देकर और स्पष्ट करते हैं
(विशेषण विशेष्यको अपेक्षा ) कारणकार्यविधानं समकालं जायमानयोरपि हि । दीपप्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् ॥३४॥
पा युगपत् उत्पसी होते मी, कारण कार्यपना बनता । दीपशिखा अरु प्रकाशको ज्यों, नहिं विवाद उनमें टनता ।। सश्य समझकर बात हमेशा करना ही चतुराई है।
विना समझके विवाद करते, होती जग कुबड़ाई है ॥३४॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ हि सम्यक्त्वज्ञानयोः समकालं जायमानयोरपि दीपप्रकाशयोरिव कारणकार्यविधानं सुघरम् ] निश्चयनयसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में, एक हो समयमें प्रकट होनेवाले दीपक (दाह) और प्रकाश ( उजेला) की तरह कारणकार्यपना निर्विवाद सिद्ध हो जाता है अर्थात् जैसे दीपकको कारण और प्रकाशको कार्य मान लिया जाता है, उसी तरह सम्यग्दर्शनको कारण और सम्यग्ज्ञानको कार्य माननेमें कोई विरोध नहीं आता, अस्तु 11३४।।
भावार्थ-- युक्ति, आगम, स्वानुभवसे जो सिद्ध होता है उसमें कोई विवाद नहीं रहता, वहाँ हठ करना व्यर्थ है। तदनुसार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ये दोनों एक साथ होते हैं परन्तु कार्य भिन्न-भिन्न होनेसे वे दोनों एक नहीं हो जाते, फिर भी परस्पर कार्यकारण सम्बन्ध रहता है, वह नहीं मिटता ! कारणकार्य सम्बन्ध अनेक तरहके होते हैं, जैसे निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध, उपादानउपादेय सम्बन्ध जन्य जनक सम्बन्ध, विशेष्यविशेषण सम्बन्ध, परस्परसंयोग सम्बन्ध, व्याप्यव्यापक सम्बन्ध इत्यादि । इनमें भूलना नहीं चाहिये, अन्यथा गड़बड़ी हो सकती है ऐसा निर्धार करना चाहिये किम्बहना। .... १८
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पुरुषार्थसिधुपाय प्रत्येक कार्य नदि पदार्थको यि, बिना कारण ( उपादान या निमित्तके अभावमें) नहीं हो सकती ऐसा नियम है, तब सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान ये भी कार्य पर्याएं हैं, अतः उनके होने में भी कारण चाहिये। तदनुसार, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानके होने में निमित्त कारण बनता है और सम्यग्दर्शनमें, सम्यक्श्रद्धान कारण पड़ता है किन्तु कारण शून्य कोई नहीं है, ऐसा सिद्धान्त समझना चाहिये, द्वीप व प्रकाशका दृष्टान्त उपयुक्त है इत्ति ।।३४।।
आचार्य सम्यग्ज्ञानका स्वतन्त्र लक्षण बताते हैं
( अन्तनिहित भेद व आठ जङ्ग सहित ) कर्तव्योऽध्यवसायः सदनेकान्तात्मकेषु तत्वेषु । संशय विपर्यायानध्यवसायविविक्त मात्मरूपं तत् ।।३५।।
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READE
अनेकान्तमय द्रव्यों में जो अध्यवसाय उपजता है। सम्बरझाम नाम है उसका, संशयादि विन होता है। भास्माकर वह रूप कहा है, शाम बिना नहिं मातम है।
ज्ञान प्राण भातमका जानी, असः स्थमाघ स्याना है ॥३५॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि सदनेकान्ता मकेषु सरवेषु संशयविपर्ययानध्ययसाविहित अध्यवसायः कत्तव्यः ] सनुरूप ( उत्पादत्र्ययध्रौव्वरूप ) एवं अनेकान्तरूप ( अनेकधर्म सहित) पदार्थोंमें जो शंशय विपर्यय अनध्यवसाय ( दोषों से रहित यथार्थ ज्ञान होता हैं, उसको 'सम्यरज्ञान' कहते हैं। [ तत् आत्मरूप] और वह आत्माका स्वरूप या स्वभाव है, अतएव उसको प्राप्त करना ही चाहिये । अर्थात् सम्पूर्ण पदार्थोंकी यथार्थ जानकारी करना अनिवार्य है ॥३५॥
___ भावार्थ-संसारमें या संयोगी पर्यायमें रहकर जिस जीवने सम्यग्ज्ञान (भेदज्ञाम ) अर्थात् पदार्थों को यथार्थ ( संशयादि रहित सम्यक् ) जानकारी प्राप्त नहीं की, उसका जन्म या जीवन निष्फल है ऐसा समझना चाहिये । हीराको कीमत या आदर तभी होता है जब वह मड़सान पर चढ़कर शुद्ध हो जाता है। इसी तरह आत्मा या जीवकी प्रतिष्ठा पूज्यता तभी होती है जब वह सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय मण्डित हो जाता है, अन्यथा नहीं, यह तात्पर्य है । प्रत्येक पदार्थ अनेक
१. अध्यवसाय, निरचम ( जानकारी ) २. संशय, विपर्यय, अनध्यवसायरूप मिथ्याज्ञान । ३. आत्माका स्वभाव या स्वरूप । ४, कह सम्यग्जान ।
(उभयकोटिस्पशिज्ञान संशयः, एककोटिस्पदिशाम विपर्ययः, अनिश्चितजानमनध्यवसाय:)।
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बाला है ऐसा जैन शासनमें सर्वज्ञ केवलीने बतलाया है, और यह वात हर तरहसे अर्थात् प्रमाण-नय-निक्षेपोंसे बराबर सिद्ध की गई है। अतएव सम्यग्दृष्टि सम्यग्ज्ञानीको इसमें कोई भ्रम नहीं रहता, उसकी श्रद्धा व ज्ञान अटल रहता है । मिथ्यादृष्टि वस्तु ( पदार्थ ) में अनेक धर्म नहीं मानते एक ही कोई धर्म वस्तु मानते हैं, अतः वस्तु व्यवस्था नहीं बनती, सब कल्पनारूप या एक ईश्वरादिके आधीन सबको मानते हैं, तब वस्तुको स्वतन्त्रता नष्ट हो जाती है इत्यादि अनेक दोष ( आपत्तियाँ ) आते हैं । फलतः सरागी अल्पज्ञानियोंके द्वारा कहा गया 'तस्व' सब free व अधूरा है किम्बहुना' ।
सम्पज्ञान
सम्यज्ञानकी आराधना या साधना कैसे करना चाहिये अर्थात् उसका क्या उपाय है ? यह आचार्य बताते हैं । ( व्यवहारनयापेक्षा } ग्रन्थार्थीभयपूर्ण काले विनयेन सोपधानं च । बहुमानेन समन्वितमनि ज्ञानभाराध्यम् || ३६ ॥
पद्य
ज्ञानसाधना भार विधि होती हैं यह सार । शब्द अर्थ re aaa का ज्ञान कहा अनिवार are fare अe धारणा, आदर गुरु का नाम । इन आठ अंगन सहित सिद्ध होत अभिराम ॥ ३६ ॥
अन्वय अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि [ काले ] योग्यकालमें अर्थात् अनध्याय- प्रदोष आदि कालोंको टालकर शेष सुकालके समयमें तथा [ विनयेन बहुमानेन समन्वितं ] विनय (नम्रता ) के साथ बहुमान या उच्च स्थान देकर [ प्रम्यार्थीमयपूर्ण अभिह्नवं शानमाराध्यम् ] शब्दका, अर्थं (वाचक वाय) का, और शब्द, अर्थ दोनों का, ज्ञानपूर्वक गुरू आदिका नाम सहित 'सम्यग्ज्ञना' को प्राप्त करना चाहिये । अर्थात् उक्त आठ जंग या निमित्ति मिलाकर सम्यग्ज्ञानकी आराधना उपासना या सेवा करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करनेसे ज्ञानको प्राप्ति विशेष रूप में होती है ये बाह्य साधन हैं || ३६ ||
भावार्थ-ज्ञानं या सम्यग्ज्ञान आत्माका गुण है, उसका प्रकाश या उत्पत्ति निश्चयसे अपनी ही सहायतासे होती है अर्थात् ज्ञायक स्वभाव आत्मा के ही आलम्बनसे होती है किन्तु व्यव" हारले शब्दादिक जो आठ बाह्य निमित्त है, उनके आलम्बनसे होती है। ऐसी स्थिति में सम्यक् ( यथार्थ ) ज्ञान होनेके लिये शब्दों का ज्ञान, ( पदों व वाक्योंका ज्ञान, वाचकोंका ज्ञान ), अर्थों
१. अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात्, निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ञानमागमिनः ||४२||
-रत्न० श्रावकाचार
२. अभी साध्य !
Pe..
निकल कर सुराम अग्रवास और दुभरत नजरपुर गरीमा मृध्दि म. स्वानंदन
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१.
पुरुषार्थसिव्युपाय { पदार्थो-वाच्यों ) का ज्ञान, एवं शब्द, अर्थ दोनोंका ज्ञान, होना अनिवार्य है। इसी तरह अकालसुकालका ज्ञान होना व सुकालके समय शास्त्र' पढ़ना, विनय सहित पढ़ना, धारणा ( स्मृति } सहित पढ़ना, उच्वासन देकर पढ़ना और गुरू आदिका नाम जाहिर करके पढ़ना, ये सब शिष्यके कर्तव्य हैं। तभी उस शिष्यको विशेष ज्ञान उत्पन्न होता है...उसकी प्रतिभा अतिशयबाली होती है, ऐसा समझना चाहिये ।। ३६ ।।
सम्यग्ज्ञानके आठ अंग और उनका खुलासा (१) शब्दोंका ज्ञान होना (२) पदार्थोंका ज्ञान होना (३ ) शब्द और अर्थ दोनोंका मान होना ( ४ ) सुकालमें अध्ययन करना (५) विनयके साथ अध्ययन करना ( ६ ) धारणा सहित अध्ययन करना (७) उच्च स्थान देकर अध्ययन करना (८ ) गुरु आदिका नाम नहीं छिपाना, ये आठ सम्यग्ज्ञानके अंग हैं।
लोट.....इनमें मुख्यता हृदय साफ होनेकी है, कोई छलकपट या मिथ्यात्वादि रूप भाव नहीं रहना चाहिये, तभी वह सम्यग्ज्ञान गुण प्रकट हो सकता है अन्यथा नहीं।
अंगोंका ही दूसरा नाम आचार है यथा (१) शब्दाचार---शब्दशास्त्र ( व्याकरण ) के अनुसार अक्षर-पद-वाक्यका पठनपाठन यलपूर्वक शुद्ध करने को कहते हैं । इसीका नाम व्यंजनाचार, श्रुताचार, अक्षराचार, ग्रन्थाचार आदि सब एकार्थवाचो हैं।
(२) अर्थाचार---यथार्थ शुद्ध अर्थके अवधारण करनेको कहते हैं।
(३) उभयाचार-~-शब्द और अर्थ दोनोंके शुद्ध पठनपाठन करनेको कहते हैं । - ( ४ ) कालाचार-शुभ घड़ो शुभ मुहूर्तमें स्वाध्याय अध्ययन { पठनपाठन ! करनेको कहते हैं। प्रदोषकाल, उपसर्गकाल, दुर्दिन, उल्कापात, वचपात, ग्रहण आदिके समय पठनपाठन आदि वर्जनीय है अर्थात् सूत्रोंका--सिद्धान्तशास्त्रोंका पठनपाठन निषिद्ध है, नहीं करना चाहिये । सूत्र ४ प्रकारके होते हे (१) गणधरसूत्र (२) प्रत्येकबुद्धचित सूत्र, (३) श्रुतकेयलीरचित सूत्र (४) अभिन्नदशपूर्वधारी रचित सूत्र । ऐसा समझना चाहिये ।
(५) विनयाचार----शुद्ध जलसे हस्तपाद आदि धोकर शुद्ध स्थानमें नमस्कार आदि विनय करके पठन करनेको कहते हैं।
(६) उपधानाचार--स्मरण सहित अध्ययनादि करनेको कहते हैं। अथवा वेष्टन आदि बांधकर सुरक्षा करना भी उपधानाचार कहलाता है।
(७ । बहुमानाचार---ज्ञान, पुस्तक, गुरुका पूर्ण सन्मान ( सत्कार ) करके याने उनको उच्च स्थान देकर पड़ेनेको कहते हैं।
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सम्पन्झाम
( ८ ) अनिलवाचार-गुरु या शास्त्र आदिका नाम न छिपाकर खुलासा बताकर अध्ययन करनेको कहते हैं। अस्तु।
इसी प्रसंगमें अन्य ग्रंथों में भी खुलासा कथन किया गया है। तथा पं० कविवर यानतराय जीका यह मन्तव्य है कि
भाप आप जाने नियत, ग्रन्थ पठन व्यवहार।
संशय विभ्रम मोह चिन, आठ अ गुमकार ॥ पूजा. अर्थ :-निश्चयनय (नियत ) से स्वयं ही अपनी आत्माको संशय विपर्यय अनध्यवसाय रहित जानना 'सम्यग्ज्ञान' कहलाता है। इसमें आत्मासे भिन्न पर ( शब्दादिक व इन्द्रियादिक ) की सहायताकी आवश्यकता नहीं रहती। और व्यवहारनयसे शास्त्रोंका सुकाल आदिमें विनयादि सहित पढ़ना सम्याज्ञान कहलाता है ऐसा निर्धार समझना चाहिये । अस्तु।।
व्यवहारनपरो या उपचारसे एक २ वस्तुको अपूर्ण रूप जानने वालेको भी पूर्ण ज्ञानी या यथार्थ ज्ञानी कह दिया जाता है, परन्तु वह वास्तविक । निश्चय कपन नहीं है, अपेक्षिक है। । फलस: आत्मज्ञानी ही सम्यग्ज्ञानी कहा जा सकता है और वह एक ही प्रकारका होता है। जैसे कि कोई अकेले द्वादशांग शास्त्रका जानने वाला होकर भी 'श्रुतकेवली' नहीं माना जाता। और जिसको श्रुतज्ञानके द्वारा 'आत्मज्ञान या संवेदन हो जाता है वह 'श्रुतकेवली' कहलाता है। ऐसा श्री कुंदकुंद आचार्य समयसारमें लिखते हैं। महिमा आत्मज्ञान होनेकी है, उसीसे मोक्षकी प्राप्ति होती है, संसारका दुःख छूटता है किम्बहना । भिन्न २ आचार्योने सम्यग्ज्ञानके लक्षण पृथक २ रूपसे बतलाए हैं किन्तु 'आत्मज्ञान को सम्यग्ज्ञान मानने में मतभेद किसी बातका नहीं है, सब एक मत हैं इत्यादि । उपचार या व्यवहारका कथन सर्वथा सत्य नहीं माना सकता। लोकमान्यतासे कथंचित् उसको सत्य माना जाता है। परन्तु निश्चयका कथन कथंचित् विशेषणसे रहित सर्वथा सत्य होता है, यन: उसमें त्रिकालमें अन्यथापना नहीं हो सकता यथावस्थित रहता है। हाँ, यदि उससे भी बढ़कर कोई तत्त्व होता तो अपेक्षा लगाई जा सकती थी किन्तु बेसा कोई है ही नहीं, तब वह अन्तिम निर्णय ( फैसला ) है ऐसा समझना चाहिये । जहाँ पर अपूर्णता हो और उसको पूर्ण कहा आय, वहीं पर उपचारकी प्रवृत्ति या प्रवेश होता है यह नियम है, सर्वत्र यहो निमम गमझना चाहिये।
सम्यग्ज्ञानीके ३ भेद ...१-उत्तमसम्परज्ञानी, जो शब्द, अर्थ, उभय इन तीनोंको भलीभांति जानता है वह उत्तमसम्यग्ज्ञानी है। १. काले विणये उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे । बंजण अस्थ- तदुभये णाणाचारो दु अट्ट विहो ।। ७२ 11 मूलाचार पंचाचार प्रकरण
अर्थ----आचारका अर्थ साधारणतः प्रवृत्ति या बाथ होता है। अतएव सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिके लिये (१) शुभकाल (२) विनय (३) उपधान ( ४ ) बहुमान ( ५ ) अनिल्लव (६) व्यंजन ( शुद्धशब्दोच्चारण) (७) अर्थका शान (4) उभयका ज्ञान होना अनिवार्य है ऐसा कहा गया है ।। ७२ ॥
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पुरुषार्थसिलघुपाय २- मध्यम सम्यग्ज्ञानो, जो शब्द अर्थ दोनोंको भलीभांति जानता है वह मध्यम सम्यगज्ञानी है।
३-जनन्यसम्यग्ज्ञानी, जो केवल शब्दोंको ही भलीभांति जानता है, वह जघन्य सम्यग्ज्ञानी है । वह तोता जैसा शब्दशास्त्री होता है, अतः आत्मकल्याण नहीं कर सकता। ये सब व्यवहारनयसे सम्यग्ज्ञानी है।
नोट--निश्चय सम्यग्ज्ञानी हो आत्मकल्याण करनेवाले मोक्षमार्गी कहलाते हैं, दूसरे नहीं, यह तात्पर्य है । अस्तु।
नयोंमें प्रमाणता सापेक्षतासे आती है
पदस्खंडागम पुस्तक १ पेज ८० में लिखा है कि'कुत: नयानां प्रामार्ण्य ? उत्तर- प्रमाणकार्यत्वादुपचारतः । अर्थात् जो कार्य प्रमाण करता है दही कार्य नये भी थोड़े रूपमें करती हैं अतएव गंगाजलकी समान कार्य करनेको अपेक्षासे वे भी प्रमाणिक मानी जाती हैं, परन्तु वे परस्पर सापेक्ष रहती हैं अर्थात् जिसने अंशको वे ग्रहण करती हैं, उतनेको ही उस वस्तुमें नहीं मानती अपितु और का भी अस्तित्व उसमें वे मानसी है जो अज्ञात अंश है। फलतः वे मिथ्या नहीं समझी जाती हैं, यह सारांश है, यदि कहीं के अन्य अज्ञात अंशोंको उस वस्तुमें न मानें तो बराबर मिथ्या हो जायें । उक्तं च
निरपेक्षा नया मिथ्या, सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् इति अर्थः-पदार्थके एक २ अंशको जाननेवाला नय, यदि पदार्थमें और अंशोंका सद्भाव ( अस्तित्त्व } न मानकर सिर्फ उत्तना ही अंश माने, तो निः सन्देह वह नय मिथ्या समझा जायगा क्योंकि जब पदार्थ अनेक अंश या धर्मवाला है, तब उसको उतना ही ( एक अंशवाला) मानना सरासर मिथ्यात्व या झूठ है। अलएव पदार्थमें जाने हए अंशोंके सिवाय विना जाने हुए अंशोंका सद्भाव ( सापेक्षता ) मानना अनिवार्य है। तभी वे सब नय अर्थक्रियाकारी या सार्थक होती हैं अर्थात् सम्यक् या प्रामाणिक मानो जाती हैं। इत्यादि समझना चाहिए ॥३६॥ ।
(३) सम्यकचारित्र अवश्य प्राप्तव्य है। आचार्य आठ अंग सहित सम्यग्ज्ञानका निरूपण करने के पश्चात् अब सम्यक्चारित्रकी आवश्यकता बतलाते हैं जो अनिवार्य है--
विगलितदर्शनमोहैः समंजसज्ञानं विदिततयाथैः ।
नित्यमपि निःकम्पैः सम्यक्चारित्रमालम्व्यम् ॥३७॥ १. जिनको सम्यग्दर्शन प्राप्त हो चुका है, ऐसे सम्यग्दृष्टि जोव । २. सम्याज्ञानी, जिन्हें सम्यग्ज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण तत्वीका यथार्थ ज्ञान हो चुका हो । ३. निर्भय, दृढ चिन्तवाले मुमुक्षु जीव।
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सम्पकचारित्र
पश्च सम्बग्दृष्टि सम्यग्ज्ञानी बनकर जो मिर्मय होते। वे ही जीव यथारथ देखो सग्यचारित्र हैं धरते ।। अतः मुमुक्षु जीवोंका, कर्तव्य उसे है अपनामा ।
यसः विना शरिन मोक्ष नहिं, भव्यो इसे न विसराना ॥३॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [विगलिगदर्शनमोह: समं असशानविदिततत्वाथैः नि:प्रकम्पैः ] जिन जीवोंका दर्शनमोहकर्म नष्ट हो चुका हो अर्थात् जो सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर चुके हों तथा साथ ही सम्यग्ज्ञान प्राप्त हो जानेसे जिन्होंने वस्तु स्वरूपको यथार्थ जान लिया हो, इतना ही नहीं, जो निर्भय या दृढ़ श्रद्धानी, दृढ़ विचारी हो चुके हों, उनका कर्तव्य है कि वे [ नित्यमपि सम्यकचारित्रमालाच्यम् ] अनिवार्यरूपसे हमेशा सम्यकचारित्रको धारण करें अर्थात् प्राप्त करें, क्योंकि मोक्षमार्ग में उसकी महती आवश्यकता है ॥३७॥
भावार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, ये तीनों आत्माके गुण (स्वभाव) हैं परन्तु इनका विकास ( प्रादुर्भाव ) या पूर्णता क्रम २ से होती है। क्षायोपामि अस्पा सभ्य दर्शन और सम्यग्ज्ञान ( आंशिक ) साथ २ होते है। अर्थात् जिस समय दर्शनमोहनामक मिथ्यात्त्वकर्मको उपशमादिरूप पर्याय ( अवस्था) होती है ( उपशमरूप-क्षयोपशमरूप-क्षयरूप, इनमेंसे कोई एक रूप ) उस समय ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम तो स्वभावतः रहता ही है, लेकिन उस क्षायोपशमिक ज्ञानका आंशिक कार्य यथार्थ होने लगता है। अतएव वह सम्यग्ज्ञान कहलाने लगता है।
__ इस तरह आंशिक ( अपूर्ण ) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान दोनों साथ ही होते हैं ( साथ २ सम्यक् विशेषण लगता है परन्तु क्रियात्मक चारित्र, जिसको बाहिर त्याग करना या संयमादि धारण करना कहते हैं, उनके साथ ही नहीं होता। यह चारित्र, निश्चयनयसे अन्तरंग परिग्रहके त्यागरूप है तथा व्यवहारनयसे बाह्य परिग्रहके त्यागरूप है । तब उसके लिए प्रयत्न या पुरुषार्थ करनेकी खास आवश्यकता रहती है, क्योंकि उसके बिना मोक्ष नहीं होता यह नियम है, यही बात इस श्लोक में दरशाई गयी है। सारांश यह कि सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति हो जानेसे चारिश्ररूपी बीज होने की भूमिका तयार हो पाती है, जिस बीजका फल मोक्षरूप कल्पवृक्षका उत्पन्न हो जाना है । फलत: बिना सम्यग्दर्शन द ज्ञानके सम्पकचारित्र उत्पन्न हो ही नहीं सकता यह नियम है। चारित्रका लक्षण और भेद आगे श्लोक में० ३९ में बताये जावेंगे। यहां सिर्फ भूमिका या पात्रता ही बतलाई जा रही है, इसीका नाम भूमिका शुद्धि है, उसीको अत्यन्त आवश्यकता है, क्योंकि विना संयम या चारित्रके जोचन सब निष्फल है। असंयमी जीबन संसारका स्थान है, यह बात निश्चित है किन्तु संयमो जीवन भी क्रमानुसार होना चाहिये, व्यतिक्रममें उसका होना निरर्थक है, उसका संसार निवास ही रहता है। यद्यपि स्वरूपाचरणस्प निश्चयचारित्र, तथा मिथ्यात्वके त्यागरूप व्यवहार चारित्र, दोनों ही सम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थानवालके आंशिक रूप हो जाते हैं तथापि अतरंगमें ये प्रकट होते हैं और वे भावरूप होते हैं, किन्तु द्रव्यरूम नहीं होते---शारीरिक
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RINSISTANTARNAKTISTIARRHO
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पुरुषार्थसिद्ध गाय क्रियादिरूप दृष्टिगोचर नहीं होते अतएव लोकाचारमें उसको असंयमी अचारित्री ही कहते हैं ऐसा लौकिक न्याय है। फलत: लोकमें ( व्यवहारमें। उसीकी मान्यता होती है। परन्तु स्थिरतारूप निश्चयचारित्रके बिना मुक्ति या आत्मकल्याण नहीं हो सकता यह निश्चित है, बाहिरका या चरणानुयोगका चारित्र, मोक्ष महीं पहुँचा सकता। अतएव उसका नाम उपचार चारित्र रखा गया है किम्बहुना ॥३॥
आचार्यमे मोक्षमागोपयोगी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान होनेका कम ती बतलाया किन्तु 'सम्यकचारित्र' होनेका क्रम नहीं बतलाया, उसको बतला रहे हैंक्योंकि वह भी मोक्षमागमें महान् उपयोगी है और अन्तमें प्राप्त होता है ।
न हि सम्यग्व्यपदेशं चरित्रमज्ञानपूर्वकं लभते । ज्ञानानन्तरमुक्तं चारित्राराधनं तस्मात् ।। ३८ ॥
पद्य
R RORISSAMRAPANESHIAMONGuruRANDU
मोक्षमार्गका साधक चारित-सम्यकरूप कहाता है। सम्यकरूप होता है तब ही जब अज्ञाम हयाता है। इसीनिये पीछे वह होता पेर दश-ज्ञान होते।
लक्ष्यसिद्धिका अन्तिम साधन बुधजन प्राप्त अवश करते ॥ ३८ ॥ अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ अशानपूर्वक चारित्र, सम्यग्व्यय देशं न हि लभते ] अज्ञान अवस्थामें (मिथ्यात्त्वके अस्तित्त्वमें) धारण किया गया चारित्र (संयमादि) सम्यक् चारिश ( भोक्षमार्गोपयोगी यथार्थ चारित्र ) नहीं कहलाता, अत: बह मोक्षका साधक नहीं होता या हो सकता [ तस्मात् ज्ञामानन्तरं चारित्राराधनं उनम् ] इसी दृष्टि ( अपेक्षा ) से जो चारित्र, सम्यग्ज्ञानके अनन्तर होता है वह सम्यक चारित्र कहलाता है और वही मोक्षका साधक ( मार्म ) होता है, अतएव उसकी साधना या प्राप्ति सम्यकदर्शन सम्यग्ज्ञान प्राप्त हो जाने के पश्चात् बुद्धिमानोंको अवश्य करना चाहिये तभी लाभ होगा अन्यथा नहीं, यह क्रम है-जिनाज्ञा है ।। ३८ ॥
भावार्थ--मुमुक्षके लिये यों तो सामान्यत: सम्यग्दर्शनादि तोनों ही प्राप्त करने योग्य हैं, किन्तु उनका विकास ( प्रादुर्भाव ) जिस क्रमसे होता है उसी क्रमसे करना चाहिये सभी लाभ हो सकता है । इसके विपरीत जो जोष सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के पहले ही ( मिथ्यादर्शन व मिथ्याज्ञानकी अवस्थामें ही ) कषायवश या तीने रागादिके वशीभूत होकर ( लोकेषणावश ) बाह्मचारित्र ( शरीराश्चित क्रियाकाण्डरूप प्रतिज्ञा ) धारण कर लेते हैं किन्तु चारित्रके असली स्वरूप ( मम ) को नहीं जानते और न यह भी जानते हैं कि चारित्र किसका धर्म हैं ? आत्माका धर्म है कि शरीर.
१. अधिक कषायोंका उदय होनेसे ।
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প্যাদি का धर्म है इत्यादि । बहतसे प्राणी अज्ञानताके कारण, शरीरसे अनेक तरहकी क्रियाएं करते हैं । जेसे कि तरह २ की आसने लगाना, व्यायाम करना, भोजनपान बन्द कर देना, एक ही प्रकारका भोजन करना, गांजा-भाँग आदि नसैली चीजोंका उपयोग करना, घद्वातद्वा जहां-तहाँ खाना-पीना, दिन रात्रिका भक्ष्य-अभक्ष्यका भेद नहीं करना, बाउला जैसा बर्ताव करमा, शरीरमें धुलि गख लपेटना, टाटफट्टा-बल्कल या पीताम्बर रनार आदि पहिरना नग्न रहला. भारत के नए (स्वांग) बहुरूपिया सरीखे बनाना, जटाजूट रस्त्रना, केश नाखून आदि बढ़ा लेना आदिकोही चाथि मानकर वैसा कार्य किया करते हैं। इन्हीं सब कामोको मुक्तिका कारण ( साधन ) समझकर दिन रात लगे रहते हैं। कोई २ अन्न छोड़कर फल आदि खानेको ही चारित्र समझते हैं। तात्पर्य यह कि आडम्बरको ही चारित्र मानकर ठगते रहते हैं, वे तोवकषायी संसारसे पार नहीं होते। बहुतसे जीव ऐसे मन्दकषायी भी होते हैं कि घरद्वार, राज्य सम्पदा आदि छोड़कर एकान्त बियावान जंगलोंमें व गुफाओंमें, गुप्त स्थानोंमें अनेक सरहके कष्ट सहते हुए जीवन व्यतीत करते हैं, परन्तु किसीसे याचना नहीं करते, न शारीरिक आराम चाहते हैं, लेकिन चारित्रका यथार्थ स्वरूप नहीं समझते । नतीजा यह होता है कि अत्यन्त मन्द कषाय होनेसे जैन-लिंगी हो तो नववेयिक तक्रके वेव हो जाते हैं, ३१ सागर सककी लम्बी आयु पा लेते हैं किन्तु मोक्ष नहीं जा सकते, संसारमें ही डालते रहते है। कारणकि बह सब आत्म-अनात्मक ज्ञान विना मिथ्या चारित्र हैं, सम्यक्चारित्र नहीं है । मोक्षको प्राप्ति होना सम्यकचारित्रका फल है। सम्यक्चारित्र, सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान प्राप्त हुए बिना कदापि नहीं हो सकता। अतएव पेश्तर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करना चाहिये, तब वह सम्यक्चारित्र प्राप्त होकर मोक्षको ले जायमा, अन्यथा नहीं ! वह चारित्र आत्माका धर्म है, शरीरका धर्म नहीं है, तथा कषायोंके अभावरूप है ----मन्दरूप है, तीवरूप नहीं है, निर्विकार व अहिंसक परिणामरूप है, सविकार व हिंसक परिणामरूप नहीं है, ऐसा समझना चाहिये, अस्तु ।
रोग और रोगको उपयुक्त औषधिका ज्ञान न होनेपर जैसे कोई उल्टी दवाई या औषधि खाकर अच्छा नहीं हो सकता. प्रत्यत सत्य हो सकती है। उसी तरह चारित्रका ज्ञान हए बिना अचारित्रको चारित्र मानकर धारण कर लेनेसे संसार सागरसे पार नहीं हो सकता । कहा भी है कि 'बिन जाने ते दोष गुणनको कैसे सजिये गहिये । अनादिकालसे यही तो होता चला आया है कि विना सम्यग्ज्ञानके चौरासी लाख योनियों में जीव ( आत्मा) को अनन्ती वारं घूमना पड़ रहा है इत्यादि, अतएव अज्ञान या भूलको मिटाना अति आवश्यक है। क्रियाकाण्ड और शरीरके वेष, शुद्धोपयोगरूप सम्यक्चारित्रके साधन ( निमित्त ) कदापि नहीं हो सकते ऐसा समझना चाहिये।
फलतः मिश्यादष्टि उच्चपद ( देवपर्याय } पाकर भी आत्माकी रक्षा नहीं कर सकता अर्थात स्वभावका घात होना चन्द नहीं कर सकता, कारण कि उसके मिथ्यात्वत्र अमन्तानुबन्धीका बन्ध निरन्तर होता रहता है । अतएव उसका दर्जा उस मनुष्य या तिर्यञ्चसे भी नीचा है, जिसके सम्यग्दर्शन हो जाता है | आत्मरक्षा करने लगता है । मिथ्यात्वका बन्ध नहीं करता ) 11३।। १. अल्प या थोड़ी कषायोंका उदय होनेसे ।
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पुरुषार्थसिमुपाय
सभ्यचारित्र अधिकार आचार्य सम्यक्चारित्रका स्वरूप बतलाते हैं।
चोरित्रं भवति यतः समस्तसावधयोगपरिहरणात् | सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ।।३।।
पद्य मोह कर्मसे रहिल योग जब पाप गहिस हो जाते है। अरु कषायके मष्ट हुए से निर्मलता पा जाते हैं। स्थिरता था जाती है य-माम उसीका है 'चारित' । वह है आत्मरूपका दर्शन, उदासीनता अवमारिस ॥३९॥
अथवा
सककषाय योग छूटे, चारित गुण प्रकटित होता । वह विशद बिरामरूपमय, भामस्वरूप कहा जाता ।। मिश्यचारित उसे कहत हैं. स्वाश्रित जो प्रकरित होता ।
पटने निषा होला है जो, वह व्यवहार कहा जाता ॥३९॥ अन्यय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि-[ यत् सकलपायविमुक्त विशद उदासीनं आमरूपं. सन् धारित्रं भवति ] जो सम्पूर्ण कषायोंसे रहित हो, निर्मल हो ( घातिया कर्मोसे रहित हो }, उदासीन हो, अर्थात् बीतरागतारूप हो ( राग द्वेषादिविकारों-विकल्पोंसे रहित हो) और आत्माका गुण हो { स्वाधित हो ) उसको चारित्र कहते हैं। [यतः समस्तसावध योगपरिहरणात् ] इसका हेतु (निमित्त ) तीनों योगोंका पापक्रियाओंसे मुक्त होना या छटना है अर्थात् पाप कर्मके आस्रव व बन्धसे रहित हो जाता है और वह मोह कर्मके नष्ट हो जानेसे होता है यह सार है ।।३।।
इस श्लोकसे चारित्रके भेद भी प्रकट होते हैं जिसका खुलासा किया जायगा अस्तु ।
भावार्थ-चारित्र आत्माका गुण है शरीरका नहीं है यह मुख्य बात है। उसके दो भेद होते हैं (१) निश्चयचारित्र ( स्वाधित (२) व्यवहारचारित्र ( पराश्रित) व्यवहारनयकी अपेक्षासे वह चारित्र, कषायोंके अभाव होनेपर होता है ( जो पर है ) या कषाय रहित योगोंके होनेपर
१. आवरण या वृत्ति। २. पापाम्रा या पापबन्धरहित योगत्रयकी क्रिया---परिस्पन्दरूप । ३, अभाम हो जानेसे। ४. पाप कर्म या पाप प्रकृतियाँ, घालिया कर्म माने गये हैं यह विशेषता है। ५. प्रादुर्भाव या प्रकट होना ।
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सम्यक चारित्र
होता है या मलोके नष्ट होनेपर होता है ( अतएव पराश्रित है) और निश्चयनयसे उदासीनता के आनेपर होता है ( संसार शरीर भोगों से अरुचि होनेपर होता है ) इत्यादि । ( स्वाधीनता है । यतः पराधीनता उसमें नहीं पाई जाती है । स्वाधीनता है ) निमित्ताधीनता नहीं है, जो व्यवहार की सूचक है । निश्चयतयकी अपेक्षाके वह सिर्फ स्वविकसित आत्माके ( स्वाश्रित ) रूप है, उसमें कोई भेद नहीं है । वह एक स्वभाव भावरूप शुद्ध है ।
पापक्रियायोंसे रहित योगका खुलासा
पापक्रियाओं का अर्थ - जिनसे पाप कर्म अर्थात् घातिया कर्मोंका आसव और बंध होता है, उनको पापक्रियाएँ कहा जाता है। वे पापक्रियाए मुख्यतया ४ चार हैं--यथा १ मिथ्यादर्शनक्रिया, २ अदिति क्रिया, ३ प्रमाद क्रिया, ४ कषाय क्रिया । ये जबतक रहती हैं तबतक बराबर घातिया कर्मो आ व बंध हुए करता है ऐसा नुसार चार विना अकेले योगों पाप का बंध नहीं होता किन्तु पुण्य कर्मों ( अघातिया कर्मों ) का बंध होता है | वह भी प्रकृति प्रदेशरूप होता है, स्थिति अनुभागरूप नहीं होता, अतः निष्फल है । उ---
१. वृत्ति ।
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पुण्यफला अहंता वेसि किरिया पुणो वि बोदयिगा । मोहादी विरहदा तम्हा सा खाइग सिमदा ॥ ४५ ॥ प्रवचनसार गाथा नं० ४५
अर्थ - अर्हन्तोंको पुण्य कर्मरूप फल ( बंध ) होता है क्योंकि पूर्वबद्ध अघातिया ( पुष्य क) कर्मोंका उनके उदय पाया जाता है परन्तु वे मोहकर्म रहित होनेसे क्षायिक जैसा कार्य होता है या करते हैं संसार के कारण नहीं हैं यह तात्पर्य जानना ।। ४५ ।।
चारित्रके दो भेद
( १ ) शुद्ध चारित्र ( स्वभावरूप आचरण ) ( २ ) अशुद्ध चारित्र ( विभावरूप आचरण ) शुद्ध चारित्र, वीतरागतारूप या स्वरूपाचरणरूप - शुद्धोपयोगरूप माना गया है। और
२.
दुखंडागम सूत्र २२ पुस्तक ६ वीं ।
३. चारित्रपाहुड गाथा सं० ४ -- जिगणादिट्टिसुद्धं पढमं सम्मरचारितं ।
fatri Haveri जिणणाणसदेसियं तं पि ॥ ५ ॥
अर्थ :-- चारित्र वाचरणको कहते है । वह आचरण दो तरह होता है ( १ ) श्रान रूप आचरण अर्थात् शुद्ध सम्यक्त्वाचरण ( शुद्ध बीतराग स्वरूपका अनुभव करना-स्वरूपमें लीन होना, स्वरूपाचरणमित्यर्थः ) शुद्ध चारित्र इति ( २ ) संयमरूप आचरण, व्रतादिका पालना आदि रूप, शुभरागमयarentafta ar araारित्र इति । पहिले भी कहा जा चुका है ।। ५ ।
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पुरुषार्थसिद्धधुपाय वह सम्यग्दष्टि चतुर्थ गुणस्थान वालेके भी आंशिक होता है क्योंकि सम्यग्दर्शन प्रारंभमें शुद्ध निश्चय रूप ही होता है, यह नियम है अर्थात् उसमें विकल्प या रागद्वेष रूप विकारभाव कुछ समय तक नहीं होते, उपयाग स्थिर रहता है। पश्चात् विकल्प उठते हैं, जो व्यबहार रूप हैं । इस विषयमें मतभेद रखना व्यर्थ है, असंभव नहीं है, सब संभव है। पंचाध्यायीकारने भी इलोक नं. ६.८ में स्पष्ट लिखा है ....
मोहे स्तंगते पुंसः शुदस्यानुभवो भवेत् ।
म भवेद् विघ्नकरः कश्मिचारित्रावरणोदयः ॥ ६.८ ॥ उत्तरार्ध अर्थ-दर्शनमोह ( मिथ्यात्त्व ) कर्मके अभाव हो जाने पर शुद्धात्माका अनुभव । शुद्धोपयोग ! अवश्य होता है--उसके होने में कोई दूसरा-चारित्रमोहनीकर्मका उदय बाधक नहीं हो सकता यह तात्पर्य है ॥ ६८ ॥
अनंतानुबंधो कषाय चारित्रमोहनीका भेद होनेसे वह मुख्यतया 'स्वरूपाचरण चारित्र' को ही बातती है और उसके अभावमें चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्रका होना अनिवार्य है फिर हठ या इन्कार काहेका ? विवेकीको अवश्य मान लेना चाहिये।
___ उत्सर्ग च अपवाद भेद चारित्रके, द्रव्य चारित्र ( शरीर या योग-मन वचन काय, को क्रिया रूप) और भाव चारित्र ( आत्माके परिणाम रूप ) दो भेद होते हैं। उनमेंसे द्रव्यचारित्रके ( १) उत्सर्म चारित्र ( त्याग हा कठिन या कठोर आचरण करना ) और ( २ ) अपवाद चारित्र ( मुलायम या शिथिल आचरण करना ) इन्हींके दूसरे नाम (१) उपेक्षणीय चारित्र या उपेक्षा संयम तथा (२) अपेक्षणीय चारित्र या अपहृत संयम, ऐसे दो नाम होते हैं इत्यादि । किन्तु इनमें अनेकान्तदृष्टि { स्वाद्वाद या नाथंचित् दृष्टि ) अवश्य रखना चाहिये-एकान्त (एक पक्षको ) दृष्टि नहीं रखना चाहिये, यह साधु या संयमीका मुख्य कर्तव्य है ! जैन शासन में अनेकान्त दृष्टिका रखना मुल मंत्र है। उसके विना सब व्यर्थ है। संयोगी पर्याय में पूर्ण शुद्धोपयोग होनेके पेश्वर अनेकान्त दष्टिका होना अनिवार्य है, ऐसा आचार्योंका मन्तव्य है अस्तु । बगबहारनयसे जिस चरणानुयोग के चारिश्रका लोकमें महत्त्व है व आदर है, उसको धारण-पालन करते समय साधुके अनेकान्त दृष्टि होनी चाहिये । जैसे कि उत्सर्ग { कठिन त्याग रूप) संयमको उत्कृष्ट समझकर धारण करने बाला साथ अपने मन में यही धारणा रखे कि यह 'उत्सर्ग संयम' मेरे लिये कचित् उपादेय व हितकारी है, सर्वथा नहीं है अर्थात् जबतक इस कठोर संयमको पालत हा मेरे भावों में विकार या चंचलता सक्लेशता आदि न हो { ज्योंके त्यो स्थिर रहे ) तबतक हो उपादेय व हितकारी है। और परिणाम बिगड़ जाने पर उपादेय ब हितकारी नहीं है। अतएव उत्सर्ग सुयम पालने में हठ या जब दस्ती नहीं करना चाहिये किन्तु अपवाद संयम ( ग्रहण रूप की अपेक्षा । आवश्यकता पड़ने पर उसका सहाग लेना ) भी रखना, स्याद्वादीका कर्तव्य है। ऐसा करनेसे उसका संयम ( उत्सर्ग संयम ) उस जीवन में अधिक समय तक पलता रह सकता है बाधा नहीं आ सकती।
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लम्बक पारिव
उदाहरण के लिये मान लो कि किसी साधु मुनिने उत्सर्गे संयम पालनेका मार्ग अपनाया अर्थात् चारों प्रकारका आहार त्याग कर उपवास धारण किया, दीगर सब काम बन्द कर दिये और ऐसा त्याग अनिश्चित काल तest foया, किन्तु यदि शरीरको अवस्था या पराधीनता ( बीमारी आदि) के कारण परिणामों में अशान्ति या संक्लेशता होने लगे तो क्या उसको शुद्ध एक बार विधि पूर्वक थोड़ा-सा आहार नहीं ले लेना चाहिये ? क्या पूर्वं प्रतिज्ञा पर ही अटल रहना चाहिये ? चाहे शरीर रहे या नष्ट हो जाय - किन्तु हम उपवास तो नहीं तोड़ेंगे इत्यादि, यह एकान्त पक्ष पकड़े रहना क्या उचित है ? नहीं, न्याय पक्ष तो यही है कि वह परिणामोंको शुद्ध पहिले रखे, जो उत्सर्ग मार्ग है । स्याग मार्ग है ) । यह नहीं कि उसके बिगड़ने पर भी कोरी हठ करके गांठका (मूल) शरीर छोड़ कर सदा के लिये ( मृत्यु होने पर असंयमी होना पड़ेगा ) संयमसे वंचित हो जाय, उससे महती हानि होती है । यदि कहीं थोड़ा-सा शुद्धाहार बतौर आंगन के आवश्यकता पड़ने पर लेता जाता तो उस पर्याय ( भव) में भी संयम पलता रहता और कर्मोका क्षय करके अधिक लाभ उठा सकता था। अतएव आत्म लाभ या कर्मोसे बचने के लिये 'अपवाद मार्ग' ( भोजन करना ) को ग्रहण करना सर्वथा अन्याय या पाप नहीं है, कथंचित् है, जिसका होना संयोगी पर्याय संभव है। सिर्फ लक्ष्यच्युत नहीं होना चाहिये ( वीतरागता की ओर दृष्टि रखना चाहिये ) शुद्ध एक बार दिनमें भोजन लेते समय भी साधुका लक्ष्य तप या संयमको ( वीतरागताको ) बढ़ाने व उसकी रक्षा करनेका रहना चाहिये। फलतः 'अपवाद सापेक्ष उत्सर्ग सफल माना जाता है अन्य नहीं ।
इसी तरह 'उत्सर्ग सापेक्ष अपवाद भी सफल माना जाता है । जैसे कि शारीरिक अस्वस्थता आदि समय शुद्ध अल्प आहार लेते हुए, लक्ष्य उत्सर्ग - वीतरागता रूप उपवासादि ) मार्गी ही ओर रखना ( रहना) चाहिये । अतएव वह अपवाद मार्ग भी ( भोजन करना भी ) कथंचित् उपादेय व हितकर है। परिणामोंमें शान्ति आती है तथा संक्लेशता मिटती है और शरीरकी रक्षा रहते हुए संयम पालन किया जा सकता है एवं उसमें अरुचि होनेसे संवर निर्जरा भी होती है इत्यादि लाभ हैं । अतएव इसमें भी कथंचित् उपादेयता व हितकरता मानना चाहिये यही अनेकान्त दृष्टि है, जो संयम शरीर आहार-विहार में हमेशा रखना चाहिये किम्बहुना
यह प्रकरण उपयोगी समझ कर यहां विस्तारसे लिखा गया है, जिससे लोग भ्रम में न पड़े, नं एक पक्ष पकड़ लें, कि असमर्थता था रागादिको उत्कटता' के सबब संयम न पाल सकनेसे उसकी बुराई बताने लगे, उल्टा प्रचार करने लगें, उसका महत्त्व गिरा देवें, उससे अरुचि करा देवें इत्यादि । द्रव्यचारित्र द्रव्यचारित्र कह कर एक पक्षीय दृष्टि न करा देवें । द्रव्यचारित्र भो कथंचित् दृष्टिसे उपादेय व हितकर है। जब आत्माका उपयोग शुद्धतासे च्युत होता है तो गिरते समय यदि उसको शुभमें ठहराया जाय और उसके अनुसार योगों की प्रवृत्ति या निवृत्ति की जाय सो पुण्य बंधका लाभ होता ही है, जिससे पाप बंधसे बचता है। हिंसा आदि पाँच पापोंसे बच
१. 'लॅ तप बढ़ावन हेतु नहि तन पोष तज रमन को पं० दौलतरामजी कृत छहढाला ।
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पुरुषार्थसिद्धधुपाय जाता है, जिससे कथंचित् अहिंसा धर्म भी पलता है, यह भी तो विचार करना अनिवार्य है अस्तुइस पर अवश्य ही हमेशा विचार करना चाहिये-उपेक्षामें नहीं डालना चाहिये, अन्यथा एकान्त दृष्टि ( पक्ष ) समझी जावेगी जो सदैव हेय है----मिथ्यात्त्व है।
नोट-शुद्ध निश्चयनयको दृष्टि से यद्यपि सभी तरह की अशुद्धता हेय है अकर्तव्य है किन्तु अशुद्ध निश्चयनय मा महनारलयकी दुष्टिका अनभाव उपादेय है-पापबन्धसे बचाता है यह विचारणीय है अस्तु । शुद्धका नाम निश्चय और अशुद्ध का नाम क्यवहार ऐसा भी माना गया है। अथवा शुद्धका नाम परसे भिन्न ( तादात्म्यरहित ) और अशुद्धका नाम परके साथ संयुक्त होता है। अथवा अखण्डमें पदण्ड या भेद करना ( मानना ) ब्यवहार, और खण्ड नहीं करना निश्चय है। पर्यायको या पर । निमित्त) की अपेक्षासे पदार्थमें भेद करना ( मानना ) व्यवहार कहलाता है और पर्याय' या परकी अपेक्षासे पदार्थ में भेद नहीं करना निश्चय कहलाता है ( पूर्वमें पर्याप्त विवेचन किया गया है ) ! तदनुसार योगों व कषायोंके भेदसे चारित्रमें भेद करना व मानना, सब व्यवहार चरित्र है जैसे कि (१) इन्द्रिय संयम ( चारित्र) इन्द्रियोंको वशमें करना उनके विषयोंको छोड़ना यह एक भेद है। (२)प्राणिसंयम, द्रव्यप्राणोंकी रक्षा करना, दया करना, बनाना इत्यादि यह दूसरा भेद है। (३) कषायोंको छोड़ना, उनका त्याग करना, यह तीसरा भेद है । ( ४ ) योगों को रोकना, मन-वचन-कायको क्रियाको बन्द करना यह चौथा भेद है इत्यादि बहुतसे भेद होते जाते हैं | यथासभव उनका आलम्बन लेना अनिवार्य है । अन्तरंग संयम और बाह्मसंयम दोनोंका पालना कर्तव्य है। इसीको सामान्यतः उपयोगशुद्धि व योगगुद्धि कहा जाता है अस्तु।
इन सब बातोंका ज्ञान परमागम ( अध्यात्मशास्त्र ) का ज्ञान हुए बिना नहीं हो सकता यह नियम है। तदनुसार प्रत्येक मुमुक्षुको अपना समय शास्त्रोंके स्वाध्याय में तस्वचर्चा में और अध्यात्मशास्त्रोंके परिशीलन में ही लगाना चाहिए, व्यर्थके आडम्बरमें और लौकिक कार्यों में समयको नहीं खोना चाहिये | चतुराई यही है कि जो कार्य जिसके जिम्मे हो सही कार्य बह करे, साधुको किसोके दवाउरेमें आकर पदविरुद्ध कार्य नहीं करना चाहिये, उसका काम तो मोक्षमार्गकी साधना करना मुख्य है, पदके विरुद्ध कार्य करना अनर्थदण्डमें शामिल है इसका ध्यान रहे अस्तु । साधु या मुनिपद बड़ा उच्च व आदरणीय पद है, उसके बिना मुक्ति नहीं होतो, परन्तु वह हो.चाहिये आगमके अनुसार, तभी उससे लाभ होगा, यह पद देखा-सीखीका नहीं है--लोकेषणा व शिथिलाचारका नहीं है यह तो खांडेको धार है जरा चूके कि गये, बड़ी सावधानी रखनेकी जरूरत है। साधुओं ( मुनियों ) के ३ भेद, समयसार क्षेपण गाथा, १८१-१८२ पेज
(गाथा नं० १२५ के आगे) (१) परिग्रहत्यागी साधु-जिसने बाह्य परिग्रह ( १० प्रकार धनधान्यादि ) का त्याग कर दिया हो वह ६।७ गुणस्थानवाला परिग्रहत्यागी कहलाता है। इनके प्रमाद व प्रवृत्ति पाई
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सम्यकारित्र
१५३ जाती है तथापि लोग उन्हें साधु, मुनि, यति कहते हैं जो व्यवहार है। धर्मध्यानको मुख्यता वाले ये हैं।
(२) जितमोही साधु-जिन्होंने बाह्य में मोहकर्मका बिलकुल ( निःशेष ) क्षय कर दिया हो, प्रवृत्ति बन्द कर दो हो, ध्यानस्थ हों। ८वेसे १० गुणस्थानवाले साधु जितमोही कहलाते हैं। अंतरंग परिग्रहसे रहित साधु अथवा ११ व गुणस्थानवाले भी उपशमकी अपेक्षा साधु कहलाते हैं इनके शुक्लध्यानका पहिला पाया रहता है व कभी धर्मध्यान भी हो जाया करता है।
(३) धर्म संग रहित साधु-जो पूर्ण वीतरागी हो चुके हों ( ११-१२ ३ से लेकर आगे) तथा जो शुभराग व हत्तछाओंसे रहित हो गये हों, पूर्वके संस्कार भी बन्द या नष्ट हो गये हों, तथा शुक्लध्यानके दुसरे पाये वाले हों, उन परम व पूर्ण वीतरामियोंको धर्मसंग ( पुण्यानुबन्धी शुभराग) रहिस साधु कहते हैं। उनके पुण्यका बन्ध सिर्फ योगों द्वारा होता है जो स्थिति-अनुभाग शून्य रहता है अस्तु। इन्हीं को कषायरहित साधु भी कहते हैं। इन्हींको जघन्य मध्यम-उत्कृष्ट साधु कह सकते हैं । उक्तं च समयसारे । 'धर्मरहित साधु होता है' ऐसा नाममात्र सुनकर भड़कना नहीं चाहिये। उसका रहस्य समझकर, संतोष करना चाहिये शब्दोंके प्रकरणवश अनेक अर्थ होते हैं। धर्मके विषय में लोग बहुत भूलें तुर हैं । धर्मके अनेक भेद होते हैं, उन्हें समझ लेना चाहिए इति ।
भोगाकांक्षास्वरूप निदानबन्ध रहित, अर्थात व्यबहारधर्मरहित साधु यह उसका तात्पर्य है। शुभराग यह धर्मसंग कहलाता है --धर्मरूप परिग्रह इसोका नाम है।
वीतरागताका होना ही, धर्मसंगका छूटना है। अतएव धर्म ( शुभराग ) को अंतरंग परिग्रह कहा गया है ऐसा विवक्षाभेद समझना चाहिये। तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानवाले, मुनिनाथ था स्नातक या देव भी कहलाते हैं । तीसरे-चौथे शुक्लध्यानवाले, उपचारसे कहे गये हैं ऐसा समझना चाहिये ।। ३१॥
१. अपरिम्गही अणिछो भणिदो णाणी य णेच्छदि धम्म ।
अपरिगहो दृ घम्मस्स जाणगी तेण सो होदि ॥२१॥ . अर्थ----जानी बीतरागी-परिग्रह रहित साधु धर्म या पुण्यकी अथवा मोक्षकी भी बांछा नहीं करता, फिर अन्य बातोंकी तो बात ही क्या है। वह बांछा या इच्छाको अन्तरंग परिग्रह समझ कर छोड़ता है, हो वह सबको जाननेवाला माता मात्र रहता है उसीसे मुक्ति होती है अर्थात् जो परिग्रह रहित हो जाता है वही मोक्षका पात्र होता है अन्य नहीं यह तात्पर्य है ॥२१॥
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तीसरा अध्याय
| आचार्य महाराजने इस धार्मिक ग्रन्थ में जिस विचित्रता के साथ ( मूलमें भूल बतलाते हुए ) असली धर्म और उसकी प्राप्तिका उपाय बतलाया है वह विश्वसनीय ही नहीं अपितु यथाशक्ति करणीय भी है । इसीलिये उन्होंने सबसे पीछे 'रत्नश्रयधर्म' का पृथक् २ स्वरूप बतलाया है और उसको हो या मोक्षका उपाय ( मार्ग ) बतलाया है । मूल लक्षण, उसके भेद, निमित्त व उपादान कारण, अंग, आदि सभी तो पीछे बतला दिया है । अब सिर्फ यह बतलाना शेष है कि उस यथार्थ धर्मको पालने या धारण करनेके अधिकारी ( पात्र ) कोन २ हैं ? इसके उत्तरमें कहना होगा कि दो अधिकारी' हैं । अर्थात् ( १ ) अधिकारी श्रावक ( अणुव्रती ) है और ( २ ) अधिकारी मुनि ( महाव्रती ) हैं । उन दोनोंमें से पहिले 'श्रावक धर्म अधिकार, के रूपमें ५ पांच अणुव्रतोंका वर्णन किया जाता है। कारण कि श्रावक अथवा अणुव्रत १२ बारह भेद हैं । ( ५ अणुव्रत ३ गुणत शिक्षाव्रत ) | अतः क्रमानुसार पहिले अणुव्रतों का ही वर्णन होना चाहिये इत्यादि । तदनुसार कथन, आगे है। धर्मका प्रवासी माथा नं० ७ में'वारितं खलु धम्मो' इत्यादि कहा गया है अस्तु । व्रतका नाम भी चारित्र है । ]
श्रावधर्म अधिकार अर्थात् पंचाणुव्रतका स्वरूप ( वैशचारित्र )
हिंसातोऽनृतवचनात्स्तेयाद्ब्रह्मतः परिग्रहः । कायैकदेशविरतेश्चारित्रं जायते द्विविधम् ||४०||
पथ
हिंसा झूठ श्रौर्य अरु परिग्रह परनारी सेवन है पाप । इनका सीमित स्थाग करेले एकदेशयत होता माप || पूरण सबका त्याग करे से सकलदेशव्रत पलड़ा आप यहां मार्ग है सुखका कारण यथाशक्ति होभी विध्याय ॥ ४० ॥
१. १ हिंसा ( जीवात ) २ झूठ ( असत्य बोलना ३ चोरी (पर ग्रहण ) सेवन ) ५ परिग्रह (अधिक संग्रह करना व आसक्ति रखना) ये पाँच पाप है। करना देशव्रत या अणुक्त कहलाता है और सम्पूर्ण त्याग करना सकलवत या ऐसे दो भेद चारित्रके हैं।
२. परिमाण ।
Palmisar
४ शील ( परनारी
इनका थोड़ा २ त्याग महाव्रत कहलाता है,
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सम्यक चारित्र अन्धय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [ हिंसातोऽनृतवचनात् स्तेयादभन्यतः परिग्रहप्तः, कासन्यकदेशविरतश्चारित्रं द्विविध जायते ] हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन प्रसिद्ध पाँच पापोंका त्याग करना चारित्र या व्रत कहलाता है, किन्तु उनका थोड़ा अर्थात् परिमाण-सीमा-मर्यादा सहित त्याग करना 'एकदेशव्रत' या चारित्र या अणुवत कहलाता है और उनका सम्पूर्ण त्याग करना 'सर्वदेशवत' या सकल चारित्र या महावत कहलाता है। इस प्रकार व्रत या चारित्रके दो भेद हो जाते हैं ! तथा उनके पालक भी श्रावक और मुनि ( यति ) के भेदसे दो प्रकारके होते हैं। इसीका खुलासा आगेके इलोकमें है ।।४।।
भावार्थ.....मोक्षका साक्षात् मागं ( उपाय ) चारित्र व्रत या धर्म ही है-दूसरा कोई नहीं है और वह अन्तमें ही पूरा होता है इसलिए पीछे कहा गया है, अस्तु। उसके पात्रकी योग्यताके अनुसार दो भेद किये गये हैं । अर्थात् पात्र कम शक्तिवाले और अधिक शक्तिवाले दो तरह के होते हैं । अतएव कम शक्तिवाले 'एकदेश' चारित्र हो धारण कर पाते हैं और अधिक शक्तिवाले 'सकलदेश' चारित्र धारण कर लेते हैं और वे ही मोक्षको जाते व जा सकते हैं, यह नियम है। ऐसी स्थिति में सर्वोत्कृष्ट उपादेय सकलचारित्र या महाव्रत ही है। यद्यपि उसके भी क्रमशः छेदोपस्थापन, परिहारविशद्धि, समसाम्पराय, यथारख्यात ऐसे पांच भेद होते हैं, जिनका उद्धव एक साथ नहीं होता-क्रमशः होता है। जब परमदरजेका चारित्र 'परम यथाख्यात' प्राप्त हो जाता है तभी मुक्ति होती है, फलतः तद्भव मोक्षगामीके लिये वही प्राप्तव्य है। आजकल यहाँ पर वह अलभ्य है अत: मोक्ष जाना भी बन्द है।
अनादिकालसे जीव परद्रव्यके संयोगसे अशुद्ध हो रहे हैं अर्थात् संयोगोपर्यायमें रह रहे हैं और हिंसादि रूप तरह २ के भाव व क्रिया करने रूप उद्यम ( पुरुषार्थ ) हो रहे हैं, जिनसे नवीन कर्मोंका बंध होते हुए उदयमें आकर सुखदुःखादि दे रहे हैं, और भूलवश उनसे छुटकारा नहीं पाते, यह श्रृंखला बराबर चालू है, बस यही पापबंध या पुण्यबंधका कारण है। उसीके हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह या क्रोध मानादिक सब भेद हैं, कोई पृथक चीज नहीं है। अतएव जबतक उनसे पूर्ण सम्बन्ध विच्छेद नहीं हो जाता तबतक संसार नहीं छूटता, न असली सुख मिलता है। अतः वह अशुद्धता दूर होना ही चाहिये । वह अशुद्धता 'सम्यग्दर्शन' सम्यगज्ञान, सम्यक्चारित्रकी एकतासे दूर हो सकती है यह बार २ पीछे बतलाया गया है, उसमें दो मत नहीं हैं, न हो सकते हैं, यह अवश्य ध्यान रखना चाहिये। सुख-शान्तिकी प्राप्तिके लिये लिये निर्विकल्प या तिराकुल होना अनिवार्य है किन्तु जबतक बिकारी भावों ( समादि ) का तुफान अन्तरंगमें मौजूद रहता है तबतक वह असंभव है, किसी भी तरह उत्पन्न नहीं हो सकता। अच्छे निमित्तोंका मिलाना एक उपाय है ( व्यवहाररूप है ), किन्तु वह अविनाभाव नहीं रखता। हाँ, अन्तरंगमें ज्ञायक स्वभावका आलम्बन लेना एक मुख्य साधन है, उसके संस्कारसे बहुत कुछ काम बन सकता है लेकिन उपादानको नहीं भुलाया जा सकता।
सम्यग्दर्शनके कालमें होने वाली निर्विकल्प दशामें ही स्वानुभव होता है ( सच्चा स्वाद
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पुरुषार्थसिद्धधुपाय आता है ) जिससे जीव उसोमें विभोर होकर अन्य सबकी ओरसे विमुख हो जाता है। वह निराकुल सुखका स्वाद लेता है और उसका संस्कार आत्मामें पड़ जाता है अर्थात् वैसो धारणा ( एकत्त्व-विभक्तरूप) उसके ज्ञान में हो जाती है, जिससे संयोगीपर्याय में उसका उपयोग बदलने . पर भी अर्थात् रागादिरूप होने पर भी एकत्त्व-विभक्तरूप शुद्ध स्वरूपका स्मरण बराबर हर समय आता रहता है और वह यथार्थताको ओर उपयोगको बारंबार लाता है अर्थात् वह भूल नहीं पासा. है---उसका सत्य श्रद्धान बराबर कायम रहता है, जो हमेशा हेय-उपादेयको बताता रहता है। इस तरह सम्यग्दृष्टिका उपयोग बदलने पर भी श्रद्धान नहीं बदलता, जिससे सम्यग्दृष्टि बना रहता है व वैराग्य ( अचि ) साथमें रहने से असंख्यात गुणित निर्जरा प्रति समय होती रहती है, यह खुलासा है, इसको समझना चाहिये। ज्ञायक स्वभावका आलम्बन लेना ही हितकारी है अतएव उसीका प्रयास करना चाहिये, यही विवेकशीलता है, अस्तु ॥ ४० ॥ आचार्य पाँच पापोंका एकदेश व सर्वदेश त्याग करने वालोंका
नाम व पय बतलाते हैं। निरतः कास्न्यनिवृत्तौ भवति यतिः समयसारभूतोऽयम् । या त्वेकदेशविरतिनिग्तस्तस्यामुपासको भवति ।। ४१ ।।
पद्य
सर्वदेशका त्याग करत जो वे यतिवर कहलाते हैं। और उसी में तत्पर रहते, समयसार पद पाने हैं। एकदेशका त्याग करत जो थे श्रावक कहलाते हैं।
और उसी में तत्पर रहते, नाम उगसक पाते हैं ॥ ११ ॥ अन्वय अर्थ-[ कारस्य निवृत्ती निस्तः अयं समयसारभूतो थमिः भवति ] पाँचों पापोंकि त्यागने में जो हमेशा दत्तचित्त ( सत्पर ) रहता है, वह आंशिक कार्य समयसाररूप ( शुद्धोपयोगी) थति हो जाता है ( सकलनती बन जाता है। [तु या एकदेशविरतिस्तस्यां निरसः उपासको भवति ]
और जो पाँच पापोंके एकदेश त्यागने में दत्तचित्त (तत्पर उद्यमशील रहता है. वह उपासक ( श्रावक-देशवती ) कहलाता है या हो जाता है, यह पदभेद है ।। ४१ ।।।
___ भावार्थ-चारित्रका दर्जा सबसे ऊंचा है, यह तो निर्विवाद है ही, किन्तु उसमें भी पद और पालनाके अनुसार भेद पाया जाता है। जैसे कि जो मूलभूत पांच पापोंका पूर्ण त्याग करते हैं वे यति या मुनि छठवें गुणस्थान बाले कहलाते हैं वे समयसाररूप शुद्धात्म्ाकी साधना करनेवाले. होते हैं। तथा जो ऐसे जीव हैं कि वे उक्त पांच पापोका एकदेशः ( अल्प) त्याग करते हैं के उपासक (श्रावक ) नामधारी पंचम गुणस्थान वाले अश्या प्रतिमाधारी होते हैं। इस प्रकार: चारित्र और चारित्रधारियोंके दो भेद माने जाते हैं व दोनों मोक्षमार्गी हैं। और सामान्यतः श्रावक ( गृहस्थ ) के नाते चौथा, पाँचाँ, छठवां तीनों गुणस्थान वाले मोक्षमार्गी हैं। कारण कि श्लोक
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सम्यकचारित्र नं० २० में धर्म धारण करना प्रत्येक श्रावक ( शिष्य या श्रोता ) का कर्तव्य है, चाहे वह प्रती हो या अवती हो उसको रत्नत्रय धर्मका धारण करना अनिवार्य है। क्योंकि धर्मसे ही उद्धार होता है, दूसरा कोई साधन उद्धारका नहीं है और सबमें नीवरूप सम्यग्दर्शन है ऐसा समझना चाहिये। अस्तु । जिन भव्य जीवोंकी जैसी श्रद्धा व शक्ति हो वैसा ही बड़ा छोटा चारित्र अवश्य ही धारण करना चाहिये, तभी लाभ होना संभव है। इसके साथ ही अनेकान्त (स्याद्वाद-कथंचित् ) दृष्टि रखना भी अनिवार्य है, जिससे हानि न हो और साध्य ( अभीप्ट ) की सिद्धि हो, ख्याल रखा जाय, किम्बहुमा ।
स्पष्टार्थ ( खुलासा ) चारित्रके ( १ ) द्रध्यचारित्र ( २) भावचारित्र दो भेद हैं। द्रव्यचारित्र, करणानुयोगकी पद्धसिके अनुसार बाह्य आचरण सुधारनेसे सम्बन्ध रखता है, अतएव वह आचररूप रहता है । भावचारित्र, वृत्तिरूप होता है अर्थात् करणानुयोगकी पद्धतिके अनुसार मनोवृत्ति या उपयोग सुधासी क्षेता है।
निमित्तमिलित सम्बन्ध रहता है, ऐसी द्रव्यचारित्र और भावचारित्रकी परस्पर संगति पाई जाती है जबतक अशुद्धदशा रहती है, शुद्धदशामें नहीं।
इसके विपरीत द्रव्यचारित्र उसको कहा जाता है जो भावके अर्थात् सम्पग्दर्शनके विना होता है। वह कश्यको मन्दता या तीव्रता दोनोंसे होता है, ( उसमें दोनों निमित्त हो सकते हैं ), वह मोक्षका मार्ग नहीं होता, अत: उसकी मोक्षमार्ग में कोई कीमत या गिनती नहीं है। इस विषयमें बारीक छानबीन करने की जरूरत रहती है, वह हर एककी बुद्धिगम्य नहीं है। अतएव यह व्याप्ति नहीं मानी जा सकती कि आजकल सब द्रध्यलिंगी जैन साधु होते हैं इत्यादि, किन्तु भाचलिंगी भी होते हैं ऐसा मानना चाहिये, क्योंकि उनका अस्तित्त्व अन्ततक रहेगा लेकिन सभी वीतरागी निरतिचारी .. नहीं हैं न हो सकते हैं। असएव कषायभावसे वे श्रुटियां कर सकते हैं या उनके त्रुटियाँ होती हैं। किन्तु उससे मूल ( सम्यग्दर्शन ) भंग नहीं हो जाता। हां, जो गलती करके भी उसे गलती न माने यह अवश्य हठी व द्रष्यलिंगो है। फलतः सम्पष्टिका वह मुख्य पहिचानका चिह्न है-कि वह हर समय सतर्क रहे, और अपने दोष गुणोंकी उद्वेलना ( दतौनी )करे, तथा मलतीपर पश्चात्ताप करे, एवं उसके सुधारने का यथाशक्ति प्रयत्न करे. आत्मकल्याणको ओर दष्टि रखे. हाँ एक अशद्ध दृष्टि ही न ररने, शुद्धि दृष्टिको भी लक्ष्य में रखे, ( उपयोग वैसा करे )1 ऐसा करते-करते हो बड़ी मुश्किलसे पुराने संस्कार,छूटते हैं, और नये संस्कार जमते हैं. और उनसे आत्मोद्धार होता है। इसके सिवाय अकेले चिन्तन्वन या विचारसे ही सबकुछ नहीं हो जाता, करनेसे ही होता है, और वह करना अशुद्धताका छोड़ना रूप है, एवं उसके लिये पुरुषार्थ करना रूप है, प्रसादी असावधान रहना उचित नहीं है, अस्तु ।
सम्यग्दृष्टिको ही पेश्तर पाँच पापोंसे अरुचि होती है, उन्हें वह विकार व परद्रश्य समझकर छोड़ना चाहता है ( उनसे विरक होता है तथा बाहिर भी यथाशक्ति योगोंके द्वारा ( मन-वचन
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पुरुषार्थसिद्धपुपाय काय द्वारा ) वैसा आचरण करता है अर्थात् वैसी क्रिया करता है। इस तरह भीतर बाहिर दोनोंसे शुद्धता ( पृथक्ता ) करके मोक्षको जाता है। भोतर अरुचि होना पैराग्य परिणामोंका होना 'भावचारित्र' है और बाहिर सदाचाररूप क्रिया-आचरणका होना 'द्रव्यचारित्र' है ( व्यवहार चारित्र है ) ऐसा समझना। यति-श्रावक, दोनों ही पात्र यथायोग्य देश-काल-पदके अनुसार कर्य करते हैं व करना चाहिये-सीमाको उलंघन करना महान् अपराध है, उसको स्वयं देखे, दूसरोंकी प्रतीक्षा न करे । 'संयम रसन सम्हार, विषयचोर बर फिरत हैं। यह वास्तवमें कर्तव्य है।
सकलचरित्रके, सामायिकादि ५ भेद हैं जो कहे गये हैं 1
देशचरित्रके ५ अणुव्रत, ३ गुणवत, ४ शिक्षाद्रत भेद हैं। जिनसे ११ प्रतिमाएं बनती हैं। प्रतिमाधारी सब नैष्टिक श्रावक कहलाते हैं. उनके ११ भेद होते हैं। अर्थात् श्रावक के...( १ ) पाक्षिक (२) नैष्ठिक ( ३ ) साधक ऐसे तीन भेद होते हैं। पाक्षिक श्रावकका दर्जा जघन्य पक्षका है, वह दृढ़ श्रद्धालु होता है किन्तु प्रती नहीं होता, फिर भी अभ्यास रूपसे वह अतिचार सहित मूलगुण वगैरह पालता है। उसकी अधिक सराग अवस्था होनेसे सम्यग्दर्शनमें भी अतिचार लगते हैं, तुष्ट दुर्जन न्याय से श्रद्धा न रहते हुए भी' कई कार्य पराधीनतासे इच्छाके विरुद्ध उसे करना पड़ते हैं, जिनका वह खेद करता है। परन्तु नैष्ठिक श्रावक हीनरागी होनेसे लोकविरुद्ध कोई कार्य नहीं करता, सबको हेय समझता है। साधक श्रावक, सब काम अन्त में छोड़ देता है व सल्लेखना धारण करता है। विधिपूर्वक सल्लेखना धारण करना कठिन कार्य है, परन्तु वह एक अवश्य कर्तव्य है, व्रती सो करता ही है किन्तु मुमुक्षु अवतीको भी प्रयत्न करना चाहिये, वह जीवनको सफलता है। सल्लेखनाका अर्थ समाधिमरण होता है, जो कषायवश नहीं किया जाता अतः वह आत्मघात या आत्मवध नहीं हो सकता---आत्मघात तीव्र कषाय वश होता है किन्तु समाधिमरणमें कषायका अभाव या मन्दता रहती है वह धर्मार्थ रागद्वेष छोड़नेके अर्थ--- अर्थात् वीतरागता प्राप्त करने के अर्थ ) शरीरादि परिग्रहका त्याग निर्मोह होकर करता है, यह भाव है॥४१॥
अथ लक्षण प्रकरण
१-हिंसा पापका स्वरूप आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात् सर्वमेव हिंसतत् । अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥४२।।
१. स्वभाव या शुद्धोपयोग । आत्मघातका नाम ही हिंसा' पाप है-यह निश्चयनयका ( स्वाश्रित ) कथन
है। परघातको 'हिंसा' कहना, यह व्यवहारनयका ( पराश्रित ) कथन है। स्वाश्रित पराश्रितका भेष । है। इसको अवश्य समझना चाहिये ।
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सम्पचारित्र
जिम कामों के करनेमें हा आत्मप्राण घासे जाधै। यह है हिंसाका असल में भूल न उसमें हो पाये ।। भूत वचन आदिक ये सब ही उसमें शामिल हो जाते। शिष्योको समझाने खातिर पृथक रूपसे बतलाते ॥१३॥
अन्धय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि यथार्थ में विचार किया जाय तो ( अशुद्ध निश्चयनयसे ) [ पतसर्व भात्मपरिणाम हिंसनहेसुस्वास् हिंसा पुष ] हिंसा आदिक सभी विकारी भाव, आत्माके स्वभाव भावोंका घात करते हैं, अर्थात् उनके रहते ( अस्तित्त्वमें ) शुद्धोपयोग नहीं हो पाता, अत: उन सबको हिंसा या धात समझना चाहिये, जो कि मैमित्तिक है। अर्थात् उस शुद्धोपयोगके अभाव ( घात ) रूप हिंसा ( पाप ) का निमित्त अथवा अशुद्धोपादान, हिंसादिरूप विकारो भाव ही हैं (स्वाश्रित हैं ) यहाँपर कर्ता-कर्मकारकको अपेक्षासे विक्रारीभाव ( हिंसादिरूप ) कर्ता हैं, और शुद्धोपयोग का न होना ( घात होना ) कर्म है, यह खलासा है। अथवा स्वमें स्व निमित्तताका उपचाररूप' प्रदर्शन है अस्तु । इसके सिवाय [ अनृतवचनादि केवलं शिष्यबोधाय उदाहतं ] झूठ बचन आदि चारोंको सिर्फ शिष्योंको समझाने के लिये पृथकरूपसे ( व्यवहारसे ) कहा गया है अर्थात् वे सभी एक हिंसा पापमें ही शामिल हैं। फलत: मुख्य पाप एक 'हिंसा' ही है यह तात्पर्य है, निश्चयसे वे जुदे पाप नहीं हैं अर्थात् एकमें ही विवक्षासे 'हिंस्यहिंसकपना' सिद्ध हो जाता है ।।४२६॥
भावार्थ-अभेदविवक्षामें विकारी भावोंको और हिंसाको एकरूप ही बतलाया गया है, असएव उक्त प्रकार ( अभिनप्रदेशी) का व्यवहार ही निश्चयका कारण माननेसे परस्पर कारणकार्यपना सिद्ध हो जाता है ! जैसेकि आत्माके विकारीभाव ( हिंसादि परिणाम ) कारणरूप हैं और शुद्धोपयोगका अभाव होना कार्यरूप है ऐसा समझना चाहिये । इस तात्त्विक ( निश्चयरूप) निर्णयका उद्देश्य व्यवहारनयका खंडन करना है कि 'परपरिणाम ( शरीर ) हिसन, को हिंसा कहना, केवल उपचार है-निश्चय नहीं है यह तात्पर्य है, भूलना नहीं ।
नोट-इस श्लोकमें निश्चय और व्यवहार दो तरहकी हिसाओंका वर्णन किया गया हैं, इस सथ्यको समझना चाहिये । सामान्धार्थ श्लोकका करना अनभिज्ञता है। अशुद्धावस्था होना ही हिंसा है, जहाँ रागादि अशुद्धभाव आत्मामें हुए कि वहीं हिंसा खुदकी हो गई। सामान्यत: लोकव्यवहार में हिंसाका अर्थ शरीर व आयुका पात हो जानेको ( मर जानेको) कहते हैं किन्तु वह सब व्यवहार या लोकाचारकी चर्चा है। असल बात यह है कि जीवद्रव्य तो नित्य है अतः वह कभी मरता नहीं है सिर्फ उसके शुद्धभाव या परिणाम संयोगी पर्याय में विकारोंके होनेसे नष्ट होते रहते हैं, बस, वास्तव में वही हिंसा है, उसको ही यथार्थ में बचाना है, तभी वह अहिसक हो सकता है व हिंसासे बच सकता है। इसका अर्थ यह यही है कि अन्य जीवोंको मारमेकी छुट्टी मिल गई है या उनकी दया ( रक्षा ) आदि नहीं करना चाहिये इत्यादि भ्रम छोड़ देना जरूरी है । तत्वका निर्णय करना व समझना पृथक् वस्तु है और भावोंको करना व बनाना पृथक् वस्तु है । विवेकीजन
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પઢ
पुरुषार्थसिद्धधुपा
पेश्तर अपने भाव सुधारते हैं (बचाते हैं ) किन्तु जब भाव नहीं सुधरते ( उनपर नियंत्रण नहीं रहता है तब कषायके आवेश में वह अपने भावप्राणोंको घात करता है तथा विवशता में अन्य traint भी दुःखके साथ घात करता है । भीतरसे उसमें अरुचि रखता है | और भरसक ( यथासंभव) उनकी रक्षा ( करुणा दया भी करता है क्योंकि परिणामों के गिरते समय वह पुनः २ संभलता है - शुभ परिणामों को करके समय बिताना चाहता है इत्यादि, नं० २ का कर्तव्य वही है क्योंकि वह अशुभ बहुत अधिक डरता है, उसकी वह मध्यम स्थिति है किम्बहुना | आगे और स्पष्ट किया जायगा, गलत धारणा नहीं करना चाहिये । इस श्लोक हिंसाका निर्णय ( निर्धार ) किया गया है । आगे श्लोक में हिंसाका लक्षण है, अस्तु ।
परिणामवादका खुलासा
स्वार्थवश यदि कोई जीव, किसी जीवको मार डालने का इरादा ( संकल्प ) करता है या किसीसे झूठ बोलनेका इरादा करता है या किसीको चीज चुरानेका इरादा करता है या मैथुन सेवनका इरादा करता है ( ब्रह्मचर्यके घासनेका ) या अधिक परिग्रह के संचय ( संग्रह ) करनेका } इरादा करता है, तो वह नियमसे पांच पापोंका अपराधी हो जाता है उसे सजा मिलती है, चाहे वह परके प्राणघात ( हिंसा ) आदि कार्य कर सके या न कर सके, उससे मतलब नहीं रहता । अथवा वह परजीव दुःखी होगा - उसका फल इसे लगेगा, यह भी नहीं होता, वह न्याय के प्रतिकूल है। हर एक जीवको अपने भावोंका ही फल प्राप्त होता है ऐसा न्याय है । तदनुसार परिणामोंको नहीं बिगाड़ना चाहिये । हाँ, लोकनिन्दा आदिसे बचनेके लिए यथासम्भव, परजीवों की रक्षा आदि कार्य करना भी उचित है। उस समय त्यागी, व्रती अव्रती सभीको शुभरागसे पुण्य का बन्ध होता है, पाप कर्मोंका स्थिति अनुभाग घटता है । सो वह भी अशुद्धोपयोग के समय कथंचित् कर्तव्य है, यह अनेकान्त दृष्टि है, जैनागम या जैनधर्म के अनुकूल है किम्बहुना | किन्तु वह सर्वथा अनुकूल नहीं है, ऐसा समझना चाहिये । न्यायदृष्टिसे हिंसापापकी तरह झूठ आदि बोलने में भी आत्माका स्वभाव ( शुद्धोपयोग ) घाता जाता है अतएव वे सब हिंसापापके उत्पादक और समर्थक हैं। जीवोंके परिणाम, अशुभ, शुभ, शुद्ध, तीन मरहके होते हैं । उनमें से आत्माका हित करनेवाला एक शुद्ध परिणाम ही है, जो कर्मबन्धसे आत्माको छुड़ाकर मोक्षमें पहुँचा देता है । वह उपादेय है। शेष दो भात्र ( अशुभ व शुभ ) कर्मबन्ध करनेवाले हैं, छुड़ानेवाले नहीं हैं, अतएव
हो है । किन्तु अपेक्षासे शुभभावको अशुभ की अपेक्षा ( पुण्यबन्ध कारक होनेसे ) कुछ अच्छा कहा जाता है, क्योंकि उससे संसार में क्षणिक सुख शान्ति मिलती है इत्यादि, किन्तु वह है हेय हो ॥४२॥ fert लक्षण व हेतु
यत्खलु कषायोगात् प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥ ४३ ॥
१. समुदाय में एक वचन है--वैसे योग और कषाय दो हेतु ( कारण ) हैं ।
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सम्यक चारित्र
पद्य
द्रव्यप्राण अरु सावत्राण दो प्राण होत हैं जीवोंके । उनका घात कियेसे देखो हिंसा होती लोगोंके ॥ कारण इसके दो हैं भाई योग-कषाय उभय जानो 4 दोनोंके स्थागेसे वीरो धर्म अहिंसा पहिचानो ।। ४२ ।।
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ खलु यत् द्रव्यभावरूपाणां प्राणानां कषाययोगात व्ययरोपण करणं सा सुनिश्चिता हिंसा भवति ] निश्चयनयसे कषाय और योगके निमित्तसे जो द्रव्य और भाव दोनों प्राणोंका घात ( विनाश-क्षय ) होता है या किया जाता है असलमें हिंसा वही है, हिंसापाप उसोको कहते हैं, यह संक्षेप लक्षण है, इसमें सब भेद आ जाते हैं। उससे बचना चाहिये ।। ४३ ।।
१५९:
भावार्थ - लोकाचार में द्रव्यप्राणोंके ( ५ इन्द्रियों, मन वचन काय, श्वासोच्छ्वास, आयु १० के ) घात करनेको अथवा जीवोंके मार डालनेको हिंसा ( हत्या ) पाप कहते हैं किन्तु आगममें ( भावाचार में ) परिणामोंके खराब होने मात्रको हिसा कहते हैं। सिर्फ १-- द्रव्यप्राणघातरूप द्रव्यहिंसा की है, और भावप्राण परिणाम घात भावहिंसा कहलाती है यह भेद है । जैन शासन में भार्याहिंसा मुख्य मानी जाती है, क्योंकि आत्मा ( जीवद्रव्य ) का सम्बन्ध साक्षात् है तथा वह स्वाति है । द्रव्यहसा, इसलिये गौण ( अमुख्य ) है कि भावपूर्वक यदि वह ही तो हानिकारक होती है अन्यथा नहीं । बिना भाव या संकल्पके उसको हिंसा मानना या कहना:उपचारमात्र है । यही बात पूर्वाचार्योंने भी कही है । यथा
'प्रमन्त्रयोगात प्राणव्यपरोपणं हिंसा । तस्थार्थ सू० ७-१२ ।
अर्थ :- प्रमाद अर्थात् कषायके सम्बन्धसे ( कषायपूर्वक ) योगद्वारा द्रव्यप्राणोंका घात होना हिंसा कहलाती है (बिना कषायके नहीं ) इत्यादि ।
परिणाममंत्र कारणमाहुः खलु पुण्यपापयो प्राज्ञाः || २३ || आत्मानुशासन
अर्थ :- पुण्य और पापबंधके कारण अर्थात् अहिंसा ( दया ) और हिंसा ( घात ) के कारण जीवके परिणाम ( अशुद्ध भाव - शुभ-अशुभरूप कषायभाव ) ही होते हैं, अन्य नहीं। ऐसा
समझना ।
पापं भुवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि ।
अचेतनाकषाय च वध्येयातां निमित्ततः ॥ ९२ ॥ तमीमांसा
1
अर्थ --- बिना कषायरूप ( शुभ व अशुभरूप ) अभिप्राय के ( संकल्प या इरादा के ) पुण्य और.... पापका बन्ध कदापि नहीं होता । नहीं तो अचेतन पदार्थ और वीतरागो आत्मा भी निमित्तताको
१. जैनो ।
10.7.
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NAWAPUR. MAHARASUTRA)
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- पुरुषार्थसिद्धयुपाय अपेक्षासे बंधको प्राप्त हो जायेंगे, यह दोष आवेगा।' कषाय भावोंके होनेपर बाहिर हिंसा ( घात) न हो तो भी हिंसा पाप लग आता है, यह विशेषता है, अस्तु ।
हिंसाके मुख्य ४ भेद (१) संकल्पी हिंसा ( २ ) आरम्भी हिंसा ( ३ ) उद्योगी हिंसा ( ४ ) विरोधी हिंसा । इन सबमें आत्माका स्वभावधात होता है, अत: हिंसा रूप हैं ।
१. संकल्पी हिंसा, उसको कहते हैं, जिसमें सिर्फ हिंसा करने या मारनेका इरादा किया जाता है। अर्थात् अशुद्ध या विकारमय परिणाम करना, हिंसा करना माना जाता है। यह हिंसा सबमें मुख्य है। कारण कि परिणामोको ( चित्त या उपयोगको) रोकना ही बड़ा कठिन है। अतएवं हिंसाका प्रारंभ वहींसे होता है, ऐसा समझना चाहिये । परमपूज्य समन्तभद्राचार्यके शब्दोंमें उसको हो 'भावहिंसा' कहते हैं।
स्थूलहिता व सूक्ष्महिंसा अस और स्थावर जीवोंको 'द्रव्य हिंसा के आधार पर उक्त दो भेद किये गये हैं ! अर्थात् द्वीन्द्रियादि स जीवोंका घात करना स्थलहिंसा' कहलाती है और एकेन्द्री स्थावर जीवोंका घात करना 'सूक्ष्म हिंसा' कहलाती है। इस लौतिक पप भो चेन्टी और मनुष्य आदि' मुख्य लिये जाते हैं, इसोसे राजर्दड व पंचदंड आदिका विधान माना जाता व किया जाता है । इसमें खास परिणामोंकी अपेक्षा नहीं रखी जाती, जो जैन धर्ममें मुख्य है अस्तु । तथापि पद व योग्यताके अनुसार स्थावर व स जीवोंका रक्षण क्रमसे किया जाता है जो करना चाहिये। पाप हनेशा नुकसान देता है।
२. आरम्भी हिंसा, उसको कहते हैं जो गमनागमनादि शारीरिक क्रियाओंके करने में जीवघात होता है। नहाना, कपड़ा धोना, रसोई बनाना,झारना, पानी भरना, आग जलाना, कूटना, पीसना, खाना-पीना, ( आहार नीहार करना ) आदि सब आरम्भ कहलाता है। अर्थात् सावधयोग का नाम आरम्भ है, जिसमें पापास्रव होता है अस्तु।
३. उद्योगी हिंसा, उसको कहते हैं, जो व्यापार अदिके करनेसे हिंसा होती है व्यापार आदि सभी काम गृहस्थको करना हो पड़ते हैं उनके बिना चलता (निर्वाह ) नहीं है। उसमें हिंसाका होना अवश्यंभावी है। अतः उसे उद्योगी हिंसा कहते हैं। परन्तु इसमें हिंसा करनेका संकल्प नहीं रहता, अस्तु ।
४. विरोधी हिंसा, उसको कहते हैं, जो लड़ाई-झगड़ेके समयमें या प्रतिरोधके समयमें
१. उच्चालिदमि पादे इज्जासमिदस्स णिगमट्टाणे । आवादेज कुलिंगो । मरदुद जियदु व जीवो ण हि वस
तणिमित्तो बंधो सुहमोवि देसिदो समये । परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः प्राज्ञाः । इत्यादि क्षेपक गाया अष्टपाहड़।
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सम्यक चारित्र
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मारकाट हुआ करती है । गृहस्थाश्रम में से सभी कार्य प्रयोजनवश हुआ करते हैं। परन्तु पदके अनुसार करने में लोकापवाद नहीं होता, फल भावोंके अनुसार लगता है इत्यादि ।
नोट - विरोधी हिंसाका उद्देश्य भी अधिकतर आत्मरक्षा करने का है किन्तु शौकिया या शिकार खेलनेका नहीं है, जो अर्थदंड शामिल हैं। सम्यग्दृष्टं जैन गृहस्थ वैसा कार्य नहीं कर सकता, यदि कोई कहता व करता है तो उसके लिये वह लाञ्छन रूप है । यद्यपि आत्मरक्षा व प्रजारक्षाका उद्देश्य है तो रागपरिणति, किन्तु पदके अनुसार वह वर्जनीय नहीं है, न्यायके अनुसार दयाको व्यवहारधर्म बतलाया गया है । इतने पर भी वह अप्रयोजनभूत हिंसा आदिक भीका त्याग रहता है, वह नहीं करता, उसकी न्यायवृत्ति रहती है, वह सदेव पदके अनुसार कार्य करता है। श्रद्धा और कर्त्तव्य दोनॉपर उसकी दृष्टि रहती है। वह एक ( एकान्त ) दृष्टि नहीं रखता यह सब विचारणीय है अस्तु ।
हाथ
कार्यपror | व्यक्त - प्रकट ) कषाय और योगके रहते समय अर्थात् क्रोधादिकषायों के सद्भावमें जीव दूसरे जीवोंको कष्ट पहुँचाता है और कभी-कभी अपने ही अंगोपांगों को कष्ट देता है, यह बाह्य हिंसा देखनेसे आती है | ( आत्मघात व परघासरूप ), अतः वह लोकमें हिंसक माना जाता है यह व्यवहार है । किन्तु निश्चयसे कपायोंके उदयकाल में जो परिणाम खराब होते हैं उससे हो जीवका स्वभाव भाव नष्ट होता है वही हिंसा कहलाती है, उसीका फल मिलता है ।। ४३ ।।
आचार्य संक्षेप में अहिंसा व हिंसाका लक्षण बताते हैं ( स्पष्टीकरण )
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पतिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ ४४ ॥
पद्म
रागदिक विकार भावोंका होना नहीं 'अहिंसा' है । और उन्हीं का हो जाना पुन नाम उसी का 'हिंसा' है ॥ इससे जिनवाणी कहती है जिसे अहिंसा हो प्यारी हो । रागादिक से दूर रहे as itक्ष मार्गका अधिकारी ||४४ | ३
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ खलु रामदीनां भगादुर्भावः अहिंसा मति ] निश्चयसे रागादिक विकारी भावोंका आत्मामें नहीं होना, वहीं अहिंसा है, क्योंकि विकारके न होनेसे हिंसा ( स्वभावका घातरूप ) नहीं होती, तथा [ तेषामेवोत्यत्तिः हिंसा इति जिनागमस्य संक्षेपः ] रामादिक विकारी भावोंकी उत्पत्ति होना ही हिंसा' है क्योंकि उनसे आत्मा के स्वभाव भावका घात
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पुरुषार्थसिद्धयुयाय होता है, ऐसा जिनवाणीका संक्षेप कथन है अर्थात् संक्षेपमें { सूत्ररूपमें अहिंसा व हिंसाका लक्षण बताया गया है, इसे समझना चाहिए। यह निश्चय रूपसे अहिसा व हिंसाका लक्षण जानना ( स्वाश्रित है ) व्यवहारनयसे द्रव्य प्रागों की बात होना हिंसाका लक्षण है ( पराश्रित है ।।४।।
भावार्थ--- असल में रागादिक बिकारी । अशुद्ध ) भाव हो स्वभाव भावके घातक होनेसे हिंसक व हिंसारूप हैं । अतएव महान् पुरुषोंने पेस्तर स्वभाव भावका आलम्बन लेकर उन्हींका क्षय किया है, जो भावकर्मरूप ब आत्माके प्रदेशोंमें अवस्थित, ( संयोगरूप ) रहते हैं। उनका आत्माके साथ बड़ी धनिष्ट सम्बन्ध है व पुराना है। उन्हींकी बदौलत यह संसारवृक्ष विराटरूप हुआ है। अतएव समादिरूप हिंसा ही महान् पाप है, ( अधर्म है ) तथा रागादिकके अभावरूप अहिंसा ही महान धर्म है, ऐसा समझ कर वही अहिंसा रूप परम धर्म प्राप्त करना चाहिए तभी कल्याण होगा । इसके विपरीत 'द्रव्याहिंसा' ( जीवधात ) और भावहिंसा (क्रोधादिकषाय भाव } ये कभी धर्म नहीं हो सकते, न उनसे कल्याण हो सकता है यह नियम है। अतएव भ्रममें नहीं पड़ जाना चाहिये, हमेशा सत्यका आलम्बन लेना चाहिए, अस्तु । सत्यकी ही विजय होती है असत्यकी नहीं, यह नीति है ॥४४॥
__ आचार्य कहते हैं कि सदाचारी जीवोंके रागादिकके अभावमें, विना कषायके कदाचित अन्य जीवोंकी हिंसा (प्राणघात ) हो भी जाय तो भी उनको हिंसाका फल नहीं लगता इत्यादि।
युक्ताचरणस्य सतो रागाचावेशमन्तरेणापि । न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यरोपणादेव ॥४५||
योग्य आचरण करने वाला जब तक राग नहीं करता जीवघातके होने पर भी हिंसा पाप नहीं लगता ।। हिंसा मूल विभाव कहा है जो स्वभावका घातक है।
अतः त्यागना उसका उत्तम अन्य त्याग तस साधक है ।४५|| अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ अपि युक्ताधरणस्थ सतः रागागावेशमन्तरेण ] और खास तस्यकी बात यह है कि सावधानीपूर्वक अर्थात् शिथिलाचार रहित आचरण करने वाला धावक-साधु महात्मा, रागद्वेषादिकषायके बिना ( दुरा इरादा न हो तो) [प्रायवरोपगादेव जास्तु हसा न हि भवति ] कदाचित् अकेले प्राण घात हो जानेसे कभी हिंसा पापका भागी नहीं होता, अर्थात् उसे हिंसा पाप-नहीं लगता, ऐसा सारांश समझना चाहिये । क्योंकि हिंसा, विमा कपाय (क्रोधादि ) के अकेले योग ( प्रवृत्ति ) से नहीं होती ।।४५।। १. योग्य आगमके अनुकूल सदाचाररूप । अर्थात् समिति या सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करने वाला। २. रागद्वेषादि विकार । ३. निमित्तकारण ।
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सम्यकचारित्र भावार्थ-योगोंकी प्रवृत्ति तो चौदहवें गुणस्थानके अन्ततक विशेष पाई जाती है, जिससे हिंसाका होना ( श्वासोच्छ्वासादिसे जीवघात होना) कल्पनामें आ सकता है, परन्तु सिद्धान्त में ऐसी बात नहीं मानी व कही गई है, कारणकि कहाँ कषायके न होनेसे सब कल्पना व्यर्थं हो जाती है अर्थात् वहां रंचमात्र हिसा नहीं होती। वहाँ पर योगोंसे कर्माकर्षण मात्र होता है किन्तु विना कषायके स्थिति अनुभागरूप बन्धन नहीं होता, अतः हानि नहीं होती।
जले जन्तुः धले अन्तुः आकाशे जन्तुरेव च
जतुमालाकुले लोके कथं भिक्षुरहिसकः ? --- राजवार्तिक । इसका उत्तर यही दिया गया है कि कषायभावोंके बिना जीवोंसे भरे इस लोक विहार करते हुए भी भिक्षु या साधुके हिसा नहीं होती इत्यादि । अतएव विना इच्छा या कषायके प्रवृत्ति जन्य हिंसा किसी जीवके नहीं होती, चाहे दृश्यमान किसी जीवका विधात क्यों न हो जाय, यह विशेषता है। सब दारोमदार । निर्भरता) कषायों पर ही है, किम्बहला । अतः कषायोंका त्याग करना अनिवार्य है। श्री उमा स्वामी आचार्यने तभी तो "प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरीपणं हिंसा' ऐसा सूत्र लिखा है, केवल प्राणध्यपरोपण नहीं लिखा है अन्यथा वीतरागी साधुके कदाचित् अतिव्याप्ति यूषण आजाता जो अलक्ष्य है। प्रमाद शब्दका अर्थ तीव्रकषायका होना है सो वहाँ कंषाय नाममात्रकी नहीं रहती यह तात्पर्य है। बाह्य द्रव्याहिंसासे ही मतलब नहीं है असली मतलब भावहिंसासे है ॥४५॥
इसीकी पुष्टि में आगेका श्लोक भी लिखा जाता है व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम् । नियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ॥४६||
पद्य
रागादिकके तीन उदय जीव प्रमादी हो जाता। स्मथर नहीं रहती हैं इसको पागल जैसा बन जाता ।। जीब मरें या नहीं मरं पर, निज स्वभाव धाता जास।।
हिंसा पाप यहीं है निश्चय, उसका त्याग किया जाता ॥४॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ रागादीनां चशप्रवृत्तायां भ्युत्थानावस्थायाम् ] रागादिकषायोंके तीव्र उदयमें ( बेगमें ) जोबोंकी प्रमाद अवस्था ( विवेकरहित दशा) हो जाती है उस
१. जलथल नभ सर्वत्र जीव भरे हैं जब हिंसा नहीं बना सकती फिर साधु अहिंसावती कैसे हो सकता है ? . नहीं हो सकता इत्यादि प्रश्न है । उसका उसर भी दिया है कि भावोंके अनुसार सब होता है। २. असावधानदशा ( विवेक रहित चित्तवृत्ति ) होश-हवाश रहित मदोन्मत्त जैसी हालत । प्रमाददश ।
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খালি समय [ जीवो म्रियता व मा नियसो हिंसा अग्रे धवं धावति ] चाहे अन्य जीव मरें या न मरे परन्तु निजकी हिंसा तो नियमसे आमे २ होती ही है। अर्थात् पहिले अपने स्वभावका घात होनेसे हिंसा टल----वच नहीं सकती, जो यथार्थ वस्तु है ।।४६।।
भावार्थ:-हिसाके प्रकरणमें केवल द्रव्याहिंसाकी मुख्यता नहीं की जाती, न यहाँपर की गई है। हाँ, लोकव्यवहारमें बराबर द्रष्यहिंसाको मुख्यता या प्रधानता दी जाती है, जो उपचार है। क्योंकि परजीवोंका घात विना उसकी आयु पूर्ण हुए कोई कर ही नहीं सकता, तब वह पापी कैसा ? वह तो खाली निमित्तमात्र है, सो कोई-न-कोई निमित्त मिल ही जाता है। ऐसी अवस्थामें अतिव्याप्ति या अव्याप्ति दूषण, नहीं बन सकते जबतक कि द्रव्य प्राणोंका घात बीच में न हो या न किया जाय इत्यादि। अतएव हिंसाका लक्षण भावहिंसापरक है, द्रव्यहिंसापरक नहीं है, कारण कि वह पराश्रित होनेसे उपचारमात्र कथन ठहरता है। इसके सिवाय क्रोधादिक करनेसे तुरन्त ही पर जीवका मरण नहीं हो जाता, सब हिसा काहे की? यह प्रश्न उपस्थित होता है । फलतः स्थाश्रित भावरूप हिंसा ही यहाँ ग्रहण या स्वीकार करना है इस्यादि निर्विवाद जानना। हिंसा या घात दो तरहका होता है (१) आत्मघात, (२) परघात, सो यहाँपर अपने स्वभावका घात होना ही इष्ट है, किम्बहुना। अन्य या परघात इष्ट नहीं है। प्रमाद अवस्थामें जीव सावधानीसे कार्य नहीं करता यदा-तद्वा करता है, उस समय चाहे कोई अन्य जीव नहीं भी भरे तो भी उसके तीव्र कषायरूप प्रमादके सद्भावमें अपनी भावहिंसा' तो होगी हो-वह वच नहीं सकती अर्थात् उसके स्वभावभावका घात होना निश्चित है। उक्तं च प्रवचनसारे-- मरदु व जियदुव जीवो अपदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयवस्स पत्थि बन्धो हिंसामेतेण समिदीसु ॥२१७१४६।। इसीका खुलासा आगे किया जाता है.----
निश्चयहिंसा ( स्वाश्रित) यस्मात् सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चाज्जायेत न था हिंसा प्राण्यन्तराणां तु ॥४७||
MANANE,
जीव पाय सहित अब होता, प्रथम घास अपना करता। पीछे होय न होय अन्यका घात उसीसे नहिं फसता ।। जब कषाय होसी आत्मा में 'भाव प्राण' धाता जाता। सरक्षण बह फल मिलस उसीको जो कषायभाव हि करता ॥१७॥
अन्वय मर्य-आचार्य कहते हैं कि [ यस्मात श्रास्मा सकषायः सन् प्रथम आरमानं आत्मता हन्ति ] जब यह आत्मा कषाय भाव सहित होता है तब वह पहिले स्वयं अपना ही घात करता है, अन्यसे प्रयोजन नहीं रखसा अर्थात् उसकी प्रतीक्षा नहीं करता। इसी कारण ( हेतु ) से (सु पक्षात
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सम्यकचारित्र
१५ प्राण्यन्तराणा हिंसा जायेत म वा इति ] आचार्य कहते हैं कि कषायभाव होने के पश्चात् यदि दूसरे जीवोंका धात हो या न हो, उससे हिंसा पाप नहीं लगता, उसका फल उन्हींको लगेगा, जैसे उनके कषायभाब होंगे इत्यादि निर्धार किया गया है। अपने भावप्राणोंका धात होना ही यथार्थ में हिंसा है जो स्वाधीन है ।।४७॥
भावार्थ-कषायका अर्थ कसनेवाला या बाँधनेवाला होता है। अथवा आत्माको उकीरनेवाला या जुताईको तरह गड्ढा करनेवाला (छेद करनेवाला) या कम बीजको उत्पन्न करनेके योग्य बनाने वाला होता है अतएव वह विकार है हानिकारक है। उससे उसी समग्र जीवके स्वभाव का घात होता है, अन्य समय नहीं, उसके पश्चात् कर्मबन्धन आदिका फल मिलता है। इस तरह शृंखला चाल हो जाती है। यही विडम्बना है-यही आद्य हिंसा है। दूसरे जीवों का घात होना न होना हमारे या किसीके वशका नहीं है, वह उसकी आधु के संयोग-वियोग अधीन है, जब जो होना होगा तभी होगा आगे पीछे नहीं, यह नियम है। यह सब निश्चममय की कथनी है, इसमें भूल नहीं होना चाहिये। इसके विपरीत व्यवहार दृष्टि के समय, अन्य जीबके घात हो जानेको हिसा मानना व कहना या करना, यह भी सत्य है। कारण कि बह पराश्रित है....परका आश्रय था सहारा लेकर काम चलाता-लोकालोकनिक करता है। और यह सनातनी रोति है कोई सर्वथा नई बात नहीं है. जनपद सत्य है। उससे जीवरक्षा या दयारूप व्यवहार धर्म होता या पलता है जो न्यायके अनुसार 'लोकव्यवहार' या लोकाचारमें सत्य हो माना जाता है। जैसा चल पड़ा सो चल पड़ा, उसमें विवाद नहीं होता, वह भी एक अपेक्षा है।
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- लोकव्यवहारमें अन्य जीवोंके घात करनेको हो । परघातको ही हिसा माना जाता है जब कि निश्चयमें अपने खुदके स्वभावभावोंके घात करनेको हिंसा माना व कहा जाता है, इस तरह महदन्तर है तथापि निमित्तनैमित्तिक दष्टि रखकर काचित् संगति बैठा ली जाती हैं, अत. एव दोनों वर्जनीय हैं। कषायका उत्पन्न होना और उसकी पूर्ति करना दोनों अपराध है ! कारण कि जबतक पूर्ति नहीं हो जाती, तबतक आकुलता-चिन्ता बनी रहती है, उससे क्षण क्षण आस्रव व बन्ध होता है, और पूर्ति हो जानेपर इष्टानिष्ट विकल्प उठते हैं, उनमें रागद्वेषादि या हर्षविषादादि भाव होते हैं, तब पुनः आन्नवादि होते हैं, इत्यादि परम्परा चलनेसे जोब निरपराध नहीं हो सकता । अतएव निरपराध होने का यही एक उपाय है कि वह कषाय भावोंका त्याग कर देखें इत्यादि । अर्थात् पराश्रित व्यवहार या व्यवहारधर्म ( शुभ रागरूप या करुणा भक्तिरूप) का अभावं होनेपर, एवं स्वाश्रितधर्म ( वीतरागता ) के प्रकट होनेपर ही सारी एवंझटें छूट सकती हैं। जो अनादिसे संयोगी पर्यायमें हो रही है, अन्यथा नहीं, यह कटु सत्य है.वस या निश्चय कथनः है। इसीसे इसको हो अन्तमें उपादेव बतलाया है तथा व्यवहारको हेय बतलाया गया है । हीन दशाके समय ही कथंचित् अपेक्षासे व्यवहारको उपादेय बतलाया गया है, परन्तु शतके साथ बताया है। अर्थात् उसको वह अचिपूर्वक बलात्कारसे विगारीकी तरह उपादेय मानता है या मानना . नाहिये, तभी कल्याण होगा ।।४७t!
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पुरुषार्थसिद्ध पाथ आचार्य दूसरी तरहसे स्वाश्रित हिंसाका लक्षण बतलाते हैं
( रुचि व ग्रहणरूप दो भेद ) । हिंसायामविरमेणं हिंसापरिणमैनमपि भवति हिंसा | तस्मात प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ॥४८॥
पद्य
हिंसासे निर्धृत न होना, हिंसारूप एक जालो । हिंसा सलंग्न जु होना, हिंसारूप वित्तिय मानी । दोनों रूप प्रमादयोगर्म रहते हैं यह ध्रुव जानो।
प्राणघात निजपरका होता यह उसमें तुम सरधानो ।।४।। अगाय ---आचार्य कहते है कि सायाविरमण अपि हिंसारिणमनं हिंसा अपति ] हिंसा करनेका त्याग नहीं करना अर्थात् हिसासे अचि नहीं करना { रखना ) और हिंसामें जब तव प्रवृत्ति करना, ये दो रूप हिंसाके होते हैं ( अनिवृत्तिरूप व प्रवृत्तिरूप) [ सस्मात ] इसलिये [ प्रमत्तयोगे ] प्रमाददशामें : नित्यं शणव्यपरोपणं भवाश ] हमेशा अपने और अन्य जीवोंके प्राणोंका घात हुआ करता है यह पक्का है। अतएव प्रमाद बड़ा प्रबल व बुरा शत्रु है, उसे त्याग देना चाहिए ।। ४८ ।।
भावार्थ--आचार्य महाराजने अपना ध्यान हिंसा अहिंसा के विषय में केन्द्रित करके अपूर्व प्रकाश डाला है, जो ध्यान रखनेके लायक है। इस ग्रन्थको अपूर्वता इसीसे जाहिर होती है। वास्तव में जबतक किसी कार्यसे अरुचि न हो और न उसका त्याग किया जाय तबतक अपराध नहीं छूटता--लगता ही रहता है । फलतः अपराध छूटने के दो ही मुख्य उपाय हैं (१) अरुचि करना ( विरक्ति या वैराग्यका होना ) (२) यथाशक्ति त्याग करना ( सम्बन्ध विच्छेद करना), इस ऐसा होना ही संसारसे छूटनेकी निशानी है। प्रारम्भमें सम्यग्दृष्टिके यही सब हुआ करता है, जिससे वह मोक्षमार्गी" बनता। इसके विपरीत जिसके उक्त दो कार्य न हों उसको संसारमार्गी समझना चाहिये । बिना अरुचिके व त्यागके यदि प्रवृत्ति न भी हो तो भी वह अपराधी रहा करता है कारण कि मनमें या भावों में प्रतिज्ञा न होनेसे, कोई पतयाबरा नहीं रहता कि यह कब क्या कर डाले, इत्यादि खतरा बना रहता है। इससे शक व सन्देह मिटाने के लिए (धोखा न देने के १. विरक्ति या निवृत्तिका नहीं होना । ३. हिसार्ने प्रवृत्तिका होना। ३. हृदय या चित्त। ४. स्वाग नहीं होना। ५. प्रधुति होना। ६. चित्त या हृदय ।
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लिए ) स्पष्ट वैराग्य में प्रतिज्ञा । त्याग ) करना ही चाहिये। तभी कल्याण ( भलाई ) होना संभव है, अन्यथा नहीं, ऐसा खुलासा जानना। लेकिन यह कार्य सब पक्की नींवके साथ होना चाहिए, किम्बहुना।
रुचि या रागको छोड़ना ( अरुचि करना ) सर्पको भगाने के समान है और परद्रव्यका त्याग करना वामीको मिटाने के समान है। अतएव दोनों के अभाव हो जाने पर ही आत्मा निर्भय
और स्थिर होता है ब सुखका अनुभव करता है। फलतः आत्मा बलवान है, अत: उसको पुरुषार्थ बनाम बलका प्रयोग करना ही चाहिए, बली जीव कभी निर्बल बगके जीवन नहीं बिता सकता वह अपने बलका प्रदर्शन हर तरहसे करता है। यदि बली होकर कोई जीव पुरुषार्थ न करे तो मानो वह अपने बलको लजा रहा है वह कायर और संसारी है। अतएव पुरुषार्थ रहित । पुरुषार्थहीन ) कभी नहीं होना चाहिए यह उपदेश है, वह भी उत्तम पुरुषार्थ करे, यह ज्ञानीका कर्तव्य है इत्यादि । पुरुषार्थ करनेका भाव ( कषाय । संयोगी पर्यायमें स्वयं होता है.... कर्मधारा बहतो है) । परन्तु उस समय भी वह शानदष्टि रखता है। अतएव पुरुषार्थ को वह साध्यको सिद्धिमें निमित्त कारण हो समझता है, उपादान कारण नहीं समझता। इसके सिवाय पुरुषार्थ करनेसे एकान्तदष्टि ( अकेले रमान पर है. if; हो जाती है त् अनेकान्तदृष्टि सिद्ध होती है कि उपादान ब निमित्त दोनों कारण कार्यको सिद्धिमै आवश्यक होते हैं, एक कारण नहीं इत्यादि ।।४८ll आचार्य निश्चयनय और व्यवहारनपसे हिंसा व अहिंसाका निर्धार करते हैं।
। अन्तिम निष्कर्ष ) सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तुनिबंधना भवति पुंसः । हिंसायतननिवृत्तिः परिणामविशुद्धये सदपि कार्या ॥४९||
पद्य
परजीवोंके धातमात्रसे, हिंसा रंच ने लगती है। हिंसा होती आमधात से निमय मय बतलाती है । फिर भी शुभभावों के हेतु, पर हिंसाको सजना है।
स्याग आयतन या जु करना, अहिंसा ध्यबाहर पलना है ।।४।। अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ बल पुसः परत्रस्तुनिबन्धमा सूक्ष्मापि हिंसा न भवनि ] निश्चयनय से जीव ( आत्मा ) को पर पदार्थके निमित्तरी अर्थात् उसके विधात ( हानि या क्षय)
१. निमित्त या सम्बन्धसे । २. अधिकरण या आधार, जिसकी हिंसा होती है वह वस्तु ( हिस्य )। ३. त्यागना-बचाना-रक्षा करना । ४, शुभ परिणाम या परिणतिके लिए । दयाभाव लिए ।
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CUMARISHRA
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पुरुषार्थसिद्धपुपाय होनेसे रंचमात्र ( थोड़ी भी हिंसा या हिंसाका पाप नहीं होता या नहीं लगता ऐसा सिद्धान्त है [सदपि परिणाम विशुदये हिंसायननिजि काय तथापि ( तो भी) परिणामोंकी निर्मलताके अर्थ ( शुभ परिणतिके लिए ) हिमाके निमित्तों ( आधारों-स्थानों) का त्याग करना अर्थात् उनसे दूर रहना-सम्बन्ध विच्छेद करना या उन्हें नहीं सताना, नहीं मारना, उनका बचाव रखना, यह भी कर्तव्य है ( अनिवार्य व उचित है ) इत्यादि ।।४।।
भावार्थ... पदार्थ या वस्तुरः। किरा ( कानिग की तरह होता है (१; निश्चयनयसे । २) व्यवहार नयसे, अथवा सामान्यरूपसे व विशेषरूपसे । तदनुसार आचार्य महाराज हिंसा पापके विषय पहिले निश्चयनय र अशुद्ध निश्चय ) की अपेक्षासे खुलासा ( निर्धार ) करते हैं क्योंकि प्राणी उसी में बहुधा भूले हुए हैं ( भ्रभमें पड़ रहे हैं । हिंसा दो तरहकी होती है (१) स्वाचित या स्वकीय हिसा (२) पराश्रित या परकीय हिंसा। उनमें से आचार्यने ऊपरको लाइन ( श्लोककी पहिली पंक्ति या लकीर ) में स्वाधित (निश्चम ) हिसाका प्रदर्शन किया है और दुसरी लाइनमें पराश्रित ( व्यवहारी ) हिसाका प्रदर्शन किया है, अतएव उसीका स्पष्टीकरण किया जाता है उसको यथार्थ समझना चाहिए जिससे सब भ्रम मिट जायगा इत्यादि ।
हिसाका लक्षण-आगर्मशास्त्रोंमें प्राणोंका घात ( बघ-क्षय-मरण-हत्या आदि ) होना हिंसा बतलाया गया है अर्थात हिंसाका लक्षण प्राणोंका घात होना है, जो सामान्य है। उसमें भाव प्राण व द्रव्यप्राण दोनों गभित हो जाते हैं, अथवा अन्तरंग और बहिरंग सब शामिल हो जाते हैं। तदनुसार निश्चयनयसे अपने ( स्वाचित) भावप्राणोंका घात होना अर्थात् जीवके स्वभावप्राण (ज्ञान-दर्शन आदि ) का घात होता हिंसा कहलाती है. कारण कि उसीका फल जीवको मिलता है अर्थात् उसी के अनुसार बंध होता है और सुख दुःख, आदि भोगना पड़ता है, तथा वैसी सामग्री मिलती है ( इष्ट. अनिष्ट द्रव्य क्षेत्र कालका संयोग वियोग होता है ) इत्यादि ।
नोट-यहाँ पर प्राण, परिणाम, भाव, स्वभाव, सबका एक ही अर्थ है ऐसा समझना चाहिए । तदनुसार परिणाम ही बंधके निमित्तकारण बसलाये गये हैं। जैसे परिणाम होते हैं वैसा ही फल लगता है अस्तु, सभी द्रष्य अपने-अपने भावोंकी जिम्मेवार है, कोई किसीके भावोंकी नहीं यह सिद्धान्त है।
ऐसी स्थिति में अपने भावरूप प्राणोंका या स्वभावभावका धात होनेसे ही हिंसा होती हैं या हिंसा पाप जॉबको लगता है, उसीका वह संयोगो पर्यायमें स्वामी कर्ता या भोगता है किन्तु अन्यका अर्थात् परजीव आदिके घालनेका इरादा या संकल्प या भाव ( परिणाम न होने पर
१. प्रमत्तयोगात् प्राणश्यपरोपणं हिंसा । ---तत्त्वार्थपुत्र ।। --१३॥ २. परिणामेव कारणमाहुः खलु 'पुण्यपापयोः प्राज्ञाः, तस्मात् पापापचयः पुण्योपचयश्च कर्तव्यः ॥२३॥
-----आत्मानुशासन, गुणभद्राचार्य । रागहे पनिवृत्तिः हिंसादिनिवर्तना कृता भवति । अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते नृपतीन् ॥४८॥
रत्नकरण्डनावकाचार।
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सम्यक चारित्र
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यदि उसका किसी कारणवश विघात ( मरण ) हो जाय तो वह उसका हिसक या हिमाका भागी स्वामी कर्ता या भोक्ता नहीं है न हो सकता है ऐसा न्याय है, असली निर्धार है । इसी लिये निश्चयन (न्याय ) से, अनिच्छुक या अभिप्राय रहित असंकल्पी जीव, उस हिंसा ( प्राणघातरूपद्रव्य हिंसा ) का अपराधी या सजावार नहीं हो सकता यह तात्पर्य है । हाँ वही जॉव उस दशा में या उमरागी होता है या होता है जबकि वह किसी जीवको मारने ( वासने ) का इरादा या संकल्प या विभाव भाव ( विकारी परिणाम ) रखता हो । चाहे वह जीव न मर सके तभी वह अपराध का भागी अवश्य होगा, कारणकि परिणाम ही बंधके कारण होते हैं, खाली किया भावविना क्रिया ) बंधका कारण या फलदात्री नहीं होती, निश्चयमें भावही मुख्य है, क्रिया नहीं है तथा दूसरे का पाप gor या हिंसा अहिंसा दूसरेको नहीं लगती, अपना अपना ही भोगना पड़ता है जैसे उसके भाव हो । परस्पर निमित्तनैमित्तिक संबंध अवश्य रहता है इति 1
आशंका और उत्तर यहाँ यदि यह आशंका की जाय कि जब निश्चयनवसे पर जीव धात होने पर ( परजीवके मरण होने पर ) हिंसा नहीं होती अर्थात् हिंसा का पाप, जिसके द्वारा परजीव मरा है, उसको नहीं लगता। तब तो फिर जीव हिंसाका त्याग करना व्यर्थ है ? अर्थात् परजीवोंकी रक्षा या दया नहीं करना चाहिये वह निष्फल है ? इसका उत्तर आचार्य, व्यवहारयसे देते हैं कि परिणामको विशुद्धि के लिये अर्थात् निर्मलता ( अशुभसे निवृत्ति ) या वीतरागता के लिये, बाह्य निमित्तोंका भी त्याग करना जरूरी है। बाह्यनिमित्तों के त्यागसे अर्थात् जीवादिपरिग्रहों को छोड़ देनेसे न राग-द्वेष होगा, न हिंसा-अहिंसाका विकल्प होगा, जिससे कोई बंध या अपराध होना असंभव है ( पूर्ण वीतरागता प्राप्त होने पर संयोगी में भी कुछ नहीं होता यह लाभ होना है ) । फलतः जिन ( व्यापारादि ) से हिंसा होने की संभावना हो उनका त्याग करना या उनसे सम्बन्ध-विच्छेद करना भी उचित हो है या कर्तव्य है ।
अथवा
}
गृहस्थ में रहते हुए परिणामोंको विशुद्धि ( शुभ राग व शुभ प्रवृत्ति के लिये पर जीवों को दया या रक्षा करना कर्तव्य है। उससे पाप प्रवृत्ति व अशुभ राग छूट जाता है, तब tant रक्षा से होती है, जिससे पुण्यका बंधरूप व्यवहारमें होता है। गृहस्थाश्रम में सदाचारका पालना, पुण्य कार्य करना ही धर्मकी निशानी है । देव पूजादि सब पुण्य कार्य या धर्म कार्यं माने जाते हैं । 'दया धर्मका मूल है, यह कहा भी जाता है । फलतः स्वजीव और पर
१. भावविसुद्धिनिमित्त बाहिर संगस्स की रए लाओ ।
अहिराओ विलो अव्यंग ॥३॥ भावपाहुड कुन्दकुन्दाचार्य
भावकी विशुद्धता के लिए बाह्य परिग्रहका त्याग करना चाहिए किन्तु विना अन्तरंग परिछूटे याग निष्फल हैं अतः दोनों त्याज्य हैं ।
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पुरुषार्थसिद्धयुपाय
जीवकी रक्षा करना धर्म है, यह सिद्ध होता है । इस तरह संक्षेप में पूर्व आशंकाका उत्तर समझ लेना चाहिये ।
उपसंहार
सारांश-वोलरागता या शुद्धोपयोग तो सर्वोत्कृष्ट उपादेय ( ग्राह्य ) है ही. अतः उसका प्रयत्न तो करना ही चाहिये, जिससे राग द्वेषादिजन्य व प्रवृत्तिजन्य हिंसा न हो अर्थात् अहिंसा परम धर्म या निश्चय धर्म, प्राप्त हो-- और उससे मोक्ष प्राप्त हो, क्योंकि वही मोक्षका मार्ग है। जो रत्नत्रयरूप ( सम्यग्दर्शनादिरूप ) है | किन्तु जब उससे परिणामच्युत हो । स्थिर न रह सके ) तब परिणामको शुभराग में लगाना भी उचित है- अर्थात् गिरती अवस्था में वही लाभकर है, क्योंकि अशुभ विषयकपायसे वह बच जाता है । पुण्यका ) बंध होता है पापका बंध नहीं होता, इत्यादि । यतः भूमिकानुसार सभी कार्य हुआ करते हैं ऐसा वस्तु स्वभाव है । व्यवहार हेय है और निश्चय उपादेय है ऐसा बोध ( ज्ञान ) और भावना ( रुचि ) सम्यग्दर्शन के प्राप्त होने पर ही होती है' ॥ ४९ ॥
पूर्व श्लोक में निश्चयकी मुख्यता व उपादेयता तथा व्यवहारकी गोणता व हेयताका कथन किया गया है, परन्तु प्रश्न उठता है कि वह कब और कैसे संभव | या प्रभावशाली ( कामयाब ) हो सकता है ? इसका संक्षेपमें उत्तर दिया जाता है कि ज्ञान सहित उनका उपयोग करनेसे । तद्रूप वरतने से ) लाभ हो सकता है अन्यथा नहीं । अर्थात् पेश्तर स्वरूप जानकर अपनाने से लाभ हो सकता है ।
निश्चयमबुध्यमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते ।
नाशयति करणचरणं स बहिः करणालसो बालः ॥ ५० ॥
पा
निश्चयका नहि ज्ञान जिसे पर निश्चयधारा मानत है वह अज्ञानी और आलसी जगमें हँसी करावत है ॥ मोक्ष नहीं मिलता है उसको शुद्ध बुद्ध चित निश्चय व्यवहारज्ञान होय जय मोक्ष महापद पाता है ॥ ५० ॥
F
केवल क्रियाकांडको तजना अरु निश्चलसा हो जाना । मनधारकर आँख मीचना भोजन पान रुचि करना ||
१. सर्वत्राध्यवसानभेत्रमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनैः, तन्मन्ये व्यवहार एवं निखिलोपन्याश्रयत्याजितः 1 सभ्य नियमेकमेव तदमी निष्कंपमाक्रम्य किं, शुद्धानने महिम्नि न निवन्धन्ति सन्तो तिम्॥ १७३॥
समयसारकलश |
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বাহির महि व्यवहार छोड़ना वह है, निश्चयरूप न वह माना।
श्रममें पड़कर भूल यथारथ नकली स्वांग स्वयं धरना ॥ ५५ ।। अन्वय अर्थ- यः ] जो कोई अज्ञानी मुमुक्षजीव [ निश्चयन निश्चयमबुभ्यमानः ] निश्चयसे ( यथार्थत: ) निश्चयके स्वरूपको तो जानता नहीं, । अनभिज्ञ है) परन्तु [ तमेव संश्रयते ] निश्चय में ही रुचि रखता है और उसीके पालनेकी प्रतिज्ञा भी करता है [ सः ] बह जीव निश्चयके स्वरूप को विना समझे [ बहिः करant नाशयति ] बाहिर इन्द्रियों के व्यापार ( क्रियाकांड...इन्द्रिय संयम पालनेरूप ) को व्यवहार जानकर छोड़ देता है, ( बन्द कर देता है और निश्चयधारी अपने को मान लेता है। ऐसा जीव | करणालसो बाल:...मनति ] इन्द्रिय व्यापार रहित महा प्रमादी (आलसी ) और अज्ञानी ( मूर्ख ) माना जाता या समझा जाता है.--मोक्षमार्गी नहीं हो सकता 11 ५०॥
भावार्थ---जिस अज्ञानी जोक्ने ऐसो रुचि की, कि निश्चय उपाय या ग्राह्य है तथा व्यवहार हेय ( अमाप त्याज्य } है, क्योंकि निश्चयके आलम्बनमे ही मोक्ष होता है, व्यवहारके आलम्बनी मोक्ष नहीं होता, ऐसी धारणा या प्रतिज्ञा मात्र करके, तथा निन्चय और व्यवहारके स्वरूपका वास्तविक स्वयं ज्ञान हुए बिना हो, ग्वाला दुसरोंक केही सुनने मात्रसे. ऐसा मानता है कि मेरा आत्मा निश्चयसे शुद्ध है....मुक्त है इत्यादि । फलतः ऐसी स्थितिमें हिमादिको छोड़ना-यमादिको धारण करना, पापसे डरमा, कष्ट सहन करना अन्यथा सिद्ध है (निरर्थक है) बे कोई साधक बाधक नहीं है। खाना पीना मौज उड़ाना यही जीवनका कर्तव्य है, सो करते रहना चाहिये, क्योंकि आस्मा तो मुक्त है हो, उसको अमुक्त या बद कोई कर ही नहीं सकता, फिर डर काहेका इत्यादि, एकान्त बह धारण करता है। उसका खंडन निम्न प्रकार आचार्य करते हैं कि--
निश्चय और व्यवहारके स्वरूपका ज्ञान हाए विना ) सब कटपटांग है, मन गढन्त । निराधार ) विचार व कार्य है। देखो निश्चय और व्यवहार दोनों, पदार्थके स्वरूप हैं पदार्थ ( वस्तु) की पर्याय है तथा उनको जानने वाली निश्चय और व्यवहार दो नयें हैं जो ज्ञानके भेद हैं, अर्थात् निश्चय व्यवहार ( झेय ) के जायक दोनों नयें हैं । तदनुसार पेश्तर अर्थात् प्रयोग या उपयोग करने के पूर्व, निश्चय और व्यवहारका स्वरूप जानना अनिवार्य है। क्या निश्चय है, क्या व्यवहार है, इसको भावभासना स्वयं होना दरकार है । आवश्यक है )। तभी इष्टसिद्धि (माध्यसिद्धि ) हो सकती है, अन्यथा नहीं, यह सत्य है।
( १ ) निश्चय, पदार्थ के शुद्धस्वरूपको कहते हैं, जो परसे भिन्न और अपने गुण स्वभावसे सदैव रहता है। उसको यथार्थ जानना निश्चय ज्ञान व निश्चयनय कहलाता है। ऐसा ज्ञाता जीव ही निश्चयज्ञानी तथा निश्चयावलम्बी हो सकता है. दूसरा कोई अज्ञानी वैसा नहीं हो सकता।
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१. पदार्थ ( वस्तु ) में एकत्त्वत्रिभक्त रूपला व स्वाधीनताका रहना निश्चयका रूप है तया शुद्धता है।
पदार्थ में परके साथ संयोग रूपताका गहना व पराधीनताका होना व्यवहारका रूप है तथा अशुद्धता है।
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पुरुषार्थापाय
जैसे कि क्रियाको करना व्यवहार है और उसको बन्द कर देना ( छोड़ देना निश्चय है, ये दोनों गलत धारणाएँ हैं । किन्तु वस्तुका ( आत्माका ) शुद्ध स्वरूप उपादेय है, यह मय है और अशुद्ध स्वरूप हेय है, यह निश्चय है। तथा अशुद्ध स्वरूप उपादेय है अबलम्वनीय है यह व्यवहार ( अभूतार्थ है। क्रिया निश्चय व्यवहाररूप नहीं है, भाव हैं इति ।
(२) व्यवहार, पदार्थ के अशुद्ध । संयोगी पर्याय सहित ) स्वरूपको कहते हैं । उसको ही यथार्थ ( सत्य ! जानना व्यवहारमय कहलाता है। जो है तो अशुद्ध ज्ञान और हेय, किन्तु कथंचित् ( संयोगवशामे व हीनया में ) उपादेय भी है। तदनुसार ज्ञानी जीव योग्यता अनुसार प्रवर्तता है अर्थात् सत्यको जानता हुआ व्यवहार (असत्य) को छोड़ता है, अथवा विपरीत धारणा (श्रद्धा) को निकालता है किन्तु बाहिरी को वह वहार समझता है न, उसके छोड़नेको निश्चय समझता है, न उसको इकदम छोड़ता है, वह तो वस्तुका परिणमन है जो होगा ही ! हो उसका आश्रय लेना, अर्थात् उसके द्वारा मेरा अपना कार्य सिद्ध होना मानना मिथ्या है | क्योंकि वे सब निमित्त कारण हैं जो हमेशा सहायक माने जाते हैं-उत्पादक या परके कर्ता नहीं माने जाते, यह सिद्धान्त है । फलत: अपेक्षासे भेदज्ञानको भी व्यवहारज्ञान कहा जाता है, और जब वही निर्भेद या निर्विकल्परूप हो जाता है तब उसीका नाम निश्चय ज्ञान पड़ जाता है । अतएव भेद ज्ञान रूप व्यवहार ज्ञान भी सम्यग्दृष्टि जीवको प्रारंभ में कथंचित् उपादेय है सर्वथा नहीं है। इसके विपरीत परके साथ ( संयोगावस्था में ) एकता या अभिन्नता बताने वाला ( मनवाने वाला ) ज्ञान व्यवहारज्ञान या मिथ्याज्ञान अभूतार्थ ज्ञान कहलाता है जो क्षेत्र ही है । किन्तु भेदज्ञानरूप अनुपचरित सद्भूतव्यवहारज्ञान या नयरूप ( अंशरूप ) ज्ञान ( परस्पर सापेक्ष हों तो ) कथंचित् उपादेय है ऐसा समझना चाहिए। इस प्रकार निश्चय और व्यवहारका ज्ञान हुए विना कभी भी Freeम्बी नही हो सकता, न उसका उद्धार ही हो सकता है यह सारांश है | यहाँ इस लोक में बतलाया गया है । निश्चय और व्यवहारको स्वयं समझे बिना, अर्थात् भाव भासना या उनका स्वरूपज्ञान या अनुभव ( स्वानुभव ) न होते हुए, ऊपरी ऊपर ( बाहिरसे या दूसरों के कहने आदि ) नामादि जान लेने से कुछ लाभ नहीं होता, किन्तु जब स्वयं उसकी आत्मामें सम्यक् ज्ञानका उदय अर्थात् भेदज्ञानका विकास ( उजेला होता है निरालंबी तभी वह स्वानुभवी होकर सम्यग्दृष्टि बनता है, और निश्चय व्यवहार की संगति व उपादेयता ता को भी समझता है, एवं निश्चय और व्यवहारका यथार्थ ज्ञान भी उसकी होता है, तथा आत्मज्ञानी माना जाता है। फलतः समयसारकी गाथा नं० १२ की क्षेत्रकगाथा "जर जिणमयं पविञ्जड, सामाववहार सि-मुयह। एक्केपविणा ब्रिग्ज तिल्यं, अण्णेणए उण तच्च के अनुसार सम्यग्ज्ञानी आत्मा का दशा होती है । अर्थात् वह अपनी योग्यतानुसार ही अपनी बुद्धिसे हमेशा कार्य करता है । साधक अवस्था में रहते हुए वैसा हो शक्य व संमत्र है । सारांश -सम्यग्दृष्टि विवेका अनेकान्ती आत्मज्ञानी ही निश्चय व्यवहारका ज्ञाता हो सकता है, अन्य एकान्ती अनात्मज्ञानी, निश्चयहारका ज्ञाता नहीं हो सकता यह नियम है | इसीलिए वह freeयको स्वाश्रित । स्वाधीन ) मानता व जानता है, और व्यवहारको पराश्रित ( पराधीन) मानता व जानता है । किन्तु क्रिया
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सम्यकचारित्र कांडको जो कि शरीरादि परके अधीन है स्वाधीन व हितकारी नहीं समझता-मोक्षका साधक नहीं मानता, सिर्फ निमित मात्र मानता है। इसके सिवाय वह द्रध्यदधिर निश्चयनय ) से आत्माको सिद्ध समान शुद्ध (परमे भिन्न-गगादिरहित ) मानता है और पयाय द्वाष्टो अर्थात् संयोगी पर्यायके समय, आत्माको व्यवहारनयसे अशुद्ध भी मानता है, ऐसा निर्धार करता है, और अबादि की भूल मिटाता है । भूल मिटने पर वह मोक्ष-मार्गी हो जाता है और भूल रहने तक वही संसार-मार्गी बना रहता है। अस्तु यह सब कथन संयोगी पर्याय में रहने वाले जीबों को अपेक्षास है अर्थात् अशुद्ध व संसारस्थ जीवोंको यथार्थ ज्ञान करानेके लिए है, इतना मात्र प्रयोजन है । फलतः निश्चयका आलम्बन ( ग्रहण करना और क्ष्यवहारका आलम्बन छोड़ना अनिवार्य है। निश्चयके आलम्बनसे सम्यग्दष्टि के ऊपर । उसकी आत्मामें ) बड़ा भारो प्रभाव पड़ता है, अर्थात् संसार शरोर भोगादि सब परसे व उनके संयोगसे इकदम अमचि करने लगता है व यथाशक्ति उन पृथक भी होता है, अर्थात् उनका त्यागकर परिग्रह रहित कीतराग दिगंवर मुनि बनता है इत्यादि ।
निश्चय और थ्यवहार के भेद ( प्रकार) (क) निश्चय के वो भेव-{१) शुद्ध निश्चय, द्रव्यग अखंडता, पर से भिन्मतारूप, (२) अशुद्ध निश्चय, पर्यायगत, संयोग रहते हुए भी संयोगी पर्याय में भिन्नतारूप, अर्थात् तादात्म रहित अवस्था । यहाँ पर, पर द्रव्यका संयोग होना अशुद्धता जानना और पराकर तादात्मरूप न होकर पृथक् रहना, शुद्धतारूप निश्चय समझना चाहिए ।
(ख) व्यवहार के भेद--(१) द्रव्यगत व्यवहार, अर्थात् अखंड द्रव्यमें भेद कल्पना करना इसीका चाम भेदाश्रित व्यवहार है । (२) पर्यायगत व्यवहार, अर्थात् पराश्चित व्यबहार व पर्यायाश्रित व्यवहार (भेद) । इसतरह भेदाश्रित, पराश्रित, पर्यायाश्रित ऐसे तीन तरहके व्यवहार शास्त्रों में आहे गये हैं । यहाँ पर आश्रित का अर्थ अधीन या अपेक्षा समझना और व्यवहार का अर्थ भेद समझना चाहिए इत्यादि।
(ग) पर्यायके भेद-(१) शुद्ध पर्याय, गायोगी पर्यायसे रहित द्रव्य की स्वतंत्र पर्याय, अथवा रागादि विकार रहित शुद्ध पर्याय । (२. अशुद्ध पर्याय, अर्थात् परके संयोग सहित पर्याय, अथवा रागादिविकार सहित पर्याय, ऐसा जानना ।
आचार्यका अन्तिम लक्ष्य (प्रयोजन मलमें भूल मिटाने एवं आत्मोद्धार कामे कराने का रहा है। सबसे बड़ी निश्चय व व्यवहार की भूल-मूल भूल-उसके मिटाये बिना संसारी जन यह समझ ही नहीं पाता कि यह संसार. ( शरीर धनादि ) क्या है और इसका संबंध हमसे क्या है ? बह भूला हुआ जोब सभी संयोगी चीजोंको अपना मानता जानता है और उनमें एकत्त्व बुद्धि करके रागद्वेषादि विकारभाव किया करता है एवं उनके संयोग वियोग होने पर सुख दुःख मानता है, जिससे उसका संसार मा परिभ्रमण और बढ़ता ही जाता है, घटता नहीं है, इत्यादि सब गलतीका फल है। आत्मा ( जीव)
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पुरुषार्थसिद्धपात्र चेतन और शरीरादि जड़, इनकी एकता ता अभेद क्या कभी त्रिकाल में हो सकता है या कोई दूसरा शक्तिधारी भी इनको एक कर सकता है ? हरगिज नहीं। फिर भूलता क्यों है. यह आश्चर्य है । यह भूल या गलती तभी मिटती है, जब भेद ज्ञान जीव को हो, और निश्चय व्यवहार का ज्ञाता हो । बह भेद ज्ञानी, निश्चयनयके द्वारा सब पदार्थों को अपनेसे तथा सबको सबसे कालिक भिन्न मानेगा जानेगा और व्यवहारनय से सबका अपनेसे ब परस्पर सबका संयोग सम्बन्ध मानेगा व उस अपेक्षा कचित् अभेद भी मानेगा इस प्रकार तत्त्वनिर्णय और वैसा ही वाव या आचरण भी करेगा, तब उसका उद्धार होगा, अन्यथा ( बिना यथार्थ जाने नहीं होगा। उस दशाका प्रदर्शन या नमूना निम्न प्रकारका होता है ।
येषां भूपशमंगसंगतरजाः स्थानं शिलायास्तल आग्या भाकरिता मही सुविहितं गई ह द्वीपिनाम् । आत्मामाचिकल्पातमतया युध्यनमानन्धयः से नो ज्ञामधना मनांसि पुस्तां मुनिस्पृहा निस्पृहाः ॥२५॥
( आत्मानुशासन } भावार्थ-मोक्षमार्गी साधुके अन्तरंग बाहिरंग परिग्रहका त्याग, ( निनन्थगुणभद्राचार्यफ्ना) सम्यग्दर्शन, निर्विकल्पता, ये तान चाजें अवश्य होना चाहिये, ये पहिचानके चिह्न हैं या नमूना है । इसीका विवरण लोकमें जुदा २ बतलाया गया है।
__अर्थ-जिलको हमेशा यह वृत्ति चर्या ) रहती है कि हमेशा जंगलमें रहते हैं, शरीरमें मैल लगा रहता है जा उनका भूषण है। पत्थर या चट्टानें बैठने को है वही आसन है। कंकरीली धरती सोने को है वही सेज्या है। चीते आदिको गुफाओंमें रहते हैं बहो घर है। हमारा ब पराया विकल्प नहीं---निर्विकल्प या निश्चिन्त रहते हैं। अज्ञानांधकार ( मिथ्यात्व से रहित हैं....सम्यगदष्टि हैं । ज्ञान ही जिनके धन हैं मुक्ति स्त्रीकी जिनके लगन ( दृष्टि ) है, ऐसो अलौकिक मुद्राधारी सद्गुरु मोक्षमार्गी होते हैं उनको नमस्कार करते हैं वे आदरणीय है ।
इनमें सबसे पहिले आवश्यकता किसकी है ?
इसका उत्तर--तत्त्वज्ञानको है अर्थात् पहिले पदार्थ व उसके निश्चय व्यवहार स्वरूपको जानना ब समझना जरूरी है, ( सम्यग्ज्ञानका होना अनिवार्य है)। पश्चात् सम्यक्चारित्रका होना जरूरी है। किन्तु बिना जाने समझे चारित्रको प्राप्त करना असम्भव है। जबतक सम्यक् ज्ञान न हो, तबतक पया छोड़ेगा और क्या ग्रहण करेगा? यह विचारणीय है। करनेपर मुख्य ध्यान देना गलती है क्योंकि जबतक भीतर कषायोंको विकार जानकर नहीं छोड़ा जाय, तथा अज्ञान ( मिथ्यात्व ) को विकार जानकार न हटाया जाय, तबतक ऊपरी त्यागसे क्या होता है ? कुछ नहीं,
। पेश्तर हिसाको ब अहिमाको ( चारित्र अचारित्रको समझो तब उसके लिये बैसा उद्यम ( उपाय करो, साधन मिलाओ तब लाभ होगा, अक्रम कार्य करना ठीक नहीं होता। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानको तो प्राप्त न करे और सम्यक् चारित्र प्राप्त करने में लग जाय, ऐसा क्रम
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सभ्यचारिन
भंग कैसे हो सकता है ? तब वैसा उपाय करना मूर्खता है, तथा बह चारित्र नहीं है, किन्तु वह मिथ्याचारित्र या कुचारित्र कहलायगा, इत्यादि दोष ( आपत्ति ) आयगा। देखो अज्ञान १ कमायके रहनेपर चारित्र नहीं होता, अतः सम्यग्दर्शनके विना तप महावतादिका पालना सब भिथ्याचारित्र नाम पाता है। चारित्र पालनेका उद्देश्य कषाय भावोंको घटानेका है..वह निमित्त कारण है। तत्त्वज्ञानका अर्थ वस्तु स्वरूपका यथार्थ ज्ञान होना है अर्थात् स्वरूप विपर्ययताका हटना है। जैसे कि आत्माका स्वरूप, जानना मात्र नहीं है क्योंकि जानना तो मिथ्यावृष्टि सम्यग्दृष्टि सभी जीवोंके योग्यता (क्षयोपशम ) के अनुसार होता ही है। तब उससे सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टिकी पहिचान नहीं होती 1 जानना लक्षण त्रैकालिक नहीं है, जाग्रत अवस्थाका है...मत मूच्छित अवस्थाका नहीं है। ऐसी स्थिति में आत्माके सच्चे स्वरूपको जानना हो आत्मतत्त्वका ज्ञान होना है तथा यही सम्बन्ध है उसका स्वरूप यह है कि जो अपने को 'जागी समयः जिर स्वरूप ज्ञान या चैतन्य है अर्थात् ज्ञाता दृष्टा मात्र है तथा परसे भिन्नत्व भी है इत्यादि । एकत्व विभक्त के साथ ज्ञातृत्त्व भी होना या लगाना चाहिये । बस इसी स्वरूपमें मिश्यावृष्टि भूला रहता है अर्थात् यह यह नहीं जानता कि 'मेरा स्वरूप, ज्ञान या चेतना रूप है, किन्तु वह अपने स्वरूपको संयोगरूप जानता मानता है कि मैं सब रूपया मेरे सब, इत्यादि अमेद हार सबको जानता वही मिथ्यात्व है- स्वरूपविपर्वयता है ) मुख्य भूल यहो है इत्यादि । यद्यपि उसके इनता अधिक क्षयोपशम है कि वह ११ ग्यारह अंग का ज्ञान 'हस्तामलकवत्, रखता है, तथापि उसके इस जाति का क्षयोपशम नहीं है कि वह अपने सच्चे स्वरूप ( जो ज्ञानमय या ज्ञान को ज्ञानस्वरूप है ) को समझ सके, यह न्यूनता रहतो है । अतएव आदर व उपादेयता अपने को 'ज्ञानस्वरूप, समझने की है किम्बहुना सत्त्वज्ञान या निश्चय व्यवहार आदिका सम्यक स्वरूपज्ञान, होना अनिवार्य है, तभी कोई निश्चयावलंबी या व्यवहारावलंबो सच्चे अथों ( मायनों ) में बन सकता है, शेष सब भ्रमणा है अस्तु ।।५०]!
ध्वन्यर्थ ( विशेषार्थ) लोकमें ४ चार बातें मुख्य है यथा 'निश्चयमवुध्यमानः, इससे अज्ञानी सिद्ध होता है तथा... 'निश्चयतस्तमेव संश्यते, इससे रागो सिद्ध होता है। एवं 'भाशयति करणचरणं, इससे द्वेषी सिद्ध । होता है । तथा 'स वहिः करणालसः, इससे प्रमादी सिद्ध होता है। समुदाय रूपसे अज्ञानी-रामी द्वेषी-आलसी, जीव कभी अहिंसक नहीं हो सकता, न मोक्ष जा सकता है। किन्तु इससे विपरीत-ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि) रागद्वेष रहित ( बीतरागी } अप्रमादी जीव ही अहिंसक ब मोक्षगामो होता है यह यह भाव निकलता है अस्तु ।।५०। ( समयसारकलश १११ देखिये ) १. जो जानने देखने वाला है वहीं मैं हूँ--दूसरे रूप में नहीं हूं, ऐसा निदन्वय करना या होना ही आत्मा
का यथार्थ स्वरूप जानना है या सम्यग्दृष्टिका होना है। खाली दूसरोंको उपदेश देना या आमना हो । आत्मज्ञानका हो जाना नहीं है अर्थात् उसको आत्मज्ञानी नहीं कहा जा सकता, यह तात्पर्य समझना चाहिए।
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पुरुषार्थसिमपाय
फलस्वरूप
निश्चयष्टिः स्वयमग्रम जान बन्धो न में स्यात् इत्युत्तामलकवदना: शगिणोऽध्यावन्ति । न हि सिध्यन्ति ज्ञाम शून्याः ते हि अत्यम्पा:
निश्चयव्यवहारज्ञानरहिसाः बावका वसकाः ॥ इति ।। आचार्य कहते हैं कि सिर्फ बाह्य व्यापार क्रियाकांडके छोड़ बने मात्रसे कोई निश्चययावलंबी और शुद्ध अहिंसक । धर्मात्मा) नहीं हो सकता है क्योंकि उसके विरुद्ध फल ( कार्य) को देखने में आता है। यथा--
अविधायापि हि हिंसा हिंसाफलभाजनं भवत्येकः । कृत्वाप्यरो हिंसा हिंसाफलभाजनं न स्यात् ॥५१॥
*
पछ
हिंसानिया न करने पर मी, कोई हिंसा कल पाता। कोई सिंग सर पर , पाल पास फल मिलसा परिणामों से नहीं कियास फल मिलता।
है व्यभिचार क्रिया के साथ ही, नहि परिणाम व्या खोता ।।५१॥ ___ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ एकः हि हिंसा अधिशयापि हिंसाफलभाजनं भवति ] निदचयसे ऐसा होता व देखा जाता है कि हिंसा क्रिया (परजीचका घात न करने पर भी, अर्थात बाह्य प्रवृत्ति बन्द कर देने पर भी कोई हिंसाका फल भोगता है अर्थात् विना किये फल या दंड पाता है । इसका कारण जीवके भाव हैं ) तथा [ अपरः हिंसा कृत्वा हिंसा फलभाजने न स्यात् ] कोई जीव ऐसा होता है कि हिंसा करके भी ( परजीवका घात करके भी) हिंसाके फलको नहीं पाता, अर्थात् उसके दंडको नहीं भोगता ( नरकनिगोदादि पर्याय नहीं पाता ) । इसका कारण भी जहाँ जीवके परिणाम ही हैं, क्रिया नहीं है। फलतः जहाँ सर्वोत्कृष्ट 'अहिंसा पाई जाती है। धर्म, है जिसमें जीवहिंसा व विषय-कषायको पुष्टि नहीं। शेष सब अधर्म है ॥५१॥
भावार्थ-हिंसा व अहिंसा निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो तरहकी होती है व्यवहार में हिंसा, परजीवके प्राणघात होनेसे मानी जाती है किन्तु निश्चयमें, परजीवको मारनेका इरादा { संकल्प या क्रोधादि ) करने पर क्रोधादिरूष ही हिंसा ( स्वभावका घातरूप ) मानो आती है । इसी तरह विकारी भावोंके न होनेसे स्वभावका धास नहीं होता, तब वह अहिंसक माना जाता है और कदाचित् विकारीभाव न होनेके समय यदि स्वभावतः होने वाली शारीरिक क्रिया
१. अविनाभाव-जैसा भाव होता है वैसा फल मिलता है, इसमें व्यभिचार नहीं होता। परन्तु क्रिया के
साथ व्यभिचार हो जाता है क्योंकि उसके साथ व्याप्ति नहीं मिलली, यह तात्पर्य है।
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सम्यक्रूचारिश्र
( प्रवृत्तिनिवृत्ति रूप से किसी जोनका ! लिए भी हो तो भी वह अहिंसक हो रहता है हिंसाका फल उसे नहीं लगता न भोगना पड़ता है । फलतः व्यवहारहिंसा परजीवके घात होने पर निर्भर है और व्यवहार अहिंसा परजीवके बाल न होने पर निर्भर है तथा निश्चयहिंसा आत्मस्वभाव के घात होने पर निर्भर है और निश्चय अहिंसा आत्मस्वभाव के घात न होने पर निर्भर है। यह व्यवहार और निश्चयमें भेद है। ऐसी स्थिति में व्यवहार हिंसा व अहिंसा साथ फल प्राप्त होनेकी अर्थात् सजा या दंड मिलने की व्याप्ति सिद्ध नहीं होती कि क्रिया होने या करनेका फल मिलता ही है या मिलना चाहिये और क्रिया न होने या करने पर उसका फल नहीं मिलता या नहीं मिलना चाहिये, यह कोई पक्का ( अटल ) नियम नहीं है क्योंकि व्यभिचार ( नियमभंग ) देखने में आता है | परन्तु निश्चयाभासी या व्यवहराभासी एकान्ती मिथ्यादृष्टि पूर्वोक्त सिद्धान्तको नहीं मानते - भूले रहते हैं इसलिये वे संसारके पात्र बने रहते हैं-संसारसे पार नहीं होते, यह भाव है। लोकमें इसका उदाहरण है कि
कोई जीव बाहिरी हिंसा ( जीवघात ) नहीं करता या कारणवश नहीं कर पाता, परन्तु हिंसा करने का भाव ( परिणाम इरादा ) होनेसे उसको हिंसाका दंड ( फल ) अवश्य भोगना पड़ता है, इस लोक या पर लोकमें दुःख भोगना पड़ता है) जैसे विल्ली या धीवरके द्वारा हिंसा ( शिकार ) न होने पर भी उनको खोटे परिणामोंके साथ फलकी व्याप्ति होनेसे दंड अवश्य भोगना पड़ता है । यह श्लोकी पहिली लकीर में व्यभिचार दिखाया गया है कि कोई हिंसा किया नहीं करता तो भी उसका फल भोगना पड़ता है । दुसरी लकीर में हिंसा किया हो जाने पर भी बिना इरादा किसीको उसका फल नहीं भोगना पड़ता यह बताया है। जैसे कि ईर्ष्या समितिले चलनेवाले या मुनिका या भलाई करने के इरादेसे चीड़फाड़ करने वाले डाक्टरको हिंसाका फ नहीं मिलता इत्यादि । जैन शासन में भावोंकी मुख्यता है क्रियाको मुख्यता नहीं, यह सार है ।
बिना भावोंके सुधरे वीतरागता बिना ) क्रियाका सुधारना ठीक नहीं बनता है। यदि कदाचित् जोर-जबर्दस्ती ( बलात्कार ) से शारीरिक क्रियाको थोड़ा सुधार भी ले तो वह चिरस्थायी नहीं रहती । बिगड़ जाती है ) अतएव उससे विशेष लाभ नहीं होता सामान्य लाभ होता है । इसलिये उसको निमित्त कारण समझ कर सर्वथा करनेकी मनाही नहीं है करना चाहिये, किन्तु यह नहीं भूल जाना चाहिये कि यही एक पार लगाने वाली नौका है, किन्तु दूसरी भाव air कुछ नहीं है इत्यादि । क्योंकि जबतक भावचरित्र या भावसंयम ( वीतरागतारूप ) नहीं होगा तबतक संसार नहीं छूट सकता। इसके विपरीत भाव सुधर जाने पर बाह्य क्रियाके सुधार होने में देरी नहीं लगती और वह स्थायी रहती है। ऐसा समझकर निश्चय अहिंसाव्रत धारण सर्वोपरि है 1 योग्यतानुसार कथंचित् दोनों करणीय हैं परन्तु भेद ज्ञानपूर्वक होना चाहिये तथा निश्चय व्यवहारका जानना अनिवार्य है किम्बहुना । इस लोक में दो सरहका फल बतलाया गया है, अस्तु । आचार्य आगे भी परिणामोंको प्रधानता य फल बतलाते हैं। ( परिणामभेद से फलभेव }
२३
एकस्याल्या हिंसा ददाति काले फलमनल्पम् ।
अन्यस्य महाहिंसा स्वल्पफला भवति परिपाके ॥ ५२ ॥
ܪܪ
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पुरुषार्थसिद्धय
पद्य
बहुत इरादा होने पर यदि हिंसा थोड़ी होती है। उसका फल बहु होता है, पाप प्रकृति भी यंत्र हैं | विना इरादा यदि हिंसा बहुत कदाचित होती है। उदयकाल में अल्प वंसे फल थोड़ा सा देती है ।। ५५ ।। जीवोंके परिणामोंकी यह अति विचित्रता है जान |
अत: मुख्य परिणाम जीवकं व्यक्त रूप तुम पहिचान |
अन्य अर्थ - देखो ! परिणामोंकी विचिता कि [ एकरूप अहिंसा काले अनरूपं फलं दात | किसी जोनसे थोड़ी सी हिसा होनेपर उसका फल या दंड उसे उदयकाल में बहुत मिलता है अर्थात् जिसका इरादा अनेक जीवोंको जानसे मार डालनेका हो लेकिन कारणवश यदि वह उन सबको न मार सके सिर्फ एकाध ही मारा जाय, उसका फल मारने वालेको बहुतों के मार डालनेका ही फल मिलेगा ऐसा समझना और [ अन्यस्य महाहिंला परियाकै स्वल्पफला भवति ] किसी जीवसे मारने का इरादा न होने पर कदाचित् व्यापार आदि करते समय किसो जीवका प्राणान्त । मरण या हिंसा) हो जाय तो भी उदयकाल में उसकी थोड़ा सा ही फल या दंड मिलेगा, कारण कि इरादा खोटा ( मारनेका) नहीं था। यह सब खेल परिणामोंका है, दूसरेका नहीं ऐसा, निश्चय
जानना ।। ५२ ।।
भावार्थ-लोकाचार में ( व्यवहारमें ) क्रियाकांडकी मुख्यता मानी जाती है, उसके आधार पर हिंसा अहिंसाका विचार किया जाता है तथा अपराधी-निरपराधी सिद्ध होता है व लौकिक दंड भी मिलता है किन्तु भावाचार में ( अन्तरंग मानसिक विचारधारा में ) मनके आधार पर हिंसा अहिंसाका विचार करना पड़ता है अर्थात् मनोवृत्ति पर सब दारोमदार रहता है, उसीके अनुसार पारलौकिक दंड भी मिलता है लोकाचार उसका कोई घनिष्ट सम्बन्ध नहीं रहता, साधारण निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध रहता है । अतएव पेश्वर मानसिक संग्रम ( नियंत्रण ) होना चाहिये, उसके होने पर बाह्य संयम पालना सब सरल व सुलभ है। अर्थात् उसके पालने में कोई कठिनाई . मालूम नहीं पड़ती, वह आसानीसे पाला जा सकता है । ऐसा होनेसे अन्तरंग ( निश्चयभाव रूप ) और बहिरंग ( व्यवहार द्रव्यरूप ) दोनों प्रकारकी हिंसा नहीं होती ( बन्द हो जाती है ) । फलतः वह जीव निरपराध (अहिंसक ) होकर संसार समुद्रसे पार हो जाता है अतः यही मार्ग श्रेष्ठ अनुकरणीय है। इसके विपरीत जो जीब सिर्फ बाह्याचारको हो मुख्यता देकर उसीके करने में ब चित्त रहते हैं अन्तरंग आचार विचार पर ( मनोवृत्ति पर ध्यान नहीं देते वे बिना नोव के मकान जैसे पतित हो जाते हैं याने उनका बाह्यावरण बिगड़ जाता है - वे भ्रष्ट हो जाते हैं, जिससे लोकदंड भी उन्हें मिलता है, परलोक दंड तो मिलता ही है। अतएव यह मार्ग श्रेष्ठ नहीं है, यह गिरतीका मार्ग है जिससे ऊपर नहीं चढ़ सकते । कर्मबंध और उसके फलमें विशेषता होतेका कारण ( निदान ) जीवके अच्छे व बुरे ( शुभ व अशुभ परिणाम हो मुख्य समझना चाहिये
किम्बहुना' । १. उक्तं च----
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सम्यक चारित्र
puter enteरण आगेके इलोकमें भी किया जाता है ।
भावार्थ -- इस श्लोक में भी दो तरह का फल बतलाया गया है। लेकिन यहाँ स्थितिबंध से सम्बन्ध है अर्थात् किसीको दुःख बहुत समय तक भोगना पड़ता है और किसीको अल्प समय तक भोगना पड़ता है यह भेद है ।। ५२ ।।
आचार्य परिणामोंकी ही विशेषतासे फलभेव बताते हैं-
एकस्य च ती दिशाति फलं सैव मन्दमन्यस्य । व्रजति सहकारिणोरपि हिंसा वैचित्र्यमत्र फलकाले ॥ ५३ ॥
पद्य
एक अकेला हिंसा करता ती दुःख वह पाता है।
11
कोई अलग करता अल्प दुःख वह पाता airat free हिंसा करते फल अनेक विधिः पाते हैं। क्रिया एक सी होने पर भी भाव विचित्र सा लाते हैं ।। ५३ ।
rrer अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ एकस्य सा एव तीव्रं फलं दिशति ] एक ही सरहको Armierre द्रव्यहिंसा, किसीको घोर असा दुःख व ( पोड़ा ) देने वाली होती है | खोटामहा पाथका बंत्र होनेपर अपार नरकादिके दुःख उसे भोगना पड़ते हैं ) एवं [ अन्यस्य सा एवं मन्दं फलं दिति ] वही वैसो हो प्राणाघात रूप हिंसा किसीको थोड़ा मा सरल दुःख देने वाली ( परभवमें ) होती है । और [ अन सहकारिणोवं फलकाले हिंसा वैचित्र्यं यजसि ] इसी लोकमें साथ-साथ हिंसा करनेवाले दो जीवों को भी उदय कालमें भिन्न २ प्रकार फल देती है—एक प्रकार ( समान ) फल नहीं देखी अर्थात् भावोंके अनुसार किसी हिंसकको घोर असावारूप कल देती है तो किसीको सामान्य असातारूप फल देती है यह भाव है । यह सब विचित्रता ( फल भेदकी ) परिणामों (भावों) की ही बदलत समझना चाहिये ।
१७५
भावार्थ - इस श्लोक में दो सरहका फल बतलाया गया है । यहाँपर अनुभागसे सम्बन्ध है अर्थात् किसोको जोरदार असह्य दु:ख भोगना पड़ता है और किसीको मामूली ( साधारण ) दुःख ( क ) भोगना पड़ता है यह भेद है । साथ २ हिंसा करनेवाले दो आदमियोंको अपने २ परिणामों के अनुसार फल मिलता है, तीव्र कषायवालेको तीव्र दुःख और मन्द कषाय वालेको मन्द दुःख भोगना पड़ेगा यह तात्पर्य है ।
यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ॥ ३५ ॥ कल्याणमन्दिरस्तो
अर्थ - विना भाव अर्थात् भक्तिरूप अन्तरंग परिणामोंके अभाव की जाने वाली क्रियामात्रका फल नहीं मिलता वह व्यर्थ ( निष्फल ) जाती है । अतएव भाव सहित किया करना चाहिये यह तात्पर्य हैं ।
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(MAHARASHTRA)
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প্রাথশিবায় आचार्य और भी परिणामों के भेदसे ४ चार प्रकारका फलभेद बतलाते हैं
प्रागेव फलति हिंसा क्रियमाणा फलति फलति च कृतापि । प्रारभ्यकर्तुमकृतापि फलति हिंसानुभावेन ॥ ५४ ॥
हिंसाका संकल्प कियेसे बिन हिंसा फल मिलता है। करते करते किम्मो बीचको सुरत हिंसफर मिलता है॥ किसी जीचको कर चुकनेपर पीछे ही फल मिलता है।
करनेका श्रारम्म किये ही अकृत फल पा लेता है || ४ || अन्वय अर्थ...आचार्य कहते हैं कि [ अनुभावन हिंसा प्रागन फलति । अभिप्राय या भावोंके अनुसार या भावनाके अनुसार, कोई हिंसा न होनेपर भी ( जीवघातके पूर्व हो ) अपना फल जोत्रको दे देती है, अर्थात किसी जीवने हिंसा करनेका संकल्प या विचार तो किया परन्तु किसी कारणवश हिंसा नहीं कर पाई-पीछे हिंसा करनेका मौका मिला। इस दरम्यानमें भावोंके अनुसार जो पापका बंध हुआ था वह उदय में आकर दुःख पोड़ा देने लगता है, यह विना हिंसा किये पहिले हो फल मिलनेका उदाहरण समझना चाहिये । [क्रियमा हिंसा लिति ] और कोई हिंसा ( प्राणघात) ऐसी होती है कि करते समय ही उदयमें आकर अपना फल जीव को दे देती है। अर्थात् हिंसा रूप कार्य करते समय हो पाप बंध और तुरंत ही उदयमें आकर दुःख पीड़ा देती है। यह दूसरा उदाहरण समझना और [ कृनापि हिस्सा फलति ] कोई हिंसा, हो चुकने के पश्चात् जीवको अपना फल देती है। अर्थात् हिंसा के समय हुआ पापका बँध, जब उदयमें आवेगा तभी अपना दुःख म्ए फल देगा, यह हिंसा का तीसरा उदाहरण समझना [ अणि कर्नमारभ्य अकृता हिंसा फलप्त ] और कोई हिंसा ऐसी है कि वर्तमानमें न होकर भविष्यमें होगा किन्तु उसके लिये पेश्वरसे साधन इकट्टे कर रहा हो, वह हिसा ( भविष्यमाण ) अपना फल जीवका होने के पहिले हो । दुःखादि ) दे देती है। यह हिंसाका चौथा उदाहरण है। भावार्थ-यह सब परिणामों के अनुसार ही फलमें विचित्रता ( भेद ) है ऐसा समझना चाहिये । इसी हिंसाको यदि १ संकल्पी २ उद्योगी ३ आरंभी ४ विरोधी, इन सब शब्दोंमें कहा जाय तो भी अनुचित न होगा। अथवा १ कृत ( भूत ) २ क्रियमाण ( वर्तमान ) ३ प्रारभ्यमाण ( अपूर्ण वर्तमान ) ४ करिष्यमाण ( भविष्यत् ) इन शब्दों में भी विभाग किया जा सकता है अस्तु । यह सब कथन शैली है लक्ष्य सबका एक ही है-पापबंधका होना व दुःख देना । अतएव उसे हटानेका पुरुषार्थ करना चाहिये, यह तात्पर्य है ॥५४॥
मागे आचार्य और भी भेद बतला रहे हैं। एकः करोति हिंसां भवन्ति फलभागिनो बहवः ।
बहवो विदधति हिंसां हिंसाफलमुग्भवत्येकः ।। ५५ ॥ १. अभिप्राय के अनुसार फल देती है।
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सम्माचारिख
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पच
कोई एक हिमा करता है कल भागी बहु होते हैं। बहु हिंसा करते हैं तो भी फल भागी इक होते हैं ।। है विचित्रता परिणामोंकी एकभासि नहीं होते हैं।
जिसके जैसे भाव होत हैं वैसा ही फल पाते हैं ॥५५॥ अन्वयअर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ एफ: हिमां करोति बहवः फलभागिनो भवम्ति ] एक कोई जो हिंसा ( प्रा .रता है । हिसाका { दुखादि ) बहुत जीव भोगते हैं अर्थात् प्राणघात करते समय या हो जानेपर जो जीव खुशी या प्रसन्न होते हैं व उसका समर्थन व अनुमोदन करते हैं वे सभी पापके भागी होते हैं । इसी तरह [ बहवो हिंसा विदधति, हिंसाफलभुक यक भात ] बहुतसे जीव हिंसा करते हैं, किन्तु हिंसाका फल एक ही जीव भोगता है जैसे कि राजा युद्ध सिपाहियों । सैनिकों ) से कराता है किन्तु उस पापका भागी वह राजा ही ( स्वामी) होता है, सैनिक नहीं । कारण कि वही अपने का उसका कर्ता मानता है व साधन समाग्रो ( निमित्त ) मिलाता है ऐसा समझना चाहिये।
पद्य दूसरा एक जीव हिंसा करता हैं फल मिलता बहुतेरों को। बहुत जीव हिंसा करते हैं फल मिलता है एकाह को ।। फल मिलता है भाषों से ही जिसके जैसे भाव बने ।
उमक माफिक फल मिलता है किया बने या नहीं बने ।।५।। भावार्थ-अपराध कई तरहसे लगता या होता है अर्थात् (१) स्वयं करनेसे अपराध होता है । कृत) (२) दूसरोसे करवाने पर अपराध होता है । कारित) (३) अनुमोदन या समर्थन करनेसे अपराध होता है (अनुमोदित ) (४) करने का इरादा करनेसे अपराध होता है। संकल्पित)। तदनुसार अनेक जीवोंसे कराया गया अपराध युद्धादि हिंसक कार्य ) का फल एक अधिकारी जीवको ही भोगना पड़ता है इत्यादि यह फलभोकाका उदाहरण है। और बहुफल भोक्ताका उदाहरण अनुमोदन करने वालोंका है। इस तरह परिणामोंके अनुसार फलभेद बताया जाता है। किन्हीं खोटे कामोंका देखकर प्रसन्न होना खुशी व हर्ष मनाना यह भी वर्जनीय है क्योंकि विना . खुद किये भी सजा भोगना पड़ती है। अतएव अपनेको सबसे पृथक ( अस्पृष्ट-अछूत ) रखने पर ही कल्याण हो सकता है यह सारांश है । लौकिक न्याय और पारलौकिक न्यायमें भेद रहता है। यह भी समझना चाहिए । एकान्त नहीं रखना ।। ५५ ।।
दूसरी तरहसे फलभेव बतलाते हैं कस्यापि दिशति हिसा हिमाफलमेकमेव फलकाले । अन्यस्य सैव हिंसा दिशत्यहिंसाफलं विपुलम् ॥५६॥
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पुरुषार्थसिद्धयुपाय
पद्य कोई हिंसा करता है सो फल हिंसा का मिलता है। कोई हिंसा करता है पर फल उष्टा ही मिलता है ।। यह विपित्रता परिणामों की जो उल्ला सीधा होता है। परिणामों के बल पर ही सब संसार मोक्ष होता है ॥५॥
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अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ फलकाले हिंसा कस्थ एक हिंसाफलमव दिशति ] उदयकालमें हिसारूप कार्य किसी जीवको एक हिसारूप हो फल देता है, अर्थात हिसाका फल हिंसा रूप ही मिलता है अर्गत् जो दसरोंकी हिंसा करेगा उसकी भी हिसा दूसरे करेंगे इत्यादि । तथा [ सैच हिमा अन्यस्य विपुल अहिंसाफलं दिशति ] वही हिंसारूप कार्य, किसीको बृहत अहिंसाका फल देता है अर्थात् उसकी हिंसा कोई नहीं कर सकता इत्यादि विचित्रता समझना चाहिए ॥५६॥
भावार्थ - इरादापुर्वक जीवहिंसा करने पर उसके फलस्वरूप पापकर्मका ही बना होता है जो उदयमें आनेपर उसकी हिंसा दुसरे जीव करते हैं और तीव्र दुःख पीड़ा देते हैं। असाताके तीन उदयसे क्षण भरको सुख नहीं मिलता न दूसरे कोई सहायक होते हैं। यह हिंसाका फल हिंसा रूप पापका उदाहरण है। और किसीका इरादा हिंसा करने का या दुःख देनेका नहीं है--सुख पहुँचाने का है, परन्तु कदाचित नियोगवश दुसरेका मरण या हिंसा (धात) हो जाय तो उसका फल उसको अहिंसाका ही मिलेगा अर्थात् पुण्यकर्मका बन्ध होगा और उदयकाल में उसकी रक्षा ही होगो कोई मार नहीं सकेगा इत्यादि हिंसाके अहिंसारूप फलका यह उदाहरण है ऐसा समझना चाहिये । सारांश यह कि पुण्य-पाप या संसार मोक्ष सब परिणामोंसे ही होता है--सब परिणामों पर ही निर्भर है अतएव परिणाम नहीं बिगाड़ना चाहिए, ऐसा पुरुषार्थ सदैव करना चाहिए ॥५६॥ नोट-इस विषयमें पहिले आत्मानुशायनका श्लोक में० २३ कहा हो गया है अस्तु ।
इसी तरह और भी फलभेदमें विचित्रता बतलाते हैं हिंसाफलमपरस्य तु ददात्यहिंसा तु परिणामे । इतरस्य पुनहिंसा दिशत्यहिंमाफलं नान्यत् ॥५७||
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पद्य कभी महिमा फल देती है हिंपाके परमार्मोका । हिंसा कभी जु फल देती है. स्वयं अहिंसा ऐसा व्यत्तिकम क्यों होता है, क्रिया और परिणामोंका। उत्तर ----फल भायों का होता क्रियानिमिसभाका ।।५।।
१. अहिंसारूप। . .
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মহিষ अन्वय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [ तु अहिंसा अपरस्य परिकामे हिंसाफले ददाति ] और कभी अहिसा, ( द्रव्यप्राणघात न हाना रूप) किसी जीवको फल कालमें ( उदय आनेपर ) हिंसाका फल देती है [ पुनः हिंसा इलरस्य अहिंसाफलं दिशति अन्यत् न ] और कभी हिंसा, किसी जोवको अहिंसाका फल देती है दूसरा नहीं, ऐसा नियम है। सो यह विचित्रता सब परिणामोंके चाल ( गति ] की है अस्तु ।। ५७ !!
भावार्थ-क्रिया और भावों में एवं फलमें व्यतिक्रमका होना आश्चर्यजनक है. लोगोको इसमें भ्रम और अचरज उत्पन्न हो सकता है कि क्रिया तो अहिंसा को हो रही है, अर्थात् बाहिर किसा जीवका विघात नहीं हो रहा है और उसको हिंसा करनेका फल ( पाप लगता है। इसी तरह बाहिर क्रिया जीवको मारने जैसो ( चोरा-फाड़ो वगैरह ) हो रही है, और उसको अहिंसाका फल ( पुण्य ) लगता है इत्यादि । इस व्यतिक्रम या आश्चर्यका उत्तर ( समाधान ) एक हो है
और वह यह कि फल सदैव परिणामों के अनुसार होता है बाह्य क्रियाके अनुसार नहीं होता, बाह्य किया खाली निमित्तकारणरूप है, अतएव उसमें यह सामर्थ्य ( शक्ति नहीं है कि वह परिणामोंको बदल दे सके । किन्तु परिणाम स्वयं हर तरहके होते हैं और कार्य करते हैं। निमित्त भी किसीके अधीन नहीं हैं वे भा भवितव्य के अनुसार हा मिलते बिछुड़ते हैं। ऐसी स्वतन्त्र स्थितिमे भ्रम और आश्चर्य करना व्यर्थ है अन्यत्र कहा भी है।
इस तरह फलका विचित्रताके सम्बन्धमें १६ सोलह उदाहरण दिये गये हैं श्लोक २०५१ से लेकर ५७ तक । २-+-++४+२+२+२)। वे उदाहरण भी हिसान एवं अहिसाके सम्बन्धमें खासकर दिये गये हैं ! इतना स्पष्ट और विस्तारके साथ कथन प्रायः अन्यत्र देखने में नहीं आया है, यह विशेषता इस भ्रन्थकी है। इसी परसे धर्म और अधर्मका निर्धार किया गया है अर्थात् स्वभाव भाव । अविकारीभाव ) ही धर्म है और विभावभाव ( विकारीभाव ) ही अधर्म है, इनसे भिन्न धर्म और अधर्म कुछ नहीं है इत्यादि समझना चाहिये।
उपसंहाररूप कथन आचार्य कहते हैं कि अनादिकालसे धर्म और अधर्म के स्वरूपमें भले हए प्राणियोंको नय चक्रका प्रयोग करने में अर्थात् उसको स्वयं समझकर दूसरोंको समझाने में कुशल या परिणय गुरु हो..-सच्चे ( असली ) धर्म और अधर्मका स्वरूप बता सकते हैं एवं वे हो संसारसामरसे पार
१. सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयामरणजीवितदुःखसौरूयम् । अज्ञानभेदिह अत्त परः परस्म कुर्यात्पुमान् भरणजीवित सौख्यम् ।।१८।।
( समयसार कलश ) : अर्थ—यस्तु स्वभाव ऐसा है कि सभी सुख दुःख जीवनमरण आदि निश्चित हैं कृत्रिम या अनिश्चित ( अनियत ) नहीं है तब यह कहना कि जीव कर्मके उदयसे सब कुछ करता है यह मिथ्या है-- अज्ञानता है। कोई किसीका कर्ता व स्वामी नहीं है सब स्वतन्त्र है अतः सा कहना उपचार मात्र है ( अ
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पुरुषार्थसिद्धपुराणं
कर सकते हैं क्योंकि संसारसागरमें सरह २ की भंवरे हैं अर्थात् तरह २ के विचारवाले जीव हैं तथा तरह २ के आचरण करते हैं यह परस्पर में भेद है-एकता नहीं है। अतएव अनादिमूढ़ Hourदृष्टि यह भूल गये हैं कि इस अगाध भयंकर संसार सागर से पार होने अर्थात् निकलनेका मार्ग ( उपाय ) क्या है ? यही निष्कर्ष आयेके श्लोक में बताया जाता है । यथा
इति विविधभंगगहने सुदुस्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम् । गुरुवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनयचक्र संचाराः ॥५८॥
पद्म
अगम अथाह भयंकर दुस्तर भवसागर यह है भारी | भूल रहे हैं प्राणो इसमें कौन उपाय तरकारी ॥ गुरु ही एक उपाय शरण है जो नर हैं । Faraaree उनके द्वारा पार है ॥५८
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ इति विविधभंगगहने सुदुस्तर मार्गमुष्टीनाम् 1 पूर्व में बताये हुए धर्म व अधर्म, हिंसा व अहिंसा, निश्चय व व्यवहार, सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन, सम्यग् - ज्ञान, मिथ्याज्ञान, सम्यक्चारित्र, मिथ्याचारित्र, निश्चय अंग व्यवहार अंग, निश्चय मोक्षमार्ग व्यवहार मोक्षमार्ग, क्रियाकांड, ज्ञानकांड आदिमें भूले हुए व फसे हुए प्राणियोंसे भरे हुए संसारसागरमेंसे निकलने का मार्ग ( उपाय ) जिनको नहीं सूझ रहा है ऐसे अनादि मूढ़ मिथ्यादृष्टियों को [ नयचकसंचाराः गुरवः शरणं भवन्ति ] निकालनेवाले शरणसहाई, सद्गुरु ही होते हैं जो नय'चक्रको याने सच नयोको अच्छी तरह जानते हैं और उन्होंके आधारसे ( अपेक्षा ) से सब भूले 'मटके प्राणियोंको वस्तुस्वरूप ( धर्म अधर्म आदि ) समझा सकते हैं तथा उनका भ्रम ( अज्ञान ) मिटा सकते हैं एवं जो निःस्वार्थ या निरपेक्ष विरागी हैं यह सारांश कथन है | इसको समझकर असल में लगाना चाहिये । इसका दृष्टान्त जिस तरह कोई जीव यदि निर्जन भयंकर आपत्तियों के
१. तरह-तरह की लहरों गड्ढों और गहराई वाले ।
२. कठिनाई से तरने योग्य संसार सागरमें :
३. वारनेवाला |
४. ज्ञाता कुशल |
४. द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक, निश्चय व्यवहार आदि नय । ६. पार लगानेवाले ।
७. यह संसार भयंकर बनसम तरह तरह की सामग्री में भूल रहा जन faar सहाय free नहिं सकता, भवसे सद्गुरु के चरण सहाई वही उबारत
जटिल समस्याओंका घर है ।
तर वर है ।
नसे कोई जन । निमित्त बन ।
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सम्यकचारित्र
होने प
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घर... बड़े २ कर सिंह, सादि जीवोंसे भरे हए । व्याप्त ) दुर्गम बनमें भूल जाय, तो उसको उस स्थानसे निकालकर सुमार्ग बतानेवाला कोई जानकार मनुष्य हो हो सकता है- दूसरा नहीं, उसो सरह सद्गुरु हो अनादिकालसे संसार-सागरमें भूले भटके दुःखी प्राणियोंको संसारसे निकाल सकते हैं दूसरा कोई नहीं यह निश्चय है। अतएब मुमुक्षुओंको उन्होंको शरण लेनी चाहिये । यद्यपि वे निमित्तकारण हैं तथापि निमित्तताको ही श्रद्धा रखते हुए उनका आश्रय लंकार पुरुषार्थ स्वयं ही करना चाहिये अर्थात् आत्माका ही बल भरोसा रखना चाहिये कि कार्य सिद्ध हमारा हमारे द्वारा हममेसे ही होगा इयादि । व्यवहार दृष्टिसे संयोगी पर्याय में निमित्त मिलाकर पुरुषार्थ करनेका भाव कषायवश उत्पन्न होता है जो अनुचित नहीं है, परन्तु श्रद्धा नहीं बदलती, वह उपादान पर ही निर्भर ( अटल ) रहती है। अतः वस्तुके स्वरूपको यथार्थ समझकर श्रद्धा मजबूत ( दृढ़ ) करना कर्त्तव्य है। इसी तरह आगमका ज्ञान, तत्त्वार्थका श्रद्धान, संयमभाव (व्रताधनुष्ठान ) के
भी 'आत्मज्ञान' का होना अनिवार्य है क्योंकि उसके बिना सब (आगमज्ञानादि त्रय) व्यर्थ हैं-- मोक्षमार्गके साधकतम नहीं हैं इत्यादि जैसे द्रव्यलिंगी मुनिके उक्त तीनोंका समागम होने पर भी 'शद्वात्माका निविकल्प ज्ञान( निश्चयरूप ) न होने से व्यर्थ है...-मोक्षरूप स नहीं होती यह तात्पर्य है । आत्माके सिवाय कपरी ( बाह्य ज्ञान श्रद्धान आचरण प्रायः सही हो सकता है असंभव नहीं है वह सरल है किन्तु आत्माका मा ज्ञान होगगुर्लभ-दुष्कर है अतएव मोक्षमार्गमें प्रयोजन मूल मुख्य वही है ऐसा समझना ( गा०२३८ प्रवचनसार गा० नं० २७६, २७७ समयसार )।
भावार्थ-आत्मज्ञान शून्य (विना) तत्त्वार्थ श्रद्धान करना, आठ अंगोंका पालना, २५ दोषोंका दालना, संयमादि धारण करना सब निष्फल है 1 जैसे कलशा बिना मंदिरको शोभा नहीं होती। तदनुसार सन्त्रा तत्त्वार्थ श्रद्धान अर्थात् निश्चय व्यवहारके ज्ञानपूर्वक श्रद्धान ही कार्यकारी है अन्यथा नहीं यह तात्पर्य है ! संसारमें जैन शासनका प्रचार नयज्ञाता कुशल सद्गुरु ही कर सकते हैं इति ।
नोट-यहाँ आत्मज्ञान शून्यका अर्थ --- मैं ज्ञानस्वरूप हूँ या मेरा स्वरूप ज्ञानचेतनामय है अन्यरूप नहीं है, ऐसा नहीं समझना है ( स्वरूप विपर्यय है ) यही बड़ा भूल है कि अपने स्वरूप को नहीं जानना।
निष्कर्ष ( चेतावनी) आत्मोन्नति के लिये संयोगोपर्यायमें रहकर पद व योग्यताके अनुसार निश्चय और व्यवहारका सम्यक्ज्ञान तथा वैसा आचरण ( वृत्ति या वर्ताव ) अवश्य होना चाहिये, तभी इष्ट ( लक्ष्य .. या साध्य ) की सिद्धि हो सकती है, अन्यथा नहीं ऐसा समझना चाहिये। इस विषय में समयसारकलशका श्लोक स्पष्टोकरणके लिये आगे लिखा जाता है।
१. मैं स्वयं ज्ञामस्वरूप हूँ, ज्ञाता दृष्टा हूँ अन्य रूप नहीं हूँ में मेरा कोई कुछ कर सकता है इत्यादि ।
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કેન્દ્રશ
पुरुषार्थसिद्धपा
इति वस्तुस्वभावं स्वं जानी जानाति तेन सः ।
रागादीनात्मनः कुर्यात् नातो भवति कारकः ।। १७६ ।। कलश
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अर्थ : -जो वस्तु ( आत्मा ) के स्वभावको या निर्मिमित्त स्वरूपको जानता है अर्थात् ज्ञानदर्शन ही मेरा स्वभाव ( सहज सिद्ध ) है अन्य कोई रागादि मेरा स्वभाव नहीं है नहीं है किन्तु वे सनिमित्त ( औपाधिक ) होनेसे विभाव भाव हैं ऐसा स्वभाव विभावका ज्ञाता ही 'ज्ञानी' कहलाता है | इसके विपरीत जानने वाला कभी ज्ञानी नहीं हो सकता वह अज्ञानी है । इसीलिये रागादिकको आत्माका स्वभाव न मानने वाला सम्यग्दृष्टि जीव विना स्वामित्व के परका (रागाfaar | कर्ता नहीं होता वह उन्हें भिन्न ही जानता है अतएव उनमें ममत्व भी नहीं करता, अचि करता है । यही सर्वत्र नियम है । फलतः जिन जोवोंने अपने स्वभावको पहिचान व श्रद्धा नहीं की अर्थात् यह नहीं जाना कि मेरा ज्ञान ही स्वभाव या स्वरूप है वह अज्ञानी है और वही रामादिक विभाव ) को अपना स्वभाव मानकर रागादिकका कर्ता होता है तथा संसारमें बंध - करके दुःखादि भोगता है इत्यादि खुलासा है ॥ १०६ ॥
श्लोक नं० १७६ व १७७ का सारांया है अस्तु ।
भावार्थ और समीक्षा ( भूलभुलैयाका प्रदर्शन )
पर मतमें और जैन मतमें परस्पर अमेल या विवादका खास कारण क्या है ? इस पर निष्पक्ष हो विचार करनेसे यही प्रतीत होता है कि दृष्टिभेद है अर्थात् नयविवक्षाको नहीं समझना है अथवा पदार्थको एकान्तरूप मानना है अथवा अनेकान्तरूप ( अनेक धर्म वाला) नहीं मानना है, जो प्राकृतिक नियमके विरुद्ध है । प्राकृतिक नियम, प्रत्येक पदार्थ में अनेक स्वतंत्र धर्मोका रहना है। वे धर्म किसी दूसरेकी देन या कृपा पर निर्भर नहीं हैं-- स्वयं सिद्ध हैं इत्यादि ।
ऐसी स्थिति में प्रत्येक पदार्थ में उत्पाद व्यय- प्रोव्य, ये तीनों धर्म रहते व स्वयं कार्य करते रहते हैं इसलिये ये कथंचित् स्वाश्रित हैं और उनके कार्यके समय संयुक्त दशा में अन्य सहायक निमित्त ( पर पदार्थ ) भी रहा करते हैं अतएव वे कथंचित् पराश्रित भो हैं, परन्तु व्यवहार दृष्टि ( नय ) से हैं, निश्चय दृष्टिसे बेसे नहीं है (स्वाति है ) । इसी तरह संयोग अवस्था ( संयोगीपर्याय ) में अन्य २ बातोंका भी विचार या निर्धार करना जरूरी है। क्योंकि कथनी करनी और मान्यता में भेदः रहने से परस्पर मैत्री ( संधि या एकता ) कभी हो नहीं सकती यही नियम है । एकता या परस्पर संधि कराने वाला एक अद्वितीय 'स्याद्वाद' 'अनेकान्त' न्याय हो है, जो सबमें विरोध मिटाकर अविरोध उत्पन्न करता है ।
उदाहरण के लिये पहिले एक 'धर्म' या हिंसा में हो विवाद देखिये । एकान्ती 'हिंसा या बलि' करनेको 'धर्म' मानते व कहते व करते हैं । उनके सामने 'वेदाज्ञा या ईश्राज्ञा' मौजूद है | कहते हैं कि 'धर्मार्थ हिंसा ( जीववध - द्रव्यहिंसा) करना अधर्म या हिंसा नहीं है किन्तु वह धर्म और अहिंसा ही है इत्यादि । तब हम स्वतः ही ( स्वेच्छा से ) वैसा कार्य ( जीववध ) नहीं कर
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सम्यकचारित्र रहे है किन्तु जगत् पिता ( कर्ता ) ईश्वर की आज्ञासे नौकर को सरह वैसा कार्य कर रहे हैं अतः वह धर्मका पालना।चोदना ) नहीं है तो क्या है ? अवश्य धर्म पालना है। हाँ उनको आज्ञाका न पालना बराबर 'अधर्म' हो सकता है। उनको दष्टिसे 'कर्मध्यका पालन करना या उचूटी पूरी करना ही धर्म है और कुछ नहीं इत्यादि तदनुसार वे धर्म हो कर रहे हैं ऐसा उनका कहना करना व मानना है अस्तु ।
___जैन न्यायसे उनके विचारों में मान्यताओंका फैधाचन समवय व खउन अन्वत एकान्तका खंडन करके अनेकान्तका मंडन और परस्पर मैत्रीका स्थापन किया जाता है । यथा
पहिली बात यह है कि यस्तु ( पदार्थ उत्पाद व्यय प्रौक्यरूप और द्रव्य गुण यावरूप अनेक धर्म वालो है। अतः उसमें अनेक स्वभाव पाये जाते हैं। सदनुसार मालिक या ईश्वरकी आज्ञा मानना भी किसी तरह धर्म है और स्वतंत्र विचार करना न्यायमार्ग पर चलना जो धर्म है । एक नीति भो है कि
''मोरपि गुणाः वाच्या दोषाः कायाः गुरोरधि'' अर्थात् गुणोंका आस्तित्व यदि अपने शत्रु में भी हो तो कथन व ग्रहण करना चाहिये और दोषों का कथन या बहिष्कार, गुरूमें हों, तो करना चाहिये यही बुद्धिमानी है। वहाँ कोई लज्जा, भय या संकोचका काम नहीं है . अअयथा बह शिष्य उगाया जाता है । हमेशा परके अनुकरण करनेका काम नहीं होना चाहिये किन्तु अपनी बुद्धिसे विवेकसे खूब सोच समझकर ही कार्य करना चाहिये तभी कल्याण हो सकता है अन्यथा नहीं। कारण कि करनीका फल तो करनेवाले शिष्य को ही मिलेगा, करनेवाले गुरुको नहीं मिलेगा 'जो करता सो भोक्ता' यह न्याय है। वेदवाक्य या वेदके कर्ताको आज्ञा' अल्पज्ञानी व रागो द्वेषी होने के कारण अन्यथा व अहितकर भी तो हो सकती है, जिसके मानने व पालनेसे धर्म न होकर अधर्म हो सकता है । देखो ! धर्म रक्षा करनेसे होता है, हिंसा या धात करनेसे नहीं हो सकता, यह यथार्थ बात है। लेकिन कथंचित् दृष्टिसे अर्थात् संबोगीपर्यायमें शुभरागसे धर्म ( पूण्यका बंध ) होता है स्थावाददष्टि या अनेकान्त दुष्टिसे विचार किया जाय तो किसी तरह 'उस हिसाको ग्राने प्राणधासको, अधर्म कह सकते हैं जो बिना इच्छा या बिना इरादा किये सिर्फ क्रिया मासे हो गई हो, क्योंकि उससे जीवका स्वभावधातरूप हिंसाकार्य नहीं होता जो खास प्रयोजनरूप है। ऐसी स्थिसिमें व्यवहारनयसे द्रव्यप्राणघास, हो जाने पर हिंसा या अधर्म कहा जायगा और निश्चयनयसे 'भावप्राणों का पान न होनेसे धर्म या अहिसा ही कहा जायगा, यह न्याय अनेकान्त दृष्टिका है, तब इसको सुन समझकर, एकान्तदृष्टि ( मिथ्यादृष्टि) बहुधा शश्रुता छोड़कर मित्रता धारण कर सकते हैं---वर व विवाद मिटा सकते हैं, यह सम्भावना सत्य है। इसमें कछकिसी नयसे उनका पक्ष भी सिद्ध होता है अतएव वे जैवमतकी मान्यताके कायल हो सकते हैं। यह स्यादाद या अनेकान्तको विशेषता है। इसी तथ्यको ख्याधिकालय { निश्चय नय ) से विचार कारनेर, लोक जीवघात हो जाने पर भी हिंसा या अधर्म नहीं होता, क्योंकि द्रव्य नित्य ( धौव्य । होमेसे कभी नष्ट ( घातरूप हिंसा नहीं होती और पर्याधाथिकनय ( व्यवहारनय ) से संयोगीपर्याय मात्रका विनाश ( हिंसा ) होनेसे, हिंसाका होना अर्थात् अधर्मका
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पुरुषार्थसिद्धय
होना कथंचित् कहा जा सकता है इत्यादि मैत्रो का जनका समाधान है विचार किया जाय। फलतः द्रव्यप्राणोंके घात होनेको कथंचित् हिंसा ( अधर्म ) और भावप्राणोंका घात न होनेसे कथंचित् 'अहिंसा' ( धर्म ) कहा जा सकता है या वैसा कहना अनुचित नहीं है - संगति व समन्वय बैठ जाता है । किम्बहुना
इसी तरह नयविशारद सद्गुरु (स्याद्वादी ) नित्य अनित्य आदि सभी वस्तुगत धर्मोमें संगति बिठाल देते हैं तब विवाद नहीं रहता। लेकिन एकान्तकी धारणारूप हठ छोड़ देने पर ही कल्याण हो सकता है । उनको वेदवाक्य ( ईश्वरवाणी ) में विवाद या हलको छोड़ देना पड़ेगा कि उसमें जो कहा गया है वह अनुभव प्रमाणसे उचित सिद्ध नहीं होता वह सब राग द्वेष या अल्पज्ञानसे कहा गया है। क्योंकि 'जो कर्ता सो भोक्का' यह न्याय है । करे कोई और फल पावे (भोगे ) कोई ऐसा अन्याय नहीं हैं । अन्यथा लोककी तमाम व्यवस्था बिगड़ जायगी वगावत या अराजकता फैल जायगी इत्यादि । फलतः अनेक तरह के विवादों, मतमतान्तरों, क्रियाकाण्डों, लिगोंउपायोंसे भरे हुए ( व्याप्त ) इस लोक-सागर में भूले भटके प्राणियोंको निकलनेका सुमार्ग बतानेवाले सद्गुरु न्यायविशारद नेपाली गुरु ही हो सकते हैं दूसरे नहीं, ऐसा विश्वास करके उनके बताए हुए मार्ग पर चलना परम कर्त्तव्य होना चाहिये । धर्म ( अहिंसा) अधर्मं ( हिंसा - द्रव्यप्राणचात रूप या भावप्राणघातरूप ) इनमें कभी नहीं भूलना चाहिये | शुभरागको या मन्दकषायको धर्मकहना भी कथंचित्- किसी अपेक्षा से है, उपचारसे है सर्वथा नहीं है। कारण कि उस समय द्रव्य प्राणों का घात नहीं होता -- बाह्य क्रिया बन्दप्राय हो जाती है, अतः उस अपेक्षा से वह अहिंसा धर्मका पालनेवाला कहा जाता है अथवा अशुभ भात्र या अशुभ राम न होनेसे भी वह अहिंसक कहा जा सकता है । किन्तु उस समय स्वभावभावका घात ( हिंसा ) होनेसे वह कथंचित् हिंसक या अधर्मी भी कहा जा सकता है यह मेद समझना चाहिए | इस विविध भंग ( भेद ) वाली गुत्थी को सुलझाना अनिवार्य है किम्बहुना | शुभराग पुष्प बन्ध (धर्म) का कारण होनेसे उपचारसे उसको धर्म कहा जाता है यह खुलासा है ।
अन्यमत में-- धर्मके स्वरूप में पूर्वापर विरोध-- उन्होंने जीवहिंसा और विषयकषाय पोषणको धर्म माना है, जो अधर्म या कुधर्म है ।
देखो ! जहाँ वैदिक मतानुयायिओंने धर्मका स्वरूप
यथार्थ पशवः स्वष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । यो हि भूत्यै सर्वेषां तमाशे वः ||
इस श्लोक द्वारा बतलाया है कि यज्ञ ( पूजा हवन) के खातिर पशुओंकी हिंसा करना, उन्हें मार डालना, कोई पाप या अधर्म नहीं है किन्तु यह धर्म ही है क्योंकि यज्ञ करनेसे प्राणियों का परोपकार या कल्याण होता है अर्थात् पूजक ( यज्ञकर्त्ता ) और यज्ञके काममें आनेवाले पशुओं आदि सभीका कल्याण होता है ( सभी स्वर्गादि बैकुण्ठको जाते हैं ) इत्यादि उपदेश वेदका - भगवान् (ईश्वर) की वाणीका है ऐसा विश्वास कराया जाता है। वहीं इसके विरुद्ध भी धर्मका
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सम्यकमारिक स्वरूप महाभारत जैसे वेदांग ( अवयवरूप) अन्थमें बतलाया गया है, जिससे पूर्वापर विरोध आता है और इसीलिए वह असत्य सिद्ध होता है।
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा वावधार्यताम् । आत्मनः प्रतियलानि परेपो न पाइरेट:
- महामारत अर्थ-धर्मका निचोड़ या रहस्यभूत स्वरूप यह है कि जो पदार्थ या आचरण, अपने खुदके लिए रुचिकर या पसन्द न हो अथवा बुरा या अनिष्ट मालूम पड़े ( अपने अनुभवमें आवे ) वह आचरण या वत्तवि दूसरोंके साथ भी नहीं करना चाहिए। उसका उपयोग न अपने लिए किया जाय न परके लिए किया जाय) बस यही 'धर्म' का सच्चा स्वरूप व रहस्य है { सार है ) और कुछ नहीं। इसका प्रयोजन यह है कि जिस कार्यके करने से अपनी आत्मामें दुःख व संक्लेशता हो तथा दूसरे जीवोंकी आत्मामें भी दुःख ब संक्लेशता हो, वह कभी 'धर्म नहीं हो सकता किन्तु वह उल्टा 'अधर्म' हो सकता है। तब हिंसा करना धर्म कैसा? जब अपने साथ कोई मारपीट करता है, गालो बगैरह देता है तब अपनेको वह पसन्द नहीं आता व दुःख होता है, सुई चुभाता है तब दुःख होता है। ऐसी स्थितिमें दुसरे जोवोंको मार डालने में या उन्हें सताने में उन्हें भी दुःख भय अवश्य होगा-प्राण सबको प्यारे हैं, फिर धर्म हुआ या अधर्म ? इसका ठण्डे दिलसे विचार करना चाहिये इत्यादि । इसी तरह अन्यत्र कहा गया है कि
'आरमचन् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः, { पण्डित या विवेकी धर्मात्मा )
अर्थात् जिसको 'समदृष्टि' पर द्रव्यमें-पर पदार्थमें नीच-ऊँचको या छोटे-बड़े की भावना { विकल्प या रागद्वेष ) नहीं रहती वही धर्मात्मा है, सबके साथ एक-सा बर्ताव करनेवाला श्रेष्ठजन है। इसके विपरीत चलने व करनेवाला धर्मात्मा नहीं है यह अधर्मात्मा ( पापिष्ट ) है । जो करता है यह पाता है, इस न्यायसे वह पापो नरक-निगोदको अवश्य जायगा---कोई दूसरा हाथ न लगायगा, न बचा सकेगा, यह सत्यार्थ है। अतएव मिथ्या न सोचो, न करो, इसी में भलाई है। वह उपदेश कभी सत्य नहीं है जो गुमराह कर देवे--सुमार्गको भुला देवे तथा वह उपदेशक भो असत्य वक्ता है जो स्वयं नरक जावे और दूसरों को । शिष्योंको ) नरक पहुंचावे व उल्टी परम्परा चला देवे इत्यादि समझना चाहिए।
शिक्षा
दुधजन पक्षपात सज देखो सांचा धर्म कौन है अगमें ? अलख अहिंसक निर्विकार जो साँचा धम यही है जग में । पद पापसे रहित होयकर मामस्वभाव लीन होय उरमें ।। वह ही अजर अमर अधिमाशी-पदमें धरता है क्षणभरमें ।
सबको सज भज एक इसीको तारनसरन शमि है इसमें || 1 || स्यादि अन्यमतावलम्बी एकान्तियोंको नयोंका यथार्थज्ञान और उनके संयोजनकी विधि आदिका
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पुरुषार्धसिद्धभुषाय शान न होनेसे वे जगत्के उद्धारक नहीं हो सकते, चाहे वे लौकिक शक्तिके सबसे बड़े स्वामी क्यों न हो। लौकिक शक्ति और पारलौकिक शक्तिमें महान् अन्तर है। सच्ने धर्मके ज्ञाता और उसके धारक ऐसे सद्गुरु न्यायवान ही हो सकते हैं जो समष्टि हो नयोंके पूर्ण जानकार और कुशल संगम हों क्योंकि जो स्वयं का संहावे ही अन्य मूल हुओंको निर्भूल कर सकते हैं। ऐसा न्याय है। विचार किया जाय !
गीतामें पण्डितका लक्षण अस्य पवे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।
जानाग्निदग्धकर्माणं रामाहुः पण्डिसं अगः ॥ ||-अध्याय " अर्थ----जिस जीवके सारे काम लौकिक और पारलौकिक आकांक्षा बिना अर्थात् रुचि या कामना व नंकल्प (निदान ) से रहित हों वेगार जैसे हों तथा ज्ञान ( भेदज्ञान ) रूपी अग्निके द्वारा जो कर्मोका क्षय करनेवाला हो; उसको पण्डित बुद्धिमान लोग कहते हैं। जिसमें उक्त गुण न पाये जावें वह पण्डित कहलानेके योग्य नहीं है यह तात्पर्य है, अस्तु ।
'मा हिंस्यात् सर्वभूतानि' यह बेदवाक्य है अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियोंका घात ( हिंसा ) नहीं करना चाहिये अर्थात् किसी भी प्राणीको हिंसा करनेकी विधि या आज्ञा वेदमें नहीं है। जैनमसके अनुसार 'यज्ञार्थ पशवः स्रष्टाः' आदि श्लोकका अर्थ निम्नप्रकार हो सकता है ।
यशार्थ पशवः स्वशः स्वयमेव स्वयंभुवा ।
असो हि भूस्य पर्येषां तस्मायज्ञे वधोऽवधः ॥ __ अर्थ-स्वयम्भका अर्थ आत्मा है, जो किसीके द्वारा पैदा ( जन्म नहीं होता । यशका अर्थ, पृथक करना या त्यागना या निकालना होता है। पनका अर्थ विकारीभाव होता है, जो अज्ञानरूप या जड़रूप है। भत्तों का अर्थ कल्याण होता है। वधका अर्थ, हिसा होता है और 'अवध' का अर्थ अहिंसा होता है। तदनुसार उक्त श्लोकका अर्थ ऐसा समझना चाहिये कि आत्मामें बिकारीभाव ( रागद्वेषादि ) अपने आप { संयोगो या अशुद्ध पर्याय में स्वयं ही ) अनादिकालसे होते चले आ रहे हैं, उनको कोई परनिमित्त उत्पन्न नहीं करता, वे स्वयं अशुद्धोपादानसे प्रकट होते हैं । अतएव उनको आत्मा से पृथक करना या निकालना अत्यावश्यक है, तभी जीवोंका कल्याण या उद्धार
१. जैनमतके अनुसार यह लक्षण विवेकी सम्याष्टिका है जो संसार शरीर भोगोंसे अरुचि या विरक्ति रखते
हुए भीनोपभोगादिका दवाईकी तरह सेवन करता है, उसमें उसको रुचि नहीं रहती। उसके साथ २ ज्ञानधारा व कर्मचारा ( क्रियाकांड वगैरह ) अविच्छिन्न रूपसे चलती रहती है । अर्थात् सम्यक् श्रक्षा व ज्ञान नहीं बदलता । ( सच्चा रहता है ) क्रिया चाहे कोई भी करने लगे। सब जानसे संयुक्त रहती है इत्यादि भाव जानना चाहिए । विवेकीका नाम ही पण्डित है, अस्तु । .
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सम्यचारित्र . हो सकता है अर्थात् बिकारी भावोंके हटाए बिना मुक्ति नहीं हो सकती यह नियम है। ऐसी स्थिति में भावोंका हटाना हिसा नहीं मानी जा सकती याने उसको बध नहीं कहा जा सकता क्योंकि स्वभावभावके आलम्बन लेनेसे विभावभाव ( बिकारीभाव ) कभी रह नहीं सकते-हट जाते हैं। जैसे कि उजेलाके होने पर अन्धकार स्वयं मिट जाता है, सफेदीके आनेपर मैल स्वयं नष्ट हो जाता है यह प्राकृतिक नियम है इत्यादि।
उक्त लोकका सही अर्थ न समझकर 'अजैर्यष्टव्यम्' की तरह मिथ्या अर्थ करके याने बकरोंको बलि द्वारा पूजन हवन करना चाहिये, ऐसा मिथ्या प्रचार कर दिया गया है जो बड़ा धोखा व अन्याय जीवोंके साथ किया गया है। किम्बहुना ।
आचार्य कहते हैं जो जीव नयचक्रकी विशेषता याने उसके प्रयोग करने की विधि ( संगति समन्वय ) आदिको नहीं जानते---उसके विशारद नहीं है वे हानि उठाते हैं अर्थात् वे स्वयं आत्म.' कल्याण नहीं कर सकते व संसारमें भटकते रहते हैं। और दूसरोंको भी संसारसागरसे नहीं. उबार सकते हैं।
( अतएव मयचक्रका जानना अनिवार्य है। अत्यन्तनिशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम् । खण्डयति धार्यमाणं मूर्धान झटिति दुर्विदग्धानाम् ।।५९।।
पद्य
जिमवरका नयभेद चकसम घुमा सक्त है बे गुरुजन । ज्ञानी मानी और अनुभवी विना स्वार्थ करने साधन ॥ बिना ज्ञान के अशामीजन करें कंदानित चकचलन । सेजधार अरु कठिन पकर वह सिर से अरु करे पत्तन ॥५॥
अथवा
तेजधार अ6 दुर्धर भी है जिनमतका नयचा अपार । बिना ज्ञान कर देता है संचालकका मस्तक शार ।। अतः समझ कर उसे चलाते-निज परको रक्षा करते ।
सन्गुरु येसे पारण महाई, चरण में मस्तकं धरते ।।५९|| अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि जिनवरस्य नयन अत्यन्त निशितधारं दुरासदं अस्ति ] जिनेन्द्रदेवका याने जैन शासनका मयसमुदाय ( नयप्रकरण या नयभेदप्रभेद ) अत्यन्त पेने तेज घारबाले दुर्धर सुदर्शन चक्र के समान दुर्धर हैं अर्थात उस नय समुदायका समझना व प्रयोग करना बड़ा कठिन है, स्थाद्वादो अनेकान्तविशारद सद्गुरु ही उसको अमल में ला सकता है व लाभ उठा सकता है । अतएव [ दुर्विदग्धानां धार्थमार्ण भूधान प्रारति संदमति ] अज्ञानी मूर्ख जन यदि उस नव
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पुरुषार्थसिक्युपाय चक्रको बिना समझे ही ( ज्ञान हुए बिना हो ) धारण करता है या उसका प्रयोग करता है बनाम संचालन करता है तो वह तुरन्त हो उसका मस्तक खंडित कर देता है या मौतके घाट उतार देता है । अर्थात् रक्षक हो भक्षक हो जाता है, वह अपनी व दूसरोंको रक्षा नहीं कर सकता, यह तात्पर्य है ।। ५९ ॥
भावार्थ-गुरुओंने या शास्त्रकारोंने नयोंके द्वारा ही वस्तुस्वरूपको समझकर शास्त्रों में वैसा लिखा है। क्योंकि क्षयोपशमशानी खंड २ या अंश २ रूपसे ही बस्तुको समझते हैं अखंडरूपसे (पूर्ण) नहीं समझ सकते ऐसा नियम है। उसमें भी सम्यग्दष्टि वैरागी हो यथार्थ समझ सकते हैंदूसरे नहीं यह तात्पर्य है। इसके सिवाय सम्यग्दृष्टि सम्यग्ज्ञानी सम्यक् चारित्री होकर भी जबतक 'आत्मज्ञानी' नहीं होता अर्थात् निर्विकल्प समाधिरूप ( रागादि रहित बीतराग ) निश्चय रत्नत्रयको प्राप्त होनेवाले अपने आत्माका संबेदनरूप ( स्वानुभवरूप) ज्ञान नहीं होता सबतक उद्धार होना असंभव है। संक्षेपमें सारांश ( निष्कर्ष ) यह है कि
'रागद्वेषादि विकार रहित शुद्ध वीतराग निश्चय रत्नत्रय स्वरूप ( विशिष्ट ) अपनी आत्माका संवेदन या स्वानुभव होना, 'आत्मज्ञानका होना कहलाता है, और कई प्रकारका ज्ञान होना, आत्मज्ञान नहीं है ऐसा समझना चाहिये यह तात्पर्य है ।'
फलतः जो गुरु उक्त प्रकारके आत्मज्ञानी नहीं हैं वे न स्वयं संसारसागरसे पार हो सकते हैं न दूसरोंको पार लगा सकते हैं किन्तु वे ऐसे हैं कि--
'आप डुबन्ते पाड़े अरु ले डूबे यजमान' पत्थरकी नावके समान है कि स्वयं डूब जाती है और बैठने वालोंको भी डुबा देती है इत्यादि। ऐसो स्थितिमें जो जीव नय विशारद हों, नयोंके अच्छे ज्ञाता हों एवं उनका प्रयोग जहाँ जैसा करने लायक हो वैसा वे करें--भूले नहीं, वे ही सद्गुरू हो सकते हैं, काष्ठकी नाबके समान उन्हें कह सकते हैं । सम्यग्ज्ञानी--अज्ञानी, सुगुरु-कुगुरुमें यही भेद है। फलतः आद्यगुरु सर्वज्ञ वीतराग देव हैं, जो दिव्यध्वनि द्वारा उपदेश देते हैं। उत्तरगुरु-गणधर देव हैं, जो दिव्य ध्वनि
१. मेरा आत्मा ज्ञानस्वरूप है या मेरा स्वरूप ज्ञान है, मैं ज्ञानस्वरूपी हूँ ऐसा अभेवरूपसे गुणगुणीका ज्ञान
होना, आत्मज्ञान कहलाता है जो मिथ्याष्टिको नहीं होता है। वह अपने शुद्ध स्वरूपको नहीं जानता
कि जानने देखनेवाला सबसे भिन्न में हो हूँ इत्यादि । २. संक्षेपमें 'आत्मज्ञान'का अर्थ शुद्ध आत्माका अनुभव होना है, जिसका खुलासा 'आत्मस्वरूपका स्वाद'
आना है, साथ हो-साथ अपूर्ण सुखकी प्राप्ति होना है। अनुभवात्मक आत्मज्ञान उसको कहते हैं जो निराकुल सुखको उत्पन्न करे [ अनुभव ( स्वाद । सुखका जनक होता है | सथा वह अनुभव, मनके स्थिर होनेसे होता है। मन स्थिर, विकल्पोंके छुटने पर होता है । विकल्पोंका छूटना, रागादि कषायोंके छूटने पर होता है, ऐसा कार्यकारण भाव परस्पर है । तदुक्तं--
"वस्तु विचारत भ्याव ते, मन पावे विश्राम रसस्वादत सुख ऊपजे अनुभव ताका नाम"
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सम्यकचारिन । सुन समझकर द्वादशाम शास्त्रको रचना करते है । उत्तरोत्तर गुरु, अन्य आचार्यादिक माने जाते हैं जो उस दिव्यध्वान ( जिनवाणी ) का प्रचार करते हैं। ऐसा क्रम ( गुरुपर्वक्रम } अनादिसे चला आ रहा है इसको समझना अनिवार्य है । अस्तु, अनेकान्तकी सिद्धि नयों के द्वारा ही होती है । वह भी निश्चय और व्यवहार व द्रव्याथिक पर्यायाथिक नयों के ज्ञान द्वारा होती है अतः नयविवरणका जानना जरूरी है ॥ ५९॥
__ उपसंहार कथन नयचक्रको अच्छी तरह समझनेवालोंका मत है कि हिंसा सर्वथा पाप, अधम एवं हेय (त्याज्य ) है, कभी किसी हालत में वह उपादेय और धर्म नहीं हो सकती, यह आचार्य कहते हैं ।
अवबुध्य हिस्य-हिंसक-हिंसा-हिंसाफलानि तत्वेन । नित्यभवगृहमाननिजशक्त्या त्यज्यतां हिसा ॥६॥
जो जीवरक्षक 'धर्म' का सेवक सदा रहता ही ! उसका प्रथम कर्तव्य है कि चारका जानिय घो हो । कौन हिंसा हिस्त्र या है, कौन हिंसक फल जु क्या है ? वक विधिसे चारशाता, अवश ही सब स्यागसा है ॥३०॥ नयाँका जो ज्ञान रखता, भूल वह करता नहीं है।
नहीं जिसको ज्ञान ऐसा, पाप करता नित वही है ॥ अन्यय अर्थ आचार्य कहते हैं कि [ नित्यमबगूहमान: ] हमेशा जीव रक्षा करनेवाले, धर्म ( अहिंसारूप । को पालनेवाल, जाननेवाले पुरुषार्थी जावोंका कर्तव्य है कि वे [ तस्दैन सिधा-हिंसाहिंसा-हिंसाफलानि अवयुध्य ] यथार्थरूपस ( सम्यक् प्रकार ) हिंस्यका या मारने योग्य जीव शिकार) का तथा हिसकका या मारनेवालेका तथा हिमाका या ( जीवधात या प्राणघातका) तथा हिंसाके फलका याहिसा करने से क्या फल या दण्ड मिलता हैया क्याहानिहाता है। इन सब बाताका अवश्य जान लेव.... उन में भूल व प्रमाद न करें, ऐसा करनेसे वह | निजशक्त्या हिंसा त्यज्यताम् ] अपनी शक्ति या योग्यता के अनुसार हिंसा जैसे पाप या अधर्मको अवश्य ही स्याम दंगे अथवा जावकारको उसे अवश्य हय जानकर त्याग देना चाहिये ।। ६० ॥
भावार्थ----बिना जाने किसोका त्याग करना या ग्रहण करना व्यर्थ माना जाता है। तक
१. अहिंसा २. हिंसा आदि चार चीजोंका । ३. जानकार या शाता ।
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mA
' पुरुषार्थसिद्धयुपाय नुसार अबतक हिसा-हिस्पहिसक-हिसाफल, इन बार बातांका वास्तविक ज्ञान न हो जाय तबतक हिंसा या अधर्मका त्याग करना और अहिंसा या धर्मका ग्रहण करना कैसे बन सकता है, नहीं बन सकता। क्योंकि ज्ञानके बिना क्रिया सब बेकार या व्यर्थ होती है, ऐसा शास्त्रोंमें कहा गया है।
अथवा जूसरा अर्थ..... तत्वेन ] निश्चयनयसे [हिंस्य-हिंसक-हिंसा-हिंसाफलानि अवबुध्य ] हिस्थ-हिंसक-हिंसा-हिंसाफल इन चार चीजोंको जानकर [ नित्यमवगृहमान: ] निरन्तर प्रवृत्ति ( उद्यम या पुरुषार्थ ) करनेवाले विवेकी जीव [ निशक्या हिंसा रयताम् ] पद व योग्यताके अनुसार हिंसाका त्याग अवश्य करें या करना चाहिये ।। ६७ ।।
निश्चय और व्यवहारनपसे हिंसादि चार बातोंका निर्धार (क) निश्चयनयसे (१} हिस्य' आत्माका स्वभाव भाव है या ज्ञानदर्शनादि भावप्राण है। उनकी ही हिंसा बचाना अनिवार्य व हितकारी है। तथा (२) हिंसक या घातक विकारीभाव होते हैं ( सगादि विकार जीवके स्वभावको घातते हैं नहीं होने दैते ) तथा (३) हिंसा स्वभावका घात होना है, इसे ही जीवधात या प्राणघास कहते हैं। वह महान् पाप या अपराध है । सथा (४) हिंसाका फल या नतीजा नबोन कर्मोका बन्ध होना और संसारमें रहकर उनका फल भोगता है। यह स्वाश्रित चारों भेद हैं।
(ख) व्यवहारनयकी अपेक्षासे (१हिस्य, एकेन्द्रियादि परजीव माने जाते हैं। (२) हिंसकपरजीव होता है जो दूसरे जीवोंको मार डालता है। जैसे हिस्थ, चहा है और हिंसक बिल्ली है इत्यादि । (३) हिंसा, द्रध्य प्राणोंका घात हो जाना याने शरीर व इन्द्रियोंका वियोग हो जाना है। (४) हिंसाका फल, नरक निगोद आदिको प्राप्त करना, घोर दुःखोंको भोगना है। यह सब पराश्रित कार्य हैं।
ऐसी स्थिति में नयों के शाता पुरुष पेश्तर अपनी ओर दृष्टि रखते हैं---अपना हानि-लाभ देखते हैं और बैसा आचार-विचार करते हैं, जो बुद्धिमानी है। यही निश्चय दुष्टि है जो हमेशा उपादेय है। ऐसे जीव अन्तर्दृशिवाले होते हैं, वे हो संसारसे पार होते हैं। .
अन्तर्दृष्टिका अर्थ-अन्तरात्मा ( सम्यग्दृष्टि ) व बोचकी ( मध्यकी ) दृष्टिवाले भी होता है । अर्थात बहिरात्मा और परमात्माके बीचको अवस्थावाले चौथे गुणस्थानसे लेकर १२ने गुणस्थान तकके जोव सविकल्पक होते हैं इत्यादि उन्हें अन्तर्दष्ट कहते हैं ऐसा समझना चाहिये। अतएव उक्त प्रकार के अन्तर्दष्टियाले अन्तरात्मा अपना लक्ष्य संयोगोपीयसे छूटनेका ही रखते हैं बाहरी लक्ष्य नहीं रखते। यदि कदाचित् अमिच्छासे बह हो भी जाय तो उससे उन्हें हर्ष या प्रसन्नता नहीं होती क्रिन्तु दुःख और हेयता ही होती है। वे सोचते हैं कि यद्यपि संयोगोपर्यायमें या कषायके साथ योगोंके रहते समयमें कभी कषायके अनुसार याग हुआ करते हैं (शरीर आदिको
१, एच-हतं ज्ञानं क्रियाहीने, हता चा शानिनां क्रिया।
पाव किलांघको ग्धः, पश्यन्नपि च पंगमः।--राजवासिक अकलंकदेव ।
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পাৰি क्रिया वैसी होती है ) और कमो योगों के अनुसार कषायोंको वृत्ति ( परिणमन हुआ करती है, किन्तु कषायोंके अभाव हो जाने पर, शरीरादिकी क्रियासे कषाय-भावोंका अस्तित्त्व नहीं माना जा सकता, वह शरीरकी पारिणाभिकी क्रिया मानी जाती है, नैमित्तिकी नहीं, यह भाव है। अस्तु । वह सभी वाह्य क्रियाएँ व प्रवृत्तियाँ अरुचिपूर्वक करता है।
व्यवहार दृष्टिवाले, हमेशा मुख्य रूपसे परको ओर हो दृष्टि रखते हैं, अतः परजीवोंकी रक्षा ( दया-करुणा ) करते हैं और अहिंसा के बालक कोनो है स गनाप बयों का त्याग करते हैं और त्यागी मुनि तपस्वी निष्परिग्रही अपनेको समझते हैं। संयमादि पालनेसे याने रसादिकके या भोजनादिके या इन्द्रियोंके विषयों के त्याग देनेसे अपने को संयमी चारिश्रधारी (श्रमणा-समष्टि साध समझते हैं इत्यादि सब बहिर्दष्टि भलभरी दृष्टि है जो अन्त में हेय है क्योंकि वह अन्तष्टि नहीं है या स्वोभमुख दष्टि या शुद्ध बोतरागदष्टि नहीं है, जो 'आत्मानुभव रूप है' बिना उसके समदष्ट, श्रामण्यपना आदि हो नहीं सकता ऐसा तात्पर्य है और बिना उसके संयम व चारित्रवधर्म समभावका होना असंभव है। बस, यही भतार्थ बोध म होनेसे सारा संसार भला हुआ है जो श्लोक ने ५ में कहा गया था। तभी तो व्यवहार धर्म को धर्म, पर जोनके घातको हिसा व अधर्म, बाह्य चीजोंके त्यागनेको वत या त्याग चरित्र आदि मान रहे हैं जिससे कभी कल्याण या उद्धार होने वाला नहीं है । पराधीनता या परका आश्रय लेना कभी हितकारी नहीं हो सकता, जबतक स्वाश्रय या स्वावलंबन न लिया जाय, स्वतन्त्रता प्राप्त न की जाय, क्योंकि वह सम्यग्दृष्टि ही नहीं है इत्यादि सारांश है।
अन्त में इस श्लोकके अनुसार हिंसा आदिको समझकर उनका त्याग करना उचित है, तभी धर्म पल सकता है और अधर्म त्यागा जा सकता है सबका सार यही है, इस ग्रन्थका बही उद्देश्य है किम्बहुना ध्यान दिया जाय । संयोगी पर्याय में एकष्टि ( द्रव्य या पर्याय, निश्चय या व्यवहार ) नहीं रहना चाहिए सापेक्षदष्टि या स्याद्वाददृष्टि अवश्य रखना चाहिये जबतक अशुद्ध दृष्टि सत्ता में ( मौजूद ) रहे। पश्चात् जब वह अपने आप शुद्ध हो जाती है सब उसमें सापेक्षता और निरपेक्षता का विकल्प ही नहीं रहता सिर्फ एक ज्ञाता दुष्टि ही रह जाती है, जो पारिणामिक भाव या द्रव्य दृष्टि है, धौव्याप है ।। ६० ।।
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चौथा अध्याय
धर्मप्राप्तिकी भूमिका अहिंसाधर्मको पालनेके लिये विविध प्रकारकी हिंसाका त्याग करना बनिवार्य है उसका क्रमवार त्याग करना बताया जाता है ।
[ अष्टमूलगुण पालन मचं मांसं क्षौद्रं पंचोदम्बरफलानि यत्नेन । हिंसाव्युपरतिकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव ।। ६१ ॥
पद्य
हिंसात्याग भावना जिसके उसका मुख कर्त्तव्य यह...मथ मांस बरु मधु त्यागमा, पंच उदम्बर ग्रहण नहीं ।। बत पालनको यही भूमिका, व्यवहरनय बतलाती है। निश्चयममसे मनशुद्धि हो---भूमिशुद्धि कहलाती है ।।१।। भाठ चतुएँ निमिसकारण----हिंसाकी मानी जाती ।
अतः उहीका स्याग कहा है, दयाधर्म सूचक होती ।। अन्यय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ हिंसाव्युपरतिकामै , जो जीव ( मुमुक्षु हिंसा करनेसे विरक्त होते हैं अर्थात् हिंसाको त्यागनेकी भावना रखते हैं, उनको [प्रथममंत्र बस्नन मां, मांस, क्षौद्रं पंचोदम्परफलानि मोक्तव्यानि ] चाहिये कि वे अहिंसा धर्म पालनेके लिये पहिले या प्रारंभ हो--- मद्य-मांस-मधु (क्षौद्र ) का तथा पांच उदम्बर फलोंको खानेका अवश्य त्याग करें क्योंकि उनके खाने में हिंसा अधिक और लाभ कम होता है और वे जीवनके अनिवार्य कारण भी नहीं हैं इत्यादि ॥ ६१ ॥
१. यहाँ पाँच उदम्दर फलों { अमर, कठूमर, बड़, पीपर, पाकर ) का त्याग करना ५, मूलगुण तथा मदिरा,
मांस, मधु ( शहद ) का त्याग ३ मूलगुण कुल ८ मूलगुण बसलाए है क्योंकि उन माठ वस्तुओंमें बहुत जीवराशि रहती है वह उनके ग्रहण करने ( खाने ) से नष्ट होती है जो हिसारूप है पाप या दोषरूप है । उनका त्याग करना गुणरूप है ऐसा समझना चाहिये । वही प्रत या धर्मको नीब है सो प्रत्येक जन्न श्रावक को चाहिये कि उक्त आठ मूलगुणोंको प्रयम पालन कर धर्मके अधिकारी ( पात्र ) बनें । इनमें मतभेद है जो बताया गया है।
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धर्मप्राप्तिकी भूमिका भावार्थ- अहिंसा धर्म ही ( अन्तरंग बहिरंग हिंसाका त्याग ही ) जैन धर्म में सबसे बड़ा धर्म माना गया है, जिसको वीतराग धर्म या निश्चय धर्म भी कहा जाता है। परन्तु उसको प्रात करने के लिये पहिले भूमिका या नीव बनाई जाती है वह भूमिका पहिले ( व्यवहारसे ) दया मन्दकषायके रूप में बनाई जाती है। अर्थात् चरणानुयोगको पद्धतिके आलम्बनसे शुरू की जाती है, जिसे व्यवहारशुद्धि कहते हैं। जैसे कड़ो जमान जब कुछ नरम या गोली होती है तब उसको साफ किया जाता है याने शुद्ध बनाया जाता है। इसी तरह तीव्र कषायके कुछ मन्द होने पर ही दयालुता या जीवरक्षारूप धम उत्पन्न होता है। अत: उसके लिये प्रारंभ में, जिनके बिना भी जीवन स्थिर रह सकता है और हिसापाप बच सकता है, ऐसी अनावश्यक चीजोंका त्याग करना बताया गया है अर्थात् 'एक पन्थ दो काज' होते हैं। अर्थात् धर्म सघता पलता ) है और प्राणरक्षा भी होता है इत्यादि लाभ है इत्यादि । ऐसो स्थिति में लोकापवादसे बचने के लिये और धर्मको प्राप्ति के लिये उक्त अभक्ष्य आठ चीजों का स्वागना अनिवार्य है। अष्टमूलगुणधारी ( पालक ) जोव ही पादाका अधिकारी हो- है दुमा हों यह तमाल विशेषता होती है।
सामान्य न्यायसे देखा जाय तो ये आठ मूलगुण हैं, जो प्रत्येक जैन मृहस्थको भी धारण करने योग्य हैं व धारण करना चाहिये । सभी इनके साथ मूल (प्रारंभ ) विशेषण लगा हुआ है। अगर यथार्थ पूछा जाय तो जिसके मन में या भावों में 'दया या करुणा' का अभाव हो वह जैन नहीं है वह कर परिणामी हिंसक अजैन जैसा है अस्तु । यह ध्यान में रखते हुए 'सदाचार' से रहना जरूरी है चाहे व्रती हो, या अवती हो परन्तु जैन हो । वयवहारधर्मको यह नीव है और अनादि कालसे संयोगी या अशुद्ध पर्याय में व्यवहाररूप वृत्ति जीवकी होती आ रही है जबतक शुद्ध दृष्टि न हुई हो। शुद्धदृष्टि ( निश्चयश्रद्धा ) या आंशिक शुद्धपर्यायके समय 'निश्चय मोक्षमार्ग ही पहिले हुआ करता है किन्तु जब उसमें ( शुद्धोपयोग या वीतरागतामें ) वह स्थिर नहीं रह पाता अर्थात् उससे विचलित जीव होता है तब वहारधर्म ( शुभोपययोग व शुभक्रियाकांड ) में उपयोग ( मन ) को लगाता है, इतना ही नहीं वह उपयोगको एवं योग । प्रवृत्ति ) को अशभसे प्रयत्न करके बिचाता है यह उस व्यवहार मोक्षमार्गा सम्यग्दृष्टिको विशेषता है। अचि करता रहता है।
आठ मूलगुणोंके भेद १. जिनसेनाचार्य--पांच अणुव्रतोंको पालना, मधु, मांस और चूतका त्याग करना ये आठ मलगुण मानते हैं । ये सिर्फ मधक स्थानमें जुआका त्याग करना बताते हैं यह थोड़ा भेद है।
२. समन्तभद्राचार्य-पांच अणुव्रतोंका पालन करना और मद्य मांस मधुका त्याग करना आठ मूलगुण कहते हैं।
३. अमृतचन्द्राचार्यका तो उपर्युक्त मत हैं हो जो सोमदेव आघायंस मिलता है। सोमदेव आचार्य भी यही मानते हैं।
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पुरुषार्थाच
४. वसुनन्दी आचार्य - सात व्यसनोंका त्याग करना ७ तथा पांच उदम्बर फलोंका त्याग करना १ कुल ८ मूलगुण मानते हैं ।
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५. पं० आशावरजी- मद्यमांस मधुका त्याग ३, पांच उदम्बर फलोंका त्याग १, रात्रि भोजन त्याग १, देवदर्शन करना १. जीवरक्षा करना १, जल छानकर पोना १, कुल ८ आठ मूल गुण होते हैं। यह बताते हैं ।
नोट --- ड-अष्ट मूलगुणों के सम्बन्ध में मतभेद होने पर भी लक्ष्य सबका एक है और वह हिंसापाप से बचना है। सबसे अधिक पाप रसना इन्द्रिय और स्पर्शन इन्द्रियोंके द्वारा होता है । इन दोनों पर नियंत्रण होना कठिन प्रतोत होता है और ये दो इन्द्रियाँ हो प्रायः सभी जीवोंके पाई जाती हैं । तदनुसार ही आचार्योंने पेश्तर रसनेन्द्रियके आधारसे हिसापापको छुड़ाया है क्योंकि मद्य आदिक सब रसनेन्द्रियके हो विषय हैं, जिनमें असंख्याते जीव रहा करते हैं और उनके सेवनसे उनका विधात होना अवश्यंभावी है । फलतः यथाशक्ति उनका त्याग कर देना हो श्रेयस्कर है। अतएव मूलमें उन्हीं को लेकर अष्टमूलगुण नाम रखा है अस्तु । अष्टमूलगुणों का पालन दो तरह से होता है ( १ ) अतिचार सहित ( २ ) अतिचार रहित, परन्तु वह योग्यता या पदके अनुसार होता है जो आगे बताया जायगा । दधर्मको पालनेवाले सब तरहसे विचार करते हैं । समुदायरूपसे आठों atri सेवन हिंसा होती है यह तो बतला दिया गया। अब पृथक् २ का दोष बतलाया जाता है । खानपानको शुद्धि करना पहिला कर्तव्य है ।। ६१ ।।
मद्य (मदिरा) के सेवनसे हृदयभाव दोनों हिंसाएं होती हैं । मयं मोहयति मनः मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मम् । freerea जीवो हिंसामविशंकमा चरति ॥ ६२ ॥
पच
पान करने से जीबोका भनें मूर्छि होला ।
सूति न होनेके कारण वह सो धम भूल जाता || होनेके कारण निर्मय वह हो जाता है ।
का भेद न करके निर्भय हिंसा करता है । ६२ ।।
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ मयं मनः मोहयति ] मदिराके पीनेसे इन्द्रियाधीन मन या उपयोग ( ज्ञान ) वेहोश या विवेकरहित पागल जैसा मूच्छित ( अचेत ) हो जाता है । [तु
१. अचेस या मूच्छित - विवेक रहित ।
२. न्याय मा दया
३. निर्भय - निरंकुश |
४. उपयोग या चेतना ।
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धर्मप्रातिको भूमिका
१९९ मोहितचित्तः धर्म विस्मरति ] और मच्छित या विवेकहीन जीव, धर्म या कर्तव्यको भूल जाता है या उसको कर्तव्य अकर्तव्यका ज्ञान नहीं रहता तब [ विस्मृतधर्मा जाव; अधिशक हिंसामाचति ] धर्मको भूल जानेवाला जीव निर्भय और निरंकुश ( स्वच्छंद ) होकर हिंसापाएको करने लगता है, यह भतीजा होता है----द्रव्य और भाव दोनों हिंसाए करता है ।। ६२ ।।
भावार्थ- परिणाम { चित्त या भाव ) खराब होनेसे अर्थात् तरह २ के कुविचार ( विकल्प) होनेसे भाबहिसा होती है ( स्वभावभाव घाते जाते हैं ) और उन मदिरा आदि पदाथो अनगिनत जब होनेसे उनका घात होनेपर द्रव्याहिंसा भरपूर होती है तथा बड़े-बड़े लोकनिन्द्य काम यह कर डालता है, जिससे भयंकर दण्ड आदि इसी लोकमें वह पाता है लोग उससे घृणा करते है--द्रव्य नष्ट होता है इत्यादि अनेक हानियां होती हैं, अतएव वह सर्वथा त्याज्य है । मद्यपायीको दुर्दशा इस लोक और परलोक दोनों में होता है, वह लोकमें मार खाता है, उसके जहाँ-तहा गिर पड़नेसे हाथपांच शिर घायल हो जाते है, अनुचि स्थानमें वेहोश पड़ा रहता है, कुत्ते भी पेशाब कर देते हैं वह मुर्दा जैसा पड़ा-पड़ा सब सहन करता है इत्यादि सजा मिलती है तथा परलोकमें खोटा बन्ध होने के कारण असह्य भरकादिके दुःख भोगना पड़ते हैं, इत्यादि बुराइयाँ बतलाई' जाती हैं अस्तु। मदिरा पीने वालोंका स्वास्थ्य भी बिगड़ जाता है। दमा, खांसी होते हैं उनके फेफड़े खराब हो जाते है और हार्ट फेल भी हो जाता है इत्यादि हानि होती है अतः हेय है ।। ६२ ।।
आगे पुनः अहिंसा और भावहिसा दोनों मदिरापानसे होती हैं यह बतलाते हैं
रसजानां च बहूनां जीवानां योनि रिष्यते मद्यम् । मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यम् ॥१३॥ अभिमानभपजुगुप्सा हास्यारतिशोककामकोपायाः । हिसायाः पर्यायाः सर्वेऽपि च सरकसभिहिताः ॥६४॥
पद्य
समें पैदा होने वाले छात्रों की यह योनि है। मदिरा पाने घार्लोसे तब हिंसा उनकी होता है ।।
१. हमेशा सरल या गौले रहनेमें उसमें उत्पन्न होनेवाले सम्मकछन जीव : मदिराकी उत्पत्ति अनेक तरहके
फलफूल नौज आदिको बहुत समय तक सड़ानेमालानेसे होती है, जिसमें असंख्याते जोष उत्पन्न होते हैं
द हमेशा उत्पन्न होते रहते । अतः उन्हें 'रगुज्ज' याने रससे उत्पन्न होनेवाले कहा जाता है । २. खान या उत्पत्ति स्थान । ३. मदिराके निकट सम्बन्धी याने उसीके समान स्वभाववाले रिश्तेदार इत्यर्थः ।
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पुरुषार्थसिदधुपाये वही इष्य हिंसा है जिसमें, दृष्यप्राय धाते जाते । अत: प्याग उसका बतलाया, धर्मपालने के नाते ।।१३॥ अभिमानादिक जे भाई विकारी बे भी उससे होते है। जनसे मी हिंसा होती है भानप्राय मश जाते है। हिंसाकी पर्याय बिकारीभाव, सदा माने जाने ।
उनसे सुधबुध नष्ट होत हैं, अचेत दशा दोनों करते ॥६५॥ अन्यय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [वाम रमजान बहना जीवन यामिः पयलें] पुनः (फिर] तरलता या गोलापन ( रसरूप । से हमेशा उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी योनिरूप ( उत्पत्ति स्थान ) वह मदिरा है अर्थात् असंख्याते इस जीव उसमें सदैव उत्पन्न होते रहते हैं तब [ मधं भजता तेषा अवश्य हिरा संमायते ] उस मद्यका पान करने वालोंके जन जीवोंका घास होनेसे हिंसा पाप अवश्य ही होता है अर्थात् उनके द्रव्यहिंसा सदैव हुआ करती है ऐसा समझना चाहिये ॥६३॥
इसी तरह [1] और सस्कसन्निहिताः अभिमानभयझुगुप्साहास्यारतिशोककामकोपाथा: हिंसायाः पर्यायाः सर्वपि भवति] मदिराके हो समान स्वभाव या कार्यवाले अंर्थात् अचेतता उत्सन्न करनेवाले ( होसहवास निगाड़नेवाले विवेक रहित बनानेवाले ) अहंकार, (घमण्ड गर्व ) भय, ( शंका ) घृणा, ( ग्लानि-द्वेष ) हँसी, अप्रोति, शोक, विषयसेवनको इच्छा, क्रोध आदि विकारोभाव भी मदिरापान करनेवालों के होते हैं जो कि हिंसाके ही पर्यायवाची शब्द या नाम हैं कारण कि वे भी जीवके स्वभावोंको घालते हैं, नहीं होने देते यह भाव है। तब दोनोंका समान स्वभाव या कार्य ." होनेसे दोनों निकट सम्बन्धी हैं ऐसा समझना चाहिये अथवा उनका परस्पर निमित्तनैमि सम्बन्ध है यह विश्वास करना चाहिये । मदिरा निमित्तकारण है और विकारीभाव (अभिमान नैमित्तिक हैं ऐसा खुलासा है । इनसे भाव हिंसा होती है यह भेद है । परन्तु दोनों त्याज्य {
भावार्य-हिसाए सो दोनों ( द्रव्य व भाव ) बुरी हैं, अधर्म रूप हैं अत: उनका सम्प, या संयोग छोड़ना अनिवार्य है, परन्तु उनका छुटना क्रमसे होता है। संयोगी पर्याय में सभीका संयोग एक साथ नहीं छूटता। ऐसी स्थितिमें पेश्तर लोकाचारके अनुसार बाह्य द्रव्याहिंसाका त्याग तो योग्यतानुसार करना ही चाहिये ( इसो में पांचों पापोंका त्याग शामिल रहता है ) । उसो दृष्य हिंसाको बचानेके लिये बाहिर मदिरादिकका त्याग कराया जाता है। द्रव्यहिसाके विषय में पं. आशाधरजी अपने ग्रन्थ सागारधर्मामुतमें लिखते हैं कि.....
यक्षेकविन्दोः प्रचरन्ति औधाश्चैप्सत् त्रिलोकीमपि पूरयन्ति । 'यद्विक्सवाश्चममुच लोक अस्थति तस्कश्यमवश्यमस्येत् ६१ -सागार.
१. सेवक । २. मदिरा।
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SEAN
Priyan...
ANS
धर्मप्राप्तिको भूमिका घर - जिस पकिराको एक क हनेवाले छोटे असंख्याते जीव अदि परेवाके बराबर हाकर उड़ें तो तीन लोकमें न समावें इतनी बड़ी संख्या ( राशि ) उनकी है, उसके पोनेवाले उन सबका घात कर देते हैं। अतएव उस असंख्यात जीवोंके आधार ( योनि ) भूत मदिराको, जो दोनों लोकों अर्थात् इसभव-परभव या पर्यायोंको बिगाड़ देता है, अवश्य ही त्याग देना चाहिये । उसका छूना भी वर्जनीय है फिर सेवन करने को तो बात ही क्या है ? वह वस्तु हमेशा वर्जनीय है इसीलिये अष्टमूलगुणोंमें उसको प्रथम स्थान दिया गया है किम्बहुना । मदिरा पीनेवालेका मानसिक संतुलन नष्ट हो जाता है अतः वह कभी आत्मघात भी कर बैठता है और बेकाबू हो जाता है।
विशेषार्थ----यद्यपि संयोगोपर्यायमें जीव मदिरादि या अन्नादि परद्रव्यका सेवन करता है जो उपचारमा व्यवहारका कथन है। असल में निश्चयसे देखा जाय तो जीव चेतनद्रव्य है, उसकी खुराक जड़ मदिरा, अन्न आदि परद्रव्य नहीं हो सकती किन्तु जीवको खुराक उसका स्वभाव है, जिससे वह हमेशा जीता रहता है। हो, उस जीयका ज्ञानगण सयामीपायमपराधीन या शन्द्रया धीन है और इन्द्रियाएँ जड पदमलिक हैं। सो जब उनके साथ जब मदिरा आदिका संयोग होत है तब उनमें विकार उत्पन्न होता है, जिससे उनको सहायतासे होने वाला ज्ञान भी विकृत ( अन्यथा ) हो जता है, तब ज्यों-का-त्यों ( सही ) वह नहीं जानता--भूल जाता है। अतएव उस मदिरा आदि विकृत परद्रव्यका भी संयोग सम्बन्ध छोड़ने का उपदेश दिया जाता है, क्योंकि वह निमित्त कारण है, उससे परिणामों में विकार होता है-रागादिक कषायभाव प्रकट होने में मदद मिलती है, जिससे उस जीवको । मद्यपायोको ) स्वयं हिंसा होती है, स्वभाव भावोंका भात होता * तथा मयादिमें रहने वाले अनन्त जीवोंकी हिंसा होती है अतएव दोनों हिंसाओं ( भाव व द्रव्य )
ने के लिये मद्यादिका छोड़ना जरूरी है ऐसा खुलासा समझना चाहिये अस्तु, तभी धर्मका हो सकता है अर्थात् हिंसाके छूटनेसे न 'अहिंसा' के होनेसे ही धर्मात्मा बन सकता है ६४ ।।
२. मांसके खाने ( भक्षण करने } से भी हिंसा होती है यह बताते हैं न विना प्राणविघातात् मांसस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् । मांसं भजतस्तस्मात् प्रसरत्यनिवारिता हिंसा ॥६५॥
जीपश्चातके विना न होती मांग वस्तु की उत्पती । अतः मौसके खानेवाकोसे हिंसा वरवस होती ।।
१. उत्पन्न होती है। २. अनिवार्य-चरचस, अवश्यंभावी ।
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पुरुषार्थसिधुपाय बदनामी भी होत जगत में कृष्णारष्टि उनपर रहती 1 नधि उनकी रहती है, नहीं दया क्षणभर रहती' ॥ ६५ ॥ पापबंध भी होत निरंतर दुखी सदा से रहते हैं।
पापवीज दुःखोंका जाने हिंसामे जो रमते है। अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ यस्मात् प्रागविधाप्तात् विना मांसस्थ उत्पत्तिः न इष्यते ] जब कि विना जीवोंके मारे ( घाते ) मांसकी उत्पत्ति नहीं होती या हो सकता है ऐसा नियम है। [ सस्मात् मांसं भजत: हिंसा अनिषारिता प्रसरति ] तब मांसके खाने वालोंके हिसाका होना अनिवार्य है अर्थात् हिंसा अवश्य २ होती है ।। ६५ ।।
भावार्थ-हिंसापाप सब पापोंमें प्रधान या मूल है, उसीके सब भेद हैं यह पहिले काहा जा चुका है। परन्तु वह हिंसा दो तरह की होती है अर्थात् एक स्वाश्रित { आत्माके भावप्राणोंका
त हानस ) दुसरो पराश्रित अर्थात् अन्य जीवोंका घात होनेसे। ऐसी स्थिति में मांस सम्बन्धी हिंसा पराश्रित हिंसा समझना चाहिये क्योंकि मांसको उत्पत्ति, अन्य सजीवोंके मारनेसे (शिका. रसे होती है-उनका शरीरपिंड हो तो मांस कहलाता है अतएव जन्ब मांसभोजो जीव उसका सेवन करते हैं तब तदाश्रित असंख्याते जीवोंका घात ( हिंसा ) निरन्तर होता रहता है तथा सांस भोजी महान् करस्वभाव वाले निर्दयी तामस प्रकृतिके हा करते हैं उनके हृदय में दयाका संचार या दयाको भावना ( धारा) बिलकुल नहीं रहती इत्यादि फलस्वरूप उस हिसासे वे खोटा ( कुति आदि ) कर्मबंध करते हैं और उसके उदय आने पर वे महान् दुःख भोगते हैं और उस समय रागद्वेष या इष्ट अनिष्टरूप विकल्प या भाव होनेसे नवीन बंध होता है इस तरह दुःख और बंधको श्रृंखला अनन्त काल तक चालू रहती है इसलिये मांस आदिके सेवन करनेसे होने वाला पाप, बंधका मूल कारण सिद्ध होता है ऐसा समझकर विवेकी जोव उसका त्याग ही कर देते हैं।
विशेषार्थ---प्रकृति या नामकर्मकी रचनाके अनुसार प्रायः जीवोंको आकृति और खुराक भिन्न २ प्रकारको देखने में आती है। मनुष्यजातिकी आकृति स्वभावत: नरम व शान्त रहती है अतएव उसकी खुराक (आहार ) भी साधारण.....सादो ( अन्न खानेको ) होती है उनकी खुराक मांस नहीं है अन्न है। मांसका खामा दानवों का है, मानवोंका नहीं है। थलचर पशुओं ( गाय, भैंस आदि ) का आहार घास-पत्ता है । नखवाले पशुओं ( सिंहादि का आहार ऋरस्वभाव वाले होने से, मांस है। पक्षियों ( नभचरों) का आहार, फल पुष्पादि है । तब उक्त प्राकृतिक नियमको उल्लंघन कर मांस खाने वाला मनुष्य महान् अपराधी सिद्ध होता है और उसे परभव में या कभी २ इसो भयमें कठोर सजा मिलती है ।
___ मांस कितना अशुचि पदार्थ है, जिसके देखने मासे घृणा उत्पन्न होतो है, दुर्गन्धि आती है, मक्खियां भिनकती हैं, खानेवाले दुष्ट क्रूर परिणामी होते हैं। अतएव किसी भी अवस्थामें वह खाने योग्य बस्तु नहीं है, अस्तु । इसीका और खुलासा आगे प्रश्नोत्तरके रूपमें किया जाता है ।। ६५ ।। १. धारा नहीं चलती।
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भूमिका
यहाँ कोई मांसभक्षी तर्क करता है कि यदि किसी जीवको मारकर खाया जाय तो वह मांसभक्षी व सिपाप करने वाला माना जा सकता है किन्तु अपने आप ( आयु पूर्ण होने पर ) मर जानेवाले पशुओंका कलेवर ( मांस ) खानेसे न हिंसा होती है न मांस खानेका दोष लगता है ( न लगना चाहिये ) ?
mari इसका उत्तर देते हैं।
raft fre भवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादेः । तत्राषि भवति हिंसा तदाश्रितनिगोतनिर्मथनात् ।। ६६ । स्वपि 'विपच्यमानासु मांसपेशी | निगोतानाम् ॥ ६७ ॥
आमास्वैपि सातत्येनोत्पादस्तज्जातीयानां
पक्ष
e are afer पशुओंका मांस मर गये भी होता । उसके खानेसे होती है हिंसा जब वर्षण होता ॥ ६६ ॥
heat rest और पक रही दशा तीन त्रि होती है । सीमोंमें ही उत्पति होती जीवराशि यह मरती है ॥ ६७ ॥
सम्मूर्च्छन है नाम उन्होंका नाम निगोत घराते हैं। उनका जन्ममरण नित होता वयपर्यातक होते है ||
अन्वय अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि [ किल स्वयमेव मृतस्य महिषभाय मांस भवति ] जो गाय, भैंस आदि पशु स्वयं आयुके पूर्ण हो जाने पर मर जाते हैं उनसे जो होता है वह भी निश्चयसे मांस ही कहलाता है और [ तत्रापि हिंसा भवति ] उसके सेवन करने ( खाने ) से भी fear अवश्य होती है क्योंकि [ तदाश्रितमिगो निमंथनात् ] उस मांसके आधारभूत जो सम्मूच्छेन ( निगोत ) जीव रहते है अर्थात् उसमें उत्पन्न होते हैं, वे धर्षण करनेसे या चबानेसे या स्पर्शादि करनेसे अवश्य ही मर जाते हैं, तब हिंसा बराबर होती है, यह सम्भव है ।। ६६ ।।
१. सम्मूर्च्छन जोत्र |
२. घर्षण या मसउन था दवाउरा ।
३. कच्चा या गीला ( आई ) ।
४. सूखा ( चमड़ारूप ) ।
५. अधपका चुराया जा रहा।
६. मांसकी डली ( टुकड़ा 11
७. उसी जालिके भैंस, गाय वगैरह ।
4.
गोत्र वाले, या उसी कुल-गोत्र वाले जीव । अथवा सम्मूर्च्छन जीव ।
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पुरुषार्थसिधुपाय
तथा
अपि मा पर पानी बिना मा सांसपेशीषु ] और मांसकी डलो चाहे कच्ची ( गीली या आर्द्र तत्कालको ) हो या पकी सुखो हो या अधपकी ( कुछ गीली कुछ सूखी ) हो उसमें [ सासन्येन तरजातीयानां निगोतानां उपादः भवति ] निरन्तर उसी जातिके ( जिस जातिका मांस हो ) सम्मूच्र्छन । लकव्यपर्याप्तक) जीव उत्पन्न होते रहते हैं अतः मांसके या नगड़ाके भी उपयोग ( सेवन ) करनेसे, उनका घात ( हिंसा ) होना अनिवार्य है ।। ६७॥
भावार्थ-मांसपिंड, चाहे स्वयं मरे हुए जानवरका हो या मारे गये जानवरका हो अथवा चाहे वह गोला हो या सूखा हो या अवसूखा हो, उसमें हर समय उसी जातिके सम्मूच्छंन सजीवलब्ध्यपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं, अतः जो प्राणी ( लोग) उसका सेवन या उपयोग करते हैं वे असंख्याते जीवोंका धात ( हिंसा ) बराबर करते हैं, जिसका फल उनको भयंकर दुःखोंके रूपमें भोगनेको मिलता है ऐमा समझना चाहिये एवं उसका उपयोग करना छोड़ देना चाहिये यही मनुष्यता है, विवेकशीलता है, किम्बहुना । चमड़ेकी चीजोंका उपयोग करना भी इसीलिये वर्जनीय है, क्योंकि उसमें उत्पन्न होने वाले जीवोंको हिंसा स्पर्शसे, रगड़से, कुचने-पिचनेसे अवश्य होती है।
सारांश यह है कि 'मांस' यह एक शरीरगत धातु है, जो कि रक्तसे उत्पन्न होती है अर्थात् पहिले शरीर में जानेवाले पदार्थ खलरूप परिणत होते हैं, पश्चात् वे ही खलरूप ( खरोरूप ) पदार्थ, रसरूप ( पानीकी तरह तरल ) परिणत होते हैं। उसके बाद वह रसभाग, रक्तरूप ( खूनरूप ) परिणत होता है। फिर वही रक्त, मांसरूप ( पिंड वकड़ा ) परिणत होता है। फिर मांससे चर्बी उत्पन्न होती है। चर्वीसे ( मेदासे ) हड्डो बनती है । उस हड्डीसे मज्जा ( छोटे नसाजार ) होतो है और मज्जासे वीर्य उत्पन्न होता है तथा फलस्वरूप वीर्यसे सन्तान उत्पन्न होती है। इस प्रकार प्रक्रिया' है।
नोट-इनमें विशेषता यह है कि जबतक ये धातुएँ गरम ( उष्ण्य ) रहती हैं तबतक उनमें जीय उत्पन्न नहीं होते वे प्रासुक याने जीव रहित होती हैं और जब वे ठंडी हो जातो हैं तब उनमें जीवराशि उत्पन्न हो जाती है ऐसा जानना ।
फिर मरे हुए व मारे हुए जीवोंके मांस में भेद करना मूढ़ता ( अज्ञानता ) है-दोनों तरहके मांसपिंडमें कोई भेद नहीं होता, दोनों त्याज्य हैं, दोनोंमें जीवराशि उत्पन्न होती है व मरती है अतएव मांस सदैव वर्जनीय है।
यहाँ पर हिंसाके प्रकरणमें मुख्यतया द्रव्याहिंसाका कथन किया गया है जो लोक प्रसिद्ध है। परन्तु उसके साथ २ भावहिंसाका कथन भी सिद्ध हो जाता है क्योंकि बिना कषायभावोंके (भाद
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१. उक्तं च---
रसाद्रक्तं ततो मांसं, मांसान्मेदः प्रवर्तते। मदतोऽस्थि सतो मज्ज, मज्जाउछु ततः प्रजाः ।। चरक ।
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অমাষি মুমিকা
२०५ हिसारूप ) द्रव्यहिंसा बहुधा नहीं होती, भावहिंसापूर्वक द्रव्यहिंसा होती है यह नियम है। उसको ही संकल्पी द्रव्याहिंसा कहा जाता है । तथा खानेका राम होना व खाकर रागका होना सभी भावहिसा रूप है अस्तु ।। ६७ ॥
अन्तिम निष्कर्ष आमा वा पक्वां वा खादति यः स्पृशति वा "पिशितपेशी । स निहन्ति सततनिचितं पिंडं "बहुजीवकोटीनाम् ॥ ६८ ।।
पद्य गीकी सूत्री अधसूखी भी मांस सी जी होती है। उसमें जीवराशि बहु होती खानेसे यह मरती है । पाप प्रला हिंसासे होता.धर्म अहिंसाले . होता।
इसना नहीं चिक जिसे है. अम्म असारथ यह खोला । ६४ ॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [य: भामां या पक्षो का विशिसपेशी खादति का स्पृशति । जो जीव गोले या सूखे मांसकी डली (टुकड़ा) को भी खाता है या छूता भी है [ स बहुजीयकोटीमा सतप्सन्निचित विं निहन्ति ] वह बहुत कालसे संचित हुए { एकत्रित ) अनंते जीवोंके पिंड (समुदाय-राशि) को नष्ट कर देता है अर्थात् उनकी हिंसा कर देता है, यह पाप उसे लगता है। अतएव उसका त्याग ही विवेकी जीवोंको कर देना चाहिये अन्यथा उनकी जिन्दगी बेकार समझना चाहिये, यह तात्पर्य है ।। ६८ ।।
भावार्थ----हिसापापके बराबर कोई अधर्म नहीं है और अहिंसाके बराबर कोई धर्म नहीं है। इतना विवेक जिस मनुष्यको न हो वह मनुष्य नहीं है पशुके समान है या नरपशु है, और उसकी जिन्दगी बेकार है। ऐसी स्थिति में हिंसाका आरंभ ( कार्य ) बहुधा छोड़ हो देना चाहिये । यदि यह सर्वथा त्याग नहीं कर सकता हो अर्थात् कारोबारी या उद्योगी-गृहस्थ व्यवसायी हो तो उसे भी शनै: ( थोड़ा २) त्याग करना ही चाहिये यह कम है क्योंकि बिना पापारंभके त्यागे उद्धार नहीं हो सकता । खानेके सम्बन्धसे साक्षात् मास था अंडे वगैरहका त्याग तो आरंभी गृहस्थके भी होना चाहिये । वह तो मनुष्यका आहार है ही नहीं-यह प्रकृति विरुद्ध है किम्बहुना ॥ १८ ॥
२. मांसकी डली-टुकड़ा । ३. चिरकालके संचित । ४. करोड़ों अनन्ते जीवोंका समुदाय मांस है। ५. व्यर्थ-निष्फल।
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पुरुषार्थसिद्धा
३. आगे मधु ( शहद ) के सेवन में हिंसाका होना बतलाते हैं। मधुशलमपि प्रायो मधुकर हिंसात्मको भवति लोके । भजति मधु मृदधीको यः स भवति हिंसकोऽत्यन्तम् ॥ ६९ ॥
पद्म
मधुका एक बिन्दु मो बनता मधुमक्खीकी हिंसासे । अतः उसे जो सेवन करते मूढ़ न वचते हिंसासे || अरु मक्खीका उगलॅन है । घोर अरुचि कूeraरें है । ६९ ॥
हिंसा-मूल मधू भी होला, ऐसा अशुच पदार्थ नहिं
अन्वय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि [ लोके प्रायः मधुशलमपि मधुकर हिंसात्मको भवति ] प्रायः लोक या देखने में ऐसा आता है कि मधुकी एक बूंद भी भघुमक्खियोंकी हिंसा ( घात से हो तैयार होती है अतएव [ यः सूधीक: मधु भजति ] जो मूढबुद्धि ( अज्ञानी ) जीव मधुका सेवन करता है ( मधु खाता है ) [ अध्यम् हिंसको भवति ] वह महान हिंसक या हिंसाका करनेवाला होता है ||६||
१. विन्दु । २. मधुमक्खी ।
भावार्थ- मधुकी उत्पत्ति मधुमक्खियोंके अडोसे या उनके उगाल ( जूठन ) से होती है । कारण कि जब मधुमक्खियों उड़ उड़ करके तमाम फूलों (पुष्पों ) और रसोले पदार्थोंपर जाती है. तब वहाँ उनका रस मुँह में भरकर लाती हैं तथा अपने छत्ते में उड़ेलती है वहाँपर वह रस एकत्रित होता है, जिसमें असंख्याते जीव अंडों द्वारा या वैसे ही सम्मूर्च्छन उत्पन्न होते रहते हैं। ऐसी स्थिति में जो उस मधुको खाते हैं वे उन जीवोंका घात होनेसे हिंसक व महापारी बन जाते हैं । raya जब उसके बिना खाये भो जीवन निर्वाह हो सकता है तब उक्त प्रकारके अशुचि ( कूड़ाघर समान और घृणाकारक पदार्थको नहीं खाया जाय तो बेहतर हो ! वह खाना एक प्रकारका शोक है-विवेकशून्यता है । विषय कबायका पोषण करना है जो महान अपराध है, पापबंधका कारण है, घोर दुःखोंका बीज है, लोकमें निन्दाकारक है - सदाचारला में कलंक या बट्टा है। इसके सिवाय वह परिणामोंमें क्रूरता ( तामसभाव .) लाने वाला है बड़े-बड़े अनर्थ करानेवाला है इत्यादिअतः उसे छोड़ देता हो हितकर है उसका त्यागनेवाला ही अहिंसक या धर्मात्मा बन सकता है किम्बहुना
३. उगाल- जूठन ४. कूड़ाघर या पिठ |
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धर्मप्रासिकी भूमिका मधुके विषयमें सर्क और उसका समाधान किया जाता है। स्वयमेव विगलितं यो गृहीयाद्वा छलेन मधुगोलात् । तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रितप्राणिनां घातात् ॥७०।।
पद्य
गहुमखीरे गये तो दासी खाते हैं। भया सलसे भाग जलाकर मक्खी मार भगाते हैं। दोनों में हिंसा होती है स्वयं गिरे या मिरवाये ।
उसके आश्रित बहनेघाले जीव मरें जो खानाये ॥७०।। अन्वय अर्थ-आचार्य उस तकंचालेको समझाते हैं कि भाई [ यः स्वयमेश विगलितं मधु गृहीयात ] जो प्राणो मधुमक्खीके छत्तासे स्वयं टपकी हुई बँदको भी ग्रहण करेगा [ वा छलेन मधुगोलात् विगलितं गृहीयात् ] अथवा छल कपटसे छत्ताको गिराकर या जलाकर प्राप्त हुई मधुको ग्रहण करेगा ( स्वायमा) [सत्रापि तदाश्रितप्राणिनां धासात हिंसा भवति ] उस दशामें भी, उस मधुमें या छत्ते में रहनेवाले जीवोंकी हिंसा अवश्य होगो व उसे हिंसाका पाप लगेगा हो । अतएव तर्कवालेका यह तर्क ठीक नहीं है कि स्वयं टपके हुए मधुके खाने में हिंसा नहीं हो सकती इत्यादि ||७०||
भावार्थ-जो पदार्थ, जीवोंको उत्पत्तिका आयतन ( आधार निमित्त या योनि ) हो, वह पदार्थ कभी जीवोंसे रहित ( खाली ) नहीं हो सकता; किन्तु उसमें सदैव असंख्याते जीव उत्पन्न होते व मरते रहते हैं। ऐसी स्थिति में मइ-मांस-मधु, ये तीनों पदार्थ, अनंते जीवोंका घर हैं ऐसा समझना चाहिये अतएव जो इनको खाता है, स्पर्श करता है या अन्य उपयोगमें लाता है उसके हिंसा अवश्य होती है अर्थात् वह हिंसक बराबर होता है, चाहे वे पदार्थ स्वयं उपजे या उपजाये जावें, उनके स्तेमाल करनेसे हिसा बच नहीं सकती यह नियम है। तब व्यर्थ ही तर्क या विकल्प उठाकर अनर्थका पोषण करना उचित नहीं कहा जा सकता, वह लोकनिध और महान् अपराधी सिद्ध होता है। उपचकूलो सदाचारी विवेकी जीव, कभी नीच कर्म नहीं करते । वे सदा अपनी कुलमर्यादाका ख्याल रखते हैं चाहे उनपर कितनी भी आपत्तियाँ आजावें । लोकमें प्रतिष्ठाका कारण उच्च आचार विचार ही होता है, उससे जीवको बड़ो प्रसन्नता व खुशी होती है तथा शुभास्रव भी होता है, पुण्यका बंध होता है और उसके उदयसे सांसारिक विभूति व सुख प्राप्त होता है। अतः अच्छे कार्य करना चाहिये । चावकि ( नास्तिक का सिद्धान्त ठीक नहीं माना गया है वह हेय और निन्दनीय है। उसका सिद्धान्त 'खाना पीना मौज उड़ाना है उसके माननेवाले, धर्मपर विश्वास नहीं करते। वे परलोकको भो' नहीं मानते अतएव निर्भय और स्वच्छन्द हो सब कुछ खाते
१. भूखे रहनेपर भी देखो नहीं सिंह तृण खाता है । विपतिकालमें भी कुलीनजन मीच कर्म नहि करता है। नीतिवाक्य ।।
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पीते हैं। उनका यह मत है कि खानेके लिये जीना है--विषयादि सेवन करना ही जीवनका उद्देश्य है, जो गलत । किन्तु विवेक बुद्धिमानोंका सिद्धान्त 'जीनेके लिये खाना' ठोक है गलत नहीं
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आगे ती त्यागी ( अहिंसापालक पुरुष मद्याविको घिनावने व हानिकारक अभक्ष्य मानकर उनका त्याग करते हैं, यह बताया जाता है।
मधु मयं नवनीतं पिशितं च महाविकृतयस्ताः । वल्भ्यन्ते न व्रतिनौ तद्वर्णा जन्तवस्तत्र ॥ ७१ ॥
पद्य
मधमा अरु मधु नैनू ये चार पदारथ ऐसे हैं । जिनमें जीव हमेशा रहते अतः यती नहिं खाते हैं हैं वे बुरे दिखत हैं, और अनेक रोग करते । दोनों लोक विमार करत हैं,
अरु हिंसा कारक होते !! २१ ||
अन्वय अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि [ मधु मथं नवनीतं पिशितं च महाविकृतयः ] मधु-मदिरानैनू-मांस ये चार चीजें महान विकार ( रोगादि ) और घृणा कारक है। अतएव [ ता: हसिना न बभ्यन्ते ] उन अशुच और रोगोत्पादक विरूंप चारों चीजोंको व्रतीपुरूष अर्थात् विवेकी अष्टमूलगुणधारी जीव नहीं खाते ( सत्पुरुष कुलीन मनुष्य उनका रोवन नहीं करते ) कारण कि [ च वर्णा जन्तवः सन्ति ] उन उक्त चार चीजोंमें उसी जाति ( गोत्र ) के बहुतसे सम्मूच्छेन जीव रहा करते हैं, सो उनके खानेसे उन सबका घात होता है-हिंसा पाप लगता है, प्रतिज्ञा भंग होती है ॥ ७१ ॥
भावार्थ- व्रतधारण करना और उसकी रक्षा करना बड़ा कठिन कार्य है, बड़ा विचार और आचार ( संयम ) करना पड़ता है तब कहीं व्रत पलता है । और उसके लिये भूमिका ( पात्रता ) बनानी पड़ती है | वह भूमिका उक्त मद्यादि चार चीजोंके त्याग करनेसे तैयार होती है, इतना ही नहीं, साथ में और भी त्याग करना पड़ता है जो आगे सब बताया जानेवाला है किन्तु सबका मूल यही है, इसलिये इनपर अधिक जोर दिया गया है। रसनेन्द्रियके वशीभूत होकर जीव अन्धे जैसे Prasain हो जाते हैं भक्ष्य अभक्ष्य कुछ नहीं देखते । अतएव रसना इन्द्रीको वश करनेके लिये अर्थात् उसपर अंकुश लगानेके लिये ( इन्द्रिय संयम पालनेके लिये ) उपर्युक्त चीजोंका त्याग करना afear है। शौकसे या रागादिककी प्रबलतासे जीव भ्रष्टाचारकी ओर तेजीसे बढ़ते जा रहे हैं-धर्माचारी और विलोंका ध्यान जाता है अतएव आचार्यप्रवरने श्रावकों (सद्गृहस्थों ) को
१. नैनू या मक्खन ।
२. विवेकीजन-सत्पुरुष । ३. बुरे दिखनेवाले कारक ?
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সমধিকী সুমিষ্টা
२०१ समझानेके लिये पूज्य श्रीसमन्तभद्राचार्यको कृति 'नकरड श्रावकाचार' को सरह इस पुरुषार्थीसद्धि अन्य ( कृति ) के द्वारा श्रावकों को पर्याप्त सावधान किया है.--धर्ममें लगाया है, अधर्म छुड़ाया है, ऐसा महान उपकार किया है, जो निरपेक्ष होनेसे शुभोपयोगका कार्य उचित ही है । उन्होंने शुद्धोपयोगकी रक्षाके लिये यह प्रयास किया है, जो परोपकारमें शामिल है शुभोपयोगी साधु ( मुनि ) आचार्य अपने पदके अनुसार भक्तिवात्सल्प आदि कार्य कर सकते हैं ऐसी आगमकी आशा है, परन्तु उन सबका लक्ष्य शुद्धोपयोगकी प्राप्ति होना अवश्य चाहिये किम्बहुना। शुद्धोपयोगको रक्षा अर्थात् अशुद्ध निश्चयमयसे शुद्धोपयोग अथवा नामान्तरसे शुभोपयोगमें उपयोग लगाने ( रमाने) के लिये और अशुभ उपयोगसे चित्त ( उपयोग ) को हटानेके लिये ऐसा उपयोगी कार्य ( ग्रन्थरचना आदि ) किया है, जो बीचका आलम्छन है लेकिन उसको भी लक्ष्य में हेय मानते रहे हैं (बंधका कारण होनेसे उससे भी अरुचि करते रहे होंगे अतः पुण्यवेध भी हेय है । इस प्रकार प्रती विवेकी अपना कर्तव्य साधक अवस्था पालते हैं यह विशेषता है लक्ष्य सबका हिंसासे बचकर अहिंसा व्रतको पालनेका ही रहता है ।।७१|| अस जीवोंको योनिरूप पाँच उवम्बर फलोंके खानेसे भी हिंसा होती है
अतएव वे भी अभक्ष्य हैं, यह बतलाया जाता है। योनिरुदम्बरयुग्मं प्लक्षन्यग्रोधपिप्पलफलानि । सजीवानां तस्मात्तेषां तद्भक्षणे हिंसा ॥७२॥
पश्च
ऊमर कठऊमर अरु पाकर बर पीपर ये फल हैं पाँच असजीयोंका घर है पाँची खानेमें हिंसा है साँच ॥ भार: सुधीशन नाहिं खाते हैं अभक्ष्य हिमामय पहिचान 1
हिंसासे बचने के खातिर 'जीम' लगाम लगाने ध्यान ।। अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ उदम्बरयुग्मं न्यग्रोधापपलफलानि सजानानां योनिः] कमर कठूमर ये दो तथा पाकर बर पीपर कुल ५ असजीवोंकी योनि या घर आयतन ) है तस्मा सभक्षणे रोषा हिंमा भर्थात ] इसलिये उनके खाने में उनके आश्रित ब्रमजीवोंकी हिंमा अवश्य होती है या होना संभव है । फलत: उन्हें नहीं खाना चाहिये । त्याग कर दिया जाय ) 11 ७२ ।।
भावार्थ---जिस तरह मद्यमांसमधु और नवनीत हिंसाके आयलन होनेसे त्याज्य ( हेय } हैं, उसी तरह ऊमर कठूमर आदि पांच उदम्बर फल भी सजीवोंका आयतन ( योनिभूत । होने से अभक्ष्य हैं, खाने योग्य नहीं हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिये. क्योंकि फल या लाभ थोड़ा और हानि (पाप) अधिक होती है। अतएव ये अनुपसेव्य और उन्हहफल जैसे हैं। अत: विवेकी पाचभोरु लोग इनका सेवन कभी नहीं करते....इनमें उड़ते हुए असंख्याते जोध दृष्टिगोचर होते हैं ....जो न खानेसे बच जाते हैं अर्थात् मरते नहीं है, उनको रक्षा होती है। यह सब रसनेन्द्रियका वशीकरण २७ P
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२.
पुरुषार्थसिद्धपुपाय और कषायोंका नियंत्रण है, जो इन्द्रियसंयममें शामिल है। संयमी जीव हो सफल माना जाता है किम्बहुना। आगे पाँच फलोंके सम्बन्ध तर्क और उसका समाधान किया जाता है।
(किसी भी रूपमें ये भक्ष्य नहीं हैं ) यानि तु पुनर्भवेयुः कालोच्छिन्नत्रसाणि शुष्काणि । भजतस्तान्यपि हिंसा विशिष्टरागादिरूपा स्यात् ॥७३॥
सूखे पाँच उदम्बरफलके खाने में हिंसा होसी । काल बीत जाने पर उनमें पुनः जीवराशि होती ॥
और ती चिके कारण हा भावरूप हिंसा होती ।
दोमो हिसाओंके कारणचफसी न भक्ष्य होता ॥७३॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि यह तर्क या आशंका नहीं करना चाहिये कि जो पाँच उदम्बरफल बहुत समयके सूखे हैं, उनके खाने में हिंसा नहीं होती। किन्तु | यानि पुनः कालोधिछन्नअस्मणि भवेयुः ] जो फल बहुत समय तक सूखने के बाद अराजीव रहित हो जाते हैं [ तान्यपि मनसः विशिष्ट रागादिरूपा हिंसा स्यात ] उनके खाने में भी अत्यन्त राग होनेसे भावहिंसा अवश्य ( अनिवार्य ) होती है तथा प्रति समय योनिभूत होनेसे उनमें नये २ जीब उत्पन्न होते रहते हैं उनका बात होने से द्रयहिंसा भी हुए बिना नहीं रहती अतः वे सर्वथा वर्जनीय हैं ।।७३।।
भावार्थ-पूर्ण अहिंसक, तभी कोई जीव होता है जब कि वह द्रव्य और भाव दोनों तरहको हिंसाओंका त्याग कर देखें, लेकिन दोनों तरहकी हिसाओंका त्याग करना सरल नहीं है कठिन है । जबतक जीव संयोगी पर्याय में रहता है तबतक एक-न-एक हिंसा होती रहती है क्योंकि प्रवृत्तिमार्गम ( आरंभ दशामें ) प्रायः सभी कार्य करने पड़ते हैं। जैसे स्वाना-कमाना-चलना-फिरना व्यवस्था करना-करवाना आदि २, उन सबमें लोकमें व्याप्त ( भरे हुए) सूक्ष्म व स्थूल जीवोंकी हिंसा {प्राणघास ) होती ही है 1 तथा कपायोंके अनुसार कभी अन्य जीवोंक मारने का इरादा भी होता है और कभी नहीं होता। इसी तरह दुःस्व देने व सुख देनेका भी इरादा होता है और तदनुसार शारीरिक वाचनिक क्रिया भी जोब करते हैं। तदनुसार उनको पापपुण्यका बंध होने से उदयके समय दुःखसुख भोगने में आते हैं । तरह २ की दशाएं भोगनी पड़ती हैं । अतएव बुद्धिपूर्वक योग्यतानुसार द्रव्याहिंसा व भावहिंसाका त्याग करना ही चाहिये अर्थात् अधिक न राग द्वेष करना चाहिये न अनापसनाप ( यद्वातद्वा ) व्यर्थ ( निष्प्रयोजन ) प्रवृत्ति था आरंभ ही करना चाहिये तभी कल्याण हो सकता है अन्यथा नहीं । विषय-कषायोंको घटाना व हटाना विवेकीका कर्तव्य है । तब स्वार्थवश तरह २ के विकल्प व तर्क करना अनुचित है किम्बहुना ।
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धर्मप्रालिकी भूमिका नोट-जो जीव अधिक रागद्वेष ( तीन अषाय) वश अपने विषयकषाय पोषणके लिये पेशतरसे हो संञ्चित चीजें सुखाकर उपयोगमें ( खाने में लाते हैं उनके भावहिंसा बराबर होती है याने बिना उनके खाये भी परिणामोंमें राग शुरू जबसे होता है तभीसे भावप्राणों ( ज्ञानादि गुणों ) का घात होने लगता है। बार.२ उस तरफ उपयोग जाता है, चिन्ता व बिकल्प होते है। अत: वह है तो अपराध, परन्तु न न पदार्थाका बारे में और शायागुठा समय वैसा अरुचिपूर्वक किया जाय तो वह जायज ब कम अपराध है, जो गृहस्थों ( श्रावकों) से बच नहीं सकता ( असंभव है। ऐसी स्थिति में जो पदार्थ अभक्ष्य हैं उनमें यह न्याय लागू नहीं हो सकता कारण कि उनका खाना तो शौकब अल्यासक्ति है-तीन के.पाय है, जिससे महाबंध होता है, अधिक सजा मिलली है 1 शाकमाजी सचित पदार्थों को सुखा करके या चुरो करके ( अग्नि पर पका करके ) खाने वाले जीव, सचित्तत्यागी, इन्द्रियसंयमी हैं, असंयमो नहीं है वे ऐसा कर सकते हैं.... उनका तीध राग नहीं है मन्द है, क्योंकि वे भक्ष्यपदार्थ हैं। किन्तु जो पदार्थ सर्वथा अभक्ष्य हैं किन्तु लीन राग होने के कारण सुखाकर पकाकर उन्हें भक्ष्य या अचित्त करना या बनाना चाहते हैं वे ऐसी खटपटी क्यों करते हैं जो अनर्थरूप है । बे पदार्थ कभी भक्ष्य या शुद्ध हो ही नहीं सकते अतः उनके लिये प्रयास करना व्यर्थ है—निषिद्ध है, अस्तु ।। ७३ ।।
आचार्य शिथिलताको दूरकर याबकोंको मूलगुणोंके पालनेमें सतर्क या सावधान करते हैं कि विना अष्टमूलगुण पाले तुम धर्म उपदेशके पात्र नहीं हो सकते।
नोट-(पेश्तर प्रारंभमें श्लोक नं० ८ में निश्चय व्यवहारको समझने पर ही देशनाकी पायता बतलाई थी यह दुबारा है। आचार्य इस प्रकार समय-समय पर सम्यग्दर्शनादिके विषयमें सावधान करते जाते हैं ऐसा समझना ।
अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवयं । जिनधर्मदेशनायाः भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः ।।७४।।
मद्यादि आठों वस्तुएँ अभिम तथा दुर्लभ्य हैं। अरु पापकारक जानकर सजना उन्हें कर्तव्य है ॥ जिसका हृदय नहिं शुरु हो वह जैन बन सकप्ता नहीं।
अरु देशलाका पात्र भो किस भोति हो सकता केही ॥४॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ अमूनि अष्टौ अनिष्टदुस्तरदुरितायतनानि परिवर्थ ] पूर्वमें कही मद्यादि आठ वस्तुएँ अप्रिय अहितकारक दुर्लभ और महान् पापोंका ( हिंसाका ) घर १. पापोंका पर। २. प्रश्न सूचकनहीं हो सकता।
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पुरुषार्थसिख धान हैं, अतएव उनका त्याग करने पर हो [शुद्धधियः जिनधर्मदेशमाया; पाश्राणि भवसि ] निर्मल चित्त होते हुए ( अशुद्धता त्यागते हुए ) भव्यजीव जिनवाणी या जिनधर्मका उपदेश सुनने के अधिकारी ( पात्र-योग्यतासम्पन्न होते हैं, अन्यथा नहीं, यह नियम है ।१७४।।
भावार्थ--'जबतक हृदयकी कलुषता ( अशुद्धता या विकारपरिणति----पापको वासना ) नहीं निकल जाती अर्थात हृदय ( उपयोग ) शुद्ध नहीं हो जाता तबतक न धर्मका उपदेश सुना जा सकता है न सुनने की रुचि ही उत्पन्न हो सकती है. गोंकि योगकी क्रिया संयोगी पर्याय में बहुधा कषायके अनुसार हुआ करतो है अर्थात् जैसा कषायका उदय हो वैसे ही भाव व बाह्य कियाका प्रवत्तेन भी होते हैं सदनुसार यदि मनमें खोटा विचार हो ( दुबुद्धि हो ) तो हमेशा उसकी ही ओर उपयोग जायगा, कभी अच्छा उपयोग न होगा-...-आत्मकल्याणको भावना न होगी। न धर्मका उपदेश सुनेगा, न धर्मका कार्य करेगा न उसकी धारणा होगी । हृदयपर असर न होगा) कारण कि साफ बस्त्रपर ही रंग चढ़ता है और बहुत समय तक स्थायी रहता है, यह नियम है। ऐसी स्थिति में पहिले हृदय स्वच्छ (निर्मल ) होना चाहिये अर्थात् मिथ्यात्व पाएँ छूटना चाहिये, यह सारांश है । धर्म धारण करने के लिये अधर्म या पाप करना बंद कर देना चाहिये ----वह अनिवार्य है अस्तु।
उत्सर्ग व अपवावका स्पष्टीकरण व समन्वय जैन शासनमें अनेक पारिभाषिक या सांकेतिक शब्द ऐसे हैं जो अपनी खास विशेषता रखते हैं वे अन्यत्र नहीं पाये जाये जाते हैं, तथा उनकी संगति भी सभीके साथ नहीं बैठती-तब विना समझे लोग भूल भटक जाते हैं अर्थका अनर्थ कर बैठते हैं, विवाद या विसंगति हो जाती है । यद्यपि विबादको दर करने या मिटानेके लिये स्यादाद या अनेकान्त' न्याय बतलाया गया है तथापि जब तक उसका रहस्य हृदयंगम न हो ( अनुभवमें न आवे ) व अपेक्षा न बतलाई जावे ( मुह मिल रहे), तबतक संतोषजनक समाधान नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में कुछ संकेतोका परस्पर समन्वय करना उचिस जान पड़ता है अस्तु ।
जैनागममें सर्वोत्कृष्ट 'मोक्ष' पदार्थ को प्राप्त करने के दो मार्ग उपाय) बतलाये गये हैं (१) निश्चयमार्ग, (२) व्यवहारमार्ग। इन्हीं के स्थान ( एवज ) में (१) उत्सर्गमार्ग (२) अपबादमार्ग। अथवा (१) वीतरागमार्ग (२) सरागमार्ग । अथवा (१) निवृत्तिमार्ग, (२) प्रवृत्तिमार्ग, ऐसे पर्याय बाची नाम ( वाचक ) बतलाए गये हैं, परन्तु उन सबका बाचार ( अर्थ ) एक हो है, उसमें भेद नहीं है अर्थात् बाब्दभेद है परन्तु अर्थ भेद नहीं है इत्यादि ।
तदनुमार यहाँ पर धर्मके प्रकरणमें दो भेद किये गये हैं (१) सकलधर्म या सकलखत, अर्थात् (१) उत्सर्गधर्म । पूर्ण अहिंसाधर्म या पूर्ण निवृत्तिरूप वीतरागधर्म और १२) अपवादधर्म ( अपूर्ण अहिंसाधर्म या कुछ निवृत्तिरूप व कुछ प्रवृत्तिरूप सरामधर्म ) मुख्यतया उत्सर्गधर्मधारी मुनि ( अनगार ) होते हैं और मुख्यतया अपवादधर्मधारी श्रावक ( सागार होते हैं यह समन्वय है । फलतः निश्चयमोक्षमार्ग वीतरागतारूप या निवृत्तिरूप है तथा व्यवहारमोक्षमार्ग सरागतारूप
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धर्मप्राप्तिकी मूमिका
२१॥ या प्रवृत्तिरूप है ऐसा समझना चाहिये । तभी तो यहाँपर यह कहा गया है कि जो लोग (श्रावक) पूर्ण अहिंसावत या धर्म धारण नहीं कर सकते, कारण कि उनके भोग व उपभोगके साधन (व्यापारकृषि आदि) मौजूद रहते हैं, जिनमें खासकर स्थावर ( एकेन्द्रो ) जीवोंकी हिंसा होती है, उसका त्याग करना अशक्य व असंभव है । उनको असहिमा ( द्वीन्द्रियादिका घात) का त्याग तो यथाशक्ति करना हो चाहिये अथवा जो अप्रयोजनभूत स्थावर हैं उनका भी त्याग करना चाहिये, क्योंकि प्रयोजनभूतका ) त्याग नहीं किया जा सकता। ऐसा करना यद्यपि अपवाद मार्ग है ( पूर्णवीतरागता. रूप या पूर्णअहिंसारूप बनाम पूर्णनिवृत्तिरूप या निश्चयरूप नहीं है ) तथापि एकदेशरूप याने कुछ सरागरूप कुछ विरागरूप, कुछ प्रवृत्तिरूप कुछ निवृत्तिरूप होनेसे वह एकदेशव्रत या धर्मको पालने वाला अणुव्रती या अहिंसाधर्मी माना जायगा और उसका जीवन मोक्षमार्गी (कथंत्रित) होनेसे सफल होगा किम्बहुना । सर्वथा धर्म रहित जीवन निरर्थक है ऐसा समझना ।। ७४ ॥
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पाँचवाँ अध्याय
आचार्य धर्मका सामान्य स्वरूप ( उत्सर्ग ) और उसका विशेष ( अपवाद ) स्वरूप बतलाते हैं एवं उसके पालनेका आदेश देते हैं
धर्ममहिसारूपं संशृण्वन्तोऽपि ये परित्यक्तम् । स्थावरहिंसामसहास्त्रसहिंसां तेऽषि मुश्चन्तु ।।७।।
उपसमधी अहिंसामय है यह सुन जो नहिं कर पाते । प्रेसे प्राणी भी श्रमेक हैं धावरतजी न हो पाने ।। उनके लिये मार्ग है दूजा; 'प्रसहिसा' का याग करें ।
एकदेश या सर्वदेश हिंसाको रयाग 'सुधर्म' धरै ।। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि ये अहिंसारूपं धर्म संशष्वन्तोऽपि स्थावरहिंसा परित्यक्त महाः ] जो जीव, धर्म का स्वरूप अहिंसामय है 'अहिंसा परमो धर्म:' यह मूलवाश्य है ( सूत्ररूप) जिसका अर्थ यह है कि 'अहिंसा' ही उत्तम धर्म माना गया है । सर्वज्ञदेवने कहा है ) शेष हिसाभयधर्म, धर्म नहीं है किन्तु अधर्म हैं। ऐसे उत्तम धर्म के सच्चे स्वरूप (लक्षण)को सुनकर भी स्थावरकायको हिंसाको नहीं त्याग सकते ( प्रतिदिन वर्तावमें आनेसे ) [ से अपि श्रसहिंसां मुञ्चन्तु ] चे भी श्रसकायको हिंसाका त्याग तो अवश्य करें, अर्थात् उनको श्रसहिंसाका त्याग यथाशक्ति करना ही चाहिये और धर्मधारण करके एकदेश या आंशिक धर्मात्मा (अहिंसा अणुवती) बनना चाहिये ।।७५।।
भावार्थ---निश्चयसे सर्वोत्तम धर्म संसारमें 'अहिंसारूप' है ( पूर्ण वीतरागसारूप है । उसोसे आत्माका कल्याण ( उद्धार होता है, कारण कि वह वीतरागतारूप अहिंसाधर्म, आत्माका स्वभाव है। इसके विपरीत हिंसा या बलि करनेका भाव अधर्म है आत्माका विकारी भाव या विभाव है, अत: उससे आत्माका कल्याण न हुआ है न होना संभव है। अतएव धर्मका सर्वोत्तम स्वरूप अहिंसा ही है, उसी को अपनाना चाहिये। इस विषयमें स्वासकर धर्म का एक अपवाद ( विशेष) रूप भी बतलाया गया है, वह यह कि वास्तबमें सभी जीव एक-सी शक्ति या योग्यतावाले नहीं होते। इसलिये जो व्यक्ति (जीव ) गृहस्थाश्रममें हैं । सरागी परिग्रही हैं । वे इकदम पूर्ण हिंसाका स्याम नहीं कर सकते ( हिंसा अस व स्थावरके भेदसे दो तरहकी होती है ) कारण कि उनके भोष उपभोगके साधन व्यापार आरंभ आदि होनेसे दिनरात्रि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति इन पांच
१. असमर्थाः ।
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सावंत
Farar एकेन्द्री जीवोंका विचाल ( हिंसा ) पद-पदपर होता रहता है, वे उनका त्याग ( बचाव ) कर ही नहीं पाते, असंभव है । इसलिये वे अहिंसाधर्भी कैसे बन सकते हैं ? इसके समाधान में उनके लिये अपवादरूप को पालनेका उपदेश दिया गया है कि तुम यदि अशत्रय होने के कारण स्थावर हिंसाका त्याग नहीं कर सकते तो 'सहिंसाका त्याग' यथाशक्ति अवश्य अवश्य करके एकदेश (सिर्फ हिंसा त्यागी ) धर्मात्मा तो बनो हो अर्थात् अहिंसा धर्मके एकदेश पालनेवाले एकदेश धर्मा धारी ( अणुव्रती ) बनकर अपना जीवन सफल करों और जब शक्ति और योग्यता बढ़ जाय तब अस व स्थावर दोनों प्रकारको हिंसाको त्यागकर सर्वदेश हिंसाको त्यागनेवाले पूर्ण त्यागने वाले पूर्ण हाती धर्मात्मा ( महाव्रती ) बन जाना एवं जीवनको सफल करना, परन्तु बिलकुल हिंसाका त्याग न कर सदैव हिंसक व अधर्मी बने रहना, यह कर्तव्य व आदेश नहीं है। इस प्रकार धर्मके दो भेद ( उत्सर्ग व अपवाद ) बसलाये अर्थात् पूर्णहिंसाका त्यागना ( बस-स्थावर सबका त्यागना उत्सर्ग रूप है ( महाव्रत है । और यसका ही त्याग करना अपवाद मार्ग है ( अणुव्रत है ) इत्यादि भेद समझना चाहिये। लेकिन एकदेशत्यागीका लक्ष्य सर्वदेश त्यागका हमेशा रहना चाहिये तभी यह मुमुक्षु धर्मात्मा कहा जा सकता है अन्यथा नहीं। जैनशासन में एकान्तदृष्टि नहीं रहती, अनेकांतदृष्टि रहती है किम्बहुना | संयोगीपर्याय में रहते हुए एकदेश ( अप्रयोजनभूत) हिंसाका त्याग करना 'अहिंसा' कहलाता है यह भाव है ।
११.५
पर्याय व खासकर संज्ञी पंचेन्द्रियमय पाकर
या हिंसा आदि कुकमोंमें पड़कर व्यर्थ खो देते हैं, अपने दुर्लभ मनुष्य जीवनको कीमत या आदर नहीं करते, हमे farta माने सेवन में ही मस्त रहते हैं वे नर पशु हैं ( मनुष्यके रूपमें पशु समान हैं ) उनका उद्धार कदापि नहीं हो सकता । मनुष्यका कर्त्तव्य इतना ऊँचा है कि जो अन्यपर्यायों में हो नहीं सकता, अतः उसको पूरा करना चाहिये तभी मनुष्य पर्याय पानेकी सार्थकता है । वह कर्त्तव्य अहसाधर्म या बीतरागता रूप धर्मके द्वारा कर्मोंका क्षयकरके मोक्षको प्राप्त करना है। सो वह सिवाय मनुष्यपर्यायके अन्यपर्यायोंमें होना असंभव है | खाना-पीना, विषय सेवन करना आदि तो सभी पर्यायोंमें होता है, परन्तु कर्मक्षयका होना सिर्फ मनुष्यपर्याय में ही होता है । ऐसा समझकर अहिंसाधर्मको पालने के लिये मिध्यात्व, विषयकषायों का त्यागना, मद्यादि हिंसामय चीजोंका त्यागना अनिवार्य है इत्यादि । उत्तमसुखकी प्राप्ति इसी से हो सकती है व होती है, जिसकी चाह इस जीवको हमेशा रहती है अस्तु । पूर्ण अहिंसाव्रत ( धर्म ) के पालनेसे ही कृतकृत्य सिद्धदशा प्राप्त होती है अतः उसको यथासंभव क्रमसे पूरा करना हो चाहिये |
नोट- संयोगी पर्याय में रहते हुए जो श्रावक पांच पापका अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रहका एकदेश (अप्रयोजन भूतका ) त्याग करते हैं, वे अणुव्रती कहलाते हैं, यह व्याप्ति (नियम) है । यही अणुव्रत व महाव्रतका लक्षण है एकदेशत्याग व सर्वदेशत्याग इत्यादि अथवा एकदेश विरागता व सर्वदेश विरागता हो व्रत व धर्म है ऐसा समझना चाहिये ॥७५॥
१. अपवादका अर्थ विपक्ष या त्रुटिरूप होता है । अर्थात् कम त्यागरूप या शुभरागरूप चका होना । और भी पर्यायवाची शब्द हैं जिनका खुलासा आगे देखना । उत्सर्ग या महाव्रत, अपवाद या अणुव्रत ।
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२१
पुरुषार्थसिद्धयुपाय आगे आचार्य अहिंसा धर्मको पालनेकी विधिका खुलासा करते हैं कृतकारितानुमननैर्वाक्कायमनोभिरिष्यते नवधा । औत्सर्गिकी निवृत्तिः विचित्ररूपाऽपवादिकी त्वेषा ॥७६।।
मनचलन इन तीन मेदसे -कृतकारित अनुमोदनसे । होती है नवभेद अहिंसा, पारस्परिक गुणनफलसे ॥ नवभेदोंसे सहित अहिंसा, औसर्गिक समाती है। कुछ भेदोस सहित अहिंसा, अपवादिक कहलाती है ।
अथवा रागादिकसे रहिव अहिंसा निश्चयरूप कहाती है।
शुभरागादिकरूप अहिंसा व्यवहरनय असमाती है ॥ अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ वाकायमनोभिः कृतकारितानुभननैनवधा औमर्गिको निवृत्तिरिष्यते ] मन वचन काय इन तीन योगोंके साथ कृत कारित अनुमोदनाका सम्बन्ध स्थापित करनेपर होनेवाले भवभेदोंसे यदि हिंसाका त्याग किया जाय तो उसको औसगिकी अहिंसा कहते हैं, जो अहिंसा धर्मका पहिला भेद है । [तु विचित्ररूपा एषा अपवादिकी-मचति ] और जो यही अहिंसा विचित्ररूप होतो है अर्थात् नवभेदोंसे न होकर कमती भेदोंसे । तीन भंग व ६ भंगोंसे ) होती है, उसको अपवादिकी अहिंसा कहते हैं, जो अहिंसाधर्मका दूसरा ( खंडित या अपूर्ण) भेद है । इस प्रकार अहिंसा धर्म के दो भेद कहे गये हैं ॥७६||
भावार्थ-अहिंसाधम सबसे बड़ा धर्म है, परन्तु उसका पालन दो तरहसे किया जाता है । जो महापुरुष वीतरागी { मुमुक्षु ) शक्तिशाली हैं वे नौ भंगीसे ही हिंसाको छोड़कर अहिंसाका पालन करते हैं वह उत्सर्गरूप है। और जो महापुरुष पूर्ण वीतरागी नहीं है कमती शक्तिवाले हैं, वे पूरे नौ भंगोंसे अहिंसाका पालन न कर तीन-तीन या छह-छह भंगोंसे योग्यतानुसार पालन करते हैं अतः वह अपवादरूप है । परन्तु वह भी अहिंसारूप धर्मका पालक अवश्य है व माना जाता है, भेद सिर्फ सर्वदेश व एकदेशका है। स्थावर व अस दोनों प्रकारके जीवोंकी हिंसाका जो नव प्रकारसे त्याग करता है वह सर्वदेश अहिंसा धर्मका पालनेवाला होता है और जो सिर्फ प्रसजीवोंकी हिंसाका कुछ भंगोंसे ( तीन या छहसे ) त्याग करता है व अहिंसाको प्राप्त करता है वह एकदेश अहिंसाधर्मका पालनेवाला होता है, यह खुलासा है। ऐसा कार्य पदके अनुसार सदेव होता रहता १. हिंसाका नौ प्रकारसे त्याग करना, हिंसाका उत्सर्गरूप ( सर्वदेश ) त्याग भेव होता है या कहलाता है। २. पूरे नौ प्रकारसे त्याग न कर कुछ अंगों आ प्रकारोंसे त्याग करना, हिंसाका अपवादरूप ( एकदेश !
त्याग है।
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সন্তানুগ है । पूर्ण अहिंसाधर्मका पालना भोह व योगके अभाव होनेपर संभव है या कम-से-कम मोहका अभाव होना अनिवार्य है ऐसा समझना चाहिये । फलतः पूर्णवोतरागो ही अहिंसाधर्मका पूर्ण पालने वाला हो सकता है। पूर्ण वीतरागता प्राप्त होनेके पहिले अपूर्ण या एकदेश ( आंशिक ) अहिंसाधर्मका पालने वाला सिद्ध होता है किम्बहुना । उक नौ भंगोंके हो चार कषायोंके साथ सम्बन्ध करने पर ३६ भेद हो जाते हैं और संरंभ-समारंभ-आरंभ इन तीनके साथ संयोग ( मेल) करने पर १०८ भेद हो जाते हैं इत्यादि ।
प्रत्येक जैनका मुख्य कर्तव्य अहिंसाधर्मका पालना है क्योंकि जैनधर्मको अहिंसाप्रधान धर्म माना व कहा गया है । तदनुसार उस व स्थावर जीवोंकी यथाशक्ति रक्षा कर अहिंसाधर्म के पालनेका परिचय जैनमात्रको देना चाहिये तभी उसका जैनत्व सफल हो सकता है अन्यथा नहीं, यह निष्कर्ष है, अस्तु । दयारूप या करुणारूप भावको अहिंसाधर्म मानना उपचार है, कारण कि उससे पुण्यका बंध होता है । हाँ, वह शुभरागरूप है जो कषायकी मंदतासे होता है और परंपरया ( व्यवहासे ) मोक्षका कारण या वीतरामताका कारण बतलाया गया है जो निमित्तरूप हो है, अन्यजनकभाव नहीं है अथवा अविनाभावरूप नहीं है ऐसा समझना चाहिये। किन्तु नैतिकताके नाते उसका करना भी अनिवार्य है। कायदा, कानूनको अपेक्षा नैतिकताका पालन करना लोकाचारमें मुख्य है. चाहे उसका सम्बन्ध कायदा, कानून ( नियम.) के साथ हो या न हो, उसका ख्याल नहीं किया जाता । उक्तं च---
'शास्त्राद् रुढिबलीयसी' या 'यद्यपि शुद्ध लोकविरुद्धं न कर्तव्यं न परिसच्यमिति'
नोट ---कहीं २ धर्मका अर्थ पुण्य भी होता है, जिसको मुख्यता गृहस्थ श्रावकोंके रहती है अर्थात वे अधिक पुण्यके कार्यों में दत्तचित्त ( संलग्न ) रहते हैं। वे अशुभ या अधमसे छूटने के लिये उसोका सहारा लेते हैं और अपनी व अन्य जीवोंकी अशुभसे रक्षा करते हैं तथा शुभोपयोगी मुनि साधु भी शुभोपयोगके समय शुद्धोपयोगी या शुभोपयोगी अन्य रोगी धके भूखे प्यासे मुनियोंकी वैयावृत्ति ( यगचंपी व धर्मोपदेश देकर ) करते हैं तथा औषधि भोजनादिके लिये गृहस्थोंसे कहते व सम्बन्ध जोड़ते हैं। इस प्रकार थोड़े समयको थोड़ा पुण्यवंध करते हैं सर्वदा सर्वथा नहीं यह तात्पर्य है, अस्तु । विवेकी गृहस्थको 'पुण्यानुबंधी पुण्य' करना चाहिये किन्तु 'पापानुबंधी पुण्य' नहीं करना चाहिये यह विधि है।
वीज राख फल भोगवे, ज्यों किसान जगमाहिं ।
क्यों चक्रीनृप सुख को, धर्म घिसारे नाहिं । यह नीति अपनाना चाहिये !
धर्म अनेक प्रकारका होता है ।
যখা ( १ ) अहिंसारूप धर्म होता है ( बोतरागतारूप निश्चयधर्म ) भेदरहित उत्सर्ग धर्म (२)
२८
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पुरुषार्थसिद्धयुपाय श्रावकधर्म व भुनिधर्म ( क्रियारूप व्यवहारधर्म ) भेदसहित अपनादधर्म (३) उत्तम क्षमादिरूप छाधा धर्म/शभरागरूप...-धर्मानरागरूप व्यवहारमा सियर या उत्सव अपवादधर्म ( ५ ) मोहक्षोभादि ( रागद्वेषादि ) रहित धर्म ( ६ ) शुद्धात्माके संवेदनरूप धर्म (७) स्वानुभवरूप धर्म ( ८ } चारित्रका नाम धर्म है। ( ९.) वस्तुस्वभावका नाम धर्म है। (१०) गुणका नाम धर्म है और ( ११) सम्यग्दर्शनादित्रय धर्म है।
इसी तरहचारित्रके भी अनेक भेद होते हैं ( . व्यसंग्रहको गाथा ३५ में देखो।
घदसमदी गुतीओ धम्माणुहा परीसहजयो य ।
चारितं बहुभेया जायखा मावस्वरविसेसा ॥ ३५ ।। अर्थ-बारह व्रतोंका पालना चारित्र कहलाता है। ( भिवृत्तिरूप ) पांच समितियोंका पालना चरित्र कहलाता है ( प्रवृत्तिरूप)।
सीन गुप्तियोंका पालना चारित्र कहलाता है । दश धर्मोका ( उत्तमक्षमादिका) पालना चारित्र कहलाता है। बारह भावनाओं ( अनित्यादि ) का चिन्सवन करना चारित्र कहलाता है। २२ परीषहोंका सहन करना चारित्र कहलाता है। इस प्रकार चारित्र अनेकप्रकारका होता है। इन्हींसे भावसंवर होता है अर्थात् ये सब भाव विकारी या खोटे भावों को हटा देते. हैं अतः वह भावसंबर कहलाता है उससे पापकर्मोका आस्रव नहीं होता। यह चरणानुयोगको पद्धति है अर्थात् बाह्य (दृश्यमान) आचरणका शुद्ध होना ही, द्रव्यचारित्र कहलाता है। लोकाचारमें इसीका बड़ा महत्त्व होता है। यह चारित्र ही धर्म कहलाता है इत्यादि समझना जो व्यवहारमयको मरुपतासे है। निश्चयनयसे चारित्र या धर्मका स्वरूप दसरा होता है जो परिणामों पर निर्भर रहता है. क्रिया पर निर्भर नहीं रहता। वीतरागताका होना या अडिसा रूप भाव होना निर्विकल्प होना निश्चयचारित्र है। लेकिन हीन दशामें अर्थात सराग अवस्थामें पदके अनुसार बाह्यचारित्र भो कथंचित् उपादेय व कर्तव्य है एकान्तधारणा नहीं करना चाहिये इत्यादि ।। ७६१
आचार्य एकवेश ( अपवादरूप ) अहिंसाधर्मके पालनेवाले गृहस्थोंको भी अप्रयोजनभूत . स्थावर जीवोंकी हिंसा न करनेका उपदेश देते हैं।
स्तोकैकेन्द्रियविधाताद् गृहिणां सम्पन्नयोग्यविषयाणाम् । शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम् ।।७७||
पध जी गृहस्थ धन धान्य सहित है-धावर हिंसा करते हैं। उमा भी कर्तव्य यही है-बिना प्रयजन तजते हैं। जिन्हें धर्म की श्रद्धा है वे धर्मदृष्टिको रखते हैं। म्यायनीति से काम चलाते हिंसा से वे डरते हैं । ..
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अहिंसागुणत
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अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ सम्पन्नयोग्य विषयाणां ग्रहण ] जो परिगृही घनी मानी सरागी गृहस्थ हैं, उनके | स्तोकै केन्द्रियविद्यासात् ] थोड़ी बहुत, बहु आरंभ परिगृही होनेसे स्थावर एकेन्द्री जीवोंकी हिंसा तो होती ही है ( अनिवार्य । है तथापि [ शेषस्थावरमारण विरमणमविकरणी भवति | शेष अप्रयोजनभूत ! जिनके बिना कार्यं चल सकता है ) स्थावरजीबोंकी हिंसा ( मरण ) का त्याग भी वे अवश्य करें अर्थात् यथासंभव अहिंसा व हिंसाका उपयोग करें या उन्हें बाध्य होकर करना चाहिये, जिससे वे कचित् अहिसा पालक बने रहें । गृहस्थ अवत अवस्थामें
धर्म योग्यतानुसार पालें ॥ ७७ ॥
भावार्थ - यद्यपि परिगृही धनधान्यादि सम्पन्न गृहस्थ हर तरह के व्यापार कारोबार ) करता है. किसीका भी त्यागी नहीं है । इस लिये उसके स स्थावर जीवों को हिंसाका होना अवश्यंभावी है, जिससे वह पूर्ण अहिंसा का पालन नहीं कर सकता तथापि यथाशक्ति सजीबों की शिनाका लाग करते हुए ( ) ( गृहस्थों को उन स्थावरजीवों की हिंसाका भो त्याग करना चाहिये जो अप्रयोजनभूत है या जिनके बिना भी कार्य चल सकता है । और ऐसा करके वे कथंचित् स्थावरजीबों की भी रक्षा करते हुए स्थावर हिंसाके त्यागी - अहिंसात्र पालक हो सकते हैं व होना चाहिये। क्योंकि असल में मनुष्य वही है जो उच्च विचार और आचार (कार्य) रखे या करें. यही मनुष्य में दूसरोंकी अपेक्षा विशेषता या उच्चता है अन्यथा आहारादि सभी कार्य प्रायः पशुओं के समान पाये जाते हैं तब उनसे कोई विशेषता सिद्ध नहीं होती - समानता ही सिद्ध होती है ऐसा जानना । तमाम गृहस्थोंका यह कर्तव्य है जो उन्हें करना चाहिये सभी मनुष्यजन्म की सफलता है, कहने से करना बड़ा माना जाता है किम्बहुना ! व्यर्थ और अप्रयोजनभूत कार्योंको करके जोवनको ख़राब नहीं करना चाहिये, यही बुद्धिमानी है, हितकी शिक्षा है, अस्तु । ध्यान दिया जाय ।
विधान ( सिद्धान्त ) के अनुसार एकेन्द्रोजीवों ( स्थावर कार्यों के ४ चारप्राण | द्रव्यरूप } होते हैं । यथा एक स्पर्शनइन्द्री, एक कायबल, एक श्वासोच्छ्रास, एक आयुष्य | जब स्थावरकायको हिंसा होती है तब हिंसाचार अवश्य लगता है। लेकिन ४ चारप्राण घात सम्बन्धी थोड़ा पाप लगता है, जो व्यवहारनयसे पराश्रित होनेके कारण उपचार कथन है फिर भी लोकमें उसकी मान्यता होती है। नैतिकताको अपेक्षासे वह भी वर्जनीय है । भूलकर मनुष्यसमाज वैसा कार्य कभी न जिसमें का घात हो, निश्चयनयसे मनुष्यसमाजका कर्त्तव्य है कि वह अपने खोटेपरिणाम किसी भी जोवको मारडालनेके न करे, जिससे मारनेवाले ( कर्ता के भावप्राणोंकी हिंसा न हो। इस प्रकार द्रव्य और भाव दोनों प्रकारकी हिंसाओंसे यथाशक्ति बचना और अहिंसाधर्मको आंशिक व पूर्णरूपसे पालना मनुष्यसमाजका कर्त्तव्य है, उससे जीवनकी शोभा प्रतिष्ठा और परभव में सुख माताकी प्राप्ति होना अनिवार्य है अस्तु ।
सारांश यह है कि अती गृहस्थ श्रावक भी एकदेश व्रती ( अणुव्रती ) बन सकता है याद वह प्रयोजनभूत कार्यों में स्थावरों ( एकेन्द्रियों ) को रक्षा न कर सकने पर भी अप्रयोजनभूत कार्यों में स्थावरोंको रक्षा करे या रक्षाका प्रयत्न करें अर्थात् प्रयोजनभूत कार्योंके अतिरिक्त अत्र
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पुरुषार्थसिदभुपाय योजनभूत कार्योंको छोड़ देवे या व्यर्थ ही स्थावरोंका विघात न करे तो । जैसे कि व्यर्थ ही न जमीन खोदे, न पानी बहावे, न अग्नि जलावे, न वायु वहावे इत्यादि ! ऐसी हालत में वह कथंचित् ( एकदेश ) व्रती बन सकता है और बनना चाहिये क्योंकि बिना नतके जीवन निष्फल माना गया है यह ध्यान रहे ।। ७७ ।।
आगे आचार्य----अमृत समान अहिंसाधर्मको पालनेवालोंको शिक्षा ( हिदायस ) देते हैं कि दूसरे हिसा आदि जीवोंके धनादिककी विषमता ( विचित्रता ) देखकर कभी असंतुष्ट और लालायित नहीं होना चाहिये । ( मनमें विकार नहीं लाना चाहिये )
अमृतत्वहेतुभूतं परममहिंसारसायणं लब्ध्वा । अवलोक्य बालिशानामसमंजसमाकुलैनं भवितव्यम् ॥ ७८ ।।
पद्य
मोक्षप्राप्ति अरु मुस्त्रका कारण परम अहिंसा है माई । परम रसायन उसको जानो इष्टवस्तु की है दाई॥ यदि कदाचित् हिंसकजमके सुखसमृद्धि विषमता हो।
उसे देख श्रन्दानी का मन कभी न प्रण से विचलित हो । ७८ ।। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [अमृतस्वहेतु मतं परममहिसारसायणं लvar ] मोक्ष प्राप्तिका कारण उत्कृष्ट अहिंसाधर्मरूपी रसायन { चिन्सामाणि को प्राप्त करके अर्थात् अर्शी वती बनकर [बालिशान असमंजसमवलोक्य 1 उसे अन्य किसी हिसक अज्ञानी जोवोंका धनविद्या-बल-प्रभुता आदिको अधिकताको या तन्दुरुस्ती सुन्दरता विशेष हो, तो उसको, देख कर [ आकुन भवितव्यम् ] कभी चित्तको डदांडोल ( अभिलाषारूप ) नहीं करना चाहिये अर्थात श्रद्धाको नहीं बदलना चाहिये, यह अहिंसाधर्मीका मुख्य कर्तव्य है, ऐसी शिक्षा आचार्य महाराज देते हैं ।। ७८॥
भावार्थ--यह है कि जीवोंके परिणाम थोड़ी-थोड़ी बातों में बदल जाते हैं ऐसा देखा जाता है क्योंकि संयोगी पर्यायमें एवं गृहस्थाश्रयमें रहते समय चित्त स्थिर नहीं रहता.....चलायमान हो
१. मोक्षका कारण २. अष्टप्रयोजनकी सिद्धि करने वाली सर्वोषधि चिन्तामणि । ३. अज्ञानी हिंसक । ४. असमानता अधिकता। ५. चांडोल चित्त करना या विचलित परिणाम करना या असंतुष्ट होना या लभयाना। या मोहित चित्त
होगा 1 'मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्ममिति' ।
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IRोशात जाता है। ऐसी स्थिति में आचार्य कहते हैं कि दृढश्रद्धानी प्रतिज्ञाघारीको कभी भी अपनी दृढ़ श्रद्धाको या प्रतिज्ञाको नहीं बदलना चाहिये चाहे कैसा भी परिणमन देखने भोगने व सुनने में क्यों न आवे, क्योंकि वस्तुका परिणमन संयोगरूप व वियोगरूप हमेशा हर जीवके होता रहता है, चाहे वह जीव सम्यग्दष्टि हो या मिथ्यादष्टि हो, हिंसक हो या अहिंसक हो, पापी मूर्ख अज्ञानी हो, या धर्मात्मा ( पुण्णी ) विद्यानु ज्ञानी हो, धनी हो या निर्धनी हो, रोगी कुरूप हो या निरोगी सुरूप हो, उच्च हो या नीच हो। वस्तुके परिणमनमें कोई पक्षपात या भेद नहीं माना जाता, न कर सकता है, अतः वस्तुके परिणमन पर दृष्टि देने वाला व उसको स्वतंत्र माननेवाला सम्यग्दष्ट्रि दहशद्वालु होता है। इसीलिये उसकी श्रद्धा अटल { अपरिवर्तनीय ) रहती है। वह अहिंसाधर्मको ही सवेच्चि आत्महितकारी चिन्तामणि समझता है, धनादिक परविभूति (परिग्रह से बह विरक्त रहता है, उसको वह हृदयसे आकांक्षा नहीं करता, उसको वह उपादेय नहीं मानता न उसे जरूरत से ज्यादह महत्व देता है, उसको वह बीमारीकी दवाईवत् सेवन करता है । वह खूब जानता है कि वर्तमानमें हिंसक दुष्ट कषायी मिश्यादष्टि नीच जीवोंके यदि विभूति आदि बहुत सामग्रो पाई जाती है तो उसका कारण पूर्वका किया हुआ पुण्यका बंध है, उसके उदयसे यह सब ठाठबाट है किन्तु वर्तमान में हिंसा करने या हिंसक व्यापार, चोर व्यापार आदि करनेका यह फल ( ठाटवाट) नहीं है, इसका ( कुकर्मका ) फल अलग भोगना पड़ेगा ( दरिद्रता आदि ), जब वह पापका बंध उदयमें आवेगा । अतएव श्रद्धाको क्यों बिगाड़ना? नहीं विगाडना चाहिये । यदि श्रद्धा बिगड़ी तो सब बिगड़ गया (यदि हमारे स्वयं या अन्य अहिंसाधर्मीक दरिद्रता आदि है तो वह भो पूर्वकृत पापकर्मका फल है सो जब वह खतम हो जायगा (पापकर्म नष्ट हो जायगा ) तब हमें भो साताको सामग्री स्वत: प्राप्त हो जायगो, अतः क्यों घबड़ाना ? वह एक दिन अवश्य-अवश्य होगा। सच्चे झूठेकी परीक्षा वक्तपर ही होती है अतः श्रद्धा दृढ़ रखना चाहिये किम्बहुना । ऐसा उपदेश आचार्य महाराज देते हैं । अरे, यह अहिंसाधर्मरत्न नित्य मोक्षसुखको देनेवाला है, उसके सामने यह सांसारिक विभूति जन्य सुख तुच्छ और अनित्य है ( बन्धका कारण है ) इससे मोक्षसुख हरगिज नहीं मिल सकता इत्यादि।
इसके सिवाय विवेकी अहिंसाधर्मके पालने वालोंको यह भी तो सोचना चाहिये कि सांसारिक सुखसमृद्धिका मूलहेतु वह दयारूप धर्म हो तो है...जिसे व्यवहारसे अहिंसाधर्म कहते हैं । उससे पुण्यका बंध होता है और उसके उदय आने पर देवेन्द्र-चक्रवर्ती, घनी कुटुम्बी आदि विभूति बाला वह जीव होता है अतः कभी श्रद्धाको नहीं बिगाड़ना चाहिये । अहिंसाधर्म एक रसायन या सर्व सिद्धिदायक ( कल्पवृक्ष ) परमौषधि है। उससे मनोवांछित संसारसुख और अन्तमें नित्य मोक्षसुख भी मिलता है किम्बहुना । निश्चयनयसे अहिंसाधर्म, बीतरागतारूप है--पूर्ण रागादिसे रहित है। { निबंध है ) और व्यवहारमयसे अहिंसाधर्म, शुभरागरूप या धर्मानुरागरूप है ( पुण्यबंध सहित है ) यह खास भेद समझना चाहिये । किन्तु अमानो मिथ्यादष्टि निश्चय व्यवहारका शान न होनेसे एक तरह ( एकान्तरूप) का ही विश्वास ( श्रद्धान) कर बैठते हैं, जिससे वे उगाए जाते हैं। अज्ञानी मिथ्यादृष्टि एक आँखसे सबको देखते हैं। कोएको पुतलीको तरह क्षण २ में उनके विचार बदलते रहते हैं। स्थिर एकत्रित नहीं रहते। उनको हमेशा संशय बना रहता है अतएव वे थोडे ।
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पुरुषार्थसिवधुपाय २ में लभया जाते हैं-भ्रम में पड़ जाते हैं । किसी हिसक पापो दुराचारीके यहाँ धनवैभव आदि देख कर यह विश्वास कर बैठते हैं कि 'द्रव्य आदिका संचय होना' अहिंसासे या ईमानदारोसे बरतने पर नहीं होता, किन्तु मनचाही हिंसा चोरी आदि काम करने पर ही होता है। उसे इस सचाईका पता नहीं लगता कि 'धनादिको प्राप्त' खोटे कामोंसे नहीं होती किन्तु चोखे कामोंके करनेसे ही होती है ( पुण्यबंध करके इस पापी दुगवारीने पूर्वभयमें चोखा काम । जोवदया-भक्ति आदि शुभराग ) किया होगा | जिससे पुण्य कर्मका बंध किया होगा उसका उदय अभी इस पापमय अवस्थामें हुआ है अतः उसका यह फल ( नतीजा) है---पापकार्यका यह फल नहीं है, उक पापका फल आगे जब वह पापकर्म उदय में आवेगा तब मिलेगा इत्यादि वह पापकर्मी नहीं सोचता ( उसकी उसको खबर नहीं है। तभी वह अनर्थ करने लगता है परन्तु ज्ञानी सम्यग्दृष्टि हमेशा सब सोचता है और उचित कार्य करता है, अच्छे कार्यका फल हमेशा अच्छा होता है अतएव कोई विषमता या विचित्रला ( अचरजका कार्य ) देख कर नियत नहीं बिगाहना चाहिये---वह अन्याय है वस्तुका परिण मन कोई बदल नहीं सकता है, मनका धन कोई भले हो करे परन्तु सफलता नहीं मिलती इत्यादि, ऐसा खुलासा अहिंसा रसायनके बाबत किया गया है. इसको हमेशा ध्यानमें व श्रद्धानमें रखना चाहिये, कल्याण इसीसे होगा अन्यथा नहीं । वास्तवमें विचार किया जाय तो व्रतो या अवती सम्यग्दृष्टि परिग्रह या भोगोपभोगमें रति या रुचि रखते ही नहीं हैं वे सब काम अचि सहित संयोगोपर्याय में कषायादिके दवाउरे में विगारीकी तरह करते हैं । तब किसीकी विभूति आदि देखकर वे नहीं लुभयाते, न उसको बांछा करते हैं, न उसके लिये खोटे कर्म करते हैं, न उसकी उत्पत्तिका कारण पापकर्मको समझते हैं इत्यादि विवेक उसके रहता है किम्बहुना ।। ७८३
___ 'धर्म रसायन है। उससे सब कुछ मिलता है यह मानकर भी अज्ञानी मिथ्यादष्टि धर्मके स्वरूपमें भूले हुए हैं. वे जीवहिंसा ( बलि ) को धर्म मानते हैं उन धर्म मूढ़ों ( अज्ञानियों) को आचार्य समझाते हैं । एवं हिसा धर्मका खण्डन करते हैं ।
सूक्ष्मो भगद्धर्मो धर्मार्थ हिंसने न दोषोऽस्ति । इति धममुग्धहदयैने जातु भूत्वा शरीरिणो हिंस्याः ॥७९॥
तर्क
भगवान् का जो धर्म है वह अतिमहना है जानिये। असा समझना कठिन है उस अर्थ हिंसा ठानिये ।।
५. न्यायसे उपार्जन किये हुए थनसे धमी नहीं बन सकता, जैसे कि केवल स्वच्छ छने हुए पानीसे जलाशय
नहीं भरता इत्यादि विपरीत वारणा करता है। लाभालाभ देखना चाहिये, गुणोंकी वृद्धिसे ही आत्माकी उन्नत्ति होती हे परिग्रहादिके बढ़नेसे आत्माकी अवनति होती है ऐसा विचार करना चाहिये । वही सभ्यक
धारणा है अस्तु । २. ईश्वरका धर्म। ३, अत्यन्त सूक्ष्म अज्ञेय ( ज्ञातुमशक्य.) ।
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भहिसाणुम्रप्त हिंसामी महिं धर्म होता, वह अहिमामय सदा। खान
हमसे कर्मा नहिं जाब इसना, मूर्ख बनता है सदा ।।|| अन्वय अर्थ-जिनका यह मत है अर्थात् ख्याल है कि भगवदो सूक्ष्मः ] धर्मका स्वामो भगवान् । ईश्वर ) है अर्थात् धर्मका कर्ता और फलदाता भगवान हो है, दूसरा कोई नहीं है और वही धर्मके स्वरूपको जान सकता है क्योंकि वह इन्द्रियज्ञानके गोचर नहीं है अर्थात हमलोग इन्द्रिय ज्ञानसे स्थल पदार्थो को जान सकते हैं....धर्म जैसे सूक्ष्म पदार्थको नहीं जान सकते अताव [ धर्मार्थ हिंसने दोषी नाम्ति ] उस धर्मकी प्राप्ति और ज्ञप्ति के लिए जीवहिंसा करने में कोई दोष । अपराध या अधर्म । नाहीं लगतः, काया कि दो नातिर धर्म के लामो भगवान्को प्रसन्न करनेके लिए यही उत्तम उपाय' है, ऐसा सबै अज्ञानी जीव उठाता है, उसका खण्डन इस प्रकार है कि [ इति धर्ममुग्धहदगः भूत्वा जातु शरीरिणो न हिस्याः! धर्मके सम्बन्धमें या धर्मके स्वरूप में तर्कवालेके अनुसार भूल नहीं करना चाहिए। और मूर्ख बनकर कभी भी जोबोंको हिंसा धर्मके खातिर नहीं करना चाहिए, यह समझवारो है-बुद्धिमत्ता है। धर्मका स्वामी अकेला भगवान् नहीं है, सभी जीव हैं और उसका फल देना भी अकेले भगवान के ही हाथ ( अधीन ) में नहीं है अपितु सभी जीव अपनों अपनी करनीके अनुसार फल पाते हैं इत्यादि । अतएव धर्मका स्वरूप अहिंसामय ही है, हिंसामय नहीं है ॥७२॥
भावार्थ-धर्म का स्वरूप हमेशा एक-सा रहता है, उसमें परिवर्तन नहीं होता यह निश्चयको बात है, किन्तु ज्ञानी और अज्ञानी ( सम्पष्टि, भिथ्यादष्टि) जीत्रोंके बुद्धिके फेरसे धर्मके स्वरूपमें भूल व भ्रम हो रहा है। इसका खुलासा पेश्तर इलोक नं० ५८ में विस्तारके साथ किया गया है, उसको समझना। फिर भी संक्षेरूपमें यहाँ भी लिखा गया है। संसारमें अनेक मत हैं कोई ईश्वरवादी हैं ( भगवद्धर्मी हैं ) कोई अनोश्वरवादी अर्थात् स्वतन्त्र वस्तुवादी हैं। सथा कोई अल्पज्ञानी रागोद्वेषो, प्रमाणनयके स्वरूप व भेदोंको नहीं जाननेवाले हैं, कोई अल्पज्ञानी होकर भी नयप्रमाणके यथार्थ स्वरूप व भेदोंको जाननेवाले हैं । ऐसी स्थिथिमें--पदार्थव्यवस्था, भिन्न २ प्रकार उन्होंने मानी व बतलाई है। तभी तो कोई "हिंसाको धर्म मानते हैं ३ कोई 'अहिंसाको धर्म मानते व कहते हैं। कोई भक्ति या शुभराग अथवा धर्मानुराग (परोपकारादि ) से मुक्ति मानते हैं। और कोई शुभराग या भक्तिरूप धर्मानुरागसे रहित 'शुद्धबीतरागता' से मुक्ति मानते हैं। भन्सिसे मुक्ति मानने वाले निश्चय व्यवहारनय' से अनभिज्ञ हैं अतः वैसा कहते हैं और वीतरागतासे मुक्ति माननेवाले निश्चय व्यवहारनय के ज्ञाता है अतएव वैसा कहते हैं । अर्थात् निश्चय नयसे चौतरागता ही मुक्तिका कारण ( मोजमार्ग ) है क्योंकि रागद्वेषादिके पूर्ण छूटनेपर ही मोक्ष प्राप्त होता है यह नियम है । और व्यवहारनयसे "भक्ति से मुक्ति होती है' यह कहना ठोक है, परन्तु
१. यज्ञार्थ पशवः स्रष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा ।
यज्ञो हि भूर्त्य सन्षां तस्याद्यजे वधोऽवषः ।। यह उनके यहां लिखा है जो युक्त नहीं हैं।
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पुरुषार्थसिद्धधुपाय यह कथन उपचाररूप असत्य है क्योंकि उससे बन्ध होता है ऐसा समझना चाहिये । परम्परयाका अर्थ व्यवहारलयकी अपेक्षा होता है. अर्थात् पर जो व्यवहार, उसका पर अर्थात् आश्रय लेनेपर ( उसकी गला करनेपर ; पोगमा मुनिक मारग माना जा सकता है ।
दुसरा अर्थ पर जो व्यवहार उसको पर अर्थात् दूर कर देनेपर अर्थात् परका आश्रय छोड़कर निजका आश्रय लेनेपर ( स्वाधीनतारूप शुद्धोपयोगसे ) मोक्ष होता है इत्यादि सारांश है । अर्थात् जब शुभोपयोग ( भक्ति आदि ) बदलकर शुद्धोपयोगरूप परिणमन करता है तब मुक्ति होती है यह तात्पर्य है।
'डीयो और जीने दो' यह उदार सिद्धान्त है। 'ओ हिंस्यात् सर्वभूतानि' यह वेद वाक्य है।
'श्रात्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्' -महाभारत वाक्य उक्त उद्धरणोंसे हिंसा करना 'धर्म' नहीं माना जा सकता यह निश्चय है ।
विशेषार्थ-(शंका समाधान द्वारा निर्धार) प्रश्न-उक्त श्लोकमें यह कहा है कि 'धमार्थ हिंसा करने में कोई दोष या अपराध (पाप) नहीं होता अर्थात बह जायज है न्यायके अनकल है. कर सकता है। इसका खण्डन नहीं कि जा सकता ? कारणकि जैन लोग ( अहिंसा धर्मवाले ) भी तो घर्भके निमित्त बड़े २ मन्दिर बनवाते हैं, गजरथ चलाते हैं, धर्मशालाएं बनवाते हैं, सम्मेलन या संघ निकालकर तीर्थयात्रा करते हैं भोज देते हैं इत्यादि । जैन गृहस्थ हमेशा उक्त कार्य करते रहते हैं और जैन साधु भी चतुर्विध संघ मुनि, आर्यिका, श्रावक, धाविका ) तयार करते हैं, धर्मोपदेश देते हैं देशमें पैदल विहार करते हैं उसमें हिंसा होतो है जीव मरते हैं इत्यादि । यह सब धर्मप्रभावना या प्रचारके लिए ही तो है न? फिर 'धर्मके निमित्त हिंसा करनेका खण्डन जैन क्यों करते हैं ? वह भी तो धर्म है जबकि वह धर्म प्रचारके उद्देश्यसे की जाती है। उपर्युक्त उदाहरणोंसे यह भली-भांति सिद्ध हो जाता है कि जैन लोग भी हिंसाको धर्म मानते हैं, समर्थन करते हैं। लेकिन दूसरोंका खण्डन करते हैं यह विचित्रता है--आश्चर्य है अस्तु ।
उक्त प्रश्न ( तर्क ) का उत्तर यह है कि दोनोंके उद्देश्यमें अन्तर ( फर्क ) है जैन लोग, हिंसा करके धर्म नहीं मानते अर्थात् पेस्तरसे ही 'अमुक जोवको मारनेसे धर्म प्राप्त होगा या हो जायगा' ऐसा इरादा या संकल्प करके उसे नहीं मारते किन्तु अन्य लोग खासकर पेश्तर से यही इरादा कर लेते हैं कि यदि इस जीवको बलि दे दो जाय ( मार डाला जाय ) तो हमें अवश्य धर्म प्राप्त हो जायगा, कोई संशय नहीं है----धर्म की प्राप्ति होना निश्चित है इत्यादि । बस यही मान्यता गलत है ( असत्य है ) क्योंकि वह मारनेका संकल्प ही तो अधर्म व हिंसा है उससे उस संकल्प कर्ता ( मारक ) के भाव प्राणों ( स्वभाव भावों) का घात ( हिंसा ) पहिले ही हो : जाता है जो महा हिंसारूप है। फिर उसके पश्चात् उस संकल्पित जीवको मार डालनेसे द्रव्य हिंसा भी होती है। इस तरह भाव व द्रव्य दोनों तरहकी हिंसाका होना 'धर्म' कभी नहीं कहा जा सकता
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अहिंसा
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न माना जा सकता है क्योंकि उसका फल नरक निगोदादि महान् दुःखोंकी प्राप्ति होना है, स्वर्गादि सुखकी प्राप्ति नहीं होती अर्थात् (विपरीत फल मिलता है। न्यायके अनुसार कारणविपर्ययसे फल ( कार्य ) विषय अवश्य होता है । अस्तु 1 जैनलांग जो धर्मार्थ ( धर्म सावनके लिये ) मंदिर आदि बनवाते हैं रथ चलवाते हैं- संघ निकालते भोज्य ( पंगत देते हैं, उसमें जीव मारनेका उद्देश्य नहीं करते, धर्मप्रचारका ( परोपकारका) उद्देश्य या ख्याल रखते हैं । येसेमें यदि आनुषंगिक रूपसे जीवहिंसा हो जाय तो उसको जिम्मेवारी उनपर नहीं है अथवा निमित्तरूपसे थोड़ी सो जिम्मे वारी यदि आती है तो वह नगण्य है अर्थात् तुच्छ है । यथा 'सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ दोषाय नालं Lifer fort' अर्थात् समुद्रमें विषको थोड़ीसी बूंद पड़ जाने पर कोई बड़ी हानि नहीं होती, उसी तरह बहुत पुण्यके ढेर ( राशि ) में यदि थोडा पाप भी मिल जाय तो वह आपत्तिकर नहीं हो सकता । ऐसा समझना चाहिये । इस तरह मूल लक्ष्य ( उद्देश्य ) में ही भूल या भेद होनेसे जैन लोगोंकी अन्य लोगोंके साथ 'हिंसा' में या हिसांधमं में समानता नहीं मिल सकती वह खाली बकवास है। इसके सिवाय लोभ आदि कषायों ( विकारों ) का छूटना ही 'धर्म' है क्योंकि उनसे अभ्यन्तर हिंसा अवश्य होती है। उसका समझना जरूरी है। अन्य लोग प्राय: उसको नहीं समझते। यदि किसी के मारने का इरादा धर्मके खातिर या भोज्यादिके खातिर या परोपकार के खातिर हो जाय तो उससे क्या अपराध न होगा ? अवश्य २ होगा । कारण कि वह विकारीभाव ( कषाय ) है । वह चाहे अपने स्वार्थके लिये हो या पर स्वार्थ के लिये हो, देवके लिये हो अपराधों है । चोरी चाहे अपने लिये की जाय या परके लियेकी जाय, देवगुरुके लिये की जाय, उसकी सजा जरूर मिलेगी - क्षमा नहीं की जा सकती, यह ध्यान रखना चाहिये । जो आदमी अपने लिये अग्निको अपने हाथ से उठाता है या दूसरेके लिये उठाता है वह स्वयं जलता है दुःख उठाता है वहाँ लिहाज या छूट नहीं होती, ऐसा ही हिसाके सम्बन्धमें समझना चाहिये । वह चाहे अपने लिये की जाय या अन्य देवता गुरु, आदिके लियेकी जाय उसका फल करने वालेका ही भोगना पड़ेगा छूट कदापि न होगी इत्यादि, क्योंकि व्यापार या क्रिया व कषाय सभी में होती है यह नियम है । जिससे हिंसा अवश्य होना संभव है अस्तु ।
नोट-- ( १ ) पेश्तर श्लोक नं० ५४ में संकल्पी आदि चार प्रकारकी हिंसाओंका व्याख्यान किया गया है सो समझ लेना । ( २ ) कषाय और योग (क्रिया) दोनोंके निमित्तसे हिंसा होती है अत: दोनों त्याज्य हैं फिर उद्देश्य यदि बुरा हो तो कहना ही क्या है समझदारीपूर्वक उसका त्याग ही कर देना चाहिये ।
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धर्मके विषय में विपरीत मान्यता
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अन्य मतावलम्बी भिन्न २ प्रकारसे हिंसाको धर्म मान कर उसकी पुष्टि करते हैं परन्तु वह खंडनीय हैं, मंडनीय नहीं है यह बताया जाता है । यथार्थ में 'अहिंसा' ही धर्मका स्वरूप है वैदिक मत वाले हिंसाको धर्म मानते हैं। यथा--- धर्मो हि देवताभ्यः प्रभवति ताभ्यः प्रदेयमिह सर्वम् ।
इति दुर्विवेककालितां धिषणां न प्राप्य देहिनी हिंस्याः ||८०||
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पुरुषार्थसिद्धथुपार्थ
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धर्म पास होता है सबको देवोंकी प्रसम्मप्तासे। देव प्रसन्न होत हैं सब ही उमको बलि चढ़ामेसे ।।
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इस दुर्चुदिमें पक्षकार मित्रों ! जीय मारना खामी' है ।। अस्थय अर्थ-वैदिक मतवाले कहते हैं कि [हि देवसाभ्यः धर्मः प्रभवति ] यदि वास्तव में विचार किया जाय तो 'धर्मके दाता या अधिष्ठाता देवता ही हैं क्योंकि उन्हींका सब है। अतः उनकी प्रसन्नता या सेवा ( आराधना ) से ही हम सबको धर्मकी प्राप्ति होती है अन्यथा नहीं । फलतः [ इह ताभ्यः सर्व देयम् ] उन देवताओंके लिये इस लोकमें सभी वस्तुएं समर्पण कर देना चाहिये अर्थात् चढ़ा देना चाहिये, हिचकिचाना नहीं चाहिये । इति पुत्रियकालमा धितो प्राय देहिनो न हिंस्याः ] आचार्य इस अविवेकपूर्ण विचारधारा या कार्यवाहीका खंडन करते हैं कि कि 'कोई भी समझदार विद्वान् उक्त दुष्टतापूर्ण भ्रष्टाचार फैलाने वाले कुमार्गके उपदेशमें बहक कर 'जीवोंको हिंसा न करें क्योंकि हिंसा कभी धर्म नहीं हो सकता इत्यादि । देखो, देवता लोग कभी मांस मधु मदिरा जेसी निकृष्ट ( अपवित्र ) वस्तुओंका स्तेमाल नहीं करते थे अमृतपायो होते हैं। उनको प्रसन्नताके खातिर बलि चढ़ानेकी बात कहना, उनकी निन्दा करना है। ऐसे जीय देवनिन्दक हैं- देवभक्त नहीं हैं ।। ८० ॥
भावार्थ--अज्ञानी विषयकषायको पोषण करनेवाले लोग ही स्वार्थवश खोटे शास्त्रोंकी रचना करते हैं जोर उनमें स्वार्थवश देवता आदिको आड़ { ओट में अपने स्वार्थकी सिद्धि करते हैं । जिन्हें स्वयं पापसे भय नहीं है, निर्भय होकर पाप कार्य करते हैं, हिंसा-झूठ चोरी कुशील-परिग्रहसंचय आदि पांचों पापोंमें प्रवृत्ति करते एवं संलग्न रहते है वे अपने पापों और पापमय प्रवृत्तियोंको छिपाने या पुष्ट करने के लिये ही अपनी कलम ( लेख )से शास्त्रोंमें उनकी वैधता लिख देते हैं और उसकी दुहाई देकर घोर पाप करके आजीविका ( रोजी) चलाते रहते हैं । ऐसे जीव नरकगामी घोर पापी समझे जाते हैं जो शास्त्रोंमें असंभव दुराचारपूर्ण बातें भर देते हैं । जिन शास्त्रोंमें लोकविरुद्ध ( नैतिकताके विपरीत ) कथन पाया जावे वे शास्त्र नहीं, शस्त्र हैं ! और उनके कर्ता ( लेखक ) अज्ञानी विषयकषायी हैं। उन शास्त्रोंका आदर करना, उनकी बात मानना व्यर्थ है अस्तु । देवताओं, गुरुओं आदिके नामपूर पापाचरण करना बोर अन्याय है ! देवता या गुरु कुकर्म करनेसे (जीवहिंसा, मदिरापान आदिसे ) प्रसन्न नहीं होते और धर्म उनके हाथ में नहीं हैं, धर्म प्रत्येक जोधके हाथमें है और वह सदाचार पालने से होता है 'जियो और जीने दो' के सिद्धान्त पालनेसे धर्म होता है। अनार्योने हो स्वार्थवश हिंसाको धर्मका रूप दिया है आोंने नहीं दिया है। शास्त्रों में एकमत । एकरूपता ) नहीं है, कोई कुछ बताता है तो कोई कुछ बताता है, क्या सही माना जाय? १. ख़तरा या हानि, धर्मकी प्राप्ति नहीं होती है उल्टा अधर्म प्राप्त होता है इत्यादि । २. आराधना-सेबा।
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महिसाणुनत संशय हो जाता है इत्यादि । इलोकमें जो 'देवता' पद लिखा है, उसका अर्थ 'आत्मा या आत्मदेव है' वह आत्मदेव सदाचारसे, मिथ्यात्व व कषाय छोड़नेसे ही प्रसन्न होता है और तभी बह मोक्षको स्वयं प्राप्त करता है ऐसा सत्य समझना चाहिये मुलावेमें नहीं आना चाहिये । अन्य गगीवेषी देवता नहीं हो सकते । वीतरागी भेदज्ञानी सम्यग्दष्टि हो देवता हो सकते हैं वे ही धर्मके स्वामी हैं अन्य नहीं, अस्तु ।
जो हिंसाको धर्म बताते हैं वह ठीक नहीं है। यथा पूज्यनिमित्तं पाते छागादीनां न कोऽपि दोषोऽस्ति । इति संप्रधार्य कार्य नातिथये सस्वसंज्ञपनम् ।।८।।
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पद्य अतिधिजनोके खातिर हिंसा करादिककी करनेसे । पाप नहीं लगता है किंचित् बन्द न करना शुरनेसे ।। यह विचार है मधमजनोंका जो कुकर्म यह करते हैं ।
इष्ट न जो हो अपने खातिर घे पर नहिं बारसे है। अन्वय अ.....जो कहते हैं कि [ पूज्यनिमितं छागादीनां पाते कोऽपि दोषो नास्ति ] अतिथि ( अभ्यागत-साधु ) आदि आदरणीय पुरुषोंके लिये बकरा आदि पशुओंका घात ( हिंसा ) करने एवं उन्हें खिलाने में कोई दोष ( पार नहीं होता ( लगता ) अपितु धर्म ही होता है इत्यादि । आचार्य इसका खंडन करते हैं कि [ इति संप्रचार्य अनिश्रये सरबसंझपन न कार्य ] उक्त प्रकारको मिथ्या धारणा करके कोई भी समझदार व्यक्ति जीवोंको हिंसा न करे, न करना चाहिये क्योंकि जीवहिसा कभी धर्मरूप नहीं होती, यह नियम है ।। ८१ 11
भावार्थ-मनुस्मृति आदि स्मृति ग्रन्थों में हिंसा करने, मांस खाने-खिलानेका विधान कषाय या स्वार्थ आदिके वश किया गया है क्योंकि वे स्वयं वैसा करते थे। अतः वह मान्य नहीं हो सकता । निःस्वार्थी और स्वार्थी पुरुषोंके उपदेश में बड़ा अन्तर रहता है । स्वार्थी लोग दूसरोंका भला बुरा नहीं देखते । उनका 'बूढा मरे कि जवान हत्यासे काम' यह लक्ष्य रहता है। कहा भी है। 'अर्थी दोषं न पश्यति' । ऐसी स्थिति में उनकी हिंसाको धर्म बत्तानेकी मान्यता ठाक या उचित नहीं कही जा सकतो, अतः बह हेय व खंडनीय है । खानेवालों और खिलानेवालों तथा समर्थन अनुमोदन करनेवालोंको पाप लगता है और उसको सजा अवश्य भोगना पड़ती है चाहे वह कोई भी । १. अतिथि या आदरणीय गुरु आदि । २. बकरा बैल वच्छा आदि । ३. जीवहिंसा (प्राणिबश्व ) । ४. बर्ताव करते, आचरण में लाये ( गुजराती भाषा ) ।
काम
Hemon
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पुरुषार्थसिद्धा
हो । पाप व पारा दव नहीं सकता यह नियम है, अवश्य प्रकट हो जाता है । कभी-कभी इसी लोकमें और कभी-कभी परलोकमें वह अपना फल देता है इत्यादि ।
कोई यह कुतर्क करता है कि छागादिक स्थूल प्राणियों को मारकर खाने में धर्म होता है क्योंकि raries are चीजोंके खाने में अनेक छोटे जीवोंकी जो हिंसा होती है वह बच जावेगी याने उनको रक्षा होनेसे धर्म की प्राप्ति हो जायगी ( संभव है । यह पुष्टि वह करता है । यथा---
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बहुसघातजनितादर्शनाद्वरमेकसच्चघातोत्थम् इत्याकलय्य कार्यं न महासन्यस्य हिंसनं जातु ॥८२॥
पक्ष
बहुजtter
की।
इससे अच्छा भोजन बनता बढ़े जीवके मारे ||
ऐसा निर्दय कुतर्क करके जीवघातना कभी नहीं । छोटा बड़ा जीव धातेसे पाप लगत है उसे सही ||२२||
अन्वय अर्थ --- कोई वादी कुतकं करता है कि [ बहुसावधान जनतामा एकसात अशनं वरम् ] शाक अन्न आदिके द्वारा प्यार किये जानेवाले भोजन ( आहार में बहुत जीवोंका विघास होता है अतः उसकी अपेक्षा एक बड़े जीवको मारकर उसके मांससे प्यार किये जानेवाले भोजनमें कमती हिंसा होती है अतः वह भोजन श्रेष्ठ है ( उत्तम ) है, उससे छोटे-छोटे बहुतसे जोव मरने से बच जाते हैं फलतः उनका बचना धर्मका हेतु है इत्यादि हिंसाको पुष्टि वह (वादी करता है। आचार्य उसका खंडन करते हैं कि [ इस्यालदय महासस्वस्थ हिंसनं जातु न कार्य ] उक्त प्रकारके कुतर्कपर विश्वास करके कभी भी बड़े जीवकी हिंसा नहीं करनी चाहिये - हिंसा करना महापाप व धर्म है, वह धर्म नहीं हो सकता इत्यादि ॥ ८२॥
}
भावार्थ ---- अन्यमतों में आहारदानको उच्च स्थान दिया गया है। वह बड़ा दान या महादान माना गया है । तदनुसार उनका कहना है कि यदि आहारदानके लिये हिंसा भी करना पड़े तो पाप नहीं लगता, कारण कि उद्देश्य अतिथिदान का है। उसके अन्दर भक्ति व परोपकार शामिल रहता है, जिससे धर्मं प्राप्त होता है इत्यादि । इसका आचार्य खंडन करते हैं कि भक्तिभाव कथंचित् ( व्यवहारनयसे । धर्म माना जा सकता है किन्तु पापकार्यं करके धर्मोपार्जन करना यह उचित नहीं है अपितु अनुचित व वर्जनीय है। कारण कि पापकार्यका फल अलग मिलता है और पुण्यकार्य ( भक्ति व परोपकार )का फल अलग मिलता है। इससे पापके साथ पुण्य करना ठाक नहीं है । अथवा धर्मके खातिर ( अतिथिदान के खातिर ) अधर्म या हिंसा करना मना है । उद्देश्य खराब अर्थात् हिंसाका नहीं होना चाहिये तब क्रियाका फल अच्छा मिलता है, कारण कि धर्म और अधर्म परिणामोंसे हुआ करता है यह न्याय है । अतएव जब अन्यमती पूज्यपुरुषोंके लिये भोजन करानेको प्राणीका वध ( हिंसा-हत्या ) करते हैं सब वे संकल्प करके ही करते हैं अतएव के पाप अधर्म के
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अहिंसाशुनत
हो भागी मुख्यतया होते हैं, गौणरूपसे साथमें राग या भक्ति के अनुसार कुछ थोड़े नीच जातिके पुण्यकी भो प्राप्ति हो सकती है। इसको पापानुनधी पुण्य कह सकते हैं ऐसा खुलासा समझना तथा हिंसा करके धर्म मानना--पापानुबंधी पाप समझना । अस्तु ।
नोट----इलोक नं० ७९ से श्लोक नं०८९ तक धर्म के विषयमें यही निर्णय समझना कि अन्य मतियोंको धारणा अज्ञानतापूर्ण है, उद्देश्य कुछ भी हो किन्तु क्रिया स्वराम ( साधन खराब ) न हो अर्थात् हिंसामय न हो तभी लाभ कुछ हो सकता है, खोटी क्रियासे चोखे उद्देश्यकी पूर्ति नहीं होती न की जा सकती है ऐसा समझना चाहिये ।
विशेष स्पष्टीकरण जो जीव विषयकषायका 'पापसे लिप्त हैं या युक्त हैं वे स्वयं पापी होते हैं तथा जो जीव उनमें अनुरक्त होते हैं अर्थात् उनमें श्रद्धा रखते एवं उनके भक्त होकर उनका आदरसत्कार ( अतिथि सेवा ) व उन्हें आहारादि देते हैं वे भी पापियोंकी उपासना करने वाले पापी हैं व माने जाते हैं। ऐसी स्थिति में खोटी क्रिया ( साधन ) करके अन्य मूक गरीब असहाय जीवोंको मार करके उन विषयकषाघवान् (पापी) जीवोंको खिलाना, प्रसन्न करना उनको कल्याण करने वाले ( निस्तारक) समझना महामूर्खता ( अज्ञानता ) है कोरा भ्रम है। कारण कि वे स्वयं नहीं तरते ( संसारसे पार नहीं होते ) तब दूसरों भक्तों ) को पत्थरको नायके समान कैसे तार सकते है ? नहीं ना करे, यह उपाय ।।शुकषाको पोषण करनेसे पापानुबंधी हैं, पुण्यानुबंधो नहीं हैं । फलतः कुपात्रों ( मिश्यादष्टियों विषयकषाय-सहितों ) या अपात्रोंको दानादि देने से कोई लाभ नहीं होता उल्टा नुकशान ही होता है ( नारकादि या कुमनुष्य कुदेवादि होना पड़ता है) क्योंकि यह प्रशस्त राग नहीं है-अप्रशस्त राग है ( सुपात्रोंमें न होकर कुपात्रों में है ) इसके सिवाय खोटे साधनों । हिसादि ) से वह सब किया जाता है। जैसे चोरी करके लाये हुए उन्धसे भगनान्को पूजा या सेवा नहीं की जा सकती वह निषिद्ध है। यदि वैसा कार्य पवित्र कायों में भी किया जाने लगे तो लोकमर्यादा ( व्यवस्था) हो सब चौपट हो जाय । क्योंकि चोर 'डाकू अन्यायी, पापकार्य करके भी थोडाबहुत दानपुण्य करके बरी हो जायगे----उन्हें सजा न मिलेगी वे कह देंगे कि हमने ता अन्यायका द्रव्य दान पूजादि अच्छे कार्योमें खर्च कर दिया है तब सजा काहेकी ? इत्यादि सब लोकव्यवहार या लोकके कानून कायदे मिट जावेंगे और आपत्ति आ जायगी तथा परलोकका भय भो जाता रहेगा--अन्धाधुन्ध पाप व अन्याय होने लगेमा, किम्बहुना। १. विषयकषाय खुद पापरूप है और उन सहित जीव पापी है तथा उनमें श्रद्धाभक्ति अनुराग करने वाले
भक्त भी पापी है। प्रतः उनको पुण्यानुबंधी ( पुष्यबंध करने वाले ) मानना कल्पनामात्र है, असल में वे पापानुबंधी है। 'आप डुबन्ते पाड़े ले डूब धजमान' समान हैं । पत्थरकी नाव समाम है, ऐसा समक्षना । थे न स्वयं तरते हैं न भोंको सार सकते हैं । उक्तंच
जदि ते विषयकषाया पावत्ति परूविदा क सस्थेसु । कह ते तपडिक्दा पुरिसा णित्यारगा होति ॥ २५८ ॥ प्रव. सम्.
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HTTEE Maintam se NAWAPUN. MAHARASITRA
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पुरुषार्थसिनापाथ बुरे कार्यका बुरा नतीजा होता है, यह समझकर हिंसाको धर्म कभी नहीं मानना चाहिये, उल्टी गंगा नहीं बहती 1 अहिंसा हो धर्म है व रहेगा, पापी जीव दूसरोंको नहीं तार सकते, न स्वयं, तर पाते हैं, जिनके हिंसा आदि पांच पाप व क्रोधादि चार कषाएँ मौजूद हैं इत्यादि सारांश है ।। ८२।।
आगे अतिथिदानकी सरह परोपकारके लिये भी हिंसा करना बुरा है, धर्म नहीं है, वर्जनीय है, यह बताया जाता है यथा---
रक्षा भवति बहूनामेकस्वास्थ जीवहरणेन । इति मत्वा कर्मव्यं न हिंसनं हिंस्रसत्वानाम् ।। ८३ ।।
पद्य
हिंसक एक लील शातेले रक्षा की होती है। अत: भारना उपका उत्सम धर्मास भी होती है । ऐसी दुर्बुद्धीमें पड़कर नहीं मारना हिंसक जिय ।
जीव मार" से धर्म न होता, धर्म होस रक्षासे प्रिय ! ॥ ८॥ - अन्षय अर्थ---वादो कहता है कि एकस्यैव अस्य बहरणेन बहनो रक्षा मचति ] एक बड़े हिंसक जीवके मार डालने से बहुतसे छोटे जीवोंको रक्षा होती है जिससे परोपकार होता है व धर्मकी प्राप्ति होती है इत्यादि । इसका खंडन आचार्य करते हैं कि [ इति मत्वा हिंसमवाना हिंसनं न कम्यम् ] पूर्वोक्त कुशिक्षा या मिथ्या उपदेश मानकर हिंसक जीवोंकी हिंसा नहीं करना चाहिये वह खाली भुलावा देता है ।। ८३ ॥
भावार्थ----हिंसा पाप है जो हमेशा पाप ही रहता है जैसे विष सदेव विष ही रहता है, कभी अमल नहीं होता। इसलिये हिंसा करके परोपकाररूप धर्म महों हो सकता। वास्तवमें देखा व विचाग जाय तो परोपकार उसको अज्ञानता मिटानेसे होता है किन्तु अज्ञानता बढ़ानेसे नहीं होता, क्योंकि गुमराह करना महा अपकार माना गया है। क्या धर्म ( अहिंसारूप ) प्राप्तिके लिये हिसारूप अधर्म करना उचित उपाय है ? नहीं, तब हिंसक या अहिंसक किसी भी जीवका मारना कर्तव्य नहीं हैं..-बह तो अधर्म है अतएव उसको छोड़ देना ही हितकर है ऐसा समझना चाहिये। जीवोंको रक्षा या दया करना धर्म है किन्तु वह दया दो प्रकारकी होतो है ( १ ) स्वदया (२)
१. घात । २.. हिंसक-खूखार । ३. कुशिक्षा । ४. घात-हिंसा। ५. सम्बोधन-प्यारे ।। कोमलालाप)
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अहिंसाणुमत परदया, दोनोंका जानना जरूरी है। स्वदया--विकारी भावीका ( अज्ञान, मिथ्यारव, कयायका ) हटानारूप, है परदया—अन्य एकेन्द्रियादि जीवोंको रक्षा करनारूप है। पदके अनुसार यथासम्भव दया धर्म पालना अनिवार्य है। अस्तु पापक्रियासे धर्म नहीं होता यह निश्चय है । वैसे तो दयाको धर्म कहना भी व्यवहार है, परन्तु वह शुभ या प्रशस्त व्यवहार है अतः कचित् कर्तव्य है ।।८३३
आगे.....करुणाबुद्धिसे भी अन्य जीवों को मारना अधर्म है, ऐसा कहकर हिंसाका त्याग आचार्य कराते हैं।
बहुमत्त्वघातिनोऽमी जीवन्त उपार्जयन्ति गुरुपापम् । इत्पनुकम्पकत्सा सविसनीयाः शरीरिणो हिसः ।। ८४ ।।
पद्ध
बहीमों के बाती हिंसक यदि बडुकालो लीलेंगे। बहुत पाप उनको कामेगा, पापमुक्त नहिं होगे ।। अतः दयाकर उन्हें मारमा जल्दी पुण्य खे पाचंगे।
ऐसा दुष्ट विचार न करमा हिंसापाप लगावेंगे ॥४॥ अभ्यय अर्थ-वादी कहता है कि [ बहुसरवघातिमः अमी जीवन्तः गुस्पा उपायम्सि ] बहुतजोबोको मारने वाले प्राणी यदि बहुत समयतक जियेंगे तो वे महान् पाप उपार्जन ( पैदा ) करेंगेपापोंसे कभी छूटेंगे ही नहीं, अतएव दया या करणा करके उन्हें जल्दी मार डालना चाहिये, जिससे वे पापोंसे बच जावेंगे । इसका खंडन आचार्य करते हैं कि [ इति अनुकंपा कृत्वा हिंसा: परिण: म हिंसनीयाः ] पूर्वोक्त कथनपर विश्वास करके कभी भी हिंसक जीवोंको नहीं माना चाहिये, क्योंकि हिंसा करनेसे नया पापही लगता है--पाप छटता नहीं है यह नियम है। जैसे कि सूनका दाग और खून लगानेसे नहीं छूटता ( पुष्ट होता है-बढ़ता है)। अतएव किसी भी जीवकी हिंसा नहीं करना चाहिये, पूर्वोक्त हिंसाका कथन असत्य व मिथ्या है---नैतिकताके भी विरुद्ध है ।। ८४ ॥
भावार्थ----सत्यको हमेशा विजय होती हैं, धर्म या पुण्यको जड़ पातालतक गहरी मजबूत जातो है व सदैव हरीभरी रहती है। सदनुसार 'अहिंसाधर्म हो सत्यधर्म है, और उसका फल सदेव मीठा हितकर मिलता है। धर्मात्मा जोब जहाँ भो कहीं रहेगा नरक-स्वर्ग-मोक्षमें वहीं वह सुख मवेगा। बाहिरी दुःखके कारण, कोई उसको दुःखी व विचलित नहीं कर सकते, वह वस्तु स्वरूपके विचारमें इतना मग्न । तन्मय ) रहता है कि उसका उपयोग अन्यत्र जाता ही नहीं है...एकाग्र आत्मस्वरूप में ही लीन रहता है, आत्मानुभव करता है-आत्मसुखका स्वाद लेता है इत्यादि उसमें बह विभोर हो जाता है 1 बाहिरके सुखदुःखादिको वह औपाधिक । नैमित्तिक-सयोगज ) व अनित्य मानता-जानता है, अतएव उनकी परवाह यह नहीं करता, उनमें अरुचि रखता है । हों संयोगो पर्यायमें मौजूद होनेसे वह पाप व अधर्मसे बचनेका प्रयत्न व्यवहारनयसे अवश्य करता है। और प्रत्येक प्राणीको करना चाहिये, लेकिन निश्चयसे निर्भय रहना चाहिये । इसीसे हिंसा-हरक
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पुरुषार्थसिद्धयुपायं
चोरी -कुशील आदि पापकार्य करना बन्द कर देना चाहिये ऐसा सत्य उपदेश दिया गया है । सदाचार जोवनका मूलधन है, उसकी रक्षा करना प्राणीका प्रथम कर्तव्य है, अस्तु ।
विशेषार्थ - जो जीव ( कुगुरु ) यह कहता है कि बहुत जावोंको मारने खानेवालेको तुरन्त मार डालना चाहिए ताकि अन्य छोटे जीव बच जाँय और वह हिंसक भक्षक जीव आगेके पापोंसे छूट जाय, उसका भला हो जायगा, इत्यादि दयालुता बतलाता है वह मूर्ख परोपदेशी पक्या यह नहीं सोचता कि हमारे मिथ्या उपदेशसे जी हिंसक जीव मारे जायेंगे (शेर, तेन्दुआ वगैरह ) उनकी हिंसा से हमें पाप न लगेगा व हम बहुहिंसक सिद्ध न होंगे, जिसने उपदेश देकर उन सबको हिंसा करवाई है ? कारिका दोष हमें भी तो लगेगा ? ऐसी हालत में उक्त तर्कवादियोंका निराधार कोरा बकवास है और कुछ सारभूत नहीं है । वह 'दूसरे नसीहत खुदरा फजीहत की बात जैसी है, अतएव मान्य नहीं हो सकती वह उनके दिमागको सूझ व बीमारी है, अस्तु । कभी झूठा व्यामोह नहीं करना चाहिये, उससे हानि ही होती है। ज्ञानका या बुद्धिका प्रयोजन ( उद्देश्य ) feast प्राप्ति और अतिका परिहार (त्याग) करना है, इसको हमेशा ध्यानमें रखना चाहिये तभी बुद्धिमानी है अन्यथा पशुमें और उसमें कोई भेद नहीं समझना चाहिये, अस्तु ।
"अज्ञाननिवृत्तिः हानोपादानोपेक्षाश्च फलम् " -- परीक्षामुख ( सूत्र नं० १ पञ्चम समुद्देश ) में पुष्टि की है '
इसी तथ्यको न समझकर वादी आगे और भी कहता है उसका खण्डन आचार्य करते हैं ।
यथा-...
बहुदुःखाः संज्ञेषिताः प्रयान्ति त्वचिरेण दुःखविच्छित्तिम् । इति वासना पाणीमादाय न दुःखिनोऽपि हन्तव्याः ||८५ ||
पा
great efeat ita arतसे दुःख उनका मिट जाता है। अत: मारमा उनको जल्दी दुःख न बढ़ने पाता है | ऐसी मिथ्या श्रवा करके जीव घात नहिं करना है।
करनी का फल मिल जीवको होनहार नहिं टलना है ||टप
अन्य अर्थ ----वादी कहता है कि [सु बहुदुःखमंशयिताः अचिरेण दुःखविद्धिसिं प्रयाति ] यदि अत्यन्त दुःखी दरिद्री प्राणियोंको मार डाला जाय तो वे तुरन्त दुःखोंसे छूट जाते हैं अर्थात्
१. बहुत दुःखिया जोब ।
२. मार डाले गये जीव ।
२. दुःख से छूटने के इच्छुक
४. दुर्वासना ( मिथ्या श्रद्धा ) रूपी तलवार ।
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अहिंसाणुव्रत उनके दुःख नष्ट हो जाते हैं अतएव उनके मार डालनेमें धर्म होता है, अधर्म या पाप नहीं होता, यह लाभ है। आचार्य खंडन करते हैं कि [ इति वासनाकपाणीमादाय मोमिन ] पूर्वोक्त मिथ्या वासना या कुशिक्षारूपो कृपाणी ( तलवार )को ग्रहपकर कोई भी समझदार दुःस्त्री प्राणियों को भी न मारे, इसी में भलाई है । हिंसा किसी जीवको हो उससे पाप व अधर्म लगता ही है, उससे धर्मकी प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। करनीका फल अवश्य मिलता है, उसे कोई टाल नहीं सकता, यह नियम है ।। ८५ ।।
भावार्थ ....मिथ्यात्वके उदयमें अर्थात् मिथ्यादर्शन ( श्रद्धान ) के कालमें सब उल्टा-उल्टा ही सुझता है अतएव वह जीव खुद अपना ही घात करने लगता है। हितकारी बातोंपर विश्वास नहीं करता और अहितकारी बातोंपर विश्वास करता है उसीके अनुसार चलता है ( वर्ताव करता है । हिंसाको धर्म मानता है, अहिंसाको धर्म नहीं मानता, उससे घृणा करता है उसको बुराइयो बतलाता है। उसके मानने व बरतने बालोंको कायर-डरपोक-अकर्मण्य { आलसी) कहता है, जो सच्चे शरवोरोंका कर्तव्य है एवं सच्चे शरवीर हो जिसका पालन कर सकते हैं। मारनेवालेसे रक्षा करनेवाला बड़ा होता है। जिन विकारी भावों को लौकिक शूरवोर नहीं जीत सकते, उनको एक वीतरागी अहिंसात्रती साधु, बातको बातमें ( क्रीडामात्रमें ) जोत लेता है। मोह, मद, मात्सर्य आदि कषायोंको जीतना सरल नहीं है। उनको अहिंसाधर्मी ही जीत सकता है, उन कामादिकोंको वही चशमें कर सकता जो त्रिलोकविजयी हैं । मोही रागो द्वेषी जीव उनको वशमें नहीं कर सकते, अतएव वे संसार में भटकते रहते हैं। 'शूरवीर वही है, जो कषायोंको निकाल देवे ( भगा देवे, उनकी परवाह न करे ) किन्तु जो कषायोंके चक्कर (वश) में आकर तरह २ के हिंसा आदिक पाप करे, वह शूरवीर नहीं है, अपितु वह कायर है, ऐसा समझना चाहिये ।
प्रसंगवश विशेष कथन देखो, जब तक सच्ची शूरवीरता । सम्यग्दर्शनपूर्वक निर्भयता । आत्मामें प्रकट नहीं होती अर्थात् चारित्रगुण प्रकट नहीं होता अथवा तीव्र रागका उदय ( अस्तित्व ) रहता है तब तक पर पदार्थोंको हेय मानता हुआ भी उन्हें त्याग नहीं सकता, अतः वह उनके त्यागे बिना शूरवीर नहीं कहला सकता। इसीलिये विषय कषायवाले या पाखण्डी मनुष्य शूरबोर न होने से संसारका या विकारीभावोंका ( पापोंका ) त्याग नहीं कर पाते । फलतः विषय-कषायोंकी प्रबलता होना महान अपराध और बन्धन है ऐसा समझ कर उनके छोड़नेका ही उपदेश दिया गया है। स्व. पं० दौलतरामजीने विनतीमें लिखा है कि-"आतमके अहित विषय-कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय" इत्यादि । एक साथ अनेक कषाएँ तीन मन्द आदि रूपसे उदयमें आती हैं। बुद्धिपूर्वक कमी किसी कषायको दबाया जाता है और किसी ऋषायका पोषण किया जाता है अर्थात् पुष्टि की जाती है। कभी लोभ कषायको पुष्ट करने के लिए क्रोध मान कषायको दबाया जाता है ( एकको दबाना दूसरेको नहीं दबाना खुला या प्रकट रखना)। जैसे दुकानदार पैसे के लोभ ( राग) में ग्राहककी खोटी-खरी बातें भी सुन लेता है ( माम व क्रोधको दवाये रखता है और क्रोधी मानी पुरुष क्रोध व मानको पुष्ट करने के लिये, घर उजाड़ देता है, लोभ नहीं करता इत्यादि । अतएव पाखण्डी
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पुरुषार्थसिद्धयुपाय साधु आदि स्थाति लाभ पूजा आदिके लोभ ( राग ) से स्वर्गसुखके लोभसे घर-द्वार राज्य-संपदा आदिको छोड़ देते हैं, क्रोध व मानको दबा देते हैं। द्रव्यलिंगी साधु, नरकादिके तीव्र भयसे या स्वर्गके लोभसे बाह्यपरिग्रह आदिका स्याग कर देते हैं अर्थात् परिग्रह में लोभ छोड़ देते हैं, इत्यादि दृष्टान्त देखने में प्रत्यक्ष आते हैं। क्या कहा जाय परिणामोंकी गति ( चाल ) बड़ी विचित्र होती है, उसको समझना कठिन है किम्बहुना । हाँ, सम्यग्दर्शन व मिथ्यादर्शन 'श्रद्धाल' पर निर्भर हैज्ञान व चारित्र ( क्रिया ) पर निर्भर नहीं है कारण कि दोनोंके निमित्त { आवरणादि ) जुवे-जुदे हैं ऐसा समझना चाहिए, भ्रम या भूलमें नहीं पड़ जाना चाहिये । अस्तु ।
नोट---(१) त्याग अर्थात् परवस्तुका छोड़ना, तीव्र कषायमें होता है व भन्द कषायमें भी होता है, वैराग्यमें होता है, कषायके अभावमें होता है इस तरह चार निमित्तकारण माने जाते हैं। इनमें वैराग्यनिमित्तक व कषायके अभावनिमित्तक त्याग, स्थायी व निबन्ध (संबररूप) होता है और सीब कषाय व मन्द कषायनिमित्तक त्याग, अस्थायी व सबन्ध ( आस्रवरूप ) होता है, यह मोटा भेद है। अतएव साधुओं में भी अनेक तरहके साधु (मुनि) होते हैं। द्रव्यलिंगी, भावलिंगी, पाखण्डी, जैनाभास इत्यादि जानना, अस्तु, कारणविपरीतसे फलविपरीत होता है, यह नियम है। कारणविपरीतसे फल अविपरीत कभी नहीं होता ( असम्भव है ) कारणसे असल में उपादानकारण लेना चाहिये, जैसे कि बील! अन्नद हिन्त होगा निमित्तकारण नहीं लेना चाहिये। हाँ, लोकमें जरूर भूमिको अच्छा या बुरा कारण माना जाता है। इसी तरह साधुओंको भी पात्र या कुपात्र या अपात्र कारण माना जाता है, अतः तदनुसार फल व्यवहारमें माना गया है इत्यादि । निश्चयसे बात दूसरी तरकी होती है, किम्बहुना ।
(२) पर वस्तुका त्याग सम्बग्दष्टिके वैराग्यसे ( भिन्न मानकर स्वतः राग नहीं करता) होता है अर्थात् उससे अरुचि होती है। अतएव मूल रागका स्यागना त्याग है, पश्चात् बाह्य परिग्रह बिना आलम्बन ( राग या चिकनाई ) के स्वयं छूट जायगा, इस तरह ज्ञान वैराग्य सम्यग्दृष्टिके साथ-साथ होता है किन्तु मिथ्याष्टिका त्याग वैराग्यसे नहीं होता, कषाय या भय व लोभसे होता है यह भेद है। द्रव्यलिंगीके स्वरूपविपर्यय और कारणविपर्यय दोनों होते हैं। वह अपने स्वरूप या स्वभावको भी नहीं जानता कि मेरा स्वभाव---ज्ञान-दर्शन है, और रागादि सब विभाव हैं, नैमित्तिक हैं, संयोगज हैं ऐसा भेदरूप सही वह नहीं जानता इत्यादि, वह मूलमें भूला हुआ है।
आगे और भी वादीका खण्डन किया जाता है कि सुख प्राप्त करानेको भावनासे भी अन्य प्राणीका घात करना अधर्म है, धर्म नहीं है ---
कुच्छेण सुखावाप्तिर्भवन्ति सुखिनो हताः सुखिन एव । इति सर्कभण्डालोग्रः सुखिनो घाताय नादेयः ।।८६।।
AmALA
wivyunsaharsh......
१. कष्टसे या कठिनतासे । २. तरूपी खड्ग । ३. ग्रहण नहीं करना या ग्रहण करने योग्य या मानने योग्य नहीं है.....अग्राह्य है।
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अहिंसाणुषस
सुपरखमाप्ति होती मुश्किलसे बड़े पुण्यका बह फल है। अतः मारना सुखियाको रे, अथ बह सुख में निश्चल है । यह कुतर्क है बुष्टममोका, फल इसका उल्टा होता।
मही मारना सुखोजनाका, सुख तो करनी से होता ॥१६॥ अन्वय अर्थ-..जादी कहता है कि [ कृच्छेप सुखावाप्तिभंत्राप्ति ] सुखको प्राप्ति बड़ी कठिनाईसे होती है । पुण्य और लपस्था आदिसे होती है ) असाएय [ सुखिनः हताः सुखिन एव भवन्ति ] सुख सम्पन्न जोबौंको मार डाला जाय तो वे सुनी ही सदैव रहेंगे। इसका खण्डन किया जाता है कि [इलि तक मंडलानः सुग्लिन पासाय नादेयः । उक्त प्रकारका कुतकरूपी खड्ग ( तलवार धारण करके अर्थात् उक्त कथनपर विश्वास करके कभी किसी सुखी या दुःखी जीवको नहीं मारना (धात करना) चाहिए, उससे धर्म नहीं होता, अधर्म हो होता है 1 सुख-दुःख सब करनीका फल है 'जैसी करनी तैसी भरनी' इत्यादि ।।८६।।
भावार्थ-मिथ्या बासना वश जोन तरह २ के विकल्प ( तक ) करके कषाय पोषण करते हैं म उसी के अनुसार प्रवृत्ति न आवरण भी करते रहते हैं। जिसका फल उन्हें अनन्त संसारका दुःख भोगना पड़ता है, उन्हें सुखशान्ति कभी नहीं मिलती। अतएव जब वह मूलको भूल (मिथ्यावासना ) मिटे तब ही उस जीवको ( या सभी जीवोंको ) सुबुद्धि ( यथार्थ ज्ञान व श्रद्धान) उत्पन्न हो, और वैसी ही प्रतीति हो तथा उसी के अनुसार वह यथार्थ प्रवृत्ति (आचरण चारित्र) करके { अहिंसारूप रत्नत्रय धर्म धारण करे ) सुखी होवे या मोक्ष जावे, दूसरा उपाय नहीं है, चाहे कोई कितना हो उपाय क्यों न करे! सब झूठ है। यह वीतराग सर्वज्ञका उपदेश है-अल्पज्ञानी रागी द्वेषियोंका उपदेश नहीं है । इस पर विश्वास या श्रद्धान हुए बिना सब निरर्थक है---भटकना है । दुःख है कि प्रायः सारा संसार सत्यको भूला हुआ है और असत्यका उपासक हो रहा है इसका विचार करना चाहिए। अन्ध सर्प विल प्रवेश' न्यायसे लोग सुमार्ग पर नहीं आते, इधर-उधर तफले हुए घूम रहे हैं व दुःख भोग रहे हैं। भला यह कहाँका न्याय है कि सुखियों को मार डालने से वे सुखी रहेंगे और मारनेवाले भी सुखी हो जायेंगे? यह तो अन्याय है 'कोई करे और कोई पावे' यह न्याय कैसा ? जो करता सो भोगता, न्याय तो ऐसा है। यदि ऐसा होने लगे तो लोक व्यवस्था हो सब गड़बड़ हो जाय, यम-नियम आदि धर्मशास्त्रको बातें झूठो व बेकार हो जायें। तथा किसो जीबको मारना, यह दया ( धर्म ) है कि निर्दयता ( अधर्म ), यह भी तो विचारता चाहिये ? परन्तु सम्यग्ज्ञान र यथार्थ ज्ञान ) के बिना सब अन्धे हो रहे हैं किम्बहुना 1 अन्याय व अधर्मका त्याग करनेवाला शूरवीर है और उसका गोषनेवाला व छिपानेवाला कायर है, वहन स्वयं तर सकता है न दूसरोंको तार सकता है।
ठगिया धोखे बाज अथवा चतुर चालाक जीव भोले भाले जीवोंको गुमराह करके...-उल्टा १. साधना या शुद्ध परिणाम ।
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पुरुषार्थसिद्पुपाय उपदेश दे करके अपना स्वार्थ सिद्ध किया करते हैं, उन्हें यह भय नहीं रहता कि इसका क्या नतीजा होगा? स्वार्थान्ध आगा-पीछा नहीं देखते, अतः उनका विश्वास कभी नहीं करना चाहिये, यह सारांशा है। गाड़ी पर जिका भात लागू नहीं होता कि 'मज ( घासविशेष ) को जला देनेपर नया अच्छा मूंज पैदा हो जाता है, वह तो जड़ पदार्थ है उसे क्या सुख-दुःखको खबर है ? कुछ नहीं है, अतः व्यर्थ है ।८।।
आगे धर्मप्राप्तिके विषय में भी कुतर्क उठाकर खण्डन किया जाता है ( धर्मात्माको मार झालनेसे उसे धर्म प्राप्त नहीं होता)
उपलब्धसुगंतिसाधनसमाधिसारस्य भूयसोऽभ्यासात् । स्वगुरोः शिष्येण शिरो न कनीय सुधर्ममभिलपता ॥८७!
ध्यान निमग्न स्थगुरुका अदि कविं शिर उच्छेदन कर देवे । धर्म हितैषी शिष्य वही है जो सुगप्तिको पहुँचा देवे ।। है कुतर्क अरु बहन वह है--शिष्य को गुरुका धास्त करे ।
गुरुसेवाके पहले क्या वह गुरुका शिर उच्छे करे ||८|| अन्वय अर्थ-बादी कहता है कि [ भूयसोऽभ्यासात् उपलवसुगलिसाधनमाश्निसारस्य स्वगुरोः शिरः कनीय ] जिस महात्माको बहुत समयके अभ्यास द्वारा ( प्रभ्यास करते २) सुगति ( स्वर्ग-मोक्ष ) के साधनरूप यम, नियम और समाधिरूप सार चोज प्राप्त हो गई हो, ऐसे अपने उपकारी गुरुका यदि समाधिक समय मरतक काट दिया जाय तो गुरु-शिष्य दोनोंको धर्मको प्राप्ति होती है। इसका खण्डन आचार्य करते हैं कि सुधर्ममभिलषता शिष्येण स्वगुरोः शिरन कसनीय। सुधर्म अर्थात् उत्तम अहिंसाधर्मके अभिलाषी ( इच्छुक ) शिष्यको । विवेकी जीवको ) कभी भी अपने धर्मनिमग्न अर्थात् समाधि ( ध्यान ) में लगे हुए { दत्तचित्त ) गुरुका शिर नहीं काट देना चाहिये, क्योंकि वह हिसा व अधर्म है, उससे मुरु शिष्य दोनोको धर्म प्राप्त नहीं हो सकता--पाप ही लगता है । धर्म अहिंसामय होता है, हिंसामय नहीं होता ॥८७||
भावार्थ-जो शिष्यादि ( भक्तजन ) किसी किस्मकी हिंसा करता है अर्थात् दूसरोंको पीड़ा
१. प्राप्त । २. मुक्ति ३. एकाग्रतारूप ध्यान-चित्तकी स्थिरतारूप उत्तम बीज । ४. बार-बार अभ्यास करनेसे । ५. नहीं काटना । ६. उत्तम अहिंसा धर्म । ।
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या दुःख देता है वह स्वयं अधर्म (पाप) करता है क्योंकि उसके क्रूर निर्दयो परिणाम ( भाव ) होनेसे उसके ही भावप्राणोंका घात होता है जो अधर्म या हिंसा है- पापबन्धका कारण है। फिर जिस जीवको वह मारता है-उसके परिणामोंमें संक्लेशता आदि विकार होनेसे उसके भी स्वभावका घात होता है तथा पापका बन्ध होता है। अतएव गुरु शिष्य दोनों घाटेमें रहते हैं- दोनों को सुमति नहीं होती, दुर्गति होती है व पुण्यका बन्ध नहीं होता । तब वादीका कथन असत्य सिद्ध होता है जो माननेके लायक नहीं है ( अमान्य है ) । धर्म हमेशा निराकुल और स्वस्थ परिणाम रहने से ही प्राप्त होता है-आकुलता और विकाररूप परिणामोंसे धर्म नहीं होता, यह नियम है। हिंसा में परिणाम निराकुल और स्वस्थ कभी नहीं रह सकते । अतएव हिंसा त्याज्य है इत्यादि । गुरु अपने भावोंका फल कभी भी पा सकता है, उसको ध्यानके समय मार डालने से ही क्या लाभ हो सकता है ? कुछ नहीं । उसने जैसा बन्ध किया होगा वैसा ही फल उसे अवश्य frलेगा किसीके कुछ करनेसे या साधन मिलानेसे दूसरेका अच्छा या बुरा नहीं होता, यह नियम है-वस्तु स्वतन्त्र है । अत: उसके विषय में अन्यथा विकल्प करना मूर्खता है हानिकारक है, frerna है इत्यादि । यद्यपि सम्यग्दृष्टि के उपाय करनेके विकल्प होते हैं और वह उपाय भी करता है किन्तु वह उन्हें निमित्तकारण हो समझता है, वस्तुस्वभावको बदलनेवाला उपादान कारण नहीं समझता. यह श्रद्धा उसके अटल रहती है। उसके चित्तका डुलाना कषायवश होता है जो उसके ससा में है, संयमीपर्याय है । जो नैमिसिक है वह सम्यग्दृष्टिकी विकारो या arrant है जिसे वह हेय समझता है। अतएव सम्यग्दृष्टि ज्यों-का-त्यों समझनेसे भूला हुआ नहीं है और मिथ्यादृष्टि अन्यथा समझनेसे भूला हुआ है यह अन्तर है, किम्बहुना | भोले-भाले farmarate शिथिलाचारी हो जाते हैं और अनेक तरहके विकल्पोंमें पड़कर जीवनको बरबाद कर देते हैं जिससे संसारमें जीवोंका अन्त | समाप्ति ) नहीं हो पाता वे सदैव अक्षय अनन्तको संख्या में मौजूद रहते हैं। कितने हो विवेकशील होकर निकलते भी जाते हैं ! ६ माह ८ समय में ६०८ जीव ) तो भी कितने तो अविवेकी बने ही रहते हैं। यह सब भूलका ही नतीजा ( फल ) है, अस्तु ॥ ८७ ॥
आगे धनादिके लोभी खार ( गेरुआ ) वस्त्रधारी कुगुरुओं का हिंसक उपदेश नहीं मानना चाहिये- उसका खण्डन किया जाता है-
धनलवपिपासितानां विनेयविश्वासनाय दर्शयताम् । झटिति घटचकमोक्षं श्रद्धेयं नैव खारपटिकानाम् ||८८||
१. घड़ाके भीतर वन्द चिड़िया की तरह ।
२. खारुमा अर्थात् मोटा पटरा जैसा रंगीन वस्त्रधारी पाखण्डी गुरु जो मुक्ति या सुखप्राप्तिका लोभ देकर काशी करवट आदि कराते हैं शिष्यों -- भक्तोंको मारकर धनादि हड़प लेते हैं। ऐसे अनेक मतमतान्तर संसार में पाये जाते हैं ।
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धनके लोलुप धूर्तजनोंके बहकाए जो आते हैं। नाटक टक कर कर के जो निज विश्वास दिलाते हैं | भूल न जाना इन्द्रजाल में मोक्ष नहीं उनसे मिलता । घटके फूटे चिड़िया सम क्या प्राणघात से संभवता ? ॥८८॥
अन्वय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि | नवविवासितानां विनेयविश्वानाथ झटिति घटक मदर्शयत खाटिकामां नैव श्रयं ] खारपट ( वस्त्र ) मतवाले घूसकी धूर्तता ( छल कपटता ) जो कि वे शिष्यों अर्थात् भोले अज्ञानी भक्तोंको विश्वास दिलाने ( उत्पन्न करने ) के लिये करते हैं अर्थात् एक चिड़ियाको पड़ा बन्द करके सबके देख इन्द्रजाल विसे गायब कर देते हैं और कहते हैं कि देखो हमने उसको जल्दी मोक्ष पहुँचा दिया है ताकि वह बहुत काल तक दुःखी न रहे दत्यादि । उसका खण्डन आचार्य करते हैं कि यह सब झूठ है अतः उस धूर्तता ( छलविद्या ) पर विश्वास या श्रद्धान कभी नहीं करना चाहिये ||८||
भावार्थ- संसार मायाचार व छल-कपटका घर ( केन्द्र ) है, उसमें तरह-तरह के जीव भरे हुए हैं और हर तरहकी विद्याओं ( कलाथों) से अपनी जीविका ( गुजर-बसर ) चलाते हैं । जैसे नाटकगृह ( नाट्यशाला ) में तरह-तरह के स्वांग किये जाते हैं और काम चलाया जाता है । उसी तरह कोई धर्मका झूठा लोभ देकर कोई मोक्षका उपाय बताकर या शरीर सहित मोक्ष भेजकर कोई धन प्राप्सिका कोई पुत्र-पौत्रादिका कोई इष्टसिद्धिका अर्थात् मनवांछित फलकी प्राप्तिका, कोई दुःखसे छूटने का या दुःखमें पड़ जानेका लोभ, लालच बताकर छल या धूर्तता ठगते या व्यामोहित करते रहते हैं। जैसे कि किसी समय में ऐसा होता था कि धर्मके नाममर खुला rai होता था, पशुमेध ( हवन यज्ञ ) नरमेध आदि भारी संख्या में जहाँ तहाँ व धर्मस्थानों में किये जाते थे धूर्त विषयकषायी पण्डा पुजारी भोले बुद्धिहीन जीवोंको धोखा देकर दिलाशा देकर ) मार डालते थे व उनका धन लूट लेते थे व अस्मत् नष्ट कर देते थे, यह घोर अन्याय ( पातक अत्याचार ) होता था। भक्तोंको विश्वास करानेके लिए जमीनमें गुप्त स्प्रिंगवाला गहरा गड्ढा खोद दिया जाता था, सुरंगको तरह और जमीनपर भोले जीवोंको बैठालकर, उनसे घन जेवर आदि लेकर व संकल्प कराकर । ऊपरसे मण्डप या परदा लगाकर या लकड़ियों का ढेर लगाकर छपनकीसे पत्थर सरका दिया जाता था जिससे वह भक्त महरे गड्ढे में जा गिरता था व व्यर्थ ही मर जाता था। पत्थर ज्यों-का-त्यों जम जाता था पदत्रात् परदा खोलकर कह दिया जाता था कि देखो मन्त्रविद्यासे हमने उसे मोक्ष पहुँचा दिया है या वह धुआँके गुब्बारेके साथ कपर मोक्ष चला जा रहा है इत्यादि विडम्बना करके धर्मके नाम पर जुर्म किया जाता था-- भोले लोग चंगुल में फस जाते थे, बड़ा गरम बजार था, सतीप्रथा भी चालू थी, अस्तु । अब प्रायः खुले रूपमें वह सब बन्द हो गया है । फलतः घूर्ती पापियोके झूठे व अजरजकारी हथखण्डों ( दृश्यों ) व उपदेशों पर विश्वास नहीं करना चाहिए- यथा सम्भव परीक्षा करना अनिवार्य है । जीवन धन
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अहिंसाणुगत अनमोल है, उसका सदैव सदुपयोग करना चाहिए, मूर्खतामें नहीं गवां देना चाहिए, यह सारांश है । तभी तो 'लोभ पापका बाप बखाना कहा गया है, सभी पाप लोभसे होते हैं इत्यादि । सिद्धान्त में जब तक लोभ कषाय सत्तामें रहती है ( १० दें गुणस्थान तक ) तबतक सभी घातियाकर्मो की पापप्रकृतियोंका बन्ध होता है इत्यादि ।
आगे वादीके 'परोपकाराय इदं शरीर' के गलत समझनेका खंडन किया जाता है----उससे धर्म नहीं होता । यथा---
दृष्ट्वा परं पुरस्तादशनाय क्षामाक्षिमायान्तम् । निजमांसदानरभसादालभनीयो न चात्मापि ||८९॥
दुर्चल शुल्क उदर वाला यति मोजमा माता दीखे । उसके खातिर मी महिं कोई अपना मांस देय चीखे ॥ आत्मघास परमात किये से कमो धर्म महिं होता है।
हिंसा पाप बड़ा है सब में स्यागे धर्म अ होता है ।।४।। अन्धय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [ पुरस्तादशनाय क्षामकृति पर भायातम् स्ष्टा ] अपने आगे ( सामने ) यदि कोई ऐसा आदमो जिसका उदर ( पेट ) दुर्बल और धुसा हुआ हो, भोजनके लिए आता हुआ दिखे तो [ नि मांसदानरमसात् आमाsपि न आलभनीयः ] उसको अपना शरीर काटकर मांसका भोजन नहीं देना चाहिये, क्योंकि आत्मघात महापाप है तथा संक्लेशता या दुःख होनेसे पापका बन्ध होता है--परभव बिगड़ता है ।।८।।
भावार्थ-शास्त्रोंमें आहारदान, औषधिदान, शास्त्रदान, अभयदान या पात्रदान, समदान, अन्वयदान, दयादान ऐसे चार दान लिखे हैं उनमें मांसदान नहीं लिखा, अतः वह निषिद्ध है। उनको पुष्टि करना मानी आगमका अनादर करना है, उत्सूत्र चलना है। ऐसा मिथ्यादष्टि जीव संसारसे पार नहीं हो सकता, प्रत्युत संसारमें अपनी जड़ें मजबूत करता है-लम्बी फैलाता है। मांसा मदिराभक्षो जीव ही भोजनार्थ दुसरोंसे मांस-मदिराको याचना करते हैं...वे विषय-कषाय रूप पापके पोषक होनेसे कारण विपर्ययरूप हैं-विपरोत कारण हैं अत: उनके सेवकों या भक्तोंको अच्छा फल नहीं मिल सकता अर्थात् विपरोत फल ही मिलेगा, जो नरक विगोदादिकी प्राप्तिरूप होगा। यह नियम है कि जैसा कारण होता है वैसा हो कार्य या फल भो होता है अन्यथा नहीं। पात्र तीन तरहके होते हैं 1 यथा---१ सुपात्र, २ कुपात्र, ३ अपात्र । सुपायके तीन भेद----१ उत्तम
१. दुर्बल घुसा हुआ उदर वाला। २. घातना । . ३. संक्लेशता दुःख करे, उठावं, चिल्ला, इत्यादि ।
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पुरुषार्थसिद्धपा
सुपात्र, २ मध्यम सुपात्र, ३ जघन्य सुपात्र । इन सबका स्वरूप आगे यथावसर बताया जायेगा । परन्तु पाखण्डी विषयकषायो सब कुपात्र या अपात्र ही हैं ऐसा समझना चाहिए, उनको सेवा सुश्रूषा करना हितकर नहीं है- मिथ्यात्वसूचक है, किम्बहुना ? परोपकार व स्वोपकार समझे बिना गलती होती | स्वोपकार करना मुख्य है-अपने आत्माको संसारसे बचाना, विकारी भाव न करना स्वोपकार हैं, अस्तु ।
उपसंहार (जैनमतानुसार )
इस प्रकरण में ११ श्लोकों द्वारा अर्थात् ७९ से ८९ तक हिसाको धर्म मानने व कहने (उपदेश देने वालोंका खण्डन अच्छी तरह से किया गया है । यद्यपि ग्रन्थकार श्री १०८ अमृतचन्द्राचाके सामने साक्षात् कोई उपस्थित नहीं थे किन्तु उनके मसका प्रचार जरूर था व उनके अनुयायी लोग भी थे । उनके सिद्धान्तका खण्डन करनेका अर्थ ( प्रयोजन ) संसारी जीवोंकी मिश्रयाधारणा मिटाने एवं सुमार्गपर लानेका रहा है जो उनका शुभोपयोग था - कल्याणकारी भावना थी जो उस साधक या मध्यम पदमें अर्थात् मध्यम सम्यग्दर्शनवाले, मध्यमसम्यग्दृष्टि ( पात्र ) की rater उचित ही थी । अन्तरआत्मज्ञानी अथवा आत्माका और परका अन्तर अर्थात् भेद, समझनेवाले जीव अन्तर आत्मज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि कहलाते है। और वे सभी न्यायाधीश व जज होते हैं । परन्तु उनमें वर्ग मेद होता है अर्थात् ३ दर्जा होते हैं । लेकिन मूल ( सम्यग्दर्शन ) सभीका एक-सा रहता है ( भेदज्ञानका एक-सा होना सभीके रहता है--ज्ञान व श्रद्धान सभीका एक-सा रहता है) । यदि कदाचित् उसमें भेद हो तो बहु सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता । ऐसी स्थिति में वर्गभेद, परिग्रह और उपयोगकी अपेक्षा से है व मानना चाहिये और वह इस प्रकार है ।
यथा—
( १ ) उत्तम अन्तरात्मा - अन्तरंग परिग्रह व बहिरंग परिग्रह दोनोंसे रहित पूर्णं शुद्धोपयोगी मुनि १२ वे गुणस्थानवाले कहलाते हैं ।
( २ ) मध्यम अन्तरात्मा --- सिर्फ अन्तरंग परिग्रह सहित शुभोपयोगी कहलाते हैं। इनके बाह्यपरिग्रह नहीं रहता । ५ में गुणस्थानसे ११ वें तक वाले त्यागो ।
( ३ ) जधन्य अन्तरात्मा - दोनों प्रकार के परिग्रह सहित अशुभोपयोगी या कदाचित् शुभीपयोगी भी कहलाते हैं । परन्तु सम्यग्दर्शनका आंशिक शुद्धोपयोगका होना अनिवार्य सभी के लिए है | अतएव जघन्य सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थानवाला भी सुपात्र है, चाहे वह उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक, कोई भो सम्यग्दृष्टि हो । हाँ, स्वरूपाचरणचारित्र अथवा सम्यक्त्वाचरण में परिवर्तन अर्थात् विचलित जल्दी र होना, क्षयोपशम सम्यग्दर्शन में होता है- बहुत समय तक वह स्वरूपमें स्थिर नहीं रह सकता, यह त्रुटि ही उसमें पाई जाती है । उसी त्रुटिका नाम, चल-मल- अगाढ़ दोष है । उसका सम्बन्ध सिर्फ ( खास ) ज्ञानोपयोगको स्थिरता न रहने से है, श्रद्धाको अस्थिरतासे नहीं है क्योंकि श्रद्धा देव सम्यग्दर्शनके साथ स्थिर ( अचल ) रहती है, यह निष्कर्ष है, इसको समझना चाहिये। किम्बहुना ।
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अहिंसाधन परमोपकारी गुरुकी उपासना कर्तव्य है, ( उपसंहार कथन ) आगे मलको भूलको निकालनेवाले नयभेदके विशेष ज्ञाता और जैनशासनके पूर्ण रहस्य के जानकार एवं तदनुसार प्रवृत्ति करनेवाले उपकारी सुगुरुको उपासना । सेवा, यावृत्य आदि ) का उपदेश तथा उससे होनेवाला लाभ बताया जाता है।
आचार्य-(१) अहिंसा धर्मधारीको योग्यता बतलाते हैंको मार गिराति मोर गमभंगविशारदानुपास्य गुरून् । विदितजिनमतरहस्यः श्रयाहिंसां विशुद्धमतिः ॥१०॥
जिसने नय प्रमाणके ज्ञाता मुरुकी सेवा कीमा है। उनसे ज्ञान यथार्थ प्रासकर उसमें दृष्टि दीनी है।। हिंसा मुख मोड़ अहिंसाधूप में रुचिको ठानी है।
वह है मीच विशुदमतिः महीं होता कभी अज्ञानी है ॥५.७ ॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि नयभंगधिशारदान गुरून् 'उपास्थ ] जिसने नयों के भेदप्रभेदोंके कुशल ज्ञाता ( मर्मज्ञ ) सद्गुरुओंको सेवा-सुश्रूषा करके या उनकी शरणमें रहकर [विदितजिनमसरहस्यः ] अच्छी तरहसे जैनमत या जिनधर्मका रहस्य ( सार या सिद्धान्त ) को जान लिया हो और फलस्वरूप [ अहिंसां श्रयन् ] परम अहिंसा धर्मको पालने लगा हो ऐसा का विशुमति: नाम मोह विशति ] कौन निर्मलबुद्धिका धारक ( सम्यग्दृष्टि विवेकी थावक ) होगा जो यथार्थ में जान-बूझकर मिथ्याधर्मरूप मोह या हिंसाको, धर्म मानेगा? अर्थात् नहीं मान सकता, अथवा पाखण्डी गुरुओंके तर्क-वितर्क द्वारा बताये हुए ( उपर्युक्त ) कुधर्म में वह श्रद्धा या प्रवृत्ति नहीं कर सकता अतएव समझदारको कभी भुलावे में नहीं आ जाना चाहिये यह उपसंहार है ।।२०।।
भावार्थ-परीक्षक सच्चे गुरुके चेला ( शिष्य ) कभी भी सूटे पाखण्डियोंके तर्क रूप बहकाव या झांसे में नहीं आ सकते । चाहे वे कितना भी इन्द्रजाल था प्रलोभन दिखलावें, उनका भण्डा-फोड़ हो ही जाता है यह नियम है ! अतएव जैनधर्म में सदगुरु ही 'तारन तरन जहाज' रूप माने जाते हैं। वे सद्गुरु वीलरागी निष्परिग्रही दिगम्बर जैनाचार्य ( गणधारादि ) ही होते हैं। घे ही मोक्षमार्गके या आत्मोन्नति पथप्रदर्शक कहलाते हैं। उनका स्थान उपकारकी दृष्टिसे अति .
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१. भूल या अज्ञान । २. सारशि-लथ्य। ३. निर्मलसिधारी पक्षपातरहित सभ्यग्ज्ञानी अर्थात् मोह या अशान ( भ्रम ) से रहित । ४. धर्म । ५. भलनेवाला...-हिंसाको धर्म माननेवाला।
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पुरुषार्थासक्युपाय उच्च व आदरणीय है। सद्गुरुका लक्षण सर्वार्थसिद्धिकी भूमिका में 'कश्चिद् भव्यः प्रस्यासननिष्ठः' इत्यादि पदबाक्य द्वारा अथवा "विषयाशावशातीतः निशरम्भोऽपरिग्रहः' इस रत्नकरण्डके १०३ श्लोक द्वारा सुन्दरतासे बतलाया है वह समझ लेना चाहिये । प्रारम्भ दशामें या साधक अवस्थामें सद्गुरु ही सहायक या निमित्तकारण हुआ करते हैं अन्य नहीं, अनादिसे भूले-भटके प्राणियोंको दे ही पार लगाते हैं अतः वे ही परमोपकारी है, ऐसी दृढ़ श्रद्धा रखना चाहिये, तभी भक्त या शिष्य सम्यग्दृष्टि हो सकते हैं । ९० ॥
नोट-चरणानुयोगकी पद्धति के अनुसार ( व्यवहारनयसे ) बाह्य पाँच पापों अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रहके त्याग करने को विधि खासकर संशी पंचेन्द्रिय कर्मभूमियों मनुष्यों के लिए ही है, कारण कि वे ही सब पापोंका प्रयोग या प्रवृत्ति अभिप्रायपूर्वक करते हैं, अन्य जीव नहीं कर सकते, कारणकि सब साधन सम्पन्न कर्मभूमिया मनुष्य ही होते हैं। बाहा-पदार्थ सब पापबन्धके निमित्तकारण हैं अतएव उनका भी त्याग कराया जाता है ऐसा समझना चाहिये। ये सब जीवको संयोगीपर्याय और अशुद्धतामें हुआ करते हैं । ९० ॥
असत्यपापप्रकरणमें ( सत्याणुव्रतका स्वरूप) अब आचार्य दूसरे असत्य पापका स्वरूप व भेद बतलाते हैं।
यदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधीयते किमपि । तदनृतमपि विज्ञेयं तन्मेदाः सन्ति चत्वारः ॥९॥
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प्रमाद सहित ओवचन निकलता, वह असस्प कहलाता है। उसके पार भेद होते हैं, यह मागम बतलाता है। कुशल कार्यके करमेमें, उत्साह नहीं जो होता है।
घही 'प्रमाद' कहाला भाई, सोध कषाय जनाता है १५१| अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ प्रमादयोगात् यत् किमपि असदभिधान विधीयते ] प्रमादके साथ (विवेक रहित असावधान अवस्थामें ) जो कुछ भी अन्यथा कथन किया जाता है या होता है [ तन् अनृतं विज्ञेयं ] उस सबको असत्य या झूठ कहा जाता है, उसे असत्य पाप समझना चाहिये । [ अपि तभेदाः सस्कारः सन्ति ] और उस असत्यके वक्ष्यमाण चार भेद होते हैं या माने जाते हैं ।।९१६ १. कुशलेयु अनादरः, हिसके कार्यो में ( धर्म करने में ) उत्साह व आदर नहीं होना । अपचा तीव्रमवायरूप
भावोंका होना प्रमाद का २. बुरा अप्रशंसनीय या निन्यवचन ।
असत्य-मषा-झूठ। ---असदभिधानमनूतम्' ( प्रमत्तयोगात् ) ।।१४।। स० सू० अ०७
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सध्यानत
भावार्थ----लोकाचार (लोकव्यवहार में असत्य या झठ बोलना पाप गमाह अपराध ) समझा जाता है और उनका दंड भी दिया जाता है, यह लौकिक न्याय है कारण कि उससे दूसरोंकर नुकसान होता है, अपराव बढ़ते हैं ब्यवस्था बिगड़ती है इत्यादि । अतएव लोकव्यवस्था (मर्यादा) कायम रखने के लिये दंडव्यवस्थाका होना नितान्त आवश्यक है। परन्त जैन शासन के अनुसार ऐसा न्याय है कि 'जो असत्य भाषण (कथन) प्रमादपक विवेक विना असावधानीसे किया जाय अथवा स्वेच्छा या स्वार्थवश तीनकषायकी हालत में निरंकावनिर्भयतासे किया जाय, असलमें (निश्चयसे ) बही असत्य या झूठ पायमें शामिल है। फलतः जो असत्य कथन, बिना प्रमादके अर्थात् तीव्रकषामरूप भावके बिना हो जाय, ( किया जाय ) उस कथनको 'असत्य-पापरूप' नहीं माना जा सकता, क्योंकि उससे ( बिना इरादा या कषायके ) स्थिति व अनुभागरूप बंध नहीं होता, यह बचत रहती है। अतएव उसको बंध या सजा में शामिल नहीं किया जा सकता, यह खुलासा है, इसको समझना चाहिये । सारांश-वचन चाहे सत्य निकले या असत्य निकले, उससे
आत्माके प्रदेशों में कंपन होनेसे प्रकृति और प्रदेश बंध तो होगा ही, परन्तु वह प्रमादरूप कषायके बिना कुछ हानि नहीं कर सकता ( स्थिति अनुभागबंध नहीं कर सकता ) यह तात्पर्य है। अत: उसका होना न होना बराबर है, किम्बहुना।
ध्वन्यर्थ-इसका यह है कि बिना इच्छा ( कषाय ) और मनकी स्वीकारताके ( मनोयोग बिना ) यदि कदाचित् दवाउरेमें { परवशता या बलात्कारसे ) असत्य या झूठ बोलना भी पड़े सो उसको असत्यका पाप नहीं लगेगा, न वह असत्यभाषी कहलायगा, कारणकि पास और पुण्य भावों ( रुचि )से लगता है सिर्फ क्रिया मात्र होनेसे नहीं लगता। हाँ, निमित्त मिलने के समय यदि भाव बदल जाय ( रुचि उत्पन्न हो जाय मन स्वीकार कर लेवे ) तो अवश्य ही बंध होमा टल नहीं सकेमा, क्योंकि वह खुदकी कृति एवं जिम्मेपर हुआ है उसका फल उसे भोगना ही पड़ेगा। इसीलिये सम्यग्दृष्टिजीव जबतक मनोयोगसे कोई कार्य नहीं करता ( अरुचिपूर्वक करता है तबतक उसको उस क्रियाका फल (बंध ) नहीं लगता, यह नियम है। मनको चंचलता या विकार बिना कषाय. भावके नहीं होता, ऐसा कहा गया है--
'मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः' अर्थात् कषाय सहित मन या उपयोग ही मनुष्यों अथवा सभी जीवों के बंध व मोक्षका निमित्त कारण माना जाता है । मोक्षका अर्थ छूटना या निर्जरा होना है इत्यादि । अतएव मनको साधनेका पुरुषार्थ हमेशा करना चाहिये । अशुद्ध या संयोगी अवस्था मन अशुद्ध कार्य । पाँच पाप ) ही किया करता है। पांच पाप ये सब जीवके-गुण, स्वभाव या धर्म नहीं हैं, किन्तु दोष, विभाव या अधर्म हैं, जी हेय हैं, ऐसा समझना । व्यवहार में असत्यके चार भेदोका कथन या स्पष्टीकरण आगे किया जानेवाला है, किम्बहुना ।। ९१ ॥
विशेषार्थ-देशवती या अणुव्रतीको असत्यका त्याग तो करना ही चाहिये, वह उसका अनिवार्य कर्तव्य है। किन्तु प्रश्न यह उठता है कि उसको कौनसे असत्यका त्याग करना चाहिये, कारणकि .
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पुरुषार्थसिद्धधुपाथ असत्य अनेक प्रकारके होते हैं ? इसका उत्तर संक्षेपमें यह है कि उसको महा या बड़ा ( स्थूल ) असत्य खासकर त्यागना चाहिये । उसका नाम 'असत्य-असत्य' है अथवा आजकलके शब्दों में सफेद . झठ' कहते हैं। जिसमें सत्यका अंश भी न हो सर्वथा असत्य हो व दंड मिलने के योग्य हो, धोखा देना मात्र हो । उसका दृष्टान्त व स्वरूप आगे ३ या ४ भेद श्लोक नं. ९२.२३,९४ आदिमें बताया जायगा उस महाअसत्यके असल में ३ भेद हैं (१। हैको नहीं कहने रूप ( सत्का अपलाप करना ) (२) नहींको है कहने रूप { असत प्रलापका का दुछ कहने रूप ( अन्यथा प्रलापरूप) तीनों असत्य लोको निन्दनीय, दंडनीय, त्यजनीय है, अतएव व्रतो उनका उपयोग करना बन्द कर देते हैं। वही एकदेश त्याग है अर्थात बड़ेका त्याग कर देना है तथा एकदेशका उपयोग करना है अर्थात् छोटे या प्रयोजनभूत असत्यका रहने देना है । अणुव्रती छोटा असत्य बोल सकता है, उसकी उसे छूट है, जो आगे बताया जायमा । साधारणरूपसे सत्याणुव्रती तीन तरहका सत्य बोलता है (१) सत्य सत्य अर्थात् जो बस्तु जिस देशको हो, जिस काल को हो, जिस संख्या की हो; जिस .. आकारकी हो, उसको उसी तरह ( ज्योंको त्यो कहना, प्रथम या पहिला भेद, सत्य सत्य है। (२) दूसरा भेद-असत्य सत्य है, जिसमें कुछ असत्य है व कुछ सच है जैसे चावल मिलनेपर भात... बनाते हैं, यह कहा जाय । यहाँपर वर्तमान में चावलका होता सत्य है परन्तु भातका होना असत्य है। इसीतरह तीसरा भेद 'सत्य असत्य है । वह ऐसा कि अभी या शामको रुपया देवेंगे, ऐसा वायदा करके पशामको रुपया न भेजकर दूसरे दिन सुबह ( प्रातःकाल ) रुपया भेजना कालातिकम क्ष्य अमत्य क रुपया भेजना रूप सत्य दोनों मिलाकर 'सत्या-सत्य' भेद जानना । इमों प्रकार द्रव्य असत्य, क्षेत्र असत्य, काल असत्य, भाव असत्य ऐसे भी भेद समझना चाहिये। । सागारधर्मामूत अध्याय ४ श्लोक ४१ । ४२ देखो ) परन्तु असत्य-असत्य कभी नहीं बोले इत्यादि ।। ११ ।। व्यवहारको अपेक्षा असत्यका पहिला भेद बताया जाता है ।
नास्तिरूप असत्य असत्य (महा असत्य) कथन स्वक्षेत्रकालभावैः सदपि हि यस्मिनिषिध्यत्ते वस्तु । तत्प्रथममसत्यं स्यानास्ति. यथा देवदत्तोऽत्र ॥९२॥
पद्य
सस्को असद बताना यह तो प्रथम 'असत्य' कहाता है। देवदासके होने पर मी 'नहीं' यहाँ यससाता है। वर्तमानमें उसी क्षेत्रमें, मनुपर्याय सहित वह है। तो भी कहना यहाँ महीं है-महा असत्य बहाता है ॥१२॥
१. स्वचतुष्टय या ज्ञानगोचर। २. परचतुष्टय या वचनगोचर।
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सत्याणुनत
११५... अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ हि अस्मिन् स्वक्षेत्रकालभाने: सदपि वस्तु निधियते ] यथार्थ में जहाँपर अपने द्रव्य क्षेत्रकाल भाव सहित वस्तु मौजूद हो (अभाव न हो। किन्तु कारणवश अर्थात् अज्ञान या प्रमाद (कषाय) ले ऐसा कह देना कि यहाँ पर नहीं है, अर्थात् सत्का अपलाप कर देना [ तस्वयममसरयं स्यात् ] उसको असत्यका पहिला भेद ( नास्तिरूप महा असत्य असत्य ) समझना चाहिये---वही पहिला भेद है [ यथा अत्र देवदत्तो नास्ति ] जैसे यह कहना कि यहाँपर 'देवदत्त' नामका कोई आदमी नहीं है, जबकि वह बराबर मौजूद है। इसका नाम लोक व्यवहार में सफेद झूठ है अथवा महा या बड़ा ( स्थूल ) असत्य है, धोखा देना रूप है, जिससे लोक में सजा या दण्ड मिल सकता है, लोकविरुद्ध है ।।२२।
भावार्थ---सत्याणुनती ( देशवती) उस प्रकारका महा असत्य कदापि नहीं बोल सकता। यदि बोले तो उसका श्रत ( प्रतिज्ञा ) भंग हो जायगा । हो, वह छोटा असत्य { अणुरूप-सूक्ष्म ) बोल सकता है जो प्रयोजनभूत हो, पद ब अवस्था अनुसार आवश्यक या अनिवार्य हो, कारण कि गृहस्थाश्रममें आजीविका आदिके सभी काम तो करना पड़ते हैं, जिससे थोड़ा झूठ बोलना ही पड़ता है, परन्तु उसमें गो अरुचि रहती है, अतएव अल्पबंध होता है अधिक स्थिति अनुभागवाला बंध नहीं होता, सिर्फ अन्तःकोड़ा कोड़ी प्रमाण ही होता है। थोड़ा असत्य बोलना भी सत्याणुव्रतमें अतिचार (दोष ) है। इसके सिवाय संकल्पपूर्वक ( पेश्तरसे इरादा करके । असत्य बोलनेका निषेध है, नहीं बोलना चाहिये । वर्तमान परिस्थिति में जैसा मौका आदे वैसा वह कर सकता है। व्यापारी व्रती बहुत सन्देह या सममें पड़ जाते हैं कि कैसा करना चाहिये, कितना झूठ ( असत्य ) बोलना चाहिये ? उसका यह खुलासा समाधान है कि बिना संकल्प किये तत्काल . प्रयोजनभूत थोड़ा असत्य अरुचि या उदासीनतापूर्वक बोला जा सकता है किम्बहुना। व्यबहारनयसे अशुद्ध या संयोगी पर्याय में ब्राह्य मोटा (बड़ा स्थूल ) असत्य पापका त्याग चरणानुयोगके : चरणानुयोगके अनुसार करना अनिवार्य है। यद्यपि यह वचनाश्रित ( पराश्रित ) और संयोगी . पर्यायाधित होनेसे ब्यवहाररूप है तथापि योग व उपयोमको शुद्धिके लिये बह कर्तव्य है । अशुद्ध निश्चयनयसे परका संयोग छूटना या छुड़ाया निमित्तकारणका हटाना है अथवा अशुद्धता (पर्याय रूप ) का दूर करना है, जो उपयोगी है। निश्चयनयसे विचार किया जाय तो आत्मद्रव्य ( जीवमात्र ) कभी अशुद्ध होता ही नहीं है, वह कालिक शुद्ध अर्थात् परसे भिन्न एकल्वरूप है । उसका संसारावस्था में रहते समय कथन करना लाभकर नहीं होता एकान्त दृष्टि हो जाना संभव रहता है जो अज्ञानी जीव हैं। असल में पर्यायगत अशुद्धता निकालना आचार्योका लक्ष्य रहा है । अतएवं वही छोड़नेका उपदेश दिया है ।।१२।। आचार्य असत्यका दूसरा भेद बतलाते हैं ।
अस्तिरूप महा असत्यका कथन असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रकालभावैस्तैः । तद् भाव्यते द्वितीयं तदनृतम स्मन् यथास्ति घटः ॥१३॥
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पुरुषार्थपा
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जो वस्तु परक्षेत्र काल भर भावों से महि यहाँ रहे । उम्मको कक्षमा इसी जगह वह विद्यमान है झूठ कहे ॥ जैसे अटके न होनेपर वट है यहाँ यही कहना | वह असस्य हैं नम्बर दोका, नहिं विश्वास कभी करना ||९३३
अन्य अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ हि यत्र परक्षेत्रकालभावैः वस्तुरूपं असदपि ] वास्तव में जहाँपर परक्षेत्रकालभाव में रहनेवालो वस्तु या परक्षेत्रकालभावसहित वस्तु न हो फिर भी ( अभाव में ) [ तद् (भाष्य] यहां पर विशिष्ट वस्तुका अस्तित्व या मोजूद होना कहना या कहा जाय [ तन् द्वितीयं ] उसको नम्बर २का महा असल्य समझना चाहिये । [ यथा अस्मिन् घटः अस्ति ] जैसे कि यहाँपर घट मौजूद है यह दृष्टान्त है । यह असत्का आलारूप महा असत्य है || ९३ ॥
भावार्थ - अणुव्रती या महाव्रती मनुष्य उक्त प्रकारका महा लोक निद्य असत्य नहीं बोल सकता साधारणतः छोटे-छोटे असत्य बोलने में आ सकते हैं । यद्यपि उन्हें वे स्वेच्छा से नहीं बोलमा चाहते, अरुचि रखते हैं किन्तु कषायके देगमें विवश होकर ( परवशतामें ) उन्हें बोलना पड़ता है जिसका वे दुःख मनाते हैं, हर्ष नहीं मनाते । तथा उनके मेटने या त्यागनेका हमेशा प्रयत्न करते हैं इत्यादि विचित्र दशा होती है । व्रती पुरुष सदैव विषयकामोंसे उदासीन या विरक्त रहते हैं उनको वे विष समान हानिकारक ( स्वभावभावरूप भावप्राणघातक ) समझते हैं और यथा शक्ति उनका सम्बन्ध विच्छेद भी करते हैं। उनका लक्ष्य अशुद्ध पर्यायको हटाना रहता है । फिर भी बुद्धिपूर्वक वह पहिले मोटे-मोटे दोषों ( पापों-अपराधों ) को निकालता है पश्चात् छोटोको दूर करता है । लेकिन व्रत धारण करनेका क्रम उसका विपरीत रहता है अर्थात् पहिले वह अभ्यास रूपसे छोटा व्रत ( प्रतिज्ञा ) धारण करता है और पश्चात् बड़ा व्रत ( महाव्रत ) धारण करता है, ऐसी जैन मतकी आम्नाय है, उसीके अनुसार वह चलता है, जिससे वह भ्रष्ट नहीं होता इत्यादि, यही विवेकबुद्धिका फल है ॥९३॥
आचार्य असत्यका तीसरा भेद बतलाते हैं !
अन्यथा या विपरीतरूप महा असत्य
वस्तु सदपि स्वरूपात् पररूपेणाभिधीयते यस्मिन् । अनृतमिदं च तृतीय विज्ञेय गौरिति यथाश्वः ॥९४॥
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मिज स्वरूपसे सत्वस्तुको परस्वरूप कह देना जो । यह असत्य तीजे नम्बरका बैठको घोड़ा कहना जो ॥ as rare है ा लोकमें धोखा देना कहलाता | दगाबाज अ मायाचारी कंपटी और गिना जाता ||२
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अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ यस्मिन् स्वरूपात सदपि वस्तु ] जहाँपर स्वरूप या स्वक्षेत्रादिसे वस्तु मौजूद हो [ च पररूपेण अभिधीयते ] और परस्वरूप ( अन्यथा या विपरीत ) कह दिया जाय वहाँ [ इदं तीर्थ अनृतं विज्ञेयं ] तीसरे नम्बरका महा असत्य ( औरका और समझना चाहिये ( वह तीसरे नम्बरका असत्य है ) [ अथा गोः अश्व इति ] जैसे कि बेलको घोड़ा कह देना यह दृष्टान्त है ॥९४॥
भावार्थ-ये उपर्युक्त तीनों उदाहरण महा । सर्वथा ) असत्य के हैं जो सर्वथा वर्जनीय हैं, ant geषको कभी उनका उपयोग या प्रयोग नहीं करना चाहिये। बुद्धिमान् विवेकी जोव एक तरहसे अलौकिक जीवन व्यतीत करते हैं, उसीमें उन्हें आनन्द आता है, उसीसे वे अपना जीवन सफल मानते हैं वे तमाम पापोंसे परहेज करते हैं, सबसे निराले ( विरक) रहते हैं एवं क्रमश: करते-करते संसारसे पार हो जाते हैं ||१४||
आगे आचार्य असत्य का चौथा प्रकार ( भेद ) बतलाते हैं ।
दुःख व हानिकारकरूप असत्य
विसंयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपं यत् । सामान्येन त्रेधा मतमिदमनृतं तुरीयं तु || ९५||
पद्य
इसीलिये अभेद रूप वह वह असत्य है वचन जगत्में जो sar ज्योंका यों कह देना व
निन्दित पापयुक्त अरु अप्रिय वचन असत्य कहाता ३ असत् चतुर्थ बताया 1 जीवोंको दुःख देवें । एकान्त नहीं सेवे ||१५||
अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ यत्
रूपं गर्हितं भवद्ययुतं अपि अभियं सामान्येन श्रेधा भत्रति ] जो कथन या वाणी, गर्हित अर्थात् निन्दनीय हो, अवद्यरूप हो अर्थात् दोष या कलंक लगानेवाली हो, और अप्रिय अर्थात् कठोर मर्मभेदो हो, वह सामान्यतः उक्त तीन प्रकारकी होती है [ तु इदं तुरीयं अनृतं मतम् ] और इसको असत्यका या महा असत्यका चौथा भेद माना गया है ।। ९५ ।।
भावार्थ उक्त तीनों प्रकारकी वाणी या बोलचाल ( कथन ) सामान्यत: चौथे ( दुःख. कारक ) असत्य में शामिल होता है ऐसा आचार्य महाराजने कहा है जो प्रमाणिक है। और वह सब यथाशक्ति त्यागने योग्य ( है ) है । व्रती पुरुष उसका प्रयोग न करें यह आज्ञा है । शेष अवती पुरुष उसके लिये बँध तो नहीं हैं किन्तु जो विवेकी हैं सम्यग्दृष्टि हैं, उनका भी कर्त्तव्य है कि वे भी यथासंभव बुरा जानकर उक्त प्रकारके वचन न बोलें अर्थात् बेसा अभ्यास करें जिससे जीवन सुधरे व कल्याण हो अवसर अथवा मनुष्य जन्मादिको पूर्णं योग्यता बार-बार नहीं मिलती
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पुरुषार्थसिधुपाय बड़ी दुर्लभ है एवं विचारणीय व करणीय भी है, किम्बहुना। असत्यादिक चारों पापोंका त्याग सिर्फ एक मूल 'अहिंसा धर्म' को रक्षा और प्राप्ति के लिए किया जाता है, यही मुख्य प्रयोजन उनके त्यागफा है, उसे आरमशुद्धि होती है अथ लक्ष्य पूरा होता है अस्तु ।। ६५ ।।
उपसंहार कथन अनेकान्तके भेद अनेको निश्चय व्यवहार भी होते । स्वपर चतुष्टय योजित करके सस्य असत्य रूप होते ॥ वचन अगोचा पूर्ण वस्तु है खन्न-खण्ड बसलाता है। अनेकान्तका नाम सुमरा, स्याद्वाद कहलाता है ।। बचन अनेको तरह होत हैं, उनमें जो हितकारी हैं। .
उनहीका अवलम्बन करना, शेष सभी परिहारी हैं। आगे आचार्य गहित बचन ( शब्द या वाक्य ) का स्वरूप बताते हैं।
पैशुन्यहास्यगर्भ कर्कशमसमञ्जसं प्रलपितं च | अन्यदपि यदुत्सूत्रं तत्सर्व गर्हितं गदितम् ॥१६॥
पद्य चुगली हास्य कठोर बचन अरु मिथ्या गपशपरूप कथन । . इसी तरह उत्सूत्र कथन भी.---सगरे हैं माहिस्य वचन ।। अतः मुठसे बचनेवाले गहित बच्चन न कहते हैं।
गर्हित बन सन्चरनेवाले नहीं पापसे डरते हैं ॥१६॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ यत् पैशून्यहास्यगर्भ ककशं असमंजसं च प्रलषितं अन्यदपि उत्सू] जो वचन या वार्तालाप चुगली रूप हो ( शिकायत-निन्दाल्प हो ) हंसी मजाफरूप हो, कठोर बोल-चालरूप ( मर्मभेदी ) हो, मिथ्या या बनावटी हो, बकवाद ( गपशप निष्प्रयोजन ) रूप हो, तथा आगम या मर्यादाके विरुद्ध हो, [ तत्सर्व गहितं गदिवम् ] उस सब बातालाएको. गहितवचन नामसे कहा जाता है जो चौथे असत्यका पहिला भेद है ।।२६॥ ___भावार्थ-उपर्युक चर्चा या बातचीत सब मनोविकारसे अर्थात् कषायके वेगमें हुआ करती है। उस समय जीव विवेकहोन जैसा मदान्ध हो जाता है, जो सत्य ( स्वभाव ) के विपरीत होनेसे अपराधरूप ( पाप) माना जाता है, यह रहस्य है । वस्तु या पदार्थ सब सत्यरूप ( स्वभावस्थितधर्मस्वरूप ) हैं असत्य या विभाव या अधर्मरूप, नहीं हैं। ऐसी स्थिति में संसारी जीव जब कषायमय विभाव भावों सहित होता है सब वह स्वभाव भावमें या वस्तु स्वरूपसे विचलित होनेके कारण असत्यवादी बराबर कहा या माना जाता है। फलतः विकार सर्वथा त्याज्य है, जो स्वरूपसे ही पलित कर देवे; किम्बहुना । अपराध छूटे बिना मुक्ति नहीं होती, यह नियम है । लोकाचारमें भी
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सस्याणुत्रत
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reenaraint after श्रद्धा नहीं होती, वह हमेशा उद्वेजनीय रहता है । इसके सिवाय बह avee (चदनामी ) का भागी भी होता हैं। अप्रिय भंडवचन ( भद्देबोल ) व बकवाद भरे वचन कहने का होता संभाव्य ही नहीं अवश्यंभावी है, ऐसा समझना चाहिये । फलस्वरूप कर्मबंध होता है यथा-
परद्रव्यग्रहं कुर्वन् बध्येापराधवान् ।
वध्येतानपराधो न स्वद्रव्ये संवृतो यतिः ॥१८६॥ कलश
अर्थ--आत्मा के स्वभावसे भिन्न जो विभाव ( असत्यादि) रूप पर पदार्थ हैं उनको ग्रहण करनेवाला अर्थात् अपने माननेवाला अज्ञानी जोब अवश्य ही अपराधी सिद्ध होता है, जिससे उसको की सजा मिलती है, बच नहीं सकता तथा स्वभाव भाव स्थिर या संतुष्ट रहनेवाला मुनि निरपराधी है ( परद्रव्यको ग्रहण नहीं करता ), अतएव उसको कर्मयंत्र रूप सजा नहीं मिलती, यह तात्पर्य है । अशुद्धतावाला अपराधी होता है, शुद्धतावाला निरपराधी होता है, अस्तु ।
आगे आचार्य, सावध ( पाप या कषायदोष युक्त ) वचनका स्वरूप बताते हैं जो चतुर्थ असत्यका दूसरा मेद है ।
छेदन भेदनमारणकर्षणवाणिज्य नीर्यवचनादि । तत्सावंद्यं यस्मात् प्राणिवधाद्याः प्रवर्तन्ते ||१७||
पद्म
tere are aण वणिज चौर्य
पापयुक्त ये वचन कहे हैं, प्राणघात हैं निमित कारणं ये सारे, हिंसा पाप कराने में ।
नाद सथ । करवाले जय ||
अतः इन्होंer वर्जन करना, असत् पाप छुड़वाने में ॥ ९७ ॥
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते है कि [ यस छेदमभेदनमारणकर्षण वाणिज्यश्रीयंवचनादि ] जो वचन प्रयोग ( कथन बोलचाल ) छेद डालनेवाला हो, कि इसको छेद डालो, घायल कर दो, भेद डालनेवाला हो कि, इसके टुकड़े कर दो ( बूटी-बूटी निकाल दो ) तथा मार डालनेवाला हो कि, इसको जानसे मार डालो ( हत्या कर दो ), तथा कर्षण करनेवाला हो कि, इसको जोरसे बाँध दो कड़ोर दो ( घसीट डालो इत्यादि ) तथा हिंसक व्यापारमें लगानेवाला या प्रेरणा करनेवाला हो कि, आ क्यों बैठे हो, अमुक व्यापार करने लगों उसमें बड़ी मुनाफा है इत्यादि तथा चोरी करानेवाला हो कि, द्रव्य कमाना हो तो बिना पूँजीका धंधा चोरी करना है सो क्यों नहीं करते arre क्यों बैठे हो इत्यादि । [ तत्मावर्थ, यस्मात् प्राणिबधायाः प्रवर्तन्ते ] ये सब प्रेरणारूप पूर्वोक्त
१. ऐसा करो वैसा करो इस प्रकारके वचन बोलना उच्चारण करना आदि ।
२. दोष या पाप युक्त ।
३२
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पुरुषार्थसिदधुपाय वचन प्रयोग ( कथन-उपदेश बातचीत ) पापमय या कषायमय अथवा 'सावधवचन' कहलाते हैं, कारण कि उनसे जोधों की हिंसा वगैरह होती है अर्थात् उनसे छेदनादि हिंसक कार्यों को करनेकी प्रेरणा मिलती है ( निमित्तरूप वे हैं ) अतः उनका त्याग करना चाहिये ।। २७ ।।
भावार्थ----उपर्युक्त प्रकारके वचनोंका बोलना या उत्तेजना देना बड़ा पाप है, जिससे दूसरे जीवोंका नुकसान हो, दुःख पहुँचे, संक्लेशता हो, विवेकीजन कभी ऐसा कथन नहीं करते । क्योंकि व्यर्थ में पापबंध करना अनर्थदंड है। परन्तु कषायवश जीव अफर्तव्य भी करने लगते हैं, इसीसे जनका पाप या अधर्म कहा है। असत्य वचनका सीधा सादा अर्थ 'असद या अप्रशंसनीय ( बुरा) कथन भी होता है । जो वचन, पापोंको उपार्जन या पोषण करें ये सब बचन अप्रशंसनीय सावद्यरूप या निन्दनीय हो, ऐसा ना गा : स: सत्पुरुष असत्का संसर्ग छोड़ देते हैं, भरसक बुराईको अपने पास नहीं रखते, किम्बहुना । पापको कृतकारित अनुमोदनासे त्याग देना ही हितकर है।। ९७॥ आगे आचार्य असत्यके ( ३ ) तीसरे भेद 'अप्रिय वचन'का स्वला बताते हैं ।
अरतिकरं भीतिकरं खेदकरं वैरशोककलहकरम । यदपरमपि तापकर परस्य सत्सर्वमप्रियं ज्ञेयम् ॥१८॥
जिन वचनोंसे अरुचि होस है भय अरु खेद अवश होता। खेद र मरु शोक कलह भी जिनसे निस प्रसि है बढ़ता ॥ और चे वचन जनसे होता, अम्तस्ताप सदा मनमें।
सभी बचन के अय' होते उन्हें त्यागना जीवममें ॥९॥ अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ यत् परस्य अरसिका मोतिकरं स्खेदकर वैरशोककलहकरं अपरमपि तापकरं वचन ] जो वचन दूसरेको अरुचि या अप्रीति करनेवाले हों याने जिन वचनोंसे दूसरे लोग घृणा करने लगें, प्रेम करना बन्द कर देवें तथा भय करने लगें ( शंका या सन्देह उत्पन्न हो जाय ) दुःख उत्पन्न हो आय, शत्रुता हो जाय, शोक ( पश्चात्ताप या ग्लानि-घृणा ) उत्पन्न हो जाय या विकल्पमें पड़ जाय तथा लड़ाई झगड़ा उत्पन्न हो जाय । इसके अतिरिक्त जिससे हृदय तप्तायमान या विदीर्ण हो जाय ( अन्तस्ताप हो जाय) [ तत्समप्रियं ज्ञेयम् ] उन सब वचनोंको 'अप्रिप्रवचन' कहते हैं जो सर्वथा त्याज्य हैं ।। ९८ ॥
भावार्थ-अप्रिय वचनोंका व्यवहार ( उच्चारण ) कभी जीवोंको हितकर नहीं होता। इसीसे कहा जाता है कि 'न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्' अर्थात् यदि सत्य भी हो परन्तु अप्रिय हो तो, नहीं बोलना चाहिये, यह लोकोक्ति है, इसपर भी ध्यान देना चाहिये। तदनुसार अप्रीतिकर, भयकारक, खेद या दुःखजनक वैरभाव या दुश्मनी उपजावनेवाले, चिन्तामें डालनेवाले, लड़ाई तकरार करानेवाले, अशान्ति पैदा करनेवाले आदि दुर्वचनोंको पापका कारण बतलाकर याने अधर्म बतलाकर
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सध्याशुमरा
आचार्यांने त्याग कराया है। यहो निमितोंका त्याग करना व कराना कहलाता है, जो विवेकी atter कर्तव्य है । इस श्लोक में मुख्यतया नोकषायोका कार्य बतलाया गया है जो पापरूप है । सामान्यतः सभी कषायें व नोकवायें तथा योग पापरूप है, जो जीवको अशुद्धतामें रखकर संसारसे नहीं छूटने देते तभी तो मोक्ष प्राप्तिके लिये 'उपयोगशुद्धि:' ( कषायोंका अभाव होना) और योग शुद्धि: खोटे कार्य करना छोड़ देना, संयोग हटाना ) का होना अनिवार्य बतलाया है, अस्तु विचार करना चाहिये ॥ ९८ ॥
आचार्य अन्त में उपसंहाररूप कथन करते हैं-सबका सारांश बताते हैं । सर्वस्मिन्नयस्मिन् प्रमत्तयोगकहेतुकथनं यत् । अनृतवचनेऽपि तस्मान्नियतं हिंसा समवतरति ॥ ९९ ॥
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पद्य
था अस्य करून जहाँ
हेतु होता ।
वहाँ अव हिंसा होती हैं प्रभाद स्थागमा रे श्रोता । मही आमित करना इस सत्में सत्यवचन ये है वफा । सार बात यह हैं आगमकी पालनकर मुक्ति भोका ||१९||
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ अपि यत् सर्वस्मिन्नपि अस्मिन् अमृतवचने प्रयोगक तुकयनं ] गहित आदिवचन बोलने में अथवा सामान्य ( भेदरहित ) असत्यरूप वचन बोलने में जो शब्दोच्चारण या वाक्य प्रयोग किया जाता है वह सब प्रमादयोगसे अर्थात् कषायभाव और Tarfour far जाता है अतएव उसमें मुख्य कारण एक 'प्रसाद' योग' ही है । [ म नियतं हिंसा समवति] उसके फलस्वरूप नियमसे हिंसा पाप लगता है अर्थात् आत्माके स्वभाव भावरूप भावप्राण दर्शनादि ) नष्ट होते हैं या घाते जाते हैं यह भारी हानि होती है । इसीलिये जहाँ जहाँ प्रमाद योग हो वहाँ वहाँ हिंसा होती है यह व्याप्ति बनाई गई है ।। ९९ ।। भावार्थ जहाँ जहाँ कषायपूर्वक योगोंकी प्रवृत्ति होगी वहाँ वहाँ सब पापोंका मूल हिंसा पाप अवश्य लगेगा यह अटल नियम है। तदनुसार मुख्य पाप ( अधर्म ) हिंसा ही है और मुख्य धर्म एक अहिंसा ही है । असत्य आदि सब हिसाकी ही शाखाएँ या नामान्तर हैं, जो सिर्फ अज्ञानियोंको समझानेके लिये बतलाये गये हैं । फलतः संयोगी पर्यायमें रहते हुए प्रमादी जीव ही अपराधी होता है और प्रमादरहित निष्प्रमादी जील निरपराधी होता है। अतएव अपराधी (योगावाले) को दंड या कर्मबन्धको सजा मिलती है एवं उसका पद ( दर्जा ) नीचा होता है तथा निरपराधी (योगकषाय रहित ) जीवको दंड या सजा नहीं मिलती ( कर्मबन्ध नहीं होता ) एवं उसका पद ऊंचा ( केवलज्ञान व मोक्ष ) होता है यह सारांश है । ऐसो स्थितिमें
१. 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा, तत्त्वार्थसूत्र १४ अध्याय ७ ।
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२५२
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पुरुषार्थसिधुपाय पापरूप विकारी भावोंका त्यागना ( पृथक करना ) श्रावकके लिये अत्यावश्यक है। इस ग्रन्थ द्वारा धावकके माध्यमसे उत्सर्ग ( शुद्ध-एकाकी) मार्गको भूमिका आचार्य महाराजने तैयार की है ऐसा आभास होता है अतएव वह कर्तव्य है किम्बहुना।"
नोट -इस श्लोकमें दो अपि शब्द लिखे हैं, उनमेसे एकका अर्थ 'और' तथा दूसरेका अर्थ 'अथवा' लेग धारिये । आचार्य आगे असत्यके मूलकारणको स्पष्ट करते हुए शंकाका समाधान करते हैं ।
हेतौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम् । हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ॥१०॥
पद्य
सकले सूर बचोका कारण मुख्य प्रमाद कहा प्रभुने । बिना प्रमाद त्याग बचनादिक नहीं असत्य होत सुमे ।। उपदेशादिक समय गुरुजन वचन अरुचिकर कहते हैं।
जिनसे होता स्वाधिजनोंको खेद, न अनून लहते है ।।५००॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि सकलवितवचनानाम् प्रमसोगे हेतौ निर्दिष्टे सति ] सब तरह के असत्य ( झूठ) वचनोंका मूलकारण ( हेतु ) एक 'प्रमत्तयोम' ही है, दूसरा कोई नहीं है। अतएव [ हेयानुष्टानादेः अनुवदनं असत्यं न भवति ] हेय व उपादेयका उपदेश ( शिक्षा ) देते समय किसी जीवको स्वार्थको क्षति होनेसे यदि दुःस्त्र पहुंचे तो भी असत्य बोलना नहीं माना जाता न उसका पाप लगता है ।।१०॥
भावार्थ-विना प्रमादयोगके किसी भी जीवको क्रिमा मात्रसे पापका बंध नहीं होता। यदि इरादा दुःख पहुं या सतानेका हो तो अवश्य ही पापबंध होगा, चाहे वह बाह्यक्रिया ( उद्यम ) वैसो करे या न करे। लेकिन चिना इरादा या संकल्पके, कदाचित् दुःख पहुँचनेके लायक ( योग्य ) बाह्यक्रिया (शरोरादिको प्रवृत्ति) हो भी जाय तो भी पापका बंध या हिंसा नहीं होती, कारणकि परिणाम ( भाव) ही पुण्यपाप व मोक्षके कारण होते हैं, यह बात कई बार कही गई है। फलतः प्रमादयोग ( कषायसहित योगप्रवृत्ति ) का दूर करना निकालना सर्वोपरि है ।।१०।।
मोट---यहाँ पर यह शंका मिट जाती है या नहीं हो सकती कि 'साधु मुनि जोवोंके
१. अनवरतसमन्तभ्यते सापराधः, स्पेशालि निरपराधो बंधनं नैव जातु ।
नियतमयमशुद्धं स्वं भजन सापरावी भवति निरपराश्वः साधुः शुद्धात्मसेवी ।।१८७11 कलश २. स्वप्न में ---रंचमात्र ।
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सल्याणुव्रत
कल्याणके अर्थ ( शुभ भावनासे) पाँच पापोंका या सात व्यसनों का त्याग कराते हैं, जिससे उन कामोंका व्यापार या तदाश्रित आजीविका करनेवालोंको दुःख व हानि पहुँचेगो, क्योंकि उपदेशके प्रभाबसे वे पापो व्यसनी जीव हिंसादिकका करना ब मद्यमांसादिकका सेवन करना छोड़ देंगे लब उन दुकानदारांकी दुकानें न बलभेसे दुःख होगा इत्यादि, अतः उनका पाप उपदेश देकर छुड़ानेवाले साधु गुरुओंको लगेगा इत्यादि कुतर्क व्यर्थ हैं। कारण कि उपदेशक किसीको प्रत्यक्ष { इरादा करके ) दुःख हानि नहीं पहुंचाना चाहते, न हो दूसरेका पाप दूसरेको लगता है यह नियम है, अपना-अपना फल लगता व भोगता है यह निष्कर्ष है, भ्रममें नहीं पड़ना चाहिये ॥१०॥
दूसरे असत्य पापके प्रसंगमें
आशंका होतो है कि अणुवती श्रावक सर्वथा असत्यवचन (झूठ बोलने )का त्याग नहीं कर सकते, कारण कि गृहस्थाश्रममें व्यापार आदि आरम्भके कार्य ( साबधकार्य ) उसके पाये जाते हैं अतः उसमें कुछ न कुछ असत्य बोलना ही पड़ता है ? इस प्रश्नका समाधान रूप आचार्य सत्याणुव्रतका स्वरूप बतलाते हैं ।
भोगोपभोगसाधनमात्रं सावधमक्षमाः मोक्तम् । ये तेऽपि शेषमनृतं समस्तमयि नित्यमेव मुश्चन्तु ॥१०॥
पद्य
भोग और उपभोग कार्य के साधन जगमें ओ होते। जिनमें असत् पाप गला है उन्हें त्याग यदि नहिं सकते ।। उनको छोड़ शेष कामों में झूठ बोलना त्याग करे ।
एक देश भी त्याग करेसे सत्य अणुव्रत कदम धरे ॥१०॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ये सावध भौगोपभोगसाधनमात्र सोमनमाः ] जो जीव ( गृहस्थ अवती) सम्पूर्ण भोगोपभोगके साधनोंको अर्थात् व्यापार कृषि आदि कार्योंको, जिनमें 'हिंसा झूठ पापों का होना संभव व अनिवार्य है, उन सबको यदि नहीं छोड़ सकते हैं तो भी [ऽपि शेष समर्म अनृतं नित्य मेष मुञ्चन्तु ] उन असमर्थ ( अन्नती ) जीवोंको चाहिये कि उन प्रयोजनभूत ग्राम्भादिके साधनोंको छोड़, ( अतिरिक्त ) शेष । बाको ) जो कार्य या साधन हों उनमें असर- बोलनेका तो त्याग अवश्य करें और एकदेश सत्यद्रतो जीवन में अर्थात् अवतीपना ( असंयमीपद ) छोड़कर अणुव्रतो बराबर बनें, यह कर्त्तव्य है ॥१०१।।
भावार्थ-वती जोबनसे ही मोक्ष होता है, अन्नतीसे साक्षात् मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती यह नियम है वह निष्फल है । अतएव यदि कोई गृहस्थ श्रावकपूर्ण या महाव्रत ( त्याग ) धारण
१. लसत्य वचनरूप पापकार्य ।
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पुरुषार्थसिक्युपाय नहीं कर सकता तो उसका यह कर्तव्य है कि बह प्रयोजनभूत कार्यों ( व्यापारादि ) को छोड़कर जो अप्रयोजनभूत कार्य ( साधन ) हैं उनमें कभी झूठ न बोलें, ऐसा करने से उनके एकदेशवत हो सकता या पल सकता है तथा वे अणुव्रती--मोक्षमार्गी बन सकते हैं एवं कालान्तर में वे मोक्ष जा सकते हैं अथवा परंपरया ( व्यबहारनपसे ) बे मोक्ष जा सकते है ऐसा समझना चाहिये । इसमें भूल या प्रमाद करना अज्ञानताहै, जीवन के महत्त्वको नहीं समझना है। पद और योग्यता के अनुसार पाप या बुराईका त्याग करना अनिवार्य है। व्रती पुरुष प्रयोजनभूत कार्यों में यदि पूर्ण पापका त्याग नहीं कर सकता है तो भी उसका लक्ष्य सदैव पूर्ण पापोंके त्याग करनेका अवश्य रहता है उन्हें बह हेग ही समझता है अमाप नहीं जाः जैसाकि मियादष्टि समझता है। जैनशासनमें तो जब सम्यग्दृष्टि अत्तोका भी लक्ष्य पूर्ण वोसरागताको ओर रहता है, वह तमाम संसार शरीरादिस विरक्त रहता है तब बतौकी बात तो निराली ही है किम्बहुना पदके अनुसार सभीका कर्तव्य निश्चित है अस्तु । ध्यान देना चाहिये । यद्यपि आशिक-त्याग या प्रवृत्ति 'अपवाद मार्ग' है ( अशुद्ध मार्ग है या व्यवहार मार्ग है ) उससे साक्षात् मुक्ति नहीं हो सकती जब तक कि वह 'उत्सर्ग मार्ग पूर्ण वीतरागता रूप या पूर्ण निवृत्तिरूप या निश्चय मोक्ष मार्गरूप नहीं हो जाता यह नियम है। अणुशतरूप या श्रावकके १२ वतरूप मार्ग 'अपवाद मार्ग' या प्रवृत्ति निवृत्ति रूप व्यवहार मोक्ष मार्ग है, उसमें सरागता व बोत्तरागता दोनोंका मिश्रण रहता है अतः वह शुद्ध मार्ग नहीं है, उससे मुक्ति नहीं हो सकती। उसको उपचारसे मोक्षमार्म आगममें कहा गया है। सम्यग्दृष्टि अवती श्रावक भी जैनधर्मी या अहिंसाधी कहलाता है कारण कि वह अप्रयोजनभूत हिसा आदि का त्यागी रहता है तथा उसे वह हेय समझता है, उसके होने में वह विषाद ( दुःस्स पश्चात्ताप ) करता है--विवेक रखता है इत्यादि । अतएव वह भी अहिंसा धर्मका कथंचित् ( आंशिक ) पालनेवाला है।
निष्कर्ष-त्याग दो तरहका होता है (१) सर्वदेश त्याग या सकलदेश त्याग ( उत्सर्गरूप ) (२) एकदेश या विकलदेश त्याग ( अपवादरूप थोड़ा त्याग ) । सर्वदेश त्याग करनेको सकलात या महायत कहते हैं और एकदेश त्याग करनेको अणुव्रत या देशवत कहते हैं, महावत या सकलप्रतमें पूर्ण वीतरागता होना चाहिए और देशव्रत या अणुव्रतमें शुभराग होना चाहिये। ( अशुभ राग नहीं होना चाहिए ) तभी उनका सार्थक नाम हो सकता है, अन्यथा नहीं। उसके विना वैसा कहना उपचारमात्र है अस्तु । उसके भेद ( फरक ) को समझना और तदनुसार चलना ( करना) नितान्त आवश्यक है। समझनेपर ही सारा दारोमदार है, विना समझे सब निष्फल है, अर्थात सम्यग्ज्ञान हुए विना कुचारित्र कहलाता है जिसका फल उत्कृष्ट नहीं होता। कषायोंकी मन्दतामें भी वैसा हो सकता है, और तीव्रता भी हो सकता है, किन्तु उससे अभीष्ट सिद्धि नहीं होतो, यह तात्पर्य है, अतएव वह व्यर्थका बोझा जैसा है ॥ १०१ ॥ सत्याणुवतका स्वरूप कहने के पश्चात्
(३) चौर्य पाप प्रकरणमें--- आगे अचौर्य अणुव्रत ( धर्मका ) स्वरूप बताया जाता है।
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अवतीर्णस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमतयोगाबत् ।
तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव च हिंसा वधस्य हेतुत्वात् ॥ १०२॥
環
विना दिये घन आदि वस्तु की जो प्रमादवश ग्रहना हैं ।
नाम उसी का चोरी है अरु हिंसा पाए भी करना है |
कारण इसका दुःख देना है, जिससे हिंसा होती है।
विना स्वीकृति वस्तु बरतना चोरी है दर खोती हैं ॥ १०२ ॥
अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ श्रमतयोगात यम् श्रवितीर्णस्य परिग्रम्य ग्रहणं ] जो प्रमाद या arrears face विना दी हुई या बिना मंजूर किये पर वस्तुका ग्रहण या स्तेमाल ( उपयोग या बरतन ) करना प्रत्येयं ] उसको चोरो पाप समझना चाहिये । [धस्य हेतुवन् या हिंसा एवं ] और वह चोरी प्राणघातका निमित्त होने से हिंसा पापरूप भी है, ऐसा समझना चाहिये। ऐसी स्थितिमें यदि हिंसा पापको तरह अप्रयोजनभूत कामों में चोरीका त्यागकर दिया जाये तो निःसन्देह वह एकदेश चोरीका त्यागी अणुव्रती श्रावक ( गृहस्थ ) हो सकता है । परन्तु यह अपवाद मार्ग है पूर्ण उत्सर्ग या शुद्धवीतराग मार्ग नहीं है तथापि लाभदायक है जितना पापकायें छूटा उतना ही अच्छा है ॥ १०२ ॥
भावार्थ - बहुत से कार्य ( भोगोपभोगके साधन ) लोकमें ऐसे होते हैं कि जिनके करनेका जिन्दगी में कभी अवसर हो नहीं मिलता वे काम नहीं करना पड़ते ) परन्तु उनका त्याग न होनेसे तज्जन्य पापका बंध होता ही रहता है। जैसे कि हिंसाका त्याग नहीं करनेसे वह जीव हिंसा करनेवाला माना जाता है अर्थात् उसकी गिनती हिंसक या हत्यारे जीवों में होती है एवं उसे हिंसाका पाप अवश्य लगता है। ऐसी स्थिति में श्रावकका कर्तव्य है कि विवेकसे कार्य करे। तदनुसार अप्रयोजनभूत कार्यों में हिंसा आदि सभी पाप छोड़ देवे, जिससे उसका जीवन संयम या व्रतसहित बोते तथा वह अहिंसा सत्य आदि व्रतधर्मका पालनेवाला बने इत्यादि । अरे ! यदि श्रावक समझदार हो तो रात्रिको सोते समय तमाम परिग्रहका त्यागकर देवे जबतक कि वह न जगे उसमें उसको बड़ा लाभ होगा यदि कदाचित् सोते में उसकी मृत्यु हो जाय तो उसका मरण व्रती अवस्था में होना कहलायगा व उसको सद्गति प्राप्त होगी। इस तरह चोरी पापके प्रसंग में 'अचौर्य' धर्म भी पल सकता है ऐसा समझना चाहिये ।। १०२ ।।
१. विनाशे या बिना दिये द्रव्यको ।
२. चोरी पाए
३. इज्जत या विश्वास नष्ट कर देती ।
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उतं च---निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परम् ।
नहयन्त दत् तदकुशचीर्यादुपारमणम् ॥ ५७ ॥ रचः श्र०
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धम्यं यशः शर्म य सेवमानाः केप्येशोजन्मविदुः कृतार्थम् ।
अन्य द्विशी विस वयं स्वमोधाग्यहानि यान्ति अयसेवथैव ॥18॥ सा घम० अ०१ अर्थ- संसार में सबसे उत्तम धर्म, कीर्ति व सुख ये तीन चीजें मानी जाती हैं। उनमेंसे कोई जीव धर्म या पुण्य प्राप्तकर लेने मात्रसे संतुष्ट या कृतकृत्य हो जाते हैं । कोई नामवरी या कोति फैल जानेसे संतुष्ट हो जाते हैं, तो कोई इष्ट प्रयोजन सिद्ध हो जानेसे ( मनोरथ पुरा हो जानेसे, संतुष्ट या सफल हो जाते हैं क्योंकि लोककी रुचि भिन्न-भिन्न प्रकारकी होती है। परन्तु विवेकी पुरुष उपर्युक्त तीनों ( धर्म, यश, मार्म )को प्राप्त करके अपनेको कृतकृत्य मानते हैं यह भेद है । यही उचित है । अर्थात् पद व योग्यताके अनुसार संयोगी पर्यायकी भूमिकामें रहते हुए अरचि रूप उपर्युक्त सभी कार्योका करना अनुचित नहीं माना व कहा जा सकता। कारण कि वह विवेकी सबको बिवेक दुष्ट्रिसे देखता है उसके न्याय है अस्तु । विवेकी जीव संसारके छटनेको ही कृतकृत्य होना मानते हैं किन्त संसारमें रहकर मनचाहा कार्य करनेको कलकत्य होना नहीं मानते, यतः वे सदैव संसार शरीर भोगोंसे उदास ( विरक्त ) रहते हैं ।। १०२।।
आचार्य आगे इस वातका खुलासा करते है कि परधनका चुराना नोबका धात. ( हिसा) करना है ( उससे हिसा पाप लगता है ) सो कैसे ? समाधान करते हैं ।
अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चराः पुंसाम् । हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ॥१०३||
पद्य
अर्थ नाम धनका अरु प्राणोंका है लोक बताते हैं। अत: धनादिक हरनेवाले निशदिन पाप कमाते हैं। धन है बाहिर प्राण जीवके इससे वे मर जाते हैं।
हिंसापाप जम्हें लगता है परधन जो खा जाते हैं ।। १.३॥ अन्यय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [पने ये अर्धा नाम एते पुंसाम् अहिश्चराः RI: सन्धि ] लोकमें जितने धनके नाम हैं वे सब जीवोंके बाहिरी प्राण हैं अर्थात् बाह्यप्राणोंके धनादि नाम हैं ऐसा समझना चाहिये अतएव [ यो जनः अस्य अर्थान् हरसि स तस्य प्राणान् हरति ] जो मनुष्य दूसरेके धनको चुराता है वह मानो उसके प्राणोंको चुराता या घात करता है अर्थात् उसे मार डालता है ( यहाँपर निमित्त की मुख्यता समझना ) ॥१०३।।
भावार्थ---यह सब अज्ञान या मिथ्यात्वको महिमा है कि मिथ्यादृष्टि जीव परपदार्थ में एकत्व ( अभेद ) बुद्धि करता है कि ये सब संयोगी पर्याय में प्राप्त हुई चीजें मेरो हैं (तन धन जन आदि सभीको इष्ट अनिष्ट मानता है। अतएव वह धन दौलतको अपने ही प्राण ( जीवन देनेवाले) समझता है, उनमें राग व इष्ट बुद्धि करता है। ऐसी अवस्थामें यदि धनजन आदि
VES
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अचौर्याणवत
१५७ इष्टपदार्थ का हरण { चोरी ) या वियोग हो जाय तो वह अत्यन्त दुःखी होकर प्राणतक छोड़ देता है ( उसका मरणतक हो जाता है ) या वह वह उस वियोगजन्य पीडाको नहीं सह सकता तब आत्मघासतक कर डालता है, मह उसको बड़ी भूल है । वह परद्रव्य कभी आत्मा ( जीव )की नहीं हो सकती,कारण कि दोनों चीजें एक... तादात्म्यरूप नहीं है ---संयोगरूप भिन्न-भिन्न हैं। उनका स्वभाव आदि सभी पृथक-पृथक है, फिर वे एक कैसे हो सकती हैं व मानी जा सकती हैं यह विचारणीय है? परन्तु मुर्ख अज्ञानी यह विचार नहीं करता, इसीलिये द:खी होता है । वस्तुका संयोग वियोग होना स्वभाव है वह कृत्रिम (परकृत ) नहीं है। स्वत: सिद्ध या जन्मसिद्ध अधिकार है जब जैसा होना है सो होगा ही। बस, यह उक्त प्रकारको परमें एकत्वरूप भूलके निकलनेपर ही संयोगी पर्यायके तमाम पाप पुण्य व सुख दुःख नष्ट हो जाते हैं किम्बहुना। मोहोजीव विवेकको खो बैठता है तब अपने सिरमें पत्थर मारकर स्वयं दुःखी होता है व चिल्लाता है। हाय ! पत्थर मार दिया इत्यादि यह विडवना सब कर्म ( पुद्गल की पर्याय ) कृत है अर्थात् उसके उदयरूप निमित्तके मिलनेपर होती है यह निर्धार है। फलतः निमित्तकारणको अपेक्षा धन एवं प्राणको एक-सा बतलाया गया है ऐसा समझना चाहिये । परन्तु है यह उपचार कथन । अन्तरंग या भीतरी हिसा पाप, संक्लेशतारूप परिणाम होनेसे आत्माके भावप्राणोंका घात होता है वह लगता
वादी तर्क करता है कि चोरीका सम्बन्ध हिसासे कैसे जोड़ा जा सकता है, जबकि चोरीका सम्बन्ध परद्रव्यसे है और हिंसाका सम्बन्ध प्राणघात ( मरण से है ? अतएव दोनोंकी व्याप्ति ( संगति ) नहीं बैठती । इसका समाधान किया जाता है ।
हिंसायाः स्तेयस्य च नाव्याप्तिः सुघट एवं सा यस्मात् । ग्रहणे प्रमनयोगो द्रव्यस्य स्वीकृतस्यान्यैः ॥ १०४ ।।
चीरी और जु हिंसाका है अविनाभाव सदा मानी। अतः उभयका कारण है वह एक प्रमादयोग जामो ॥ अतः नहीं है अव्याप्तिका भत्र इसमें निश्चय माभो ।
जहाँ चीय वहाँ हिंसा होसी दोनोंकी तुम पहिचानी ॥ १४ ॥ अन्वय अर्थ.... आचार्य कहते हैं कि हिंसायाः स्तेयस्य च श्रव्याप्तिः म ] हिंसा ( प्राणघात) और 'चोरीमें व्याप्तिका अभाव है, फिर बैसी शंका (तक) नहीं करना चाहिये, [बस्मात् सा सुघट एम ] 4. वह व्याप्ति बराबर सिद्ध होती है। देखो [ अन्यैः स्वीकृतस्य द्रव्यस्य अन्य ग्रहो
१. अदत्तादानं स्तेयम्, सत्यार्थसूत्र अ• ७ २. व्याप्ति अर्थात् अविमाभाव या साहचर्य नियम ।
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पुरुषार्थ सिद्धपाथ प्रमत्तयोगोऽस्ति ] दूसरेके द्वारा प्राप्त किये गये । संचित ) धनको, यदि कोई दूसरे आदमी ( जिन्होंने कमाया नहीं है ) ग्रहण करते हैं अर्थात् चुरा लेते हैं तो यहाँ प्रमादयोग अवश्य होता है अर्थात् उनके तीव्रराम या तीनकषाय सहित प्रवृत्ति बराबर पाई जाती है । इस तरह चोरके खुद भावमाणोंका घात होनेसे उसको हिसा पाप तथा चोरीका पाच ( हिसारूप ) दोनों लगते हैं । अथवा कदाचित् धनवालेका मरण हो जाय तो निमित्ततासे लोकमें उसका अपराधो भी चार होता है। सजा मिलती है, ऐसो व्याप्ति समझना चाहिये ।। १०४ ॥
भावार्थ- यहाँपर निश्चय हिंसा और व्यवहार हिंसा तथा निश्चय चोरी और व्यवहार चोरी का प्रदर्शन किया गया है, जो स्वाचित और पराश्रित है, इसे ठोक-ठीक समझना चाहिये। जो जीव चोरी करनेका, हिंसा करनेका, झूठ बोलने का, कुशील सेवन करनेका तथा परिग्रह करनेका इरादा या संकल्प करता है वह अपने स्वभावभावको चोरी या हरण ( घात ) करता है अथवा स्वभावभावको प्रकट नहीं होने देता है जो अपराध है। अतएव वह निश्चय या स्वाधित चोरी है। तथा परद्रव्यको चुराना यह पराश्रित या व्यवहार चोरो है। उसके होनेसे भाव व द्रव्य दोनों हिंसाबोंका होना सम्भव है। कारण कि उसका निमित्तकारण एक कषायको तीव्रतारूप प्रमादयोग हो है। तब हिंसा व चोरीकी व्याप्ति ( संगति ) बनने में कोई बाधा नहीं आती....निश्चितरूपसे व्याप्ति सिद्ध होती है किम्बहुना । सब पापोंको खान ( योनि या आयतन ) हिंसा है और हिंसाको खान प्रमाद है, ऐसा समझना चाहिये । मुख्यतया जहाँ प्रमादपूर्वक चोरी की जाय, वहां तो चोरीका पाप लगता है, परन्तु बिना प्रमादके नहीं लगता, ऐसा आगमका न्याय है। फलतः खाली परद्रव्यका ग्रहण होना मात्र चोरी नहीं कहलाती, जिसमें प्रमाद न हो, जैसे ईर्यापथास्रव होता है वहाँ चोरीका दूषण नहीं लगता। लोकमें भी बिना इरादेके गलती हो जानेपर गलती नहीं मानी जाती । यद्यपि बन्ध ( सभा के कारण कषाय और योग दोनों हैं तथापि कषाय मुख्य है उसीसे स्थिति, अनुभाग पड़ता है इत्यादि।
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न्यायशास्त्र में अव्याप्ति, अतिव्यप्ति, असंभव ये तीन दोष लक्षणके माने जाते हैं । उनका स्वरूप यथा संभव बताया जायगा, वह सुलभ है । अस्तु ।
नोट-इस स्थल में चोरी और हिंसा दोनोंमें अव्याप्ति दोष नहीं है कि कहींपर चोरी तो हो और हिंसा न हो। स्थल कोई नहीं है--सर्वत्र जहाँ-जहाँ चोरी हो वहां-वहाँ हिंसा अवश्य होती है । परन्तु ऐसी व्याप्ति प्रमादपूर्वक चोरोके साथ है -प्रमादरहित चोरो (परद्रव्यका ग्रहण } के साथ व्याप्ति नहीं है, यह विशेषता है। लोकमें गठबन्धनको व्याप्ति कहते हैं। यदि यहाँ बह प्रश्न किया जाय कि कोई-कोई जीव चोरी हो जानेपर सदमासे नहीं मरते तो क्या उस चोरको हिंसाका पाप नहीं लगेगा? इसका समाधान यह है कि उसके ( धनोके ) यदि संक्लेशता न हो या राग द्वेष न हो बराबर चोरके निमित्तसे धनी हिंसा पापसे बच सकता है अन्यथा संक्लेशता होनेपर चोर व साहूकार दोनोंको हिंसाका पाप लगना अनिवार्य है, चोरके परिणाम स्वराब होनेसे वह हिंसा पापका भागी हर हालत में होता है इत्यादि ।
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अचौर्याणुगत
ISHRA
हो जाय,
सारशि---'यत्र-यत्र चोरी तत्र-तत्र हिसा' अर्थात् जहाँ-जहाँ प्रमाद योग सहित चोरी हो वहां वही हिंसा अवश्य होती है। कालेतार्थ यह कि जहाँ-जहाँ कषाय हो वहाँ-वहाँ हिंसा अवश्य होती है अथति हिंसाकी व्याप्ति कषायके साथ है और यह हिसाका लक्षण 'प्रमत्तयोगात् प्राण व्यपरोपणं हिसा' (त. सू. बिल्कूल निदोष ( अव्याप्ति अतिव्याप्ति-असंभव दोषरहित ) है ऐसा समझना चाहिये । कषावरहित मन-वचन-काय इन तीनों योगोंको प्रवृत्ति या क्रिया, हिंसा पाए है अस्तू। हिसासे मतलब केवल बाह्य प्राणों के घात होनेका नहीं है कि शरीर नष्ट हो किन्तु भावप्राणोंके घात होने का भी है कि आत्माके ज्ञानादिक गुणोंका नष्ट होना भी हिंसा कहलाती है। ऐसी स्थिति में कषाय उत्पन्न होते समय कोई न कोई हिंसा अवश्य होती है वच नहीं सकती। तब कहना पड़ेगा या कहना चाहिये कि कषायोदयको और हिंसाको व्याप्ति बरावर है। यदि कदाचित् बाह्य हिंसा (द्रव्य हिसा ) न हो तो अन्तरंग हिंसा ( भाव हिंसा ) हो ही जातो है इति !
चौरीका अर्थ, परद्रव्यका अपहरण करना है जो लोकव्यवहार है उसे लोपामें चीरी करना कहा जाता है। तथा चोरी करनेका भाव होना अर्थात् परद्रब्य ग्रहण करनेका राग { कषाय ) होना, यह अलौकिक या अन्तरंग चोरो है। इस तरह दो चोरियों होती हैं। परन्तु दोनोंका मूल कारण एक 'प्रमाद योग' है अतएव वह हिसारूप है। तब यह नहीं कहा जा सकता कि चोरी करने में हिंसा नहीं होती और इसीलिये चोरीको हिंसाके साथ व्याप्ति नहीं है ( अन्याप्ति दूषण है)। यदि बैसा कहा जाय तो गलत होगा अस्तु । 'जहाँ-जहाँ प्रमाद है वहाँ-वहाँ हिंसा है। यह हिंसाका लक्षण निर्दोष है अर्थात् अव्याप्ति व अतिव्याप्ति व असंभव, इन तोन लक्षणके दोषोंसे रहित है....शुद्ध है। तदनुसार झूठ, चोरी, कुशील आदि करनेके भाव होना, सब प्रमादमें शामिल हैं और हिंसारूप हैं । तथा तज्जन्य क्रिया...योगप्रवृत्ति भी हिंसा पापरूप है । यतः कारणाके अनुरूप कार्य होता है ऐसा न्याय है किम्बहुना ।। १०४ ॥
नोट-यथासंभव पेश्तर अध्याति, अतिव्याप्ति, असंभव, इन तीनों दोषों का लक्षण बताया जा चुका है कि जो लक्षण पक्ष ( समुदाय ) के एक हिस्से में रहे या घटित होवे उसको 'अव्याप्ति दोष' कहते हैं और जो लक्षण,अलक्ष या विपक्षमें भी रहे या घटित होवे उसको 'अतिव्याप्ति दोष' कहते हैं जो लक्ष्य और अलक्ष्य दोनोंमें रहे उसे अतिव्याप्ति दोष कहते हैं और जो लक्षण लक्ष्य था पक्ष में विलकुल न रहे या घटित न होवे उसको 'असंभव दोष' कहते हैं ऐसा संक्षेपमें समझना ।। १०४॥
यहाँपर यदि कोई यह शंका करे कि जब बिना दी हुई परवस्तुका ग्रहण करना चोरी कहलाता है तब केवली वीतरागी भी तो बिना दिये कर्म ग्रहण करते हैं अतः उनको भी चोरीका दोष लगना चाहिये? .
आचार्य समाधान करते हैं कि हिंसाके लक्षण में 'अतिव्याप्ति' दोष भी नहीं है जैसा अव्याप्ति दोष नहीं है यथा----
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पुरुषार्थसिद्ध पाय
नातिव्याप्तिरच तयोः प्रमत्तयोगककारणविरोधात् । अपि कर्मानुग्रहणे नीरागाणामविद्यमानत्वाम् ॥ १०५ ॥
पा
अविष्यामि दूषण नहिं होता कर्मग्रहण करने में । विना प्रमाद होत है वह तो वीतरागता धरनेमें ॥
ग्रहण विसर्जन किया जाता है जहाँ कपयोग घरते । अन्य जगह जो क्रिया होत है वह स्वभावसे ही वरते ।। १०५ ।।
}
अन्वय अर्थ आचार्य कहते हैं कि [ अपि नीरागाणां कर्मानुग्रह तयोः संव्यासः न ] और atarfrat (दिपक्षियों के जो प्रति समय कर्मोंका ( अदत्त ) ग्रहण होता है उससे हिंसा के लक्षण में अथवा चोरी और प्रमादरूप हिंसामें या एकता में कोई अतिव्याप्ति नामका दूषण नहीं आता, कारण कि [ प्रयोग ककारणविरोधात् ] विरागियोंके जो कर्मग्रहण होता है वहाँ प्रमादयोग नामक मुख्य कारण मौजूद नहीं रहता, अर्थात् वह नष्ट हो जाता है ( सम्पूर्ण मोहका अभाव हो जाने से ) अतः [ स्तेयस्य न ] चोरोके न होनेसे, वह । कर्मग्रहण ) स्वभावतः ( अपने आप खाली योगके निमित्तसे बिना कषायके ) होता रहता है, जो वस्तु स्वभाव है, वह arrant क्रिया नहीं है यह तात्पर्य है । स्थिति जीव, पकवान सहित संसारी) नहीं हैं किन्तु वे विपक्षरूप हैं। अतएव अतिव्याप्ति दूषण नहीं हो सकता। ऐसा समझना ।। १०५ ॥
}
भावार्थ- सर्वत्र प्रमाद और हिंसाको एकता ( व्याप्ति मिलाई जाती है जो सत्य सिद्ध होती है, उसमें कोई दूषण नहीं आता । वीतरागी साधु या देव ( अर्हन्त कषायसे सर्वथा रहित हैं अर्थात् प्रमादवाले नहीं हैं अतएव कर्मोंका ग्रहण करने मात्र ( प्रति समय सातावेदनीयका सिर्फ प्रकृति प्रदेशबन्ध होता है ) से ये हिंसक नहीं होते अर्थात् उन्हें हिंसाका दोष या चोरीका दोष नहीं लगता, कारणकि कर्मरूप पुद्गल किसके अधीन नहीं हैं अर्थात् उनका कोई खास स्वामी नहीं है, वे सर्वत्र ठसाठस भरे हुए हैं व स्वतन्त्र हैं। अतएव उमम दत्त या अदत्त ( चोरी ) का विकल्प ही नहीं होता। इसके सिवाय उनका आना जाना प्रसाद ( कषाय सहितयोगपरिस्पंदन ) से नहीं होता तब हिंसा काहेको ? वह अहिंसारूप है ऐसा समाधान होता है । अस्तु । are niraufen योगप्रवृत्तिको या तीव्रकषायको प्रमाद कहते हैं यह लक्षण है किम्बहुना -
१. अभाव होनेसे ।
२.
रानियोंके, अलक्ष्यरूपवाले विसवृशजनोंके याने विपक्षभूतक इस इलोक में 'विरोधात्' पदके स्थान में 'विशेषात्' होता तो क्लिष्ट कल्पना न करना पड़ती सरल होता ।
३. विभावभाव |
४. विरागियों त्यागियों के ।
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wীবানুগ सारांश-शंकाकारका कहना है कि यदि चोरी और हिंसा एक साथ होती है तब वीसरागी महात्मा भी बिना दिये कर्माको ग्रहण करते हैं, जो चोरी है 'अदत्तादानं स्तेयम्' यह तत्वार्थसूत्र है। ऐसी स्थिति में हिंसाका लक्षण अलक्ष्य ( विपक्ष ) वीतरागियों में चला जानेसे अतिव्याप्ति दूषण लग जायगा इत्यादि । इसका खंडन आचार्यदेवने लक्ष्यसे भिन्न अर्थात् विपक्ष या वीतरागी बताकर किया है किम्बहुना ।। १०५ ।।
अन्त में आचार्य अणुव्रतो श्रावकको सारांशरूप उपयोगी शिक्षा देते हैं, जिससे व्रतमें बाधा न आये।
अप्रयोजनभूतका स्याग कराते हैं असमर्था ये कर्तुं निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिम् । गि समात नित्यदः परित्याज्यम् ॥१०६॥
.
.
ओ श्राक्ष नहिं छोड़ सकत है, पर के पानी आदि को । उनका भी कसम्य यही है, अन्य छोड़ दें अदप्त को ३ पदके माफिक वरसम काना, नहिं अन्याय कहाता है।
स्यागी सत्यागी में श्रन्तर, यही समझमें भाता है ॥१०६।। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ये निपानसोयादिहरणविनिवृत्ति कत असमर्थाः ] ओ गृहस्थ या श्रावक ( अणुव्रती ) दूसरोंके कुआँ आदिका पानी ( प्रयोजनभूत ) विना दिया हुआ नहीं त्याग सकते अर्थात् मालिककी आज्ञा या स्वीकृति के बिना भी उपयोगमें { बविमें लाते हैं, उसको वै पदके अनुसार उपयोगमें लायें क्रिम्त । नैरपि समस्तम्मपरं असं नित्यं परिस्माजमं] उन प्रयोजनभूत चीजोंके सिवाय ( अतिरिक्त अन्य सभी अप्रयोजनभूत चीजोंका विना आज्ञा या स्वीकृतिके हमेशा त्याग कर देना चाहिये ( श्रावकोंका यह कर्तव्य है आज्ञा है ) इससे एकदेश चोरीका स्थाग करके वे त्यागी अणुवती बने रह सकते हैं, अर्थात उनका अणुश्रत भंग नहीं हो सकता ।।१०६॥
भावार्थ-असंयमी और अवती जीवनफी मोक्षमार्गमें कोई कीमत्त नहीं है अतएव सम्यग्दर्शन सहित यथाशक्ति प्रत धारण करना प्रत्येक गृहस्थ श्रावकका कर्तव्य है, परन्तु यह सब पद : और योग्यताके अनुसार होना चाहिये । अन्यथा लाभके स्थानमें हानि हो जाती है । यही बात
१. अलक्ष्यवृत्तित्वमतिव्यामित्वम्, यह लक्षण है । २. सिर्फ जल-मिट्टीका उल्लेख छत्वालामें 'जलमृतिका बिन और नाहिं कुछ गहें अदत्ता' किया गया हैं मालूम
पड़ता है यह उदाहरणमात्र है, सीमा नहीं है अर्थात् दो ही चीजों की छुट्टी नहीं हैं और भी प्रयोजनभूत है.--.-विचार किया जाय।
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पुरुषार्थसिद्धांपाय इस इलोकमें आचार्य ने कही है। थोड़ा-थोड़ा प्रमाद छोड़कर प्रमादरहित ब्रत या त्याग ( शुद्ध बोलरागतारूप ) अवश्य करना चाहिये तभी जोबन सफल हो सकता है। कमसे-कम अप्रयोजन भूत कार्योका त्याग तो कर ही देना चाहिये, उसमें अधिक सोचने-विचारने की जरूरत नहीं है । सथा क्रमश: प्रपोजनभूतका त्याग करना भो अनिवार्य है तभी मानव जीवन पानेकी सार्थकता है। पुरुषार्थी जी करना चाहे सो कर सकता है। जब कठिनसे-कठिन मोक्षको साधना कर सकता है तब और क्या कठिन है, जिसके लिए वह कायरता दिखलावे ? नहीं, अपनो शक्तिको देखकर बराबर आगे बढ़ना चाहये, प्रमाद नहीं करना चाहिए और वह भी आत्मकल्याणके कार्य करने में, न कि संसारके कार्यों में, तभी वह पुरुषार्थी काहा जावेगा अन्यथा नहीं, यह ध्यान में रचना चाहिये । किम्बहुना ।।१०६१ आचार्य १४ । कुशील ( अब्रह्म ) पापका स्वरूप बताते हैं ।
एकदेश सुशीलको पालनेके लिए यद्वेदरागयोगान्मैथुनमभिधीयते तदब्रह्म । अवतरति तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्रसद्भावात् ॥१०७॥
दरागके होनेसे जो मैथुनकर्म जीच करता । है 'अब्रह्मा' नाम उसका अरु नाम कुशीस वही करता ।। हिंसा उसमें होत निरन्तर द्रव्यमाव दोई प्राणों की ।
कारण मुख्य प्रमाद कहा है सब पापों के स्थानों की ।।१०७॥ अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ यत् वेदरागयोगात मैथुनमभिधीयते सत् अवझ] को वेदरूप रामके निमित्तसे कामसेवनका भाव या क्रिया की जाती है, उसको 'अबहा' या कुशील कहते हैं। और [ तत्र सर्वत्रवधस्य सामान हिस्सा अवतरति ] उस मैथुनमें सम्मूच्र्छनादि जीवोंका घात होनेसे हिंसा पाप लगता है, यह हानि है अतएव यह स्यात्य है ।।१०७॥
भावार्थ-जितने कषाय व परिग्रह ( विषय )के भेद हैं वे सभी पायरूप हैं और पापके कारण हैं, अतएव आचार्योंने उन्हींको त्याग करनेका उपदेश दिया है व त्याग करवाया है । उसीका पृथक-पृथक् रूपसे स्पष्टीकरण पाँच पापोंके प्रकरणमें किया जा रहा है। अब्रह्म या कुसोल
१, प्रमादकलितः कथं भवति शुद्धाभवोऽलसः, कषायभरगौरबादलसता प्रमादो यतः । ___अतः स्वरसनिर्भरे नियमित: स्वभावे भवन्, मुमिः परमशुद्धता प्रमति मुच्यते वाचिरात् ॥१९०।---कलक्ष्य २. मिथुनस्य भावः कर्म वा मैथुनम् । दो प्राणियों ( स्त्री-पुरुष ) की परस्पर रमण करनेकी इच्छा या क्रियाको
मैथुन या कुशील कहते है । कुशील भावरूप व द्रश्यरूप दोनों तरहका होता है। ३, ब्रह्मचर्यका अभाव । पूर्ण स्वभावकी कमी ।
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}
ear भी पाप ही है (अशुद्धता है क्योंकि उसमें द्रव्य हिंसा ( योनिगत असंख्यात सम्मूच्छेन जीवोंका विघात) होती है तथा परिणाम या भाव खराब (प्रमादरूप तत्रि कषाय ) होने से आत्मा के भावप्राणका भो घात होता है ऐसी स्थितिमें उन्यथा हिंसाका होना अनिवार्य है, अतः यह पाय भी स्याज्य है | वेद तीन तरह के होते हैं- ( १ ) पुरुषवेद, ( २ ) स्त्रीवेद, ( ३ ) नपुंसकवेद | ये तीनों ही रागकषायमें शामिल हैं । इनके द्रव्य व भावके दो भेद होते हैं । द्रव्यवेद ( लिंग ) नामक आश्रित है वह शरीरमें आकारादिकी रचनारूप है तथा भाववेद कषाय या विकारीभावरूप है। दोनोंका निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है । भाववेद निमित्तसे ( भाववेदरूप विकारी परिणामसे ) कायवचनादिमें क्रिया ( हरकत ) होती है तथा उसके लिए जीव निमित्त मिलता है । Earsयोग, कायप्रयोग आदि करता है और उसके अंगोपांग चलाता है तथा मेल मिलाता है इत्यादि । स्त्रीके गुह्य स्थानों में (योनि, काँख, कुत्र आदि में असंख्याते जीव स्वतः सम्मूच्र्छन जन्मवाले होते रहते हैं अतः परपर से वे सब मर जाते हैं जिससे द्रव्यहिया होती है, surf uraat are मैथुन कर्म है अतः वह त्याज्य है ।
aah विषयमें विशेषता
द्रव्यकर्म, भावकर्म की तरह, वेदनाम नोकषायके भी द्रव्य भाव ये दो भेद हैं या माने जा जा सकते हैं |
( १ ) द्रव्यवेद, नोकषायरूप पुद्गलका पिण्ड है, जिसके उदय होनेपर जीवके भाव खराब होते हैं । अतः वह द्रव्यवेद है ।
(२) भाववेद, स्त्री-पुरुषके खोटे भावोंका होना है, जिनसे क्रिया की जाती है । उन परिणामोंको भाववेद कहते हैं ।
(३) नामकर्मके उदयसे होनेवाली पुद्गलकी रचना, लिंग या चिह्न कहलाती है वह आकार-प्रकार, जिससे स्त्री-पुरुष नपुंसककी पहिचान होती है, ऐसा भेद समझना चाहिये ।
नोट-स्त्रीवेदके उदय में स्त्रीके जैसे भाव होते हैं—अर्थात् पुरुषसे रमण करनेके भाव होते हैं। पुरुषवेदके उदयमें पुरुषके जैसे भाव होते हैं । अर्थात् स्त्रीसे रमने के भाव होते हैं। नपुंसक areshanagar जैसे भाव होते हैं, उभयसे रमनेके इत्यादि ।
आगे आचार्य उसी द्रव्यहिंसाकी पुष्टि उदाहरण देकर करते हैं ।
हिंस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् । arat जीवा योनौ मैथुने तद्वत् ॥ १०८ ॥
हिंस्यन्ते
पद्य
तिलनालीके अन्दर जैसे के पड़ने से । तिलका क्षय हो जात, क्षण आपसमाहिं रगड़ने से || उसी तरह योनि के भीतर रहनेवाले जीवोंका | are होश हैं मैथुनमें जब अंग रगता दोनोंका ॥ ३०८ ॥
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দ্বিমুখ - अन्वय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि [ यद्वात् सिखनाल्यां ससायसि विनिहिसे तिला हिंस्यन्ते ] जिस प्रकार तिलीसे भरी हुई पुगरिया ( नाली में लपे हुए लोहे के सरियाको डालनेसे तिली जल जाती या नष्ट हो जाती है [ सवत् मैथुन योनौ बहवो जींचाः हिस्यन्ते ] उसी तरह मैथुन करनेसे योनिमें रहनेवाले बहुत से सम्मूच्र्छन जीव मर जाते हैं, जिससे द्रव्यहिसारूप पाप लगता है अतः वह छोड़ना चाहिये ॥ १०८ ॥
भावार्थ---कुशील या मैथुन वा अब्रह्म इन तीनोंका अर्थ एक ही होता है ! परन्तु कुशील नाम क्यों पड़ा है ? यह विचारणीय है। शोलका अर्थ स्वभाव है अर्थात् निर्विकार ( सहज ) आत्माका परिणाम है । तदनुसार आत्मामें विकारका होना (विभावभाव उत्पन्न होना ) कुशील ही है अर्थात् स्वभावसे रहित या विचलित होना है। जिसकी प्रतिक्रिया मैथुनादिके रूपमें होती
तो नही है जो सब कुशलम् शामिल हैं। किन्तु लोकाचार या लोकके न्यायमें 'स्वस्त्री' सेवनको कुशोल नहीं कहा जाता, 'परस्त्री' सेवनको ही कुशील कहा जाता है। अतएव स्वस्त्रीके सेवनमें दंड नहीं मिलता और परस्त्रीके सेवनमें दंड मिलता है। परन्तु परलोकमें ( आगमके न्यायसे) वह 'अब्रह्मा' पाप है अर्थात् ब्रह्म जो आत्मा, उसके स्वभाव ( रागरहित से विचलित होना है, इसलिये उसकी सजा सभीको मिलती है यह तात्पर्य है । अथवा जीवहिंसा होनेसे सभी अपराधी समझे जाते हैं, क्योंकि मुख्यपाप हिंसा ही है। लोकका न्याय परलोकमें नहीं लगता, दोनों न्याय जुदे-जुदे हैं। मैथुनक्रिया ( कर्म के समय पुरुषके पुरुषवेदका व स्त्रोके स्त्रीवेदका तीच उदय रहता है अतएव दोनोंके कर्मबन्ध होता है व द्रव्याहिंसा भी होती है भावहिंसा तो होती ही है ऐसा समझना चाहिये ।। १०८ ॥
विशेष विचार-लोकमें कहा जाता है कि 'ब्रह्म' परब्रह्म परमात्मा ( ईश्वर से ही जगत् ( संसार की और गुणकर्म स्वभावसे चार जातियों ( वर्णों )की उत्पत्ति होती है, इत्यादि इसका खुलासा क्या है यह थोड़ा बताया जाता है ।
ब्रह्मशब्दका अर्थ या वाच्य 'आत्मा' है। सो वही आत्मा अपने गुणकर्म स्वभावसे-बहिः रात्मा (मिथ्यादष्टि), अन्तरात्मा ( सम्यग्दृष्टि ), परमात्मा ( सर्वशकेवली ) बन जाता है किन्तु यह कहना कि 'ब्रह्मसे ब्राह्मण ( जाति ) उत्पन्न होते हैं यह गलत है, क्योंकि शरीर या कुलजाति वंश सब पौद्गलिक है-पगलकी रचना है, जो रजवोर्यादिकसे होती है | आत्मा उससे भिन्न है और नित्य अजन्मा है, अतः उसे कोई उत्पन्न नहीं कर सकता इत्यादि । फलतः गलसधारणा निकाल देना चाहिये। यथार्थ बात यह है कि जो 'ब्रह्म' अर्थात् आत्माको पहिचान लेवे या जान लेवे, वह ब्राह्मण ( भेदज्ञानी अन्तरात्मता सम्या दृष्टि) है। और जो ब्रह्मको यथार्थ न जान सके, वह अब्राह्मण ( मिथ्यादष्टि बहिरात्मा ) है। उसके पश्चात् जो रागादिक विकारीभावोंको भी, मिथ्यात्व ( अशान )के साथ निकाल देवे, उसको 'परमात्मा वीतरागी' कहते हैं। उसके-(१) सकलपरमात्मा (२) निकलपरमात्मा दो भेद होते हैं यथा अर्हन्त व सिद्ध जानना ।
लौकिक आतियो-सब कुल ( माता-पिता ) व कर्म ( व्यापारादि व स्वभाव ) पर निर्भर
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SARASHES
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JESE
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EECHEELECIRECERE
अह्मचर्याणवते
२६५ रहती हैं और उनका स्थायित्व नहीं हैं...सिर्फ वर्तमान जीवनलक ही वे रहती हैं। जैसे कि ( १ ) जो पठन पाठन ब संध्यावन्दन पूजा आदि कार्य करता है, वह ब्राह्मण कहलाता है। ( शोलसंतोषो । (२) जो हथयार आदि चलाता है देशको रक्षा व शासन करता है वह क्षत्रिय कहलाता है । ( उग्रस्वभावी तेज ) (३) जो चीजोंका क्रय विक्रय या संचय करता है वह वैश्य कहलाता है । ( सहनशील ] (४) जो सबकी सेवावृत्ति करता है वह शूद्र कहलाता है इत्यादि ( दीनवृत्ति) । परन्तु ये सब खानदानी या कुलपरम्पराकी चीजें नहीं है। जीवन में हर कोई कैसे कर्म ( व्यापार ) कर सकता है व करते हैं तब स्थायित्व ( नित्यत्व ) कहाँ रहता है। ऐसी स्थिति में जाति आदि अनित्य चीजों का अहंकार क्यों करना ? नहीं करना चाहिये। फिर भी ब्राह्मण मूलमें चार तरह के होते हैं--( १ ) कुलकृत ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न हुए । ( २ ) शानकृत-विशेषशानी-पठनपाठन करनेवाले श्रोत्रिय वेदपाठी। (३ ) क्रियाकृत कर्मकाण्डो ( याज्ञिक ) ( ४ ) सपकृत-तपस्या करनेवाले। मत्स्यपुराणमें १० भेद माने गये हैं, उनमें नीचकर्मी भो बतलाए हैं । अतएव ये जाति कृत भेद थोथे हैं अमान्य हैं। कम से हर एक जैसा चाहे बन सकता है। गुणकृत्त भेद जो कपर बसलाये हैं सम्यग्दृष्टि आदि वे सब समुचित व मान्य हैं व हो सकते हैं । भरतमहाराजने गुणकृत ब्राह्मणोंकी ही स्थापना की थी ऐसा समझना, किम्बहुना । लोकाचार रूविरूप होता है वह मिथ्या है अस्तु । तर्क और उसका खण्डन या युक्तिपूर्वक समाधान किया जाता है ।
अनंगकोडाके विषय में यदपि क्रियते किंचिन्मदनोद्रेकोदनगरमणादि । तत्रापि भवति हिंसा रागाश्रुत्पत्तितंत्रत्वात् ॥१०९॥
पञ्च
बेद उदयकी उत्कटताले जो अनंगमें रमसा है। उससे भी हिंसा होती है झामादिक गुण मशाता है ।। इससे उसका भी क्षय करना मैथुनका है वह संगी।
कारण राग एक है उसका अत: न करो उसे अंगी ।।१०९३ १. जन्मसे जाति माननेपर लोग अहंकारी बन जाते हैं, पुजापा कराते हैं तथा आलसी प्रमादी बन जाते
है । खानदानी । जन्मजात ) बमकर अत्याचार अन्याय करते हैं, गुणों व कमो ( आवरणों को नहीं बढ़ाई । मूर्ख कदाचारी होनेपर भी परमात्माका अंश मानते हैं, अत: जन्मसे जाति नहीं मानी जाती;
गुणकर्मसे मानना चाहिये। २. उद्रेक - तीब्रोदय वेदका वेग । ३. कामसेवनके अंगों ( योनि से भिन्न अंगों या स्थानोंको अनंग कहते हैं। ४, अधीन या आश्रय । ५. साथी। ६. स्वीकार।
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যার্থবিৰুৱাৰ अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ अपि मदनोद्रेकात् यत् किंचित् अनंगरमणादि क्रियते ] मैथुनके सिवाय तीव्र वेदके उदय ( वेग ) में जो कुछ अभंग क्रीड़ा की जाती है। अर्थात् प्राकृतिक काम सेवनके अंगोंको छोड़कर अन्य अंगों द्वारा ( हस्तमैथुन-गुदामैथुन-पशुमैथुन आदि ) मैथुन या कामसेवन किया जाता है। [ सश्रापि रागाद्युत्पत्सितंत्रत्वात हिंसा भवति । उसमें भी रागादिककी अधिकतासे हिंसा ( भावहिंसा ) होतो ही है- अवश्य होती है। अतएव वह भी वर्जनीय है, पापका कारण होने से । जहाँ रागादिक रूप प्रमाद है वहाँ हिंसा अनिवार्य है ।।१०।।
भावार्थ... शशेर भरमें जहाँ तहाँ जीवराशि पाई जाती है किन्तु गुप्त स्थानों में अधिक पाई जाती है, अत: द्रव्य हिंसाको बचाने के लिए उन स्थानोंका मैथुन कर्म छुड़ाया जाता है और उसके साथ-साथ अन्य स्थानोंका भी भावहिंसा बचानेके लिए त्याग कराया जाता है अर्थात् द्रव्य और भाव दोनों हिंसाओंके छूटने पर ही 'अहिंसा धर्म का पालनेवाला जीव हो सकता है और तब मोक्ष जा सकता है इत्यादि, किम्बहुना ।
इसी तरह श्रावकके एक देश संयम या व्रत पल सकता है अर्थात् अप्रयोजनभूत् कुशीलके छोड़नेसे एवं प्रयोजनभूतके सेवन करनेसे कथंचित् अणुव्रती बन सकता है। अर्थात् जितने रागादिक बट जायेंगे व हिंसा कम हो जायगी, उतना ही वती वह हो जायगा और अभ्यास करते करते वह सबका त्यागकर पूर्णवती बन जायगा, यह लाभ है। इसी में स्वदारसंतोष-परस्त्री त्याग आदि गर्भित हैं पश्चात् पूर्ण ब्रह्मचारी या ब्रह्मवती होता है। चरणानुयोगका यह क्रम है, जो विलम्बसे होता है, उसका नाम अन्तरंग त्याग है। अन्तरंग परिग्रह सब कपाय या विकाररूप है। साधक सभी बातोंका ध्यान रखता है और रखना चाहिये--- भूलना उसका स्वभाव नहीं हैस्मरण रखना उसका स्वभाव है अस्तु । स्मरण करके श्रुटियोंको निकालना उसका कर्तव्य है किम्बहुना । वह हमेशा सावधानी रखता है कर्मधाराके समय भी बह आत्माको सतर्क करता रहता है या बुराईसे बचता रहता है अरुचि करवाता है॥१०९।। आचार्य श्रावकके लिए चौथे कुशीलपापके त्यागनेका क्रम बतलाते हैं ।
एकवेश ब्रह्मचर्यको पालनेके लिए ये निजकलेत्रमात्र परिहत्तुं शक्नुवन्ति न हि मोहाद । निःशेषशेषयोषिभिषेवणं न तैरपि कार्यम् ॥११०॥
१. स्त्री-निजपत्नी। २. त्याग न करना। ३. चारित्रमोहका उदय । ४. सम्पूर्ण स्त्रीमात्र। ५. स्त्रियाएँ । उक्तं च--
नतु परदारान गमछति न परान् गमयति न पापभीर्यत् । सा परदारमिवृत्तिः स्वदारसन्तोषनामानि ।।५।।
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अशाणुनस
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चरिम मोह के तीय उदय से निज ग्रीन हिता सकते । उनका भी सव्य ग्रही है अन्य सभी को सदेते।। मैथुन स्याग दो तरह होना मिज स्त्री पर स्त्री का।
पर स्त्री के त्याग करे से एकदेश मत पलने का 100 अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ये मोहात् निजकलमा परिहत्तुं न हि शक्नुवन्ति ] जो श्रावक चारित्रमोहके ( देदके ) विशेष उदय से सिर्फ अपनी स्त्रोका त्याग नहीं कर सकते अर्थात् उसके सेवन में हो सन्तुष्ट रहते हैं। तैपि निःशेषशेषयोपिन्निवेषणं न कार्यम् ] उनका भी कर्तव्य यही है ( मुख्य कर्तब्य है । कि वे अन्य सम्पूर्ण स्त्रीसमाजका ( चेतन-अचेतन या देवी मानुषी तिरश्ची का ) त्याग कर देखें, जिससे वे एकदेश ब्रह्मचारो अर्थात् कुशीलत्यागी बन सकते हैं यह तात्पर्य है ।।११०॥
भावार्थ--ब्रह्मचर्य का अनुपम व अद्वितीय महत्त्व है, अतएव उसका पूर्ण पालन करना तो मुमुक्षुका कर्तव्य है ही किन्तु जब वह पूर्ण पालन करने में असमर्थ हो अर्थात् चरिश्रमोहके उदयसे सब स्त्रियों का त्याग न कर सके तब अपवादरूपसे वह स्वशारमन्तोषी ( निज स्त्री मात्रमें सन्तुष्टो होकर बाकी सभी स्त्रीसमुदायका त्याग कर देवे, जिससे अणुव्रती या एकदेश ब्रह्मचर्य व्रतधारी तो बन जाय ! यही आगोमा मतका साहात : क्रि भी हिमोंका संसर्ग नहीं हो सकता ( असंभव है। तब व्यर्थ में उनका त्याग क्यों नहीं कर देता....क्यों मुहमिल { अत्यागीशिथिलाचारी ) बना रहता? यह शिक्षा है। निष्प्रयोजन चीजको पासमें रखने से क्या लाभ है ? कुछ नहीं, बुद्धिमानों विवेकियों को उनका त्याग कर ही देना चाहिये ॥११॥
ब्रत प्रतिमा ( दूसरी कक्षा) धारी श्रावक ( नैष्ठिक श्रावक अगुवती ) का कर्तव्य है कि वह १२ प्रतोंका पालन करे। उन्हीं बारहमें ४ चौथे नम्बरका कुशील त्याग है ( अबहाल्याग) उसके दो भेद या प्रकार हैं ( १ ) स्वदारसन्तोष (२) परदारत्याग । यद्यपि स्वदारमन्तोषी { स्वस्त्रीसेवी ) के पूर्ण कुशील ( विभाव ) का त्याग नहीं होता सथापि परस्त्रीका त्याग कर देनेसे कमसे-कम एकादेश कुशीलका त्याग हो जाता है अत: वह पूर्ण कुशीलसेवा नहीं माना जा सकता, अपितु वह एकदेश कुशीलसेवो कहा जा सकता है। फलत: वह थोड़ा पापवन्ध करनेसे बच जाता है यह लाभ होता है।
नोट--स्त्रीमात्रका त्यागी ( स्वस्त्री-परस्त्री-बजारूस्त्रीका त्यागी ) सम्मम् प्रतिमाधारी हो वर्णी या ब्रह्मचारी कहला सकता है। परन्तु वह भी अपूर्ण है जस्तक कि त्रियोगसे व कृतकारित अनुमोदनासे त्याग नहीं कर पाता। हाँ, श्रावकके आचारके अनुसार वह खाली दो भंगीसे अर्थात् कृत व कारित से त्याग करभेपर अणुवती मध्यम ब्रह्मचारी कहला सकता है। इसका कारण केवल पर द्रव्यका अर्थात् बाह्यबस्तुका ( स्त्रीरूपका ) त्याग है । उसीकी लोकमें इज्जत व प्रतिष्ठा हैअर्थात् लोकमें बाह्य चीजोंका त्याग करने वालेको हो त्यागी या प्रती कहते हैं-यही तो एक देश
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पुरुषार्थलिकापाय है । दोमेंसे अर्थात् अन्तरंग व बहिरंग इन दो परिग्रहों से केवल एक परिग्रह अथवा बाह्यपरिग्रहका त्याग करना है)। १० वीं प्रतिभाधारी तीसरे अनुमोदना भंगसे भी त्याग कर देता है अतएव उसे उत्तमश्रावक कहते हैं, परन्तु वह भी तो बाह्यपरिग्रह मात्रका त्यागी होनेसे अपूर्ण त्यागी व अपूर्ण ब्रह्मचारी है अथवा एक देशत्यागो है। फलतः ११वों प्रतिमाधारी बारह अतोंके धारी सभी एक देश त्यागी हैं ऐसा समझना चाहिये, विचार किया जाय । रूड़िकी बात ( मान्यता । दूसरी होती है और शास्त्रको बात ( मान्यता ) दूसरी होती है, किम्बहुना ।
सागारधर्मामृतादिमें इस विषय में विषमता पाई जाती है उसका यहाँपर निष्प्रयोजन और विवादकारक होनेसे विचार नहीं किया गया ऐसा समझना ।
चारित्रके सम्बन्ध में ____ आगे अथावसर विचार किया जायगा---संक्षेपमें चारित्र, पर्यायल्प है और वह पर्याय द्रव्यके अनुरूप होना चाहिये अर्थात् जैसी दव्य हो वैसी पर्याय हो सब वह पर्याय चारित्र कहलाये। तदनुसार आत्मद्रव्य शुद्ध, रागादि दोष रहित वीतरामसा गुणरूप है तब उसकी पर्याय भी तो वीतारागला रूप होना चाहिये, किन्तु रामरूप नहीं होना चाहिये, यह न्याय व सिद्धान्त है, उस चारित्र के धारण करनेका निषेध नहीं है--विधि है सो धारण किया जाय इत्यादि । प्रवचनसार अध्याय ३ में देखो।
यस्य सिद्धौ वरणस्य सिदिः चरणस्य सिद्धी द्रव्यस्य सिथिः ।
दुधोगिक पहिसा: अव्याविरुद्धं धरणं चरन्तु ।। १ ।। टीकाकार नोट----यहाँपर शुद्ध वीनुराग चारित्र धारण करवाने की योजना { प्रेरणा ) की गई है। और अशुद्ध शुभराग रूप चारित्र धारण न करनेकी शिक्षा दी गई है ऐसा समझना और भी नियमसारमें इसी तरह 'द्रव्यानुसारि चरणं चरणानुसारि द्रव्यं मिथो द्वमिदं ननु सत्यपेक्षं । तस्मान्मुमुक्षु. रधिरोहतु मोक्षमार्ग । द्रव्यं प्रतीत्य यदि वा चरण प्रसीत्व' || सारांश यह कि चारित्र तो वह है जो बन्धको दुर करे अत: वह वीतरागता रूप है। और जो बन्ध करावे यह कैसा चारित्र ? अतः बन्धकारक शुभराग चारित्र नहीं हो सकता, वैसा मानना उपचार या व्यवहार मात्र है अस्तु ।
परिग्रहपाप प्रकरण आचार्य परिग्रहका स्वरूप बताते हैं।
या मूर्छा नामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहो ह्येषः । मोहोदयादुदीणों मूर्छा तु ममत्वपरिणामः ॥११॥
मूळ नाम परिग्रहका है पाप पांचवां कहलाता । मोह उदयके कारणसे वह होता यह प्रभु बतलाता ॥ मूळ ममता और परिमह नाम भेद उसके जामी । मूल पदारथ एकहि हैं नहिं भेद रूप उसको मानो।॥ ११ ॥
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पशिणहरिमामाशुषत
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अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं [ या इथं मूळ नाम ] जो यह मूछा है अर्थात् जिसको लोकमें मूच्छा नामसे कहा जाता है, [ हि पुषः परिमहः ज्ञातव्य: ] निल्नयसे उसी का नाम परिग्रह है ऐसा समझा दिये दिन और परिग्रहमें कोई भेद नहीं है। कारण कि [ तु माहोदयात् उदीण; ममस्वपरिणामः मूरा ) क्योंकि मोहकमके उदय से जो ममतारूप अर्थात् रागमा ( मेग यह है । परिणाम ( भात्र ) होता है उसीका दूसरा नाम 'मूछी है। मूछका अन्तरंग निमित्तकारण मोहका उदय है ॥ १११।
भावार्थ-मूछो नामका परिग्रह अन्तरंग परिग्रह कहलाता है और धनधान्यादि बाद्यपदार्थ, बाह्य या बहिरंग परिग्रह कहलाता है ! जब पूर्ण रूपसे दोनोंका त्याग हो जाता है तन्न जीव पूर्ण स्यागो-निष्परिग्रही-चोतरागी कहलाता है या कहा जा सकता है । उसको किसी तरहकी इच्छा नहीं रहती, अन्यथा वह परिग्रही होने से मोक्ष नहीं जा सकता, यह तात्पर्य है । इच्छा, बांछा, अभि. लाषा, ममता, राग, द्वेषादि ये सब ही परिग्रहमें ( अन्तरंग ) शामिल हैं। उनके रहते हुए प्रमाद पाया जाता है जिससे द्रव्य और भाजहिलाका होना अनिवार्य है बस वही पात्र हैं। अतएब यह परिग्रह त्याज्य ही है विकार या पर है किम्बहुना । मानो विवेकी जीव परिग्रहका त्याग अवश्य करें, क्योंकि वह संसारका कारण है। संसार व मोक्ष ये दोनों आस्माको ही पर्याय है। आत्माकी विकारी पर्याय संसार है और शुद्ध पर्याय ( विकार हित पर्याय ) मोक्ष है । फलतः बाह्य पदार्थोके संयोगमें न संसार है, न उनके वियोग ( त्याग ) में मोक्ष है ऐसा समझना चाहिए इत्यादि । उक्तं च..... झानिनो न हि परिग्रहभान कम रागसमरिकतयति ।
रंगयुझिरषावितवस्ये स्वीकृतव हि वहिल उतीर ।। १४८ । समयमारकलश अर्थ--ज्ञानी आत्माके पास कर्म, राग ( रुचि या चिकनाई )का अभाव होनेसे परिग्रहपनेको प्राप्त नहीं होते अर्थात् अधिक समयता नहीं ठहरते । वैराग्य परिणति होने से उनकी स्थिति अनुभाग घट जाता है और वे जल्दी नष्ट हो जाते हैं ) जिस तरह विना कषायले रसके (चिकनाईके ) कपडाका रंग जल्दी छूट जाता है अधिक समयतक नहीं टिकता, ऐसी विशेषता समझना चाहिए । विकार ही नुकसान पहुंचाता है । मूच्र्छा भी विकार है रागका भेद है ॥१११।।
नोट--सम्यग्दृष्टि जीत्र भोगोंको भोगता हुआ भी उनमें रुचि नहीं रखता, अपितु अरुचि रखता है वह उन्हें विगारी की तरह भोगता है यह भाव है ॥१११||
___ आचार्य मूर्छा और परिग्रहके सम्बन्धमें होने वाली शंकाका खण्डन कर समाधान करते हैं।
मृच्छीलक्षणकरणात सुघटा व्याप्तिः परिग्रहत्वस्य ।
सग्रन्थो मूर्छावान् विनापि किल शेषसंगेभ्यः ॥११२।। १. ममता, चाह, राग, रुचि आदि सब विकारी भाव । २. परिपवहित अर्थात् पहिसन्हवाला। ३. धनधान्यादि बाह्मपरिग्रह विना ।
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२७.
প্রধাঘলিমুথায়
मूळ नाम परिग्रह का है-एसी व्याप्ति परस्पर है। जहाँ मुर्छा पाई जाती-वहाँ परिग्रह निश्चित है ।। अतः विना धनधन्यादि के भी जिनके ममता होती है। ये सब होत परिग्रह धारी व्याप्ति उसी से बनती है ॥११॥
मन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ मूसालक्षणकरणात परिग्रहावस्त्र व्याप्तिः सुघटा ] अभी नं. १११ के श्लोकमें जो मुर्छा या परिग्रहका लक्षण बताया गया है वह दोष सहित अर्थात् अव्याप्ति दोषवाला नहीं है किन्तु व्याप्ति सहित निदोष है क्योंकि जहाँ-जहाँ मूछा ( अन्तरंग परिग्रहरूप ममताभाव रुचि । पाई जाती है, वहाँ-वहाँ परिग्रह बराबर है। फलतः [किल शेषसगेभ्यः विनापि मूल्यवान् म प्रायो भवति ] निश्चयसे यदि किसीके...बाह्य धनधान्यादि परिग्रह न भी हो और मज़ या ममता या रुचि या चाह हो तो अवश्य ही नियमसे वह परिग्रही समझा जाता है अर्थात् उसको परिग्रहवाला समझना चाहिए। कारण कि असली परिग्रह तो अन्तरंगपरिग्रह । विकारीभाव ) कहलाता है। सतन उर्युक्त र लामा, रूपाण सुलक्षण है अर्थात अतिव्याप्ति आदि तोनों दोषोंसे रहित है ।।११२।।
भावार्थ--बाह्य धनधान्यादिको परिग्रह उपचार ( व्यवहार ) से माना गया है अर्थात् मूर्छाका निमित्तकारण होनेसे, उसका परिग्रह मान लिया है। असल में परिग्रह ममत्व आदिरूप विकारोभाव हैं। ऐसी हालतमें यदि बाह्य परिग्रह ( धनधान्यादि किसीके न भी हो ( जैसे गरीब मनुष्य, पशु-पक्षी आदि ) परन्तु उसकी चाह ( रुचि ) या अभिलाषा होनेसे वह निःसन्देह परिग्रही है वह संसारका पात्र है। फलतः पहिले मूल ( अन्तरंग ) परिग्रहका त्याग करना चाहिए तभी वह परिग्रह त्यागी कहा जा सकता है। बाह्यपरिग्रह तो अपने-आप छूट जाता है या छूटा-सा है, कारण कि जब उसको ग्रहण करनेवाला या अपनानेवाला राग न होगा तब न काययोग ग्रहणक्रिया करेगा (प्रयत्न या व्यापार न करेगा ) न बचनयोग कुछ करेगा सब वहीं जहाँका-तहां धरा रहेगा, इत्यादि फिर उसका ग्रहण कैसे होगा? नहीं होगा, यह विचारिये । इसके सिवाय कदाचित् वह बाह्य परिग्रह वस्तु स्वभाबसे स्वयं आ जाय या कोई दूसरा जीव पास पहुँचा देवे तो क्या विना राग या स्वामित्वके उसका वह हो जायगा ? नहीं होगा ऐसा परस्पर संयोग-वियोग तो हर समय हर एकके होता ही रहता है। परन्तु वह अपराधी'या चोर परिग्रही नहीं हो जाता, जबतब राग या रुचि न हो । फलत: विना ममता ( मुर्छा ) के कोई परिग्रही नहीं होता यह तात्पर्य है । अस्तु । आगे इसीके सम्बन्धमें प्रश्नोत्तर किया जायगा ॥११२॥
परिग्रहके पूर्वोक्त लक्षण करनेसे सिर्फ अन्तरंग परिग्रह ही मुख्यतया परिग्रह सिद्ध होता है और बही हिंसा पापका कारण माना जा सकता है अताएब उसीको मानना चाहिये, शेष दश प्रकारको धनधान्यादि बाह्य वस्तुओंको परिग्रह मानना व्यर्थ है ? उनको परिग्रह नहीं मानना चाहिये । बाह्यके १० भेद हैं ) इसका समाधान आचार्य करते हैं।
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বৰিণাৰাত্মত यशेवं भवति तदा परिग्रहो न खलु कोऽपि बहिरंगः । भवति नितरां यतोऽसौं धत्ते मूर्छा निमित्तत्यम् ॥११३॥
पध
मुगथ परिप्रद मुळ ही है, इसमें करना नहीं विकल्प । फिर भी था। परिव भाला, व्यवहर नयसे र संकल्प ।। कारण उसमें निमित्तना है, मूच्छदिकके होने में ।
अतः त्यागना उसका भी है. मिविकरुपता होने में ||११३ । अन्वय अर्थ-आचार्य करते हैं कि शंकाकारका यह कहना सर्वथा सत्य नहीं है कि [ यदि एवं सदा रषलु कोऽपि वहिरंगः परिग्रहः न भवति ] यदि मूछ को ही ( अन्तरंगचोज विकारको ही) मुख्य परिग्रह माना जाय या मानते हो तो निश्चयसे बाह्य परिग्रह कुछ भी न बनेगा ( असिद्ध रहेगा ) अर्थात् बाह्य परिग्रहका मानना व्यर्थ सिद्ध होगा ( निष्फल है)।किन्तु उक्त तर्कका उत्तर ( समाधान ) यह है कि वैसा नहीं है [ यसोऽसौ मूच्र्छा निमित्तस्वं नितरां धत्ते ] कारण कि बाह्य वस्तुएँ भी परिग्रहरूप ( लगाबरूप } मानी जाती हैं । उनका खंडन नहीं किया जा सकता) क्योंकि वे मुर्छाक होने में हमेशा निमित्त कारण होती है अर्थात् उनके रहते हुए मूर्छा होती है। अतएव व्यवहारनबसे निग्वित्तताकी वजहसे वे भी परिग्रहरूप हैं इत्यादि समाधान है ।। ११३ ।।
भावार्थ-आजकल प्रायः लोगोंकी दृष्टि निमित्तोंकी और मुन्यतासे हो रही है—निमित्तको ही सर्वेसर्वा मान रहे हैं अर्थात निमित्तसे हो सब कुछ कार्य होता है यह धारणा बन गई है जो अभूतार्थ है ( व्यबहारमात्र है)। निश्चय से उपादान ही सर्वेसर्वा ( सबकुछ मूल कारण ) है ऐसा समझना चाहिये । परन्तु अज्ञानी जीव बाह्य धनधान्यादि सब या आरंभ ( साधन ) को ही परिग्रह मानते हैं. अन्तरंग मुर्छा परिणामको परिग्रह नहीं मानते, क्योंकि वह दष्टिगोचर नहीं होता अतः वे भ्रममें पड़ जाते हैं। यदि उनका मानना सत्य होता तो बाह्य परिग्रहसे रहित पशुपक्षो मनुष्य सभी मोक्ष चले जाते, क्योंकि मोक्षका कारण निर्ग्रन्थता (परिग्रह रहितपना ) बतलाया है। परन्तु वैसा नहीं होता-यह सब विपरीतता है। अत: असली परिग्रह तो अन्तरंग मा हो है किन्तु निमित्तरूप होनेसे बाह्य धनधान्यादि भी व्यवहार या उपचारसे परिग्रह
ये हैं 1 फलत: मन्यतया अन्तरंग परिग्रहका त्याग करना जरूरी है। बाह्य तो भिन्न है हो, उसके छोड़ने में क्या देरी या अडचन है? कुछ नहीं, वह आसानी ( सरलता) से छट सकता है 'मूलाभावे कुप्तः शाखा' यह न्याय है। परन्तु अन्तरंग परिग्रहका छोड़ना कठिन है और वही हिंसा के साथ व्याप्ति रखता है....बाह्य नहीं यह तात्पर्य है अस्त ।
नोट-बाह्य परिग्रहका दूसरा अर्थ, बाह्य अर्थात् दृश्यमान पदार्थ, उनका परिग्रह अर्थात् त्रियोगसे या एकत्व मानकर ग्रहण करना-बाह्यपरिग्रह कहलाता है, सो वह कब होता है जबकि अन्तरंग कारण हो, वह अन्तरंग कारण मच्छी ( मिथ्यात्व ) या रागादि परिणाम हैं, अतएव
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पुरुषार्थसिपाय
सच्चा परिग्रह वही सिद्ध होता है किम्बहुना । 'यत्र मूर्च्छा सर परिग्रहः ( ग्रहणं ) ऐसी व्याप्ति बराबर बनती है। उपचार या आरोप कई तरह के होते हैं ( १ ) कारण ( निमित्त ) में कार्यका आरोप जैसे 'अन्नं प्राणा:' ( २ ) कार्य में कारणका आरोप- जैसे उजेलेको दीपक कहना इत्यादि यथायोग्य संनिहिये। हर बाह्य परिभ्रमे निमित्तता इस प्रकार है कि उसके रहते हुये मूर्च्छा या ममत्वरूप परिणाम हुआ करते हैं बस इतना ही सामान्य निमित्त नैमित्तिकपता परस्पर पाया जाता है और कुछ विशेष नहीं पाया जाता, यह तात्पर्य है । अतएव निमित्तता ( लगाव ) को दृष्टिसे बाह्य धनधनयादि परिग्रह भी त्याज्य है- त्यागा जाना अनिवार्य है ।। ११३ ॥ मूर्च्छाको परिग्रहका लक्षण मानने में अतिव्याप्ति दोष ( वादीके तर्कके अनुसार ) नहीं आता, यह बताया जाता है ।
एवमतिव्याप्तिः स्यात् परिग्रहेस्येति चेद् भवेन्नैवम् । यस्मादकपायाणां कर्मग्रहणे न मूर्च्छास्ति ॥ ११४ ॥
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केवल परके आगे से यदि परिग्रहवान् कहा जाये ?
बिना काय कर्म आने पर बीतराग भी बंध जावे ॥
पर ऐसा नहीं होत विपर्यय, सूर्च्छा हो परिषष्ट होया ।
विन मूर्छा के दोष न आता, अतिब्बालिका भ्रम श्रोता ॥११४॥
अन्वय अर्थवादी कहता है कि जैन शासनमें जो परिग्रहका लक्षण ( मूच्र्छा ) किया गया है, उसमें 'अतिव्याप्ति' दोष आता है कारण कि वह परद्रव्य के ग्रहण या संग्रह करने रूप है । ऐसी स्थिति में उत्तर दिया जाता है
[ एवं परिग्रहस्य अतिस्वातिः स्यात् ] आचार्य कहते हैं कि यदि तुम ऐसा कहते हो (शंका करते हो ) कि पूर्वोक्त परिग्रहका लक्षण अतिव्याप्ति दोष सहित है क्योंकि अलक्ष्य ( कषाय रहित वीतरागियों) में वह चला जाता है ( लागू हो जाता है ) अर्थात् वे भी कर्मनामक परद्रव्यका ग्रहण करते हैं। इसका खण्डन ( आचार्य ) करते हैं कि [ नैवं भवेत् यस्मात् अकवायाणां कर्मग्रहणे चर्च्छा नास्ति ] इस प्रकार अतिव्याप्ति दूषण नहीं है न हो सकता है कारण कि राग-कषाय रहित वीतरागियोंके मात्र कमका ग्रहण होना परिग्रह नहीं कहा जा सकता इसलिए कि वह मूर्च्छा ( राग-कषाय ) पूर्वक नहीं होता, खाली योगके द्वारा होता है । अतएव अतिव्याप्ति दूषण लागू नहीं होता, वह रूपाल गलत ( थोथा ) है । इसके सिवाय परिग्रहका विचार व कथन सरागियों ( सकषायों ) के माध्यम से है, उन्हीं में दोष ढूँढना चाहिये जो सपक्षरूप हैं ॥११४॥
भावार्थ - जहाँका कथन हो वहीं करना चाहिए तब फिट बैठता है । परिग्रहका कथन परिग्रहियों में ही लगाना ( जोड़ना चाहिये, न कि अपरिग्रहियों ( कषायरहितों) में । तथा निश्चय या अन्तरंग परिग्रहके विचार करते समय बहिरंग या व्यवहार परिग्रहसे दोष देना व्यर्थ है । उसको
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SMANYWHERNAMAADHA
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परिग्रहपरिमाणाणुव्रत पाक्षि कदापि नहीं मिल सकती लब व्यर्थका विवाद क्यों करना? दिवा कषायके मूछो नामका परिग्रह नहीं होता योगजन्य परिग्रह अर्थात परद्रव्यका आगमन या सम्बन्ध या संचय, परिग्रहका स्प धारण नहीं करता-वह कपर२ अतराता जैसा रहता है। समवशरणादिकी अपार विभूति अन्त देवका परिग्रह नहीं माना जाता है, वह तो भक्तोंका कर्तव्य है-उससे वे ही परिग्रही बात है ऐसा समझना चाहिये । फलतः अतिव्याप्तिका लक्षण विरागियों में परिग्रहको लेकर घटिस नहीं होता। किम्बहुला.....
मोद-इसी तरहका सामंजस्य (समन्वय ) श्लोक नं. १०५ में पेश्तर बैठाया गया है। अतएव उसको बारीकीस सभामा चोहित। धानी रक्षाकोका एकहो लक्ष्य है और वह संसारी भागी द्वेषी जीवोंको आरेक्षा है। कारण कि उक्त पाँच पापों एवं उनके त्याग आदिको चर्चाका असाचार गुणस्थानत्र मागंणास्थान हैं और वे सब संयोगी पर्याय में औपशमिकादि ५ पांच मावों से सम्बन्ध रखते हैं, उन्हींको अपेक्षा गुणस्थान मार्गणास्थान बने हैं। मूलकारण गाँध भाव हो है ( बखंडागम पुस्तक १) अन्तमें परिग्रहके भेद बतलाये जाते हैं।
स्पष्टीकरणाय अतिसंक्षेपाद् द्विविधः स भवेदाभ्यन्तरश्च बाह्यश्च । अपमश्चतुर्दशविधो भवति द्विविधो द्वितीयस्तु ॥११॥
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पथ
मूलभेद दो है परिमहके अन्तरंग बहिरंग जानो ।
अन्तरं पके भेद चतुर्दश, पहिरंग दी भिद मानी ।। सब मिलकर सोलह होते हैं..-क्रमसे इसका स्यार करें।
परिग्रह सहित लोय अब प्राणी युक्तिवधू सब इसे च ॥१५॥ अन्यय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ हिस्संक्षेपात स विविधः-आभ्यम्तर पाचश्व ] संक्षेपमें मह परिग्रह दो प्रकारका होता है (१) आभ्यन्तर या अंतरंग परिग्रह (२) बाह्य था बहिरंग परिग्रह । [ प्रथमः चतुर्दशविधा भवति ] प्रथम अर्थात् अन्तरंग परिग्रहके चौदह भेद होते हैं।
द्वितीयः द्विविधः भवति ] और द्वितीय अर्थात् बहिरंग परिग्रहके दो भेद होते हैं। कुल १६ भेद समझना जो आगे बताए जानेवाले हैं ॥११५।।
भावार्थ-परिग्रह मूल में दो प्रकारका होता है अन्तरंग और बहिरंग। इनमेसे वादी अन्यमतो ) केवल बाह्य परिग्रहको हो जानता व मानता है, अन्तरंग परिग्रहको नहीं जानता I. विस्तारसे २४ भेव है अर्थात् अंतरंग परिग्रहके १४ भेद और बाहापरिग्रहके १० भेव कुल २४ भेद
होते हैं।
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पुरुषाथसिद्धअपाय मानता तभी वह तर्क ( शंका ) करता है। खास बात यह है-यह स्पष्टीकरण है। संभवतः अब आगे वह तर्क न करेगा इत्यादि । बाह्य परिग्रह नाममात्रका है. वह अकेला ( बिना अन्तरंग परिग्रहके ) कुछ बिगाड़ सुधार नहीं कर सकता। वह खाली देखने मात्र विजूकाके समान है। परन्तु शैतान कुछ न करे पर हलाकान करता है, इस न्यायसे उसका भी त्याग करना ही चाहिये। क्योंकि परवस्तुका संयोग भी बुरा होला है। संयोगके छुटनेपर हो अर्थात् वियोगके होनेपर ही मुक्ति होती है । अन्त में यह उदाहरण है इसे समझना । किम्बहुना-.-बाह्य परिग्रहका लगाव अन्तरंग परिग्रहके साहितिरूप माना जाता है । अंत ।। ११५ ।। अन्तरंग परिग्रहो १४ भेद बताए जाते हैं।
मिथ्याचवेदगमास्तथैव हास्यादयश्च षड् दोषाः । चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यन्तराः ग्रन्थाः ॥११६।।
पद्य पहिला भेद मिथ्याय अरु बेदश्रय पहिचान । चार कषाय मिलाय पुन नोकषाय छह जान ।। सय मिलाकर चौदह अये, अन्तर परियार भेद ।
इन सबको निखारना, इनसे होता खेर ॥ ५ ॥६॥ अन्वय अर्थ- मिथ्याश्ववेदरागा ] मिथ्यात्व और रागरूप तीन वैद्र ( स्त्रोवेद, पुरुषवेद, नपुंसकावेद ) । तथैव हास्थादयः पद् दोषा: J और हास्य रति अति शोक भय जुगुप्सा, ये छह नोकपाएं | न चत्वारः कमाथा: J और क्रोध मान माया लोभ, ये चार ऋषाएं, { चतुर्दशाभ्यम्सराः मन्थाः ये कुल मिलाकर १४ चौदह अन्तरंग परिग्रह होते हैं। अर्थात् इनका अस्तित्व भीतर आत्माके प्रदेशों में पाया जाता है, बाहिर आकार प्रकारसे जाहिर नहीं होते इत्यर्थः ।। ११६ ।।
भावार्थ---उपर्युक्त १४ भेद सब मूर्छा अर्थात् रागद्वेष मोहरूप होनेसे अन्तरंग परिग्रहमें शामिल हैं. उनसे एकके भो रहते मोक्ष नहीं होता यह नियम है। फलतः सभीका निर्मल त्याम होना चाहिए इत्यादि । इसीका नाम निर्गस्थता या मिपरिग्रहपना है जो साक्षात् मुक्तिका कारण माना जाता है, ऐसा जीव ही निकट संसारो समझना चाहिये । किम्बहना--- आगे बहिरंग परिग्रहके दो भेद बतलाए जाते हैं ----जिनसे हिंसा होती है ।
अथ निश्चित्तसचित्तौ बाह्यस्य परिग्रहस्य भेदी द्वौ । नैषः कदापिसंगः सर्वोऽप्यतिवर्तते हिसाम् ॥११७॥
१. निकालना, त्यामना चाहिये। २. दुःख या संसार।
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feng
पद्म
er परिग्र दो प्रकार है-जीव अजीव उसे जानो । उसके रहते राम होत है हिंसा उसको पहिचान || परिग्रह हिंसा व्याप्ति कहा हैं, इसमें झूठ नहीं कोई। ऐसा परिग्रह कोई नहीं है, जिसमें हिंसा नहि होई ।।११७३
अन्वय अर्थ -- आचार्य कहते हैं कि [ अथ वाह्यस्य परिग्रहस्य निश्चित्तसती दो भेदों ] इसके बाद अर्थात् अन्तरंग परिग्रहके कथन करनेके पश्चात् बहिरंग परिग्रहके अचित ( जड़ } और सचित्त ( वेतन ) ये दो भेद मूलमें होते हैं । इनमें से [ सर्वोऽपि एषः संसः कदापि हिंसा न अ] कोई भी परिग्रह ऐसा नहीं है जिसमें हिंसा ( साक्षात् या परंपरया, प्रत्यक्ष या परोक्ष ) कभी न होती हो ? अर्थात् सर्वदा होती है-अनिवार्य है ॥ ११७ ॥
भावार्थ-परिग्रहको और हिंसाकी पक्की व्याप्ति है ( अविनाभाव नियम है ) कभी दल नहीं सकती | अतएव अन्तरंग परिग्रह हो या बहिरंग परिग्रह हो बराबर मूर्च्छारूप होने व उसका निमित्त होने से हिंसाका होना अनिवार्य है । बाह्यपरिग्रह मूच्छ | अन्तरंग परिग्रह )का निमित्तकारण होता है । अतः वह भी हेय है । सामान्यतः बाह्यपरिग्रहके अन्यत्र ( १ ) सचित्त ( २ ) अचित्त (३) मिश्र ऐसे तीन भेद माने गये हैं। जैसे कि क्षेत्र वास्तु हिरण्य सुवर्ण धन धान्य दासी दास कुण्य भांड ( वस्त्र और बर्तन ) इनमें सिर्फ दासीदास चेतन हैं, दोष आठ अचेतन हैं ऐसा समझना चाहिये | अस्तु ॥ ११७ ॥
आगे आचार्य उपसंहार ( सारांशरूप ) कथन करते हैं।
उभयपरिग्रहवर्जनमाचार्याः द्विविधपरिग्रह
२७५
सूचयन्त्यहिंसेति । हिंसेति जिनप्रवचनज्ञाः ।। ११८||
पद्य
साररूप यह कथन किया है आगमके ज्ञाताभने । हिंसा और अहिंसा दोनों भेद किये हैं परिग्रह ने || दोनों रहत परिग्रह जिनके हिंसा उनके होती है।
नहिं परिग्रह जिनके होता-अहिंसा उनसे पलती 119921
१. छोड़ना त्यागना ।
२. ग्रहण करना ।
३. आगम या जिनवाणी के जानकार |
अन्वय अर्थ - [ जनप्रवचनाः आचार्या-उभयपरिग्रहवर्जन महिंसेति सूचयन्ति ] जिनागमकेज्ञाता आचार्य, दोनों तरहके परिग्रहका त्याग कर देना सो 'अहिंसा धर्म है' और [ द्विविध
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空调等
पुरुषार्थपा
परिवहन, हिंसा इति सूचयन्ति ] दोनों तरहके परिग्रहको धारण करना ( संग्रह करना या आसक्त रहना ) सो 'हिंसा' है ऐसा सारांश कहते हैं, अर्थात् यह संक्षेप कथन है ऐसा समझना चाहिए ।। ११८ ।।
भावार्थ - अनादिकालसे दोनों प्रकारका परिग्रह जीवोंके साथ संयोगरूपसे मौजूद रह रहा है, उसीकी बदौलत संसारसे पार नहीं हो पाते। जब वह निःशेष ( पूर्णरूप ) छूट जाता है तभी जीव मुक्त या संसारसे पार होता है। इसका रहस्य यह है कि जबतक परिग्रह साथ रहता है तबतक हिसापाप लगता रहता है अर्थात् 'अहिंसा धर्म' परिपूर्ण नहीं होता और बिना उस धर्मके पूर्ण हुए वह जीन मोक्ष नहीं जा सकता - संसारयें ही निवास करता है । वह अहिंसा, बात्मा या जीवका स्वभाव है और हिंसा अथवा परिग्रह जीवका विभाव है । तब उसके रहते हुए स्वभाव प्राप्त नहीं हो सकता, परस्पर विरोधी होनेसे । इसीलिये शुद्धोपयोगको ही वीतरागता रूप अहिंसक Fararrant ही, मोक्षका कारण अध्यात्मशास्त्रों में बतलाया गया है। शुद्धका अर्थ है विकारसे रहित आत्माका परिणाम ( भाव ) जो कि ज्ञानानन्द स्वरूप है । फलतः उस शुद्धोपयोगको प्राप्तिके लिये संयोगी पर्याय में अन्तरंग विकारीभाव ( मिथ्यात्वादि १४ प्रकार परिग्रह ) और उनके निमित्तभूत १० दशप्रकारके या संक्षेप में सत्रित ( चेतन ) अचित्त । जड़ ) दो प्रकारके बहिरंग परिग्रहका त्याग अवश्य करना चाहिये तभी प्रयोजनको सिद्धि हो सकती है, नान्यथा इति
'अहिंसा' का उद्गमस्थान या आयतन आत्मा ही है परन्तु वह तब प्रकट होता है जब कि संयोगी (साथी) विकार अन्तरंग व निमित्त बहिरंग दूर हों। बस उसीके लिये पुरुषार्थकी Maratear मानी गई हैं। अतः उसे करना ही चाहिये परन्तु निमित्तमान करके, उपादान नहीं, यह लक्ष्य रखना नितान्त आवश्यक है । किम्बहुना
{
सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टि के परिग्रहपने में पूर्व पश्चिम जैसा अन्तर । मेद ) रहता है ( १ ) सम्यग्दृष्टि बाहिर परिग्रही देखने में आता या लगता है। किन्तु भीतर परिग्रही नहीं है। कारण किं वह परवस्तु मात्र से विरक्त रहता है--अरुचि रखता है, होनेका विषाद ( दुःख) करता है- पुष्कर पलाशवत् मिलिप्त रहता है । अतः कथंचित् परिग्रही नहीं है और मोक्षमार्गी है। तथा मध्यादृष्ट बाहिर भीतर दोनोंसे परिग्रही है, उसको भेदज्ञान न होनेसे सबको अपना ही मानता है कभी उन्हें त्याज्य नहीं समझता, न अरुचि करता है। निरन्तर उनमें रुचि या राग करता हुआ मस्त रहता है | अतः वह मोक्षमार्ग-निष्परिग्रही नहीं है, प्रत्युत संसारमार्गी है । इत्यादि ॥ ११८ ॥
आचार्य-अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकारके परिग्रहों में हिसा बतलाते हैं ।
निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धसे
हिंसापर्यात्वात् सिद्धा हिंसान्तरंगसंगेषु | बहिरंगेषु तु नियतं प्रयातु मूच्छेव हिंसात्वम् ||११९ ॥
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परिग्रहपरिमाणावत
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हिंसाकी पर्याय कहेसे अदि हिंसा मानी जावे। अन्तरंग परिग्रहमे मित्रो ! श्वाश परिग्रहमें धा ।। जब कोई जन माया वस्तुको ग्रहण करे मन ललचाये। यही रूप हिंसाका शानो-शंका सबकी मिट जावे ॥१९॥
अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ अन्तरंगसंगेषु हिमापर्यायच्यात हिंसा रिना ] यदि कोई अन्तरंग परिग्रहमें हिसाकी पर्याय होने से, हिंसाका होना मान लेता है । ( मंजूर करता है)। कोई विवाद न हो) तो फिर तुलहिन संगेषु निरतं-रातु बहिर परिग्रहमें जो मुर्छा ( ममता आदि) होती है बस वही तो हिसा है। अतएव निमित्तताको अपेक्षासे बाह्य परिग्रहकी नाई ( तरह ) हिला निर्विवाद सिद्ध होती है- यह सबको मानना चाहिये ।।११।।
भावार्थ.-..-मूछ का होना ही हिसा है, सो वह मूर्छा अन्तरंग परिग्रहमें भी होती है { रागद्वेषादिभावरूप ) और बाह्य परिग्रहमें भी होती है। तब दोनों में समानता होने के कारण "दोनों ही परिग्रह हेय हैं। क्योंकि हिंसारूप कार्य दोनों करते हैं। आत्मा मूच्र्छा अर्थात् रागपरिणति, स्वयं ही उदयमें आती है । प्रकट ही है ) और परवस्तु ( बायवस्तु के दर्शन, स्पर्शन, ग्रहण आदि निमित्तसे भी उदोरणारूप नैमित्तिक होती है, यह तात्पर्य है। अस्तु, हिंसा दोनों तरहसे होती है अर्थात स्वयं उदयमें आनेपर या दमरोंके द्वारा उदयमें लानेपर, उसमें अन्तर कछ नहीं होता। ऐसा समझना चाहिये। स्वाभाविक या नैमित्तिक दो भेद अवश्य माने गये हैं, जो कारणताकी अपेक्षासे.कार्थकी अपेक्षासे नहीं हैं। अस्त उक्त समाधान सही है व मान्य है इतिभावः ।
निष्कर्ष अध्यवसायभाव ( विकारोभाव । सर्वथा त्याज्य है क्योंकि आत्मामें बन्धक साक्षात् कारण वे ही हैं, ( उससे आत्मा स्वयं बंध जाती है । परन्तु वे भो कर्मबन्धके प्रति निमित्तरूप ही हैं। निश्चयसे उपादानरूप कार्माणद्रव्यगत रूप रस गंध स्पर्श ही हैं। अतएव रागादिरूप अध्यक्सानभानोंको कर्मबन्धका कारण मानना उपचार या व्यवहार है। और आत्मबन्ध (जीवबन्ध के प्रति रागादि विकारीभावों ( अध्यवसानों को कारण मानना अशुद्धनिश्चयनसे सत्य है ( भूतार्थ है ) उपचार या व्यवहार नहीं है । तब बाहिरी बाह्य कारण { पर द्रव्य-इन्द्रियविषय) सब निमित्त कारण हैं इत्यादि । अतएव वे बाह्य निमित्त स्वयं हिंसारूप नहीं हैं किन्तु हिंसाके निमित्त है लेकिन कब जब उनके जरिये रागादिक विकार हो तब, अन्यथा नहीं हैं ऐसा सारांश समझना चाहिये। किम्बहना--जो जीव सिर्फ बाह्य वस्तुओंके वियोग करने कारणवश त्यागने । को हो मुख्यत्याग मानते हैं व उनके त्यागसे त्यागी होना मानते हैं वे एकान्ती-अज्ञानी है पतः तत्त्वज्ञानपूर्वक मुख्यत्याग विकारों ( कषायों का त्याग करना है ॥११॥
शंकाक्रार ( वादो ) शंका करता है कि यदि मच्छ का नाम परिग्रह रखा जाये तो फिर परिग्रहमें कोई भेद न होगा-सभी जीव एकसे परिग्रहवाले समझे जावेंगे ?
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पुरुषासिधुपाम इसका उचित समाधान आचार्य करते हैं । एवं न विशेषः स्यात् उन्दररिपुहरिणशावकादीनाम् । नैवं, भवति विशेषस्तेषां मूविशेषेण ॥१२०।।
पद्य
परिप्रहमें भी भेद होता है, नहीं एकसा होता है। तीन मन्द इत्यादिक बहुविध, फल वैसा ही लगता है ।। इसीलिये बिस्की अरु बच्चा हिरणों के परिणामों में ।
तीधमन्दता देखी जाती-उनके स्वाश्वपदार्थों में ॥१२०॥ अन्वय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि मूर्छा ( रागादि )को परिग्रह मारनेपर भी [ एवं उन्दररिपुहरिणशावकादीनां विशेषः नस्यात् 1 यदि बिल्ली और हरिणके बच्चेके परिग्रहमें कोई भेद ( अन्तर ) न रहेगा-एकमा माना जायमा ऐसा वादीका तर्क ठीक नहीं है। आगे उसोका खंडन करते हैं । नैवं, तेषां मूस्छविको विषः भवकिलादीका हातक सही है, क्योंकि बिल्ली और हरिणके बच्चेकी मूर्छा ( परिग्रह में बड़ा अन्तर ( भेद ) पाया जाता है और प्रत्यक्ष देखने में भी वैसा आता है कि एकसी मूर्छा नहीं होती। जिसका खुलासा भावार्ध में आगेके श्लोकमें बताया जाता है ।।१२०।।
भावार्थ-मुच्र्छा, तोव, तीब्रतर, तीव्रतम और मन्द, मन्दत्तर, मन्दतम आदि अनेक प्रकारको होती है अतएव परिग्रह भी अनेक प्रकारका समझना चाहिये । देखो बिल्लोके अत्यन्त तोब मूर्छा होती है, तभी वह मारखानेपर भी अपना शिकार ( चूहा या दूध आदि )को नहीं छोड़ती और हरिणका बच्चा जरा भी आहट आनेपर अपना खाध ( घास वगैरह ) और स्थान छोड़कर भाग जाता । है अतः उसके मन्दमूर्छा है । इति । इसोका स्पष्टीकरण (परिग्रहमें भेद ) आगे आचार्य स्वयं कर रहे हैं । अस्तु ॥१२०॥ आचार्य आगे परिग्रहृमें होनाधिकता बसलाते हैं ।
हरितणांकूरचारिणि मन्दा मृगशावके भवति मूनँ । उन्दरनिकरोन्माथिनि मार्जारे सैव जायते तीवा ।।१२१॥
पद्य हरितधासके खानेवाले भूगर्भ मूछा कम होती। चूह समूह मिटानेवाली बिल्ली का बहु धरती ॥ अत: उसासे हिंसा होती, कमबढ़ भेद रूप जामी । परिमाइमूल दुःखका कालाय, स्पाया अहिंसा पहिचानी ।। १२३॥
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परिपरिमाणात
३७९
अन्य अर्थ -- आचार्य कहते हैं कि [हांकुरचारिणि मृगशावके मूर्च्छा भन्दा भवति ] हरे घासको खानेवाले मृग ( हरिण) के बच्चे में मूच्र्छा मन्द अर्थात् क्रमती या मामूली होती है और [ उदरनिम्माथिनि मार्जारे व सीधा जायते ] चूहों के समुदाय ( कुल ) को खाने वाली बिल्ली में वही मूर्छा तीव्र ( अधिक ) होती है । इस तरह मूर्च्छा अनेक तरहकी होती है---एक सरहको ( समान ) नहीं होती, यह तात्पर्य है ।। १२१||
भावार्थ-असंख्यात लोक प्रमाण suraraaसामस्थानोंके भेद हैं--उत्तम मध्यम ज स्यादिके भेदसे । अतएव जैसे जिसके परिणाम ( मुर्च्छारूप भाव ) होते हैं वैसा ही फल उनको मिलता है अर्थात् उन परिणामों के अनुसार हिंसा पाप लगता है और नवीन कर्मोका बन्ध भी कम बढ़ होता है, एवं फल स्वरूप दुःख आदि भी कमबढ़ होता है ऐसा समझना चाहिए। तीव्र मन्द मूर्च्छा ( आसक्ति या राग ) का परिचय बाहिर देखने में भी बिल्ली व मृगके बच्चोंमें खुलासा आता है । बिल्ली के बचे में अत्यन्त आसक्ति रहती है क्योंकि वह अपनी शिकार में या दूध वगैरहके पीने में इतना मस्त आसक्त या गृद्ध रहता है कि हा वगैरह मार पड़ने पर भी उसे नहीं छोड़ना चाहता, जिससे मालूम पड़ता है कि उसके अत्यन्त तीव्र मूर्च्छा है । तथा हरिणके बच्चे में इतनी कम ( मन्द ) मूछों है कि वह थाई से भय या खटका गालूम होने पर तुरन्त खाना (घास ) छोड़कर भाग जाता है। इस तरह दोनोंका प्रत्यक्ष परिचय मिलता है । तदनुसार दोनोंको कमबढ़ हिंसा पाप लगता है और पापका बन्ध भी वैसा ही होता है । अतएव मूच्छ ( ममता ) त्यागने योग्य ही है, चाहे वह मनुष्य या पशु किसोके भी हो वह आफतका हो घर ( स्थान ) है । अस्तु, उक्त प्रकारसे वादीका तर्क ( समानताका ) खंडित हो जाता है ॥ १२१ ॥
आचार्य कहते हैं कि निश्चयसे मूच्छ में तरतमभाव (हीनाधिकता ) स्वभावतः ( प्राकृतिक ) होता है वह कृत्रिम या नैमित्तिक नहीं है, परन्तु व्यवहारसे वैसा कहने में आता है जो उपचार है । चेतन अचेतन वस्तु तरतम भाव | परिणमन ) निराबाध ( अप्रतिहत ) रहता है यथा
निर्बंध संसिद्धयेत् कार्यविशेषो हि कारणविशेषात् । astriडयो माधुर्यप्रीतिभेद
इव ॥१२२॥
पद्य
कार्य विशेष ata है वैसा जैसा कारण होता है । कारण के अनुसर कार्य का होना जग विख्याता है ||
दूध खाँड़ दोनों ये कोरण, प्रीति भेद के करता है ।
जैसा मीठा तैसी प्रीति नहि विवाद कोई भरता है ॥ १२२ ॥
3
१. बाधा रहित, निर्विवाद, स्वभावतः ।
पदार्थ या द्रये ।
किरी करा आगमण जैम
मराटवासी दुखानं नदापुर
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पुरुषार्थ सिपा
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ हि कारणविशेषात् कार्यविशेषः निर्बाधं संसिद्धयेत् ] निश्चयrयसे यह नियम है कि 'जैसा कारण ( द्रव्य ) होता है वैसा ही कार्य होता है, अर्थात् कारण विशेष ( परिणामी द्रव्य विशेष ) हो तो कार्य विशेष अवश्य होगा ऐसा निर्विवाद निर्धार होता है - इस निर्णय में किसीको विवाद नहीं हो सकता । उदाहरण स्वरूप | औधस्यण्डयोरिव माधुरीतिभेद व ] जिस प्रकार दूध और खांडरूप कारण ( द्रव्य ) से अर्थात् उनमें रहनेवाली विशेषता ( माधुर्य ) से खानेवालोंको प्रीति भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है अर्थात् कमबढ़ प्रीति होती है-- दूधमें कम प्रीति और खांडमें अधिक प्रीति होती है ।। १२२||
*८०
भावार्थ- प्रीति (मूर्च्छा या रुचि भेदका कारण, निमित्तको दृष्टिसे ( व्यवहारसे ) बाह्यपदार्थ ( भोगोपभोगके साधन ) होते हैं या माने जाते हैं जैसे कि दूध कम मीठा होता है अतएव उसमें कम प्रीति ( मूर्च्छा या आसक्ति ) होती है तथा खांड़ ( शक्कर ) में अधिक मिठास होनेसे उसमें अधिक रुचि होती है ऐसा देखा जाता है। इस न्यायसे लोकमें 'कारणगुणाः कार्यगुणमारभन्ते' कारण के समान कार्य होता है ऐसा कहा जाता है। तदनुसार अन्तरंग निमित्तकारण मूर्च्छा माना जाता है, उसके अनुसार बाह्यपदार्थों ( परिग्रहों) में अधिक या कम प्रीती होती है। अर्थात् तीव्र मूर्च्छा हो तो भोगोपभोगके साधनों ( विषयों) afee या तीव्र रुचि प्रीति या Referrer or fद्ध होती है और यदि मन्द मूर्च्छा हो तो कम रुचि प्रोति या आसक्ति होती है, इत्यादि भेद है।
यहाँ पर यह विचारणीय है कि जड़ पदार्थों ( दुग्धादि ) में मधुरता कमबढ़ कौन करता है ? उत्तर में कहना होगा कि यह सब स्वभावसे होती है, कोई परद्रव्य उसमें वह पैदा नहीं कर देता- वह स्वभाव सिद्ध है, पारिणामिक है। अन्यथा मानने पर वस्तुकी स्वतन्त्रता नष्ट होती है । इसी तरह कमती-बढ़ती मूर्च्छा भी स्वयं स्वोपादानके स्वतः परिणमनसे होती है व मिटती है, उसमें परद्रव्यको कारण मानना अज्ञान या व्यवहार है, जो स्वतन्त्रताका बाधक है। ऐसी वस्तु स्थिति है । तथापि निमित्तको दृष्टिसे बाह्यपरिग्रह भी हैय हैं, क्योंकि परस्पर निमित्त नैमित्तिकता भानी जाती है । अस्तु ।
1
नोट- निश्चयrयकी अपेक्षा 'कारणविशेषका अर्थ' उपादान कारणको विशेषता मानना चाहिये और व्यवहारनयकी अपेक्षासे 'कारण विशेषका अर्थ निमित्तकारणकी विशेषता मानी जाती है, यह खास भेद है । इसी व्यवहारका आगे दृष्टान्त द्वारा खुलासा किया जानेवाला है । अस्तु ॥१२२॥
आगे आचार्य निमित्तकारणकी मुख्यतासे प्रीतिभेद ( मूर्च्छा भेद ) बतलाते हैं अर्थात् हाका कथन करते हैं ।
माधुर्य्यप्रीतिः किल दुग्धे मन्देव मन्दमाधुर्ये । सैवोत्कटमाधुर्ये खंडे व्यपदिश्यते तीव्रा ॥ १२३॥
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परिप्रहपरिमाणाम
are
अल्प मिठास सहित वस्तु मैं अब प्रीति होती है मिस । जैसे दूध पदारथ माहीं, अरुप प्रीति रखता है किस 11 बहुत मिठास सहित प्रस्तुमें, अधिक प्राति होती है नित। जैसे खांड पदारय माही, तीन प्रीति रखता है चित्त ॥१२३॥
अन्वय अर्थ- आचार्य दृष्टान्त देते हैं कि किस मन्तुमाधुय्यं दुग्धे मन्द माधुय्यप्रीति: ] जिस प्रकार निमित्तको अपेक्षा स्वभावत: ( लोकमें ) थोड़े मिठासबाले दूध स्वभावस: मन्द ( अल्प) प्रीति या मूच्र्धा-रुचि होती है। और [ उत्कटमाधुश्य खंजे सैव हीघा न्यपदिश्यते ] अधिक मिठासवाली खांड़ ( शकर ) में वही मूर्छा, प्रोति या चि, स्वभावत. तीन या अधिक होती है। उसी तरह इष्ट पदार्थोंमें अधिक और साधारणपदार्थों में कमती रुचि ( मूच्छी ) होती है । अतः ऐसा समझना चाहिए कि भेदका कारण परपदार्थ है जो व्यवहार में सत्य है और वैसा माना भी . . जाता है ॥१२३॥
भावार्थ-लोकमें दृश्यमान बाह्यपदार्थों ( निमित्तों ) की हो मुख्यता मानी जाती है..... उसीके द्वारा कुल कार्य होते हैं, ऐसा लौकिकजन मानते हैं और इसका कारण एक ही कालमें उनका मौजूद रहना है। लौकिकजन बहिर दृष्टिले ( नेत्रोंसे ) देखते हैं, अतः उन्हें भीतरी वस्तु नहीं दिग्वती, तब उसका उन्हें महत्त्व मालूम नहीं होता। यदि कहीं वे अन्तर दृष्टिसे ( भेदज्ञान से ) देखले होते तो उन्हें निःसन्देह सत्यार्थताका पता लगता और वे उस तरफ रुचि या प्रोति रखते उसका महत्व वर्णन करते इत्यादि। यो खास कमी मियादप्रिया लौकिकानों के रहती है। और सम्यग्दष्टि भेदज्ञानीको अन्तरष्टि होनेसे वह भीतरी असलीतत्व समझ लेता है ब हेयो. पादेयका बोध हो जानेसे वस्तुके यथार्थ स्वरूपको अपनाता है, उसी में संलग्न होता है। उसकी पराश्रितता या पराधीनता छूट जाती है। उसे उपादान व निमित्तका यथार्थ ज्ञान होनेसे बह कभी भूल या भ्रममें नहीं पड़ता, वह सत्यका उपासक बन जाता है। यदि कदाचित संयोगी पर्यायमें उसकी व्यवहारधि होतो भी है तो वह उसमें भूलता नहीं है, उसको उपादेय नहीं मानता न प्रसन्न होता है उसमें उसे दुःख ही होता है और उसको हटानेका प्रयत्न ( पुरुषार्थ ) करता है, लेकिन उस स्वकीयपर्याय या परिणमनका कर्ता पुरुषार्थ द्वारा नहीं बनता, यह कर्तृत्व त्यागता है। उपादानतासे का होता है निमित्ततासे का नहीं होता इत्यादि समझना चाहिये ।। १२३ ॥
नोट --सम्यग्दष्टि बाह्यपरिग्रह अधिक होनेपर ( चक्रवर्ती जैसा) भी निष्परिग्रही जैसा अल्प मुच्छावान् । रागी ) है और मिथ्याष्ट्रि बाहिरमें अल्प परिग्रह होनेपर मो भीतर रुचि होनेसे अधिक परिग्रहवाला माना जाता है। अतएव बायपरिग्रहके पीछे मूच्छो मन्द या तोत्र नहीं मानी जा सकती. यह तात्पर्य है । वह तो स्वत: ही वस्तु ( आस्मा ) का परिणमन है, अतः वह ही उसका कर्ता व भोक्ता माना जाता है ऐसा जानना ॥ १२३॥
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૨૮૨
पुरुषार्थसिक्युपाय अभीतक आचार्य देवने समुदायरूपसे अन्तरंग परिग्रहका कार्य बताया है । आगे प्रत्येक कषाय ब कर्मका पृथक्-पृथक् कार्य बताते हैं । न्यायदृष्टिसे विश्लेषण करते हैं।
तत्यार्थाश्रद्धाने नियुक्तं प्रथममेव मिथ्यात्त्वम् । सम्यग्दर्शनचौराः प्रथमकायाश्च चचारः ॥१२४॥
पद्य सश्वार्थ श्रद्ध! बलनी है, उश्य जाब मिथ्यात्वका । अरु सुभान्छा होत नाही, उदय होग अनंतका। इन माँति असर कमका दी कार्य करते हैं पृथक् ।
उनको पृथक करना अहो ! पुरुषार्थ पच्चा वह अथक ।१२।। अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ प्रथमच तरवार्थानाने मिथ्यावं नियुक्तं । हमने सबसे पहिले अन्तरंग परिग्रह मिथ्यात्वका कार्य जीवादि प्रयोजनमत सात तत्वां में विपरीत / जर श्रद्धाका होना बतलाया है ( कहा है श्लोक में० २२ में ).सो जानना परन्तु अब अनतानुबंधी कषाय ( अन्तरंग परिग्रह) का कार्य बताते हैं कि [aran: प्रधरपाया: सम्याद अनंतानुबंधी कषायके चारों भेद सम्यग्दर्शनको चुराते हैं अर्थात् सम्यकथद्धा या सम्यग्दर्शन नहीं होने देते ( रोकते हैं ) यह कार्य भेद दोनोंका है ।। १२४ ।।
भावार्थ-स्थायदृष्टिसे दो परिग्रहके या कर्मके दो पृथक् पृथक् कार्य होते हैं, दोनोंका कार्य एक नहीं है । अन्यथा एक व्यर्थ सिद्ध हो जायमा यह आपत्ति आती है। यह विचित्र विश्लेषण आचार्य महाराज ने ( अद्वितीय } किया है । वे कहते हैं कि मिथ्यादर्शन' नामका परिग्रह ( कर्म ) जीवोंको धद्धा-(प्रयोजन भूत सात तत्त्वोंमें) विपरीत करता है ( विधिरूप कार्य करता है। और अनंतानुबंधी कषाय नामक अन्तरंग परिग्रह ...कर्म । ( प्रयोजनभूत सात तत्त्वोंमें । सम्यक् श्रद्धा । सम्यग्दर्शन को रोकता है अर्थात् नहीं होने देता ( निषेधरूप कार्य करता है)। इस प्रकार विपरीत श्रद्धाको करना और सम्यक् श्रद्धाको न होने देना दो कार्य दो कमके हैं, एकके नहीं हैं ! ध्वन्यर्थसे भले ही कोई एक अर्थ निकाले परन्तु वह यथार्थ नहीं हो सकता इत्यादि।
विशेष नोट-सिद्धान्तमें भी मिथ्यात्व कर्मका चतुष्य जुदा है और अनंतानुबंधी कर्मको १. सात तत्त्वोंमें उल्टा या विपरीत श्रद्धान । २. तीनों भव-मिथ्यात्व, मित्र, सम्यक्स्व । ३. अनंतानुबंधी क्रोष मान माया लोभ बारों। ४, सम्मश्रद्धा अर्थात् अविपरीत बद्धा अथवा सम्यग्दर्शन । ५. अधिक
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परिग्रहपरिमाणावत
चतुष्टय जुदा है तब कार्य भी उसके जुदे-जुदे है ऐसा तश्य समझना चाहिये । हाँ सामान्य विवक्षासे एक कह दिया जाता है। परन्तु यथार्थ बात नहीं है। तभी तो अनंतानुबंधो कषायके चार भेदों में से किसी एक कषायका उदय आनेपर सभ्यश्चद्धासे शिथिल होकर मिथ्यात्वको ओर नोचेको चतुर्थ गुणस्थानवाला जाता है । यह सैद्धान्तिक चर्चा है ( सम्मत्तरयण पन्वय इत्यादि ) व आदिम सम्पत्तला ( इत्यादि गोल जीवकांड गाथा १९२० ) देखना चाहिये ।
चरित्रको अपेक्षामे बह स्वरूपाचरणचारित्रको भो पातली या रोकती है. नहीं होने देती।
इस प्रकार अमतानुबंधी कषाय दो कार्य करती है अर्थाद (१) सम्यग्दर्शन ( सम्यक श्रद्धा ) को रोकती है-नहीं होने देती (२) स्वरूपाचरणको भी रोकती है। इसका खुलासा पेश्तर कर दिया गया है ( श्लोक ३७ में चारित्रपाड़ और पट्खागमका प्रमाण देकर ) अतएव सन्देह नहीं करना चाहिये, यह निर्धार सत्य है। इसके विषय में एक उदाहरण दिया जाता है उससे स्पष्ट समझमें आ जायगा।
एक माकेपर दो आदम खड़े हैं, उनमेंसे एक आदमी उल्टा मार्ग ( रास्ता) बताता है। और एक आदमी सही मार्ग पर नहीं चलने देता-बन्द किये हा है। ऐसी हालत में वर्ष पथिक ( मुसाफिर ) भटकता फिरता है, ठिकाने नहीं लगता। उसी तरह मिटाव उल्टा मार्य बतलाता है और अनंतानुबंधी कषाय सुमार्गपर नहीं चलने देती, फलतः परस्पर दो निमित्तोंके दो भिन्नभिन्न कार्य होने से भी लिया है और इस सम्भव है, ऐसा विश्लेषण दोनोंका समझना । आचार्य ने यह विशेष जानकारी दी है, इसपर लक्ष्य देना चाहिये । सारांश यह कि मिथ्यात्त्व परोन्मुख करता है और अनंसानुबंधी कषाय स्वोन्मुख नहीं होने देतो यह भेद पाया जाता है। किम्ब हुना-जब दोनों प्रकृतियों का अभाव ( उपनामादिरूप ) होता है तभी 'सम्यग्दर्शन' गुण प्रकट होता है अर्थात् विपरीत श्रद्धा नष्ट हो जाती है ब सम्यश्रद्धा प्रकट होती है, व स्वरूपाचरण चारित्र भी व्यक्त होता है । अस्तु ।
दूसरा अर्थ ( १ ) मिथ्यात्व, ४ अमनानुबंधी कुल ५ कर्म प्रकृतियाँ अनादि मिथ्यादृष्टिके सम्यग्दर्शनको घातती हैं, नहीं होने देतों और सादि मिथ्याष्टिके मिथ्यात्व ( दर्शन मोह )को ३ अनंतानुबंधोकी ४ कूल ७ प्रकृतियाँ सम्यग्दर्शनको रोकती हैं, यह सामान्य अर्थ है। पाठक यथाचि तत्वको समझे दोनों अर्थों में संगति बिठा लें । किम्बहुना 11 १२४ 11
विशेषार्थ ( खुलासा ) असलमें मिथ्याष्टिकी गलती क्या हो जाती है ? कि वह वस्तुके नियत स्वभावको भूल जाता है । अर्थात् मिथ्यात्वके समय वह अपने स्वभाव से और परके स्वभावसे भी विचलित हो जाता है। उसको यह रूपाल या स्मरण नहीं रहता कि प्रत्येक बस्तु सदैव अपने स्वभाव ( गुण या पर्याय ) में .. ही स्थिर रहती है, पर स्वभावरूप नहीं होती, यह शाश्वतिक अखंड नियम है। तभी वह अपने
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पुरुषार्थसिद्धधुपाम स्वभाव । सिर्फ जानना देखना व सबसे पृथक रहना ) को छोडकर पर अर्थात् शारीर व धनादिमें एकता या अभेद स्थापित करता है जो अकालमें असभव है। वस्तु स्वभावके प्रतिकूल है अर्थात् कोई एक पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ में स्वभाव छोड़कर सर्वथा तादात्त्मरूपसे मिल नहीं सकता न कभी अनादिकालसे मिला है, स्वभावको लिये हुए सब जुदे-जुदे रहे हैं। 'स्वभालो नातिवर्तते' यह कहा गया है। न्यायके अनुसार यद्यपि जीव ( आत्मा) अपना ज्ञाता दृष्टा । चेतन ) स्वभाव को छोड़कर, जड़ स्वभाववाले पुद्गलादिरूप (तन्मय ) नहीं हो सकता तथापि या फिर भी मिथ्यादष्टि हठसे प्रकृतिविरुद्ध परके साथ मिलने या तादात्मरूप होनेका प्रयत्न करता है यह उसकी महान भूल व अज्ञानता है अर्थात् वस्तु स्वभावकी विस्मृति है। इस प्रयत्नमें { असंभव कार्य में ) जब वह सफलता नहीं पाता तब दुःखी होता है, इष्ट अनिष्ट व गगद्वेषरूप बुद्धि करता है, इत्यादि विपरीतता मानना व वैसा आचरण करना मिथ्यारवका प्रभाव है, वहीं विपरीत श्रद्धा या मान्यताको जन्म देता है अर्थात् वस्तुस्वभावको भुलवा देता है तब तत्वार्थ या वस्तु स्वभाव में वह गलती करने लगता है. कुछ से कुछ मानने लगता है। इसीका नाम नास्तित्त्व या अन्यथापना है। ऐसी स्थितिमें वह अपराधों रहता है एवं संसार में रहने की सजा ( दंड । पाता है। अतएव सबसे पहिले जीवको यही असली व बड़ी भूल ( मिश्यादृष्टि ) निकालना चाहिये तथा सम्यक्त ( सम्यकदृष्टि ) प्राप्त करना चाहिये तभी जीवनको सफलता है, अन्यथा नहीं यह निष्कर्ष है।
अहिलठति यद्यपि स्फुटदनम्तफाक्तिः स्वयं । ताप्यपरवस्तुमो विशति नान्यस्वन्तरम् ॥ स्वभावमियतं यतः सकलमेव वसिषष्यते।
स्वभावचलनाकुल; किमिह मोहित: क्लिश्यते ।।२१२।। समयसार सलप ॥२१५५ भी। नोट-पुराणोंमें श्रीरामचन्द्रजीको मर्यादापुरुषोत्तम लिखा है वह व्यवहारका कथन है। क्योंकि उन्होंने सीताजीको भी अग्नि परीक्षा लेकर लोक पद्धतिका निर्वाह किया था, भंग नहीं किया था किन्तु निश्चयसे मर्यादा पुरुषोत्तम सम्यग्दष्टि जीव ही होता है जो वस्तुको मर्यादा ( स्वभाव ) को नहीं छोड़ता-उसीमें स्थिर रहता हैं इत्यादि । मिथ्यादृष्टि मर्यादा ( स्वभाव ) तोड़ देते हैं---विचलित हो जाते हैं इति---
विशेषार्थ ( स्पष्टीकरण )
मिथ्यात्व और अनंतानुबंधीमें विश्लेषण (१) मिथ्यात्त्वकर्म, सम्यग्दर्शन गुणको धातता है अर्थात् वह विपरीत श्रद्धान करता है अथवा मोक्षमार्गोपयोगो जोब अजीवादि सात तत्वोंको यथार्थ श्रद्धा नहीं होने देता-उसको ढाँकता है, प्रकट नहीं होने देता, यह मुख्य कार्य है।
(२) अनंसानुबंधीकर्म स्वरूपाचरण चारित्रको घातता है, यह मुख्य कार्य है। किन्तु
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परिप्रहपरिमाणात
२८५ सम्यग्दर्शनको यातना इसका मुख्य कार्य नहीं है किन्तु गौण कार्य या उपचार है और उसका खास हेत साहचर्य संबंध है. मयोगी पर्याय है।
(३) दोनों बहुधा साथ-साथ रहते हैं और साथ-साथ सदयमें भी आते हैं, अतएव काल दोनों का एक है। इस तरह द्रव्य ( अधिकरण ) क्षेत्र ( आत्मप्रदेश ) काल ( उदय ) एक होने पर भी भाव या कार्य दोनोंका जुदा-जुदा है...एक नहीं है।
(४) अनंतानुबंधोकर्म ( कषाय } में दो शक्तियां या स्वभाव माना गया है कि वह सम्यग्दर्शनको भी बातती है और स्वरूपाचरणचारित्रको भो धातती है ( जीवकांड गोम्मटसार गाथा २० तथा षट्खंडागम संतसुत्त जोयाण पृष्ठ १६६ देखो) ऐसा वहाँ लिखा गया है। सो क्यों? इस प्रश्न का उत्तर
(५) उक्त प्रकारका उल्लेख गौण मुख्यकी अपेक्षासे या निश्चयव्यवहार कथनको अपेक्षास है अर्थात् मुख्यतासे दोनों एक-एक कार्य ही करते हैं, मिथ्यात्वक्रम सम्यग्दर्शनको हो घालता है और अनंतानुबंधी कर्म स्वरूपाचरण चारित्रका ही धातता है, लेकिन गौणता { व्यवहार या उपचार ) से अनंतानुबंधीका कार्य सम्यक्तको पातमा भी बतलाया गया है। अतएव यहाँ श्लोक नं० १२४ में 'सम्यग्दर्शनचौरा: प्रथमषायाश्च चत्वारः, लिखा गया है और वहाँ जीवकांड गाथा २० में भी वैसा ही ध्वन्यर्थ रूपमें लिखा गया है। 'सम्मत्त रयणपव्वय सिहरादो मिच्छभूमिसमभिमुहो, णासियसम्मत्तोसो सासठाणामो मुणयन्वा ।। २० ।।
भावार्थ-दूसरे सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें अनंतानुबंधी कषायके चार भेदों में से किसी भी एक भेदका उदय होने पर सम्यक्तरूपी रत्नके पर्वत परसे नीचे धरतीको ओर जीवका भाव हो जाता है अर्थात् नोचे मिश्यात्त्व (पहिले) में जानेको उन्मुक्ता या योग्यता ( प्रागभाव ) उसको प्राप्त हो जाती है न कि वहां वह चला जाता है, जिससे मिथ्यादृष्टि वह कहलावे। जबतक व्यक्ति या प्रकट दशा न हो जाय तबतक प्रकाट दशा मानना उपचार मात्र है, सत्य नहीं है। हैं। यदि सचमुच ऐसा होता तो उसको सासादन सम्यग्दृष्टि न कहकर खुलासा मिथ्यादृष्टि कहते परन्तु वह नहीं कहा जाता। इससे भविष्यपर्यायको ध्वन्यर्थसे मानना व्यर्थ है। सस्य बास तो यह है कि उसका उस समय द्रव्यनिक्षेपसे वैसा कह सकते हैं ( मिथ्याष्ट्रि ) किन्तु भावनिक्षेप से नहीं। अतएव अनंतानुबंधो कवाय सम्यक्त्वको मुख्यतासे नहीं घासती, उपचारसे घातती है। जिस प्रकार चोरी करनेवाला असलमें चोर है किन्तु थ्यवहारमें चोरकी सहायता करनेवाला या साथमें रहनेवाला भी चोर कहलाता है, यहो न्याय यहाँ पर मिथ्यात्वके साथ होनेसे अनंतानुबंधीको भी लगता है ( संगतिका दोष लगता है) इत्यादि । यदि सत्य कहा जाय तो सासादनका काल सम्यक्त्वका ही बकाया काल है ( छह आवली काल ) वह मिथ्यात्वका काल नहीं है जैसा कि सम्यग्दर्शन होनेके पहिले करणत्रयका काल मिथ्यात्वका ही है, सम्यक्त्वका नहीं है । तब अपनेअपने कालमें उसका पद या स्वरूप कैसे बदल जायगा, यह विचारणीय है, इसमें हठ या पक्षका प्रयोजन नहीं है---तत्वका निर्धार करना है । जैनागम या जैन साहित्य में ऐसा प्रसंग या प्रकरण अनेक जगह आया है। अतएव कोई नवीन बात नहीं है । तत्त्वका निर्धार करना गुण है, दोष या
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पुरुषार्थ पा
अपराध नहीं है । अपराध या दोष उल्टा मानना या निर्धार न करना है, यह ध्यान में रखा जाय । अस्तु ।
वस्तुस्वभाव के अनुसार अपना कार्य करते हुए दूसरेको सहायता देना या मदद करना कर्तव्य पालन है । तदनुसार मिध्यात्वकर्म अपना मुख्य कार्य विपरीत श्रद्धाका करना यह करते हुए दूसरा गौण कार्य सम्यक् श्रद्धाको घाना याने उससे हटाना या व्यावृत्ति करना, यह भी करता है अथवा अनंतानुबंधीको स्वरूपाचरण चारित्रके घातने में मदद देता है। इसी तरह अनं. तानुबंधी कषाय अपना मुख्य कार्य स्वरूपाचरण चारित्रको पालना करती है। और गौण कार्य frani मदद देना भी करती है। तब कोई विरोध नहीं आता, सब विरोध प्रश्न व शंकाएँ समाप्त हो जाती है। हां गौण कार्यको कभी मुख्य कार्य नहीं समझना चाहिये जो वस्तु स्वभावगत है। इसके सिवाय एक बात और भी है कि यदि अनंतानुबंधी कषायको सम्यक्त्वको घातक मानी जाय हो वह पूरी धागो या खंड रूपसे यह प्रश्न होगा । यदि सभीको घातेगी तो जब एक साथ चारों भेदों (क्रोधादि ) का उदय होगा तभी वह समर्थ होगी - सबको घातेगी; एक-एकके उदय होने पर तो अंश अंश रूपसे बातेगी, तब एक कालमें आंशिक सम्यक्त्व व आंशिक मिध्यात्व दोनों मिश्ररूप रहेंगे यह आपत्ति आयेगी ? ऐसी स्थिति में मुख्य गौण मार्गका अवलम्बन करना ही श्रेयस्कर है - साध्यका साधक है । किम्बहुना विचार किया जाय हमलोगों का क्षायोपशमिक अल्प ज्ञान है ।
आचार्य आगे अप्रत्याख्यानावरणकषाय ( परिग्रहल ) का कार्य बतलाते हैं ।
प्रविहाय च द्वितीयान् देशचरित्रस्य सम्मुखायातः । नियतं ते हि कषायाः देशचरित्रं निरुन्धन्ति ॥ १२५ ॥
पद्य
है- देशबारे प्राप्त होता देश चरित्र घात होता || अणुव्रत धारण कहलाता देशपरियां गिना जाता || १२५।।
किषाय त्यागता जब अतः सिद्ध होता है इससे अप्रस्माकथान कषाय छोड़ना धर्म अहिंसा deer है अरु
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ व द्वितीयान् विहाय ] जीव जब दूसरी कषाय अर्थात् अप्रत्याख्यानावरण कषायको त्याग देता है ( पृथक् कर देता है ) तब [ देशचरित्रस्य सम्मुखायातः देशचारित्र अर्थात् अणुव्रत या देशचारित्र धारण करनेके योग्य होता है अर्थात् उसको देशचारित्र प्राप्त होता है, यह नियम है। इससे मालूम पड़ता है कि [ हि ते कषायाः नियतं देशखरिश्र
१. छोड़ देने पर अर्थात् पृथक् कर देने पर ।
२. अपश्याख्यानावरण कषाय ।
३. अणुखत या देशश्रत ।
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परिग्रहपरिमाणात
२८७ निहन्धन्ति ] वे दूसरी प्रत्याख्यानावरण कषायके चारों (क्रोध, मान, माया, लोभ ) मेद निश्चय या अनिवार्य रूपसे, देशचारित्रको धातते हैं अर्थात् प्रकट नहीं होने देते। अतएव उनका भी त्याग करना चाहिये, क्योंकि वे भो प्रमादक व हिंसाकारक हैं, देशचारित्रके घातक हैं ।। १२५ ॥
भावार्थ---जितने भी आवरणी कर्म होते हैं वे सभी व्यक्ति ( प्रकाटता) को रोकते हैं, शक्तिका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकते, शक्ति बराबर मौजूद रहती है। सिर्फ कपरमे आवरण पड़ जाने के कारण बाहिर प्रकट नहीं हो पाती, यह तात्पर्य है । यदि कहीं आवरण शक्तिका धात (नाश ) कर देवे तो वह बस्तु ही नष्ट हो जाब तथा फिर नष्ट हुई शक्ति नवीन उत्पन्न नहीं हो सकती क्योंकि 'असत्का उत्पादन नहीं होता' यह सिद्धान्त हैं, और सत् ( शक्ति ) का विनाश भी नहीं होता, यह अटल नियम है । फलत: इसीलिये आचार्य ने 'निझन्धति' क्रिया लिखी है, जिसका अर्थ रोकना या आचरण करना ( ढकना ) होता है इत्यादि विचारणीय है। अप्रत्याख्यनावरण कषायका उदय होने पर एकदेश अर्थात् स्वमात्र भो व्रत ( चारित्र ) नहीं होता यह जसका कार्य है (अविवहीं प्रमाण दवाइस, दक्ति है---उसका शब्दार्थ है, सभी आवरण
विशेष वक्तव्य यह है कि इस श्लोकके आगे अभी पृथक् पसे 'प्रत्यास्थामावरण' तोसरी कषाय तथा 'संज्वलन' चौथी कपायका कार्य नहीं बताया गया है । अतएव भ्रम में नहीं पड़ जाना चाहिये किन्तु सर्वेषामन्तरंगसंगानाम' १२६ श्लोकके इस समुदायरूपकथनसे सभी अन्तरंग परिग्रहोंका त्याग करना, समझ लेना चाहिये। जिसका खुलासा इस प्रकार है- प्रत्याख्यानाबरणकषाय व संज्वलनकषाय तथा हास्यादि २, नोकाय, ये सभी अन्तरंग परिग्रह हैं और प्रमादके अन्तर्गत हैं, उनसे हिसा अवश्य होती है। देखो ! प्रत्याख्यानाबरकषाय सकलसंयम ( चारित्र ) या सकलयत, को रोकती है । अतएव उसको प्राप्तिके लिये अथवा मुनिषद धारण करने के लिये उस कषायका स्थागमा अनिवार्य है, उसके त्याग किये बिना कोई मुगिसकलचारित्री ) नहीं बन सकता तथा संज्वलनकषाय व नवनोकषायोंके त्याग किये बिना 'यथाख्यात' पारिश्रधारी नहीं हो सकता, न निर्विकल्प समाधि हो सकती है, और फलरूप न केवलज्ञान उत्पन्न हो सकता है ! अतएव उन सबका त्याग करना भी अनिवार्य है।
सभी कषायोंके त्याग करने पर ही शुद्धोपयोग व श्रामण्य व समभाव या माध्यस्थभाव' हो सकता है ( होना संभव है ) अन्यथा नहीं, ऐसा समझना चाहिये । किम्बहुना-शेषपुनः ११२५।। आगे आचार्य समुदायरूपसे अन्तिम शिक्षा देते हैं।
__बचे हुए अन्तरंग परिग्रह त्यागने को निजशक्त्या शेषाणां सर्वेषामन्तरंगसंगानाम् । कर्तव्यः परिहारोमादेवशौचादिभावनया ॥१२६॥
१. भावनाका अर्थ आकांक्षा करना, चित्तको लगाना या एकाग्र करना होता है।
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२८८
पुरुषार्थसिद्धयुपाय
R
शक्तिप्रमाण परिग्रह त्यागे-शेष अन्तरंग बचे हुए। मोक्ष सिद्धि का कारण यह है-साय भावना लिए हुए । है निमिस कारण धे मावन मार्दव शौच आदि जामो ।
नहि अनर्थ होता है उनसे, चरित रूप गुण पहिचानो। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ निज शक्त्या शेषाणां सर्वेषामन्तरंग संगामाम् ] अपनो खुदकी शक्तिके अनुसार अर्थात् स्वावलम्बनसे ( परावलम्बमसे नहीं ) शेष बचे हुए ( प्रत्याख्यानादिकवायरूप ) सम्पूर्ण अन्तरंग परिग्रहका भी । परिहारः कर्तव्यः | त्याग करना चाहिये । परन्तु उसके त्याग करने का सच्चा उपाय [ मार्दवशीचादिभावनय! ] मार्दव शौच इत्यादि अन्तरंग निमित्तरूप भावनाएँ हैं अतः उनका अवलम्बन लेना चाहिये ।।१२६।।
भावार्थ --अन्तरंग परिग्रहका त्याग अन्तरंग कारणोंसे ही होता है बाह्य कारणोंसे नहीं होता। वे अन्तरंग कारण कषायोंको मन्दता मा अजब होकर ही कामाय प्रकट होते हैं.. उनको भावनाएँ । संस्कार ) कहते हैं । अर्थात् जब कषाएँ मन्द होती हैं अर्थात् साधारण रूपसे उदयमें आती हैं और बिकारीभाव जोरदार नहीं होते--माममात्र उदयमूल होते हैं, तब जीवके अच्छे शुभ विचार होते हैं अर्थात् परिणामों मेंसे कठोरता { तोवता ) निकल जाती है व मृदुता ( मन्दता ) आ जाती है दयाभाव व करुणाभाव होने लगता है-परोपकार आदिकी बुद्धि प्रकट होती है-जिससे मादव धर्म पलता है, मानकपाय घटती है, इत्यादि । तथा लोभ कषायकी मन्दतासे त्यागके भाव होते हैं....उदारता आती है, परिग्रह या आसक्ति छूटती है, जिससे आत्मामें पवित्रता (शोधर्म ) प्रकट होतो है, इत्यादि । उधर धीरे-धारे क्रमशः अन्तरंगमें विकारीभावोंके छूटने ( हटने ) से आत्मशक्ति या आलम्बन प्रकट होता है, बढ़ता है, अर्थात् वीतरागता बढ़ती जाती है. जिसके निमित्तसे अन्तरंगपरिग्रररूप बचे हा विकारीभाव सत्तासे निकलते हैं। भाव निर्जरा होतो है ) इत्यादि अभीष्ट प्रबोजन सिद्ध होता है। विकारको अविकार हटाता है । फलतः भावना भाते-भाते अर्थात् परिग्रह छोड़ने का विचार व प्रयोग करते-करते उसका इतना जबर्दस्त संस्कार पड़ जाता है कि उसीका राज्य हो जाता है और वही स्वतन्त्र रह जाता है । अतएव अच्छे वैराग्यके संस्कार हमेशा डालना चाहिये, संसारसे छूटने की बारंबार भावना ( स्मृति ) करना चाहिये ।। १२६ ॥
नोट-यहाँपर मार्दव शौच आदिको भावना, निश्चयसे मानादिकषायोंसे विरक्त होनेका अहर्निया चित्तवन करना रूप है अर्थात् वैराग्य भावनासे प्रयोजन है उसीसे परिग्रहरूप कर्मोकी निर्जरा होना संभव है। अन्तरंग परिग्रह उसीसे छूट सकता है इत्यादि । वीतराग भावना हो हितकारी है। भावनाका अर्थ बारंबार चिन्तवन करनेका है और प्रयोग एवं पुरुषार्थ करनेका भी है। किसी भी कार्यका बार-बार और सतस प्रयास करनेसे वह सिद्ध और सरल हो जाता है, ऐसा नियम है। उसका कारण संस्कारका पड़ना है, वह संस्कार बड़ा कार्य करता है तथा वह
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परिग्रहपरिमाणाणुषस
२८९ जन्मजन्मान्तर तक साथ जाता है। फलतः रागका संस्कार ल डालकर सम्यग्दष्टि वैराग्यका संस्कार अपने आत्मामें निरन्तर डालता है अर्थात् परकी ओरसे हटाकर अपना ज्ञानोपयोग अपनी मोर लाता है और उसी में स्थिर करता है. जिसमें नम एकाग्रता द्वारा निराकुल होकर अपने शुद्ध स्वरूपका अनुभव करता है अथवा स्वाद लेता है, तब महान सुख उत्पन्न होता है। उस आस्तिक सुनके सामने वेषयिक सुख तुच्छ मालूम होते हैं तथा उस समय वह अपने को कृतकृत्य मानता है। ऐसी स्थिति में अन्तरंग परिग्रह छुटाने के लिये निश्चयरूप अर्थात् बोतगमता रूप 'मार्दव-शौच' धर्मकी भावना कर्तव्य है, क्योंकि रागद्वेषादिरूप अन्तरंग परिग्रहका विनाश उसके विपक्षी वैराग्यसे ही होना सम्भव हैं। वह भावना संक्षेपमें कहा जाय तो एकाग्रता' करना है। अर्थात् उपयोग (चित्त )के हटनेपर ( चंचल होनेपर ) पुरुषार्थ करके पुनः पुनः उसको आत्मस्वरूपमें लगाना चाहिये, इत्यादि । तभी भावनाको सार्थकता मानी जा सकती है। किम्बहुना ॥ १२६ ।।
आगे आचार्य यह बताते हैं कि अन्तरंग परिग्रहका त्याग करना तो मुख्य है हो किन्तु बाह्य परिग्नहका त्याग करना भी अनिवार्य है, वह उपेक्षणीय नहीं है अपितु अपेक्षणीय है।
बहिरंगादपि संगाधस्मात् प्रभवत्यसंयमोऽनुचितः । परिवर्जयेदशेष तमचित्त वा सचिन वा ॥१२७॥
पथ
बाय परिग्रह वर्जनीय है-उससे होत असंयम है। बह स्वभाव नहिं जीव वयकाच्यार्थ कलंक लगाता है । भेद अनेकों उसके हैं पर, मुख्यभेद दो होते हैं।
एक अचित्त नाम है दूजा-माम सचिस बताते हैं ॥१२७।। अन्यय अर्थ..--आचार्य कहते हैं कि [ यस्मात बहिरंगादपि संगात् अनुचित: असंयमः प्रभपति ] जबकि बहिरंग परिग्रहके निमित्तसे भी अनुचित असंयम उत्पन्न होता है इसलिये [ तमलिक धा मचित्तं परिवर्जयेत् ] उस अचित्त व सचित्त ( पूर्वोक्त ) दो प्रकारके बाह्य परिग्रहका भी त्याग करना अनिवार्य है। क्योंकि उससे [ असुचितः असंयमः प्रभवति ] अनुचित असंयम उत्पन्न होता है अर्थात् उसके निमित्तसे व्यर्थ हो ( आनुषंगिक ) असंयमभाव प्रकट होता है । अन्तरंग परिग्रहका त्याग हो जानेपर बाह्यपरिग्रहका रखना या रहना बेकार है-निष्प्रयोजन है { फालतू है ) ||१२७।।
भावार्थ....बाह्यवस्तुओंका ग्रहण अर्थात् परिग्रह ( संग्रह ) अन्तरंग परिग्रहसे ही किया जाता है अर्थात् उसके रहते हो उसका संग्रह व संरक्षण आदि होता है, कारण कि कषायके द्वारा
संसारके प्रायः सभी कार्य हुआ करते हैं। तथा उसकी शोभा या कार्यपटुता भी तभीतक रहती . १. हिंसा या पाप होता है 1 अहिंसातत नहीं पलवा इत्यर्थः ।
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पुरुषार्थसिद्धपा
है । कषाय या अन्तरंग परिग्रहके नष्ट हो जानेपर सब व्यर्थं सिद्ध होता है। जैसे कि मर जानेपर स्नान पूजन सब बेकार है । ऐसी स्थितिमें बाह्य परिग्रहका त्याग करना अनिवार्य है, जिससे अपना (हिंसा या त्रुटि) उत्पन्न न हो अर्थात् बाह्यपरिग्रहधारी, असंयमी ( हिंसक ) कहलाता है एवं उसको मोक्ष नहीं होता- निष्परिग्रही ( दोनों परिग्रह रहित अहिसक असंयोगी या वियोगी) ही मोक्ष जाता है, यह नियम व तात्पर्य है । फलतः बाह्यपरिग्रहका भी त्यागकर देना चाहिये, व्यर्थं ही क्यों असंयमी या परिग्रही संयोगी बना जाय । वह लांछन ( कलंक ) है । अस्तु - सिद्धान्ततः एकवस्तु जब स्वभावसे अन्य वस्तुसे भिन्न है अर्थात् अपने ही नियंत्रित होकर सदैव रहती है तब उसके साथ संयोगरूपसे भी दूसरी वस्तुओंका रहना या उन्हें साथमें रखना विरुद्ध है, न्यायके प्रतिकूल है । अतएव एकस्व विभक्तरूप आत्माका रहना ही निष्कलंक और उत्तम है, कारण कि जबतक बिना कषाय ( अन्तरंग परिग्रह ) के भी बाह्य शरीरादि परिग्रह रहेगा तबतक मोक्ष कदापि न होगा यह नियम है । अतएव बुद्धिपूर्वक उसका त्याग करना हो उचित है, इत्यादि ॥ १२७
आगे आचार्य कहते हैं कि परिग्रह तो सभी त्यागने योग्य है, किन्तु जो जीव ( गृहस्थ ) सभी का इकदम त्याग नहीं कर सकते उनका कर्तव्य है कि थोड़ा-थोड़ा उसे कमती करें।
योऽपि न शक्यस्त्यक्तुं धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादि । सोऽपि तनूकरणीयः निवृत्तिरूप
यतस्तम् ||१२८||
पा
जो समर्थ नहिं पूर्ण त्यागको धनधान्यादि परिग्रह को । उसे चाहिये कमी करना - शुद्ध स्वरूप विचारकको 11 सभी वस्तुएँ परसे मिरवृत्त, कोई किसी में मित नहीं। क्यों फिर मेल करत हो परसे, तुम निजरूप विश्वार सही ॥ ११८ ॥
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ बोsपि धनधान्यमनुष्यवास्तुविश्वादि व्यक्तुं न शक्यः ] जो भी श्रावक ( परिग्रहो ) ऐसा हो कि वह धन धान्य, मनुष्य ( दासीदास ), मकान, खेत, रुपया, चाँदीसोना आदि बाह्य परिग्रहका पूर्ण त्याग नहीं कर सकता ( असमर्थ है ) [ सोऽपि तनूकरणीय: 1 उसका भी कर्त्तव्य है कि बाह्य परिग्रहको कम करे । अर्थात् अप्रयोजनभूत परिग्रहका तो पूर्ण त्याग करे ही तथा प्रयोजनभूतको भी थोड़ा-थोड़ा घटाये [ यतः तवं निवृत्तिरूपं ] कारण कि
१. परम यथाख्यात चारित्र न होनेसे उसका भाव या हिंसा होगी व वियोग ( पृथक्त ) न होगा । २. कमती करना-बटाना ।
३. परसे भिन्न स्वतंत्र व शुद्ध ।
४. वस्तुस्वरूप या आत्मस्वरूप सबसे भिन्न एकरूप या चारित्ररूप ।
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परिपरिमाणात
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reer स्वरूप निवृतिरूप है अर्थात् परसे सभी वस्तुए ( आत्मादि ) तादात्म्यरूपसे पृथक् रहती हैं, यह नियम है । अतएव परिग्रहसे बारमा क्यों लिप्स करना विवेक अर्थात् सम्यग्दर्शनका तकाजा है, स्मरण दिलानारूप कार्य है ॥
नहीं करवाये। यह
१२८ ॥
भावार्थ - इस इलोक द्वारा आचार्यने पदके अनुसार परिग्रहका त्याग करना बताया है । यद्यपि परिग्रह सभो त्याज्य है, वह एक साथ नहीं त्यागा जा सकता, किन्तु पद और योग्यता (शक्ति) के अनुसार त्यागा जाता है श्रावक ( गृहस्थ ) उस आश्रम में रहते हुए सबका त्यागी नहीं बन सकता, क्योंकि उसे गृहस्थीके कार्य करना पड़ते हैं। वह धान्यादि संग्रह भी करता है और दानादि कार्य ( खर्च ) भी करता है। ऐसी स्थिति में वह सर्वथा परिग्रहका त्यागी नहीं हो सकता, कुछ त्यागी हो सकता है, यह नियम है । तथापि उसके लिये भी विधि ( कर्त्तव्य ) बतलाई गई है कि वह प्रयोजनभूत परिग्रहका परिमाण ( सोमा ) करके rent छोड़ दे तथा अप्रयोजनभूतका पूर्ण स्याग कर देवे, जिससे मोक्षमार्गका साधक देशाती बना रहे । वस्तुस्वभावका विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि परिग्रह परपदार्थ है, वह आत्माका नहीं है, अतएव उसका सम्बन्ध आत्मा के साथ क्यों रखा जाये ? नहीं रखना चाहिये, वह कलंककी बात है ( fवरुद्ध है), परस्वको भावनासे सभी सम्यग्दृष्टि परसे विभक्त होते हैं एवं प्रारंभ से ही विरक रहते हैं । किम्बहुना विचार किया जाय । पर द्रव्यका त्याग करना उचित है । अस्तु ।
विचारधारा ( पद्धति )
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विचारधारा दो तरह की होती है ( १ ) सैद्धान्तिक दृष्टि ( निश्चयमय ) से ( २ ) नैमित्तिक दृष्टि ( व्यवहारमय ) से बहिरंग परिग्रहका त्याग करना क्यों आवश्यक है ? इसका समाधान इस प्रकार है कि उसके निमित्तसे असंयम ( हिंसा द्रव्यहसा ) होता है अर्थात् बाह्य चीजों ( वास्तुक्षेत्र धनधान्यादि ) के साथ में रहने से उनकी उठाघरी-रक्षा सँभाल आदि करते समय बराबर जीवघात होता है, उससे असंयम होना अनिवार्य है अतः वह असंयम ( द्रव्यहिंसा) नैमित्तिक होने से वर्ज - नीय है अर्थात् बाह्य परिग्रहका त्याग करना जरूरी है । ( २ ) सैद्धान्तिक दृष्टिसे-बहिरंग परिग्रह आत्माका है नहीं, वह आत्मासे भिन्न है- प्रत्येक वस्तु या द्रव्य, दूसरी वस्तुसे भिन्न व स्वतंत्र है । फलतः आत्मा भी सबसे पृथक् एकत्वविभक्तरूप है। तब जानते हुए उसके साथ बाह्य परिग्रहका सम्बन्ध जोड़ना - संयोग स्थापित करना अज्ञानता है अथवा जिनोपदेशकी अवहेलना करके अपराधी बनना है । अतएव बाह्य परिग्रहका सर्वथा त्याग करना, सम्यक्त्वका चिह्न है- मोक्षमार्गका सेवन है । किम्बहुना | पापोंके त्याग करनेका प्रमुख उद्देश्य -संयम ( चारित्र) या अहिंसा का पालना है । और उनका त्याग न करना असंयम या हिंसारूप अधर्मका संचय करना है । अतः यथासंभव अहिंसा या संयम श्रावकको अवश्य प्राप्त करना चाहिये | अस्तु ||१२|| परस्परसंगति ( व्याप्ति ) या शंका समाधान
आगे प्रश्न उठता है कि परिग्रह त्यागके साथ में रात्रि भोजनका त्याग करना क्यों बतलाया
मिट्ट
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সুখবিসুখ जाता है ? क्या परिग्रहका और रात्रि भोजनका परस्पर सम्बन्ध है ? ( व्याप्ति है ) इसका उत्तर दिया जाता है कि दोनोंका कार्य समान होनेसे परस्पर संगति है यथा--
रात्रौ भुंजानानां यस्मादनिवारिता भवति हिंसा । हिंसाविरतैस्तस्मात्यक्तव्या रात्रिभुक्तिरपि ॥ १२९ ।।
पश्च रात्रि समयके भोजनमें भी जीध बहुतसे मरते हैं। अतः अहिंसाबसके धारी रात्रि भोजको सजते हैं। वाहिर हिंसा दिस पड़ती है अन्तरंग भी होती है।
रागमूक हिंसा होती है-भावप्रापको हरती है॥१९॥ अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ यस्मात् रात्रौ भुजानाना अनिवारिता हिंसा भन्नति ] जब कि रात्रिको भोजन करनेवाले जीवोंके हिंसा ( जीवघात ) का होना अनिवार्य है अर्थात् भावहिंसा व द्रव्यहिंसा दोनों होती हैं | ससमाव हिंसाविरतैः रात्रिभुकिरपि स्यमाया ] तब हिसाके त्यागियों को अर्थात् अहिंसावत (धर्म) के पालनेवालोंको नियमसे रात्रिभोजनका त्याग कर हो देना चाहिये। जिससे यथासंभव द्रव्य व भावहिंसा न हो ।। १२९ ।।
भावार्थ-रात्रिको भोजन करना धार्मिक दृष्टि से तो वर्जनीय है ही क्योंकि उससे द्रव्य व भाव हिंसा दोनों होती हैं। देखो जब अत्यधिक राग होता है तभी तो रात्रिको बनाया व खाया जाता है, जिससे बाल असंख्यात जीवोंका घात ( मरण ) होता है तथा भीतर प्रचूर या अधिक राग होनेसे भाव प्राणोंका विनाश होता है। इसके सिवाय लोकनिन्दा भी होती है, धर्मशास्त्रकी आज्ञाका उल्लंघन ( अनादर भी होता है, जिससे धर्म में अश्रद्धा जाहिर होती है। एवं लोकिक जोवनमें हानि होतो है... वैद्यकशास्त्र कभी रात्रिको भोजन करनेकी आज्ञा नहीं देता---वह कमसे कम सोनेसे ४ घंटा पहिले भोजन करनेकी आज्ञा देता है जिससे स्वास्थ्य अच्छा रहे, बीमारी आदि न हो, हजम ( पाचन ) होने में कष्ट न हो इत्यादि-आगे और भी दोष व हानियाँ बतलाई जावेगी उनपर ध्यान रखना जरूरी है। इसके सिवाय दिनके भोजनसे रात्रिके भोजनमें सूर्य प्रकाश ( स्वच्छ के समान प्रकाश न होनेसे गिरने मरनेवाले जोष स्पष्ट दिखाई नहीं पड़ते, इत्यादि अधिक हानि होती है। फलतः हिंसाके आयतन होनेसे परिग्रह व रात्रि भोजन दोनों ही वर्जनीय सिद्ध होते हैं, यह सारांश है । किम्बहुना-दोपकके प्रकाशका तक करना असंगत १. रात्रिको भोजन करना भी परिग्रहका सायी है क्योंकि उससे भी हिंसा होती है--समानता है। द्रव्य
हिंसा व भावहिंसा दोनों होती है. ( रागसे भावहिंसा व भक्षण करनेसे द्रव्याहिंसा होती है) २. सोनेसे ४ घंटा पहिले भोजन करनेपर रात्रि हो ही नहीं पाती, दिन ही रहता है । जैसे ९ बजे सोने
का समय हो तो ५ बजे भोजन दिनमें कर लेना पड़ेगा। १० बजे सो जाम सो ६ बजे भोजन करना पड़ेगा, दिन रहेगा।
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रात्रिभोजमस्यागाणुवत और असंभव है-वह सर्वत्र सुलभ नहीं है, न सूर्य प्रकाशको बराबरी कर सकता है कृत्रिम उपाय सब कष्ट साध्य होते हैं. दुर्लभ होते हैं, सुलभ नहीं होतं । इत्यादि नैतिक व धार्मिक दोनों दुष्टियोंसे रात्रि भोजन वर्जनीय है, यतः वह प्रमाददोषमें शामिल है ।।१२।। रात्रि भोजनमें हिंसा किस तरह होती है वह आचार्य बताते हैं ।
स्पष्टीकरण करते हैं रागाग्रदयपरत्वादनिवृत्ति तिबचते हिंसां । राविन्दिविभाहरतः कथं हिं हिंसा न संभवति ॥१३॥
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पध रामादिकके सीमा उदयसे त्याग मात्र नहिं होता है। चिना स्थागके हिसा होती, नियम अटल नहि टलता है ॥
जो इप्तमे बहुरागी होते, जब सब भोजन करते हैं।
विमा विवेक जीव इस जपमें हरदम हिंसा करते हैं ।।१३०॥ अन्बय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि रामायदयपरत्वादनिधूति: हिंसां नासिवर्तते ] समादिक की प्रचुरतासे जो ल्यागभाव ( निवृत्तिः) नहीं होता है अर्थात् संयम धारण नहीं किया जाता है, उससे हिसा बराबर होती है, कारण कि रागसे ही तो हिंसा होती है। अतएव । रानिन्दिचमाहरतः हिंसा कथं म संभवति १] बिना नियमके दिन रात जबतक मनचाहा भोजन करनेवाले के हिंसा यथार्थमें क्यों न होगी ? अवश्य होगी। अनिवार्य है ) यह भाव है ।। १३०॥
भावार्थ-रागको प्रचुरतासे भावहिंसा व द्रव्यहिमा दोनों होती हैं, क्योंकि अन्तरंग कारण हिंसा पापका वही है। अनादिसे संसार अवस्था उसीने की है, अतएव विवेकी ज्ञानी पहिले जसीको हटाते हैं, वह बड़ा शत्रु है। सब बातोंका नियम है, परन्तु जो जीव नियम नहीं पालले आहार विहार आदिमें दिन रात्रिका कोई भेद नहीं रखते वे मनुष्य नहीं हैं प्रत्युत्त राक्षस या दानव हैमानव नहीं हैं, मानवका आचार विचार उच्च व आदर्श होना चाहिए। मनुष्य योनि बहुत उच्च योनि है क्योंकि उसीसे मुक्ति होती है, अन्यसे नहीं। तब क्या उसमें विवेक नहीं होना चाहिये ? विना विवेक और विना संयम ( अहिंसा धर्म ) जीवन निरर्थक माना गया है, जैसे कि अजा
करी के गलेके स्तन बेकार पाये जाते हैं। फलतः भोजन पान दान हवन पूजन आदि मंगल कार्य व नित्यकार्य दिनमें ही होना चाहिये-- रात्रिमें नहीं होना चाहिये, धर्मशास्त्रको यही सम्मति है। विम्बहुना----हिंसा व पापसे जीबका उद्धार नहीं होता यह नियम है। सदाचारका मूल्य अत्यधिक होता है, उसका आदर जरूर करना चाहिये। मनुष्य और अन्य जीवोंमें संयम ( हिसा धर्म) को हो विशेषता पाई जाती है अर्थात् मनुष्य संयम पालसा है और दूसरे संयम नहीं पाल सकते
१. अत्याग बनाम प्रवृत्तिः ।
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যুকথাখবিপজ इत्यादि खास अन्तर ( भेद ) समझना चाहिये । नैतिक दृष्टि से अनेक पशुपक्षी भी रात्रिको खाना नहीं खाते ऐसा नियम देखा जाता है.--रात्रिका समय विश्राम करने का है । अस्तु ।। १३०॥
बादी तर्क करता है कि जिस प्रकार रागको प्रचुरतासे रात्रि भोजन में हिंसा होती है उसी प्रकार दिन भोजनमें भी होना सम्भव है तब रात्रिको तरह दिनका भोजन क्यों न स्याम दिया जाय, दोनों में समानता है । इसका उत्तर आगे दिया जाता है । ( पूर्वपक्ष )
यो तर्हि दिवा कर्तव्यो भोजनस्य परिहारः । भोक्तव्यं तु निशायां नेत्थं नित्यं भवति हिंसा ।।१३१॥
सत्र समय नहिं भोजनका है, यह विश्रामकरनका है। और न उसमें दिख पड़ता है, जीवविधात ओ होता है। अत: कुराक नहीं यह करना, दिनका भोजन स्याग करे ।
दिन में दीख पड़त है सब कुछ, हिंसा भालस दूर टरे ।।१३।। अन्वय अर्थ-वादी कूतर्क करता है कि [ययेव-तहि दिवा भोजनस्य परिहारः कत्र्तव्य: ] यदि रागादिककी प्रचुरतासे और सदाकाल भोजन करनेसे रात्रिका भोजन त्याग कराया जाता है क्योंकि उससे अधिक हिंसा होती है, तो दिनको भोजन करना भी छोड़ देना चाहिये, क्योंकि उसमें भी तो राग होता है [सु निशाया भो ] और रात्रिको भोजन करना चाहिये इत्थं हिंसा नित्यं न भवमि ] ऐसा करनेसे हमेशा हिंसा न होगी अर्थात् एकबार ही होगी जब भोजन किया जायगा। अर्थात् बार-बार भोजन न करनेसे बार-बार हिंसा न होगी यह लाभ होगा ।।१३१३॥
भावार्थ--यह कुतर्क वादीका उचित नहीं है कि बार-बार अर्थात् दिन रात भोजन करनेसे जब हिसा होती है तब उस हिसासे बचने के लिये दिनको भोजन करना तो बन्द कर देना चाहिये
और रात्रिको हो ( एकबार ) आरामसे भोजन करना चाहिये इत्यादि । कारण कि रात्रिको भोजन करना अनेक दृष्टियोंसे हानिकर तथा वर्जनीय है क्योंकि उसमें अत्यधिक हिंसा होती है अर्थात् द्रव्य और भाव दोनों हिसाएं होती है। दिनको भोजन करने में हिंसा कम और लाभ अधिक होता है, अतः वैसा श्रावकका कर्तव्य है। वास्तवमें देखा जाय तो यह श्लोक पूर्वपक्षका है, उत्तरपक्षका श्लोक आमेका है अस्तु ।।१३१|| उत्तर पक्ष-आचार्य इस श्लोक द्वारा रात्रि भोजनका खंडन करते हैं ।
नैवं वासरभुक्तः भवति हि रागाधिको रजनिभुक्तौ । अन्नकबलस्य मुक्तः भुक्ताविव मांसकवलस्य ॥१३२॥
१. यदि भवेत् क्रिया होती तो बेहतर होता. विचार किया जाय ।
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रात्रिभोजनरपागाशुपत
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पद्य मित्र तुम्हारा तक ठीक नहिं, रात्रि भोजके करनेका । रात्रि मोजमें हिंसा बहु है, अधिक रागके धरनेका ।। जैसे अन मोजमें क्रमती रागादिक सब होते हैं।
मांस भोजमैं अधिक रागका होना निश्चित करते हैं ॥१३॥ अन्षय अर्थ-आचार्य उत्तर देते हैं ( पूर्वपक्षका खंडन करते हैं । कि[ नैवं, रजनभुको वासरभुत हि गमाविको मनसि ] भाई ( मित्र ) तुम्हारा पूर्वपक्ष (रात्रि भोजनकी पुष्टि करना) उचित यश बजनदार नहीं है, कारण कि निश्चयसे देखा जाय तो दिनके भोजनकी अपेक्षा रात्रिके भोजनमें अधिक राग होता है जो अधिक हिंसाका कारण है । दृष्टान्त द्वारा बतलाते हैं [ अनकबलस्य मुक्के मांसकबसम्म भुमो हन ] जैसे कि अन्न खानेको अपेक्षा मांसके खाने में अधिक राग पाया जाता है, जिससे अधिक हिंसा होती है, अतएव वह हेय है ।।१३२||
भावार्थ- जीवनमें भोजन-पान करना अनिवार्य है-सभी संसारोजीव भोजन-पान किया करते हैं कारण कि व्यवहारनयसे भोजन-पान हो प्राण माने गये हैं, क्योंकि उनके बिना जीवन स्थिर नहीं रह सकता। परन्तु भोजन अनेक किस्मका होता है और अनेक तरहके जीव भी होते हैं। ऐसी स्थितिमें हर एकका भोजन ( खुराक) प्रायः नियत रहता है, किसीका भोजन कोई नहीं करता न हर समय करता है ऐसी व्यवस्था प्राकृतिक देखने में सुनने में आती है। तदनुसार मनुष्यका मुख्य भोजन ( प्राकृतिक ) अन्न है ( मांसादि नहीं है ) पशुओंका भोजन घास फूल आदिका खाना है इत्यादि । परन्तु अज्ञानतावश प्राकृतिक भोजन ( मांसादि ) प्रायः करने लगा है, यह बड़े दुःख व आश्चर्यकी वास है, इतना ही नहीं वरन राश्रिको भी और बार बार जहाँ तहाँ जिस तिसका भोजन करने लगा है व पतित हो गया है । प्राणीका हरएक कार्य नियमित व सीमित होना चाहिये तभी उसकी शोभा है व महत्त्व है। जितने कार्य विपरीत होते हैं वे प्रायः अज्ञान ब रागादिक विकारोंकी अधिकतासे ही होते हैं अतएव वह महान हिसक व पापी समझा जाता है जिससे वह संसारसे पार नहीं हो सकता। फलतः अहिंसाधर्मको ही धारण करना चाहिये, वही मोक्षका मार्ग है, दूसरा नहीं, उसकी पूर्ति दिनके भोजनसे ही हो सकती है जो प्राकृतिक है । किम्बहुना। कुतर्क करना बेकार है। अस्तु ॥१३॥ आचार्य-लोकप्रसिद्ध व अनुभवसिद्ध उदाहरण देकर दिवा भोजनकी ही पुष्टि करते हैं ।
अकोलोकेन विना भुंजानः परिहरेत कथं हिंसाम् । अपि कोधितप्रदीपे भोज्यजुषां सूक्ष्मजीवानाम् ॥ १३३॥
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दीपकके उजाले में भी शान होत है जीवोंका। पर सूरज सम नहीं होत है, यही मेद है दोनोंका ।
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पुरुषार्थसिबापाम सूक्ष्म जीव महिं दिख पढ़ते हैं दीपक उजियाले में ।
अतः इन्हीका मरना संभष, राग्नि मोजके करमे ।। १३३ ॥ अन्वय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि मालोकेन विना प्रदीप बोषितः अपि भुंजाम: ] सूर्यके उजेले बिना ( रात्रिको ) दीपकके उजेलेमें देखकर भी भोजन करनेवाला जीव ( मनुष्यादि ) [ मोज्य शुश सूक्ष्मजीवानां हिंसा कथं परिहरेत् ] भोजनमें पतित होनेवाले सूक्ष्म जीवोंको हिंसाका त्याग कैसे कर सकता है ? अर्थात् कभी नहीं कर सकता-उसका होना अनिवार्य है ।। १३३ ।।
भावार्थ-रात्रिके समय भोजन सामग्रा (खाद्य वस्तु में रसोई में ) में स्वयं ही असंख्यात जीव विचरते हुए उस रसोई में गिर पड़ते हैं और वे भोजनके साथ भक्षण करने में मर जाते हैं, जिससे वह हिंसा रात्रिके खानेवालोंसे नहीं बच सकती, यह नियम है । अतएव रात्रिको भोजन छोड़ना अनिवार्य है, अवश्य त्याग देवें। ऐसा करनेसे जैन समाजमें धार्मिकता और श्रमणासंस्कृतिका संरक्षण्य-पालन हो सकता है। परन्तु दुःख है कि जैन समाजमें भी अधिकांश व्यक्ति अन्य लोगों के सम्पर्कसे उनकी देखादेखी वैसा ही आचरण करने लगे हैं, जो रागको प्रचुरताका घोतक है, या धार्मिक श्रद्धाका अभाव जाहिर करता है। 'न धर्मो धार्मिकैविना' धर्मात्मा बने बिना धर्म नहीं चल सकता। अर्थात् धर्मके पालनहारे धर्मात्मा ही हआ करते हैं। धर्मसे बढ़कर कोई दूसरी चीज आत्माकी हितकारी है, अतः बका बड़ा भारी महत्त्व है। यद्यपि धर्म के अनेक रूप ( प्रकार ) संसारमें प्रचलित हैं तथापि सबसे उत्तम ( उत्कृष्ट-अनुपम ) धर्म 'अहिंसा ही है। इस तथ्यको सभी विवेकोजन मानते हैं। किम्बहना । यद्यपि धर्म आँखोंसे दिखनेवाली चीज नहीं है। तथापि उसका फल ( बाह्यविभूतिरूप) अवश्य देखने में आता है। अत: उसपर विश्वास करके लोग बाह्य व्यवहारोधर्म धारण करते हैं । तथापि (निश्चय ) में धर्म, अमूर्तिक व आत्माकी चीज है, उसका दर्शन या प्रत्यक्ष ज्ञानने के द्वारा ही होता है, जिसका फल पूर्ण सुख व शान्ति है। अतएव उसको जानना व प्राप्त करना मनुष्यका मुख्य कार्य है । अस्तु ॥ १३३ ।।। आगे आचार्य उपसंहार अर्थात् सबका सारांशरूप ( निचोड़ ) कथन करते हैं।
कि वा बहुप्रलपितैरिति सिद्धं यो मनोवचनकायैः । परिहरति रात्रिभुक्ति सततमहिंसां स पालयति ॥१३४||
बहुत कस क्या मतलब है, सार यही सबका जानी।
भनवचकाय तीन बोगौसे रात्रिभोज तजमा मानो ९. उक्तंचो वसेन्मनसि यावदलं स ताबद्धन्तान हन्तुरपिपल्यगतेऽयतस्मिन् ।
दृष्टा परस्परहतिर्जनकात्मजानां रक्षा सवोस्यजगतः खलु धर्म एव ॥२६।। अर्थ-~-जवतक आत्मामें धर्म मौजूद रहता है तबतक शत्रु भी बदला नहीं ले सकता और जब धर्म नष्ट हो जाता है तब वाप बेटाको और बेटा बाप को मार डालता है। फलतः धर्मले ही संसारकी रक्षा होतो है । इसि ॥२६॥
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रात्रिभोजनव्यागा
पूर्ण अहिंसा धर्म वही है जो गुणिजन धारण करते । कर्मकार शिवपुरको जाते सदा काल सुखमय रहते || १३४ ||
अन्वय अर्थ – आचार्य कहते हैं कि [ किंवा बहुप्रलपि: ] बहुत विस्तार के साथ और बारबार एक ही बातको कहने से कोई लाभ नहीं होता । अतएव । यः मनोधनकार्यः रात्रिभूि परिहरति ] जो प्राणो ( मनुष्य विवेकी) मन-वचन-काय इन तीन योगोंसे ( भंगोस ) रात्रिभोजनका त्याग करता है [ स सततं अहिंसां पालयति ] वह निरंतर (अहिंसा) को पालता है [ इवि सिद्धं ] यह सारांश निकलता है ( सिद्ध होता है ) ।। १३४ |
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भावार्थ - इस ग्रंथ में मोक्षमार्गका अथवा 'अहिंसा धर्म का मुख्यतासे निरूपण किया गया है ( जिसके पालक श्रावक व मुनि होते हैं ) अस्तु । श्लोक नं० ४० से हिंसा ( अधर्म ) के साधनभूत पाँच पापोंका वर्णन किया है। फिर श्लोक नं० १११ से हिंसा के महान साधन परिग्रह पापका विस्तार के साथ कथन किया है। उसके बाद श्लोक नं० १२९ से रात्रिभोजन पाप ( परिग्रहके भेद का विस्तार के साथ वर्णन किया है । और 'अहिंसा' धर्मको पालन करनेके लिये उक्त सभी बातोंका त्याग करना जरूरी बतलाया है, जिसका सारांश इस श्लोक ( ४३४ ) में बतलाया है । जब कोई विवेक जीव बुद्धि व श्रद्धाबलसे हेय उपादेय को समझकर वैसा आचरण ( वृत्ति ) करता है तभी वह संसारसे मुक्त होता है । धर्मका स्वरूप तभी समझमें आता है जबकि स्वपरका मेंदज्ञान होता है। स्वपरका मेदज्ञान, मिध्यादर्शन और मिथ्याज्ञानके अभाव होनेपर होता है, अतएव पेतर उनका भी अभाव (क्षय) करना अनिवार्य है । रत्नत्रय की प्राप्ति करना हो 'पुरुषार्थ की सिद्धिका उपाय' है जो अहिंसा या वीतरागता रूप है किम्बहुना ॥ १३४ ॥
जो मुमुक्षु जीव निरन्तर रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गका सेवन करते हैं उनको मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती हैं, यह फल दिखाते हैं।
इत्यत्र त्रितयात्मनि मार्गे मोक्षस्य ये स्वहितकामाः ।
अनुपरतं प्रयतन्ते प्रयान्ति ते मुक्ति मचिरेण ॥ १३५ ॥
पक्ष
स्वति चाहनेवालोंकी यह है उपदेश अन्तमें अब । मार्ग तीन विघ माने तब ॥ मोक्ष मार्ग में कगते है। मोक्ष उन्हें मिलता है जल्दी, अम्र उसमें वे पगते हैं ।। १३५||
है eिa aast मोक्ष पदारथ, ऐसा निश्चय करके जो जन,
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ ये स्वहितकामाः अत्र त्रितयास्मनि मोक्षस्य मार्गे ] आत्मकल्याणके इच्छुक ( मुमुक्षु ) जो भव्यजीव इस रत्नत्रयरूप मोक्षके मार्ग में [ अनुवरतं प्रयतन ] निरन्तर प्रयत्न या पुरुषार्थ करते रहते हैं [ ते अधिरेण मुक्ति प्रयान्ति ] के जल्दी ही मोक्षको
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पुरुषार्थसिद्धघुयाय चले जाते हैं अर्थात् मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं, यह फल बताया जाता है, इसे प्राप्त करना चाहिये ।। १३५ ।।
भावार्थ-यह न्याय या नीति है कि बिना प्रयोजन या फलके कोई मूर्ख आदमी भी किसी कार्य में प्रवृत्ति नहीं करता किन्तु फल प्राप्त होने के हो लोभसे हर कार्य करता है। तदनुसार सांसारिक सभी सरहके पदार्थ ब तज्जन्य सुख आदिका त्याग करना सरल कार्य नहीं है उसका त्याग हर कोई नहीं कर सकता, परन्तु जिन भेदज्ञानियों को यथार्थ ज्ञान हो जाता है, असली सुख व उसके गानोंकाथान प्रास होनेवाले पालमा लग जाता है वे उत्साहके साथ बिना भय के उन सांसारिक सभी चीजोंका त्याग बालकी बात में कर देते हैं और उसके फलस्वरूप मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं यह तात्पर्य है। जो प्राणी संसार भोगविलासोंको छोड़ने में भय व. संकोच करते हैं वे कदापि मोक्ष नहीं जा सकते, संसारमें ही दुःख सहित जीवन व्यतीत करते हैं। मोक्ष ही एक ऐसा पदार्थ-निरुपद्रव निर्भय सुखमय अनुपम नित्य है कि उसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता । फलतः आत्महितेषी विवेकी जोव ही दुःखमय अनित्य चीजोंका त्यागकर उसके बदले में नित्य सुखमय चीज प्राप्त करते हैं यह विशेषता ज्ञानी व अज्ञानियोंमें है ! लेकिन उस मोक्षका मार्ग या उपाय निश्चयसे एक ( रत्नत्रय ) ही है-दूसरा नहीं है ऐसा पक्का समझना चाहिये, किम्बहुना । इस ग्रन्थमें व इस प्रकरण में प्राचार्य महाराजका यह अस्तिम वक्तव्य है कि अब सावधान होओ, मफलतमें व्यर्थं समय मत खोओ, यह नरभव मिलना फिर कठिन है इत्यादि ।। १३५ ।।
Rasilapicssed
श्यक्रमाशुद्विविधायि तस्किल पदव्यं समनं स्वयं । स्वदध्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराश्यतः। बंधधसमुपेत्य निश्यमुदितः स्वज्योतिरछोच्छल
इतन्यासपूरपूर्णमहिमा शुद्धो भवामुख्यसे ।। १५५ ।। कलश अर्थ---अशुद्धता या विकारको उत्पन्न करनेवालो पोजोंको अर्थात् सम्पूर्ण परद्रव्योंको छोड़कर जन ज्ञानी आत्मा अपने निज स्वरूपमें उपयोगको लगाता है तब वह अपराधसे छूटता है तथा उसका पूर्ण बंध नष्ट होता है । इस तरह भावबन्ध ( रागादिरूप) और द्रव्यबंध ( ज्ञानाबरणादि कर्म नोकर्म ) दोनोंसे छूटकर अर्थात् अपराधसे मुक्त होकर या शुद्ध निरपराध होकर जल्दी ही मोक्षको जाता है अन्यथा नहीं, यह भाव है । फलत: मुमुक्षुओंको यही सनातन मार्ग पकड़कर उसपर निःसन्देह चलना चाहिये तभी कल्याण होगा, यह निष्कर्ष है ।। १३५ ।।
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छठवाँ अध्याय
सप्तशील प्रकरण आचार्य व्रतों ( पाँच अणुव्रतों की रक्षा के लिये सात शोलों का अर्थात् ३ गुणत्रत ४ शिक्षा व्रतोंका वर्णन करते हैं और पालनेका उपदेश देते हैं।
परिधय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि । व्रतपालनाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानि ॥१३६।।
पश्च
अणुवतीकी रक्षा करना जिनको अप्ति ही प्यारी है। सप्तशालको पालन करने वे ही अधिकारी है। सप्तशीलको पालन करके प्रतिरक्षा हो जाती है।
यथा नगरकी रक्षा देखो कोट खाईसे होती है ॥१३॥ अन्वय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [ परिधर नगराणि हर ] जैसे कोट व खाई नगरको रक्षा करते हैं उसी तरह किलशलानि तानि पालनन्ति ] निश्चयसे सातशील अणुव्रतोंकी रक्षा करते हैं ( कुशीलका प्रवेश नहीं होने देते )। [तम्मात व्रतपालनाय शीलान्यपि पालनीयानि , इसलिये व्रतोंको रक्षाके लिये सप्तशोलोंका पालना भी अनिवार्य है ( अवश्य पालना चाहिये ) ।।१३६||
भावार्थ-मूलकी रक्षा (पूजीकी रक्षा करते हुए वृद्धि करना विवेकिया-समशदारोंका कर्तव्य है। इस न्यायसे जबतक मूलवतों ( अणुव्रतों की रक्षा न की जायगी तबतक आगे प्रगति { उन्नति । होना असम्भव है । ऐसी स्थिति में मूलन्नतोंको रक्षाका उपाय सातशीलोंका पालना ही है, उनके पालने से उनमें गड़बड़ी (दोष आदि ) नहीं हो सकती। जिस प्रकार शहर या नगरके चारों ओर कोट खाईके रहने से डाकू चोरोंका प्रवेश नहीं हो पाता व शहरको रक्षा रहती हैं तथा शहरकी उन्नति भो हो सकती है इसलिये शहरको रक्षा करना अनिवार्य है । तात्पर्य इसका यह है कि जब व्रतीके भोगोपभोगके बाह्यसाधन सीमित हो जायंगे तब उनके बाहिर प्रवेश करना या प्रवृत्ति करना स्वतः बन्द हो जावेगो, तब वहाँ संबंधी अपराध भी न होगा, और बिना अपराधके सजा भी न मिलेगी, एवं अपने क्षेत्रमें हो चित्तवृत्ति स्थिर हो जावेगो, फलतः व्रतको रक्षा बनी बनाई है, सुख व शान्ति, त्यागसे ही प्रकट होता है । गमनागमन, लेनदेन, खानपान, रहन सहन, आदि सब सोमित या परिमित हो जानेसे, आरम्भ परिग्रह कम हो जाता है, आकुलता चिन्ता कम हो जाती है, जिसका मतोआ संसारवास भी कम हो जाता है, तथा आत्माके गुणोंकी वृद्धि होती
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पुरुषार्थसियुपाय है इत्यादि सारांश है ! जबतक बाह्यपरिग्रहका सम्बन्ध { संयोग ) रहता है तबतक हिंसा आदि पापोंसे आत्माको रक्षा करना अनिवार्य है और सदाचारसे रहना भी महज जरूरी है यही सब शील पालनेका प्रयोजन है इत्यादि ॥१३६।३
नोट-परिधिकी उपमा-बारी या रोक लगानेसे है। अतएव अहिंसा' आदि सभी अणुवतोंको रक्षाका उपाय करना जरूरी है अर्थात अतिचारोंके न लगने देने से ही मूलवतकी रक्षा होना सम्भव है। नौ तरहसे अर्थात् नौ भंगोंसे व्रतका पालना अथवा रक्षा करना खंडित न होने देना ही शोल ( ममावभाव की रक्षा करना है। (ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षाके लिये निम्नलिखित बाद्यसाधनोंका त्याग करना चाहिये।
तिथलेवास, प्रेमरुचिनिरस्वन, देवरील भाखनमधु चैन । पूरवभोगकलि सर्चिन्तन, गरुय अहार लेत मित चैन ।। कर शुचितन श्रृंगार वनावत, तिथपर्यक मध्य सुख सैन ।
मन्मथकथा, उदरभर भोजन, ये नववाह जान मन जैन ||11) ज्ञानार्णवमें १० दोष टालना बतलाया है, इनसे उनमें कुछ अन्तर है । पर वे भी निषिद्ध हैं । ब्रह्मचर्य व्रतमें बाधक हैं गिनती लिखने से मर्यादा सिद्ध नहीं होती, अपितु एक तरहकी जाति मालूम होती है ऐसा समझना चाहिये । इयत्ता ( परिमाण )का निश्चय करना अल्पज्ञानियोंके वशकी बात नहीं है, अस्तु ॥१३६।।
___ आचार्य अणुव्रत्तोंकी रक्षाके लिये १ पहिला साधन ( भील ) (१} दिग्वतनामका बतलाते है जिसका दूसरा नाम 'गुणवत' है।
प्रविधाय सुप्रसिद्धैमर्यादा सर्वतोऽप्यभिज्ञानैः । प्राच्यादिभ्यो दिग्भ्यः कर्तव्या विरतिरविचलिता ॥१३७।।
दशों दिशाओं में प्रसिद्ध जो पर्वत आदि ठिकान हैं। मर्यादा उन तक ही करके आगे कभी न जाना है। ऐसा प्राय श्रियोगसे करके पूर्व दिशादिकका जना
अटल प्रतिज्ञा करनेपर ही दिग्व्रत धारण है भरमा ।।१३। अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि सर्वतोऽपि सुप्रसिदैः अभिज्ञानेः मादा प्रविधाय त्रियोग द्वारा सर्वत्र लोकप्रसिद्ध पर्वतादिकके ठिकानो ( चिह्नों )की मर्यादा { सीमा ) करके जो [प्राध्यादिभ्यः दिग्भ्यः अविचलिता विरसिः कर्तव्या ] पूर्वादिदिशाओं में आगे न बरतने ( प्रवृत्ति या
१, बिल या लिङ्ग ।
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ससीलप्रकरण व्यवहार न करने ) का पक्का या अटल त्याग किया जाता है, वहीं दिग्वत कहलाता है ॥१३७॥
भावार्थ-लोकप्रसिद्ध स्थानोंतक चरतनेको मनवचनकायसे अटल प्रतिज्ञा करके दशों दिशाओंमें उस गर्यादाके आगे जीवनपर्यन्त कभी नहीं वरसना दिग्द्रत कहलाता है, उससे आगे सब तरहका व्यवहार छोड़ देनेसे वहाँ सभी पांचों पाप बन जाते हैं-नहीं लगते हैं अतएव उनसे व्रतो आत्माको रक्षा बराबर होती व हो सकती है, कोई सन्देहको बात नहीं है। प्रारम्भमें जबतक जीव संयोगी पर्याय में रहता है तबतक पूर्ण परिग्रह या पापोंका त्याग करना सम्भव नहीं होता ( असम्भव व अशक्य है ) अतएव क्रम-क्रमसे ही थोड़ा-थोड़ा त्याग किया जाता है तभी वह पूर्णताको प्राप्त होता है। ऐसी स्थिति में जीव अनादिकालसे असुद्ध या संयुत्ता अवस्था में ही रहता आया है अतः क्रम-क्रमसे ही उससे पृथक होना सम्भव है । आत्मशक्तिका भी विकास एक साथ पूरा नहीं होता। त ताका ला कायम रखो ये शनैः त्याग करते-करते आगे बढ़ना चाहिये, यह पूर्व परम्परा है। जब एक पाँव पूरा जम जाय तब दुसरा पाँव उठाया जाय अर्थात् दिग्व्रतमें परिपक्व हो जाने पर ही देशवत धारण किया जाय यह आदेश है-जिनाज्ञा है, अस्तु । इसका ध्यान रखना चाहिये, परन्तु दिन्नत यमरूपसे ( जीवनपर्यन्त ) होता है यह उसमें विशेषता है यह यान रखना चाहिये ॥१३७॥ आगे आचार्य दिग्वत धारण करनेका फल ( लाभ ) बतलाते हैं।
इति नियमितदिग्भागे प्रवर्तते यस्ततो बहिस्तस्य । सकलासंयमविरहात् भवत्यहिंसावतं पूर्णम् ॥१३८॥
पद्य मर्यादा के भीतर सी ओ प्रवृत्ति चापमी करता है। मर्यादा के बाहर उसके सकल असंयम टरता है। सब उसके नित पझत्त अहिंसा त रक्षा तब होती है।
इसी विधि से करते-करते पूर्ण अहिंसा पलली है ।।१३।। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ इति नियमित दिमागे यः प्रवर्तते ] पूर्वोक्तप्रकार दिशाओंकी मर्यादा (दिग्व्रत) के भीतर जो अणुवतो प्राणो प्रवृत्ति करता है [ तस्य ततो बहिः सकलासंग्रमनिरहात ] उसके मर्यादाके बाहिर सम्पूर्ण असंयम ( हिसा) का अभाव होनेसे [ पूर्ण अहिंसा व्रतं भवन ] पूर्ण अहिंसावत पलता है अर्थात् उपचारसे प्राप्त हो जाता है ऐसा समझना चाहिये ॥१३८॥
भावार्थ-हिंसाका या असंयमका न होना हो 'अहिंसा वत' कहलाता है । तदनुसार मर्यादा के बाहर जब बिलकुल सम्बन्ध छूट जाता है---कोई प्रवृत्ति नहीं होती न कोई कारोबार होता
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पुरुषार्थसिद्धघुपाय
है तब वहाँ सम्बन्धी हिंसा आदि पाप कैसे लगेगा ? नहीं लग सकता, अतएव वहाँ पूर्ण अहिंसा व्रतका होना सम्भव है ।
वारसे
नोट - यद्यपि वह धावक अणुव्रती हो कहलाता है- महाश्रतो नहीं हो जाता, परन्तु उपतत्सदृश हो जाता है यह तात्पर्य है । अतएव दिग्वत धारण करना ही चाहिए उससे बड़ा लाभ होता है - हिंसा आदि पाँचों पाप नहीं होते, जिससे बन्ध होना भी बन्द हो जाता है, संसार कम हो जाता है इत्यादि । उक्त क्रमसे ही लक्ष्य पूर्ति होती है, किम्बहुना ।
आगे आचार्य देव ( सोमाके भीतर सीमा करना ) नामके गुणवतका भी उपदेश
देते हैं ।
तत्रापि परिमाणं ग्रामापणभवन पार्टकादीनाम् ।
प्रविधाय नियत्कालं करणीयं विरमण देशात् ॥ १३९॥
पद्म
free में भी कम करना देशविर कहलाता है। नियत काल कमी करना, बड़ सीमा में होता है । ग्राम बजार मकान मुहल्ला, सामिस इसमें होता है। आगे हिंसा पाप वचत है, धर्म अहिसा पलता है ।। १३२ ।।
अन्वय अर्थ -- आचार्य कहते हैं कि [ तत्रापि नियतकालं ] उस दिग्बतको सीमा के भीतर ही नियत काल (समय-समय पर सुविधानुसार ) [ प्रासादणभवन पाटकादीनां परिमाण प्रविधाय ] किसी गाँव या बाजार (हाट ) मकान (किला वगैरह ) मुहल्ला आदिको सोमा करके [ देशात् विरमणं करणीयम् ] उस सीमित क्षेत्रसे बाहर | आगे ) का त्याग कर देना चाहिये उसको देशव्रत कहते है || १३९||
भावार्थ- दिग्नत और देशव्रत दोनों में क्षेत्रका परिमाण ( सीमा-मर्यादा ) होता है परन्तु दितमें परिमाण जन्म पर्यन्तको क्रिया जाता है और देशव्रत में में परिमाण अल्प समयको सुविधानुसार किया जाता है, यह दोनोंमें भेद है । यह स क्षेत्रन्यास करनेका क्रम व अभ्यास है जो समयपर ( अन्तिम समय ) काम देता है । निःशल्य होनेका एवं रागादि छूटने का यही तरीका ( मेथड ) है | ऐसा करनेसे महान लाभ होता है। अणुव्रती - पंत्रमगुणस्थानवाला देशव्रती या संयमयी | fee श्रावक ऐसा हो हमेशा करता रहता है कि आज हम अमुक स्थान तक हो प्रवर्तन ( कारोवार या व्यापार करेंगे, आगे नहीं इत्यादि । तब इच्छाओंके सोमित हो जानेसे
१. बाजार ।
२. मुहल्ला ।
६. क्षेत्र -- परिमित क्षेत्रसे आगे और दिग्वत क्षेत्रके भीतर |
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मस्त्रीकरण विकल्प कम होते हैं, राग छूट जाता है-संवर हो जाता है-बंध नहीं होता और वैराग्य होनेसे पूर्वबद्ध कर्मोकी निर्जरा भी होता है । यह सब ध्यान देनेकी बात है । जब यह निश्चित है कि एक साथ एक काल सर्वत्र प्रवर्तन नहीं हो सकता तब उसका त्याग कर देना ही असमर्थतामें उत्तम है बुद्धिमानो है, व्यर्थ ही विना प्रवर्तन नि यो प्रोपना नहीं बनाना
ज्ञानोके ज्ञानधारा व कर्मधारा दोनों साथ-साथ बहती हैं अतएव वह संयोगी पर्याय में तमाम . कार्य करता हुआ भी जानधारासे उन पर्यायाश्रित कार्योंका बता या स्वामी नहीं बनता, सबको विकार या औषधिकभाव समझता है एवं उन सबसे विरक्त या उदासीन रहता है, अरान्ति करता है । फलस्वरूप उनके प्रति हमेशा हेयबुद्धि रहता है, उनके होने में उसे प्रसन्नता ( खुशी ) नहीं होती, पोड़ा न सह सकाने के कारण वह कड़वी औषधिको तरह उनका सेवन बाध्य होकर करता है यह विशेषता उसके पाई जाती है । जीवनका मूल्य वीतरागता व विज्ञानता ही है ।
नोट ----मर्यादाका काल, इसमें दिन रात्रि पक्ष महीना ऋतु ( दो माह ) अयन (छह माह ) संवत्सर ( एक वर्ष ) आदि रूप होता है । उसो क्रमसे करना चाहिये, अस्तु ।।१३९।। आगे क्षेत्रपरिमाण ( देशवस ) करनेका फल ( लाभ ) आचार्य बताते हैं ।
इति विरतो बहुदेशात् तदुस्थहिंसाविशेषपरिहारात् । तत्कालं विमलमतिः श्रयत्यहिंसा विशेषेण ॥१४॥
देशप्रतीक हिंसा होसी अल्प, अक्षुत दिसा टलती । इसीलिये बहुलाम होत है, बहुत अहिंसा मी पलता ।। ऐसा सोच विचार करत है, विज्ञानी निर्मल धुद्धिः ।
उसको फल सत्काल मिलत है, पूर्ण अहिंसामय शुद्धिः ।। अन्यय अर्थ—आचार्य कहते हैं कि [ विमलमतिः इति बहुदेशात् विस्तः ] मेदविज्ञानी निर्मलबुद्धिका धारक श्रावक पूर्वोक्त प्रकार बहुतक्षेत्रमें प्रवर्तन ( व्यवहार-आनाजाना आदि ) बन्द कर देनेसे अर्थात् अल्प या सोमित क्षेत्र में निर्वाह, प्रवृत्ति या कारोबार करनेसे [ नियतकालं तदुष्यहिंसाविशेषारिहारात ] नियतकाल तक बहुत क्षेत्रमें (दिग्नसमें ) निर्वाह करनेसे उत्पन्न होनेबाली अधिक हिंसाके त्यागसे [विशेषेण अहिंसा अयति ] विशेष अहिंसाको प्राप्त कर लेता है. इस तरह लाभ होता है ।। १४० ।।
___ भावार्थ-नियत काल तक अर्थात् कालकी मर्यादा लेकर किये हुए त्याग पर्यन्त, क्या होगा कि अधिक क्षेत्र व उसमें होनेवाले प्रवर्तन ( निर्वाह का त्याग कर देसेसे तसंबंधी अधिक हिसा न होकर सिर्फ बर्तमानमें उपयोग आनेवाले क्षेत्रके भीतर ही अल्पहिसा होगी और बहुत अहिंसावत ( संथम ) पलेगा, यह लाभ होगा, ऐसा विचार करके हो विवेको दूरदर्शी पुरुष
लागि
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पुरुषार्थसिधुपाय दिग्नतादि धारण करते हैं व क्रमशः उच्चपद या सकल संयम या महाव्रतको प्राप्तकर मुनि बनते हैं और आगे बढ़ने-बढ़ते यथाख्यात चारित्रके धारी सर्वज्ञ केवी हो जाते हैं किम्बहुना । आत्माकी शक्ति अचिन्त्य है एवं सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानको महिमा अपार है यह दिव्रतादिका फल है अतएव अवश्य धारण करना चाहिये, यही मोक्षका मार्ग है जो निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो । सरहका होता है पेश्तर यह कहा जा चुका है ॥ १४० ।।
तीसरा गुणवत, जनयंदवत्याग है। उसके पांच भेद हैं। उनमेंसे पहिले अपध्यानका त्याग करना बताते हैं।
पापजियपराजयसंगरपरदारगमनचौर्यायाः । न कदाचनापि चिन्त्याः पापफलं केवलं यस्मात् ॥१४१।।
पद्य
चिना प्रयोजन कार्य जगतमें करना अनस्थ कहलाते । जनका ५ अवश्य ही मिलता याग इसीसे करवाते ।। पापबृद्धिके करनेवाले जीत हार विकलप करना । सेवन रस्त्री अरु खोरी श्रादि करन में जित धरना ।। अपध्यान है नाम इसीका प्रथम भेद इसको जानो।
इसका स्वाग करेसे मित्रो! अगुवतकी रक्षा मानो ॥१४॥ अन्धय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [पापविजयपराजयसंगरपरदारगमनचौयांग्राः कदाचा भापि न चिस्याः ] निष्प्रयोजन, जिनसे अपनेको कुछ मिलना-जुलना न हो ऐसे पापवर्द्धक खोटे विचारोंका करना, या खोटा चिन्तवन करना, अनर्थदंड कहलाता है। जैसे कि, उसकी जीत हो जाय, उसको हार हो जाय, उनकी लड़ाई हो जाय, उसकी स्त्री मेरी स्त्री बन जाय या मुझे वह मिल जाय, उसको मैं चोरी कर लें या उसकी चोरी हो जाय, इत्यादि विकल्प या आर्स रौद्र परिणाम करना, खुशी मनाना अनर्थदंड ( व्यर्थका अपराध ) कहलाता है-वह कभी नहीं करना चाहिये अर्थात् उसका बुद्धिमानोंको त्याग ही कर देना चाहिये । पस्मात् केवलं पापफलं मर्याप्त ] क्योंकि उससे सिर्फ पापका ही बंध होता है-बही मिलता है और उसका फल दुःख ही परभवमें व इस भवमें मिलता है, किन्तु चितवन की हुई चीजोंमेंसे कुछ नहीं मिलता, यह तात्पर्य है ।। १४१॥
भावार्थ-अपध्यान ( खोटा विचार व चितवन ) का फल या नतीजा खोटा हो ( हानिकारक ) होता है-कभी अच्छा नहीं हो सकता, अतएव वह त्याज्य ही है। उससे भावहिंसा होतो है-वे विकारी परिणाम हैं ( विभाव भाव हैं, स्वभाव भावके विघातक हैं ) तब उस जीवके 'अहिंसा आदि अणुव्रत' नहीं पल सकते, यह निश्चित है। इसलिये अणुवतीको बिना प्रयोजनके अर्थात् बप्रयोजनीभूत कार्य करना बन्द ही कर देना चाहिये तथा प्रयोजनमत कार्योंमेंसे भी।
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নদীমা कमती कर देना चाहिये । संसारी जीव, रागद्वेष मोहवश संयोगी पर्याय में न जाने कितने विकला उठाते रहते हैं जिनसे कुछ मतलब { स्वार्थ ) ही नहीं निकलता। इसीसे संसारकी वृद्धि होतो रहती है । होमता नहीं होती यह दुःखकी बात है। यद्यपि व्यवहार दशामें परका आलम्बन लेना अनिवार्य रहता है । पराश्रित्तो व्यवहारः ) तथापि विवेकबुद्धि तो होना ही चाहिये, जिससे संसार घटे । परन्तु अज्ञानी जीव विना गिटके अन्याम पालन करने महोते हैं और उसमें अपनावत ( एकत्व आत्मीयता ) करके कर्तव्य पालन नहीं करते। स्वभावसे एकाकी । एकत्व विभक्त रूप ) आत्मा जवतक परका सम्बन्ध विच्छेद नहीं करता तबतक संसारसे पार नहीं हो सकता तथा विकल्प नहीं छूट सकते इत्यादि ।
नोट-.-इलोकमें 'चौर्यायाः पद है, उससे किसोको मारने या बरवाद होने, बंधन में डालने, अंगोपांग छेदने, सर्वस्व हरण करने, कष्ट देने आदिका खोटा चिन्तवन करना भी मना है ऐसा समझना चाहिये, अहिंसाका पालन मनवचनकायसे होना चाहिये, अर्थात् मममें बुरा चिन्तवन नहीं करमा, कायसे वैसा खोटा कार्य नहीं करना, वचनसे वैसे बोल न बोलना, तभी वह व्रत रक्षित रह सकता है ।। १४१ ।। आचार्य अनर्थदंडके दूसरे भेद पापोपदेशका त्याग करना बतलाते हैं।
विद्यावाणिज्यमेषीकृषिसेवाशिल्पंजीविनां पुंसाम् । पापोपदेशदान कदाचिदपि नैव करणीयम् ॥१४२।।
पद्य
विद्यादिक कह कार्योंसे सो गुजर बसर अपनी करसे । उन्हें कभी उपदेश पापका देना नहि शिक्षा देते ।। हिंसा कार्य बताकर उनको जो वृद्धि करना चहते ।
नहीं हितैषी के है उनके निजपरको बधन करते ।।१४२।। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [विधामाणिज्यमषीकृषिसेवाशिष्पजीदिनां पुंसाम् ] कला, व्यापार, मुनीमी, खेती, नौकरी, मकान आदि बनाना इन छह आजीविकाके साधनों द्वारा आजीविका करने वाले गृहस्थों अर्थात् कर्मभूमिके मनुष्योंको ( सात्त्विक जोवन बितानेबालोंको )
कला पाना बजाना आदि । २. व्यापार खरीद बेचना । ३. मुनीमी आदि लिखापढ़ी। ४. खेती किसानी। ५. नौकरी-सिपाहीगिरि आदि । ६, कारीगरी मकानादि बनामा ।
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:
离心房
पुरुषार्थसिद्धये
[ पापपदेशानं कदाचिदपि नै करणीयम् ] पाप कार्यका अर्थात् पापमय आजीविका करनेका, उपदेश (शिक्षा) कभी नहीं देना चाहिये वह वर्जनीय है क्योंकि उससे अनर्थदंड होता है अर्थात् व्यर्थ हो पापका बंध होता है। अणुव्रतोका वह कर्तव्य नहीं है, कारण कि उससे अहिंसाव्रत नहीं पल सकता, यह हानि है ।। १४२ ।।
भावार्थ - मुख्य लक्ष्य ( अणुव्रतोंकी रक्षा ) की ओर सदैव दृष्टि रखना विवेकी पुरुषोंका कर्त्तव्य है । तदनुसार अहिंसा व्रतको रक्षा के लिये हर संभव उपाय करना चाहिये ( अनिवार्य है ) | परीक्षा मौके पर ही होती है, अतएव व्रतीको स्वयं अपनी आजीविका उक्त छह कार्यों ( सावनों ) मेंसे अपने योग्य कार्यों द्वारा करना चाहिये । किन्तु लोभ लालच में आकर हिसावर्द्धक आजीविका कभी नहीं करना चाहिये और दूसरे गृहस्थोंके लिये भी हिसापापमय आजीविकाका उपदेश नहीं देना चाहिये, तभी उसका अणुव्रत रक्षित रह सकता है अन्यथा नहीं, यह तात्पर्य है या सारांश है । व्रती विवेकी पुरुष अन्याय व पापसे सदैव डरते रहते हैं, यह उनकी विशेषता है या साधारण जनसे भिन्नता ( व्यावृत्ति ) है । लोषणा में ( लोक स्वाति में ) पड़कर कभी अनर्थका कार्य नहीं करना चाहिये ! रण करना बड़ा काम है-वह ही पापका बाप ( जड़ ) बतलाया गया है, उससे सभी पाप जोव करने लगता है । वह १० वे गुणस्थान तक साथमें जाता है और समस्त पाप प्रकृतियोंका बंधन करता है तथापि धर्मवीर विवेक के लिये कोई असाध्य नहीं है, वह सबकुछ साध्य कर सकता है, अतएव शक्तिको संभालते हुए कायर नहीं बनना चाहिये। आत्मामें अचिन्त्य शक्ति है किम्बहुना | आत्मशक्तिका परिचय विकारके कारण उपस्थित होनेपर भी स्वयं विकृत न होनेपर हो तो मिलता है, यही अटलता कहलाती है अस्तु । ध्यान रहे ।
नोट -आदिनाथ भगवान्ने कर्मभूमिके प्रारंभ में उपर्युक्त ६ कर्मीका उपदेश आजीविका चलाने को दिया था। इनमें प्राय संकल्पी हिंसा नहीं होती, यह खास विशेषता पाई जाती हैसंकल्पी हिंसा सबसे बड़ा पाप है इत्यादि ।
arati तीसरा भेद प्रमादचर्या ( आचरण का त्याग बतलाते हैं । भूखननवृक्ष मोटनशाङ्क्लदलनाम्बुसेचनादीनि । निष्कारणं न कुर्याद्दलफल कुसुमोच्चयानपि च || १४३ ॥
पद्य
बिना प्रयोजन पृथ्वी जय अरु अग्नि वनस्पति जना ' जिससे frer are न होवे व रक्षा मिस करना है ॥
प्रयोजनभूत न वज सकता है आवक पृथ्वी आदिककी ।
फिर भी व्यर्थ दोष नहिं लगता विना प्रयोजन त्यागीको ॥१४३॥
१. तीव्रकषाय-- विवेकशून्यता |
२. हरा घास ।
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Breena
!'
सप्तशीलप्रकरण
अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [निष्कारणे भूखननवृक्षमोटनशास्वलदलनान्नुहोचना दीनि ] निष्प्रयोजन ( अप्रयोजनभूत बेमतलब ) पृथ्वी या जमीनका खोदना, वृक्षोंका काटना, हरा घास या वनस्पतिको काटना उखाइमा, पानी उड़ेलना (सींचमा } {स दलफल सुमोच्चयामपि ] और पत्र फलफूल आदिका संचय करना भी [ न कुर्यात ] नहीं करना चाहिये अर्थात् वर्जनीय है, कारण कि वह अनर्थदंड है अत: उसका त्याग करना व्रतीको प्रतरक्षाके लिये अनिवार्य है ।।१४३।।
भावार्थ-निष्प्रयोजन । जरूरतसे ज्यादह या जरूरत के विना) कार्य करना 'अनर्थदंड' कहलाता है। ऐसी स्थितिमें गृहस्थ श्रावक अपने पद और आवश्यकताके अनुसार पश्वो आदि पांच स्थावरोंकी हिंसा कर सकता है, कारण कि उसका सम्बन्ध उनके साथ रहता है । आजीविका के लिये खेती करता है...बाग बगीचा लगाता है, मवेशी रखता है, घास-पत्नी संग्रह करता है फलफूल उपयोग में लाता है क्योंकि उनके बिना उसका कार्य नहीं चल सकता । अत: वे गृहस्थाश्रममें अनिवार्य हैं । म हैं . उन
क सोकी उसकी आज्ञा । विधि है। किन्तु सबको सीमा निर्धारित है, अर्थात् जितनी जरूरत हो जितमेसे प्रयोजन हो) उतना ही वह वत्तविमें लावे-उससे अधिक उपयोग में न लावे, यह कैद है। अन्यथा वहो कार्य अमर्थदंडमें शामिल हो जाता है जो वर्जनीय है। यही एफदेश व्रतका अर्थ ( मायना ) है, ऐसा करनेसे ही उसकी रक्षा हो सकती है अस्तु ।।१४३॥ आचार्य चौथा भेद ( ४ ) हिंसादान नामक अनर्थदंडका त्याग करना बताते हैं ।
असिधेनुविषहुताशनलांगलकरवालकार्मुकादीनाम् । वितरणमुयकरणानां हिंसायाः परिहरेत् यत्नात् ॥१४४॥
पद्य
हिसाझे उपकरण न देना छुरी कटारी आदिक को।
उनके वेनेसे लगती है, हिंसा अनरथत्यागा को ।। १. उन्नं च १ . भूषयः पवनानीनां तृणादीनां च हिसतम् ।
यावत् प्रयोजनं स्यस्य, वावस्कुर्यादयं तु तस।। पशस्तिलककाव्य ।। अश्र---पृथ्वी जल वाय अग्नि बन्दस्पति आदिसे जितना अपना प्रयोजन हो उतनी हिंसा गृहस्थ कर
सकता है, वह अनुबिल नहीं है किन्तु उससे अधिक (अप्रयोजनभूत ) करमा अनुचित व
वर्जनीय है इति 1 २. वितरणका अर्थ देना अथवा स्वयं प्रयोग करना समझना चाहिये। ३. हिंसाके उपकरण ( साबन ) जिसने भी हों उन सबका वितरण करना या रखना निषिद्ध है क्योंकि जिनका नाम लिखा गया है उतने ही साधन नहीं है। कुत्ता, बिल्ली आदि हिंसक जानवरोका रखना भी मना है।
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पुरुषार्थसिद्धपुपाय AU: मलया वहीता, जब उपकरणादिक नाहें देखें । अपमेसे अतिरिक्त जन को जो चित हिंसादिक लये ||१४४॥
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अन्वय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [ हिंसायाः उपकरणार्मा ] अणुव्रतीका कर्तव्य है कि वह हिंसाके उपकरणों { साधनों )का जैसे कि [ असिधेनुविषहुताशनसांगलकावासकामुकादीमा ] छुरीकटारी, विष, अग्नि, हल, तलवार, धनुषवाण, आदि चीजोंका [ विसरणं अत्मात् परिहस्त ] परस्वार्थ के लिये देना ( जो हिंसक मनुष्य हों) विवेक और चतुराई सहित बन्द कर देवे, जिससे उनको बुरा न लगे इत्यादि अथवा स्वयं भी उनका उपयोग बड़ी सावधानीसे करे, जिससे हिंसा न होने पात्रे । तभी हिंसादान अनर्थदंडका त्याग करना कहलावेगा ।।१४४||
भावार्थ---अणुव्रती श्रावक श्लोकमें लिखी हुई वस्तुएं अपने प्रयोजनके लिये ( रक्षाके लिये ) बराबर रख सकता है-उनके रखने की मनाही नहीं है कारण कि अपनी रक्षाके लिये वह उनको रखता है जब कि यह गृहस्थाश्रममें है। पदपदपर उनकी जरूरत पड़ना सम्भव है। हाँ, वह सिर्फ अपनी रक्षाके लिये ही रख सकता है किन्तु परस्वार्थ के लिये नहीं रख सकता और प्रयोजनसे अधिक भी नहीं रख सकता, अन्यथा उसको नैमित्तिक दोष ( हिंसा ) लगेगा इत्यादि--- तभी तो इस श्लोकमें 'यत्नात् व वितरणं' पद लिखा गया है कि बड़े यत्नसे अर्थात् चतुराई छ सावधानोके साथ अपने ही पास में रखे व प्रयोग करे, अन्य किसी अविश्वासीको हिंसाके लिये न देवे न यश प्राप्त करे ( बड़वारी न चाहे ) तथा ऐसा भी न करे कि जरूरतसे ज्यादह परस्वार्थके लिये रखे, क्योंकि उससे हानि होती है-निमित्त मिला देनेसे उसका अपराध दानीको लगता है। कारण कि जब किसी जीबके विशेष रागद्वेष होता है तभी वह परोपकार या परस्वार्थकी भावना रखता है एवं उसके बाद्यसाधन मिला देता है। फलतः उन परिणामों { भावों का फल उसे अवश्य मिलता है यह तात्पर्य है। अतएव हिंसाके साधनोंको दूसरोंके लिये हिंसाके खातिर कभी नहीं देना चाहिये तभी व्रतकी रक्षा हो सकती है। यहोपर यदि कोई यह तर्क करे कि कदाचित अपने साधनों ( हथयार आदि से दूसरोंकी रक्षा भलाई होती है तो देनेवालेको दयालुतासे (करूणा भावसे ) उपकरण दे देना चाहिये। उससे देनेवालेकी लोकमें बड़वारी ( प्रशंसा-कोति) होगी और दयाका फल लगेगा ( पुण्णबंध होगा) इत्यादि लाभ भी होगा? इसका समाधान ( उत्तर ) इस प्रकार है कि वैसा तर्क करमा गलत धारण है अर्थात अज्ञानता है । जैसे कि कोई यह कहे कि 'शेर या सिंह को मार डालनेसे अनेक जीवोंकी रक्षा होती है अर्थात् उनपर दया या करुणा करना होता है या पलता है, जिससे पुण्यका बन्ध हो सकता है अतएव शेर ( हिंसक को मार डालने में कोई हानि नहीं है अर्थात मार डालना चाहिये कोई पाप नहीं है इत्यादि । वह सब गलत ख्याल है। भावुकतामें दूसरेको मार डालने वाले शिकारोको यह भी तो सोचना चाहिये कि जब कोई कर परिणाम ( अदयारूप) करके शेरको मारता है तब उसके दया परिणाम कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता, फिर पुग्धका बन्ध कैसे होगा? किसी भी जीवका मारना दयासे नहीं होता अदयासे होता है, उससे पाप हो बंधता है। अतः गलत धारणा नहीं करना
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ससकीलप्रकरण
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चाहिये । संक्लेशता और दयाका परस्पर विरोध है अस्तू। कोई पैसेके लोभसे परोपकारके नामपर कार्य करता है तो कोई ख्याति प्रतिष्ठाके लोभसे कार्य करता है परन्तु दोनों ही बुरे कार्य हैं यतः वह सापेक्षता है, निरपेक्षता नहीं है अतः हेय है। तर्कका विशेष समाधान इस प्रकार है कि इसका कोई भरोसा ( गारंटी ) भी नहीं है कि शेर मर ही जायगा व अनेक जोन बच हो जायेंगे भरेंगे नहीं। कदाचित् निशाना चूक गया तो क्या होगा? और जीवोंको मरना ही होगा तो क्या होगा? जो होनहार है वह होगी ही, तब फिर अपने भावोंको क्यों बिगाड़ना । विवेकी जीव सदेव अच्छा विचार करते रहते हैं वही कर्तव्य है १३१४४॥ आगे आचार्य-~-दुश्रुतिनामक ( ५ ) पांचवें अनर्थदंडका त्याग कराते हैं।
रागादिवर्धनानां दुष्टकथानामबोधबहुलानाम् । न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जनशिक्षाणादीनि ॥१४५।।
पञ्च जिनसे रागचष बढ़ता है, ऐसी दुष्ट कथाओंका । सुमना-पहना शिक्षा देना, कसंत्र नहिं है प्रतियोका ॥ असी सदा दृष्टि रखते हैं, व्रतकी रक्षा करनेकी ।
दोष हयामेसे वह होती. दुष्ट कथा नहिं सुननेको ।। १४५|| अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि जो दुःश्रुति नामक अनर्थदंडका त्यागी ( अणुव्रतो ) हो उसको [ अश्रोधबहुलानां सगाविबर्धनानां दुष्टकानां ] अज्ञान और मिथ्यात्वसे भरी हुई र पोषक तथा रागद्वेषको बढ़ानेवाली ऐसो खोटी ( बराब) कथा कहानियों-चर्चाओंका [ काचन श्रवणार्जनशिक्षणादीनि न कुर्वीत ] कभी सुमना-पढ़ना याद करना--शिक्षा देना नहीं चाहिये अर्थात् वह उक्त कार्य कभी न करे, तमो दुःश्रुतित्याग अणुव्रत सुरक्षित रह सकता है याने पल सकता है ।।१४५।।
भावार्थ-स्नेतकी रक्षाको जिस प्रकार बाड़ी (तार वगैरह )का लमाना जरूरी है उसी तरह बसोंकी रक्षाके लिये, मन वचन काप व कषायोंका रोकना, उनको नियंत्रण में रखना अनिवार्य है । फलतः दुष्ट कथाओं के सुनने आदिका राग ( कषाय ) नहीं करना यही बंधन या वारी है। रागद्वेष आदिके वशीभूत होकर ही प्राणी खोटी कथाकहानियों ( मनगढन्त उपन्यास आदि कषाय पोषक ) वार्ताओंको बड़ी दिलचस्पोके साथ सुनता है हर्ष विषाद करता है, स्वयं पढ़ता है दूसरोंको पढ़ाता है प्रेरित करता है जिससे कर्मबन्ध होता है और कुमार्गका प्रचार होता है, व निजको कुछ लाभ होता नहीं है। अतएब अनर्थ जानकर विवेकियोंको जनका त्याग करना ही बतलाया गया है। उक्त च-'आतमके अहित विषय कषाय इनमें मेरी परिणति न जाय इत्यादि । १. अपना घर जलाकर तमाशा नहीं देखना चाहिये, यह लोकनीति है। अपनी हिंसा करके परकी दया
नहीं करना चाहिये।
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पुरुषार्थसिद्धमुपाय
fadnt स्वागो व्रती पुरुष अपना समय, स्वाध्याय-त्वचर्चा पूजा भक्ति संयम सामायिक आदि अच्छे कार्यों में व्यतीत करते हैं-समयका सदुयोग करते हैं, दुरुपयोग नहीं दिए कथा उपन्यास, कोकशास्त्र आदि नहीं पढ़ते सुनते व सुनाते हैं किम्बहुना । सदैव पापोंसे डरते रहना चाहिये और अहिंसाका ख्याल रखना चाहिये तथा यथासंभव वैसा कार्य ( बरताव ) भी करना चाहिये ।। १४५ ।।
इस तरह
नामों के अनुसार यहाँतक अनर्थदंडके पाँच भेद बतलाए गये हैं ।
विशेष प्रकरण ( विवरण )
आचार्य अर्थदंडके सिलसिले में ही, अनर्थकारी जुआ । द्यूत) आदिका भी त्याग करनेका उपदेश देते हैं, उससे बतरक्षा होती है वह अनर्थोकी जड़ है ।
सर्वानर्थप्रथमं मथनं शौचस्य स मायायाः । दूरात्परिहरणीयं चौर्यासत्यास्पदं धूर्तम् || १४६ ॥
पद्य
es अनर्थका मूल दगाबाजीका घर F खोरी झूल अन्याय, अशुचिका कूड़ाघर है || हिंसाका है स्रोत, खजाना व्यसनोंका है ऐसा जुआ लु छोड़ बती कर सब तेरा हैं | ११४६ ।।
1
अन्वय अर्थ - आचार्य अनर्थदंडके सिलसिले में हो कहते हैं कि [ यस सर्वानर्धप्रथमं शौचस्व मथनं मायायाः सभ, चौर्यासत्यास्पदं ] जुआ ( व्यसन ) सभी अनर्थोका मुखिया ( जड़ या राजा ) है तथा निर्लोभताका भक्षक ( नाशक ) है, माया दगाबाजी छल कपटका घर । खान या खराब स्थान कूड़ा घर ) हैं, चोरी और झूठका अड्डा ( स्टेण्ड ) है अतएव [] दूरात्परिहरणीयम् ] अणुव्रतियोंको ( प्रारंभिक त्यागियोंको ) वह दुरसे ही छोड़ देना चाहिये, नहीं खेलना चाहिये || १४६॥ भावार्थ-व्यसनों या अनर्थोका राजा जुआ महापाप माना गया है। उसके होते सभी पाप हो जाते हैं । उसके बारेमें शास्त्रोंमें बड़ो-बड़ी कथाए हैं । अतएव उसका त्यागना भी व्रतीके लिये अनिवार्य है । परन्तु साधारणतः गृहस्थ अग्रती ) के लिये भी वह वर्जनीय है । कारण कि वह पापका कूड़ा घर है- जोवनको वरवाद कर देता है। जुआड़ी मद्य, मांस सेवन करने लगता है, चोरी करने लगता है, असत्य बोलता है, परस्त्रोसेवन करता है, शिकार खेलता है,
१. मिलता।
२. घर उत्पत्ति स्थान ।
३. जुआ व्यसन दाव लगाकर खेल खेलना, सट्टा आदि ।
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शिक्षामतप्रकरण वेश्यागमन करता है इत्यादि जिससे वह लोक व परलोक दोनों बिगाड़ लेता है। लोकमें बदनामी, अविश्वास आदि वेइज्जता होती है और परलोकमें नरकादि दुर्गति होती है किम्बहुना । अतएव अणुव्रतको रक्षाके लिये लुआका त्या वतीको कारमानी नानिये ।।१४६॥ आचार्य अन्तमें अनर्थोंका उपसंहाररूप त्याग बतलाते हैं।
एवंविधमपरमपि ज्ञात्वा सुंचत्यनर्थदण्डं यः । तस्यानिशमनवयं विजयमहिसाव्रतं लभते ।।१४७॥ जुआ समान और भी जो हों, उनको तुम अनर्थ समझो । उनका निशदिन स्याग करेस, इंश अदि मावत समझा ।। दोष रहित जल ग्रत होता है, समी अहिंसा होत विथ 1
इससे दोष रहित थत धरना, संसारी दुग्यका हो क्षय ||१४|| अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि यः पद्रविधमपरमपि अनदेई झात्वा सुचान ] जो अणुव्रती पुरुष जुआके ही समान अत्य । मदिरा पीना आदि) चीजोंको भी अनर्थदंड स्वरूप समझकर उनका त्याग कर देता है [ तस्य भान अनवयं अहिंसावत विजयं लभत ] उसका निर्दोष ( निरतिचार ) अहिमाणुगत निरन्तर विजयको प्राप्त करता है अर्थात् सफल होता है ।।१४।।
भावार्थ-निरतिचार अहिंसावत ( धर्म को पालनेबाला पुरुष हो संसार व उसके दुःखोकी जड़ मोहान्दि अष्टकर्मों को पृथक् करके ( क्षय करके ) सुखमय नित्य निरुपद्रव मोक्ष स्थानको प्राप्त हो सकता है दूसरा कोई ( कायर अन्नती जोन ) उसको प्राप्त नहीं कर सकता, यह तात्पर्य है। इसका कारण यह है कि अहिंसा वीतरागतारूप है' अतएव उसोसे कर्मबन्धन छूट सकता है, किन्तु सरागतासे कर्म बंधन नहीं छूटता उल्टा बंधता है । अतएव उस मार्ग ( उपाय )को कदापि नहीं अपनाना चाहिये वह उपादेय नहीं हो सकता। फलत: मोक्षका मार्ग एक ही है और वह अहिंसारूप या बीतरागतारूप शुद्ध निश्चय है। इसके सिवाय शुभरागको मोक्षमार्ग मानना व्यवहार है अभूतार्थ है, निश्चय या भूतार्थ नहीं है ऐसा जानना किम्बहुना ।
अथ शिक्षावतप्रकरण आगे आचार्य चार शिक्षाव्रतोंमेंसे (१) सामायिक शिक्षायतको बताते हैं।
रागद्वेषत्यागान्निखिलद्रव्येषु साम्यमवलम्ब्य ।
तत्वोपलब्धिमूल बहुशः सामायिक कार्यम् ॥१४८|| १. समताभाव-रागद्वेष रहित परिणाम ( पक्षपातरहित निर्विकल्प अवस्था )। २. आत्मस्वरूपकी प्राप्ति अनुभूति । ३. स्वरूपस्थिरता-स्वरूपलीनता... भेदभावरहित दशा-निर्विकल्पबुद्धि इत्यादि ।
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पुरुषार्थसिवापाम
पद्य
सब द्रव्योंमें रागद्वेषका स्याग करे जो होता है । ऐसा साम्यभाव धारणकर भास्मस्वरूप अत्ताता है ॥ आरमसिद्रिका मूल यही है सामानि तुम मा ।
बारबार उसको करना भवि, शिक्षा प्रभुकी यह मानो ॥५४॥ अन्वय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि भव्यजीवोंका कर्तव्य है कि वे निषिलदच्यषु रागद्वेषत्यागात् साम्श्रमवलमय ] सम्पूर्ण द्रव्योंमें रागद्वेषको त्यागकर समताभाव धारण करें ( निष्पक्ष होवें) और [ तरचोपलम्निमूलं बहुशः सामाग्रिक कार्यम् ] आत्मस्वरूपकी प्राप्ति ( मुक्ति ) या अनुभूतिका मूलकारण ( मुख्य उपाय ) सामायिकको बार-बार करें, यह सर्वज्ञदेवका उपदेश (शिक्षा ) है । विना सामायिक किये आत्मस्वरूपकी प्राप्ति नहीं हो सकती ।।१४८॥
भावार्थ--जबतक आत्मानुभव प्राप्त न हो अर्थात् आत्माके शुद्ध स्वरूपका ज्ञान न हो व स्वाद न आवे तबतक जीवोंको रुचि परपदार्थों की ओर रहती है. हटती नहीं है। अर्थात् उन्हीं परपदार्थों ( इन्द्रियोंके विषयों का स्वाद आता है और उन्हीं में रुचि या श्रद्धा रहती है यह प्रायः नियम है। और जब उनके विपक्षी आत्म पदार्थ ( द्रव्य )का स्वाद आता है तब उसके सामने और शेष सब वस्तुओंके स्वाद फीके ( तुच्छ । पड़ जाते हैं वहीं स्वाद सर्वोत्कृष्ट मालूम होने लगता है । फलतः उन सबसे रुचि हटकर अपने आत्मामें हो होने लगती है और उसी में यथाशक्ति लोन या तन्मय हो जाता है। परन्तु ऐसा होने या करने के लिये रागद्वेष या पक्षपातका अभावरूप 'साम्यभाव' होना चाहिये, क्योंकि वहीं 'सामायिक आत्मस्रूपमें एकाग्रता या लोनताका मूल कारण है। अर्थात् समताभाव ( साम्यभाव ) हुए विना एकाग्रता नहीं होती और रागद्वेष छुटे बिना समलायाब नहीं होता, ऐसी अवस्था में पहिले सब द्रव्यों में रागद्वेषका छूटना अनिवार्य है। आत्मस्वरूपकी प्राप्ति ( अनुभूति का साक्षात्कारण, सामाधिक है, सामायिकका कारण 'साम्यभाब' है--साम्यभावका कारण, रागद्वेषका अभाव है, ऐसा समझना चाहिये और उसके लिये बार-बार सामायिकका अभ्यास करना चाहिये, यह निष्कर्ष है अस्तु ।
यह सामायिकरूप साधन, व्रती अन्नती सभीके लिये उपयोगी पड़ता है ( लाभदायक है) चित्तवृत्तिको स्थिर करना रोकना मामूली काम नहीं है, संसार या ऋर्मबन्धन छूटनेका यही एक उपाय है और सरल उपाय है, उसके करने में बाह्यपरीषह या त्याग कुछ भी नहीं करना पड़ता है सिर्फ मनको ( उपयोगको ) थोड़ा रोकना पड़ता है जो अतिचंचल है । उससे यह विशेष लाभ होता है कि आत्मस्वरूपकी पहिचान या अनुभूति होती है, जिससे वह जीव स्वोन्मुखदृष्टि करके परका स्यागकर मोक्ष जा सकता है। इसके सिवाय सामयिकको करते समय चित्त स्थिर हो जानेसे निराकुलता होती है और उससे सुख व शान्ति मिलती है इत्यादि ।
नोट-'समय' शब्दसे सामायिक बनता है । समयके अनेक अर्थ है ( १ ) आत्मा (२) काल (३) शास्त्र ( ४ ) औषधि (५) धर्म इत्यादि । परन्तु यहांपर 'आत्मा' अर्थ लेना है।
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शिक्षा प्रकरण
अतएव आत्माका 'एकीभावको प्राप्त होना
कि
चाहियभार जार
) सामायिक शिक्षा के रूप में ( अभ्यासरूपमें ) और प्रतिमाके रूपमें दो तरह को जाती परन्तु उसमें प्रतिमारूपका अधिक महत्त्व है क्योंकि वह नियमबद्ध और निरतिचार होती है । water शिक्षा में नियमबद्ध और निरतिचार नहीं होती ऐसा भेद समझना चाहिये ।।१४८२ आचार्य -- सामायिकका काल और विधि बतलाते हैं। साथमें लाभ भी बतलाते हैं । रजनीदिवयोरन्ते तदवश्यं भावनीयमविचलितम् । इतरत्र पुनः समये न कृतं दोषाय तद्गुणाय कृतम् ॥ १४९ ॥
पद्य
दिन रात्रि के अन्त समय सामायिक करना नित है। अन्य समय करनेसे भी होता अवश आत्महित है || शिक्षा में नियम बार दो तीन बार नहिं होता है । प्रतिमा हैं तो भाका नियम, दोष नहिं लगता है ।। १४९||
अन्वय अर्थ -- आचार्य कहते हैं कि सामाधिकशिक्षावतवालेको [ रजनीदिवचरन्ते तत् अविअवश्यं भावमीयम् ] चाहिये कि वह प्रात:काल रात्रि के अन्त में ( ब्राह्ममुहूर्त में ) और दिन के अन्त में संध्या समय, इस तरह दो बार नियमसे सामायिक करे, चूके नहीं । और [ पुनः इतरत्र समवेत दोषाय कृतं न गुणाय कृतं भवति ] कदाचित् दोबारसे अधिक अनेक बार सामायिक की जाय तो गुण ( लाभ ) हो होता है, दोष ( हानि ) नहीं होता || १४९||
३.१३
भावार्थ(- इस श्लोक में शिक्षाव्रती के लिये सामायिकका काल बताया गया है किन्तु विधि नहीं बताई गई है कारण कि वह अनेक जगह बतलाई गई है, वैसी समझना । इसमें विशेषता वितकालकी ( सुबह शामको ) है, वह नहीं चूकना चाहिये, वह अनिवार्य है । अभ्यासरूपसे अनेक बार करने की भी विधि ( आज्ञा ) है किम्बहुना | अमृत कभी नुकसान नहीं देता । सामायिक Start एकत्वविभक्त' स्वरूप है । सामायिक यथार्थ में शुद्धोपयोगरूप वीतराग निर्विकल्प अवस्था है। लेकिन व्यवहारनयसे अर्हन्तपरमेष्ठीका नाम जपने रूप-शुभोपयोगवृत्तिको जो 'सामायिक' कहा जाता है यह भेद है । व्यवहारसामायिक - भक्ति आदि शुभरागरूप, सविकल्प होती है, जिससे पुण्यबंध होता है उससे सामायिकका लक्ष्य ( निर्जरा व मोक्षका होना ) पूरा नहीं होता इत्यादि । तथापि अपेक्षाकृत उससे भी लाभ होता है-अशुभोपयोगसे बचता है जो का कारण है और पुष्पबंध होता है । जो लोग यह कहते हैं कि वह शुभपयोग परम्परया
...
करना चाहिये ।
अटल निवम रूप अवश्य ही करना चाहिए । अतिचार रहित होना चाहिये ।
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पुरुषार्थसिद्धुपाय निर्जरा या मोक्ष का कारण है वह अज्ञानता है। कारण कि शुभोपयोगसे कभी मोक्ष नहीं हो सकता, असंभव है, यतः वह परिग्रह ( अन्तरंग ) है, बंधका कारण है । अतएव उनको ‘परम्परया' का सही अर्थ 'व्यवहार' समझना चाहिये । अर्थात् व्यवहारनयसे शुभोपयोग मोक्षका कारण है इत्यादि । हमेशा साक्षातका अर्थ निश्चय' और परंपराका अर्थ 'व्यवहार' समझना चाहिये । अतः कथंचित् वह भो उपादेय है क्रिम्बहुना 1 प्रारम्भ दशामें ऐसा ही होता है अस्तु ।
सामायिक करनेको विधि दंडकक्रिया द्वारा ( स्वामिकातिकेय ) बतलाते हैं ।
बाह्यकर्त्तव्य ( विधि) चार प्रकारका है। यथा--(मनवचनकायकी क्रिया) (१) नमस्कार (२) आवत्तं ( ३ ) शिरोमति ( ४ ) थोस्सामि ( स्तुतिपाठ )।
(१) मनमें सामायिक करने का अनुराग या संकल्प होना और उसके लिये आदरभक्ति व विनयरूप परिणामों का होना अंतरंग नमस्कार कहलाता है जो उल्लासरूप है। तथा बाहिरमें कायद्वारा मस्तक नवाना, हाथ जोड़ना, भूमि स्पर्श करना, बहिरंग नमस्कार कहलाता है ।
(२) हाथोंको अंगुलि को तीन बार घुमाना 'आवर्त' कहलाता है ( कायका व्यापार है) (३) मस्तकको झुकाना 'शिरोनसि' कहलाता है ( कायकी क्रिया है ) 1 ( ४ ) स्तुतिपाठ वगैरह पढ़ना थोस्सामि' कहलाता है ( वचनको क्रिया है ।।
शुद्धता वगैरहको कुछ और भी क्रियाएँ हैं । यथा---- ३) हाथपावमुहशुद्धि करना (२) पाँवोंका अन्तर रखना { ३ ) हाथकी याने अंगुलियोंको तथा गुरियोंकी माला रखना (४) शुद्धमंत्र पढ़ना (५) दृष्टि सौम्य रखना ( ६ ) बाहिर शब्द नहीं निकलना (७) स्थिरमुद्रा होना (८) एकान्त स्थान होना (९) निःशल्य होना ( मायाशल्य मिथ्याझाल्य निदानशल्यसे रहित होना चाहिये ), विकल्प या शल्यके रहते हुए एकचित्त या एकाग्रता नहीं हो सकती। (१०) योग्यदेश व क्षेत्र होना, जहाँ पर आकुलता न हो, डांस, मच्छर, खटमल, बिच्छू, सर्प, शेर, शिकारी, पशुपक्षी न होनीली या ठंडी या उष्ण जगह न हो, उपद्रव सहित स्थान न हो इत्यादि । ( ११ ) योग्यकाल हो-प्रातःकाल, मध्याह्न ( दोपहर ) संध्याकाल ! (१२) योग्य आसत होऊचीनीची कंकरीली न हो याने अचलयोग हो। । १३ ) योग्य मुद्रा हो, भयंकर रौद्राकार न हो, सौम्य मुद्रा हो । ( १४ ) मन शुद्ध हो-विकार रहित हो । ( १५ )
१. चतुरावतथितयश् चतुःप्रणामः स्थितो यथाजातः ।
सामयिक द्विनिपास्त्रियोगशुद्धस्विसंध्यमभिवन्धी ॥१३६॥ २० श्रा० स्वा० समन्तभद्राचार्य अर्थ--सामायिक करते ममय, मनयननकाय शुद्ध रखे, दो आसनोंमेंसे कोई एक आसन { खड्गासन या
पद्मासन ) घरे, परिग्रह रहित होवे, चारों दिशाओंमें तीन-तीन आवर्त करे, चार प्रणाम करे ( नमस्कार करें ) और तीनकाल सामायिक करे। यह विधि सामायिककी है। इसमें दो दंडक होते हैं । १) प्रारंभ (२) समाप्ति । अर्थात् जैसी क्रिया प्रारंभ में की जाय वैसी ही क्रिया समाप्तिम भी की जाय इत्यादि ।
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LABERSAREETE24
शिक्षाबलप्रकरण
बचन शुद्ध हो, शुद्ध पाठ व मंत्र बोला जाय । (१६ ) काध शुद्ध हो---अशुचिता ( मलादि ) से रहित हो इत्यादि साधनसामग्री अनुकूल रहते सामायिक ठोक बनती है। कार्यकी सिद्धि में अंतरंग व बहिरंग दोनों कारण होना चाहिये ।। १४९ ।। ) आचार्य सामायिक करनेसे जो विशेष लाभ होता है वह बताते हैं ।
मात्र उस समय महावता जैसा हो जाता है सामायिकश्रितानां समस्तसावधयोगपरिहारात् । भवति महानतमेषामुदयेऽपि चरित्रमोहस्य ॥१५॥
पद्य
सामायिक करनेवालेको श्रथ काम यह होता है। योगेकषाय सिमट जानेसे महाप्रती सम बनता है ॥ अपि सरितमोहका उसके उदय उस समय रहता है। मन्द उदय के हो जानेसे नहीं' सरीखा लगता है।१५०॥
अन्दय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [ सामायिकश्रितानामषां चरिश्रमोहस्य उदयेऽधि ] सामायिक करनेवाले इन अणुव्रतियों के यद्यपि प्रत्याख्यानावरण आदि कषायनामक चारित्रमोहकमका उदय पाया जाता है तथापि [समस्तमानण्योगपरिहारात महायतं भवति ] बाहिर सम्पूर्ण आरंभ आदि सावधयोग ( कषायसहित क्रियाएँ योग ) उस समय बन्द हो जानेसे, उनका अणुद्रत, महावत जैसा मालूम पड़ने लगता है, यह विशेष लाभ होता है ॥१५०॥
भावार्थ----तत् ( मूल ) और तत्सदृश ( मूलसमान में बड़ा अन्तर है, फिर भी स्थूल दष्टिसे एकसा मालूम होता है। इसी न्याय ( विवक्षा ) से पांचवें मुणस्थानवाले सामायिक शिक्षाबत्तीका सामायिक अणुव्रत, साक्षात् महावत ( निश्चयसे महावत ) नहीं है क्योंकि महावतकी घातक ( आवरण करनेवाली ) प्रत्याख्यानावरण कपायका उस समय उदय पाया जाता है ( छठवें गुणस्थान में उसका अभाव होता है) तथापि सामायिक करते समय उसके बाहिरी आरम्भ परिग्रह प्रायः छूट जाते हैं । बन्द हो जाते हैं--कषायपूर्वक योगक्रियाएँ नहीं होती ) । अतएव चरणानुयोगकी पद्धति में वह महायनी सरीखा दृष्टिगोचर होता है। जैसे कि उपसर्ग कालका ( सन्चेल) मुनि हो, क्योंकि उस समय वह कुछ भी गमनागमनादि नहीं करता है, न कषाय करता है इत्यादि । परन्तु करणानुयोगके अनुसार बहू महानती नहीं है न हो सकता है, कारण कि उसके प्रत्याख्यानावरण
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१. पापाचरण' या कषाय सहित योमप्रवृत्ति । २. प्रत्यास्थानतनुत्वात् मन्दसराश्वरणमोहपरिणामाः ।
सत्त्वेन दुरवधासः महावताय प्रकल्प्यन्ते ॥७॥ रत्न श्रा स्थविर समन्तभद्राचार्य 1
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বৃষি कषायका उदय मौजूद रहता है। फिर भी योग और कषायोंका सिमट जाना अर्थात् कम हो जाना साधारण विशेषता नहीं है अपितु महान् विशेषता है। अतएव सामायिक अवश्य करना चाहिये । इस विषयमें स्वामिसमन्तभद्राचार्य महाराजका भी मत है ।
नोट-दिग्वतदेशव्रतधारीका भी अणुवत, इसी तरह महाव्रत जैसा हो जाता है यह लाभ समझना चाहिये ॥१५०।।
आगे आचार्य सामायिक शिक्षाक्तोका और भी दुसरा कर्तव्य बतलाते हैं । ( स्थिरताके लिये उपवास करना)।
सामायिकसंस्कार प्रतिदिनमारोपितं स्थिरीकर्तुम् । पक्षार्द्धयोईयोरपि कर्तव्योऽवश्यमुपवासः ॥१५॥
पद्य प्रसिदिन सामायिक करने से संस्कार उसका पड़ता। उसको दृढ़ करनेके खातिर, उपवासों को अपनाता ।। यह कर्तव्य प्रतीका होता, एक पक्षमें कर दो बार ।
उससे बहुत समय है मिलता, रद होता सामयिक संस्कार ॥१५॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि सामायिक शिक्षानीको [ प्रतिदिनमारोपित सामायिकसंस्कारं स्थिरीकसम्] प्रतिदिन दो बार नियमित रूपसे की जाने वाली सामायिफके संस्कारको स्थिर ( दृढ़ ) करनेके लिये [योरपि पक्षाईयोः अवश्यं उपवासः कर्तव्यः ] एक पक्ष में दो बार ( अष्टमी व चतुर्दशीको ) अवश्य हो उपवास धारण करना चाहिये। फलतः उस दिन अधिक समय मिलनेसे ( उपार्जन करना व खाना पीना बन्द हो जानेसे पर्याप्त समय तक बार-बार सामायिक की जा सकती है व फलस्वरूप उपयोग दृढ़ और स्थिर ( अटल ) रह सकता है यही संस्कारको दृढ़ताका उपाय है ।। १५१ ।।
१. सामयिके सारसम्भाः परिग्रहाः नैव सन्ति सर्वेऽपि ।
चेलोपसुष्टमुनिरिव गृही तदा माति यतिभावम् ॥१०२।। रम. श्रा० स्थविर समन्तभद्राचार्य । अर्थ--प्रत्याख्यानावरणकषायकी हीनावस्था ( मन्दता) होनेसे चारित्रमोहका परिणमन ( बल ) अत्यन्त
कमजोर हो जाता है अर्थात् उसमें निर्बलता आ जाती है अतएव वह अधिक जोर नहीं करता। फलतः पंचमगुणस्थानवाले सामासिक अणुवती के परिणाम अत्यन्त निर्मल हो जाते हैं । अतएव वह परिणामोंको अपेआसे महावती-उपसर्गकालीन मुनि जैसा प्रतीत होता है, यह आशय है। कोई भी कर्म हो मन्दोदयके समय कम शक्तिवाला हो जाता है, जिससे अधिक हानि या लाभ नहीं होता, मामूली रहता है । जब उदय होना बिलकुल मिट जाता है तब उसका अभाव माना जाता है यह नियम है। छठवें मुणस्थानमें प्रत्याख्यानावरणकषायका उदय नहीं होता अर्थात् अभाव हो जाता है।
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शिक्षा करण
भावार्थ - जबतक मन व आसन आदिको स्थिर रखनेका अभ्यास न हो तबतक सामायिक (चित्तकी एकाग्रता ) कायम नहीं रह सकती, यह नियम है । अतएव सामायिकका संस्कार डालने व उसको स्थिर करनेके लिये प्रतिदिनके सिवाय पन्द्रह रोजमें दो बार दुकानदारी आदिको छोड़ कर ( बाहिर आरंभादि बन्द कर ) एकान्त स्थानमें जाकर खूब सामायिक स्वाध्याय आदि धार्मिक कार्य जरूर करना ये तभी सामायिकका संस्कार दृढ़ हो सकता है अर्थात् आरम्भादिका ( निमित्तका ) त्याग किये बिना सामायिक ( उपयोगकी) स्थिरता या एकाग्रता ठोक नहीं रह सकती, तब इंद्रियसंयम व प्राणिसंयम भी नहीं पल सकता, जिसकी व्रतीको खास आवश्यकता रहती है । फलतः श्रावकको सामायिक करनेका मुख्य लक्ष्य रखना चाहिये और उसका दृढ़ संस्कार डालना चाहिये | उसकी विधि उपवास करना भी मुख्य है । क्योंकि समय वगैरहको बचत होने से वह हो सकती है । स्वरूपमें स्थिरता लाने के लिये या निर्विकल्प होनेके लिये यह उपाय ( साधन) जरूर जरूर करना चाहिये। यह उपाय ही सर्वोत्तम उपाय है, उसीसे अनादिकालके संचित कर्म नष्ट होते हैं तब मोक्ष होता है । यह सामायिक चारित्रका भेद है, ऐसा समझना चाहिये । मन या चित्त बड़ा चंचल है वह बार-बार रागादिमें भटक जाता है । अतएव पुरुषार्थी पुरुष उसको बार-बार खींच कर आत्मस्वरूपमें लगाते हैं और ऐसा करते-करते अन्तर्मुहूर्त तक एक पदार्थ में स्थिर या एकाग्र कर देते हैं-विभावसे हटाकर स्वभावमें खचित ( लोन ) कर देते हैं इत्यादि ।। १५२ ।।
}
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आचार्य सामायिककी स्थिरता के लिए उपवास करने की पूर्ण विधि अथवा प्रोषघोषवास शिक्षाव्रतका लक्षण कहते हैं ।
मुक्तसमस्तारंभः श्रोषेधदिन पूर्व वासरस्यार्थे ।
उपवासं गृहीयान्ममत्वमपहाय देहादी || १५२||
पच
पहिले दिनके आधे दिनसे अनादिका त्याग करे | और सभी आरंभ त्यागकर निज आतमका ध्यान घरे terfere are छोड़कर धारण वह उपवास करे । प्रोष दिन धारण करके प्रोषधोपवास जु नाम रे || १५२|| अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि सामायिकव्रतका कर्तव्य है कि [ षधनपूर्ववासरस्यान् मुक्तसमस्तारम्भः ] पर्व ( अष्टमी या चतुर्दशी के दिनसे एक दिन पहिलेके आये दिन से अर्थात् दोपहर से सम्पूर्ण आरम्भ ( व्यापारादि ) का त्याग करते हुए और [ हादी मममपहाय ] शरीरादिकमें ममत्वको छोड़कर [ उपवास गृह्णीयात् ] उपवास धारण कर लेवे अर्थात् चारों प्रकार का आहार छोड़ देवे, यह विधि है जो प्रोषधोपवासव्रतका स्वरूप है || १५२||
१. सामयिकछेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसुक्ष्म सांपराययथाख्यातमिति चरित्रं ॥१॥ तस्यार्थसूत्र अ० ६ । २. पर्वका दिन प्रोषधका अर्थ पर्व है । अथवा एकादान है।
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पुरुषार्थसिद्ध ग्रुपाय भावार्थ-प्रोषधोपवासका साधारण अर्थ, एकाशनपूर्वक उपवास करना होता है अर्थात् पर्वके एक दिन पहिले दोपहर । आधादिन ) से उपवासको शुरू ( प्रारम्भ ) कर देना और १६ पहर या १२ पहार या ८ पहर में समाप्त करना इस तरहसे उत्तम-मध्यम-जघन्य ऐसे तीन भेद उपवासके हो जाते हैं। जैसे कि पहले दिनके दोपहरसे लेकर तीसरे दिन दोपहरको पुजनादि कर उपवास खोलना अर्थात् प्रासुक आहार लेना, उत्तम १६ पहरका उपवास है । तथा पहिले दिनके शामसे उपचास प्रारम्भ करके तीसरे दिनके प्रातःकाल पूजनादिकर खोलना मध्यम उपवास है। इसमें १२ पहर होते हैं । और उपवास अर्थात् पर्वके दिन ही प्रातःकालसे प्रारम्भ कर दूसरेदिन पूजनादि कर उपवास खोलना जघन्य उपवास ८ पहरका होता है। उपवासके दिन सारा समय धर्मध्यानमें विताना चाहिए। किन्तु अन्य गृहस्थोके कामोंमें समय खर्च नहीं करना चाहिए वह कीमती समय है।।१५।।
अथवा दूसरे तरह उपवासके भेव (१) के समा अन्न बाल कुछ भी ब्रह्म नहीं करना, उत्तम उपवास कहलाता है जो १६ पहरका होता है।
(२. उपवासके दिन अक्तिहोनतावश सिर्फ उष्ण पानो एक बार ले लेना, मध्यम उपवाम १२ पहरका कहलाता है।
(३ ) उपवासके दिन थोड़ा (नोदर ) आहार ( अन्नादि ) ले लेना जघन्य उपवास कहलाता है । इस विषयमें मार्गभेद पाया जाता है जो आगे बताया जा रहा है, अस्तु ।
प्रोधधोपयासका लक्षण--(स्वामिसमन्तभद्राचार्य) चतुराहारविसर्जनमुपचास: भीषधः सद्भुक्तिः ।।
स प्रोषधोपचासो अदुपोश्यारम्भमाचरति ॥१०॥ रत्नकरण्श्रावका० अर्थ-...चारों प्रकारका ( अशनखाद्यस्वाद्यय) आहार त्याग देना अर्थात् नहीं करना उपवास, कहलाता है। और दिनमें एक ही बार भोजन करना प्रोषध ! एकाशन ) कहलाता है। तदनुसार प्रषिधपूर्वक उपवास करना 'प्रोषधोश्वास, कहलाता है' यह लक्षण है। अभिप्राय (प्रयोजन ) में पूज्य अमृतचन्द्राचार्य और समन्तभद्राचार्यमें कोई भेद नहीं है सिर्फ शब्दार्थ भेद है। प्रोपधका अर्थ पर्व होता है और एकाशन ( सकृद् भुक्ति) होता है, इत्यादि समझना । क्रिया 'दोनोंकी एक-सी है, अस्तु, कोई विरुद्धता नहीं है आगमके अनुकूल है। .
इसी तरह एकार्थता अन्यत्र है श्लोक नं० ११४ में लिखे गये 'प्रतिपूजा' पद और श्लोक नं० ११९ में लिखे गये 'परिचरण' पदका, एक हो अर्थ है अर्थात् अर्थभेद नहीं है। उसका अर्थ 'वैय्यावृत्य' या उपासना या सेवासुश्रूषा होता है। सिर्फ पात्रभेद पाया जाता है। अर्थात् गुरु (धर्मगुरु मुनि ) की वैयावृत्त्य १. एक बार भोजन करना ।
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किरण
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करना 'प्रतिपूजा' कहलाती है और बीतरागदेवकी वैय्यावृत्य करना 'परिचरण' या पूजा ( अष्टद्रव्य से ) कहलाती है। इसका नाम 'सपर्या भी है । साधारण बोलीमें 'आदर-सत्कार' भी कहा जाता है इस प्रकार समन्वय करना चाहिये, जिससे मतभेद न रहे, अस्तु । कहीं-कहीं 'परिचर्या' शब्द भी आता है, किम्बहुना | पाठक विचार करें ।
नोट - पूजा व प्रतिपूजा यह सब वैय्यावृत्य नामक शिक्षाव्रत में अन्तर्गत होता है जो Parasar मुख्य कर्त्तव्य है ऐसा समझना चाहिये । नवधा भक्ति, आहाराविदान, स्तुति, प्रणाम, आदि ये सब कार्य प्रतिपूजाके अन्तर्गत है ।
शिक्षाव्रतों में मतभेद
श्री समन्तभद्राचार्य देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास, वैयावृत्य ऐसे चार भेद ( नाम ) मानते हैं । तथा श्री अमृतचन्द्राचार्य - सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगत्याग, अतिथिसंविभाग ( वैयावृत्य ) ये चार भेद मानते हैं । यहाँपर देशावकाशिक और भोगोपभोग में अन्तर ( भेद ) हैं । समन्तभद्राचार्यने भोगोपभोगपरिमाण (त्याग का -- गुणव्रतोंमें शामिल किया है। और अमृतचन्द्राचार्यने शिक्षाव्रत में शामिल किया है। अर्थ प्रायः एक-सा होनेपर भी नामभेद है। इसका कारण स्मृतिभेद हो सकता है, ऐसा समझना चाहिये, किम्बहुना ॥१५२॥
जनशासन मार्गभेद
आम (१) माने (२) अपवादी मार्ग बसाए गये हैं । उत्सर्गमार्ग या शुद्ध बीतराग मार्ग में शिथिलाचारको स्थान नहीं रहता वह बड़ा कड़ा ( अटल ) रहता है । इससे उसमें कोई ढिलाई नहीं होती बराबर १६ पहर तक निराहार उपवास रखना अनिवार्य है । avaran में ढिलाई रहती है, उत्सर्गकी तरह कड़ापन नहीं रहता । अतएव उसमें पानीमात्रका लेना या कवीदरका लेना बतलाया गया है। उसके दो भेद होते हैं । (१) यात्राम्लाहार (२) कांजिकाहार (दक्षिण प्रदेश में ) ।
(क) आचाम्लाहार गरम ( प्रासुक) तक ( मठा ) या मांडमें थोड़ा भात मिलाकर - जिसमें नमक वगैरह कोई रस न मिला हो-लेना, आचाम्लाहार कहलाता है ।
(ख) कांजिकाहार अकेला विना रस ( नमकादिरहित ) मोड या प्रासुक तक हो ( विनाभातके ) ग्रहण करना, कांजिकाहार कहलाता है। यह सब अपवाद मार्ग है । परन्तु जब उत्सर्ग मार्ग अपनाने में संक्लेशता या आकुलता हो उस वक्त अरुचिपूर्वक बेगार जैसे इस मार्गको पकड़ना बतलाया गया है किन्तु शक्ति रहते हुए नहीं बतलाया गया है, ऐसा भेद समझना चाहिये । यही उत्सव अपवादको सन्धि है किम्बहुना । (स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा व सागारधर्मामृत में देखो ) 1 सबका लक्ष्य इन्द्रियसंयम व प्राणिसंयम पालना है— अहि धर्मको अपनाना है अस्तु ।।१५२।।
१. कषायविषयाहारत्यागो यत्र विधीयते ।
उपवासः स विज्ञेयः शेषं
विदुः ॥
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पुरुषार्थसिखापाथ आगे आचार्य प्रोषधोपवासके समयका और भी कर्तव्य बतलाते हैं।
पांच श्लोकों द्वारा श्रित्वा विविक्तवसतिं समस्तसावधयोगपरिहारान् । सर्वेन्द्रियार्थविरतः कायमनोवचनगुप्तिभिस्तिष्ठेत् ॥१५३॥
पापारंम त्याग करके सब निर्जन हो । मनवचकाय तीन योगों को रोक विषयका त्याग करे। हो निःशल्य व्रतधारण करके आतम ध्यान अवश्य धरे।
जिससे निर्भय निर्विकल्प हो, कर्मादिक सब्दी कतरे ।।१५।। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि सामायिक व्रती { प्रोषधोपवासी )का कर्तव्य है कि [समस्तसावायोगपरिहारास् विधिवसति श्रिवा ] सम्पूर्ण ऋषाययुक्त आरंभ परिग्रह ( पापाचरण) का त्याग करके प्रोषधोपवासके समय 'एकान्त स्थान को प्राप्त करे (जावे ) और [ सर्वेन्द्रियार्थविस्तः कायमनोवचनगुतिभिः तिष्ठेत् ] पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त था त्यस होता हुआ मनवचनकायको गुप्तिके साथ निवास करे अर्थात् निर्विकल्प होवे-सोनों पर विजय पाये और कर्मोको निर्जरा करे ॥१५३३॥
भावार्थ-प्रोषधोपवास, सामायिकका एक अंग है ( साधन है) अतएव उसके समय सभी अंगोपांग ठोक होना चाहिये। ब्यापार व अन्नजलादिका स्याग करना, एकान्त स्थानमें जाना, सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको छोड़ना, इत्यादि सब बाह्यसाधन सामायिक (चित्तकी एकाग्रता के
अर्थ-~-जिसमें कषाय-विषय-आहारका त्याग किया जाय वह अवस्था ( किया ) उपवासकी है और जिसमें कषायका त्याग न हो न विषयोंका त्याग हो खाली आहारका त्याग हो, उसको लंघन कहते हैं। सदुष्णे कांजिके शुद्धमा लाथ भुज्यतेऽशनम् ।। विजितेन्द्रियस्तपोर्थ यक्षाचारूल उभ्यतेऽत्र सः ।।
अर्थ-तल्कालका तैयार हुआ या उष्ण ( प्रासुक ) किया हुआ मठामें थोड़ा-सा भात आदि अन्न मिलाकर खाना वह भी सपको वृद्धि के लिए, उसको 'आचाम्ल' भोजन कहते हैं। उदराग्निशमनाय अरुचि सहित ।
आहारो भुज्यते बुग्धादिक्रपंचरसातिगः ।
दममायाक्षात्रूणां यः सा निविकसिमेला ॥ ___ अर्थ-दुग्ध या मोठा आदि ५ रसोंसे रहित सादा भोजन करना निर्विकार' भोजन कहलातो है। और वह भी इन्द्रियरूप शत्रुओंको वशमें करने के उद्देश्यसे हो-शरीर पोषणके लिये न हो इत्यादि ॥१५२॥ .
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निमारका
हैं, जो निमित्त कारण हैं अतएव लक्ष्य ( सामायिक-साध्य )की सिद्धि के लिये उनका मिलाना भी अनिवार्य व हितकर है। अत: उसीका उपदेश इस इलोकमें दिया है। वह कर्मोको निर्जसका मुख्य साधन है किम्बहुना । चरणानुयोगकी यह पद्धति है अथवा भूमिकाशुद्धि है जो वाह्य अनिवार्य कर्तव्य है ॥१५३।। आचार्य प्रोषधोपचासीका गत्रिके समयका कर्तव्य बताते हैं ।
धर्मध्यानासक्तो बासरमतिबाट विहितसान्ध्यविधिम् । शुचिसंस्तरे त्रियाँमा गमयेत् स्वाध्यायजितनिद्रः ॥१५४॥
पद्य
धर्म ग्राम सहित अब पूरा दिनका टाइम हो जाने । और शामको संध्या करके शनि समयम्हागू होवे ।। शुचि विस्तरका लेय सहारा बीच-बोफ्यमै सो आधे ।
स्वाध्याय करते करते ही निद्रा रास उभय खोवे ||१५॥ · अन्य अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ धर्मध्यानासक्तः विहितम्पान्ध्यविधि बालरमतिबा प्रोषधोपवासी, धर्मध्यान में लीन ( आसक) होकर एवं शामको सामायिक ( संध्या) पूरी करके दिन पूरा कर लेवे सब [ स्याध्यागजितनिद्रः शुचिसंस्तरे मामांगमयेन् ] पवित्र विस्तर । चटाई वगैरह )के ऊपर स्वाध्याय करते हुए व नींद लेते हुए रात्रिको बिताये अर्थात् बीच-बीच में थोड़ा सोते हुए रात्रिका कर्तव्य पूरा करे 11१५४।।
भावार्थ----प्रमाद और आलस्यका मूल ! जड़ ) बहुधा भोजनपान है अतएव प्रोषधोपवासके समय अन्नजलादिक्रका त्याग हो जानेसे एक तो स्वभावसे नींद कमती हो जाता है। दूसरे धर्मध्यानमें चित्तको लगामेसे उपयोग बदल जाता है व नींद नहीं आती। फलत: निरालस होकर रात्रिके समय प्रोषधोपचासो सरलतासे बिता देता है। फिर भी संकल्प करके अपना कर्त्तव्य समझ पूरा करना ही चाहिये । अर्थात् ब्रतीको अपना समय व्यर्थ ही निद्रा और गपशप आदि अप्रयोजनभूत कामों में नहीं खा देना चाहिये, समयका सदुपयोग करना अनिवार्य है, क्योंकि सगादिकको घटाने के लिये हो तो व्रत धारण किये जाते हैं। अत: लक्ष्य पूरा करना ही चाहिये तभी विवेक शीलता समझी जायगी किम्बहुना। दिन व रात्रिका समय दोनों ही यथासंभव ध्यान व स्वाध्यायमें बिताना चाहिये इत्यादि । क्योंकि आरम्भ परिग्रह दो प्रोषधोपवासके समय त्याग ही दिया जाता है जिससे बाह्य आकुलता मिट जाती है फिर चिन्ता काहेकी करना ? नहीं करना चाहिये,
१. आरुड़ या संलग्न होकर । २. शुख पवित्र विस्तर । ३. रात्रि
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NAWARUH MAHARASHTRA)
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पुरुषार्थलिपार्य निश्चिन्त या निःशल्य होकर मुख्यतया धर्मसाधन करना ही उचित है अस्तु । प्रशस्तकार्य स्वाध्याय ध्यान सामायिक तत्त्वचर्चा आदि हैं उनमें उपयोग (चित्त )को लगाना बद्धिमानी है। प्रोषधोपवासी रात्रिको तीसरे पहर थोड़ा आराम लंकर पुनः चौथ पहर 'ब्राह्ममुहूर्त में { दो घड़ी रात्रि शेष रहनेपर ) पवित्र विस्तरोंपर ही या पृथक पवित्र ( निर्जीव ) स्थानमें प्रातःकालकी सामायिक { सन्ध्या कार्य ) करता है। उसके पश्चात् नित्यकर्म करता है वही आगे बताया जाता है ।।१५४।।
नोट-दिनका समय, पहिले प्रारम्भका आधा दिन और रात्रि तथा दूसरा दिन ब रात्रि यहाँपर ग्राह्य है क्योंकि श्लोकमें 'वासर व त्रियामा' ये सामान्यपद हैं ऐसा समझना चाहिये ।।१५४।। आचार्य प्रोषधोपचास पूरा होनेके दिनका प्रातःकालीन कर्तव्य बताते हैं।
प्रातः प्रोत्थाय ततः कृत्वा तात्कालिक क्रियाकल्पम् । निर्वतयेद्यथोक्तं जिनपूजां प्रासुकैव्यैः ॥१५॥
पद्य
प्रास समय उठ करके पहिले निस्पकर्म यह करता है। पीछे धर्म कार्य में लगता, श्री जिमपूजन करता है। प्रामुक ब्रम्य लेयकर पर वह पूजा भक्ति खुब करता। लक्ष्य अहिंसाका रखता है, प्रोषध नाम विरत धरता ॥५५५॥
अन्वय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि प्रोषधोपवासीका कर्तव्य है कि वह प्रातः स्थाय सारकालिक क्रियाकल्पं कृत्वा ] प्रातःकाल उठकर (जागकर ) और प्रातःकालीन सभी क्रियायें ( शौचादि निपटना स्नान करना ) करके [तसः प्रामुकदव्यैः यो जिन पक्षां निर्वतयेत् ] उसके पश्चात् प्रासुक द्रव्योंसे आगमोक्त विधिके अनुसार जिनेन्द्रदेवको पूजा करे। करना चाहिये । तभी उसका फल मिलता है ।। १५५ ।।
'विभिन्न व्यासपाधिशेषात सद्विशेषः' ॥ ३९॥ त० सूत्र अ० । भावार्थ-इस उमास्वामीके सूत्रके अनुसार सभी बातोंको विशेषता ( योग्यता ) मिलने पर फल में विशेषता होती है यह नियम है ! अतएव अद्वातद्वा पूजा करना लाभदायक नहीं होती किन्तु अच्छो विधिपूर्वक शुद्ध प्रासुक द्रध्यसे श्रद्धा सहित पूजा करने पर उसका अनुपम फल मिलता है। अतएव वैसी ही पूरी पूजा करना चाहिये वेमार सी नहीं टालनी चाहिये यह जिनाना है, इस पर ध्यान देना अनिवार्य है। पेश्तर पूजा करना श्रावतका मुख्य कर्तव्य है उसके पश्चात् प्रति. पूजा करना अर्थात् भक्तिपूर्वकद्वारा पेक्ष पड़गाहन करके पात्रदान देना दूजा कर्तव्य है। उसके १. आगमके अनुकूल--जैसी विधि शास्त्रमें बतलाई गई है, तदनुसार करना चाहिए । २. जीवरहित-अचितफलादि, सचिसफलादि नहीं, धर्जनीय है ध्यान रहे...कारण कि उनमें जीवहिंसा
होती है।
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शिक्षावतप्रकरण
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पत्रात् स्वयं भोजन करना ( पेट पूजा ) तीसरा कर्त्तव्य है । उसके पश्चात् गृहस्थाश्रमका काम करना आदि है । वही आगे बतायेंगे | इलोक नं० १६७ में अतिथि संविभाग या वैयावृत्य बतलाया गया है जो प्रोषधोपवासी श्रावकको पारनाके दिन अवश्य करना चाहिये । गृहस्थ श्रावक धर्मके लिये परस्पर सम्बद्ध तीन काम हैं १ -पूजा ( देवकी) २ प्रतिपूजा ( गुरुकी ) ३ - उदरपूर्ति न्यायपूर्वक व्यापारादि करना, ये तीनों अनिवार्य है किम्बहुना ।। १५५ ।।
आचार्य आगे उपसंहाररूपसे प्रोषधोपवासका काल बताते हैं ।
उत्तन ततो विधिना नीत्वा दिवस द्वितीयरात्रिं च । अतिवाहयेत् अनादर्द्ध
तृतीय दिवस
पद्य
॥१६६
माफक वह
दिन अरु रात्रि बिताता है । बूजा दिन अह राशि पूर्ण कर अर्ध तृतीय सीजे दिन भी प्राप्त कर्म कर भोजन विधि एक बार ही भोजन लेकर eer समाप्त वह करता है ।।१५६ ।।
पकड़ता है ||
करता है ।
MAWA
अन्वय अर्थ आचार्य कहते हैं कि प्रोषधोपवासीका कर्तव्य है कि वह [ उन feat द्वितीपत्र व नोवा ] पूर्व कथित विधिके अनुसार डेढ़ दिन और दो रात्रिको विसावे ( पूरा करे ) [ सल: प्रयस्मात् तृतीयदस्य अर्ध व अवियेत् | उसके पश्चात् तीसरे दिनका आधा fire ( दोपहर तक ) भी बिना भोजन पानके बितावे पश्चात् विधिपूर्वक यथासंभव अतिथि संविभाग करके ( पात्रदान देकर प्रतिपूजा करके ) स्वयं भोजन करे और श्रीषधोपवास समान करे | यह कर्त्तव्य प्रोषधोपवासी श्राचकका है || १५६ ।।
भावार्थ -- उत्तम प्रोषधोपवास ठीक सोलह पहर तक विधिपूर्वक साधना करनेसे पूर्ण व सफल होता है, ऐसा समझकर उसमें गलती या ढोल ( शिथिलता ) नहीं करना चाहिये, यह उपसंहाररूप शिक्षा आचार्य दे रहे हैं अतः इसे मानना चाहिये | चरणानुयोगकी पद्धतिके अनुसार तसंयम पालनेकों जैसी विधि गुरुओं व आचार्योंने बतलाई है, उसीके अनुसार चलने से लाभ होता है । एवं लोकमें उसका विश्वास और मादर होता है, इतना ही नहीं दूसरे विवेकी लोग भी अनुकरण कर आत्मकल्याणके मार्ग लगते हैं, अतः उसमें प्रमाद नहीं करना चाहिये । इसके सिवाय अन्तरंग परिणामोंका पता बाह्य आवरणसे हो लगता है अतएव बाह्याचरणकी शुद्धता परिचायक है फलतः उसको शुद्ध व निर्दोष होना चाहिये | आचरणशुद्धिया योगशुद्धसे उपयोग ( आत्मा ) को शुद्धि मानी जाती है । अतएव लोकव्यवहार में सदाचारी बनना चाहिये किम्बहुना ।। १५६।।
१. द्वारापेक्षण और पापदान (गुरु- मुनिको प्रहारादि) देकर याने पतिपूजा करके पश्चात् यह भोजन करे ।
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पुरुषार्थसिधुपाप आगे आचार्य प्रोषधोपवासका फल बतलाते हैं।
इति यः पोडशयामान् गमयति परिमुक्त सकलसावधः । तस्य तदानीं नियतं पूर्णमहिंसावतं भवति ॥१५७।।
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अखिल क्रियाओंको सजकरके 7 सपालन करता है । सोलह पहर नियम है उसके पूर्ण अहिंसक बनता है ।। यदपि अहिंसक निश्चयस नहि, बाहिर बैसा दिखता है।
मन्दपाय मुख्य है कारण दयाधर्मको घरमा है ॥१५॥ अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ इति यः परिमुझसकलसानग्रः पशयामान गममति जो व्रती पूर्वोक्त प्रकार से सम्पुर्ण पापक्रियाओं को त्यागकर १६ सलह पहरतक निदोष रहता | तस्य सादानी रियत पूर्णमहिमानतं भवति उसके उतने समयलक ( १६ पहातक ) नियमले । अहिसानत होता है ( सदैव नहीं होता है ) ऐसा समझकर भाबकको प्रोषधापयास अवश्य चाहिये । उसे बड़ा लाभ होता है ।।१५७||
भावार्थ- सबसे बड़ा और निश्चयधर्म 'अहिंसा' ही है, उसके बराबर दूसरा कोई नहीं है कारण कि वह शुद्ध स्वभात वीतरागतरूप है जिससे मोक्षकी प्राप्ति होती है. यह लामा है । ऐसी स्थिति में यदि वह्न १६ पहरतक हो होता है अर्थात् पापक्रियाओं को अचिके साथ देता है तो उसके निमित्तसे असंख्यात गुणित कर्मोको निर्जरा प्रति समय होने लगती है। श्रेणी निर्जरा ) यह क्या कम लाभ है ? महान् लाभ है, जोवन में सफलता प्राप्त करना है। प्रधा उसीके साथ जितना बतसंयम धारण करनेका शुभराग या धर्मानुराग होता है और जोयरमा ( दया करता के भाव होते हैं, उससे पुण्यका बंध होता है, जिससे उस धर्मसे संसारमें सूताः । सुख प्रान होते हैं, फलतः उसको भी धर्म कहते हैं। परन्तु मोक्ष नहीं मिलता, अतएव उसका व्यवहारमय धर्म कहा जाता है। फिर भी दोनों धौके पालनेसे लाभ ही होता है घाटा की। होता। ऐसा सापाकर धर्म नहीं छोड़ना चाहिये, किम्बहुना 1
बस तोम तरहके माने जाते हैं { १ नियमरूप अर्थात् अन्तरंगमें प्रतिज्ञा या संकल आखड़ी करने रूप कि ऐसा करेंगे इत्यादि अथवा थोड़ा-थोड़ा श्रत पालना अभ्यास रूपसे ।। शुभ कार्य में प्रवृत्ति करने हए जैसे कि शुक्रियाएं करना, दया करना, दान पुण्य करना पता प्रभावना आदि धार्मिक कार्य करना, व्रतसंयमादिका पालना, मुनिदेष धारण करना, (२) अर या खोटे कामोंको छोड़ना कप, पापक्रियाओंका छोड़ना, हिंसादि न करना। १. 'उक्तं संकल्पपूर्वक: संये नियमोशभकर्मणः ।
निवृत्तिर्वा बर्त स्यामा प्रवृत्तिः शुभकर्मणि 10 || सागारधर्मा० अ०२
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शिक्षाप्रकरण
भावार्थ-व्रत पालने में उत्साह या रुचिका होना-व्रत धारण करनेके सन्मुद होना, व्रत कहलाता है। तैयारी करना या संरम्भ समारंभ करना । व्रतोंको प्रारम्भ कर देना अर्थात् शुभ क्रियाओं में प्रति करना । अशुभ क्रियाओंको बन्द कर देना इत्यादि सब व्रतके तीन-तीन रूप हैं--सभीमें लाभ होता है ऐसा समझना चाहिये ।। १५७ ।।
___ आचार्य यह बताते हैं कि प्रोषधोपवासके समय व्यापारादि नन्द कर देनेसे अहिंसा नहीं होतो अत: अहिंसावत पलता है उसी तरह भोजनपान आदि भोग्योपभागकी चीजोंका त्याग होने से स्थावर हिमा भी नहीं होती तथा असत्य बोलना, चोरी करना, मैथुन सेवन करना ( कुशील ) परिग्नह संचय करना ( म. ) ये सब पाप भो त्रिगुप्ति धारण करने से छूट जाते हैं अतएव उतने समय पूर्ण अहिंसाव्रत पलता है-यह लाभ होता है । फलतः वह कर्तव्य है ।
भोगोपभोगहेतोः स्थावरहिंसा भवेत् किलामीषाम् । भोगोषभोगविरहात् भवति न लेशोऽपि हिंसायाः ।। १५८॥ वाग्गुप्तेनास्त्यनृतं न समस्तादानावरहतः स्तेयम् । नाब्रह्म मैथुनमुचः संगो नाङ्गेऽप्यमूच्छंस्य ॥ १५९॥
भोग और उपभोग को जब थामर हिमा होती है। उनका स्थाग करेस रेखी हिंसा रंचन होती है । मौनालन करनेसे नहिं झूठे वचन निकलते है। कुछ भी ग्रहण म करनेसे वे चोरीसे भी असते हैं । ब्रह्मचर्यके पालमसे नहिं मैथुन सेवन होता है। अंग' ममस्य स्वागने से हाँ परिग्रह सारा खोता है। पंचपापका त्याग जु होता "प्रोषधचतके घरनले ।
और अहिंसा पूरण करता धन संयमकं पलनेसे || १५८ । ५.५९ ।। अन्य अर्थ---आचार्य कहते हैं कि देशवतियों ( अणुव्रत धारियों )के एवं अनलियोंके [ भोगोपभोगहलोः किल अमीषां स्थावरहिसा भवेत् ] भोग और उपभोगके सेवन ( निमित्त से, १. कारणसे । २. जीवोंके--देदावतियोंके । ३. देह या शरीर। ४. हटाता हैस छोड़ता है। ५. एक अकेले प्रोषधोपवास तक पालनेसे । . ६. जो एकबार भोगने ( सेवन करने ) में आये उसको भोग कहते है जैसे भोजन पान गम्ब पुष्पादिक बोले ।
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पुरुषार्थसिवापाथ स्थावर ( पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, बनस्पतिकाय ) जीवोंकी हिंसा अवश्य होती है, क्योंकि वायापदार्थ तो वे ही हैं जैसे अन्न जल शाक आदि पदार्थ। किन्तु [ भोग्योपभोगविरहान हिमाया: लेशोऽपि न भवति ] भोग व उपभोगका त्याग कर देनेसे रंचमात्र हिंसा नहीं होतो-अच जाती है यह नियम है। इसके सिवाय [ वागुप्ते: अनृतं नास्ति ] वचनगुप्तिके पालनेसे ( मौन धारण करनेसे ) झूठ नहीं बोला जाता ( झूठका त्याग हो जाता है) [ समस्तादानविरहतः स्सेयं नास्ति ] सब चीजोंका ग्रहण न होने से, चोरी नहीं होती ( त्याग हो जाता है) [ मैथुनभुचः असा न ] ब्रह्मचर्य धारण करनेसे, कुमोल सेवन नहीं होता (त्यागी हो जाता है ) [ अंगे अमूछस्य मंगोऽपि म ] शरीरसे ममत्व छोड़ देनेपर परिग्रह धारण नहीं करता { परिग्रह त्यागी हो जाता है। इस सरह अनायाा हिसा आदि पांगी पापोंका त्यागी प्रोषधोपवासके काल में अणुव्रतो श्रावक हो जाता है यह लाभ है ॥१५८।१५९।।
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भावार्थ- सभी व्रतों और व्रतियों-संयमियों का मुख्य लक्ष्य मोक्षको या उत्तम सूत्रको प्राप्ति करनेका रहता है। इसीलिये सामान्यतः व्यवहारसे उसको प्राप्तिका बाह्य उपाय प्रत संयमको
ण करना, घरद्वार, स्त्रीपूत्र धनधान्यादिका त्याग करना बताया गया है, और आचरणमें लाने का उपदेश दिया है। परन्तु यह सब व्यवहारनयसे साधन हैं, कारण कि वे सब प्रवृत्तिमय होनेसे शुभरागरूप हैं व पुण्यबंधका कारण हैं राग व बंधसे मोक्ष नहीं होता इत्यादि 1 निश्चयनयसे वीसरागता या निवृत्तिरूप अवस्था अथवा शुद्धोपयोगरूप अहिंसा ही मोक्ष व उत्तम सुखका साधन हैं फलतः जब तक वे नहीं होते तबतक मोक्ष नहीं होता असंभव है। परन्तु अनादिकालसे संसारी जीव व्यवहार दशामें (अशभ या शभ दशामें-अशद्धोपयोगमय ) रहते आये हैं, उन्हें कभी असली शुद्ध दनाका अनुभव हो नहीं हुआ है । अतएव करुणासागर आचार्य अनुभसे बचने के लिये अगत्या शुभके साथ ही संबंध स्थापित कराते हैं ऐसा संस्कार उनको पाड़ते हैं । इसके सिवाय यदि कदाचित् अयत्नसाध्य ( स्वतएन ) किसी जीवको अपनी शुद्ध दशाका अनुभव होता भी है तो वह अधिक समय तक स्थिर नहीं रहता-जल्दी ही बदल जाता है अर्थात् पुनः शुभ या अशुभमें उपयोग चला जाता है क्योंकि पुराने संस्कार पड़े हैं। और उसी में आनन्द मानकर उसोका अवलम्बन करता है । लेकिन यह सब ( शुभोपयोग व्रत संयमादिरूप । कषायको मन्दतासे होता है उस समय यदि कोई सम्यग्दृष्टि हो तो शुद्ध धर्मानुराग करके (अकामनिर्जरा करता है) जिसके फलस्वरूप उत्तम विमानवासो देवों में उत्पन्न होता है यह काचित् लाभ होता है अतएव वह शुभोपयोग भो उपादेय है। और यदि वह मन्दकषायवाला शुभोपयोगी मिथ्यावृष्टि हो तो उसके भी अकामनिर्जश होती है परन्तु वह अशुद्ध धर्मानुरागसे भवनात्रिक देवोंमें ही उत्पन्न होता है यह भेद है 1 बुद्धिपूर्वक सम्यग्दृष्टि जीव अभ्यास करते-करते पुराने संस्कार ( शुभोपयोगके )
७. जो बार-बार भोगनेमें आधे उसको उपभोग कहते हैं। जैसे स्त्री, शय्या, आसन, वस्त्र, सवारी गह्ना आदि। उक्स च-भुक्त्या परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तयः ।
उपभोगोऽमानवसनप्रभृतिः पाचेन्द्रियो विषमः ।।८३॥ रत्नकरण्डनायकाचार
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MINS
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शिक्षावतप्रकरण
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क्षीणकर बैगम्यक संस्कार डालता है एवं क्रमशः शुद्धोपयोगको प्राप्तकर मोक्ष व उत्तम सुखको प्राप्त करता है। लेकिन बीच में कर्मधाराके सबबसे अचिपूर्वक बाह्य व्रत संयमरूप निमित्तोंको भी मिलाता है और स्वभावतः ( विना यत्नके ) कभी वीतरागताको प्राप्त करता है अस्तु । निमित्तों को निमित समझते हुए सुनको होन दशामें कथंचित् उपादेय समझना चाहिये किम्बहुना । सम्यग्दर्श नादि गुण आत्माके यत्नसाध्य । नैमित्तिक ) नहीं हैं ऐसा निश्चयसे समझना चाहिये, क्योंकि देसा मानने से वस्तुको स्वतंत्रता नष्ट होती है जो वस्तुका स्वभाव है इत्यादि दोष आता है।
सारांश-व्यवहारमयसे प्रोयधव्रताको भोगापभोमके बाह्यसाधन इन्द्रियोंको व अन्तरंग साधन कषायोंको या इन्द्रियोंवेः पियोंकोचक नियममा नाहिये तभो इन्द्रियसंयम व प्राणि संयम पल सकता है। फलस्वरूप गुति व समितियों का भी वह सभ्यासरूपसे पालन करे जिससे आगे विशेष लाभ होगा अस्तु । यह व्यवहारमयसे आचार्य महाराजका उपदेश है ।।१५८-१५२।। आगे आचार्य उपसंहाररूप कथन करते हैं, जिसमें निश्चय और व्यवहारका खुलासा है----
इत्थमशेषितहिंसः प्रयाति स महाबतित्यमुपचारात् ! उदयति चरित्रमोहे लभते न तु संयमस्थानम् ॥१६॥
पद्य
पूर्वविधिले जिस श्रावकने हिंसाको त्यागा है मिस । व्यवहरनयसे उसे कहा है महानप्तीके सदश मिस ॥ निश्चयनग्रसे महायती साहि, जबतक प्रत्याख्यान कषाय।
सकलावती नहिं हो सकता है देशयता अणुमतको पाय अन्वय अर्थ.... प्राचार्य कहते हैं कि इत्यमशेषितहिंस.स] पूर्वोक्त विधिसे जिसने अणुव्रत पालते हुए भी प्रोषधोपवासके समय पूर्ण हिंसाका त्याग किया है वह [ उपचाशत् महानतिनं भयाति] उपचारसे अति व्यवहारनबसे महानतीपनेको प्राप्त करता है-अर्थात् निश्चयनयसे वह महायसी नहीं हो सकता, कारण कि [ चरित्रमोह उदयति तु संगमस्थानं न लभते ] चारित्रमोहनीके भेद प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय रहते हुए कोई जीव संयमस्थानको अर्थात् सकलवतको ( मुनि
१. सकलवतयारी--- गुणस्थानवर्ती मुनिपदको प्राप्त नहीं कर सकता, जहाँ प्रत्याख्यानावरणकषायका
अभाव होता है या उदय नहीं है। उनले च-दसमिनिकापायाणां दखाण तहिंदियाण पंचतु।
धारणपालणणिग्गहचागजमो संघमो भणियो ।।४६५॥ मो० जी० अर्थ-श्रत धारण करना, समितियोंको पालना, कषायोंका निग्रह करना, अनर्थदण्डोंका त्याग करना,
इन्द्रियोंको वश में करना ( विजय पाना ) संया कहलाता है जो छठवें गणस्थानमें ही हो सकता है, पात्र मुणस्थानमें नहीं हो सकता।
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पुरुषार्थसिद्धयुपाथ
पदको ) नहीं प्राप्तकर सकता यह नियम है। तब देशव्रती के प्रत्याख्यानावरणकषायका सूक्ष्म या मंद उदय पाया जाता है अभाव नहीं होता यह खुलासा है || १६०||
भावार्थ - तत् और तत्सदृशमें भेद होता है। पंचमगुणस्थानवाला देशव्रती जब दिग्aतादिक और शिक्षात्रतादिक पालता है तब मर्यादा बाहिर पूर्ण त्याग होनेसे कषायकी मन्दताके सबब परिणामों में दिता विशुद्धता ) होती है अतएव मन्दताके समय क्षय जसो हालत हो जाती है, जिससे सदृशता तो आ जाती है किन्तु तद्रूपता नहीं आती। फलतः उपचारसे वैसा कह देते है किन्तु निश्चयसे वैसा वह नहीं होता। ऐसी स्थिति में पंचमगुणस्थान वाले श्रावक प्रत्याख्यानावरण कषाय ( चारित्रमोहका भेद ) का सर्वथा अभाव नहीं होता अपितु अत्यन्त मन्द उदय हो जाता है, जिससे महाव्रतकी कुछ समानता मिलने लगती है, ( इसका खुलासा समन्तभद्राचार्यने रत्नकरण्ड श्रावकाचारके श्लोक नं० ७१ में किया है । परन्तु निश्चयमें वह महाव्रती या सकलसंयमी नहीं है क्योंकि निश्चयसे महाव्रत और सकलसंयम एक हो चीज है, नामभेद है अर्थभेद नहीं है, और वह छठवें गुणस्थानमें ही होता है पहले नहीं होता, यह नियम हैं । यह उपसंहार में सारांश कहा गया है इसे समझना चाहिये, भ्रममें नहीं पड़ना चाहिये । छठवें गुणस्थान ( मुनिपना) के पहिले यदि कोई सचेल tree अभ्यास करता हो तो करे परन्तु वह निर्दोष नहीं पा सकता किम्बहुना मोक्षमार्गी दोनों होते हैं, शुभोपयोगी सम्यग्दृष्टि व शुद्धोपयोगी सम्यग्दृष्टि | किन्तु शुभोपयोगी व्यवहारनयसे मोक्षमार्गी है और शुद्धोपयोगी निश्चयनयसे मोक्षमार्गी है यह भेद समझना, सभी बराबरीके नहीं हैं । लोकमें सकलचारित्र या सकलसंयमकी बाहिर निशानी मुनिवेष' या महाव्रत है। सो जिन जीवोंके चारित्रमोहके भेद प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय नहीं होता ( क्षयोपशम हो जाता है) उनके वह निशानी प्रकट होती है सभी के नहीं, अर्थात् वह निशानी ५ पांच गुणस्थान ( देशव्रती ) वाले अणुत्रतोके प्रकट नहीं हो सकती क्योंकि उसके प्रत्याख्यानावरण कषायका सूक्ष्म उदय रहता है। फलतः सदा के लिये उसके आरंभादिकका पूर्ण त्याग नहीं हो जाता सिर्फ प्रोषधोपवास व्रत के समय नियमरूपसे कुछ होता है, उसके पश्चात् फिर वही आरंभादिकार्य करने लगता है यह खुलासा है ।। १६०
३ -- भोगोपभोगत्याग ( परिमाण ) शिक्षाव्रतका स्वरूप भोगोपभोगला विश्ताविरतस्य नान्यतो हिंसा ! अधिगम्य वस्तुवं स्वशक्तिमपि तावपि त्याज्यौ || १६१ ॥
पद्य
raath हिंसा होतो भोग और उपभोगहि से।
और दूसरा कारण नहीं है, यह तुम जानो निश्चय से ||
१. भुनिलिंग बाहिर ५ पाँच तरहका होता है ( १ ) नग्नवेष ( दिगम्बररूप ) ( २ ) केशहुंचन ( ३ ) शुद्धता कुलप्रतिको उच्चता ) ( ४ ) आरंभादि बाह्य परियहका त्याग ( ५ ) करीरसंस्कारका त्याग । अन्तरंग लिंग भी ५ प्रकारका बताया है। प्रवचनसार चारित्र अधिकार ।
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B
Paw was a drogyn
शिक्षा प्रकरण
reg स्वरूप और निजश किस जान वस्तुका स्याग करें।
भोग और उपभोग रूप जो, देश अहिंसा धर्म घरे ॥ १६१ ॥
३२५
अन्वय अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि । विश्वात्रिरतस्य भोगोपभोगमूला हिंसा भवति नान्यतः ] देशant या अणुव्रत (त्रिरताविरत ) श्रावक जो हिंसा होती है वह सिर्फ भोग और उपभोग के द्वारा हो होती है, दूसरा कोई हिंसाका कारण नहीं है ऐसी स्थिति में [वस्तु स्वशक्तिमपि अभिगम्य ] इस मूल तथ्य ( निश्चयकी बात ) को और अपनो शक्तिको जानकर, उसके अनुसार [ तो अपि स्याज्य ] देशव्रतीको भोग और उपभोग दोनोंका त्याग करना चाहिये (करे । यह उस श्रवकका कर्त्तव्य है ।।१६१ ॥
भावार्थ- मूल बात ( वस्तुस्वरूप ) को समझकर और अपनी योग्यताको देखकर कार्य करनेसे ही लाभ होता है अन्यथा नहीं, वह नियम है। ऐसी स्थिति में बिना समझे और बिना कोई कार्य नहीं करना चाहिए फिर व्रत-संयमके मामले में तो खासकर दोनों बातोंको देखना अनिवार्य है अन्यथा भ्रष्ट हो जाना निश्चित है। इसो तथ्यका उल्लेख इस श्लोक में आचार्य महाराजले किया है । फलतः देशविरति श्रावकके हिंसा होनेके मूल साधन ( निमित्त ) भोगोपभोग और व्यापारादिक हैं. उनके करनेसे हिंसाका होना अवश्यंभावी है | अतएव उन्हीं व्यापारादिक और भोग उपभोगको शक्तिके अनुसार क्रमशः थोड़ा-थोड़ा त्यागना कर्तव्य है । एक साथ भावुकनाऐं लाकर त्याग कर देनेवाले शिपये हो जाते हैं । उस समय सिर्फ अपनी शक्ति और वीतरागता ही सहायता दे सकती है, परद्रव्य कुछ मदद नहीं कर सकती । परके भरोसे पर कार्य करना मूर्खता है । अन्तरंग या निश्चय कारण स्वकीय शक्ति है और बहिरंग या व्यवहारकारण, परद्रव्य हैं जो खाली निमित्तरूप है ब मानी जाती है । 'वस्तुत्व' या वस्तुका स्वभाव या सारकी बात, पेश्तर अपनो शक्तिको देखना है पश्चात् निमित्तोंको देखना है | कार्यसिद्धि अनेक कारणोंसे होती है एकसे नहीं खतएव निमित्त व उपादान दोनों सापेक्ष रहते हैं, उनमें मुख्य व गौणका भेद रहता है। इस तरह भोगोपभोगत्याग नामक शिक्षाव्रतका पालना अनिवार्य है । traint संयोगी पर्याय अनादि कालसे हो रही हैं । उसमें भोग उपभोगको चीजें | खाना पोना आदि ) तथा उनका उपयोग कराने वाली कषाएं एवं निमित्तरूप बाह्य पदार्थों व इन्द्रियां आदि सभी संयोगरूप मौजूद हैं और एक दूसरेमें निमित्तता करते हैं। इस तरह आत्मा इन सब faraiसे जकड़ा हुआ है अतएव व्यवहार दृष्टि या निमित्तदृष्टिसे संयोग से छूटने का उपाय दृश्यमान भोग व उपभोगका छोड़ना बतलाया गया है । लोकमें उसीको त्याग व धर्म कहा जाता है । यद्यपि यह पराश्रित होनेसे व्यवहार है व हेय भी है तथापि व्यवहारीजन उसको ही मुख्यता देते हैं। हाँ, प्रारम्भिक ( होन ) अवस्था में वह एक सहारारूप है अशुभसे बनाने वाला है अतएव उसको अपनाया जाता है परन्तु यह हमेशा अपनानेकी वस्तु नहीं है क्योंकि उसके रहते स्वतंत्रताका अनुभव ( स्वाद या सुख ) प्राप्त नहीं हो सकता जो वस्तुका स्वभाव है इत्यादि समझना चाहिये और योग्यता ( पद व स्वभाव शक्ति ) के अनुसार कार्य करना चाहिये । एकान्त दृष्टि रखना उचित नहीं होता !
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पुरुषार्थसिखापाय नोट--'वस्तुतत्त्वं' का अर्थ वस्तुका स्वरूप है। यहाँ पर वस्तु-हिंसा है क्योंकि उसीका प्रकरण चल रहा है, अतएव उसका स्वरूप 'आत्मपरिणामहिसन है' ऐसी स्थिति में प्रतीको सदैव यह कार्य करना चाहिये जिससे आरमाके परिणाम ( स्वभावभाव } न घाते जाय, तभी वह अहिराक बन सकता है। जहाँ संक्लेशता व रागादिक विकारीभाव हो वहीं हिंसा है और वह वर्जनीय है। फलतः हिंसा के मुख्य ( उपादान ) कारण पायरूप विकारीभाव हैं, उनको प्रथम त्यागना चाहिये और पहचात् निमित्त कारणोंको अर्थात् भोगोपभोग व उनके साधनों ( व्यापारादि पंचेन्द्रियके विषयों ) को त्यागना चाहिये। ऐसा यथार्थ समझने वाला जीव ही 'वस्तुस्वरूपका ज्ञाता' समझा जा सकता है अथति निश्चय और व्यवहारज्ञ ( उभयका ज्ञाता } ही सम्बग्ज्ञानी है यह निष्कर्ष है। किम्बहुना : पर देना चाहिये। यहि सात सागको मुख्यता है, अस्तु ।
त्यागी बनने के पहिले यह जानना जरूरी है कि त्याज्य (त्यागने योग्य ) क्या है ? जिसके त्यागने से हो त्यागी बना जा सकता है। धनधान्यादि ये सब तो परद्रव्य हैं, अतः उनके त्यागनेसे ही त्यागी कैसे कहा जा सकता है ? त्यागी तो तब कहा जा सकता है जन्न कि अपने निकट या पासको चीज छोड़ी जाय । विचार करनेपर अपने निकट-पासकी चीज 'कषाय' है विकारीभाव है), अतएव उसके छोड़नेपर ही त्यागी सच्चे अर्थमें हो सकता है, अन्यथा नहीं । बाह्य परवस्तु मात्रके ( धनधान्यादिक ) त्याग देनेसे त्यागी नहीं कहा जा सकता है, जो प्रत्यक्ष दूरवर्ती हैं। बिना कषायभाव के त्यागे जीव 'द्रव्यत्यागी' कहा जा सकता है 'भावत्यागी' नहीं, यह भेद है। फलतः पेदार भावत्याग ( कषाय व मिथ्यात्वका त्याग ) करना ही कर्तव्य है। पश्चात् परद्रथ्यको निमित्त जानकर उसका त्याग करना भी जरूरी है यह ध्यान रहे ।
निष्कर्ष-देखो परदस्तुका त्यास तो अनेक तरहसे होता है। कभी परवस्तु के अभाव होने पर उसका सेवन करना बन्द हो जाता है अर्थात् अपने आप त्याग हो जाता है कभी मूल्य बढ़. जाने से उसका त्याग हो जाता है ( खरीद शक्ति कम हो जानेसे नहीं खरीद सकते । कभी परद्रव्यसे कोई नुकसान हो जानेसे उसे त्याग दिया जाता है। कभी मतभेद या शत्रुता हो जाने पर सम्बन्ध विच्छेद कर दिया जाता है। कभी तीवकषायवश पदार्थ छोड़ दिया जाता है और कभी दबाउरे या भयके कारण परद्रव्य छोड़ दिया जाता है कभी लोभ लालच में पड़कर परद्रव्यका त्याग कर दिया जाता है, कभी राज्यके कायदोंके अनुसार विवश होकर छोड़ देना पड़ता है और कभी कषायको मन्दता होनेपर परद्रव्याका त्याग कर दिया जाता है और कभी वैराग्य आने पर या रागके छूटने पर परद्रव्यका त्याग कर दिया जाता है, ऐसी स्थिति में त्याग करना किसको माना जाय और सच्चा त्यागी किसे कहा जाय ? यह एक प्रश्न है इत्यादि । तत्वदृष्टिसे विचार करने पर एक हो निर्विवाद उत्तर हो सकता है और वह यह कि रागके छूटने पर या वैराग्यको उत्पन्न होने पर जो रागके साथ-साथ बाह्य पदार्थका त्याग किया जाता है, उसको असली त्याग कहते हैं, उसके करने में जरा भी क्लेश या संकोच नहीं होता निर्विकल्प हो त्याग दिया जाता है, पीछे उसका ख्याल था स्मरण भी नहीं आता मानो वह उसके पास था ही नहीं, इतनी निर्लेप दृष्टि
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शिक्षासप्रकरण
उस त्यागोकी हो जाती है। परन्तु इसका मूलकारण कषायभावका छूट जाना { त्याग कर देना । ही है। फलतः जबतक कापाय नहीं छूटती, तबतक उपर्युक्त कारणोंसे परपदार्थका छूटना या स्थागना त्यागोका लक्षण नहीं है 1 जबतक बार-बार इच्छा हो, स्मरण आवे, लालसा रहे तबतक असली त्याग माना नहीं जा सकता। ऐसे ऊपरी ( बाहिरी ) त्यागको अज्ञानी लोक भले ही त्याग कहें परन्तु वह सत्य नहीं है किन्तु असत्य या अभूतार्थ है ऐसा समझना चाहिये। यही मूल भूल निकालना चाहिये। लोककी मान्यता पर निर्भर रहना नहीं चाहिये वह अलौकिक मान्यतासे भिन्न रहती है। लौकिक न्याय व अलौकिक न्यायमें बड़ा फरक रहता है यह सारांश है ।। १६१ ॥ आगे भोगोपनाग त्यागो शिक्षावतीका और भी कर्त्तव्य बताया जाता है ।
খে ভিক্ষা লা লা एकमपि प्रतिजिघांसुनिहन्त्यनंतान्यतस्ततोऽवश्यम् । करणीयमशेषाणां परिहरणमनन्तकोयानाम् ॥१६२।।
पद्य एक जीव घातनका इच्छुक जीव अनंत घातता है। है अमंत जीवोझी काया खंध एक कहलाता है। अत: खंथ थाषरका खाना छोड़ देत प्रतधारी है।
साधारण बह काय कहाते---खासे स्वेच्छाचारी है ।।१६२॥ अन्वय अर्थ आचार्य कहते हैं कि जो जीव ( गृहस्थधावक ) [ यतः एकमपि प्रतिनिधासुः ] एक भी साधारण वनस्पतिका खाने-पीने अर्थात् मोगोपभोग करने में उपयोग करता है अर्थात् और सब साधारण वनस्पतियों आदिका त्यागकर एकमात्र (गड़न्तादि) को खाता है वह [अनंतान निहन्ति ] अनन्त जीवोंका विधात ( हिंसा) करता है, कारण कि उस एक हो बनस्पतिके आश्रित अनंत साधारण जीव रहते हैं [ ततः अशेषाणां अनन्तकायानां परिहरणमघश्यमव करणीयम् ] इसलिये सम्पूर्ण अनन्तकाय ( साधारण ) वनस्पतिका त्याग अवश्य हो कर देना चाहिये, यह भोगोपभोगत्याग शिक्षाव्रतीका कर्तव्य है ।।१६२सा
भावार्थ-जिन जीवोंको वस्तुका स्वरूप तो मालम नहीं हो, और दे त्याग तपस्या करना चाहें तो ठीक तरहसे नहीं कर सकते बल्कि उल्टा मार्ग पकड़कर नुकसान उठाते हैं। फलतः उनको व्रत-अव्रत, हिंसा-अहिंसा, हेय-उपादेय, निश्चय-व्यवहार आदिका ज्ञान अवश्य होना चाहिये। निश्चयसे व्रतका सम्बन्ध आत्मासे है क्योंकि वह आत्माका धर्म या स्वभाव है। और अव्रतका सम्बन्ध भी अशुद्ध निश्चयसे आत्माके साथ हो है क्योंकि वह विभाव या विकारहा है।
१. साधारणकाय बनस्पलि। २. अवती-सीनकषायी।
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पुरुषा पाय
इसी तरह व्यवहारमय से व्रतका सम्बन्ध बाह्य भोगोपभोगको चोजोंके छोड़ने से है और अव्रतका सम्बन्ध भोगोपभोगकी चीजोंके ग्रहण करनेसे ( त्याग न करने से ) है । ऐसी स्थितिमें उनका जानना जरूरी है। तथा हिंसा व अहिंसा हेय व उपादेयका निश्चय व्यवहारसे जानना भी अनिवार्य है। तभी व्रत धारण करना, पालन करना बन सकता है। तथापि व्यवहारको मुख्यता होनेसे व्यवहार पद्धति ( चरणानुयोग ) के अनुसार साधारण आदि वनस्पतियोंका त्याग करना अनेक दृष्टियोंसे हितकर है, इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम दोनों पलते हैं लोकमें प्रतिष्ठा होती है- दूसरे जीव अनुकरण करते हैं-सदाचार पलता है इत्यादि लाभ होता है। तथा मन्दकषायरूप शुभ परिणामों से पुण्यका बन्ध होता है, पापका बन्ध नहीं होता, तब बाह्यविभूतिके पानेसे जीवन सुखमय ate है यही बड़ा लाभ है ।।१६२ ||
अनन्त जीवोंके विधात होनेका खुलासा इस प्रकार है ।
जीव दो तरह के होते हैं ( १ ) असजीव ( २ ) स्थावर जीव | स्थावर जीवोंमें अनन्तकाय जीव हुआ करते हैं । यथा पाँच स्थावरोंमें, वनस्पतिकाय स्थावरके दो भेद माने गये हैं ( १ ) साधारण वनस्पतिकाय ( २ ) प्रत्येक वनस्पतिकाय तथा साधारण वनस्पतिकाय के दो भेद हैं- ( १ ) नित्यनिगोद ( २ ) इतर निगोद। इनमेंसे साधारण जीवों ( वनस्पतिकाय) का शरीर पिण्डरूप अनन्त जीवोंका मिला हुआ रहता है अतएव जब कोई भोजनार्थी पिण्डरूप ( स्कंध नामक ) वनस्पतिका अर्थात् शाक-भाजो आदिका उपयोग ( खाना) करता है तब उसके आश्रित रहनेवाले अनन्ते जीवोंका विधान ( हिंसा ) अवश्य हुआ करता है। ऐसी स्थिति में भोगोपभोगत्याग शिक्षाव्रतके पालनेवाले अणुवती उन अनन्तकाय (साधारण) वनस्पतियोंको खानेका त्याग कर देते हैं, जिनमें लाभ कम और हिंसा' अधिक होती है। विवेकी जन अपना बालचलन बड़े विचारके साथ करते हैं अर्थात् यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं, यद्वा तद्वा ( शिथिलाचार पूर्वक ) प्रवृत्ति नहीं करते, यह विशेषता रखते हैं, किम्बहुना । हमेशा सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र में कोई दोष ( अतिचार ) न लगने पावे यह विचार या लक्ष्य रखते हैं ||१६२ ||
विशेषार्थ साधारण वनस्पति में प्रत्येक भेदको स्कन्ध कहते हैं, जिसमें साधारण वनस्पतिसे असंख्यातगुणे जीव रहते हैं । ( जैसे अपना शरीर ) उसमें अन्दर ( हाथ पाँव जैसे ) असंख्यात - लोकप्रमाण जीव रहते हैं। एक अन्डर में असंख्यात लोकप्रमाण पुलवी पाये जाते हैं ( जैसे हाथ
में अंगुलियाँ ) ( एक पुलवी में असंख्यात लोक प्रमाण आवास रहते हैं । जैसे अंगुलियों में पोराबूटी ) एक आवास में असंख्यात लोक प्रमाण निगोद शरीर ( जैसे अंगुलीके पोरोंमें रेखाएँ ) एक
१. उक्तं च अल्पफलबहुविधादान्मूलकमार्द्राणि शृङ्गवेराणि ।
-
aकमित्येवमवहेयम् ॥ ८५॥ रत्न० श्र०
rain free
अर्थ-- अल्पफल या तुच्छफल, जिनमें रात्रिक कम हों और ओब हिंसा अधिक हो, ऐसे गोले ( सचित्त ) मूली, गाजर, अदरख, नेनू ( धृत), नीमकी कोपल-फूल - केतकी ( केवड़ा ) के फूल इत्यादिका त्याग कर देना चाहिए यह कर्त्तव्य है व्रतीका ।
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शिक्षा करण
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निगोद शरीर में सिद्धराशि अनन्तगुणें जीव पाये जाते हैं । जैसे रेखाओं में अनेक प्रदेश } | इस प्रकार साधारण बनस्पति के एक टुकड़ेमें असंख्यात जोब रहते हैं जिन्हें जिला लोलुप खाते हैं एवं विघात करते हैं ॥ १६२॥
आचार्य भोजनमें अनन्तकायवनस्पति (साधारण) का त्याग करने के सिवाय और भी अमर्यादित नवनीत (मक्खन) आदिका त्याग करना अनिवार्य है, जिसमें बहुत आंव हिंसा होती है - यह बताते हैं ।
नवनीतं च त्याज्यं योनिस्थानं प्रभूतजीवानाम् । यद्वापि पिंडशुद्ध विरुद्धमभिधीयते किंचित् ॥ १६३॥
पद्य
भोजन में मैनू नावामा जो जावोकी योनि है । अथवा पिंड शुद्धि नहिं गती जाँ अशुा ठानी है ।। पिंशुद्धि कई तरह होता है श्रावक अरु मुनि प्रतियों थायोग्य उसको करना है, दृष्टि र रक्षा का || १६३ ||
अन्वय अर्थ -- आचार्य कहते हैं कि श्रावकका कर्तव्य है कि वह | पिशुद्धी प्रभूतजीवानां योनिस्थानं नवनीतं च त्याज्यं ] भोजनको शुद्धिके लिये आहार देने के ग्रासमें असंख्यात जीवोंकी योनि स्वरूप अशुद्ध ( अमर्यादित ) नेनू ( घृत को कतई न देवें, तभी शुद्ध निर्दोष निरन्तराय भोजन देना कहलाता [य किंचित विरुद्धमभिधीयते तदपि स्थापयं ] अथवा अकेला नैनू ही नहीं किन्तु जो कोई भी पदार्थ पिडबुद्धिया आहारशुद्धि में वर्जनीय ( विरुद्ध अभक्ष्य ) हो उसका भी त्याग कर देना चाहिये अर्थात् उसको म स्वयं ग्रहण करे आदि) को भी दे, ग्रह तात्पर्य है || १६३॥
और अन्य व्रतियों (मुनि
भावार्थ- शुद्ध आहार पानका उपयोग करना व्रती नहीं कर सकता वह व्रती बनने वा कहलानेका पात्र नहीं है। व्यवस्था है, उसके अनुसार चलना व्रतोकी कर्तव्यनिष्ठा है, ती नहीं बन सकते । इसीलिये अष्टमूलगुणधारी ही व्रती बन सकता है यह नियम रखा गया है । उसीके भीतर सब रहस्य भरा हुआ है । फलतः व्रती के लिये अभक्ष्य त्यागकी ( हिंसामय भोजन छोड़ने की ) अनिवार्यता है। व्रतीका भोजन-पान शुद्ध ( निर्दोष -हिसारहित ) होना ही चाहिये, इस कठोर सत्यको कभी नहीं भूलना चाहिये अन्यथा सत्र कार ( व्यर्थ ) है । मूलबार
संयमीका पहिला कार्य है जी ऐसा जैनशासन में यहीं मुख्य और आय अभक्ष्य भक्षण करनेवाले जीव कभी
१. व्रतीका भोजन श्रावकके आधीन हैं अतएव दाता श्रावककी पहिले शुद्ध भोजन करनेका नियम होना चाहिये तभी गलती न हो सकनेसे विदोष पुण्यका लाभ होता है ।
गाणं च ।
२. उन उम उपादण एराणं न संजोजणं
इंगाल धूभ कारण अहिा पिसुद्धी
दु
|| २ || मूलाचार पिडशुद्धि अधि० पृष्ठ २३०
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पुरुषार्थसिद्धय
अनगारधर्मामृत freशुद्धि आठ प्रकारसे बतलाई गई हैं, जो विशेषरूप है वह तो पात्रदान देनेवाले श्रावकको उनके लिये करना ही चाहिये किन्तु अपने लिये भी अभक्ष्य या अशुद्ध भोजन का ग्रहण करना त्याग देना चाहिये । विशुद्धि या भोजनशुद्धिका प्रभाव (असर) उपयोग या मनपर विशेष पड़ता है। अभी तो है जैसा खाये अन्न सेसा होवे मन' इत्यादि । श्वेताम्बर आदिमत में मुनि या साधुको नैनूका आहार देना माना गया है, उसका यह खंडन भी है । अस्तु, मर्यादित नैनू बनाम घृत सभी शुद्ध हो सकता है जबकि दूधसे लेकर अन्त तक विधिपूर्वक शुद्धि की जाय अर्थात् दूध लगाकर छानकर तुरंत अग्निपर सपाया जावे, ( अन्तर मुहूर्त के भीतर ) पश्चात् उसको शुद्ध जाउनसे जमाया जावे अर्थात् प्रासुक जाउन होना चाहिये । उसके बाद नैनू निकालने पर तुरंत ही अर्थात् अन्तर्मुहूर्तके भीतर ही अग्निपर तपाया जाये और छानकर उपयोग में ( खाने में ) लाया जाय बस वही मर्यादित व शुद्ध घी है किम्बहुना | वहीं व्रती भक्ष्य है दोष अभक्ष्य है ।
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नोट ---वृतशुद्धि ( शुद्ध घां ) के सम्बन्धमें आठ पहर या चार पहरका विचार पीछेकी कल्पना है। कारण कि जब दूध ( मूल ) से ही शुद्धता बरती जाय तब आठ या चारका विकल्प करना या उठाना ही व्यर्थ है वह कोई महत्व नहीं रखता। नैनू घृतको पूर्वपर्याय है ( मक्खन रूप ) ऐसा समझना चाहिये || १६३||
व्रत के यद्यपि प्रयोजनभूत भोगोंका त्याग करना भी पद व शक्तिके अनुसार होता है तथापि प्रयोजनभूत में भी दिन रात्रिका परिमाण करना बतलाते हैं ।
अविरुद्धा अपि भोगाः निजशक्ति मपेक्ष्य धीमता त्याज्याः । अत्यज्येष्वपि सीमा काकदिवानिशोपभोग्यतया ॥ १६४ ॥
पा
जो है सेव्य पदार्थ वी के शतिप्रमाण उन्हें त्यागे 1 अरु अत्याज्य पदारथ जो हैं दिन रात्रिमा उनको त्यागे ॥
है कय त्रीका सीमित योग्य अयोग्य कोई भी हो । रागद्वेष हूँ उसके क्रम क्रमसे बड़े भागी हो ॥ १६४ ॥
aa
अर्थ
संयोजन दोष ४, कुल
- उद्गम दोष १६, उत्पादन दोष १६ एषणा दोष ( भोजन दोष ) १०, { ४६ दोष रहित या अंगार दोष, धूम दोष, कारण शेष ऐसे सामान्यरूप आठ दोष रहित पिंड शुद्धि होना चाहिए, तो मुनि ग्राम (कवलाहार ) ले सकता है अन्यथा नहीं। व्रत धारण पालन करना सरल नहीं हूँ की धार है ऐसा समझना चाहिये ।
१. पदके अनुकूल अर्थात् प्रयोजनभूत पदार्थ ।
२. ग्राह्य या सेवन करने योग्य पदार्थ ।
२. बड़े भाग्यवान् मुनि मादि पदवीधारी ।
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शिक्षाप्रकरण
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अन्वय अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि [ श्रीमता निजमपेक्ष्य | बुद्धिमान् त्यागी विवेकी पुरुषको चाहिये (उनका कर्तव्य है) कि वे अपनी शक्ति ( पद व योग्यता ) को देख व सोचकर हो [ अत्रिस्वा आप भोगाः स्थाध्या: ] प्रयोजनभूत और पदके अनुकूल भोगोंका भी त्याग करें अर्थात् पद और शक्ति विरुद्ध कोई त्याग आदि कार्य न करें ( यह बंधन है ) इसके अतिरिक्त [ अत्याज्येष्वपि एकदिना निशा उपभोग्यता सीमा कार्या ] जो पदार्थ सेव्य अर्थात् उपभोग योग्य हों (प्रयोजनभूत व पदके अनुकूल हो ) उनमें से भी एक दिन या एक रात्रिका नियम या सीमाकर त्याग करें { अवान्तर त्याग या देशत्याग कहलाता है ) यह विधि है || १६४ ||
भावार्थ- स्याग यम और नियमरूपसे अर्थात् जीवनपर्यन्त और अल्पकालको किया जाता है । तदनुसार व्रती हमेशा प्रयोजनभूत ( अत्याज्य ) पदार्थोंमेंसे भी दिनरात घड़ी घंटा आदिका प्रण ( प्रतिज्ञा ) या नियम करके उन्हें छोड़ता है- ( ममत्व कम करता है) और ऐसा क्रमसे करतेकरते एक दिन वह बड़भागी मुनि आदि महत्त्वपूर्ण पदों को भी प्राप्त कर सकता है या कर लेता है कोई आश्चर्यको बाल नहीं है । आत्मामें अनन्त शक्ति है । जबतक अपनी अनंत शक्तिको जीव नहीं पहचानता ( जानता और उसको भूला रहता है, सभीतक दुर्गति होती रहती है और जब 1 उसका ज्ञान व श्रद्धान हो जाता है तभीसे उसका कल्याण होना शुरू हो जाता है जो शनैः शनैः बढ़ते-बढ़ते अन्तिम लक्ष्य ( सुख शान्तिका स्थान मोक्ष ) को प्राप्त कर लेता है । परन्तु उसका एकमात्र उपाय त्याग ही है अर्थात् वज्ञान एवं रागादिकका तथा आनुषंगिक रूपसे भोगोपभोगादिरूप परपदार्थों का त्याग करना हो अनिवार्य है और यही सनातन ( प्राचीन ) मार्ग है किम्बहुना | इसपर ध्यान देना कर्त्तव्य है अस्तु | जैसी जैसी शक्ति बढ़ती जाय तैसा तैसा त्याग
करता जाय ॥१६४॥
आचार्य कहते हैं कि व्रतीके लिये अपनी शक्तिका निरीक्षण ( संतुलन ) हर समय करना चाहिये यह उसका कर्त्तव्य है ।
पुनरपि पूर्वकृतायां समीक्ष्य तात्कालिक निजां शक्तिम् । सीमन्यन्तरसीमा प्रतिदिवसं भवति कर्त्तव्या ॥ १६५ ॥
ait goes a और etat
पद्म
यही है-- शक्ति निरीक्षण afतको देख त्यागयत
करने का | घरने का ॥
१. यहाँपर भवति एवं कर्त्तव्या दो क्रियाएं हैं, जिससे एक व्यर्थ होकर नियम आहिर करती है कि 'कर्त्तव्या एव' करना ही चाहिये अनिवार्य है ।
२. कार्य या कर्तव्य 1
३. वर्तमान ।
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पुरुषार्थसिद्धधुपाप मित्रम रूपसे सीमा भीतर सीमा व्रतकी करनेका ।
प्रतिदिन ऐसा करते-करते पूर्ण शुद्ध हो जाने का १६५|| . अन्वय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि नती पुरुषोंका कर्तव्य है कि वे [ पुनरपि पूर्वकृतार्थ व तात्कालिकी निजा शनि समीक्ष्य ] बार-बार अपनी पूर्वकी { प्रारंभ की ) तथा वर्तमानकी अपनी शक्ति ( योग्यता का निरीक्षण या मिलान ( संतलम ! करके । प्रतिदिन सीमन्यमलामीमा कसंख्या भवति ] प्रतिदिन नियमरूपसे मर्यादाके भीतर मर्यादा व्रतकी भोगीपभोगके त्यागनेकी करे या करना चाहिये, यह कर्त्तव्य अनिवार्य है ॥१६५।।
भावार्थ-सिंहावलोकनन्यायसे व्रतीको अपने अतों-नियमोंकी खतौनी बार-बार अवश्य ही करना चाहिये, जिसको अनुप्रेक्षा भी कहते हैं। उससे कभी शिथिलता नहीं आने पाती, सतर्कता रहती है । यह तो मंत्रके समान जगानेकी विधि है। फलत: विवेकी दूरदर्शी पुरुष ऐसा करके स्वयं अपना कर्तव्य पूरा करते हैं। उनकी यह स्वात्मष्टि स्वयं उन्हें ही लाभ पहुँचाती है और दूसरे लोगोंको आदर्श उपस्थित करती है, जिससे वे भी अनुकरण कर लाभ उठाते हैं। इस प्रकार संतानपरंपरा धर्म और व्रतकी चली जाती है, क्योंकि धर्म, धर्मात्माओंके बिना नहीं चलता यह नियम है। श्रावकके लिये सत्तरह-सत्तरह नियमोंका पालन करना प्रतिदिन बतलाया है।
भोजने परसे पाने कुंकुमादि विलेपने, पुप्पताम्बूलगीतेषु नुस्यादौ प्रापर्यके 4 || स्नामभूषणयस्त्रादौ वाहने शयनासने, सचितवस्तुसंख्यादौ प्रमाणं भज प्रत्यहं ॥२॥
अS....भोजनका, छह रसोंके त्यागका, जलादि पीनेका, इअफुलेल या टीका आदि लगानेका, माला पहिरनेका, पान स्वामेका, गीतगाने या सुननेका, मृत्य देखने या करनेका, ब्रह्मचर्य पालनेका, स्नान करनेका, गहमा पहिरनेका, वस्त्र पहिरनेका, सवारीका, सोनेका, बैठनेका, सचित्त वस्तुके त्याग करने का प्रमाण ( सीमा ) प्रतिदिन करना चाहिये यह कर्तव्य है। यथाशक्ति कार्य करते रहनेसे वृद्धि ही ( उन्नति ही) होती है, अवनलि ( हानि ) नहीं होती यह नियम है, इसका ध्यान हमेशा रखना चाहिये ॥१६५॥ नियमका अर्थ सीमित समय तक है।
श्रावकके १७ यमव्रत ( जीवन पर्यन्त ) कुगुरु कुदेव कुवृषकी सेवा, अनथदंड अधमय व्यापार । शत मांस मधु वेश्या चोरी परत्रिय हिंसाधान शिकार ।। श्रग्रहिंसा स्थूल सूर अरु दिन छान्यो जल निशि आहार ।
ये सब अनर्थ जगमाही, यावजीब करी परिहार ।। श्रावकका यह कर्तव्य है कि वह यमरूप जोवनपर्यंतको उपर्युक्त वस्तुओंका दृढ़तासे त्याग कर देव, तभी उसके जीवनको सफलता है अन्यथा नहीं। तथा इसके पहिले कहे हुए १७ कार्यों का यथावसर नियमरूपसे ( मर्यादा सहित ) त्याग करे अर्थात् कम-से-कम पर्वके दिनोंमें या अच्छे ।
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शिक्षाप्रकरण अवसरों पर-उन चीजोंका भी अवश्य त्याग करे, जिनका उपयोग बह कर सकता है-वर्जनीय नहीं है यह विधि है। ये सब अशुद्ध जीवनको शुद्ध करने के उपाय हैं सी करना चाहिये किम्बहेना । व्रती विवेकियों का जीवन हमेशा सतर्कत्तापूर्ण एवं जागत जैसा रहता है, वह अपने नित्य कर्तव्य के पालनेमें प्रमादी या गाफिल नहीं होता, क्योंकि शिथिलाचार दोषाधायक माना गया है । यही बात कुन्दकुन्द महाराजने निश्चय व्यवहारके रूपमें कही है कि जो व्रती योगी ( मुनि ) व्यवहार ( अभूतार्थ ) में मस्त या कार्यशील नही होते हैं अर्थात् सोते हैं-व्यवहारको नहीं अपनाते हैं ( प्रमादी नहीं होते ) वे अपने कर्तव्य । निश्चय-भूतार्थ) का पालन भलीभाँति करते हैं और जो साधु व्यवहारमें जागते हैं अर्थात् दिनरात उसी में लगे रहते हैं वे अपना कर्तव्य पालन नहीं कर सकते अथवा मोक्षमार्गीकी साधनामें प्रमाद कर रहे हैं, निंद्य हैं । इत्यादि । १६५ ॥ आगे आचार्य उपसंहाररूप कथन करते हैं।
इति यः परिमितभोगैः सन्तुष्टस्त्यजाति बहुतरान् भोगान् । बहुतर-हिंसा-विरहासस्याहिंसा विशिष्टा स्यात् ।। १६६ ॥
भोगोंकी सीमा करके जो, संतोषी मित होता है। इसीलिए वह बहुभोगीका, सशग खुशीसे करता है। बहहिंसाका त्याग करेसे, विशेष अहिंसा पलती है।
यह सथ लाभ होत विरसीको नहीं प्रतिज्ञा टलती है ।। १६६ ॥ अन्यय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि [ इति परिमितभोगैः सन्तुष्टः यः बहुससन् भोगान् त्यजति ] पूर्व में बतलाए हुए भोगोंका परिमाण ( सीमा ) करके जो प्रती जोव सन्तुष्ट हो जाता है अर्थात् अपनी इच्छाको रोक लेता है और फिर निःशल्य या आकांक्षा रहित होकर बहुतसे भोगोंका त्याग कर देता है [ तस्य बहुतरहिंसाविरहात विशिष्ट अहिंसा स्यात् ] उसके बहतसी या बहत प्रकारको हिंसाका त्याग ( अभाव ) हो जानेसे । मर्यादाके बाहिर सब छूट जाता है । विशेष रूपसे अहिंसाव्रत पलता है अर्थात् वह पूर्ण अहिंसावती जैसा लगता है अथवा उपचारसे महाव्रती कहलाता
'भावार्थ-यहाँ तक भोगोपभोगत्याग नामक तीसरे शिक्षावतका स्वरूप कहा गया है। उसके पालनेका क्रम और फल भी बताया गया है। अतएव उसको पालना ही चाहिये तभी आत्मकल्याण हो सकता है। संयोगों पर्याय में अनादि कालसे अविरत-अत्यागी या अबत दशा जीवकी रहती है, जिससे वह पृथक् नहीं हो पाता है और पृथक हुए बिना नती या एकाकी बन
१. जो भु-सो अवहारे सो जोई जग्गए सकम्मम्मि ।
जो जम्गदि ववहारे सो सुसो अप्पगे कज्जे ॥ ३१॥ मोक्षपाहड़
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定
पुरुषार्थसिद्ध युपा
नहीं सकता। ऐसी स्थिति में वह स दुःखी होकर संसार परिभ्रमण करता है । व्रत या विरतका अर्थ होता है त्याग करना या विरक्त होना । उसमें भी पहिले किसका त्याग करना और किससे विरक्त होना यह विचारणीय है। इसका समाधान यह है कि सबसे पहिले तो मिध्यात्वका त्याग करना है और उसके बाद संसार शरीर भोगोंसे विरक्त होना है अर्थात् उनसे अरुचि करना है । फिर आगे चलकर जिनसे अर्शच होती है, उनका ( संसार शरीर भोगोंका ) यथाशक्ति त्याम करना है अर्थात् सम्बन्ध विच्छेद करना है। इस क्रमसे संसारसे छूटकर मोक्ष जाना है अर्थात् एकाकी बनना है किम्बहुना त्याग तपस्याका बड़ा महत्त्व है। जो मनुष्य मुमुक्षु अपना समय ( जीवन ) अज्ञान और प्रमादमें रहकर व्यर्थ हो खो देता है, वह न आगे ( परभव ) की सोचता है न वर्तमान ( इसभव ) की सोचता है किन्तु मदांध होकर बनगजकी तरह अनर्थ ही करता रहता है, ऐसे नराधमका उद्धार कभी नहीं हो सकता | अतएव जीवको जब विवेक या भेदज्ञान प्रकट होता है तब वह संभलता है और पुरुषार्थी अपनी अशुद्ध परम संयोगो अवस्था से पृथक होने का उपाय भी करता है। वह बाह्य उपाय तो त्याग तपस्याका करता है और अन्तरंग उपाय रागादिकषायोंको छोड़नेका या मन्द करनेका करता है | इस तरह अन्तरंग और बहिरंग दोनों तरहका पर संग ( परिग्रह ) छोड़कर अकेला बनता है उसका क्रम यह है कि व्रत पहिले भोगोपभोग में निरर्गल प्रवृत्तिको छोड़ता है या उसकी सीमा ( मर्यादा ) करता है पश्चात् शक्तिको देखकर नियमरूपसे उसमें भी कमती करता है व इच्छाओं को रोकता है | ऐसा अभ्यास करते-करते अन्तमें सबसे जुदा 'एकत्व विभक्तरूप' वह हो जाता है अर्थात् लक्ष्यसिद्धि कर लेता है इत्यादि ।
शंका समाधान
यहाँ पर यह शंका ( प्रश्न होती है कि भोगोपभोगत्याग शिक्षाव्रत में, देशव्रत ( गुणव्रत ) जैसी गंध आती है ( प्रतिदिन मर्यादा करनेसे ) तब इस भोगोपभोगत्याग शिक्षाव्रतको जुदा नहीं बताना चाहिये ? इसका समाधान इस प्रकार है कि 'सामान्यतभूतस्यापि विशेषस्य प्रयोजनवशात् पृथगुपादानं क्रियते' इस न्यायके अनुसार भोगोपभोगत्याग शिक्षाव्रतका - गुणवतसे जो पृथक् निर्देश किया गया है, उसका खास प्रयोजन हैं जो बड़ा महत्त्वका है और वह यह कि व्रती को ऐसा करना ही चाहिये तभी गुष्णव्रतोंकी सार्थकता सिद्ध होती है अर्थात् वैसा करना अनिवार्य है याने यह विशेषता जाहिर होती है अस्तु || १६६ ||
year और शिक्षा में आचार्योंका मतभेद ( नक्शा )
आचार्य नाम
१ -- श्री समन्तभद्राचार्य
!
गुणवत १ - दिग्वत
२- अनर्थत्यागत ३- भोगोपभोग परिमाणवत
शिक्षाव्रत
१- देशावकाशिक
२- सामायिक
३- प्रोषधोपवास ४ – वैयावृत्य+
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शिक्षासप्रकरण
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२... स्वामि कार्तिकेय
१---देशाधकाशिक २अनर्थदंडत्यागवत २...सामायिक ३.--भोगोपभोगपरिमाणवत ३.-प्रोषधोपवास
४.--अतिथिसंविभाग+ ३...उमास्वामि महाराज २-दिग्द्रत
.....भोगीपभोग एरिमाण २--देशवत
२-प्रोषधोपवास ३.अनर्थदंडत्यागवत ३-- अतिथि संविभाग
४-सामायिक ४-अमृतचन्द्राचार्य
१-दिम्बत
१.-..-सामायिक २- देशवत
२-प्रोषधोपवास ३-अनर्थदंडत्यागवत ३...-भोगोपभोगरिमाण
४-वैय्यावृत्य+ ) नोट-श्रीसमन्तभद्राचार्य । स्थविर ) और स्वामिकातिकेयका मत प्रायः एकसा है सिर्फ शिक्षा में
में वापिकार्तिकेय अतिथिसंविभाग नाम लिखते हैं जिसका अर्थ वैधावृत्य ही होता है नाम भेद है। 'गुणव्रत में कोई भेद नहीं है दोनों आचार्य एक-सा ही मानते हैं । गुणवतमें उमास्वाभि व अमृतचन्द्राचार्यका मत प्रायः एक-सा है। शिक्षाव्रतमें भी माममात्रका भेद है। उमास्वामि अतिथिसंविभाग लिखते हैं अमृतचन्द्राचार्य-वैय्यावृत्य लिखते हैं दोनों। आचार्य गुणवत एकसे ही मानते हैं कोई भेद नहीं है। आगे चौथे अतिथिसंविभाग या वेयावृत्य शिक्षावतका स्वरूप बताया जाता है ।
विधिना दातृगुणवता द्रव्यविशेषस्य जातरूपाय । स्वपरानुग्रहहेतोः काव्योऽवश्यमतिथये भागः ॥१६७॥
पद्य
विधिपूर्वक अरु दातृगुणों सह, प्रध्य विशेष दान करना । मुनिको और श्रेष्ठतियों को-स्वपर अनुग्रह हित देना ॥ है शिक्षा यह वैश्यावृत्तकी----धात्रक इसको सिर धरते ।
अतिथि विभाग इसीकी संज्ञा, भेद नहीं इसमें करते ॥१६॥ १. तत्स्वार्थसूत्रकारने 'विधिद्रव्यदातुपात्रविशेषासद्विशेषः' सूत्र ही लिख दिया है ।।३९।। अध्याय ७
श्लोक नं. ११३ रन थावकाचारमें-- नवपुण्यः प्रतिपतिः सप्तगुणसमाहिसेन शुद्धेन । अपनारंभाणामार्याणामिष्यते दानम ||११३॥ प्रतिपत्ति:..-आदरसत्कार या
आहारदेना आदि बय्यावृत्तिः ।
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पुरुषार्थसिपा
[
अन्वय अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि [ दातृगुणवता विधिना द्रव्यविशेषम्य भागः जातरू ] दाता के गुण सहित श्रावकका कर्त्तव्य है कि वह विधिपूर्वक ( नवयाभक्तिपूर्वक ) खासकर ( निश्चयसे) दिगम्बर वेषधारी मुनिको, और उपचारसे । व्यवहारसे) उत्कृष्ट श्रावकको भी अपना शुद्धद्रव्य या भोजन जो अपने लिये तयार किया गया हो ऐसा उद्दिष्ट दोष रहित ) भोजन, उसमेंसे कुछ हिस्सा | स्वपरानुग्रह हेतोः अवश्यं संध्या ] अपने और उनके लाभ या कल्याणके निमित्त दानमें अवश्य अवश्य देवे । बस, यही चौथा अतिथिसंविभाग ( वैयावृत्य ) कहलाता है || १६७ ।
द
* ४०
भावार्थ - (अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत पालना सरल नहीं है बड़ा कठिन है, उसमें दाता श्रावकको अनेक तरहको सावधानी व शुद्धता रखनी पड़ती है यद्वातद्वा करनेका निषेध है । (१) पहिली और मुख्य सावधानी शुद्ध आहार तयार करनेकी है। वह शुद्ध आहार केवल आटा घो gest शुद्धि नहीं होता किन्तु वह शुद्ध तब होता है जब शुद्ध सामग्री से खुद अपने लिये हो बनाया गया हो - दूसरोंके इरादे या उद्देश्यले न बनाया गया हो, अन्यथा वह उदिष्ट होनेसे अशुद्ध या अग्राह्य हो जाता है, यह आचार्य कहते हैं । द्रव्यविशेषका यही अर्थ ( गायना ) है, उसके प्रतिकूल होना द्रव्यविशेष नहीं है ऐसा समझना । (२) दूसरी सावधानी दातार ( श्रावक ) को आगे कहे जानेवाले ७ गुण सहित होने की है । (३) तोसरी सावधानी नवधा भक्तिपूर्वक आहार दान देनेकी है । (४) चौथा सावधानी ऐसा आहार जातरूप ( दिगम्बर वेषधारी ) मुनि । उत्तमपात्र को हो देनेकी है ( मध्यम या जवन्य पात्रको देनेकी नहीं है ) (५) पाँचवीं सावधानी दाता और पात्रको लाभ पहुँचाने को है कि दातांको पुण्यबंध हो ( परोपकार हो और पात्रको संयम पालने में सहायता मिले, कारण कि संयोगों पर्याय में एकबार शुद्ध भोजनका मिलना अनिवार्य है उसके दिना परिणाम स्थिर नहीं रह सकते - विकारमय - चंचल हो जाते हैं जिससे आस्रव और बंध होता है इत्यादि । परन्तु वह विरक्तिपूर्वक तप बढ़ावनहेतु लेते हैं शरीर पोषण हेतु नहीं लेते यह विशेषता पाई जाती है अस्तु शिक्षाव्रत पालने की विधि पूर्वोक्त प्रकार है सरल नहीं है ऐसा समझना | और श्रावक गृहस्थके लिये जो भोगोपभोग या प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतको पालता है, अतिथि संविभागका करना अनिवार्य है क्योंकि उसके लिये आज्ञा है 'मुनिका भोजन देय फेर निज करहि महारे उस कर्त्तव्यको पूरा करना अत्यावश्यक है ( परस्पर संगति है ) विचार करना - श्रावक लोभ कषाय कम होती है, जिससे पापका बंध न होकर पुण्यका बंध होता है, पात्रोंको संतोष व शान्ति मिलती है। )
विशेषार्थ- हमने अपने अनुभवसे कुछ थोड़ा अर्थ श्लोकका बढ़ा दिया है । श्लोक में आचार्यका मत स्पष्ट जाहिर है कि अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत पालनेवाले श्रावकको चाहिये कि a fafaपूर्वक ( नवत्रा सहित ) और सातगुण सहित दिगम्बरमुनि ( उत्तम पात्र को ही ऐसा शुद्ध ( अनुद्दिष्ट, जो अपने लिये ही बनाया गया ) आहार देवे इत्यादि । फलतः उत्कृष्ट श्रावकको को यह विधि और आशा नहीं है, उसको विधि भित्र प्रकारका है अतः दोनोंकी संगति नहीं बैठा लेना चाहिये अन्यथा आज्ञाविरुद्ध होगा यह कथन निश्वयका है। किन्तु हमने
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शिक्षाप्रकरण
३४१
जानबूझकर व्यवहारसे अभ्यासी उत्कृष्ट श्रावक ( ऐलक क्षुल्लक आर्यिका क्षुल्लिका ) के लिये भी शुद्ध आहार देने की बात लिखी है ऐसा समझना ताकि उद्दिष्टताका दूषण न लगे और अनुदिष्ट भोजन उन्हें प्राप्त हो, शेष विधिके लिये प्रतिबन्ध नहीं है, साधारण रूप हो सकती है विचार किया जावे | यह सब प्रतिपूजा है, जो हम पहिले लिख चुके हैं किम्बहुना ॥ १६७॥
आचार्य - आगे दाता द्वारा करने योग्य विधि ( नवधा भक्ति को बतलाते हैं ।
3
संग्रहमुच्चस्थानं पादोदकमर्चनं प्रणामं च ।
वाक्कायमनः शुद्धि रेषेणशुद्धिश्च विधिमाहुः || १६८ ।।
पद्य
3
आह्वान अरु उच्चस्थान, पादधोवना अन मी । नमोन अभी !" भोजन शुद्धि विधिसे करके नवधाभकि प्रकट करना । इस विधि से जो दान देत है, सद् गृहस्थ उसको कहना ||१६८ ॥
अन्वय अर्थ -- आचार्य कहते हैं कि [ संग्रहच्चस्थानं पादोदकं अनं प्रणामं ] संग्रह करना अर्थात् आदरपूर्वक पास में अपने घरपर बुलाना ( पड़गाहना आह्वान करना ), ऊँचा स्थान ( चीकी आदि) देना, पाँवोंको धोना, स्तुति या आरती करना, दंडक या नमस्कार करना, मनवचनकायको शुद्ध करना अर्थात् मनमें विकार या खोटे भाव न रखना, झूठवचन नहीं बोलना, शरीरको शुद्ध रखना, अभक्ष्यका त्याग करना, तथा भोजनको शुद्ध बनाना अर्थात् मर्यादित सामग्रोसे अपने खुदके लिये बनाना और वहीं निरुद्दिष्ट देना । यह विधि आहारदानकी हैं गणधरादि आचार्य कही है | परन्तु जो दाता ( गृहस्थ ) खुद हो बेसा नहीं करता है और सिर्फ वचनोंसे पैसा कहता है, वह पात्रदान देनेका अधिकारी नहीं है-( असल बात तो यह है ) | ऐसा करना सबसे बड़ा शिथिलाचार व पाप है, जिससे गृहस्थदाताको बहुत नुकसान होता है यह ध्यान रखना चाहिये, यही गुप्त पाप कहलाता है ।। १६८ ।।
भावार्थफलभावोंका लगता है, वचनों या शरीरकी क्रियाओंका नहीं लगता, यह नियम है। तब भाव शुद्ध हुए बिना अच्छा फल कैसे मिलेगा ? नहीं मिलेगा । फलतः भाव शुद्ध करनेके लिये पहिले निमित्तरूप बाह्य अशुद्ध चीजोंके उपयोग ( स्तेमाल ) करनेका त्याग कर देना चाहिये
१. आदरपूर्वक पास बुलाना ( पड़गाहना ) या प्रार्थना करना ।
२. पांव घोवना ।
३. आरती उतारना स्तुति पढ़ना ।
४. नमस्कार करना ।
५. भोजन शुद्धि करना अर्थात् शुद्ध भोजन है ( अपने लिये बनाया गया है ) ऐसा कहना ।
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কখৰিকাজ यह लौकिक विधि है ( व्यवहार पर । ऐसी स्थितिम प्रतीकी या थावकको अभश्यका श्याग भोजनपान में अवश्य कर देना चाहिये अर्थात् श्रावकको आट मूलगुण धारण कर लेना चाहिये, तभी वह स्वयं शुद्धाहारी होकर दूसरोंको दशुद्धाहार दे सकता है अन्यथा नहीं, यह पका नियम है। जो लोग अज्ञानतासे पांव धोने के पानीको आचमन करते हैं या पीते हैं वे शुद्धता खोते हैं। क्या शुद्धाहारी बह धूल कीचड़ भरा जल पी सकता है ? उसके पीनेमें शुद्धता कहाँ रही, जो अशुद्ध गस्ताकी चीजोंसे संयुक्त हो, जरा विवेकसे देखो और विचार करो। किम्बहुमा । मल या मैल कभी शुद्ध या शुचि नहीं होता यह ध्यान रहे | इसी तरह 'अर्चन'का अष्ट द्रव्यसे पूजन करना नहीं है, अपितु शुल भक्तिपूर्वक आहार देना वेयावृत्ति करना गुणगान करना इत्यादि है | उमाको दूसरे शब्दोंमें पूज्य आचार्य समन्तभद्र महाराजने श्लोक नं० ११४ र थामें प्रतिपूजा शब्दसे उल्लेख किया है और श्लोक में० ११३में प्रतिपत्ति शब्दसे उल्लेख किया है जो श्रावकके देवपूजा गुरुपास्ति आदि ६ नित्यकर्मों में शामिल है उसीका नाम गुरुको उपासना है। यदि सप्रमाण कथन मिले तो विपरीत धारणा या श्रद्धाको बदल देना सम्यक्त्व कहलाता है। नामभेद हो जाना सम्भव है परन्तु अर्थभेद नहीं होना चाहिये तभी लाभ होता है अस्तु ॥१६८।।
नोद ---अष्टद्रव्यसे पूजा देवकी ही होती है अन्य ( गुरु )को नहीं होती। इसमें आर्ष प्रमाण 'परमात्मप्रकाश उत्तरार्धमें---
दाण दिसणऊ मुणियरहि, णवि पुज्जिड जिगहु ।
पंच ण दिड परमगुरु किमु होसह मियलाहु ॥१६॥ इसको संस्कृत टोका और भाषाटोका पं० दौलतरामजी कृत में स्पष्ट लिखा है सो देख लिया जाय। भ्रममें न रहा जाय । आचार्य आगे दाताके ७ सात गुण बताते हैं ।
ऐहिकफलानपेक्षा शान्तिनिष्कपटता न भूयत्वम् । अविषादित्वमुदित्वे निरहंकारित्वमिति हि दातगुणाः ॥१६२।।
मौकिकफलाकी चाह बिना अरु अमावान् निश्छल होना । इरिहित प्रसाचित अरु अहंकार शून्यहि होना ।। खेदरहित होना ये सातहि गुणदाताके निश्चित है। फल उनको मिलता है अद्भुम, जो इनार अवलम्बिस हैं ॥१६९।।
१. उक्तं च-परिग्रहमच्चस्थान पादोदकमचनं प्रणामं च |
वाक्कायमनःशुद्धिरेषणशु विश्च विधिमाहुः ।। नवधा भक्ति ।। रन था. श्रद्धातुष्टिर्भक्तिः विज्ञानमलुब्धता मा सस्वम् । यस्यते सप्तगुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति ।। दाता ७ गुण ॥ रत्न श्रा
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शिक्षणप्रकरण
建物质
अश्वप अर्थ आचार्य कहते हैं कि [ ऐहिकफलानपेक्षा, क्षान्तिः, विष्कपटता, अनसूयस्त्रं अि urrears, fनरकारित्वमिति हि दातृगुणाः सन्ति ] इस भवके फलको इच्छा नहीं रखना ( हमारा अमुक कार्य सिद्ध हो जाय इत्यादि नहीं विचारना ) अर्थात् दान देते समय पूर्णसमनिरपेक्ष रहना, क्षमाभाव धारण करना ( स्वभाव रखना | मायाचार या कपट नहीं करना, ईर्षाभाव नहीं करना ( न आने पर दुखो नहीं होता ) प्रसन्नचित्त रहना ( प्रमोद या हर्षं रखना-दिगो न होना ) अहंकार नहीं करना ये सात गुण दातायें होना चाहिये वही समर्थ दाता कहलाता है अन्यथा दोषवाला दाता है, इत्यादि सोच लेना चाहिये ।। १६९ ।।
भावार्थापेक्षण करते समय अपना कर्तव्य समझकर कार्य करे कोई विकल्प वा चिन्ता न करे। यह सोचे कि यदि संयोग होगा तो दे देवेंगे और न होगा तो जब होना होगा तब देंगे क्या बिगड़ेगा वह तो वस्तुका परिणमन है जो यत्नसाध्य नहीं है, अर्थात् पुरुषार्थसे सिद्ध नहीं होता इत्यादि संतोष और समभाव बराबर रखे यह महान् उदारता है जो विकारोभावोंको स्थान नहीं देती इत्यादि । इषीका नाम निष्कामभक्ति है, इसका महान फल मिलता है किन्तु सकामभक्तिका फल अल्प मिलता है अतएव वह वर्जनीय है |
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यस्त पर्व सारं ज्ञान
।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडित बुधाः ॥ यह नीति है ।
आगे आचार्य देवद्रव्य ( आहारादि ) की विशेषता बतलाते हैं ।
गगद्वेषासंयम मददुःखभयादिकं न यत्कुरुते । द्रव्यं तदेव देयं सुतपःस्वाध्यायवृद्धिकरम् ।। १७० ॥
पथ
रागद्वेष अथिति अरु मद भी दुःख भयादिक नहि हो । ऐसा देय है मुभिको ae स्वाध्याय वृद्धि होवें ॥ ग्रह कर्तव्य दानाका, इतनी बुद्धि होय जिसमें । उक्त दोष उपजें जिस वसे देनेसे नहि फल उसमें ॥ १७० ॥
अन्वय अर्थ आचार्य कहते हैं कि [ यत् यं रागद्वेषा संयम मददुःखभयादिकं न कुरुते ] जो द्रव्य | आहारादि ) पात्रको ( मुनिको ) रागद्वेष असंयम मद दुःख भय आदि विकारोभावोंको उत्पन्न न करे तथा [वाध्यायवृद्धिकरं तदेव देयमिति 1 तप स्वाध्याय ध्यान आदिका बढ़ानेवाला हो, ऐसा शुद्ध ( उत्तम । द्रव्य ही दानमें देना चाहिये । इसके प्रतिकूल फल देनेवाला द्रव्य कभी नहीं देना चाहिये यह श्रावकका कर्तव्य है- बुद्धिमानी है ॥ १७० ॥
भावार्थ -- देयद्रव्य अनेक प्रकारका होता है और वह निमित्त कारणरूप है, उसके निमित्तसे जीवों के परिणाम भी तरह-तरह के होते हैं अर्थात् अच्छे निमित्तसे अच्छे परिणाम होते हैं और बुरे
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पुरुषार्थसिद्ध्युपायें
निमित्तसे बुरे परिणाम होते हैं । उसमें भी भोजनके निमित्तोंका प्रभाव ( असर ) खासकर आत्मा पर पड़ता है 'अतएव भोजनका शुद्ध होना सबसे जरूरी है। तभी तो श्लोकमें मुनियोंको देनेवाला भोज्यद्रव्य उत्कृष्ट होना बतलाया है जिससे रागद्वेषादि विकारोभाव न हों और तप एवं स्वाध्यादिमें बाघा न आवे न स्वास्थ्य बिगड़े अन्यथा निमित्तताका दोष दाता पर होगा अर्थात् दाता उस दोषका अपराधी सिद्ध होगा । मूलघाट में इके एक दृष्टान्त दिया गया है कि जिस प्रकार कोई शिकारी थोडेसे पानी ( गड्ढा ) में मौजूद मछलियोंको बेहोश करके पकड़नेका इरादा रखकर कुछ मादक द्रव्य ( मदिरा आदि ) उसमें डालता है। उस जलको मछलियाँ पोती है और साथ-साथ मेंढक भी पीते हैं। परन्तु फलस्वरूप मछलियां बेहोश या मदोन्मत्त हो जाती हैं, उन्हें शिकारी आसानीसे पकड़ लेता है किन्तु मेंढक मदोन्मत्त नहीं होते न उन्हें वह पकड़ता हैं। इसका सारांश, उद्देश्य या इरादा के अनुसार फलका लगना है अर्थात् उद्देश्य ( संकल्प ) का असर अवश्य पढ़ता है। मछलियोंको बेहोश करनेका इरादा शिकारीने किया था अतएव उनपर ही मदिराका प्रभाव पड़ा, उनके साथमें रहनेवाले मेंढकों पर नहीं पड़ा |
ऐसो स्थिति ( न्याय) में पात्रों को या मुनियोंको 'उद्दिष्ट' भोजन देना ( उनके निमित्तसे बनाया गया भोजन देना ) मना है - निषिद्ध है, नहीं देना चाहिये, न जानकार मुनिको वह der चाहिये यह विधि ( आगमाज्ञा ) है | इसके विरुद्ध करना या चलना बड़ा अपराध है । किम्बहुना | ध्यान दिया जाय । व्रतका पालना सरल नहीं है-खांडेकी बार है, लड़कों का खेल नहीं है । जो शक्ति व योग्यता रखते हों उनको हो उच्च व्रत पालना व धारण करना चाहिये तथा उनको ही दीक्षा देना चाहिये, सभी मनचलोंको नहीं, यही पुष्टि श्लोक नं० १८ में पेश्तर की गई है । जिन्हें जिनवाणी पर आस्था (श्रद्धा) और भय होगा वे ही उसका आदर और पालन करेंगे, सभी नहीं कर सकते यह तात्पर्य है । भावुकता में आकर यहा तद्वा करना अनुचित है ॥ १७० ॥
आचार्य पात्रोंके भेद बतलाते हैं, जिन्हें दान दिया जाता है।
पात्रं त्रिभेदमुक्त संयोगो मोक्षकारणगुणानाम् । अविरत सम्यग्दृष्टिः विरताविरतरच सकलविरतश्च ।। १७१ ।।
पद्य
मोक्षमार्गकी प्राप्ति जिसे, हो वह ही पात्र कहता है ।
तीन भेद उसके होते हैं, अविरत आदि विख्याता है |
१. जह मच्छयाण पसदे मदद मच्छया हि मज्जन्ति ।
ण हि मंडूगा एवं परमदृकदे जदि विशुद्धो ॥ ६७ ॥ मूलाचारविशुद्धि अधिकार
२. चतुर्थ गुणस्थानवाले जघन्य पात्र ।
२. पाँचवें गुणस्यानवाले मध्यम पात्र ।
४. छठवें आदि गुणस्थानवाले उत्तम पात्र ।
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शिक्षामतप्रकरण
चौथे पंचम षष्ठम गुणकृत, क्रमशः नाम धराप हैं । मोक्षमागके चालनहारे, जातिभेद ठुकराए हैं ।। १५१ ॥
अन्वय अर्थ-आचार्य आगे कहते हैं कि [ मोक्षकारणगणानां संयोगः पायं, विभेदमुकं ] मोक्षके कारणभूत गुणा ( सम्यग्दर्शनादित्रय ) का संयोग अर्थात् प्राप्ति, जिसको हो जाये, वह 'पात्र' कहलाता है। उसके तीन भेद आगममें कहे हैं। यथा | अविरतसम्यग्दष्टिः, विरताविरसइत्त, सकलविच अविरतसम्यग्दष्ट चतर्थ स्थानवाला । १ जघन्यत्र । विरतावित अर्थात पंचम गुणस्थानवाला (२) मध्यमपात्र । सकल तो अर्थात् छठवां आदि गुणस्थानवाला ( ३) उत्तम पात्र । इनका लक्षण या स्वरूप पेश्तर कई बार बताया जा चुका है सो समझ लेभा ।। १७१ ।।
भावार्थ-मोक्षके कारणरूप गुण या मार्गरू उपाय तीन हैं, सम्यादर्शन, सभ्यज्ञान, सन्याचारित्र । इनमेंसे जिन्हें एक या दो या तीनों प्राप्त हो जाते हैं वही 'पात्र' कहलाता है। और जिसको ये प्राप्त न हो वह अपात्र या कुपात्र कहलाता है व उसको मोक्ष प्रास नहीं होता, वह संसारमें ही घूमता रहता है। यहाँ पर कार्यपर्यायको मुख्यता होनेसे व्यक्तिरूप { प्रकट हए) सम्यग्दर्शनादिकी प्रामि वाला हो पात्र' कहा गया है अर्थात् जिसके भव्यत्व शक्तिका विकास हो चुका हो वही 'पात्र' है। वैसे तो कारणको अपेक्षासे जिसके भव्यत्वशक्ति ( गुण । बा विकास होनेवाला हो वह भी यात्र' (योग्यता वाला ) कहलाता है ऐसी शास्त्रीय चर्चा है, परन्तु अभी यही पर कारणपर्यायका जिक्र ( कथन ) नहीं है सिर्फ कार्यपर्यायका है । तदनुसार चतुर्थ गुणस्थानवाला अवती-असंयमी भी, सम्यग्दर्शन प्राट हो जानेको अपेक्षासे 'पात्र' कहा गया है वह पात्रोंको श्रेषामें मामिल है। इसी तरह विरताविरत पंचम गुणस्थानवाला पूर्ण व्रतो नहीं है फिर भी सम्यग्दर्शनको अपेक्षासे 'पात्र' है। छठा गुणस्थानवाला भी अंतरंग परिग्रह रहित पूर्ण व्रती नहीं है तथापि सम्यग्दर्शनकी अपेक्षासे 'पात्र' है इत्यादि। अतएव मोक्षमार्गी तीनोंको समझना चाहिये किम्बहुना । विना सम्यग्दर्शनके 'पात्र' नहीं हो सकता ।
तब प्रश्न होता है कि क्या द्रव्यलिंगी मुनि ( सम्यग्दर्शनके विना २८ गुणधारी दिगम्बर मुनि ) पात्र नहीं हो सकते ? क्या ये पात्र या कुपात्र है ? इसका उत्तर इस प्रकार है कि निश्चयनयसे वे ( सम्यक्त्वके विना ) मोक्षमार्गी नहीं हैं न 'पात्र' है किन्तु वे व्यवहारनपसे प्रतादिक पालनेको अपेक्षामे 'कुपात्र' हैं अपात्र नहीं हैं। कारण कि वे व्रतादि पूर्ण धारण करते हैं अर्थात उनके करपानुयोगके अनुसार 'सम्यग्दर्शन' तो है नहीं, किन्तु चरणानुयोग के अनुसार बाह्य, चारित्र पाया जाता है जिससे असंयमी व अब्रती नहीं हैं। लेकिन वे मिथ्याल साथमें होने की वजहसे 'कुपात्र' कहलाते हैं। तथा वे अपात्र नहीं है, इसलिये कि उनके सिर्फ सम्यग्दर्शम नहीं है शेष नत हैं । परन्तु अपात्रके म सम्यग्दर्शन होता है मत होते हैं यह भेद है, जैसे संड मुमंड फकीर वगैरह। ऐसा समझना चाहिये 1 फलांशमें--पात्रीको दान देनेसे सभोगभूमिके सुख मिलते हैं और कुपायोंको--( सम्यक्त्व . रहित व्रतधारियोंको ) दान देनेसे कुभोगभूमिके सुख मिलते हैं और अपात्रों को दान देनेसे कोई
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पुरुषार्थसिद्धयाय खास फल नहीं मिलता वह दान व्यर्थ जाता है इत्यादि । व्यवहारमयको मान्यतामें भी कुछ अंश सचाईका होना चाहिये तब वैसा माना जा सकता है अन्यथा वैसा नहीं माना जा सकता। तदनुसार 'द्रव्यालगोके यहाँ' सचाई ( सम्यग्दर्शनादित्रय )का कुछ भी अंश नहीं है, अतएव प्रवद्वारनयसे भी 'द्रव्यलिंगी' मोक्षमार्गी नहीं है यह निर्धार है। हाँ, दयादानको अपेक्षास अपात्र आदि दीन दखो सभी जोवोंको दान दिया जा सकता है. उसकी मनाही नहीं है, वह तो करणादान है जो मन्दकषायका फल है अर्थात् कपायकी मन्दतासे होता है, उसमें परोपकारको भावना रहती है, अपने स्वार्थ पूर्तिकी भावना नहीं रहती, यह भन्दकषाय व तीव कषायमें भेद है इसका समझना चाहिये। मूलमें दो भेद पात्रोंके हैं (१) पात्र (२) अपात्र। पात्रों ( सुपात्रों के ३ भेद उत्तम, मध्यम, जधन्य ।। १७१ ।। अपात्रोंके दो भेद (१) कुपात्र (२) अपात्र । लक्षण निम्न प्रकार है !
उत्कुष्टपानमन मारमणुव्रताढ्यं मध्यं धतेन रहितं सुशं जघन्यम् ।
निर्देशनं प्रतनिकाययुत्त कुपात्रं, युग्मोज्झितं नरमपात्रमिदं हि विद्धि ॥ सय ५० आग पात्रों के विषय आचायोका मतभेद बताया जाता है।
((१) उक्तं चसावयगुणहि जुत्ता पमतविरदा य मजिसमा होति ।
जिपमयणे अशरता उपशमशीला महासत्ता॥१६॥ स्वा० अनु अर्थ----पाँचवें व छठवें गणस्थानवाले मध्यम पात्र हैं तथा ७३ गुणस्थानवाल भी मध्यम पात्र हैं। तथा जिनवाणीका अभ्यास करनेवाले श्रुतज्ञानी ८ वें गुणस्थानसे लगाय ११ वै गुण. स्थानवाले शुक्लध्यानी उत्तम पात्र हैं, उपशमधेणा मांड़नेवाले ॥१९६॥ )
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आबासएण जुसो समणी सो होदि अंतरंगप्पा ।
आवासयपरिहींणो समणो सो होदि बहिर) ।। १४५|| नियमसार, कुन्दकुन्दाचार्य । अर्थ---जो अती ६ छह आवश्यक सहित होता है, वह मुनि सम्यग्दष्टि ( अन्तरात्मा ) है । और जो ब्रतो ६. छह आवश्यक रहित होता है, वह व्यलिंगी मुनि है (बहिरात्मा है) मिथ्यादृष्टि है।
..
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१. सागारधर्मामृत श्लोक ६७ में देखो अध्याय २ दूसरा । यथा--
न्यम्मघ्योसमकुत्स्यभोगजगतीभुक्तावशेषाद्वृषासादकपात्रथितीर्णभुक्तिरसुद्ग्देवो यथास्वं भवेत् । सद्दष्टिस्तु सुपावक्षनसुकृतोद्रेकात् सुभुक्तोत्तमस्त्र मर्यपदोश्नुते विपदं ब्यर्थस्थपाने व्ययः ॥६७।।
अध्याय २
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शिक्षाप्रकरण इसीके अन्तर्गत अनुष्टुपुश्लोक जन्यमध्यमोत्कृष्टभदादविरतः सुक् ।
प्रथमः क्षीणमोहोऽस्यो मध्यमो मध्यमस्तयोः ॥१५५।। अर्थ-चतुर्थ गुणस्थानवाले जघन्यपात्र हैं, और १२ बारहवें गुणस्थानवाले उत्तमपात्र हैं तथा चतुर्थ और बारहवेके बीचवाले अर्थात् ५ वेसे ११ वें तक गुणस्थानवाले जीव मध्यमपात्र हैं ऐसा समझना चाहिये ॥१४||
(३) च--
अमृतचन्द्राचार्यका मत श्लोकनं १७१में लिखा ही है ---- त्रिभेदमक्तभिस्थादि ।
नोट.... पूर्वोक्त प्रकार कुछ मतभेद आचार्योंमें परस्पर पाया जाता है, उसे समन्वित करना चाहिये । न्यायके अनुसार सबसे स्थविर आचार्य कुन्दकुन्दका मत अनुकरणीय व मननीय है-- किम्बहुना ! उसीसे मिलता-जुलता मत्त स्वामी कार्तिकेय जीका भी है ऐसा हमारा ख्याल है । अतएव बहुचचित मतको श्रेष्ठ स्थान दिया जाना चाहिये ॥ १७१ ॥ आचार्य आगे दानका फल बतलाते हैं । यथा---
हिंसायाः पर्यायो लोभोत्र निरस्यते यतो दाने । यस्मादतिथिवितरणं हिंसाध्युपरमणमेवेष्टम् ॥१७२।।
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पटा
पात्रदान से देखो, लोभकयाथ विनती है। लोम कषायरूप है हिंसा--दान देससे टलती है । इसीलिये मैदान वितरना.....पात्रों को बतलाया है।
पुण्यबंध अरु हिंसा टलना दो विध लाभ सुझाया है ।।१७२।। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ अत्र दाने हिंसायाः पर्याय: लोभः निरस्यते इस पात्रदान के देनेसे हिमा ( पाप ) को पर्याय लोभ कषायका अभाव या विनाश होता है। [ सम्मात अतिधिवितरणं हिंसान्युपरमणमेचेष्टम् ] इसलिये पात्रों ( अतिथियों को दान देना मानो हिसाका छूटना अथवा अहिंसा का पालना ही है। ऐसी स्थिति में दानका देना अनिवार्य है, देना चाहिये ।। १७२ ।।
भावार्थ---श्रावकको शोभा देवपूजा-पात्रदान, गुरूपासना आदिके बिना नहीं हो सकती, अतएव देवपुजादि कार्य करना श्रावका मुख्य कर्तव्य है। इसके विपरीत जो दानपुण्य, यातिलाभ . पूजादिके निमित्तसे या उद्देश्यसे किया जाता है, उसका फल भी विपरीत होता है क्योंकि वह तीनकषायसे किया जाता है अर्थात् ख्यातिलाभ पूजा ( प्रतिष्ठा ) की चाह होना तोड़कषाय
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पुरुषार्थसिद्ध्युपाय
कहलाती है, जो त्याज्य है, उसके पीछे बड़े-बड़े त्याग ( दान आदि ) प्राणी कर डालते हैं, उनके करने में वैराग्य या अरुचि नहीं होती न परोपकारकी भावना होती है अतः वह तोत्रकषाय है ऐसा समझना चाहिये अस्तु । सच्चा दान वही है जिसमें किसी तरहका लोभ ( बाह न हो अर्थात् ख्याति ( लोकप्रसिद्धि ) लाभ ( धनादिककी प्राप्ति ) पूजा ( नामवरी-आदरसत्कार) की बांछ न हो किन्तु लोभ नष्ट हो जाय, और फलस्वरूप आत्मस्वभावका घात न होनेसे 'अहिंसा' धर्म पले वस, वही दान है ऐसा समझना चाहिये। अरे ! फल मिलना तो आनुषंगिक रहता है और वह परिणामोंके अनुसार हुआ करता है, चाहे उसकी चाह ( आकांक्षा ) की जाय या न की जाय, वह तो मिलेगा ही निश्चित है ! तब माँग कर नीचा क्यों बनना ? बिना मांगे ( चाहे ) मिलने वालोंको वह उचित नहीं है- शोभा नहीं देता यह तात्पर्य है । फलतः निरपेक्ष होकर पात्रदान देना आवश्यक है— गृहस्थ श्रावकका कर्तव्य है ( मध्यम श्रावक तक कर सकता हैं । दान देते समय भक्तिस्तुतिरूप प्रशस्त राग ( शुभराग ) होता है जिससे पुण्यका बंध भी होता है। अतएव संवर निर्जरा पुत्रको करनेवाला पात्रदान अवश्य देना चाहिये । यों तो श्रावकके छहों कार्य ऐसे ही हैं ||१७||
आचार्य आगे पात्रदान न करनेसे हानि बतलाते हैं---
गृहमागताय गुणिने मधुकरवृत्त्या परानपीडयते । वितरति यो नातिथये स कथं न हि लोभवान् भवति १ ॥ १७३ ॥
पक्ष
बिना बुलाये आनेवाले गुणनिधिके जो धारी हैं। अमर कियावत् लेनेवाले परपीड़ा परिहारी हैं |
ऐसे यतिको नहि देता जो भोजनदान आदि श्रावक । वह लोमी निन्दा पाता है, हिंसापाप करत व्यापक ३३१७३॥
अन्वय अर्थ आचार्य कहते हैं कि [ यः गृहमागताय ] जो श्रावक विना निमंत्रण दिये वरपर आनेवाले ( स्वयं ही भिक्षार्थ चर्या करनेवाले और [ मधुकरवृत्या परानपीडयते ] अपनी मधुकरो वृत्तिसे दूसरे दाता आदि जीवोंको दुख बाधा नहीं पहुंचाते । संक्लेश परिणाम नहीं करते ) जैसा कि भौंरा फूलों पर बैठकर मात्र रस लेता है किन्तु फूलों को नुकसान नहीं पहुंचाता | तथा [ गुणिने अतिषये ] महान गुणी ऐसे अतिथि अर्थात् उत्तमपात्र मुनि ( अभ्यागत अतिथि ) को [ न हि वितरति ] आहारादि नहीं देता अर्थात् अपने लिये बने भोज्यमेंसे - हिस्सा नहीं बैदाता [, सः कथं भवान् न भवसि ] वह श्रावक अत्यन्त लोभो नहीं होता क्या ? अवश्य लोभो ब हिंसक होता है व कहना चाहिये || १७३ ||
भावार्थ-साधु या मुनिको वृत्ति या चर्या मुख्यतया ४ चार तरहको बतलाई गई है ( १ ) "भ्रामरीवृत्ति ( जो अभी बतलाई है ) ( २ ) गोचरीवृत्ति, जिसमें मुनि नोची दृष्टि किये हुए
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शिक्षा करण
Tere are परिकर आदिको नहीं देखा जाता है, कौन कैसा है इत्यादि सिर्फ बुद्ध भोजन पर दृष्टि रखता है - भोजन कर पीछे है। जैसा जगलमें जाकर antar शोभा आदि नहीं देखतो उसका ध्यान धरोवर पर ही रहता है । (३) अनमृक्षणवृति अर्थात् जैसे गाड़ीको चलाने के लिये ओंगन या चिकनाई देने की जरूरत होती है किन्तु धोका ओंगन है या तेलका इसकी जरूरत नहीं है, उसी तरह मुनिको रूखा-सूखा शुद्ध भोजन का ही प्रयोजन रहता है दूसरा नहीं ( ४ ) गर्तपुरणवृत्ति अर्थात् जैसा गड्ढा पूरनेके लिये कैसे भी पत्थर कचरा डालने की जरूरत रहती है वह गड्ढा पूर दिया जाता है, उसी तरह अतिथि साधु रसविरस ठंडा गरम भोजनका ख्याल न रखकर स्वभावसे उदर भरता है इत्यादि विशेषता सुलि, भोजनादि में रखते हैं। इस प्रकार समयपरिणामी साधुको दान देनेमें श्रावको अपना अहोभाग्य समझना चाहिये अर्थात् मेरा जीवन सफल हुआ, ऐसा मानना चाहिये क्योंकि भाग्वान्को ही पात्रदानका अवसर मिलता है, जिसके सम्पूर्ण योग्यता हो वह योग्यता पुण्य वा धर्मसे ही प्राप्त होती है अतएव दानपुण्य अवश्य करना चाहिये किम्बहुना | उससे हिंसापाप नहीं लगता, पुष्पबंध होता है। लोभी पापबंध करता है अर्थात् लोभरूप विभावभाव से स्वभावभावका घात करता रहता है और पुण्यका
भी नहीं होता यह दुहरी हानि लोभी को होती है लोकाचार भी वह होन दृष्टिसे देखा जाता है अतएव पात्रदान अवश्य देना चाहिये || १७३ ॥
आचार्य यथार्थ त्यागी व दानी कौन है और किसको उसका अहिंसा फल मिलता है यह बताते हैं ।
कृतमात्मार्थं मुनये ददाति भक्तमिति भावितस्त्यागः । अरतिविषादविमुक्तः शिथिलितलोभो भवत्यहिंसेच ।। १७४ ।।
पद्य
arraist gear जो नित अपने ऐसा दाता अपने खातिर बना दुःख संकोच न सभी असा
मन में रखता है । भोग्य दे देता है ॥
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होता उसको निर्लोभी वह होता है। पालन कर सार्थक नाम ज करता है ।। १०४ ।।
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ भावितस्त्यागः आरमार्थ कृतं भर्फ मुनयेति ] जो श्रावक त्याग या पात्रदानको भावना या प्रबल इच्छा रखता हो और खुद अपने लिये बनाया गया आहार (भोजन) भी निःसंकोच हो उदारतापूर्वक मुनिको दे देता हो तथा अतिविषादfare ] दुःख और पछतावा कतई न करता हो । [ शिविलितलोभः एव अहिंसा भवति ] वही उदारपरिणामी श्रावक निर्लोभी | दामी ) होता है और उसके ही अहिंसाव्रत पलता है ऐस समझना चाहिये || १७४ ॥
भावार्थ -- मनुष्य को या प्राणिमात्रको भोजन ( खाद्य ) सबसे प्यारा पदार्थ हैं उसको मौके
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23-23:
पुरुषार्थसिद्धथुणय पर किसीको भी नहीं देना चाहता है यह प्राकृतिक नियम है। ऐसी स्थितिमें यदि किसी कारणवश अपना भोजन किसी दूसरेको देना पड़े तो उसे बझ दुःख व पछतावा होता है, जो लोभकी निशानी । सूचक ) है और हिसाको जननो है। इसके विपरीत जो इतना उदार हो कि अभ्यागत के लिये ( मुनिके लिये ) अपना निजी जो अपने लिये ही खास बनाया गया है-ऐसा भोजन भी बिना दुःख व संकोचक दे देवे, उसे वास्तव में मिलोभी समझना चाहिये अर्थात सच्चा निरपेक्ष दानी चही है-वही त्याग व दानको भावना रखने वाला है और फलस्वरूप दानका फल अहिंसा धर्म, उसे ही प्राप्त हो सकता है। उस भोजनसे अतिथिको भी लाभ पहुंचता है अर्थात् उद्दिष्ट भोजन करने का दोष ( अपराध ) उसे नहीं लगता और श्रावक भी निमित्तमात्र होनेसे अवता है। मूलमें यही निर्दोष भोजन है किाबहमा । यह खास तौर से विचारणीय है। यहाँ तक दानी और उसका फल निश्चयसे बताया गया है, इस तरह यह अध्याय समाप्त होता है। जो भोजन अपने लिये बनाया जाय उसको देने में उल्लास (हर्ष व प्रसन्नता ) होता है और पात्रके न आने पर दुःख पश्चात्ताप नहीं होता किन्तु, दूसरोंके लये बनाए जाने पर कदाचित् न भाबें तो खेद होता है पछतावा होता है यह सागश है । अतएव उक्त दोपसे बचना अत्यन्त जरूरी है । फिर क्यों गलती की जाय व दोष लगाया जाय ? यह बुद्धिमानो नहीं है किम्बहुना । कार्य ऐसा ही करना चाहिये जिसमें लाभ हो हानि न हो। निरुद्दिष्ट दान देने से उत्तम पुण्यबंध और अहिंसाको प्राप्ति ये दोनों लाभ एक साथ होते हैं। सुभोगभूमिके व स्वर्मादिके अनुपम सुख पात्रदानसे मिलते हैं ऐसा समझना।
प्रकरणवश पात्रके लिये भोजन विधि सुसस्थपयविष्णदो मिच्छाइदा हुमो मुणेयधो।' खेडे वि ायचं पाणिपतं सचेलस्स ||७|| सूत्रपाहुड कुन्दकुन्दाचार्य णिवेलपाणिवत्तं उवइटुं परमजिणरिदेहि।
पक्की वि मोखमरगी सेसा य अमरगया सब्वे ॥१०11 अर्थ-जो जिणवाणी और उसके अर्थको ( प्रयोजनको) नहीं जानता न मानता है वह मिथ्यादष्टि है----ऐसे मिथ्यादृष्टि मुनिको और वस्त्रधारी त्यागीको भी विनोदके लिये ( प्रदर्शनार्थ भी ) पाणिपात्रमें भोजन नहीं करना चाहिये अर्थात् वजित है। श्रीजिनेन्द्रदेवने दिगम्बर वेषधारी ( नम्नमुनि को ही पाणिपात्रमें आहार करना कहा है कारण कि दिगम्बरबेष हो एक । शुद्ध मोक्षका मार्ग है, दूसरा वस्त्र सहित मा मिथ्यात्व मोक्षका मार्ग नहीं है ।।७।१०॥
आर्यिका और उत्कृष्ट श्रावक ( ऐलक क्षुल्लक ) पाणिपात्र भोजन नहीं कर सकते न खड़े होकरकर सकते हैं-वह स्वांग या नाटकरूप में भी धजित है अस्तु ।'
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विनयके सम्बन्धमें आज्ञा
जो संजर्मसु महिमओ आरमपरिगाहेसु चिचओ वि । सी होइ बंदणीयो स सुरामुरमाणुसे लोए ॥१५॥ सूत्रपाहुष्ट
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शिक्षाप्रकरण
at rating सति सलीसहि संज्ञता । ते होंति वन्दनीया कम्म णिज्जरा माहू ॥१२॥ असे जे लिंगासम्म सेजल । खेले य परिगडिया ते भलिया इमिजाय ||१२||
३५१
अर्थ --- जो संयम सहित हों -- आरंभ परिग्रहरहित हों, दिगम्बर मुनि हो । ६७ गुणस्थानवर्ती ) तथा शक्तिधारी २२ बाईस परीग्रह सहन करनेवाले हो ( श्रेणी माइनेवाले अष्टमादि गुणस्थान ) वे सुरअसुर व मनुष्योंकर वन्दनीय हैं, उनको साष्टांग नमस्कार करना चाहिये या बन्दना शब्द उच्चारण करके विनय करना चाहिये। शेष जो वस्त्रधारी होकर भी तो हैं ( पांचवें गुणस्थानवाले ) उनको इच्छामि कहकर विनय करे । अर्थात् हम आपके व्रतोंकी इच्छा करके विनय करते हैं इत्यादि ।
तथा
जो अती वस्त्रधारी हैं, उनको जयजिनेन्द्र या जुहार कहकर विनय करना चाहिये यह तीन भेदरूप निर्धार बिनयका है। तथा बदले में मुनि आदि श्रावकको दर्शनविशुद्ध या स्वस्ति कहकर आशीर्वाद देवें ऐसा खुलासा समझना चाहिये किम्बहुना 1
नोट --- इस विषय में प्रचलित पद्धति भिन्न-भिन्न प्रकार है । उसको यथासम्भव ठीक व संगत करना चाहिये । पांवधोक ( पात्र पढ़ना ) वगैरह यह लोकिकजनोंमें भी होता देखा जाता है अतएव उससे ठीक-ठीक निर्धार नहीं होता । मोक्षमार्गी या धर्मात्माओंका आचरण, श्रद्धा और आगमकी आज्ञा के अनुसार रहा करता है, उसका हमेशा ख्याल रखना चाहिये, लोकरूढ़ि कोई धर्म नहीं होता यह नियम है। सामान्यतः नमस्कार क्रियामें पांव पढ़ना भी गर्भित हो जाता है। निर्धार कर लेना अस्तु । विवादका वस्तु नहीं है ।
यहाँ तक नैष्ठिक श्रावकका वर्णन समाप्त हुआ ।
प्रसंगवश १२ बारह विरतोंसे ११ ग्यारह प्रतिमाओं का निर्माण और
are count her fकया जाता है ।
भूमिका
यहां प्रश्न होता है कि व्रत और प्रतिमायें क्या अन्तर है तथा सामायिक शिक्षाव्रत एवं सामायिक प्रतिमा में क्या अन्तर है ? आगे भी प्रोषधोपवान शिक्षावत और प्रोषधप्रतिमामें क्या अन्तर है ? इसका समाधान निम्न प्रकार है
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ORE
M
SAFET
पुरुषार्थसिद्धघुपाय त और विरत इन दो शब्दोंमें भी अन्तर है। व्रतका अर्थ त्याग होता है और विरतका अर्थ उदासीन या विरक होता है। तदनुसार १२ बारह विरतका अर्थ उदासीनता होता है अर्थात् बारह प्रकार की उदासीनताका होना। इसीसे पंचम गुणस्थानवालोंका नाम 'उदासीन श्रावक' पड़ता है, जिसका मतलब पूर्णत्याग का न होना अनि देशमा झोल या अतिचारका लगना है। ऐसी स्थिति में व्रत या विस्तधारीके अतिचार लगते रहते हैं और प्रतिमाधारीके अतिचार छूट जाते हैं यह अन्तर : भेद ) है। अथवा अभ्यासदशा या भूमिका तयार होना व्रत कहलाता है और उसमें त्रुटि न रहना पूर्ण तयार हो जाना प्रतिमा कहलाती है।
इसका भावार्थ यह है कि निरतिचार व नियमित त पालनेका नाम प्रतिमा है और सातिधार तथा अनियमित व्रत पालनेका नाम विरत है इत्यादि सर्वत्र ऐसा ही समझना चाहिये। निष्कर्ष शिक्षायत में अतिचार लगता है और प्रतिमा में अतिचार नहीं लगता है। न नियमभंग होता है दृढ़ता रहती है शिथिलाचार नहीं रहता किम्बहुना ।
प्रतिमा प्रकरण (प्रसंगवश ) बारह विरतोंसे ११ प्रतिमाएँ बनती हैं।
___ बाह्यत्यागसे बाहामुत्रा ब वेष बनता है प्रतिमाएँ सब बाह्य त्याग तपस्यापर निर्भर रहती हैं क्योंकि बाह्यत्यागसे वैसी मुद्रा व वेष बाहिर दिख पड़ता है ज) चरणानुयोग ( लोकाचार की पद्धतिसे जीवन में विशेषता समझो जाती है और आदरणीय होती है, उसके ११ दरजे ( क्लासें ) माने गये हैं। परन्तु सभी में तरतमरूपसे बाह्यत्यागको मुख्यता है जो संक्षेपमें निम्न प्रकार है। सभोका उद्देश्य इन्द्रियसंयम व प्राणिसंयमका पालना है अर्थात् इन्द्रियों को स्वच्छन्द प्रवृत्तिको कम करना और जीवरक्षा करना है । तथा अन्तरंग ( भोतर )में कषायोंका भी कम करना उद्देश्य है अस्तु ।
१. पहिली प्रतिमा --दर्शन प्रतिमा है, इसमें सम्यग्दर्शनको शुद्ध किया जाता है और अशुद्धताका त्याग किया जाता है अर्थात् तीन मूढ़ताओंका त्याग किया जाता है ( उनकी भक्तिश्रद्धा पूजा आदि करना छोड़ दिया जाता है !, आठ मदोंका त्याग किया जाता है, ६ छह अनायतनांका त्याग किया जाता है, शंकादिक आठ दोषोंका त्याग किया जाता है कुल २५ दोष दूर किये आते हैं जो जीवन में अशुद्धता लानेवाले हैं। सम्यक् श्रद्धा न होनेसे ही जीव (आत्मा)का कल्याण व उद्धार हो सकता है बह नोवरूप है अस्तु । वह पहिला उपाय है जो होना ही चाहिये, उसोका नाम अन्ल रंगमें मूलगुण है और बाहिरमें आठ ( मद्यादि ) अभक्ष्य चीजोंका त्याग करने रूप है, जो आगे व्रतधारण करनेको शुद्ध भूमिकारूप है। इससे भी इन्द्रियसंयम ( अहिंसा ) और प्राणिसंयम ( अहिंसा ) पलता है ऐसा समझना चाहिये । इस प्रतिमाका धारी निरतिचार आठ मुलगुण या मिरतिचार सम्यग्दर्शन आठ अंग सहित, पालता है तभी तो उसका नाम 'प्रतिमा' पड़ता है। उसकी बाहिर खान-पानमें शुद्धि होने लगती है, शिथिलाचार या स्वच्छंदता मिट १, अन्तर बाहिर एकसा अहाँ होय परिणाम | भोग अरुचि व्रत आदरे प्रतिमा ताको नाम ॥ यह लक्षण है।
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प्रतिमाप्रकरण
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जाती है ( फलतः ) वह देशसंयमो कहलाने लगता है इत्यादि वती जीवन शुरू हो जाता है पिम्बहुना। प्रतिमाएँ धारण करने वाला नैष्ठिक श्रावक । कर्तव्यपरायण ) कहलाता है अर्थात् खाली भावना या विचारवाला वह नहीं होता किन्तु वह बाहिर करके दिखलाता है, जिससे उसपर लोगोंकी आस्था { श्रद्धा हो जाती हैं। साथ हो सम्यग्दर्शन के पांच अतिचार ( श्लोक १८२ में कहे हुए ) भी त्यागता है. नहीं लगाता है। ऐसी दर्शनप्रतिमाधारी बनता है अस्तु । यह एकमात्र पंचपरमेष्ठीको उपासना बाहिर में करता है अन्य कुदेवादिकको उपासना बन्द कर देता है। यथाशक्ति इन्द्रियसंवम व प्राणिसंयम तो पालता ही है । अष्ट मूलगुण के रूपमें ) संसार शरीर भोगोंसे विरक्त रहता है, व्यापारादि करता है, घर में रहता है लेकिन परिणाम बदल जाते हैं भावना दूसरी हो जाती है। बसुनंदी आचार्य इसमें पांच उदम्बर फलों तथा सात व्यसनोका त्याग करना भी बतलाते हैं इत्यादि पाँच अणुव्रतोंका अभ्यास भी करता है।
२. यतप्रतिमा-हिंसा आदि ( असंयमरूप । मोटे-मोटे पांच पापोंका निरतिधार त्याग करनेसे दूसरी प्रतिमा पलती है। मोटे-मोटेका अर्थ अप्रयोजन भूत एवं संकलापूर्वक या लोक प्रसिद्ध दिडाई हिसा, झठ, चोरी, कूशील, परिग्रहका त्याग कर देना चाहिये। उससे ( अव्रतो इन्द्रियसंगम व प्राणिसंयम थोडा भी नहों पलता, स्वच्छंद प्रति रहती है। बिवेकरहित आचरण होता है जो पशजीवनके तुल्य है। प्रतप्रतिमाधारी वैमा कार्य स्वयं नहीं करता (प्रतभंगका त्यागी होता है वह जघन्य श्रावक कहलाता है। उसके पंचागततामें अतिचार नहीं लगाना चाहिये तब उसका नाम 'व्रतप्रतिमाधारी' पड़ेगा अन्यथा नहीं। परन्तु वह कुछ अशों तक अप्रयोजनभूत पांचों पापोंका त्यागी होता है जिनका कथम पोछे ( श्लोक नं०४२ से लेकर ९० तक हिंसापायका, श्लोक नं० ९१ से लेकर १०० तक असत्यका, श्लोक नं. १०२ से लेकर १०६ तक चोरीका, इलोक नं० १०७ से लेकर ११० तक कुशील वा, श्लोक नं० १११ से लेकर १२८ तक परिग्रहका विस्तारके साथ ) किया गया है देख व समझ लेना, यह प्रतिमा पाँच अणुव्रतोंसे बनती है अर्थात् पाँच अणुव्रतोंकी निरतिचार अपेक्षा इसमें पाई जाती है अस्तु 1 यह बती व्यापारादि, गणवतोंके साथ करता है ( दिग्वतादि धारण करता है ) तमाम प्रवृत्ति नियमित व बंधन रूप हो जाती है -स्वच्छेद नहीं रहती इत्यादि। इसके गृहविरत व गृहनिरत दो भेद होते हैं। लक्षण स्वस्वोसे भो सम्बन्ध न रभमा गृहविरत है। और सिर्फ स्वस्त्रोसे सम्बन्ध रखना गृहनिरत है। गृहका अर्थ गृहणी है इत्यादि अस्तु ।
३. सामायिक प्रतिमा-त्रिकाल निरतिचार सामायिक करनेसे यह प्रतिमा पलती है, १. सम्यदर्शनशुद्धः संसारशरीरभोगनिविणणः । ___ पंचगुरुवरणशरणः पर्शनिकरुलत्त्वपथ्यगृह्मः ॥ १३७ ।। -र० श्रा० समन्तभट्टाचार्य २. निरतिक्रमणमणुवतपंचक्रमषि शीलयप्तकं चापि ।
धारयते निःशल्यो योऽसौ बलिना यतो पतिकः ।।१३८।। चतुरावर्तनितयः चतु: प्रधामस्थितो यथाजातः । सामयिको द्विनिषधः वियोगशतः त्रिसंध्यमभिवंदी ।। १३६ ॥
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কথাখবিসুখম इसमें मण्यता इन्द्रियमेशाम वानिको है वोक थोड़े ( सीमित ) समयको सभी प्रवृत्तियाँ ( आरंभादि ) वन्द हो जाती हैं । निरबद्य योग हो जाता है जिससे हिंसादि पाप नहीं होते यह लाभ होता है। यहाँ पर भी बाह्य आरंभादिका त्याग होनेसे शान्तमद्रा ( वेष ) वलती है. उपल जैसी । इति वह आदरणीय मानी जाती है। इसमें सामायिक शिक्षाव्रतका बलाधान होनेसे उसी द्वारा बनी यह मानी जाती है। इसमें भी गुगवत साथ रहते हैं लगान लगा रहता है इत्यादि । इसमें प्रात:काल मध्याह्नकाल { दोपहर सायंकाल, तीनों समय नियमसे निरतिबार मामायिक करना अनिवार्य है।
४. प्रोषध या प्रोषधोपैयास प्रतिमा-भोजनादि क्रिया सोमित समयको बन्दकर देनेसे चौथी प्रतिमा पलती है। इसमें दूसरे शिक्षातका बलाधान रहता है उसोको नितिचार पालनेसे प्रतिमा नाम पड़ता है । तथा बाह्य आरम्भादिकका इसमें त्याग होता है जिससे इन्द्रियसंयम व प्राणिसं या पलता है जो आदर्शरूप है। प्रतिमाओंमें पूर्व-पूर्वके सभी कर्तव्य चालू रहते हैं, वे छटते नहीं हैं, उनका पालन करना अनिवार्य रहता है। इसकी विधि आगे इलोक नं. १५२में बताई जावेगी । किम्बहुमा ।
५. सचित्त त्यागप्रतिमा--भोजनपानमें सचित्त ( जीवसहित ) चीजोंका त्यागकर देना सचित्तत्याग प्रतिमा कहलाती है। यह भोगापभोग शिक्षाव्रतका शुद्ध (निरतिचार ) रूप है। उसीसे यह प्रतिमारूप में बना है। इसमें भी इन्द्रियसंयम प्राणिसंयम पलता है। बह आदर्श उपस्थित करता है। बाह्य चीजें जैसे मूल-फल-शाक-शाखा कोरी-कन्द, फूल-बीज ये सब जब जीवों सहित (साधारण-अनंतकाय होते हैं तब इनका खाना वर्जनोम क्योंकि उनके बहुतसे असंख्यात जीवोंका घात होता है, जिससे हिंसापाप लगता है यह हानि है, किन्तु जब उपर्युक्त चीजों में से कुछ चीजें, प्रासुक ( जीवरहित ) हो जाती हैं तब उनको खाया जा सकता है। ऐसा विधान आगम ( स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रन्थ )में है। अर्थात् चीजोंको सभी अवस्थाएं अभक्ष्य या भक्ष्य ( अशुद्ध व शुद्ध ) नहीं होतो ऐसा सिद्धान्त है, उनमें परिवर्तन होता रहता है।
यहाँ तक किया जाता है कि उपर्युक्त चीजोंको कच्ची ( अप्रासुक ) खाने में जन अधिक हिंसा होती है और खाने में स्वादिष्ट नहीं लगतीं तब उनके कानेका निषेध ही क्यों किया जाता है ? वह व्यर्थ अर्थात् उनका त्याग कराना व व्रत बताना निष्फल है ? इसका धार्मिक व वैज्ञानिक
१. पीदनेषु चतुर्दपि मासे मासे स्वशक्तिमनि गुह्य ।
प्रोषधनियमविधायी प्रणधिपरः प्रोषधानमः ॥१४०॥ २० था. २. मूलफलशाकशाखाकरीरकन्दप्रसूनबीजानि । नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूतिः ।।१४१॥ ३. शुद्ध पाय-तत्तं पक्क सुक्क अविललवणेहि मिस्सयं दर्छ ।
जं जत्रेण व छिपण ते सर्व फासुध भणियं ।।३७९।। स्वामिकातिकमानुप्रेक्षाटीका मर्थ----सूखी वीज, पदी चीज, तपी चीज, खट्टा-वारा मिली चोज, वटी कुटी चीज सबप्रासुफ कहलासी
है ऐसा आचार्य कहते हैं।
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प्रतिमाप्रकरण
उत्तर इस प्रकार है कि ऊपर सचित्त चोजोंका त्याग केवल स्वादको दृष्टिसे ( अपेक्षासे) नहीं कराया गया है कि उनमें अच्छा स्वाद नहीं आता अतएव वे त्याज्य हैं किन्तु उनके खाने में जैसे कि गढ़त के कच्चे खाने में बहुत जीवोंका घात होता है तथा उनसे कामेन्द्रियमें विशेष विकार होता है अर्थात कामोद्दीपन या कामवासना प्रबल होती है, जिससे पापका बंध अधिक होता है ( कुञील सेवन होता है, अतएव उन चीजोंके कच्चे खानेसे हानि होती है, और उन्हींको पकाकर (संक या उबालकर ) खानेसे उनकी कामोद्दीपन शक्ति नष्ट हो जाती है, जिससे लाभ है क्योंकि स्पर्शन ब रसना इन्द्रियों को जीतना कठिन है. बेहो प्रवल 1 जीती जाती हैं। जंगलो पश या घोड़ा बैल वगैरह कच्चा घास या जड़ी-बूटी खानेसे अधिक बलिष्ट ( ताकतवर ) होते हैं और शुष्क होनेपर ग्याने शक्ति पर जाती है मरदाना दहा तु कुतर्क करना व्यर्थ है-ऊपरी दृष्टि है, किम्बना । इसीका नाम इन्द्रियसंयम है कि उन्हें वशमें करना, पाँचवी प्रतिमामें यही सब होता है. अस्तु । इस प्रतिमाका मुख्य लक्ष्य इन्द्रियोंपर विजय पाना है तथा कपायों को भी कम करना है। प्रासुक करके खाना या सचित्तका न खाना एक ही बात है उसको निरतिचार पालना चाहिये।
६. रात्रिभोजनेत्याग प्रतिमा-रात्रिके समय चारों प्रकारका आहार नहीं करना रात्रि भोजनत्याग प्रतिमा कहलाती है। इसमें भी इन्द्रियसंयम ब प्राणिसंयम होता है 1 इन्द्रिय ( जिह्वा ) पर नियंत्रण होता है व जीवघात नहीं होता। यह भी भोगोपभोगत्याग शिक्षाबत का सुधरा वाप है अतः उसोसे बनता है। यह दा भंगसे पाला जाता है अर्थात् स्वयं रात्रिको भोजन नहीं करता न दूसरोंको कराता है, यह मध्यम श्रावकका भेद है इत्यादि । यहाँ पर कहींकहीं मतभेद है वह ऐसा कि रात्रिमें भुक्त या भोग ( मैथुन ) करना अर्थात् दिनको भोग नहीं करना ऐसा लिखा है, इसमें भी इन्द्रियसंयम व प्राणिसंयम दिनको त्याग देनेसे एकदेश पलता है।
७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा-इसमें अब्रह्मका त्याग किया जाता है अर्थात् बाहिर स्त्री मात्रका निरतिचार त्याग किया जाता है इस तरह वह आदर्श उपस्थित करता है-कटिन स्पर्शन इन्द्रियको जीतता है अर्थात् अनादिकालीन मैथुन संज्ञापर विजय पाता है जो प्राणिमात्र पाई जातो हैं । इसका निर्माण चौधे अणुव्रतसे होता है। प्रतिमा नाम अतिचारोंके त्यागन्ने से होता है ( अतिचार आगे बतलाये जायेंगे ) यह महान् बन है। इसका लोकमें बाह्य त्यागसे महत्व है, अस्तु । यह दो बार भोजन पान कर सकता है। क्योंकि यह मध्यम असिमाधारी है। यह व्रत अन्तमें सर्वोत्कृष्ट हो जाता है जबकि शोलके पूरे १८ हजार भेद पलने लगते हैं--पूर्ण स्वभाव या शोलमें लीन हो जाता है उसके ब्रह्म ( आत्मा ) में चर्या होने लगती है, अस्तु ।
र० श्रा०
१. अन्नं पानं खाद्य लेा नानाति यो विभावर्याम् ।
सचराविभुक्तिविरतः सत्त्वेष्वनुकंपमानमनाः ॥१४॥ २. मलवीज गलयोनि गलन्मल पूतगन्धिवीमा ।
पश्यनङ्गमनङ्गाल विरमति यो ब्रह्मचारी यः ।।१४३॥
२० श्रा०
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NAWAPUR. ( MAR RASIEN : .
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पुरुषार्थसिधपाय ८. आरम्भत्याग प्रतिमा--जब कोई अणुवती बाहिर आरंभ ( व्यापारादि ) का निरतिचार त्याग कर देता है तब यह ८वी प्रतिमा कहलाती है। इसमें व्यापारादि आजीविकाके बाह्य साधनोंका त्याग किया जाता है, जो एक आदर्श रूप है ( वैसी मुद्रा या वेष ) आदरणीय है, यह भी इन्द्रियसंयम व प्राणिसंयमकी निशानी है 1 यह परिग्रहपरिमाण अणुव्रतका रूप है, उसो से यह बनती है। इसमें नवीन आरंभ ( कमाई ) करनेका निषेध है किन्तु संग्रहीत कमाईका निषेध नहीं है ..अभी तक पासमें रुपया वगैरह रख सकता है। यह दो बार भोजनपान कर सकता है । इसके बामपरिग्रह ( धन ) होनेसे सवारीका उपयोग यह कर सकता है इत्यादि।
९. परिग्रहत्याग (परिमाण । प्रतिमा--जब कोई अपना पासका द्रव्य भो-भोजनवस्थका ठहराव करके दूसरोंको पंचोकी साक्षीपूर्वक दे देता है तब वह ९वी प्रतिमाधारी होता है। यह भोगावकर है। स बार मोजक्या कर सकता है। परिग्रहत्यागका ही निवरा रूप है, उसोसे होता है। यह भी सवारीका उपयोग परिमाणके अनुसार कदाचित् कर सकता है। यह अपने पास भी कुछ द्रव्य रख सकता है।
नोट---इस प्रतिमा कदाचित् सवारीका त्याग हो जाता है-परावलंबी नहीं रहता स्वतंत्रवृत्ति अहिंसक होता है।
१२, अनु मतित्याग प्रतिमा-मांसारिक बाह्य कार्योंके वावत यह किमीको कोई सलाह सम्मति नहीं देता, इतना निरपेक्ष हो जाता है। थोड़ा-सा बाह्यपरिग्रह इसके पास रहता है यह उत्तम त्यागो कहलाता है। यह एक ही बार भोजन पान करता है। लोटा व वस्त्र मात्र रखता है। पराश्रित भोजन हो जाता है परन्तु भिक्षा भोजन नहीं करता-स्वाध्याय आदि में ही समय बिताता है। जब कोई भोजनके समय अपने घर भोजनको लिया ले जाता है तब भोजन करता है । यह भी परिग्रहके त्यागका एक शुद्ध रूप है इससे इन्द्रियसंयम ब प्राणिर्सयम पलता है। अस्तु । पहापर भी अशक्तताके समय योग्यतानुसार सवारीका उपयोग कर सकता है बाध्य नहीं है । वह थोड़ा पराश्रितवृत्तिवाला है इत्यादि ।
११. उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा-उद्दिष्ट भोजन पान आदि सभीका त्याग करनेवाला ग्यारहवीं
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-र० श्रा
१. मेवाकृष्टिवाणिज्यप्रमुखादारंभतो युपारमति ।
प्राणलिपाती शोभायारंभत्रिनिवृत्तः ॥१४४/ २. आधेषु दशसु वस्तुपु ममत्वमृत्सृज्य निमित्वरतः ।
स्वस्थः सन्तोषपरः परिचितपरिग्रहात विरतः॥१४५॥ ३. अनुमतिरारंभे वा परिग्रहें वहिकेषु कर्मसु बा।
नास्ति खलु यस्य समाधीरनुमतिविरतः स मन्तव्यः ।।१४६|| ४. गृहतो मुनिकनमित्वा गुरूपर्कठे यतानि परिगृय ।
भक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखंडधरः ॥१४७||
२० श्रा०
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प्रतिमाप्रकरण
प्रतिमा धारी होता है । यह भी एकबार भोजन पान करनेवाला उत्तम श्रावक कहलाता है। परन्तु भिक्षा भोजन करता है। सिर्फ वस्त्र मात्रका थोड़ा परिग्रह रखता है और बैठकर पात्र में भोजन करता है । इसके दो भेद हैं । १) क्षुल्लक ( २ ) आर्यक ( ऐलक ) । यह सवारीका उपयोग कतई नहीं कर सकता। (१) क्षुल्लक, खंडवस्त्र ( अंगोछा ) और लंगोटी रखता है (२) ऐलक सिर्फ लंगोटी रखता है । थे दोनों अणुवती, मुनिसे दीक्षा लेते हैं--- गृहविरत अर्थात गहस्थाथम छोड़ देते हैं । परिग्रहको अपेक्षासे दो लंगोटियां व दो पिछोरा पासमें रखते हैं किन्तु उपयोग ( स्तमाल) की अपेक्षा क्षुल्लक एक लंगोटी व एक अंगोछा हो बाबमें लाते हैं तथा ऐलक एक लंगोटी ही काममें लाता है ! यह भेद है । इनके पांचवां ही गुणस्थान होता है। मनवचकाम इन तीन भंगोंसे - त्यागी होता है- श्रावकका है। अभी एक बार नैकर पात्र में भोजन करता है।
इसी तरह आर्यिका भी साड़ी एक पहनता है, एक पासमें ( स्टाक में ) रखती है तथा बैठकर पात्रमें भोजन करती है, वह भी उत्कृष्ट श्राविका है--भिक्षाभोजन विधिप्रकार करती है । आममकी आज्ञाके अनुसार प्रवृत्ति करना ( चलना ) हो सम्यग्दृष्टिको पहिचान है । निरतिचार १२ व्रत पालनेका फल १६ सोलहवें स्वर्ग तक जन्म लेना है और वहाँसे चलकर मनुष्यभान पाकर मोक्षको जाना बतलाया गया है इसको ध्यानमें रखना चाहिये।
नोट-प्रसंगवश यहाँ पर १२ व्रतोंसे ११ ग्यारह प्रतिमाओंका निर्माण अल्पबुद्धिके अनुसार लिखा मरना है। पाठकमण भूलकी मा देंगे और सूचना देने की कृपा करेंगे । विषय कठिन है, स्वाध्याय और अनुभवके बल पर यह किया गया है उपयोगी समझ ग्रहण करेंगे। किम्बहुना ।
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सातवाँ अध्याय सल्लेखना प्रकरण ( साधकश्रावकाचार) आचार्य साधक श्रावकका अन्तिम कर्तव्य बताते हैं।
भूमिका निर्माण इयमेकैव समर्था धर्मस्वं मे भया समं नेतुम् । सततमिति भावनीया पश्चिमसेल्लेखना भक्त्या ॥१७॥
सतप्त भावना जिसकी रहती कम सल्लेखन हो मेरे । क्योंकि यह सामर्थ्य उस में साथ धर्मधन ले दौरे ।। इसीलिये कर्तव्य यही है, अन्तसमयमें वह करना ।
ठान प्रतिज्ञा भूमिशोधना निस्थ तयारी है करना ॥201|| अन्यय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [मे धर्मस्वं मया समं नेतुम् ] मेरे धर्मरूपी धनको मेरे साथ ले जाने के लिये [ हश्रमेव एका समर्था ] यही सल्लेम्यना ही एक समर्थ है-दूसरा कोई नहीं है। ॥ इति सततं भक्त्या पश्चिमसहलेखना भावनीया ] इस प्रकार साधक श्रावकको निरन्तर भक्ति सहित अन्तिम ( मारणान्तिको ) सल्लेखना करनेकी भावना या प्रतिज्ञा अवश्य करना चाहिये। यह भूमिका निर्माण है अर्थात् पेश्तरसे तयारी करना है ।।१७५।।
भावार्थ-हर एक कार्यके लिये पेश्तरसे तयारी करना पड़ती है तभी वह अच्छी तरहसे सम्पन्न ( परिपूर्ण ) होता है यह नियम है। तब सल्लेखना जैसे महान गुरुतर परन्तु दुःस्साध्य कार्यको साधनेके लिये 'मुनिजन' १२ बारह वर्ष पहिलेसे अभ्यास करते हैं। उसी तरह श्रावकको पीरिक अवस्था में रहते हुए पेश्तरसे ही मारणान्तिकी (पश्चिम ) सल्लेखना करने की प्रतिज्ञा या भावना करते रहना चाहिये, क्योंकि भावना एक सरहका संस्कार है सो जब वह संस्कार दढ़ हो जाता है तब वह प्रतिज्ञा पूरी कराके हो दम लेता है अर्थात् सफल व शान्त होता है। यही भूमिकाशुद्धि या भूमिका तयार करना है इत्यादि । सल्लेखनामरण दो तरहका होता है।
१. भावना करना प्रतिज्ञा लेना। २. सत् + लेखना - सल्लेखना । अनादिसे मौजूद कषाय और कामको पृथक करना या कमजोर करना,
यह अन्तिम कर्तव्य श्रावक ( साधक का है करना चाहिये ।
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सक्सेनाप्रकरण
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नित्य मरण (२) तद्भवमरण । नित्यमरण प्रतिसमय जो आयु और श्वासोच्छ्वासका वियोग होता है वह कहलाता है और तद्भव मरण-जो अन्त समयमें आयु और श्वासोच्छ्वासका पूर्ण वियोग होता है वह कहलाता है । फलतः सल्लेखना ( मारणान्तिकी) करना क्यों जरूरी है ? दृष्टान्त द्वारा इसे बतलाते हैं ।
जिस प्रकार देशान्तर में संचय किये हुए द्रव्य (धन ) को साथ में ले जानेके लिये नौका यदि साधनकी जरूरत रहती है, विना साधनके वह साथ नहीं ले जाया जा सकता। यदि कहीं उसको दूसरेके सुपुर्द कर दिया जाय तो वह पुनः प्राप्त न होगा वही हजम कर लेगा इत्यादि । इसी तरह मारणान्तिकी सल्लेखना ही परभवमें धर्मधनको ले जाने में नौकाके समान साधन है । यदि उस समय सल्लेखना ( समाधि ) न की जाय तो परिणाम बिगड़ सकते हैं, जिससे दुर्गति हो सकती है, जीवन में कमाया हुआ ( अर्जित किया हुआ ) धर्मंधन व्यर्थ चला जायगा ऐसा सोचकर मारणान्तिकी सल्लेखना अवश्य करना चाहिये, जिससे धर्मेधनको साथमें ले जाकर सद्गति प्राप्त हो | किम्बहुना | अन्तसमयका सुधारना ही कर्त्तव्य पालन करना है । उस समय जीवको भारी farmer और चिन्ताएँ व मोह होता है जब प्राण छूटते हैं, जिससे दुर्गतिका बंध होता है, ( स्वभावभावका घात होकर विभावभाव उभड़ते हैं ) और फलस्वरूप यह होना संभव है कि वह जीव खोटे भावोंके साथ मरकर अपना धर्मधन खो देवे । अतएव sent सुरक्षाके लिये अन्तसमय में भाव या परिणाम नहीं बिगड़ना चाहिये यह उपदेश हैं, परन्तु उसके लिये पूर्व अभ्यासकी नितान्त आवश्यकता है ऐसा जानना चाहिये कि जीवनकी सफलता इसी में है अस्तु, यथार्थतः यह आत्मसाधनाका कार्य शुद्धाय द्वारा जिसने अपने शुद्ध स्वरूपको भलीभांति जान लिया हो, वही निर्मोही होकर कर सकता है, दूसरा नहीं । सामान्यतः धर्मगुरु आचार्यका सभी जीवोंके लिये यही उदार उपदेश है कि कम-से-कम जैनधर्मी श्रावकको अन्तिम समय ( मरते वक्त } परिग्रहादित्यागकर अती मरण तो करना ही चाहिये । किम्बहुना ॥ १७५॥
आचार्य सल्लेखनाको प्रतिज्ञा या भावना करनेका फल बतलाते हैं ।
मरणान्ते sarees विधिना सल्लेखनां करिष्यामि । इति भावना परिणतोऽनागतमपि पालयेदिदं शीलम् ॥ १७६॥
पद्य
1
विधिपूर्वक लेखन करनेका जो प्रण निध्य करते हैं करनेके पेश्वर ही वे जन नित सरलेखन घरते है |
१. अग्रिमकाल ( भविष्य ) |
२. स्वभावभाव या सल्लेखनाको सामना 1
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पुरुषार्थसिदधुपा
ले
दो
होती है निस अरु अन्ससमयकी भी। दोनों विश्व करने से भजन करस हानि संसूतिकी मी ॥ १७६ ॥
अन्य अर्थ - आचार्य कहते हैं कि जो जीन ( व्रती ) [ अहं मरणान्ते वयं विधिना करिष्यामि | हम मरण के अन्त समय में विधिपूर्वक सल्लेखना अवव्य करेंगे [ इति भावनापरिणतः ] ऐसो भावना रखता है या प्रतिज्ञा करता है वह मानो [ श्रनागतमपि इदं शीलं पालयेत ] भविष्यकालीन स्वभावभावकी साधना भी वर्तमानमें करता है अर्थात् कमिक सल्लेखना करता है ( प्रतिक्षण मन्दकषाय और वैराग्यको प्रमुखता होनेसे ) वर्तमान में आगामी कर्मोका संवर और निर्जरा बराबर करता है ना विभावसार से स्वास प्रकट करता है ऐसा खुलासा
समझना चाहिये || १७६ ॥
भावार्थ - ऐसा कहा जाता है कि भावना 'भवनाशिनी' अर्थात् बारंबार भावना या चिन्तन करने से अथवा प्रयोग करने से कभी न कभी प्रयत्न सफल अवश्य होता है । और मुमुक्षुजन भी लक्ष्यको भावना द्वारा जगाते रहनेसे ( विस्मरण न होने देनेसे ) लक्ष्य सिद्धि करने में समर्थ हो जाते हैं - संसारसे छूट जाते हैं, अतएव भावना साधन बड़ा उपयोगी है | अरे ! करने के पहिले मात्र भावना करना भी कठिन है क्या ? तब वह पुरुषार्थी कैसा ? जो यह भी नहीं करता वह पार भी नहीं होता, यह निश्चय समझना चाहिये । प्रतिज्ञाधारी भावनाके बलसे बहुत अनथेस बन जाता है यह सात्पर्य है । विचारवान् विवेकी एक-एक समयका हिसाब लगाता है क्योंकि मनुष्यजीवन महान कीमती है मोक्ष ले जानेको वहीं समर्थ है। यह बार-बार जबतब नहीं मिलता उसके मिलने का समय ( काललब्धि ) निश्चित है अतः इसे व्यर्थं नहीं खो देना चाहिये तथा सल्लेखनाको उपयुक्त समय पर करना चाहिये यह ध्यान रहे ॥ १७६ ॥
आगे सल्लेखनाके सम्बन्ध में वादो शंका ( तर्क ) करता है उसका ठोस उत्तर ( अखंड जबाब ) आचार्य देते हैं ।
मरणेऽवश्यं भाविनि कषायसल्लेखनातनुकरणमात्रे । रागादिमन्तरेण व्याप्रियमाणस्य नात्मघातोऽस्ति ॥ १७७ ॥
१. संसारका स्थागरूप क्षय ।
२. उक्तं च-
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरासि रुजाया व निःप्रतीकारे ।
धर्मा
विमोचनमाः सल्लेखनामार्याः ॥ १२२ ॥ रत्न० श्रा० ॥
अर्थ :- जिसका प्रतीकार ( बचाव ) होना असंभव हो ऐसा दुर्भिक्ष ( अकाल ), उपसर्ग, रोग, बुढ़ापा, उपस्थित हो जाने पर धर्मप्राप्तिके उद्देश्यसे शरीरसे ममत्व छोड़ना अर्थात् कषाय घटाना सल्लेखना कहलाता है यह भाव है ।
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सहलेखनाप्रकरण
पद्म
जय का यह निश्चय होवे, मरना अब तो निश्चित है । उसी समय रागादि छोड़कर वो सल्लेखन करता है || कायकषाय त्यागने से नहि, आत्मघात कहलाता है । करनेवाले तवकषायज होता है ।। १७७ ॥
आत्मघात
३१५
अन्वय अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि मरणेऽवश्यंभाविनि ] जब व्रती सल्लेखनाधारीको यह निश्चय हो जाय कि हमारा अब मरना निश्चित है अर्थात् लक्षणों आदिसे मालूम पड़ता है कि अब हम जोवित नहीं रह सकते अन्तिम समय है तब [ रागादिमन्तरेण कषायसदकेखनानुकरणमाथे व्याप्रियमाणस्य ] रागद्वेषके बिना अर्थात् भविष्य में किसीकी आकांक्षा आदि न करके ( बिना चाह ? जो कषायों को छोड़नेका प्रयत्न करता है और निकट एवं अनादिके साथी शरीरसे भी राग ( कषाय ) छोड़ता है उसके | आत्मातो नास्ति ] 'आत्मघात' नामक पाप ( दोष ) नहीं लगता अर्थात् वह 'आत्मघाती महापापी' नहीं बनता यह भाव है ॥ १७७॥
भावार्थ - आत्मघात ( कषायपूर्वक यत्न करके भरना) वही करता है जो तोव्रकाय हो अर्थात् असह्य कोन हो या ख्यातिलाभ पूजाकी उत्कट अभिलाषा हो या कोई साधना करना हो या पायपुति करना हो, तभी वह अपने प्राणप्रिय जीवनको भी व्यर्थ हो खो देता है । इस प्रकार मरण करनेवालेको निःसन्देह आत्मघात या इच्छामरणका दोष लगता है और फलस्वरूप उसको दुर्गति होती है । परन्तु जो इसके विपरीत मरण करता है अर्थात् जीवनका असाध्य अन्तिम समय समझकर धर्मलाभ करनेके लिये अथवा जानेवाली परचीज में व्यर्थ ही राग ( कषाय ) को छोड़ने के लिये अन्न, जल, औषधादि सब छोड़कर निर्मोह ( वीतराग ) होता है तथा सिर्फ आत्मध्यानमें चित्त या उपयोगको लगाता है, स्वर्गादि या नामवरीको इच्छा नहीं रखता वह आत्मघाती कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि उसका मरण निःस्वार्थं होता है, किसीके दवाउरे आदिमें आकर वह वैसा नहीं करता यह तात्पर्य है । इस प्रकार सल्लेखना जीवनको शुद्ध करनेका एक अपूर्व उपाय है ( कषायकी मन्दता या अभावका करना है ), किन्तु जीवनको अशुद्ध करनेका उपाय ( तीव्रकषाय करनारूप ) नहीं है । रागादिharrisो छोड़ना जीवका कर्तव्य है क्योंकि वे जीवका स्वभाव नहीं हैं-विभाव या विकार हैं जो कि संयोगी पर्याय में ऊपर-ऊपर होते उनके साथ तादात्म्यसंबंध ( एकत्व ) नहीं होता किम्बहुना आत्मघात होनेके भयसे उसको नहीं छोड़ना चाहिये, किन्तु निर्भय होकर सल्लेखना अवश्य करना चाहिये यह उपदेश है अस्तु ।
१. आत्मघात अपराध ।
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जिस प्रकार कोई चतुर व्यापारी दुकान में आग लग जाने के समय अघोर न होकर दुकानको बुझाने या बचानेका प्रयत्न करता है किन्तु जब दुकान बचतो नहीं दोखतो तब अपने हुंडो,
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Randobaloetittwindimarware.... .
पुरुषार्थसिद्धयुपाय पुरजा, वट्टी-खाता, नोट आदि बचाने का ही प्रयत्न करता है जिससे अजारमें उसकी शाख न मिटे, बनी रहे इत्यादि युक्ति काममें लाता है। उसो सरह प्रती साधक जब शरीर बचता दिखाई नहीं देता तन्त्र 'धर्मरत्न { धन ) को वह बचाता है शरीरमें कषाय या राग न कर, उससे ममत्व छोड़ता है, जिससे वह धर्म जीवका दुर्गतियों से बचाता है.शाख कायम रखता है इत्यादि समझना । सन्यास-समाधिमरण-सल्लेखना से सब एकार्थवाची शब्द है किसो भी नामसे कहा जाय अर्थ एक है । अस्तु ।
नोट--आयुक्षयका पक्का निश्चय न होनेपर यमसल्लेखना करनेको मनाही है, नहीं करना चाहिये।
उक्तं । विशेषार्थ ) भावधिसुद्धिणिमितं याहिरमंगभ्य कोरए चाओ।
वाहिरचायो विहलो, अश्मंशमंगजुत्तस्स ।। ३ ।। भावपाहु अर्थ-मुमश्च जीव धनधान्यादि बाह्य परिग्रहका त्याग, परिणामों को विशुद्ध ( निर्मल । करने के लिये निमित्त समझकर करते हैं किन्तु उपादान समझकर नहीं करते । अतएव जिन जीवों का अन्तरंग परिग्रह कषाय व मिथ्यात्व ) नहीं छूटता अपितु मौजूद रहता है और वे कषायको मन्दता या तीनता (भयादि) से बहिरंग परिग्रहका कदाचित त्याग करते हैं या कर देते हैं। उनका बहिरंग परिग्रहका त्याग करना निष्फल जाता है अर्थात् उससे साध्य { मोक्ष ) की सिद्धि नहीं होती, संसार हो में निवास रहता है यह तात्पर्य है। ऐसी स्थिति में सलाले खाना धारण करनेका मतलब कषायभावोंको कम करनेका है और उसके लिये निमित्तरूप बाह्यपरिग्रह या औषधि अन्नपानादिका त्याग किया जाता है तथा वह उचित है। किम्बहना 1 यहाँ पर तात्विक कथनमें बाय स्यागका महत्त्व नहीं गिराया जा रहा है किन्तु विधेयता ( निमित्तता या आवश्यकता } कायम रखते हुए उनकी कीमत बताई जा रही है। ऐसी स्थितिमें जबतक हीन दशा रहती है सबतक उसका अपनाना भी कचित् लाभकर होता है परन्तु सर्वथा नहीं होता ऐसा समझना चाहिये।
सल्लेखनाके समयको विधि नग्नवेष ( दिगम्बरपना ) होना बहुधा आवश्यक है । साधक पुरुषके लिये तो यह कठिन नहीं है--संभव है किन्तु आयिका के लिये महाकठिन है लथापि उसको एकान्त स्थानमें वैसा करने की आज्ञा है, वह उपचार महावत धारण कर सकती है। यों तो उसके लिये साधारण अवस्था मेंनग्नता धारण करना, खड़े-खड़े आहार लेना, पाणिपात्र भोजन करना. मना है ये तीन कार्य उत्कृष्ट श्रावक्रवती नहीं कर सकता यह नियम है।
संथराको विधि भिन्न प्रकारको है। अनेक प्रकारके योग्य आहार दिखाकर उसका दिल ( भावः) टटोला
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सहलेखनाप्रकरण
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जाय, यदि वह इच्छा प्रकट करे तो वह देवे और यदि वह उसमें आसक हो तो धर्मोपदेश देकर उसका राग छुड़ादे, बार-बार उसे समझाने इत्यादि कर्तब्य है । अस्तु ॥१७७ ।।
आचार्य 'आत्मघात'का स्वरूप बताते हैं ।
यो हि कपायाविष्टः कुंभकजलधूमकेतुविषशस्त्रः । व्यपरोपयति प्राणान् तस्य स्यात्सत्यमात्मवंधः ॥१७८ ।।
पद्य जो कवायवश होकरके निजप्राण व्यर्थ खो देता है। श्वासरोध जल अग्निशस्त्रस, आरमधाति वह होता है। आत्मघातमें महापाप है, नहीं विरागी करता है।
वह जो कुछ करना है तजमा, धर्मरांच रन मरता है ।। १७८ ॥ अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ हि सः कपायादिष्टः ] निश्चयसे जो जो तीनकषाय सहित होकर [ कुंभकजस धूमकेतुविषारीः प्राणान् व्यपरोपति ] श्वासनिरोध ( प्राणायाम), जलप्रवेश, अग्निप्रवेश, विषमक्षण, अस्त्रसंचालन आदि क्रियाओंके द्वारा अपने प्राणोंका उत्सर्ग ( त्याग ) करता है [ तस्थ सत्यं आत्मवधः स्यात् ] उसके बराबर । निःसन्देह ) आत्मघात होता है अर्थात् उसमें विवाद नहीं हो सकता ।।१७८॥
भावार्थ---सोनकषाके वेगमें जीव विवेक रहित हो जाता है उसको योग्य अयोग्यका विचार नहीं रहता, अतएव वह मनचाहा कार्य कर बैठता है। चाहे उससे उसको बदनामी हो या कोई हानि हो, उसको यह नहीं देखता! जिनको किसौपर अत्यधिक क्रोध या रोष होता है वे क्रोध या मानके वश में प्राण तक खो देते हैं। फांसी लगाकर, रेलसे कटकर, आगी लगाकर, कुआमें कूदकर, धुटको मसक कर इत्यादि साधनों द्वारा मर जाते हैं। इसी तरह धर्म के लोभ में पागल
कर अर्थात स्वार्थी अझानियों के बहकारमें आकर उनका झठा उपदेश मान लेते हैं और उसका आचरण कर बैठते हैं कि 'जो अमुक कार्य करेगा उसको धर्मको प्राप्ति होगी और धर्मसे उसको बैकुंठ या मोक्ष मिलेगा तथा जो यहाँ सब कुछ दे देगा उसे वहाँ परलोकमें सब कुछ तैयार मिलेगा।' इत्यादि अंधश्रद्धा में पड़कर वे 'आत्मघात' कर डालते हैं, जिससे परिणाम संक्लेशमय होनेसे वैकुंठ नहीं मिलकर मरकादि मिलता है। फलतः वैसी मूर्खता कदापि नहीं करना चाहिये । वह धोखा है किम्बहुना। कभी-कभी असह्य दुःख होनेसे भी--जैसे इष्टका वियोग हो जाने पर या अनिष्टका संयोग हो जाने पर भी तीन रागद्वेषवश आत्मधात जोब कर लेते हैं वेइज्जतो (अपमान ) होने पर भी मर जाते हैं, परन्तु है वह सब कषायको तीव्रता आदि-आदि जो बुरी है अस्तु ॥ १८ ॥
१. आत्मघातका दूसरा नाम 'हमछामरण' है अर्थात् तीन कषायवश प्राण त्यागना इत्यादि ।
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शिवाय सल्लेखना धारण करनेका मुख्य प्रयोजन क्या है यह बताते है।
( अहिंसावतका पालना है) नीयन्तेऽत्र कषायाः हिंसाया हेतयो यतस्तनुताम् । सल्लेखनामपि ततः प्राहुरहिंसाप्रसिद्धयर्थम् ॥ १७९ ॥
पथ हिंसाकै कारण काय है, उनको कमनी करनेसे । सल्लेखनमत नाम होल है, अर्थ 'अहिंसा' पलने से । उसका मुख्य लक्ष्य ये ही है--बती अहिंसावत पाले ।
परम अहिंसाधर्म प्राप्तकर, मुकिरमा माला डाले । १७९ ॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ अत्र यतः हिंसाया हेतवः कषायाः समुताम् नीयम् ] अब सल्लेखनावतमें हिमाके कारणभूत कषायोंको कमती किया जाता है अर्थात् छोड़ा जाता है [ सतः सल्लेखनामपि अहिंसामम्मि यथं प्राहुः ] तब सल्लेखनाको भो प्रकारान्तरसे अहिंसाकी प्रसिद्धि करनेवाली समझना चाहिये अर्थात् सल्लेखनाका ही दूसरा नाम 'अहिंसा' है-अर्थभेद कुछ नहीं है अतः वह करना चाहिये ।। १७९ ॥
भावार्थ-सल्लेखना-समाधि-सन्यास आदिके मामोंमें व क्रियाओंमें भेद होने पर भी प्रयो जन ( अर्थ । में भेद कुछ भी नहीं है, सबका लक्ष्य एक कषायों ( विभावभावों ) का कमती करना है-जो हिंसाके निमित्त कारण हैं क्योंकि उनसे स्वभावभावोंका घात होता है। फलतः सल्लेखनामें कषायभाव छूटनेसे हिंसा बचती है ( स्वभावभावका घात नहीं होता । और अहिंसावल पलता है यह लाभ होता है ऐसा समझकर सल्लेखना अवश्य-अवश्य करना चाहिये....अहिंसा ही परम धम है ।। १७९ ॥ आचार्य–सल्लेखनाका अन्तिम फल दिखाते हैं।
( उपसंहार कथन) इति यो व्रतरक्षार्थ सततं पालयति सकलशीलानि । वस्यति पतिंवरेव स्वयमेव तमुत्सुका शिवपदश्रीः ॥ १८ ॥
oration
पध प्रतरक्षा अर्थ विवेकी शीक सदेखन करते है। जसके सबब अहिंसक बनकर मसि को धरते हैं।
१. उच
अन्तःक्रियाधिकरणं तप फलं सकलदर्शिनः स्तुवते । तस्माद्याबद् विभवं समाधिमरणं प्रयतितव्यम् ।। १२३ ॥ रत्न श्रा
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सल्लेखमाप्रकरण
ऐसी धन्दा धार वतीयन अन्तिम लक्ष्य अवश बाँध ।
क्रम-क्रम कर बारह घाँले बत सल्लेखनको साधे ।। १४७ ।। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [इति यः तरक्षार्थ सततं सकलशीलानि पालयति] पूर्वोक्त प्रकार जो श्रावक व्रतोंको रक्षाके लिये निरंतर सात बीलोंको पालता है अथवा सम्पूर्ण स्वभावभावोंकी और लक्ष्य रखता है ( विभावभावोंको छोड़ता है) [ सं उत्सुका शिवपाश्रीः स्वयमेव पतिवरा इव परयति ] उस श्रावक । प्रती ) को बड़ी उत्सुकताके साथ स्वयं मोक्षलक्ष्मी बरण कर लेती है अर्थात् अपना पति बना लेती है। जिसप्रकार स्वयंवरमंडपमें कन्या स्वयं अपना पति चुन लेती है या पसंद कर उसके गले में माला डाल देती है यह लाभ होता है ।। १८० ।।
भाधार्थ-व्रतोंकी रक्षा करनेवाला श्रावक, अर्थात् जो श्रावक अतिचार रहित व्रत पालता है वह अथवा मुनि, अहिसावतको पालकर स्वर्ग और मोक्ष तकको प्राप्ति कर सकता है, अतका इतना बड़ा माहात्म्य है जो अनुपम है, इसीलिये मुमुक्षुजन व्रत अवश्य पारते हैं.....अव्रतोपना छोड़ते हैं। इस ग्रंथमें श्रावकधर्मका व्याख्यान क्रमवार बहुत विचारके साथ किया गया है, जिससे अनादिसे भूले-भटके जीवोंको अकथनीय लाभ होगा। फलत: मारणान्तिक सल्लेखना विधिपूर्वक यदि धावक धारण करता है तो उसे १६वां स्वर्ग तक प्राप्त होता है और यदि मुनि धारण करता है तो उसको मोक्ष तक प्राप्त होता है। इस भेदका कारण अणुव्रत और महावत है अर्थात् एकदेश अहिंसा और सर्व देश अलिना है। दनि द्वारे गहमें अदा नामको अपूर्ण वीसरागता और पूर्ण बीसरागता है अस्तु । यह बुद्धिपूर्वक समाधि क्षायोपशमिक अवस्था तक अर्थात जबतक झान क्षायोपशमिक रहता है तथा चरित्र भी क्षायोपशामिक रहता है तभी तक होती है आगे नहीं यह निस्कर्ष है किम्बहुना। आगे कोई विकल्प हो नहीं होता इत्यादि समझना ।। १८०३
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आठवाँ अध्याय
अतिचारप्रकरण आचार्य सम्यग्दर्शन सहित १२ व्रतोंके अतिचार { दोष ) बतलाते हैं !
अतिचाराः सम्यक्त्वे व्रतेषु शीलेषु पंच पंचेति । सप्ततिरमी यथोदितशद्धि-प्रतिबंधिनी हेयाः ॥१८॥
पद्य
अतःचार सम्यग्दर्शन के और साथ बारह प्रतके । स्मल्लेखनको साथ मिलाकर सगर चौदह भेदोंके । पाँच पाँचके कम सबके पत्तर पूरे होते है।
शुद्धि विनाशक होने से ये हेय पूज्यवर कहते हैं ।।१८ | अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ अति चाराः सम्यक्स्चे प्रतेषु शीलेषु पंच पंप्रेमि ] सम्यकदर्शन में, पाँच अणुव्रतोंमें, सात शीलाम और सल्लेविनामें पांच-पांच अतिचार होते हैं। [ अमी सप्ततिः यथोदिनद्रि पत्तियं धिनः हेयाः ] कुल मिलाकर १४ चौदहके ७० सत्तर अतिवार होते हैं, वे शुद्धि ( निर्मलता ) के बालक हानेसे हेय हूँ त्यागने लायक हैं ।।१८१।३
भावार्थ-इस श्लोकमें खुलासा रूपसे 'सल्लेखना के अतिचारोंका उल्लेख नहीं है तथापि व्रत वा शोलका उल्लेख होने से उसीके अन्तर्गत बह ग्रहण कर लिया जाता है, कारण कि सल्लेखना प्रतरूप या शीलबा हो है-गोलका अर्थ स्वभाव होता है इत्यादि । इस तरह प्रत्येक भेदके पांचपाँच अतिचार होनेसे ७० सत्तर भेद हो जाते हैं । १४ ४ ५ - ७० ) उनका त्यागना नितान्त आवश्यक है क्योंकि उनके रहते हुए व्रतादि शुद्ध अर्थात निर्मल नहीं हो सकते यह तात्पर्य है। शास्त्रों में अतिचार अर्थात दोष ४ चार प्रकारके बतलाये हैं सो समझ लेना ।
१. (१) क्षति मनःशुद्धिविवरतिशम, न्यविक्रम शीलवृतेविलंबनम् ।
प्रभोऽतिवारं विषयेषु वर्त्तनं, बदन्त्यनाचारमिहातिसक्तिलाम् ॥९॥ सामाज पाट, अमितगति । (२ ! अतिक्रमो मानसशुद्धिहानियंतिकमो यो विषयाभिलाषा ।
तथातिचारं करणालसत्वं भंगो ह्यनाचारमिह व्रतानि ( ब्रतानाम् )|| सागारधर्मामृत (३) प्रायश्चित्तचुलिका मामक अन्यमें पेज १५.७ में खुलासा किया गया है। एक बुड़े बैलका उदाहरण
देकर समझाया है उसको देखना चाहिए ।
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মপিৰামাল मोट---अतिचार आदि दोष अज्ञान ३ प्रमादसे होते हैं अतएव दोनों को दूर करना चाहिये, अस्तु । यतोंका फल निर्दोष या निविचार होने पर ही पूर्ण प्राम होता है, व्रतोंमें जितना दोष लगता रहेगा उतना ही फल भी कम प्राप्त होगा यह नियम है। यहां पर स्थूले दोषों का नाम व कथन किया जा रहा है. मुहम दोषों का अस्तित्व तो बहुत दूर तक इला है, उनका छुटना बद्रिपर्धक नहीं होता किन्त स्वतः हो वैसा परिणमन होनेपर होता है अर्थात वह यत्नमाध्य नहीं है। आत्माके सभी गुण निश्चयसे यत्न या पुरुषार्थ मान्य न होते पह दढ़ विश्वास रखना बह वस्तुका परिणमन है। यदि कोई ऐसा कहे कि 'यत्म साध्य है तो यह व्यवहारी है क्योंकि पराथितता मानना सब व्यवहार कहलाता है, तथापि पुरुहाथ करने की मनाही नहीं है, पुरुषार्थ उपयोग या मनको बदलनेका करना चाहिये, क्योंकि उपयोग निश्चयसे स्थिर नहीं रहता वह चंचल हो जाता है अत: वह परका ( निमित्त का । आश्रय लेने लगता है। लेकिन श्रद्धान सही रहता है वह नहीं बदलता अतः सम्यग्दर्शन नष्ट नहीं होता यह तात्पर्य है अस्तु । अतिचार अन्तरंग और बहिरंग दो तरहके भी होते हैं। अन्तरंग अतिवारसे परिणाम मलीन । अशुद्ध होते हैं, जिससे कर्मबन्ध होता है और बहिरंग अतिचारसे लोकापवाद होता है-सदाचार बिगड़ता है, उससे प्रतिष्ठा हानि होता है व मंगता होता है उससे १का बन्ध होता है। अत: अतिचार हेय ही हैं ।।१८१|| आचार्य पहिले सम्यग्दर्शनके पांच अतिचार बललाते हैं।
शंका तथैव कांक्षा विचिकित्सा संस्तयोऽन्यदृष्टीनाम । मनसा च तत्पशंसा सम्यग्दृष्टेरतीचाराः ।।१८२।।
चिसे शंका अरु आकांक्षा विचिकित्सा जो करते हैं। संस्तव और अन्य मतियोंकी मन प्रशंस उत्सरत है। नाम उसीका अतीचार है, जो कभिसे यह करते हैं। बिना चिके होनेपर भी, भतीचार माह लगते हैं । १८२१॥
भावार्थ-~~-विषय रोचनको अभिलाषा ( इछा ) करना ( १ ) अतिक्रम कहलाता है । मरिल या मर्यादा
का लोड़ना । २) यतिक्रम कहलाता है । भय साथ । जना मनके } विषयसेवनमें प्रवृत्ति सोना३ विचार कहलातानिय हाबर । मन लगाकर व बार-बार विधय सेवन
में प्रवृत्ति करना (४) अनाकार कहलाता है। १. श्रच या राग या सगात्रस्थाका होना हो अनिचार है क्योकि सम्यग्दामन तो निर्विका वीतराग है।
रागसे अकेला राग नहीं लेना-द्वेष भी लेना ....ग़गपका होना ही अलिंकार है । दोष है ) क्योंकि सम्यग्दर्शन के साथ रागद्वेषादि मलके रहते हए मोक्ष नहीं होला, वीतरागता के साथ रहनेपर ही मोक्ष होता है तथा श्लोकमें 'मनसा' यह पद लिादा है । जसका सम्बन्ध शंका, कालादि सबके साथ लगाना है क्योंकि वह श्रादासे सम्बन्ध रखता है मंजूरी बताता है।
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पुरुषार्थसिद्धधुपाये
अवध अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ शंका कांक्षा तथा विचिकित्सा ] यदि सम्यग्दृष्टि होकर जिज्ञासुभावसे-वस्तुस्वरूपको समझने के इरादेसे कोई शंका अर्थात् प्रश्न करता है, किसी धर्मात्मा आदिसे मिलनेको आकांक्षा ( अभिलाषा ) रखता है अथवा घृणा या अरुचि ( ग्लानि ) रखता है
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( जो द्वेष है ) [ च मनमा अन्यदीनां संस्तवः तत्प्रशंसा और मनसे अर्थात् भीतरसे रुचिपूर्वक ( जो राग है ) श्रद्धा भक्तिसे अन्य मतियों या मिध्यादृष्टियोंकी स्तुति ( वचनों द्वारा तारीफ ) करता है--सराहना करता है एवं प्रशंसा करता है ( गुणगान करता है) तो [ सम्यग्दप्रतीवाराः ] सम्यदृष्टि सम्यग्दर्शन में पाँच अतिचार ( दोष ) लगते हैं ।। १८२||
भावार्थ- मोक्षमार्ग अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, ये तीनों जब शुद्धनिरतिचार ( रागद्वेषादि वह कहते हैं तभी में नाका मार्ग बनते हैं। अर्थात् मोक्ष प्राप्त कराने में समर्थ होते हैं, किन्तु रामादिकके साथ रहते हुए वे मोक्षको प्राप्त नहीं करा सकते, यह नियम है । ऐसी स्थिति में यदि प्रश्नोत्तरके रूपमें अर्थात् प्रश्नके या विकल्प के द्वारा वस्तु स्वरूपको समझने के लिये ( श्रद्धालु होते हुए भी ) जिज्ञासारूप राम प्रश्न किया जाय तो भी अतिचार है उससे बन्ध अवश्य होगा । कारण कि राग व द्वेष चाहे शुभ हो या अशुभ हो
बन्धका कारण होता हो है, मोक्षका कारण नहीं होता - मोक्षका कारण एक निर्विकल्प वीसरागता ही है | तदनुसार आकांक्षा या चाह करना या अनाकांक्षा या अरुचि ( ग्लानि-द्वेष ) करना ये सभी विकल्परूप तीनों जातिके कार्य अतिचार में शामिल है। तथा अन्यमतावलंबियोंकी भी प्रशंसा व स्तुति करना लोकाचार में अनुचित न होने पर भी मोक्षमार्गी ( सम्यग्दृष्टि ) के लिए मोक्षमार्ग में अनुचित ( खतरनाक - बन्धकका कारण ) है क्योंकि लोकमें रहते हुए लोकाचारका पालना अनिवार्य होने से वह सब ऊपरी रुचि ( राग ) से या चलन व्यवहारसे करना ही पड़ता है । इसीलिये जैन शास्त्रों में दुर्लभताएं बतलाते हुए सबसे पहिले दुर्लभत्ता ( कठिनाई ) भेदज्ञान अर्थात् सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानकी है-वह बहुत भाग्यसे मिलता है। दूसरी दुर्लभता, वद्रूप या तन्मय उपयोग रहनेकी है- उपयोग बहुत जल्दी बदल जाता है-- स्थिर नहीं रहता । तोसरी दुर्लभता बाह्य संयोगको अर्थात् इन्द्रियोंके विषयोंको त्यागने की है, उनका त्याग जल्दी व आसानी से नहीं होता, पर्याप्त पुरुषार्थं करना पड़ता है, साधन मिलाना पड़ते हैं इत्यादि । कहने से करना कठिन है, किम्बहुना | जैन वीतराग धर्मका पाना भी बड़े सौभाग्यका फल है इत्यादि ॥ १८२॥
नोट ---काका अर्थ यहाँ पर संशय या सन्देह नहीं हैं किन्तु जिज्ञासारूप प्रश्न है; कारण कि संशय या सन्देह मिथ्याज्ञानका भेद है जो सम्यग्दृष्टिके पहिले ही ( प्रारंभ में ही ) नष्ट हो जाता है-वह जिनवाणीका परम श्रद्धालु होता है, उसको कोई संवाय नहीं रहता - पूज्य समन्त-भद्राचार्यने रत्नकरं श्रावकाचार में खड्गके अटल पानीकी तरह श्रद्धा उसके बतलाई' है । तब श्लोकगत शंका शब्दका अर्थ संशय या सन्देह कतई नहीं हो सकता । इसी तरह निश्चयसे शंकाका अर्थ, भय भी नहीं हो सकता। क्योंकि सम्यग्दष्टिको निमित्तोंका भय नहीं होता कि निमित्त
१. इदमेवेदृशमेव इत्यादि श्लोक १० ११ देखो |
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afeerexकरण
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उपादानका कुछ कर सकते हैं, वे अकिचित्कर होते हैं वस्तुस्वभाव सब स्वतंत्र है इत्यादि । यहाँ पर रागद्वेषसे हो उसको ठीक संगति बैठती है विचार किया जाय । संशय या सन्देह करना सम्यगुदर्शनका अतिचार नहीं है, वह तो अनाचार है जो सम्यग्दर्शनको ही नष्ट कर देवे । हो, लौकिक तत्वों में संशय व सन्देह सम्यग्दृष्टिको ज्ञानादिककी कमी से हो सकता है किन्तु उससे मोक्षमार्ग नहीं बिगड़ता । परन्तु यहाँ इस प्रकरणमें मोक्षमार्ग में दोष न लगने या लगने की बात है, उसको ध्यान में रखना जरूरी है, किम्बहुना ।
अतिचारका अर्थ दोष कलंक या बट्टाका लगना होता है । विरागरूप निर्विकल्प सम्यदर्शन में रागादिरूप विकारों । विकल्पों का होना हो बट्टाका लगना है, उससे मोक्षमार्गता बिगड़ती है - वह शुद्ध या निश्चय मोक्षमार्ग नहीं है किन्तु अशुद्ध या व्यवहार मोक्षमार्ग है, अस्तु' । सम्यग्दृष्टि शंकादि कार्य में भी उपादेयता नहीं रहतो, वह उन्हें यही समझता है, उनसे अरुचि करता है-विगारीकी तरह उनमें वह विरक्त रहता है, दत्तचित्त नहीं रहता, अगत्या उसे वह बलात्कार करना पड़ता है, संयोगी पर्यावका वह तकाजा या भाती है, उसको चुकाना उसका कर्त्तव्य है । और मिथ्यादृष्टि उसको थाती या कर्जा नहीं समझता किन्तु उसका स्वामी वह अपने को समझता है उसे वह अपनी विभूति समझता है अतएव उसको कभी स्वप्न में भी नहीं त्यागना चाहता अर्थात् परसंयोगको वह कभी हेय नहीं समझता, उपादेय ही मानता है, ऐसी विपरीतबुद्धि ( वस्तुस्वभावकी अनभिज्ञता ) उसके रहती है यह मूल भेद है । सम्यग्दृष्टि गोलर सम्यक् श्रद्धारूप या भेदज्ञान वैराग्य रूप अविच्छिन्नधारा सदैव बहती रहती हैं, जिससे वह हमेशा सम्हला रहता है च्युत या पतित नहीं होता अर्थात् बाह्य आचरण कदाचित् बिगड़ भी जाता है तो भी वह मिध्यादृष्टि नहीं हो जाता - भीतर से सम्यग्दृष्टि ही बना रहता है किन्तु मिथ्यादृष्टि के भीतर बह भेदज्ञान वैराग्यरूप अविच्छिन्नधारा नहीं बहती, अतएव बाहिर वह कर्म धारा ( रागादिकृत बाह्य प्रवृत्ति ) में बहू जाता हैं पथभ्रष्ट या मार्गभ्रष्ट हो जाता है, उसको हो वह सर्वस्व समझता है, उसीमें दत्तचित्त रहता है, अन्य सब असली कर्तव्य भूल जाता है, नकली आडम्बरमें फस जाता है इत्यादि ।
नोट उक्त पाँच अतिचारोंमें ही शंकादिक आठ दोषोंका अन्तर्भाव हो जाता है अतएक पाँच हो संग्रहनयसे कहे हैं। मल-दोष -अतिचार ये सब एकार्थबाची हैं ऐसा समझना चाहिये ।। १८२ ॥ . आचार्य अहिंसाणुव्रत के ५ अतिचार बतलाते हैं ।
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छेदनताडुनबन्धाः भारस्यारोपणं समधिकस्य । पानानयोश्च रोधः पंचाहिंसात्रतस्येति ॥ १८३ ॥
१. शंकाकांशात्रिचिकित्साम्य दृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतीचाराः ॥२२॥
--तस्वा० सूत्र अध्याय ७ ।
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पुरुषार्थसिधुपाय
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पद्य
जीवधातका मो श्यागी है उसको यह सप वर्जित है । कर संकल्प छेदना परकी, मार मगामा-बोधन है॥ मूख प्यासकी बाधा देना, बोझ अधिकका धरना है। ये सब अतिचार हैं तजना, बती पुरुषका करना है।॥ ११३ ॥
अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ छेदनत्ताडनबंधाः ] दुष्ट इरादा या संकल्पसे ( कषायबश) किसी जीवको छेदना अर्थात उसके नाककान आदिको गोदना-काटना, सस्त मारना-पीटना, कसकर बाँधना, जिससे वह ठीक उठजेट भो न सके तथा समाधिस्थ मारस्यारोषणं प्रमाणसे अधिक बोझ ( भार ) लादना, [च असपामयो रोधः ] और खाना-पीना बन्द कर देना (खाने-पीने को नहीं देना ) [ इति पंचाहिसावतस्य अतिचाराः ] ये सभी । पाँच ) अहिंसाणुवतके अतिचार हैं, इनका त्याग अहिंसाणुव्रतीको अवश्य करना चाहिये ।। १८३ ॥'
भावार्थ----जैन मतमें भावोंकी प्रधानता रहती है अतएव जो भी लोकका या परलोकका ( इस भवका या परभवका ) कार्य किया जाय उसमें फल भावोंका हो मिलेगा। ऐसी स्थिति में जबतक कषायका सम्बन्ध जीवके साथ है तबतक उसको इच्छानुसार कार्य तो करना ही पड़ते हैं. परन्त उस समय यदि खोटा इरादा हो अर्थात त्रास देने या बदला लेने की भावना न हो तो उसका फल उसको, स्वार्थ होने पर भी बुरा प्राप्त न होगा अर्थात् वह मैमित्तिक अपराधसे बच जायगा यह तात्पर्य है। तभी तो सावधानी रखनेका उपदेश दिया गया है कारण कि प्रमाद या तीनकषायमें असावधानी हो जाया करती है । यद्यपि निश्चयसे पराश्रित अपराध नहीं होता तथापि व्यवहारसे अपराध होना माना जाता है, अतः विवेकी पुरुषोंको वह भी बचाना चाहिये जिससे लोकापवाद न हो, संक्लेशता न बढ़े, पापबंध न हो इत्यादि ।। १८३ ।।
नोट.....यदि इरादा ( संकल्प ) खराब न हो और किसी बीमारी आदिके समय संक्लेशता या वाधा मिटाने को आपरेशन आदि कराना पड़े तो वह पद व योग्यताके अनुसार दोषाधायक ( अनुचित ) नहीं है। कभी-कभी लोकनोति के अनुसार ताड़ना भी सुधार होनेको या भलाईको दृष्टिसे वर्जनीय नहीं है, सिर्फ असह्यपना या अत्यधिक कठोरपना नहीं होना चाहिये। क्रूरता सर्वत्र वर्जनीय है किम्बहुना । भावप्राणोंका घात होना हो हिंसा है वह भी बतीको बचाना चाहिये यह उसका कर्तव्य है । व्रती यथासंभव द्रव्य और भाव दोनों हिंसाओंको बचाता है, कारण कि त या चारित्र तो शुद्ध वीतरागतारूप होता है---अशुद्ध रागद्वेषरूप नहीं होता। ब्रत, गुण या स्वभावरूप है-दोष या विकार (विभाव ) रूप नहीं है, यह हमेशा याद रखना चाहिये। १. अहिंसाणुप्रती है। २. रोक लगाना। ३. वषबंधछेदातिभारारोपणानपाननिरोधाः ।। २५ ।।त. सू० अध्याय ७।
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अतिचारप्रकरण
व्रव्यप्राणोंका धात न होने पर भी भावप्राणों ( ज्ञानादि ) का घात होना अतिचार माना जाता है-वहो एकदेश व्रतका भंग होना रूप है यह खुलासा है अस्तु । देखो ! चौथे गुणस्थान में, अप्रत्याख्यानकषायकृत असंयमभाव रहता है, और पंचम गुणस्थानमें, ( अणुवतोके ) प्रत्याख्यान कषायकृत असंयमभाव ( सकलसंयमका अभावरूप ) रहता है किन्तु देशसंयमके सद्भावरूप होने पर सर्वथा संयमका अभाव नहीं पाया जाता। छठवें गुणस्थान में प्रत्याख्यान कषायका अभाव हो जानेसे सकलसंयम हो जाता है। फलत: संयमकी चालक तीन ऋषाएँ हैं। यथा अनंतानुबंधोकषाय-जिसके उदय में संयम रचमात्र नहीं होता, २ अप्रत्यख्यानकषाय ----जिसके उदय में एकदेश ( अणुव्रतरूप ) संयम नहीं होता, ३ प्रत्यास्यानकषाय-जिसके उदयमें सकलदेश संयम नहीं होता ऐसा समझना चाहिये।
नोट --'असंयम' शम्दमें मौजद 'अकार' का अर्थ-अभाव, होता है जो तीसरे गणस्थान तक अनंतानुबंधी कषाय के होने से कतई नहीं होता ( न द्रव्यरूप होता है न भावरूप होता है। चौथे गुणस्थानमें अनंतानुबंधी कायका उदय' म होने पर भी चरणानुयोगका द्रव्यसंयम नहीं होता, कारण कि बड़ा अप्रत्याख्यानमायका उदय होलेसे नहीं होता तथा पांचवें गुणस्थान में प्रत्याख्यानका उदय होनसे पूर्ण संयम नहीं होता है यह खुलासा है ।। १८३ ।।
मिथ्योपदेशदान रहसोऽभ्याख्यानफूटलेखकृती। न्यासापहारवचनं साकारामंत्रभेदश्च ॥१४४ ॥
पद्य कर संकलर कुमार्ग देशमा, गुह रहस्य प्रकर करमा । ठलेख अरु वश्चम कपटक समझ इशारा कह देना। ये अतिचार सतवतके इनका स्याग उसे करना।
प्रयोजनरहित कार्यमें देखो, सदा सावधानी रखना ॥ १८४३॥ १. सापेक्षस्य ते हि स्यादतिचारोंदा जसम् । मन्त्रतन्त्रप्रयोगाद्याः परेग्यू ह्यास्तथास्ययाः ।। १८ । सागार, प. ४ अध्याय
द्रव्यहिंसाके त्यागी प्रती ( अखंड बती ) के एकदेश अर्थात् द्रन्यसे या भावसे हिंसाका हो जाना अथवा अहिंसावसका एकदेश खंडित हो जाना, अतिचार कहलाता है, यह लक्षण अतिधारका है।
रागादिकका होना भावहिंसा है और व्यापारादि ( किया ) का होना द्रयहिंसा है यह भेद है । २. असंयमके 'अकार के ३ तीन अर्थ.. पूर्ण अभाव अर्थात् द्रव्य व भाव कोई संयम नहीं, २. द्रव्यसंयम
का अभाव. ३. एकदेश संयमका अभाव इति । ऊपर खुलासा है अस्तु ।
उक्त च....को इंदिसु निरदोनो जीवे यावरे ससे वापि इत्यादि माथा २९ जीषकाण्ड । ३. मोक्षमार्गके प्रतिकूल उपदेश देना। ४. झूठा लेख लिखना या श्वंगरूप या अन्योक्तिरूप लेख लिखना ।
मिथ्योपदेशरहोऽभ्याख्यानफूटलेखक्रियान्यासपहारसाकारमंत्रभेदाः ॥ २५ ॥ १० मुक अ०१७ ५. दो अर्थ वाले बचन बोलना या मुहमिल बचन कहना ( अस्पष्ट कहना )।
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पुरुषार्थसिद्धुपाप अन्वय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि मिथ्योपदेशदान ] सस्यरूप मोक्षमार्मके प्रतिकूल असत्यरूपए सांसारिक कार्यों का संकल्पपूर्वक ( स्वार्थवश ) उपदेश देना ( मिथ्या उपदेश है ) तथा [ रहसोऽभ्याख्यानकूटलेखकृती ] एकान्तको गुप्त बातको एवं झूठ बातको स्वार्थवश लिखना या कहना [ घ न्यासापहास्यश्चमं साकारमंत्रभेदः ] और धरोहर ( अमानत ) के सम्बन्धमें अस्पष्ट या महमिल जबाव देना ( जितना बरा हो सो ले जावे इत्यादि ) तथा इशारा या संकेत समझकर दुससे कह देना ये पाँच सस्याणुव्रतीके अतिचार हैं जो वर्जनीय हैं। इनसे भावहिमा होती है ।। १८४ ।।
भावार्थ..... प्रयोजनभूत कार्योको छोड़कर अन्यत्र सभी जगह सत्याणवती सत्य वचन बोले ( असत्य न बोले ) यह उसका मस्य कर्तव्य है। इसीके सिलसिले में यह स्पष्ट किया जाता है कि वह किसीके दबाउरे में आकर या लोभ लालचवश कभी भी राजा वसूकी तरह असत्य न बोले और खासकर पोशागार्ग ( सपा सत्याप प्रतिरल (प) कभी उपदेशादि न देवे अन्यथा वह सरासर मिथ्यादष्टि और असंयमी है { अञ्जका बकरा अर्थ करनेवाला जैसा हिंसाको धर्म बतानेवाला महापापी है) दीर्घ संसारी है। सच्चे धर्मात्मावतीको कोई चाह या स्वार्थपूर्तिका लक्ष्य नहीं रहता वह अधर्मसे बहुत डरता है तब क्यों झूठा बोलने चला ? नहीं बोलेगा। एकान्तकी या गुप्तकी बातको दूसरोंसे क्यों कहेगा? उसको कोई स्वार्थ नहीं रहता--दूसरेकी निन्दा या बदनामी को करना या चाहना विकारी भाव है उन्हें वह त्यागता है। अठा या व्यंगरूप या उत्प्रेक्षारूप ( अन्योक्तिरूप ) कथन करना भी कपद या मायाचार है-प्रत्तधारण करने में पाखण्ड है, अतः वह उसको भी बुरा समझता है, उसे नहीं करता। इसी तरह धरोहर आदिके विषयमें भी वह स्पष्ट जानकारी देकर सत्य व्यवहार करता है-मुहमिल या दो अर्थवाले वचन नहीं कहता जिनसे यथार्थ निर्णय न हो सके, क्योंकि वह अपराध है। गुप्तकषाय है-विकार परिणाम है ) इसी तरह इशारा या संकेत समझकर प्रऋट या जाहिर कर देना अन्याय है वह नहीं करता क्योंकि तोका उससे क्या प्रयोजन है ? उसका फल ( लाभ या हानि । लोकमें उसे कुछ नहीं मिलेगा भित्राय बदनामोके इत्यादि । अतएव उक्त सभी अतिचारोंको अप्रयोजन भूल समझ करके सत्यवती विवेकी छोड़ देते हैं नहीं करते।
श्लोकमें 'मिथ्योपदेशपद' बड़ा महत्त्वका है। उसका अभिप्राय ऐमा है कि 'स्वयं अपराध करनेवाले से बड़ा पापो वह है जो अपराध करके उसका प्रचार करता है वह संसारको गुमराह करता है। इस न्यायसे स्वयं अज्ञानतावश यदि कोई मिथ्या ( मोक्षमार्गके विरुद्ध आचरण करने
तो वह अपराधी जरूर है किन्तु यदि बह उसका उपदेश देकर संसारमें मिथ्यात्वका प्रचार करे, पूष्टि करे तो वह घोर अपराधी व अक्षम्य पापी है। लौकिक कार्यों में भला होना संभव कषायब हो जाती है, किन्तु पारलौकिक कार्यो में भूल होना मिथ्यात्वको निशानो है। इसीलिये
को बन्दि लगाई गई हैं, उनको स्वच्छन्दता पर रोक लगाई गई है। व्रतीका मन, वचन
तीनों पर नियन्त्रण रखना अनिवार्य है। कभी गलतीका प्रचार नहीं करना चाहिये यह सारांश है, अस्तु ।
नोट-यहाँ प्रश्न होता है कि 'न्यासापहारवचन' नामके अतिवारसे चारोका दूषण क्यों
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अतिचार करण
३ ३
नहीं बतलाया गया, असत्यका दूषण क्यों बतलाया गया ? इसका समाधान यह है कि खाली बचन या कथनका प्रयोग किया गया है-वीज ( धरोहर नहीं चुराई गई है अतः वचनमात्र असत्य है - वचनकृत अपराध वह है कायकृत नहीं है, किम्बहुना | ऐसा ही सर्वत्र समझना चाहिये
विशेषार्थं अन्य मतवालोंने इस तत्वको न समझकर स्वार्थवश संसार में अन्याय व अधर्मका भारी ( अजहद ) प्रचार किया है । वे स्वयं स्वेच्छाचारी असंयमी व्यसनी थे । अतएव मनमाने पाप किये हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, मद्य, मांस, मधु आदिका सेवन किया, जिससे बदनामी इज्जती होना संभव है-प्रतिष्ठा घट सकती है ? इस भयसे या तीव्र कषावसे उन्होंने कलमके जोरपर उक्त पाप पोषक (पायोंको उचित बतानेवाले ) अनेक मनगहन्त वास्त्र (स्मृतियाँ बगैरह ) बना डाले, जिनमें उक्त पाप कार्य करनेको विधि ( आज्ञा ) है । इस तरह मिथ्यात्वका प्रचार व प्रसार उन्होंने किया है अर्थात् अपने पापको छिपाने के लिए संसारको पापी बना दिया है यह दुःखकी बात है । फलत: भूल व प्रमाद यदि कोई अपराध हो जाय तो उसकी पुष्टि कभी नहीं करना चाहिये न अन्य लोगोंको संघ बनाकर उत्साहित करना चाहिये, यह बड़ी समझदारी विवेकशीलता है, अवमंसे हमेशा बचना चाहिये । मिथ्योपदेशका यही मतलब है --असत्यका प्रचार करना, वह वर्जनीय है, किम्बहुना ।
यहाँ प्रश्न हो सकता है कि यदि कोई व्रती सम्यग्दृष्टि होकर भी मिथ्या उपदेश देता है तो उसको मिध्यादृष्टि कहना चाहिये अतिचार नहीं कहना चाहिये क्योंकि सम्यग्दृष्टि मिथ्या उपदेश नहीं दे सकता इत्यादि । इसका उत्तर ऐसा है कि सम्यग्दृष्टिकी सम्यक् श्रद्धा में परिवर्तन नहीं होता वह अटल ही रहती है किन्तु शक्तिहीनतासे या कषायवण आचरण अन्यथा हो जाता है, जिसका उसको दुःख रहता है, पश्चाताप करता है. उसे हे ही समझता है, उपादेय नहीं समझता इत्यादि विशेषता पाई जाती है। कषायके वेगमें योगों ( वचन व काय ) की प्रवृति अन्यथा हो जाना आश्चर्यजनक नहीं है-वह शक्य व संभव है किन्तु मनोयोगको प्रवृत्ति ( श्रद्धारूप ) कभी अन्यथा नहीं होती जबतक सम्यग्दर्शन मौजूद रहता है इत्यादि । यह सत्य समाधान समझना चाहिये | इसी तरह रहस्यको बातको प्रकट कर देना आदि आचरण विरुद्धता अतिचारमें ही शामिल समझना - सम्यग्दर्शनको घातक नहीं समझना यह निर्धार है, अस्तु । सम्यग्दर्शन के साथ कषायोंका अस्तित्व बहुत दूर तक रहता है फिर भी सबंधाती स्पर्धकों का उदय न होनेसे व सिर्फ देशघाती स्पर्धकोंका उदय होने में 'सम्यग्दर्शन व व्रत संयम' से वह भ्रष्ट नहीं होता--- वे सब सदोष बने रहते हैं, उनमें चलमलपना रहता है इत्यादि । क्षायोपशमिकचारित्र या संयममें ऐसी ही अवस्था होती है, किम्बहुना । वह उन सबका वेदक या ज्ञाता ही रहता है. श्रद्धालु नहीं रहता या उसकी श्रद्धा में परिवर्तन नहीं होता यह सारांश है ।। १८४ ॥
अणुव्रत पाँच अतिचार बतलाते हैं ।
प्रतिरूपव्यवहारः स्तेननियोगस्तदाहृतादानम् |
राजविरोधातिक्रमहीनाधिकमानकरणे
च ।। १८५ ।।
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पुरुषार्थसिवएपाय
पद्य माओं में मिश्रण का करना, चोर उपाय बताना है। चोरी की वस्तु खरीदना, राज्य विरुद्ध जु करना है। कमबद मापों को भी रखना. अतिचार कहलाता है।
खोरी के त्यागी पुरुषों को, ये सब कभी न करना है ॥ १८५|| अम्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [प्रतिरूपव्यवहारः] अधिक मूल्यको वस्तुमें कम मूल्यको वस्तुको मिला देना [ स्तेनानियोगः सदाहतादानम् चोरी करनेका उपाय ( तरकीब ) बताना तथा चोरोका द्रव्य खरीदना ( कम मूल्यमें ) और [ राजविरोधातिक्रमहामाधिकमानकर च ] राज्यके कानून { नियम ) के विरुद्ध कार्य करना ( चलना या वर्ताव करना ) एवं नापने-तोलने के मापों (बॉटों ) को कम-बढ़ रखना, ये पाँच अचौर्याणुव्रतके अतिचार हैं। इनका त्याग अचीर्माणुवतीको अवश्य करना चाहिये ।।१८५।।।
भावार्थ-अचार्यव्रतको पालनेवालेके लोभकषायका अभाव या मन्दता होना अनिवार्य है बिना उसके वह व्रत निरतिचार पल नहीं सकता अथवा धारण हो नहीं किया जा सकता। ऐसी स्थितिमें मनुष्य श्रद्धा और रुचिपूर्वक पूर्ण अपात रोक स्याग करते हैं । ( विना दिये किसी वस्तुका ग्रहण नहीं करते ) वे उक्त पाँच प्रकारके अतिचार (धब्बा या दाँका ) अचीhणुवसमें नहीं लगाते अर्थात् उसको अतिचार रहित निर्दोष पालते हैं। कारण कि पाँचवें गुणस्थानमें प्रत्याख्यान कषायका उदय होनेसे सकलसंयम तो होता नहीं है किन्तु अप्रत्याख्यान कषायका उदय न होने से देश संयम हो जाता है, फिर भी सर्वथा ( पूर्ण ) लोभकषायका अभाव नहीं हो जाता प्रत्याख्यान व संज्वलनका लोभ शेष रहता हो है तथा नोकषायों में से पांच राम रहते ही हैं.-तब अबुद्धिपूर्वक चौर्यकमका त्याग न हो सकनेके कारण तजन्य दोष लगता है, लेकिन बुद्धिपूर्वक उसको उक्त अतिचार नहीं लगाना चाहिये ऐसा उपदेश है। यदि कहीं इसके विरुद्ध कोई व्रती गुप्तरूपसे या दूसरी तरहसे ( मार्फत-द्वारा-परम्परया ) अतिचारा लगाता है तो वह भी वर्जनीय है क्योंकि उसका फल स्वयं करानेवालेको हो मिलता है । जैसेकि स्वयं चोरो नहीं करनेवाला यदि चोरीका उपाय किन्हीं दूसरोंको बतलाता है तो उसका उसमें कुछ स्वार्थ या हिस्सा समझना चाहिये। अन्यथा उससे उसका क्या मतलब? कुछ भी नहीं। नि:स्वार्थी कभी नहीं बतलायमा। अतः यह कारित दोषका भागो होता है-लोभका अस्तित्व उसके समझना चाहिये । इसी तरह लोभवश असलो चाजमें नकली मिलाकर चलाना, तथा चोरीका द्रव्य लोभवश कम कीमत में लेना, चुंगी या टैक्स -बिना चुकाये माल लाना बेंचना (यह राज्यका कानुन लोड़ना है । लेने व देनेके माप-तौलको कम-बड़ रखना अर्थात् लेनेके लिए बड़ा नाप-तौल रखना और देने के लिए कमतो नाप-तौल रखना इत्यादि, यह सब मूल (प्रत्यक्ष ) चोरी नहीं है तो परोक्ष अवश्य है अतः उसका भी त्याग कराया जाता है, किम्बहुना त-संयम या चारित्रको निरतिचार होना चाहिये तभी निर्जरा होती है अर्थात् लक्ष्य पूरा होता है यह' सारांश है। उक्त कार्य लाभ मायाचार आदिके १. उक्त यस्लेनप्रयोगतदाहादतानविरुद्ध राजातिकम हीनाविकमानोपमानप्रतिरूपकव्यवहाराः ॥२७॥
-० सू० अध्याय
A
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afteenression
ई०५
रहते हुए होते हैं अतएव वे महापापके घर हैं ऐसा समझना चाहिये । प्रयोजनभूत कार्यों में अतिचार का लगना संभव है किन्तु अप्रयोजनभूत कार्योंमें प्रमाद या अज्ञानवश दोष लगाना उचित व क्षम्य नहीं है, अतएव उसका त्याग कर देनेसे हो एकदेश निरतिचारता सिद्ध होती है, क्योंकि प्रयोजनभूत कार्यों में तो अतिचार लगता ही रहता हैं अतः उसमें सर्वथा निरतिचारता नहीं बनती किम्बहुना यहाँपर क्रियारूप कार्यों की अपेक्षासे ( चरणानुयोग से ) अतिचारोंका विचार मुख्यतासे है । क्योंकि भावको अपेक्षा मुख्यता चरणानुयोग में ( लोकाचार में ) नहीं रहती । वह करणानुयोग में रहती है ||१८५||
ब्रह्मचर्यावत ( कुशील स्यागके ) पाँच अतिचार बतलाते हैं ।
स्मरतीवाभिनिवेशाऽनङ्गक्रीडान्यपरिणयनकरणम् । अपरिगृहीतेतयोर्गमने त्वयोः पंच ।। १८६ ॥
पहा
तो विषयकी इच्छा रखना, कोड़ा करन अमंगों से । करनेसे अरु इस्aरिका घर जाने से || ह्मचर्य, उनको दूर करें ।
पर विवाह दोष होत आत्मशुद्धि होने पर ही पार होत संसारधीः ॥१८६॥
अन्य अर्थ - आचार्य कहते है कि [ स्मरामि निवेशः इनंगीहाम्यपरिणयनकरणम् ] काम सेवन या मैथुन सेवनकी तीव्र अभिलाषा ( वांछा रखन्दा, काम सेबनके अंगों ( योनि आदि ) से भिन्न अंगों (हस्त मैथुन आदि ) के द्वारा इच्छा पूर्ण करना ( गुदा मैथुन भी इसी में शामिल है ) अन्य मनुष्य का विवाह करना ( विषय सेवन कराना ) तथा [ अपरिगृहीतेतस्योः इरिकयोः गमने पं] व्यभिचारिणी या पेशाकार भ्रष्ट स्त्रियों ( वेश्या आदि स्वतन्त्र वा परतन्त्र के यहाँ जाना बुलाना - उनसे सम्बन्ध स्थापित करना ( ये दो अतिचार हैं ) कुल पाँच अतिचार ब्रह्मचर्याणव्रत को नहीं लगाना चाहिये त्याग देना चाहिए ।। १८६ ।।
SAJILLA
भावार्थ सप्तम प्रतिमाघारी ब्रह्मचर्याणुव्रतो को स्त्रीमात्र से संबंध विच्छेद कर देना चाहिये, चाहे वह वेतन हो या जड़ हो या मनुष्यणी हो या तिरश्ची हो या देवी हो या चित्रामकी
१. कामसेवन या विषयसेवन ।
२. कामसेवन के अंगों ( योनि आदि ) से भिन्न अंग हस्तादि ।
३. विवाह ।
४. व्यभिचारिणी स्त्रियां - बजारू या वेश्याएँ ।
५. व्रताभिलाषी ।
६. संसार समुद्र |
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पुरुषार्थसिधुपाय हो या मूर्तिरूप हो--सभीका त्याग कर देना सा कर्तव्य है। उनके साशासक : काधिक। मैथुन क्रिया करने का तो मुख्यतया त्याग होता ही है किन्तु मनमें उनकी ओर रागका होना भी वर्जनीय है । जब इतना दृढ़ अटल प्रतिज्ञाधारी कोई जीव होता है तभी वह सच्चा ब्रह्मचारी बन सकता है, बह व्रत बड़ा कठिन च दृर्द्धर है। इसको पालने के लिए कठिन् आचरण । साथमा) की आवश्यकता रहती है । नौ प्रकारकी बाड़ें लगाना पड़ती हैं, इन्द्रिय संयम करना पड़ता है सम्पर्क तोड़ना पड़ता है इत्यादि यह पूर्ण ब्रह्मचर्यका स्वरूप है। द्वितीयादि प्रतिमाका ब्रह्मचर्य, स्वदारसन्तोष तक सीमित है, अत: वह अभ्यासमात्र, विद्यार्थीको दशा है--उसको ब्रह्मचारी काहना उपचार है ! कृत कारित अनुमोदित तीनों भंगोंसे त्याग करना निरतिचार पालना है। जो जीव पंचम गुणस्थानमें रहते हुए ब्रह्मचर्यको अखंडित पालता है वही छठवें गुणस्थानमें पहुँचने पर { मुनिलिंग धारण करनेपर ) आसानीसे ब्रह्मचर्य महाघ्रत पालने में समर्थ हो सकता है। पांचवें गुणस्थानमें लज्जा व भय रहता है ६वे में कुछ नहीं रहता, जाता रहता है।
विशेषार्थ-जिन भगवान्की आज्ञाका जो उल्लंघन करता है अर्थात् उसका आदर नहीं करता या उसकी परवाह नहीं करता--विरुद्ध चलता है वह निर्लज्ज या निर्भय कहा जाता है । और जो जिनाज्ञाका पुरा पालन करता है वह चिर्लज्ज नहीं है-धीठ नहीं है भक्त है । सदनुसार भगवानको आज्ञानुसार जो परद्रम्यसे या रागादिसे सम्बन्ध छोड़ देते हैं एवं एकत्त्वविभक स्वरूपसे सम्बन्ध जोड़ लेते हैं वे हो सच्चे लज्जालु हैं। लज्जावत है) और जो परसे सम्बन्ध नहीं तोड़ते जोड़े रहते हैं वे निर्लज्ज है ऐसा समझना चाहिये। लज्जाका अर्थ यहाँ पर आदर व श्रद्धा करना है, किम्बहुना । ऐसी स्थिति में वेश्या आदिसे सम्बन्ध जोड़ना महानिर्लज्जता है जो सर्वथा अनुचित है । अन्यत्र सागारधर्मामृत आदिमें इस सम्बन्धका विवेचन अग्राह्य है बह जबसा नहीं है लोकविरुद्ध प्रतीत होता है विचार किया जाय-संगति नहीं बैठती इति ।
स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षामें टीका इस प्रकार है-~~० ३३७-३३८
'गमन' जघनस्तनबदनादिनिरीक्षणसंभाषणहस्तकटाक्षादि संज्ञाविधान इत्येवमादिकं अखिलं रागित्वेन दुश्चेष्टितं ममनमित्युच्यते । अर्थात् गमनका अर्थ रमण नहीं होता रामष्ट्रिसे देखना आदि होता है। अतः वह भो ब्रह्मचारीके लिये वर्जनीय है, अस्तु । ब्रह्मचारीको स्पर्शन और रसना इन दो इन्द्रियोंको वशमें रखना- उनपर विजय पाना नितान्त आवश्यक है, ये दोनों सबमें प्रधान हैं, बड़े-बड़े अनर्थ इन्हींके द्वारा होते हैं शास्त्रों में अनेक उदाहरण हैं ।।१८६।। आगे.परिग्रह त्याग ( परिमाण ) अणुवतके पाँच अतिचार बतलाते हैं ।
वास्तुक्षेत्राष्टापदहिरण्यधनधान्यदासदासीनाम् । कुप्यस्य भेदयोरपि परिमाणातिक्रमा पंच ।।१८७॥
१. परविवाहकरणेस्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनागक्रीडाकाभतीवाभिनिवेशाः ॥२८॥
तत्वा सू० ०७
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अतिचारप्रकरण
पद्य
अनार्दिक सत्र 1
संत मकान स्वर्ण अरु चाँदी पशू और दासीदास वस्त्र अरु वतन दशविध परि सीमित जय || अतः उन्हींका लंघन करना अतिचार कहलाता है ।
तको निरखिवार पालन हित उल्लंघन नहिं करता है ॥ १८८ ॥
真电话
अन्य अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ सु-क्षेत्राष्टापदाधनधान्यदासदासीनाम् ] खेत मकान, सोना, चाँदी, गाय, भैंस, ( पशु ) गेहूँ. ज्वार, ( अन्न ) नौकर, नौकरानीके तथा [ कुप्यस्थ भेदयोरपि वस्त्र-वर्तन आदिक दशभेदोंकी | परिमाणातिक्रमाः मंत्र ] सीमा ( अवधि-मर्यादा ) का उल्लंघन करना, परिग्रहपरिमाणवत या परिग्रह त्याग अणुव्रत के पांच अतिचार होते हैं । व्रती उनको दूर करता है नहीं लगने देता ॥ १८७॥
भावार्थ - ये उपर्युक्त १० दश बाह्यपरिग्रह कहते हैं, इन्हों में सवारी भी शामिल है । श्रावक अणुवती इनका पूर्ण त्यागी नहीं हो सकता, कारण कि उसके गृहस्थाश्रम रहता है, उसको प्रतिदिन आजीविका के अर्थ व्यापारादि छह कार्य और धर्मके अर्थ देवपूजा आदि छह कार्य अवश्य करना पड़ते हैं, परन्तु उसके विवेक बुद्धि होने से वह पराश्रित व्यवहार कार्योंकी सीमा या परिमाण कर लेता है, जिससे उसका कार्य कोई बन्द भी नहीं होता और व्यर्थ पाप भी नहीं लगता अर्थात् अनावश्यक चीजों का संग्रह करना वह छोड़ देता है तब उनमें उसका राग ( मूर्च्छा या ममत्व ) छूट जाने से कर्मोंका यंत्र कमती होने लगता है। कायदा यह है कि जिसके जितना अधिक बाह्य परिग्रह होगा उतना ही उसके अधिक राम या ममस्व होगा तथा उतना ही अधिक कर्मबंध होगा व संसार बढ़ेगा इत्यादि । अतएव विवेकोजन बहिरंग और अंतरंग दोनों प्रकारके परिग्रहोंका पेश्तर परिमाण ( सीमा और पश्चात् सम्पूर्ण त्याग कर देते हैं। बाह्यपरिग्रह अन्तरंगपरिग्रहका निमित्तकारण होनेसे उसका भी त्याग करना लाजमो कहा गया है। क्षायोपशमिक ज्ञान व चारि के रहते समय सर्वघाती स्पर्धकों ( कषायों ) का उदय न होनेसे ( उदयाभावी क्षय व सदवस्थारूप उपशम होनेसे ) सिर्फ देशघाती स्पर्धकों का उदय होनेसे मन्दकषाय रहती है- तीव्रकषाय नहीं रहती । फलस्वरूप सवका त्याग तो वह कर नहीं सकता किन्तु परिमाण करके थोड़े में गुजारा करने लगता है, फिर भी उससे विरक्त या उदासीन रहता है जो उसके सिमें है । परन्तु उसका श्रद्धात या सम्यग्दर्शन अटल रहता है यह तात्पर्य है अस्तु ।
अहिंसाव्रतको प्रधानता पालनेवाला श्रावक या मुनि हिंसा के साधनों का उपयोग (स्तेमाल ) कभी नहीं करेगा, जबतक शक्ति रहेगी। वस्त्र वर्तन आदि भी ऐसे होते हैं जिनमें अधिक हिंसा होती है। जैसे कनी, रेशमीवस्त्र, चमड़ाके सन्दूक, बल्ली कुप्पी आदि । उनका उपयोग
१. उच
।
भावविसुद्धिनिमित्तं, बाहिर संगस्य नागओ भणिदो बाहिर चाओ विहलो अन्तरसंग जुत्तस्य || ३ || भावपाड़-कुंदकुन्दाचार्य क्षेत्र वस्तु हिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः ॥ २१ ॥ ० सू० अ० ७
४८
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રક
पुरुषार्थसिद्धार्थ
करना व्रती छोड़ देता है इत्यादि सब विवेकशीलता है अर्थात् व्रतमें यथाशक्ति दोष ( अतिचारटाँका बट्टा ) न लगने पावे ऐसो चेष्टा वह करता है । व करना चाहिये तभी बुद्धिमानी है—विवेकशीलता है || १८७ |1
आगे - दिग्बत ( गुणवतके भेद ) के ५ पाँच अतिचार बतलाते हैं ।
ऊर्ध्व मधस्तात्तिर्यग्व्यतिक्रमाः क्षेत्रवृद्विराधानम् । स्मृत्यन्तरस्य गदिताः प्रचेति प्रथमवीर ॥ १८८ ॥
पद्म
नीचे ऊँचे और बगल में, सीमा घटा बढ़ा लेना । मर्यादाको भूल रागले बाहिर भी जाना माना || नई स्मृतिकै कारण पुन: सीम सुकरंर भी करना | इस विष अतिचार हैं पाँचों, दिग्धतमें इनको
तजना ॥ १८८ ॥
अन्वय अर्थ -- आचार्य कहते हैं कि [ अर्ध्व मधस्तात् तिर्यग्व्यविक्रमाः ] ऊपर ( ऊर्ध्वदिशामें ) अध: ( पाताल लोक में ) तिर्यक्— मध्य लोकमें सीमाका उल्लंघन करना अर्थात् इच्छानुसार प्रयोजनवश सीमा घटा बढ़ा लेना ( ये तीन अतिचार हैं ) तथा [ क्षेत्रवृद्धिः ] प्रयोजनश सीमा को और लम्बा कर लेना एवं [ स्मृत्यन्तरस्याधानम् ] पहिलेको याददाश्त ( खबर ) भूलकर नवीन याददाश्त से पुनः सीमा मुकर्रर करना [ इति प्रथमशीलस्य पंच गदिताः ] इस प्रकार पहिले शीलके अर्थात् दिन पाँच अतिचार बतलाए गये हैं ॥ १८८ ॥
भावार्थ - दिग्नामक शीलव्रतमें दशों दिशाओंको सीमा जीवन पर्यन्त के लिये नियत ( मुकर्रर ) की जाती है - फिर उससे बाहिर कोई व्यवहार ( जाने-आने बुलाने भेजने आदिका ) नहीं किया जा सकता ऐसा नियम है। अतएव जो दिग्वती भूलसे ("अज्ञानसे ) या प्रमाद ( तीव्रराग या कषाय ) से पेश्तर की हुई प्रतिज्ञा ( मर्यादा ) को भंग कर देता है वह अपने व्रतमें कलंक या धब्बा लगाता है, जिससे उसको अपने व्रतका पूरा फल नहीं मिलता । त्रुटि हो जाती है | इसका कारण सिर्फ चारित्रमोहका तीव्र उदय है, सम्यग्दर्शनका दोष नहीं है, वह तो बराबर उसको सावधान करता रहता है- हिदायत देता रहता है कि ऐसा कार्य मत करो यह तुम्हारे रूपके बिरुद्ध है, यह सब हेय है इत्यादि । परन्तु शक्तिहीनता के कारण या असह्य पीड़ा या वेगके कारण वह च्युत जाता है अर्थात् व्रतमें छेद कर देता है, परन्तु पश्चात्ताप ( विरक्ति ) अवश्य करता है और आगे यथासंभव उसका त्याग भी कर देता है। ऐसा करते-करते वह साध्यको सिद्धि
१. उल्लंघन करना अर्थात् घटबढ़ा लेना ।
२. पहिले अधिक क्षेत्र बढ़ा लेना ।
३. उक्तं च-- ध्वधिस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्र वृद्धि स्मृत्यन्तराधानानि ॥ ३० ॥ ० सू० अ० ७
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अविचार करण
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कर लेता है व कृतकृत्य हो जाता है यही पूर्वक्रम है, इसको अपनाना प्रत्येक मुमुक्षुका कर्तव्य है । प्रतिज्ञा भंग करना महान् अपराध माना गया है यह सदैव ध्यान रखा जावे। ये सब उपाय परसे सम्बन्ध छोड़कर एकाकी शुद्ध स्वरूप बननेके हैं किम्बहुना मर्यादासे बाहिर रागादिक विकारी भावोंको छोड़कर स्वभावभाव में स्थिर होनेका लक्ष्य रहता है ।। १८८ ।।
आगे देश
नामक गुणव्रतका स्वरूप बतलाते हैं ।
प्रेष्यस्य संप्रयोजन मानयनं शब्दरूपविनिपाती | क्षेपोsपि पुद्गलानां द्वितीयशीलस्य पंचेति ॥ १८९ ॥
पछ
tafera की सीमा बाहिर वस्तु भेजना सगवाना । शब्द बोलकर रूप दिखाकर, निज मनरथ पूरा करना कंकर पत्थर फेंक इशारा भीतर से बाहर करना । अशीयार ये पाँचों भाई, द्वितीयशील मत के राजना ।। १८९ ।।
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ प्रेयस्य संप्रयोजनं आनयनं ] देवव्रतको सीमाके बाहर किसी दूसरे साधन द्वारा भेजने योग्य वस्तुको भेज देना व मंगा लेना तथा [ शब्दरूपविनिवासी ] शब्द बोलकर या रूप दिखाकर अपना प्रयोजन सिद्ध करना एवं [ अधि युगलानां क्षेषः ] कंकर, पत्थर फेंककर बाहिर इशारा करना [ इति द्वितीयशीलस्य पञ्च अतिचाराः ] इस तरह दूसरे शीलत ( देशव्रत ) के पाँच अतिचार बतलाये गये हैं अर्थात् ये पाँच अतिचार हैं। ऐसा समझकर देशव्रतको इनका त्याग करना अनिवार्य है ॥ १८९॥
भावार्थ-संसारी जीव कषायवश अपना प्रयोजन हर तरहसे सिद्ध करते हैं । व्रती हो जानेपर भी जबतक कषायोका संयोग सम्बन्ध रहता है या संस्कार रहता है तबतक गुप्तरूप ( मायावारी) से या प्रकटरूपसे अपनी मंशा पूर्ण करने में संलग्न रहा करते हैं । इन्हीं सब खोटो ( हेय ) आदतों या विकारों को हटाने के लिए व्रतादिक धारण किये जाते हैं, परन्तु उनमें जब कोई त्रुटि न रहे - तमाम अतिचार छूट जायें, तभी उनसे लक्ष्य पूरा होता है अन्यथा नहीं। इस व्रतमें मर्यादा के भीतर मर्यादा, नियमित कालको की जाती है अर्थात् दिग्वत ( जीवन पर्यन्त ) की लम्बी मर्यादा अवान्तर हो संक्षेपरूपमें दिनरात्रि आदिके परिमाणसे त्याग किया जाता है अर्थात् इन्द्रियों और कषायपर नियन्त्रण ( कन्ट्रोल ) किया जाता है, जिससे उनके द्वारा होनेवाला अपराध छूट जाय ( बन्द हो जाय ) इत्यादि । इस तरह मूल देशव्रत धारण करनेवालेको अतिचार भी ( उप
१. भेजने योग्य वस्तु ।
२. भेजना। तार चिट्टी आदि भेजना भो वर्जनीय है इत्यादि ।
३. उक्तं च-- आनयनप्रेष्यप्रयोग शम्यरूपानुपात पुद्गलशेपाः ॥३१ ॥ ० सू० अ० ७
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থামিত্ম युक्त ) नहीं लगाना चाहिये। ब्रत किसीके दवारसे या छलकपट । मायाचार ) से नहीं धारण किया जाता..बह तो स्वेच्छासे अपनी रुचि के अनुसार ही धारण किया जाता है, सभी वह बास्त. विक पलता है अन्यथा वह भ्रष्ट हो जाता है। फलतः जबतक स्वयं योग्यता न हो तबतक कमी व्रत धारण करनेका स्वांग नहीं करना चाहिये, पराये बल व आश्वासनपर व्रत नहीं पलता यह पसका है। बिगड़ेका सुधार होना उमोके हृदयपरिवर्तनपर निर्भर है-दूसरा कोई क्या करेगा? निमित्त या सहायक दुसरेका कार्य नहीं करते न कर सकते हैं. वे भी अपना ही कार्य अपने में करते रहते हैं । अतएव भ्रममें पड़ना लाभदायक नहीं होता ऐसा समझकर सही मार्ग अपनाना चाहिये। व्रत परस्पर सापेक्ष होते हैं अर्थात अपने विपक्षी अबत सहित होते हैं। परिणामस्वरूप पहिले जब अन्वत होता है तभी उसके बाद ( अब्रत छूटनेपर ) नती बनता है। इस तरह व्रत ब अवतको सापेक्षता समझना चाहिये । जैसेकि द्रव्य भावकी अपेक्षा रखता है बा भाव, द्रव्यकी अपेक्षा रखता है। विना सापेक्षताके एक अकेलेका कथन या व्यवहार हा हो नहीं सकता इत्यादि परस्पर संधि था सापेक्षता है । सर्वत्र सापेक्षता इसी तरह मानी जाती है व मानमा चाहिये ।।१८९|| आगे अनर्थदण्डत्याग गुणवतके पांच तिचार बतलाते हैं।
कन्दर्पः कौत्कुच्यं भोगानर्थक्यमपि च मौखर्यम् । असमीक्षिताधिकरणं तृतीयशीलस्य पंचेति ॥१९०।।
पद्य
कामोद्दीपक वसन बोलना, काय कुचेष्टा भी करना। भोगों का अनियंप्रत करना, अधिक घाता भी करना। विना विचारे कार्य शु करना, तिचार ये कहलाने ।
नहीं प्रयोजन इनसे सधता, व्यर्थ समझाकर छुवाते ॥१०॥ अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ कन्दप्प: कौन्कुश्य अपि मागान क्या हँसी दिल्लगीके भंड वचन अर्थात् अश्लील बचन बोलना जिनो कामोद्दीपन हो.... विषयाकांक्षा बढ़े, तथा नारीरके अंगोपांगोंको विकाररूप बनाकर कुचेष्टा करना । इशारा करमा ) एवं निरर्थक अप्रयोजन भूत भोगोंका (पंचेन्द्रियोंके विषयोंका ) बहुत संग्रह करना ( व्यर्थ रागादिक बढ़ाना ) { च भोग्य असमीक्षिसाधिकरणं ] और अधिक वार्तालाप करना ( बाचालता करना ) तथा बिना सोचे-विचारे मनचाहा कार्य करना [ इति पा तापशीलस्य अभिचाराः ] उत्त पत्रि, तीसरे सीलन्द्रत । अनर्थदण्डत्यागवत ) के अतिचार हैं, उन्हें त्याग देना चाहिये, क्योंकि उनसे कोई लाभ नहीं होता, उल्टा अपराध व बंध होता है, रागादिक बढ़ाना महान् अपराध है ॥१९०।।
भावार्थ-विना प्रयोजन व रागादिकषायवर्धक कामोंका करना अनर्थ कहलाता है। उससे १. उक्तं च... कन्दर्पकौत्कुच्यमौनयसिमीक्षाधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥३२॥ त० सू० अ०७॥
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अतिचारप्रकरण
लाभ कुछ नहीं होता, हानि ही होती हैं। तब व्रती विवेकी ऐसे काम छोड़ देते हैं- ( नहीं करते, न उन्हें करना चाहिये। चतुर बुद्धिमानों के कार्य हमेशा बुद्धिमत्तापूर्ण रहते हैं। जिनको संसार बढ़ानेका भय नहीं हो स्वनचन्द आहार-विहार करने में मस्ल रहे, जिनको अनर्थसेवक बाहना चाहिये। विन्तु जो कदाचिन् कपायके वेगवन अनर्थ का कार्य कर बैठे परन्तु उसको बुरा समझें व खेद-खिन्न हों और छोड़ने का प्रयत्न ( पुरुषार्थ) करें वे अनर्थ सबक नहीं है। ऐसी स्थितिमें सम्यग्दष्टि नती, लाविहार में चरणानुयोगके अनुसार अनर्थदण्डके कर्ता भले ही माने जायें किन्तु कानयोगके अनमार मोक्षमार्गीबी.शुभारमार्गी नहीं हैं. उनके प्रति समय अमख्यातगणित निर्जरा होती है। जैनम में भावासहा संसार व मोक्षहोला है किम्बहना । जितना त्याग व ग्रहण ( संसारका त्याग व मोक्षमार्गका ग्रहण ) शक्ति के अनुसार किया जा सके उतना ही शक्तिका न छुपाकर करना चाहिये और जो शक हीनतासे न किया जा सके उसके करनेको सिर्फ बांछा व श्रद्धा रखना चाहिये, जिससे वह सम्यग्दष्ट्रि बना रहेगा, अन्यथा मिथ्यादष्टि हो जायगा। तब भाव सदैव ऊंचे रखना चाहिये कायरता बहा पाप है। संसार सागरसे पार करनेवाला सम्यग्दर्शनरूप भाव ही हैं, दूसा कुछ नहीं।
वियोलार ) संयोगी पर्यायों अनेक विकल्प उठते हैं और उनकी प्रतिके लिये जीव अनेक सरहके प्रयत्न करते हैं अर्थात् बाह्य निमित्तीको मिलाले हैं ( जो अनुफाल होते हैं ) और पृथक् करते हैं । जो प्रतिकूल होते हैं । तथा यह कार्य सम्यग्दृष्टि जीव भी करते हैं और मिथ्याटि जोय भी करते हैं, क्रियामें फरक नहीं होता, फरक अभिप्राय ( भाव ) में होता है, उसी का फल मिलता है । सम्यगदृष्टिके उपर्युक्त कार्यका मल कारण गगद्धेषको तीज परिणति है, उसीसे वैसी प्रतिक्रिया होती है, किन्तु अज्ञान परिणति कारण नहीं है अत: उसके अज्ञान । मिथ्याल ) रहता ही नहीं है। अतः उसको द्रव्य गुणपर्यायका सही ज्ञान रहता है। वह भूलता नहीं है। इसीलिये वराजोरी से बलात्कार से प्रतादिकमें रागद्वेषजन्य दोष उसको लगते हैं जो संयोगी पर्याय में रागद्वेषादिके अस्तित्वका प्रभाव है जिसे वह हेय या बुरा समझता है फिर भी बीसरागत में (प्रल या चारित्रमें ) रागादिका होना दप है अस्तु । असमें मोक्ष का मार्ग शुद्ध, ( बोतगग) ही एक होता है, अतएव उसमें कलंक नहीं लगाना चाहिये, तभी उससे साय ( मोक्ष ) को सिद्ध होगी। साध्यसाधकभावमें भी दानों कारण कार्य कसे होना चाहिये जैसे कि साध्य अर्थात् मंयक्ष, यदि शुद्ध है ( सर्व कर्मरहित । है तो उसका कारण उपयोग भी याद्ध ( रागादि रहित । होना चाहिये अर्थात् शुद्धोपयोगरूप कारणसे ही शुद्धताप मोक्ष कार्य हला है इत्यादि । इसमें सम्यग्दृष्टि नहीं भूलता, उसको द्रव्य गुणपर्यायका यथार्थ ज्ञान प्रदान रहता है ( स्वपरका सम्यकबोध रहता है । इसके विपरीत
मिथ्याष्टिको जो विकल्प उठते हैं और उनको पुतिके लिये जो वह निमित्त मिलाताव
१. उक्तं च--जं सक्कातं कीरहण सक्कड़ तहेव सहहणं ।
केलिजि मेहि भगिर्य-सद्दहमाणस्स समत्तं ।।२२।। भाषपाहुए, कुन्दकुन्दाचार्य
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*૨
पुरुषार्थसिद्धपा
हटाता है, उसका कारण अज्ञान - स्वभावका ज्ञान न होना, और रागद्वेषकी सम्मिलित परिणति है अर्थात् उसको उनमें भेद ज्ञान नहीं रहता वह सबको एक एवं अपने ही मानता व जानता है, यह महान भूल उसके पाई जाती है । फलस्वरूप उनको वह हेय नहीं समझता न उनको छोड़ता है इत्यादि । अभिप्राय में फरक दोनोंका रहता है अतएव एक मोक्षमार्गी है ( सम्यग्दृष्टि ) और एक संसारमार्गी ( मिथ्यादृष्टि है ऐसा निर्णय समझना चाहिये ।।१९० ।।
आगे - सामायिक नामक दूसरे शिक्षाव्रत के ५ पाँच अतिचार बतलाते हैं । ( सातशीलों में से चौथा शील )
वचनमनः कायानां दुःप्रणिधानमनादरश्चैव । स्मृत्यनुपस्थापनयुताः पंचेति चतुर्थशीलस्य ।। १९१ |
पद्य
कृत योगा जो दुरुपयोग नित करना है।
और अनादरभाव उसीमें मूल मूल हो जाना है ।
ये पाँचों अतिचार कड़े है -सामायिक शिक्षावतके |
इन्हें छोड़ना उन पुरुषोंको, जो उत्सुक है निज हिंसके ॥ १९१ ।।
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ वचनमनः कायानां सुः प्रणिधानमनादरः ] मनवचनकायकृत तीन योगोंका दुरुपयोग करना अर्थात् मनमें अन्यथा विचार करना या मनको स्थिर न रखना तथा वचन अन्यथा बोलना अर्थात् अशुद्ध मंत्र या पाठ बोलना एवं शरीरको प्रवृत्ति अन्यथा करना काययोगको बार-बार चलाना तथा सामायिक करने में उत्साह या विनय नहीं करना [ स्मृत्यनुपस्थानयुताः [ सामायिकका काल पाठ भूल जाना [ इति पंच चतुर्थशीलस्य अतिचाराः ] ये पाँच चौथे शीलव्रतके अर्थात् 'सामायिक शिक्षावत' के अतिचार हैं, इनका त्याग करना चाहिये ॥ १९१ ॥
भावार्थ -- सामायिक शब्दका अर्थ --- आत्मस्वरूप में एक या स्थिर हो जाता है शुद्ध स्वरूपका अनुभव करना है । जिसका खुलासा 'मनवचनकाय' इन तीनोंकी क्रियायों ( प्रवृत्तियों ) का अवरोध कर ( बन्द करके ) सिर्फ अपना उपयोग आत्माके शुद्ध स्वरूपमें लगाना है स्थिर करना है । जबतक ऐसा प्रयोग नहीं किया जाता तबतक 'सामायिक' सिद्ध नहीं होती अर्थात् उसको सामायिक नहीं कहा जा सकता । यद्यपि आसनका मांडना ( मुद्रा धारण करना ), पाठका पढ़ना, शिरोनति आदिका करना आदि सब 'सामायिक' नहीं है उसकी तयारी करना है, निमित्तिकों का मिलाना है, तथापि उपचारसे उसको भी सामायिक में शामिल किया गया है। तब प्रारम्भकी व अन्तको सभी क्रियायें सामायिक नामसे कही जाती हैं। शिक्षावत में यह कार्य अभ्यासरूपसे रहता
१. उभं च --- योगः दुःप्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३३ ॥ ० सू० अ० ७
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MAHARASTAvnides
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अतिचारप्रकरण
३०२ हैं, अतएव अतिचार भी लग जाता है, परन्तु प्रतिमारूप में अतिचार नहीं लग सकता । प्रतिमारूपमें बराबर तीन काल निरतिचार सामायिक करना पड़ता है और शिक्षायत में दो काल (सुबह व शाम ! सामायिक करनेका नियम है यह मोटा मेद है। लेकिन पाठ मंत्र आदि शुद्ध पढ़ना चाहिये अन्यथा अतिचार लग जायगा तथा योगक्रिया भी योग्य होना चानिये । अर्थात् मन:शुद्धि-मुखशुद्धि ( जूठे मुंह नहीं ) कायशुद्धि: ( हाथपांव प्रक्षालन करना या धोना ) आदि सब विधिपूर्वक होना चाहिये, स्थान, काल आदि भी अनुकूल होना चाहिये तभी सामायिक उपयोग लग सकता है किम्बहुना। योगोंकी प्रवृत्ति कषायके अनुसार होती है। अतएव पेश्तर कषाय बन्द होना चाहिये एवं विकल्प कम होना चाहिये तथा विकल्प था इच्छा पूर्ति के लिये योगोंकी प्रवत्ति भी कम होना चाहिये। ऐसी स्थिति में उपयोग स्थिर हो सकता है और सामायिक बन सकती है, कर्मोकी निर्जराका यही एक अद्वितीय उपाय (साधन) है। चित्त या उपयोगको स्थिर किये बिना सामायिक नहीं हो सकती। फलतः उस समय आरंभ परिग्रहादिका कम करता अविवार्य है यह निष्कर्ष है अस्तु । सामायिक शिथिलाचार नहीं होना चाहिये, सावधानी रहनी चाहिये ।। १९१॥ आगे---प्रोषधोपवास नामक दूसरे शिक्षावतके ५ पाँच अतिचार बसलाते हैं ।
अनवेक्षितानमार्जितमादानं संस्तरस्तथोत्सर्गः । स्मृत्यनुपस्थापनमनादरश्च पंचोपवासस्य ॥ १९२ ॥
पञ्च श्विन देखे, श्रिन शो यस्तु-ग्रहणकरन पहिला जानो। इसी तरह संतस्तरका करना, मल उत्सर्ग साथ मानो। विधी मूलना अनादर कस्ना, अतीचार पाँचों होने ।
इनके स्थान प्रोषधश्रतमें, दोष नहीं कोई लगते # अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ अनवेक्षिाप्रमार्जितमादान ] बिना देखो बिना शोधी (मुलायम बोजसे झारना फटकारना-निगाहसे देखना जरूरी है परन्तु प्रमादसे वह नहीं करना ) वस्त । पुस्तक-नजनादिके वर्तन-उपकरण आदि को ग्रहण करना तथा संस्तरः उत्सर्ग: 1 बिना देखे शोधे जमीन पर जहां-तहाँ विस्तार करना ( चटाई वगैरह बिछा देना) [च स्मृत्यनुपस्थापनमनादरु ] और स्मरण न रखना अथात् भूल जाना व आदरभाव (विनय उत्साह ) नहीं रखना जिपवासस्य पंच ये पाँच अतीचार उपवास अर्थात प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतके हैं, इनको त्यागना चाहिये ।। १९२ ॥
भावार्थ-प्रोषधोपवास शिक्षाबतके ५ पाँच अतिचारोंमें भी स्मृति अनुपस्थान तथा अनादर' ये दो अतिचार बतलाये गये हैं जो पहिले सामायिक शिक्षादतमें भी बतलाये गये हैं। इससे
१. अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजतोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानावरात्यनुपस्थानानि ||३४॥त. सू० अ०७
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पुरुषार्थसिद्धधुपाय पुनरुक्ति दोष नहीं आता, कारण कि कई क्रियाओं में समानता रहती है, जिसमे बाधा नहीं आती प्रत्युत लाभ होता है अस्तु । शेष देखभाल कर चीजोंका उठाना, धरना तथा विस्तर आदि करला (टद्वी पेशाब आदि करना ) यह भी देखभाल कर प्रासुक जगहमें करनेसे हिंसा बचती है, अहिंसा पलती है । स्मृति रखना, आदर करना, इससे गलती मिटती है--प्रमाद नष्ट होता है। पूजनकी सामग्रो आदि भी अच्छो तरह शोच बोनकर ( प्रासुक) काममें लाना चाहिये। उत्साह होनता किसी कामायने तीव्र वेग में होती है । भिखमारकी देन बाधा होने पर जल्दी जल्दी या भूलकर विगार जैसो टाली जाती है जो बड़ा अपराध है। अतएव सहनशीलता व शक्तिका मोना भीतीके लिये अत्यावश्यक है अन्यथा परिणाम बिगड़ जाने पर लाभ नहीं होता--परिणामोंको निर्मल रखना पहिला कार्य है अस्तु ।
नोट-वतीको सावधानो हमेशा रखना चाहिये परन्तु पर्व आदिके दिनोंमें तो खासकर विशेष ध्यान रखनेको जरूरत है। प्रत धारण करनेका एकमात्र लक्ष्य अहिंसाधर्मको पालना है किम्बहना। चौथो प्रापबीपवास प्रतिमा पूर्वोक्त अतिचार नहीं लगाये जाते-उसको निरतिधार पाला जाता है। यहाँ कभी अतिचार लग सकते हैं ऐसा समझना चाहिये ॥ १९२ ।। आगे भोगोपभोगपरिमाण नामक तीसरे शिक्षाप्रसके पात्र अतिचार बतलाते हैं।
"आहारो हि सचित्तः सचितमिश्रस्सचित्तसम्बन्धः । दुष्पकोऽभिषवोऽपि च पंचामी षष्टशीलस्य ॥१९३।।
पद्य
जो ससित्त भर सचित्तमिश्रित, अरु सचित्त सम्बन्धित हो। देर हनम अरु गरिष्ठ वस्तु, जो व्रत में प्रतिबन्धक हो । थे पाँचों अतिचार प्रती के, वैसा मोजन नहिं करते।
इन्द्रिय संयम जीव दया ये, लक्ष्य सदा हाँथे रखते ३ १९३।। अन्वय अर्थ...आचार्य कहते हैं कि [ हि सविसः आहारः समितमिश्नः सचिससम्बन्धः ] यथार्थतः जो आहार ( भोजन ) स्वयं सचित्त हो अर्थात् जिसमें एकेन्द्रियादि जीव पाये जाते हैं । पाँच स्थाधर कायवाला आहार ) तथा जिसमें कुछ अंश सचित्तका मिला हो ( कुछ सचिस व कुछ अचित्त मिला हुआ ) एवं जिसका स्पर्श सचित्तसे हो गया हो ( सचित्तपत्तल आदिसे अचित्तको इक देना अथवा उसपर परोस देना ) [ व दुष्पक: अभिषवोऽपि] और जो कठोर या देर हजम हो ( अधचुरा हो) तथा परिष्ठ हो ( इन्द्रियविकार कारक हो ) या अधिक स्वादिष्ट हो अमी पड़धवस्य पंच अतिचाराः ] ये पांच अतिचार भोगोपभोगपरिमाण नामक छठवें शीलवतके हैं, इनका त्याग करना चाहिये ।।१९३
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१. उक्तंच-सभित्तसम्बन्धसम्मिश्राभिषवदुःपक्वाहाराः ३३५३॥ त० सू० अ०७।
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মিস भावार्थ- भोमोपभोग ( खानापीना आदि ) का परिमाण (सीमा) करना शीलवतीका कर्तव्य है, वह स्वेचछाचारी नहीं रह सकता, उसके प्रायः सभी कार्य मर्यादित हो जाते हैं। तब वह अपना भोजन पान भी यदाता नहीं करता। सबसे पहिले वह सचिसका और उसमें भी एकेन्द्रिय जीवोंकी हिंसाका त्यागी होता है। यों तो अप्रयोजनभूत त्रसहिसाका त्याग उसके पहिलं ही हो जाता है, परन्तु अप्रयोजनमत स्थावर हिंसाका भो त्याग बह करने लगता है यह विशेषता हो जाती है फिर भी मुख्यतया बह पेश्तर अपने खानेपीनेकी चीजोंसे एवं स्वयं न खानेसे परहेज रखता है किन्तु अधिक क्षेत्र नहीं बढ़ाता अर्थात् दूसरोंको न खिलानेका उसके नियम नहीं रहता । वह स्वयंका अर्थात् कृतका त्यागी होता है। वह अभी सचित्तत्याग प्रतिमा ( पांचवी) काधारी नहीं है, अतएव उसको सचित्त सम्बन्ध आदि होनेपर अतिचार ही लगता है. अनाचार नहीं होता। ऐसी स्थिति में यदि सचित्त त्यागी पाँचची प्रातिमाधारी पूर्वोक्त कार्य करे तो वह अनाचारी समझा जायगा, अतिचारी नहीं कहलायगा ऐसा समझना चाहिये यह सारांश है अस्तु ।
यहाँ प्रश्न 'सचित्ताहार'को अतिचारमें शामिल क्यों किया, वह तो अनाचार है, कारण कि उसमें जीवोंका साक्षात् विधात ( हिंसा ) होता है ? इसका समाधान इस प्रकार है कि वह एकदेश अहिंसक है सबंदेश अहिंसक नहीं है अतएव एकदेश भंग होना अतिचार कहलाता है यह लक्षण घटित होता है। अर्थात जिन चीजोंका त्याग नहीं करता, उनको ही सचित्तरूपमें वह स्तेमाल करता है मगल एतेश अलि र नागौर जिनका त्याग कर देता है, उनको ग्रहण नहीं करता अतएव एकदेश अहिंसावत पलता है इत्यादि सचित्ताहारको अतिचारमें शामिल किया गया है । यहाँपर अधिक विस्तार नहीं करना चाहिये अन्यथा निर्वाह होना कठिन व असाध्य हो जायगा इत्यादि । विचार किया जाय । सचित्तत्याग प्रतिमाघारी, सम्पूर्ण सचित्तका त्यागी होसा है, परिमाण ( सीमा ) नहीं करता, अतएव सचित्त चीज एक भी नहीं खाता पीता, हाँ अचित्त कर ग्रहण कर सकता है इति ।
नोद-भोगोपभोगका परिमाण या त्याग करनेवाले जीव यह हमेशा ख्याल रखते हैं कि जिनमें हिंसा अधिक हो व लाभ कम हो-जैसे हरी । गीली ) शाक वगैरह { फूलवाली शाक गढन्त बीजवाली शाक इत्यादि ) नहीं खाते परन्तु जिनका त्याग न किया हो, उनका स्तमाल वे बराबर करते हैं अस्तु । वैसे तो बत, द्रव्य और भाव दो सापेक्ष होला है अर्थात् वही पूर्णश्वत कहलाता है जिसमें द्रव्य त्याग व भावत्याग दोनों हों, परन्तु उसके अभाव में द्रव्य या भाव कोई एक खंडित हो तो वह अतिचार सहित बस कहलाता है यह तात्पर्य है ॥१९शा ___ आगे अतिथिसंविभाग या वैयावृत्त्य नामक चौथे शिक्षाव्रतके पाँच अतिचार बताते हैं ।
परदातव्यपदेशः सचित्तनिक्षेपतत्पिधाने च।
कालस्यातिक्रमणं मात्सर्य चेत्यतिथिदाने ॥१९४॥ १. उक्तं च सचित्तनिक्षेपापियानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिकमाः ।। ३६ ॥ तक भू० भ०७ 1
४९
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શું હું
पुरुषार्थसिद्धघुपायें
पद्य
अन्य feitet प्रेरित करना - हस्ति पत्रपर अरू रखना । aftaree as मोज्यको काल उल्लंघन भी करना ॥ ere are tufer रखना, अतिचार पन होते हैं। इनसे दोष अवश्य होत है अतः बसीजन असे हे ॥ १९४ ॥
अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ पदातृव्यपदेश: सचित्तनिपतविधाने च ] दूसरे दाताको भोजन देने की प्रेरणा करना कि आप दे देना हमको अडचन है इत्यादि बहाना बनाना, पत्ता या पत्तल पर अचित्त ( प्रासुक) भोजन रख देना या उससे ढक देना [ च कालस्यातिक्रमणं सचित मास ] और भोजन ( आहार ) के कालको चुका देना अर्थात् देर कर देना तथा दूसरे दातारोंसे बुद्धि रखना) इति अतिथिदाने पंथ अशिवारा: ] इस प्रकार अतिथि संविभाग या अतिथिदान नामक शिक्षाव्रत के पाँच अतिचार होते हैं। इनको नहीं लगाना चाहिये ।। १९४ ।।
भावार्थ -- आहारदानका बड़ा महत्त्व होता है व माना गया है परन्तु जब वह भक्तिभाव - विनय उत्साह के साथ हो, बरायनाम बलाय टालना जैसा न हो इत्यादि । मनमें विकारभाव या शिथिलाचार होनेसे फल नहीं लगता ( पुण्यबंध नहीं होता ) । अतएव श्रावकका कर्तव्य समझकर विधिपूर्वक अतिचार बचाते हुए आहारदान पात्रोंको अवश्य देना चाहिये । किम्बहुना | श्रावक ( गृहस्थ ) धर्मकी शोभा प्रतिष्ठा इसी में है । यद्यपि पात्रदानमें पात्र अपात्र की परीक्षा करना अनिवार्य है -- बिना परीक्षा किये आहार देना वर्जनीय है परन्तु दद्यादान में पात्र-अपात्रका विचार नहीं किया जाता। ऐसी स्थितिमें जैसा पात्र हो वैसा भाव व वैसी विधिसे भोजन देना चाहिये इत्यादि । निर्दोष आहार देने में कषायकी मन्दता रहती है, जिससे पात्रको लाभ होता है और दाताको भी पुण्यका बंध होता है स्वयं इस लोक और परलोक में साता सामग्रीका संयोग, उसका उपभोग करने का अवसर मिलता है-सुखसाताका अनुभव होता है, संसारी जोवन सुख शान्तिमय बीतता है। इत्यादि 'धर्म' करत संसार सुख' ग्रह चरितार्थ होता है अस्तु । स्वहस्त क्रियाका अर्थात् अपने हाथसे काम करने का फल -- ( कृतका फल ) विशेष होता है और दूसरेसे करवाने का फल ( कारितका फल ) सामान्य होता है अतएव यथासंभव पात्रदान वगैरह स्वयं ही करना चाहिये किम्ब हुना ।। १९४ ।।
आगे सल्लेखना व्रत के पाँच अतिचार बतलाते हैं ।
जीवितमरणाशंसे सुहृदनुरागः सुखानुबंधश्च ।
सनिदानः पंचैते भवन्ति सल्लेखनाकाले || १९५ ।।
१. उक्तं च-- जोवितमरणाशंसा मित्रानुरागसुखानुबंध निदानानि ॥ ३७ ॥ ० सू० अ० ७।
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अतिचारप्रकरण
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पद्य जीवन और मरणकी बाँडा मित्रराग सुखयाद करम | परमवका निदाम करना ये अतीचार सन्यासमरण । इनका त्याग करन, सल्लेखन-समय-प्रभु बतलाया है।
अहो मध्यजन करो सफल तुम उत्तम नरभव पाया है ।। १९५ ॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि सल्लेखनगमाले सल्लेखनाके समय [ जीवितमरणाशंसे सुहदनुरागः ] अधिक सोनेको या जल्दी मरने की आकांक्षा करना, इष्ट मित्रोंसे अनुसम्म
रना अर्थात उनसे अधिक स्नेह करना ममत्व करना)[च सुखानुबंधः सनिदानः 1 और पूर्व में भोगे हुए सुखोंका स्मरण करना तथा आगेका निदानबंध करना अर्थात् आगेकी अभिलाषा ( चाह) मनमें करना। एते पंच अतिधाराः मवन्ति ] ये पाँच सल्लेखनाव्रतके अत्तोचार हैं, उन्हें त्यागना चाहिये क्योंकि चाहनेसे वस्तुका परिणमन नहीं बदलता इत्यादि ॥ १९५ ।।
भावार्थ-सल्लेखनायत धारण करना जोवनका अन्तिम व मुख्य लक्ष्य है जो प्रत्येक सम्यग्दृष्टि व्रतीका होना चाहिये। सल्लेखनामें कायसे ममत्व हटाया जाता है, काषाएँ कम की जाती हैं भोजन पान बन्द किया जाता है और यह कार्य वैराग्य परिणामोंसे किया जाता है.--कषाय पोषणके लिए नहीं किया जाता तथा धर्मको वृद्धिके लिए वह किया जाता है क्योंकि रागादि कषाएँ अधर्म हैं, उनके छूटनेसे वीतरागतारूप धर्म बढ़ता है। ऐसी स्थितिमें उसको आत्मघातका दोष ( लांच्छन ) नहीं लगता। संसार शरीर भोगोंसे,विरक्ति ( अरुचि ) होना जीवका स्वभाव है, परन्तु अज्ञानतासे उसका विपरीत परिणामन हो जाता है (विभावरूप ) पुनः जब भेदज्ञान या सम्यग्दर्शन होता है तब उसको अपने स्वभावका ज्ञान व अनुभव होता है भल मिटती हैप्रबुद्ध होता है तथा उस समय अपनेको 'एकत्व विभक्तरूप, जानकर परसे विरक्त और यथाशक्ति त्यक्त ( पृथक होता है इत्यादि जो उसके हितमें है। संयोगीपर्याय में परद्रव्यका ( परिग्रहादिविषयोंका) और रागादि विकारी भावों का परस्पर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध रहता है, जिससे संसारका तांता ( लगाव ) नहीं टूटता वह बढ़ता हो जाता है ! अतएव उस परद्रव्यका अथवा निमित्त कारणका सम्बन्ध विच्छेद करना अनिवार्य है. उसीके संसारकी बेल कट सकती है, तभी तो महान् पुरुषोंने वैसा किया है। परिणामों में निर्मलता परका संयोग छोड़नेपर हो हो सकती है। ऐसा व्यवहारमें माना जाता है। तब व्यवहार दशामें रहते हुए उसका पालन करना अनुचित नहीं कहा जा सकता-परम्परयाका यही अर्थ है कि व्यवहारमयसे वैसा है. निश्चयसे नहीं है, अस्तु । जोवको सुधारनेका आखिरी अबसर सल्लेखना है सो अवश्य करना चाहिये, कि
वह उचित अवसरपर ही होना चाहिये जबकि मरण निश्चित हो जावे ( उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रजाया च निःप्रतीकारे, इत्यादि )। आत्मघातको शंकाका खण्डन पहिले अच्छी तरह किया ही जा चुका है श्लोक नं० १७७ में देख लेना ।।१९५।।
___आगे संक्षेप { उपसंहार ) में अतिचार रहित निर्मल सभ्यग्दर्शन ब्रतशील आदिका माहात्म्य (फल ) दिखाते हैं।
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पुरुषार्थं घुपा
इत्येतान तिचारानपरानपि सम्प्रतर्क्स परिवर्ज्य | सम्यक्त्यव्रतशीलैरमलैः पुरुषार्थसिद्धिमेत्यचिरात् ॥ १९६॥
पद्म
पूर्व कहे अविचारों को अरु और बुद्धि में जो आवे । उन सबको परिवर्जन करके, निर्मलता को अपनायें ॥ सम्यग्दर्शन त अरु कॉल हि, जब निर्मल हो जाते हैं । तब ही अल्पकाल में साधक, इष्टसिसिको पाते हैं ॥ १-६॥
अन्वय अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि जो व्रती ( साधक ) [ इत्येतानपरानपि असिधाराम् ] पूर्व में कहे हुए सम्यग्दर्शनादिके ७० सत्तर अतिचारोंको तथा और भी [ सम्प्रतयं परिवर्ग्य ] जो बुद्धि तर्क से आगे उपत्यका अमलैः सम्यक्त्वशीलैः ] निर्मल ( निरतिचार ) सम्यग्दर्शन-व्रत-शोलको प्राप्त करते हैं । उनके द्वारा ) वे पुरुष ( सन्त महात्मा ) [ अचिरात् पुरुधार्थसिद्धिमेति ] बहुत जल्दो ( शीघ्र ) पुरुषार्थ की सिद्धिको अर्थात् इष्ट सिद्धिको ( मोक्षको ) प्राप्त कर लेते हैं अर्थात् संसारसे पार हो जाते हैं या मोक्षमार्गको साधनाका फल उन्हें मिल जाता है ॥ १९६॥
भावार्थ - इस श्लोक द्वारा संक्षेप में सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्रको साधनाका माहात्म्य या फल बतलाया है जिससे मुमुक्षु प्राणी उस ओर उन्मुख होवें । मुखातिब होवें ) अर्थात् आकर्षित होवें । पूज्य अमृतचन्द्राचार्यने जिस क्रमसे रत्नत्रयको उपासना करना बतलाया है उसी क्रमके अनुसार अपनानेसे निःसन्देह साध्य (मोक्ष) की सिद्धि हो सकता है रंचमात्र अन्तर नहीं आता । पद व योग्यता के अनुसार कार्य करनेसे सदैव लाभ होता है यह नियम है । साधारण न्यायसे सम्यग्दृष्टिवतो अर्धपुद्गलपरावर्तनकालतक संसारमें रह सकता है किन्तु यह अन्तिम raft है किन्तु योग्यतानुसार पुरुषार्थं द्वारा जल्दी ही मोक्ष जा सकता है। अतएव एकान्त धारणा न करके भवितव्यपर विश्वास रखते हुए पुरुषार्थ हमेशा करना चाहिये, क्योंकि उस भूमिका में कषायका सदभाव होनेसे उनके उदयकालमें तरह-तरह के विकल्प उठते हैं-इच्छाएं होती हैं तथा उनकी पूर्ति के लिए उपाय किये जाते हैं—निमियोंका सहारा लिया जाता है उनका संग्रह व पृथक्करण किया जाता है इत्यादि, परन्तु श्रद्धा अटल रहती है-वह नहीं बदलती। उपयोग ( ज्ञान ) बदलता रहता है, एकत्र स्थिर नहीं रहता इत्यादि । सबका सारांश समझकर कार्य करना ही बुद्धिमानी है, किम्बहुना ।
इति देशचारित्र ( मणुव्रत ) कथन समासम्
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नौवाँ अध्याय सकलचारित्र प्रकरण ( यत्याचार) चारित्रान्तर्भावात् तपोऽपि मोक्षांगमागमे मदितम् । अनिहितनिजवीयैस्तदपि निषेव्यं समाहितस्वान्तः ।। १९७ ॥
मोक्षमार्गमें चारिस भीतर--सपको शामिल किया गया । अतः उसे कर्तव्य बताकर मोक्षमागको सधाया ।। जो कम्पशूर अरु मनको--कानित करने पाले ।
उन्हें निरंतर उग्रम करना, तप निर्वा होथ पाले ॥ १७ ॥ अन्धय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [आगमें चारित्रातर्भावात् तपोऽपि मोक्षागं गदितम् ] शास्त्र या जिनशासनमें-चारित्रका हो भेद ( अंग होनेसे तपको भी मोक्षका कारण माना गया है ( वह मोक्षमार्गसे पृथक नहीं है ) अतएव [ अनि हितनिजवीर्यः समाहितस्वान्तः तरपि निषेत्रम् ] अपनी शक्ति या योग्यताको नहीं छुपानेवाले एवं स्थिर चित्तवाले ऐसे पुरुषोंको चाहिये कि वे, सपको धारण अवश्य करें, यह उनका कर्तव्य है ।। १९७ ॥
भावार्थ-चारित्रको मोक्षका मार्ग पूज्य आचार्योंने सर्वसम्मत माना है, उसमें कोई मतभेद या विवाद नहीं है लेकिन त का स्पष्ट उल्लेख मोक्षमार्ग में नहीं किया गया है तथापि उसका अन्तवि ( शामिल होना) चारित्रमें किया गया है या हो जाता है, वह मोक्षमार्गसे भिन्न नहीं है। ऐसी स्थितिमें तपको तपना या धारण करना अनिवार्य है क्योंकि बिना उसके कार्य सिद्ध नहीं होता। फलतः मुमुक्षु जीवोंका वह नित्य कर्तव्य है । छह नित्य कर्मों में पाँचवें नम्बरमें कहा गया है ) तपका साधारण अर्थ इच्छाओं अर्थात् रागादिकोका रोकना होता है, उससे ही अथवा बोतरागपरिणतिसे ही जोवका कल्याण हो सकता है अन्यथा नहीं हा सकता। जो जीव सपसे डरता है या तपमें श्रद्धा नहीं रखता वह कायर व मिथ्यादृष्टि है अतः यथाशक्ति इच्छाओं को कम करना जरूरी है, जिससे सम्बग्दष्टिपना नष्ट न हो किम्बहुना । मोक्षमार्ग या तपको साधना सब कोई नहीं कर सकता-किन्तु जो आत्माको अनन्त शक्तिको जानकर ( सम्यग्दर्शन प्राप्त कर )
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१. उक्त व- देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः ।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ।। २, इच्छानिरोधस्तपः ।। ३ । त० सू० अध्याय ९३
T: Tishah/Talwand
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पुरुषार्था
संसार शरीर भोगों से विरक्त होता है, अपने उपयोगको आत्माके शुद्ध स्वरूपमें स्थिर करता है एवं उसका स्वाद लेता है ( अनुभव करता है ) वही तप या मोक्षमार्गको साधना कर सकता है शेष बातूनी जमा खर्च करनेवाले कुछ नहीं कर सकते यह नियम है। इस मूल मंत्र को कभी नहीं भूलना चाहिये वस्तु तपके दाने गये हैं, उनमें ६ मद बहिरंग तपके हैं और ६ भेद अन्तरंग तपके हैं जिनका प्रदर्शन आगेके श्लोक में किया जायेगा यहाँ पर कुछ विशेषता बतलाई जा रही है, उसको ध्यान में रखना है ।
तयोंमें बहिरंग और अन्तरंग यह नामभेद क्यों किया गया ? इसका मूल कारण क्या है ?
उक्त प्रश्नका उत्तर अनेक प्रकारसे दिया जाता है परन्तु पूज्य श्री कार्तिकेय मुनिने अपने अनुपम ग्रन्थ 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा" में जो दिया है वह अत्युत्तम व संतोषजनक है, उससे सब सन्देह दूर हो जाते हैं । ( १ ) जिस तपकी मिथ्यादृष्टि - बहिरात्मा भी धारण कर लेते हैं ( अनशनादि ६ ) उस तपको बहिरंग लप कहते हैं ।। २) जिस तपकी सम्यग्दृष्टि[-- अन्तरात्मा हो धारण कर सकते हैं उसको अन्तरंग तप कहते हैं ( प्रायश्चित ६ तप । इसका रहस्य यह है कि बहिरात्मा केवल बाह्य क्रिया (sant परिणति ) को ही तप समझता है अर्थात् शारीरिक क्रियाका करना ही तप है ऐसा मानता है । जैसा कि कोई बाह्यद्रव्य ( जल चन्दनादि ) को चढ़ाना ही पूजा करना मानता है व उसका हो फल प्राप्त होता है ऐसा कहता है, जो आगम या व्यवहारको भाषा ( कथनो है ) - निश्वय या अध्यात्मको भाषा ( कथनी ) नहीं है । अध्यात्मको भाषामें भावोंकी मुख्यता रहती है क्रिया या निमित्तको मुख्यता नहीं रहती है कारण कि फलकी प्राप्ति भावोंसे हो होती है । फलतः पूजा या पूजाका फल आत्माके भावोंको सुधारनेसे ही मिलता है अर्थात् लोभादि कषायों छोड़ने या नष्ट करने और उपयोगको स्थिर करके निर्मोह-निर्ममत्व होनेसे ही मिलता है अर्थात् त्यक्त ( अर्पित या चढ़ी हुई द्रव्यके प्रति पुनः न कोई राग करना न उसे ग्रहण करना हो लोभका छोड़ना हैं, उसीका फल मिलता है अस्तु । जो जीव तपके स्वरूपको भी न समझ सके न वह कैसे प्राप्त होता है यह ( उपाय ) जान सके वह क्या त्यागेगा व क्या ग्रहण करेगा ? यह विचारणीय है ।
प्रसंगवश
तपस्वियों या चारित्रधारियोंके सम्बन्ध में वर्तमान विवाद व निर्णय
यह तो निश्चित है कि जैनधर्म या जैनी श्रमण संस्कृति ( वीतरामता या दिगम्बरत्व ) के उपासक हैं अन्य किसी संस्कृतिके उपासक नहीं हैं । उससंस्कृतिका मुख्य वेष (चिह्न) बाहिर में दिगम्बरपना ( नाता ) है या उसका अनुकरण करना अर्थात् बाह्यपरिग्रह या भोगोपभोगके
१. उक्त च स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा नं० ४५० की टीका लिखा है। बाह्यका ( बहिरंगका ) अर्थ---जो बाहिर देखने में आवे या वाह्य अव्यका आलम्बन लेवे, नहीं है-किन्तु वहिरात्मा हूँ +
अन्तरंगका अर्थ----अन्तरात्मा है - भीतर या अदृश्य नहीं है अस्तु । मूलाचार गाथा १६२ । पत्राचार अधिकार में भी ऐसा ही लिखा है । अन्तरंग -जो अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टि धारण करते हैं । बहिरंग — जिसे बहिरात्मा मिध्यादृष्टि भी धारण कर लेते हैं, यह भेद हैं ।
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सेकरूचारित्रप्रकरण साधनोंको कम करना ( घटाना) भी है। दूसरे शब्दोंमें ( मुनिलिंग' व श्रावलिंग ) श्रमण संस्कृतिके सूचक है। परन्तु लिंग दो तरहके होते हैं...(१) द्रव्यलिंग ( बाह्य त्याग तपस्या) (२) भावलिंग ( अन्तरंग परिग्रहत्याग ) सो जो महात्मा दोनों लिंगोंसे परिपूर्ण हो जाते हैं वे आपको अपण संगतिमानमा समान हैं तथा वे ही मोक्षगामी व मोक्षमार्गके उपासक हैं। शेष जो पुरुष श्रुटि सहित हैं अर्थात् अन्तरंग लिंग व बहिरंग लिंग जिनके पूरा नहीं हो पाता वे यथार्थ में श्रमण संस्कृति के उपासक नहीं हैं-बहिर्भूत हैं यह निर्धार है। इसमें शिथिलाचारको स्थान नहीं है-शुद्धताका आलम्बन है ।
इसीलिये बाह्यलिंग होने पर भी जिनके भावलिंग ( सम्यग्दर्शनादित्रय ) न हो, उसको द्रयलिंगी { मुनि ) श्राहा जाता है जो मोक्षमार्गी व मोक्षगामो नहीं है। प्रत्युत संसारमार्गी हैखोटा रुपया जैसा है। कारण यह है कि मोक्ष व मोक्षमार्गमें भावलिंगकी ही प्रधानता है।' द्रष्यलिंगको प्रधानता नहीं है, वह तो आनुषांगिक है। उससे मुक्ति कदापि नहीं होती। हाँ, लोक व्यवहार में द्रव्यलिंगको महत्ता दी जाती है, परन्तु वह महत्ता पराश्रित होनेसे साध्यसाधक नहीं होती, उसको प्राप्त करनेवाले होन दशावाले कहलाते हैं क्योंकि वह द्रयलिंग शुभ राग ( कषायको मन्दता) से भी होता है और अशुभराग ( कषायको तीव्रता भय लोभ आदि ) से भी होता है, जो कार्यकारी नहीं है-कार्यकारी वह है जो वीतरागतापूर्वक हो । लोकव्यवहारको मान्यता अशुद्ध मान्यता है---शुद्ध मान्यता नहीं है।
ऐसी स्थितिमें संयोगी पर्यायमें रहते हुए यदि कषायके वेगमें या उपशमादिके समय प्रास्तराम या भक्तिभाव हो तो पात्रदानादि शुभ कार्य करना चाहिये अथवा करना पड़ते हैं क्योंकि भूमिकाके अनुसार सभी कार्य होते हैं यह नियम है तथा जबतक इच्छानुसार कार्य न कर ले तबतक उसे चैन नहीं पड़तो सुख नहीं होता-शान्ति नहीं मिलती, अतः अगत्या ( विना रुचिके ) वह कार्य उस सरागो मुमुक्षुको करना हो पड़ता है, परन्तु भीतरसे अरुचि या उपेक्षा
१. उतं च भावेश होई लिंगी, गहु लिंगी होइ दज्वमिसग ।
तम्हा कुणिज भावं, कि कीरइ इन्वलिंगीण ||४८|| भावपाहट कुंदवदाचार्य भावेण होइ गग्गो बाहिरलिंगेण किं च णग्गेण । कम्मपयडीण णियरं णासह भावण दव्यण ॥५४॥
गत्तणं अकज्ज भाषणरहियं जिणेहि पण्णसं । श्य णाणूणय णिच्च भाविज्जहि अप्पयं धीर ॥५५॥ सारांश-भादलिग ( सम्यग्दर्शनादिस्वभाव ) का होना साध्य [ मोक्ष ) का साधक है । इसीलिये प्रथम उसको ही शप्त करना चाहिये । भावसे जो नग्न है अर्थात् मिध्यात्वको जिसने पृथक कर दिया है वहीं असलमें नग्न है । बाहिरकी नग्नता ( वस्वादिका त्याग ) नग्नता नहीं है । कोका क्षय भावनग्नता ही करती है-द्रव्यमग्नता नहीं करती। अतः भावनग्नताके विना द्रव्यनग्नता मात्र नहीं करना चाहिये ऐसा जानकर हमेशा भावलिंग धारण करें।
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কাদিমুণান্ত ही वेगारीकी तरह वह रखता है। जिसका नतीजा ( फल ) उसके असंख्यात गुणित निर्जरा प्रति समय होती है।
नोट-बाह्य द्रव्यलिंगके द्वारा यदि भावलिंगीको परीक्षा न हो सके तो उस हालत में उसको आहारदान आदि विधिपूर्वक देना चाहिये, उसको मनाही नहीं है तथा वह दाता मिथ्याष्टि नहीं हो जाता किन्तु परोक्षा होने के पश्चात् यदि वह द्रलिंगी मिथ्यादृष्टि सिद्ध हो जाय तो वह पात्रदानकी श्रेणी में शामिल नहीं हो सकता। करुणादानकी दृष्टिसे उसको साधारण विधिसे ( नवधा भक्तिसे नहीं) आहार दिया जा सकता है व देनेसे दाता मिथ्यादृष्टि नहीं हो सकता ! सम्मान मिथ्याटर्शन में टोन भतार अबग्निस हैं, बाह्य क्रियापर अवलम्बित नहीं है ऐसा समझना चाहिये। करुणाभावसे हर किसी को दान दिया जा सकता है। परन्तु स्थापना निक्षेपसे सभी आदरणीय हैं, पात्रोंकी श्रेणीमें शामिल हैं, यह, सामारधर्मामृतका "भक्त्या पूर्वभनीनषेत्' वाम श्लोक नं०६४ अध्याय २ माननीय नहीं हो सकता-~~~यतः बह शिथिलाचार पोषक है, भावोंकी प्रधानतापर आघात करता है। इसी तरह द्रव्यचारित्र व भावचारित्रमें भी भेद है लेकिन दोनों भेद सम्यग्दर्शनधारी में ही बन सकते हैं। खुलासा इस प्रकार है-(१) सम्यग्दर्शन साथ में रहते हुए जो व्रतादिकरूप आचरण उस पदसे अधिककषायको मन्दताके कारण करता है परन्तु कषायका अभाव नहीं हुआ है उसका वह चारित्र, द्रव्यचारित्र कहलाता है और (२) जो चरित्र कषायके नष्ट हो जानेपर वैसा होता है वह भावचारित्र कहलाता है । इसीका माम ( १ ) द्रव्य संयम ब (२) भाव संयम है इत्यादि । इसके विपरीत जो चारित्र था संयम मिथ्यादर्शन सहित होता है वह मोक्षमार्गको गिनती में नहीं आता। उसके बाबत लिखा है कि
असंजा वदे वस्यविहीणं च तो ग बंदिज्जे ।
दोषिण वि होति समाजा एगो वि संघदो होदि ॥२५॥ दर्शनपाहु अर्थ----भावलिंग ( सम्यग्दर्शन ) के बिना असंयमी ( स्वेच्छाचारी) और अवस्त्रधारी अर्थात् नग्नवेषी, दोनों ही समान है...संयमी नहीं, सवस्त्र हैं अतएव चन्दनीय भी नहीं हैं। बन्दमोम संयमी हो होते हैं अर्थात् जबसका सम्यग्दर्शनरूप भावलिंग न हो तबतक नग्नपनामात्रको अर्थात् द्रव्यलिंगको संयमपना प्राप्त नहीं हो सकता वह असंयमी ही कहलाता है। फलतः भावलिंग रहित द्रव्यालमधारीको संयमो कहना अनुचित है भूल है। इसी तरह अकेला द्रव्यसंयम ( सम्यग्दर्शन बिना ) भी वन्दनीय या आदरणीय नहीं होता, वास्तविक निर्णय तो यही है । किन्तु उपचारसे अथवा द्रव्यनिक्षेपसे जो सम्यग्दष्टि होकर आगे-आगेके गुणस्थानोंका संयम पाहिले अभ्यास. रूपसे पालता है, वह भी द्रव्यसंयमी कहलाता है लेकिन वह द्रव्यसंयमी सम्यग्दर्शन सहित होनेसे कथंचित् वन्दनीय है परन्तु मिथ्यादर्शन सहित संयमी कदापि बन्दनीय नहीं हैं क्योंकि वह मोक्षमार्गी नहीं है यह सारांश है। श्री कुन्दकुन्द जैसे महान् आचार्यों के निर्णयको न मानकर मनचाहा निर्णय करना, भावुकतामें आकर यद्वातद्वा कहना करना और उसको ठीक मानना मिथ्यात्व है, जिज्ञासाके विरुद्ध है उससे बाज आना चाहिये, सम्यग्दृष्टिको वैसा कदापि नहीं करना चाहिये, अन्यथा वह स्वेच्छाचारी महापातकी समझा जावेगा इसका ध्यान रहे-उत्सूत्री मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं, देवगुरु
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सेकलचारित्रप्रकरण
शास्त्रके श्रद्धानी हो सम्यग्दृष्टि होते हैं यह नियम है ! हाँ, बिमा जाने समझे यदि ऊपरी चरणानुयोगके अनुसार लिंग ( नाजबी हो तो उसने माता मशिबलाई जा सकती है, क्योंकि मन्द कषाय के समय स्वभावतः वैसा होना संभव है किन्तु परोक्षा होने के बाद जैसी पात्रता हो वैसा हो बर्ताव करना उचित है बुद्धिमत्ता है, किम्बहुना । परीक्षाप्रधानता सम्यग्दष्टिका पहिला गुण है, जो होना ही चाहिये । इस विषयमें विवाद करना निरर्थक है, कषायको पुष्ट करना है या अज्ञानता है। केवल शास्त्रोको पढ़ लेमा मात्र विद्वत्ता या ज्ञानता नहीं है अपितु रहस्यको समझना या भावभासना होना ही ज्ञानता व विद्वत्ता है।
नोट-आगम या शास्त्रका सही अर्थ तभी लगाया जा सकता है जबकि शब्दार्थ, वाच्यार्थ, नधार्थ, मतार्थ आदि ५ पाँच बातों का बोध हो, अतएव जिज्ञासुको उसका पुरुषार्थ सदैव करना चाहिये।
तपके भेद प्रभेव मूलमें तपके २ दो भेद है ( १ ) बहिरंगतप और उसके अनशनादि छह भेद । (२) अन्त. रंगतप और उसके प्रायश्चित्तादि ६ छह भेद।
तपका निरुक्ति अर्थ 'तप्यते मुमुक्षुभिरिति तपः' अर्थात् मोक्षार्थी भव्य प्राणी जो तपते हैं....कर्मोकी निर्जरा करते हैं.....शुद्धात्मस्वरूपका आलम्बन करते हैं या उसका स्वाद लेते हैं, उसको तप कहा जाता है। इसका उद्देश्य.-.-पर्यायाथिकनयको अपेक्षासे संयोगीपर्यायमें मौजूद अशुद्ध-आत्माको ध्यानाग्निके द्वारा ( उपयोगकी स्थिरता या निर्विकल्पताके द्वारा ) जैसे सुवर्णगत अशुद्धताको अग्निक्रिया द्वारा निकाला जाता है वैसा निकालना या दूर करना है। जबतक संबोगोर्याय रहती है, तबतक परद्रव्य का संयोग पूर्ण रूपसे नहीं छूटता क्रम-क्रमसे छूटता है। और बिना सम्पूर्ण संयोग छूटे मुक्ति नहीं होती यह नियम है । यद्यपि भेदज्ञानके साथ-साथ होने वाले वैराग्यसे असचिरूप ( विचारसे ) परद्रव्यका संयोग संबंध छूट जाता है ( स्वामित्व छूटता है ) परन्तु उसका संयोगसम्बन्ध ( सत्तारूपस्थिति ) नहीं छूटता वह साथ-साथ बना रहता है, अतएव मुक्ति नहीं होती। ऐसी स्थिति में वह चरणानुयोगके अनुसार त्यागी नहीं माना जा सकता, वह सरासर अस्यागी, अवती. असंयमी है। तथा निमित्तकारणताकी दृष्टिसे उन निमित्तोंका त्याग करना भी जरूरी है अनिवार्य है--जिनसे कषायोंकी उदोरणा होती है और एकत्व विभक्तरूप नहीं बनता, किम्बहुना । उभयशंद्धि---अन्तरंग बहिरंग दोनों परसंयोगोंका अभाव होना अनिवार्य है। उसका एक साधन तप बतलाया गया है। आचार्य बहिरम तपके भेद बतलाते हैं ।
अनशनभवमोदर्य विविक्त शम्यासनं रसत्यागः । कायक्लेशो वृत्तेः संख्या च निव्यमिति तपो बाधम् ॥१९८||
MixMESSIAHE-MANPRESS
RAMBHARA
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MAADAAMROSARSA
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पुरुषार्थसिधुपाय
भोजनश्याग और कम खाना एकान्ते खोना रहमा । रसका त्याग देहका ताड़न संख्या बसको तय करना। ये है छह तप बाहिर दिखते, इमको करना पहिले है।
आरहितैषी कर सकता है, क्रम-मसे पग धरता है ॥१९॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि अनशनमवमोदय ] अनशन ( उपवास ) व कनोदर { थोड़ा आहार करना ) [ विविकशनयासन रसत्यागः ] एकान्तबास ( रहना ) और एकान्तमें सोना, ध्यान लगाना एवं रसोका त्याग करना । चं कारयोः ज्या शारीरिक परोषह सहन करना । शरीरको आराम नहीं देना) नियमोंका लेना--घर आदिको अटपटी प्रतिज्ञा लेना ( जब ऐसा मिलेगा तभी आहार लेंगे अन्यथा नहीं इत्यादि ) [ इसि बाह्यं सर निषेध्यम् । इन उपर्युक्त ६ छह बहिरंग तपोंको धारण करना चाहिये क्योंकि वे मोक्षके अंग ( साधन ) हैं ।।१९८॥
भावार्थ--तप आत्मशुद्धिका निमित्त कारण है, क्योंकि इच्छाओं या राम आदि विकारोंके न होने से ही ( वीतरागता आने पर ही ) आत्मा शुद्ध होती है अर्थात् उसका परद्रव्य ( कर्म नोकर्म रामादि व धनादि ) से सम्बन्ध छूटता है। बस वही 'परद्रव्यसे भिन्नताका नाम' आत्मशुद्धि है। फलतः परद्रमसे अरुचिका होना ( स्वामित्व छूटना) व उसका त्याग करना तप कहलाता है ।।१९८॥
इन सबका स्वरूप बतलाया जाता है।
(१) अनशन अर्थात् उपवास-जिसमें काषाय ( रागादि), विषय-पंचेन्द्रियोंके भोग और अशन-खाद्य-स्वाद्य-पेय, इन चार प्रकार के आहारोंका त्याग हो उसको उपवास कहते हैं। यह चतुर्थ भक्त ( १ उपवास ), षष्टभक ( २ उपवास ) आदि अनेक रूप होता है !
(२) सनोदर ( अबमोदर्य ) --खुराकसे कमती खाना-पोना, कनोदर कहलाता है इसमें आकुलता या संक्लेशता कम करने का लक्ष्य रहता है।
(३) विविक्तशय्यासन-एकान्त व निरुपद्रव स्थानमें रहना, सोना, ध्यान धरना विविक्तशय्यासन तप कहलाता है। इसमें भी निराकुलता प्राप्त करनेका लक्ष्य रहता है-रागादिक कम करनेका प्रयोजन रहता है।
( ४ ) रसत्याग-नीरस भोजन करनेको, अर्थात् मनचाहा रसका त्याग करके उस बिना भोजन करनेको रसत्याग तप कहते हैं। इसमें रसनेन्द्रियको वश में रखना मुख्य प्रयोजन रहता है तथा गर्तपुरण वृत्ति या चर्याका प्रदर्शन-परिचय मिलता है, यह कठिन तप है। बिना कषाय कम हुए यह नहीं हो सकता। १. उक्तं च-कषायविषयाहारत्यागो यत्र विधीयते ।
उपवासः स विज्ञेयः शेष लंघनक विदुः || --उपासकाध्ययन ।
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३९५
सकलचारित्रप्रकरण
(५) कायक्लेशतप इसमें परीषद् सहन करना मुख्य रहता है | शरीरका संस्कार उसे आराम देना बन्द रहता है। यह निर्ममत्वकी निशानी है । जबतक वह सहायता करता है तबतक उसको खुराक दी जाती है पश्चात् बन्द कर दी जाती है ।
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(६) वृत्तिपरिसंख्यानतप इसमें भवितव्य पर निर्भर रहा जाता है, रागादिक छोड़ दिये जाते हैं | अटपटी प्रतिज्ञा पूरी होनेपर आहार लेना, अन्यथा नहीं लेना, यह कितना कठिन कार्य है । परन्तु वह भी परिणमनके अनुसार पूर्ण होता है। और पूर्ण न होनेपर हर्ष-विषाद नहीं करता, सन्तुष्ट रहता है यह बड़ी विचित्र बात है ।
इन छह बहिरंग तपोंको बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि भी कर सकता है व कर लेता है अतएव इनको बहिरंग तर कहते हैं । इनका सम्बन्ध कषायोंकी मन्दतासे या तीव्रता रहता है किन्तु farगतासे या अरुचि सम्बन्ध नहीं रहता क्योंकि मिथ्यादृष्टिके भी कषायोंकी दोनों (तीव्र व मन्द ) दशायें हुआ करती हैं । परन्तु अन्तरंग तप, सिर्फ सम्यग्दृष्टि विवेकी विरागी के हो होता है, जो वस्तु यथार्थं स्वरूपको समझता है कि क्या हैय है, क्या उपादेय है व क्यों है इत्यादि सभी Train जानता है | ज्ञान व वैराग्य ये दोनों आत्मा के गुण व स्वभाव हैं। अतः उनपर लक्ष्यका जाना आत्महिसके लिए है । परसे उन्मुखता हृदना ( उपयोग हटना ) और स्वोन्मुखताका होना ( अपनी ओर आना ) यह महान कार्य है ।
नोट- रागादि अन्तरंग परिग्रहके हटने बाह्यपरिग्रह अपने आप हट जाता है अर्थात् उसका अरुचि होनेसे ग्रहण ही नहीं किया जाता और पुराना भी दिना चाहके चला जाता है ( त्याग देता है ) यह नियम है ऐसा समझकर अन्तरंग परिग्रह ( रागादि ) का त्याग करना ही चाहिए, उसमें आगा-पीछा सोचनेको आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह अपनी चोज है ( स्वाश्रित है ) उसका उपयोग कभी भी किया जा सकता है - वह अपराध नहीं है न अन्याय है, किम्बहुना । विवेक कार्य करना चाहिये, जिससे लाभ हो, हानि न हो इत्यादि ।
आगे आचार्य अन्तरंग तपोंका वर्णन करते हैं ।
farst tergei प्रायश्चित्तं तथैव चोत्सर्गः ।
sarvataise ध्यानं भवति निषेव्यं तपोऽन्तरंगे मिति ॥ १९९ ॥
पद्य
faar और वैयाga दोनों प्रायश्चित और उस |
स्वाध्याय अह ध्यान कहीं से अन्तरंग त जानी दुर्गं ॥ इनके होते कर्मशत्रु नहिं आपासे आम निःसर्ग
जो कुछ पहिले घुसे हुए थे उन्हें हटा देता अपवर्ग १९९ ॥
१. प्रायश्चित्तविनयथैयावृत्त्यस्वाध्यायन्युत्सर्ग ध्यानातरम् ॥ २० ॥ ० ० १ २. किला या कोट रक्षक ।
३. स्वयं स्वभावतः t
४. मोक्ष- निर्वाण |
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पुरुषार्थसिद्धथुपाय अन्वय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [ बिनयो वैय्यास्यं ] विनय और वैयावृत्य । तथा प्रायश्चित्त उत्सर्ग: ] प्रायश्चित्त और उत्सर्ग ( त्याग ) [ अथ स्वाध्याय: ध्यानं | और स्वाध्याय एवं ध्यान [ इति अन्तरंग तप: निधेव्यं भवति ] ये छह अन्तरंग तप हमेशा धारण करने योग्य हैं....यथाशक्ति धारण करना चाहिये ।। १९९ ।।
भावार्थ-तप क्या है ? आत्माकी रक्षा करने के लिये कोट व किले के समान है अर्थात् जिस प्रकार कोट व किलेके मौजद रहते शत्रु या चोर डाकू भीतर प्रवेश नहीं कर पाते और सुरक्षित जानमाल रहता है। लोक उसी तरह तपोंके रहते समय, कर्मशत्रु आत्माके पास नहीं आ पाते, न हानि पहुँचा सकते हैं ( संवर रहता है । यह आश्चर्यकारी घटना है, आत्मरक्षाका अपूर्व उपाय है। तग क्या है ? वैराग्यभाव है, इच्छाओंका निरोध है जो संवररूप है।
प्रत्येकका स्वरूप बताया जाता है।
(१) विनय नामक अन्तरंग तप-सम्यग्दर्शनको प्राप्ति होने पर हो यह हो सकता है। कारण कि जिसको पूज्य-पूजन या उपास्य-उपासक अथवा हेय-उपादेयका ज्ञान न हा बह क्या विनय कर सकता है एवं किसकी विनय कर सकता है ? यह विचारणीय है। सम्यग्दृष्टि जोब ही निश्चयरूपस...-दर्शन-ज्ञान-नारित्र-तप-उपचार ये पांच विनय करता है तथा वह धर्मानुरागसे (धर्मात्माओंकी) नि:स्वार्थ बिनय करता है-स्वार्थवश नहीं। मिथ्यादष्टि स्वार्थवश विनय करता है और वह महा अहंकारी ( मानी ) होता है-वह जातिपाति और विद्याका महान् घमंड रखता है किन्तु स्वार्थवश बिना श्रद्धाके कभी-कभी सकता है, हृदयसे नहीं कहा जा सकता। गुणाधिकों एवं संयमीजनोंकी आवभगत करना चित्तमें प्रसन्नताका होना मानकषायका अभाद होना, विनयतय कहलाता है। विनययोग्य उपर्युक्त पांच प्रकार हैं, बिनय कषायको मन्दतासे होती है-गुणग्राहकतासे भी होती है, अस्तु । विनयके दो भेद होते हैं । १) निश्चयविनय (आत्माका बिनय (२)व्यवहार विनय ( शरीरका विनय, तीर्थबन्दना आदि सब उपचार विनय है।
(२) वैग्यावृत्त्यतप-यह भी सम्यग्दृष्टिके ही होना संभव है जो विवेकी और गुणग्राहक होता है। सेवासुश्रुषा आदि करना यावृत्त्य कहलाता है। उसमें अनेक कार्य शामिल हैं। धर्मानुरागसे यह भक्तिवश वैसा कार्य करता है किन्त उसकी बह देष हो समझता है. बन्धका कारण मानता है, अतः भोलरसे अरुचि रखता है क्योंकि वह सम्यग्दर्शनमें दोष वा अतिचार है। फलतः निश्चयनयसे. मोक्षमार्ग या मोक्षमार्गीको वैवात्ति करना उचित है और व्यवहारनयसे उनके शरीरादिको भी सेवावृत्ति करना कचित् उचित है, संयोग सम्बन्धके नाते वैसा करना चाहिये । उससे पुण्यबंध होता है, पापबंध नहीं होता, जो गृहस्थके लिये प्रायः हितकर है। शुद्ध आहारका देना-औषधि देना आदि सब इसी में शामिल है।
(३ ) प्रायश्चित्ततप--- सम्यग्दष्टि ही कर सकता है क्योंकि उसीको यह शान होता है कि 'यह अपराध है और इसको शुद्धिका यह उपाय है, इत्यादि.----प्रायश्चिसके १० भेद माने गये हैं। सम्यग्दृष्टि हमेशा अपराध छुड़ाने का प्रयत्न करता है--निरपराध रहना चाहता है, वही सबसे
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सकरूचारिश्रप्रकरण
बड़ा अपराध ( मिथ्यात्व ) पहिले छुड़ाता है। बिना ज्ञानके अपराध छूटता हो नहीं है । अपराध छूटनेका उपाय-वीतरागविज्ञानता है दूसरा नहीं, ऐसा समझना चाहिए ।
(४) उत्सर्गतप--शरोरादिसे ममत्व छोड़ना उत्सर्गतप कहलाता है। अथवा प्रासुक भूमि आदिमें मलमूत्रादिका त्याग करना, जिससे जीवधात न हो, जीवोंको रक्षा हो इत्यादि यह भी प्राण व इन्द्रियसंयम है। अधाग्रिहादिना मा तप है ! जान्दा अहिरंग दोनों परिग्रहका त्याग करना )।
(५) स्वाध्यायतप-आत्मस्वरूपका चिन्त्वन करना-.-स्व और पर ( आत्मा व शरीर) का भेद जानना तथा परसे रागादि छोड़ना इत्यादि । यह वाचना-पृच्छना-अनुप्रेक्षा-आम्माधर्मोपदेशके भेदसे पाँच प्रकारका होता है।
(६ ) ध्यानतप-यह चित्त या मनको एकाग्र या स्थिर करनेसे होता है। उसके आतंरौद्रधर्मशक्ल चार भेद कहे गये हैं। परन्तु यहाँ सम्यग्दष्टिका सम्बन्ध होनेस धर्मध्यान व शुक्लध्यामका ही सम्बन्ध समझना चाहिए। असली सप वही है, जिससे कर्मों का संवर व निर्जरा हो।
___ आगे उपसंहाररूपसे अणुव्रती श्रावकका कत्र्तव्य यथाशक्ति र योग्यतानुसार ) सकल चारित्र (मुनिव्रत ) पालनेका भी है, यह बताते हैं ।
जिनपुंगवप्र चने मुनीश्वराणां यदुक्तमाचरणम् । सुनिरूप्य निजां पदवीं शक्तिं च निषेध्यमेतदपि ॥२०॥
मुनियोंका आचरण कहा है जैसा श्री जिनवाणीमें । शनि और निजपदको सपकर बह भी करना मनु मैब में ।। लिन संयमके आपन खोला नहीं सनातन रीति है। सम्बरष्टि बह कैसा है जिसे में सथम प्राप्ति है ॥२०॥
अन्यय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि जिनपुंगवमनन ] सर्वज्ञदेवद्वारा कथित जिनागम ( जिन बाणो) में [ मुमाइवराणां यदाचरणमुकम् ] जो मुनियोंका आचरण ( कर्त्तव्य ) कहा गया है [ एनापि मिजो पदधौं शक्ति व सुनिरूल्य निषेव्यम् | वह भी अपना पद व योग्यता ( सामथ्र्य ) को देखभालकर क्रमशः पालन करना चाहिये, क्योंकि श्रावक ( अणुव्रती ) ही उसको पालता है या पालनेका अधिकारी है ।। २०० ।।
भावार्थ-अणुव्रत धारण करने के पश्चात ही महावत धारण किया जाता है ऐसा नियम १. जिमवाणी। २. विचारकर या देखकर । ३. मनुष्यपर्याय ।
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पुरुषार्थमितपुपाच है। तब जो श्रावक { अणुवती ) अणुवत या देशवास्त्रि पालने में परिपक्व हो गया हो, उसका कसंध्य हो जाता है कि वह अपने पद । कक्षा या दर्जा ) तथा शक्ति ( योग्यता के अनुसार महान ( मनिवत को भी क्रमशः घारण करे क्योंकि बिना उसके मोक्ष नहीं होता । निश्चयो मनिकन । ( पूर्णवीतरागता ) हो मोक्षका मार्ग है, दूसरा नहीं है। व्यवहारसे बाह्यत्रताचरणरूप पाभरानो भी मोक्षका मार्ग माना जाता है परन्तु वह सत्य नहीं है। मनुष्यजन्म ( पर्याय ) को सफलता । मुनिव्रत धारण करने पर हो हाली है। अतएव उसका अभ्यास व पालन करना अनिवाम है। परन्तु पद और योग्यताको देखकर ही कदम उठाना हितकर हो सकता है अन्यथा नहीं। कोगे। भावुकता या देखादेखों में आकर सत्रा कार्य कर बैठता और प्रोले अष्ट हो जाना.. बुद्धिमानी महो। है...-अज्ञानता है। संयम व चारित्रका धारण करना मंदिरपर सोनेका कलशा चढ़ाना है। एक बड़े महत्त्वक्री चीज है परन्तु यह संयम सम्यग्दृष्टि ही पालन कर सकता है मिथ्यादृष्टि तो उस स्वरूपको भी नहीं जानता तब पालेगा क्या? सम्यग्दृष्टिके ६३ गुण होते हैं। उत्तका कमत स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३२६ में किया है जिनका उल्लेख पहिले किया गया है। इस विषयमें उपयोगी गाथा
गिण्हदि मुंघधि सीबी वे सम्म अवधाराखो।
परमकषायषिणासं देशपय कुदि कसं १३ || स्था का अर्थ-जीव दो सम्यक्त्वको अर्थात् जपशम व क्षयोपशम सम्यक्त्वको तथा लामा कषाय और देशद्रत ( अणुव्रत ) को असंख्यातबार ग्रहण करताब छोड़ता है ( मुक्त नहीं होता। संसारमें घूमता रहता है ।। अतएय ऐसा उपाय करना चाहिये जिससे संसारका घूमना मुट जाय । ( बंद हो जाय । और वह उपाय एकमात्र क्षायिकसम्यग्दर्शनके साथ महानतको ( मुनियो । धारण पालन करना है । फलतः क्षायिकमहावत अवश्य धारण करना चाहिये अर्थात मुनियोमा अवश्य लेना चाहिये सभी मनुष्य जीवनकी सफलता हो सकती है लेकिन वरायनाम नहीं किन यथार्थरूप, शक्ति को देखकर मुनिदोक्षा लेना चाहिये यह निष्कर्ष है। यह रूप नकली नहीं होगा। चाहिये, क्योंकि नकल असलका मुकाबला नहीं कर सकता यह नियम है। यदि शक्ति में पाया। न हो तो कभी चारण न करे, उसकी श्रद्धा या रुचि ही हमेशा रखे, जिससे काम कर सम्यग्दष्टि तो बना रहे, भ्रष्ट मिथ्यादृष्टि न हो जाय किम्बहुना विचार किया जाय, समान पाखंड बुरा होता है। उच्चता प्राप्त करने को लालायित तो रहे परन्तु योग्यताको पहिले यस लेवे तभी कार्यकारी है। चरणानुयोगको पद्धतिसे बाह्य आचरण ऊंचा रखना कसंध्य है जो प्रत्याख्यानावरण कषायके अभावमें हो सकता है क्योंकि सकलसंयम या महावतको पातक वही है।
नोट-क्षायिकसम्यग्दर्शन और क्षपकणीके साथ मुनिपद हो संसारसे छटनेका छन मात्र उपाय है-उससे ही अनंतानुबंधी कषाय एवं उपर्युक्त दोनों सम्यग्दर्शन ( उपसम । सो । पशम ) छूट जाते या समाप्त हो जाते हैं तभी मुक्ति होता है अर्थात् अणुव्रत, उपशामक्षयो सम्यग्दर्शन, अनंतानुबंधी कषायका सदभाव, ( उपशमादिरूप या उदयरूप अस्तित्व । मोसमा
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सार साक्षात् कारण ( उपाय ) नहीं है। अतएव उतने मात्र में सन्तुष्ट या कृतकृस्य नहीं हो जाना चाहिये आगेका ( क्षायिक सम्यक्त्व व महानतादि प्राप्त करनेका ) पुरुषार्थ बन्द नहीं कर देना चाहिये यह तात्पर्य है।
संक्षेपमें क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिक्रज्ञान ( केवलज्ञान ) क्षायिकचारित्र ( परमयथाख्यात ) के हुए विना मोक्ष नहीं होता व संसार नहीं छूटता ।। २०० ।।
आगे-- उत्कृष्टश्रावक ( मुनिश्रतका उम्मीदवार ) का और क्या-क्या कर्तव्य है यह बताया जाता है।
(षडावश्यक पालना) इदमावश्यकपटकं समतास्तववन्दनाप्रतिक्रमणम् । प्रत्याख्यानं वपुषो व्युत्सर्गश्चेति कर्तव्यम् ॥ २०१॥
पच समगा स्तुति वन्दन तीनों, और प्रतिक्रमण भी करना । प्रत्याख्यान क्रियाका करना तनुम्मस्वका भी सजना ॥ ये छह आवश्यक कर्म कहे हैं इनका करना निसप्रति है।
श्रावक अरु मुनि दोनों करते अवशकार्य यह निश्चित है ।। १०१ ॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते है कि [ समता-स्तव-वन्दनानिमणम् ] समता, स्तुति, बन्दना, प्रतिक्रमण, I प्रयाख्यान, सपूषी उगुलपग: ] और प्रत्याख्यान व शरीरसे ममत्व छोड़ना [ इति इदमावश्यकपटकं कर्तव्यम् ] इस प्रकार ये छह आवश्यक (नियमित कार्य ) अवश्य-अवश्य श्रावकको करना चाहिये--अन्तर नहीं देना चाहिये ।। २०१ ।।
भावार्थ---मोक्षरूपी फलकी प्राप्तिके लिये पेश्तर भूमिका तैयार करना अनिवार्य है। जब तक भूमिकाशुद्धि नहीं होती तबतक कोई भी बीज फल नहीं देता। तदनुसार उक्त छह आवश्यक नित्य कर्तब्धके रूपमें निरन्तर करनेसे आत्मशद्धि होती है अर्थात् आत्मामें से विकारी या अशुद्धभाव निकलते हैं और शुद्ध ( वीतराग) भाव या विशुद्धभाव ( शुभरागरूप ) प्रकट होते हैं, जिनसे जीवका कुछ भला {हित ) होता है या उसकी योग्यता बढ़ती है-वह मोक्षको प्राप्त करने के लिये समर्थ होता है। उनका स्वरूप निम्न प्रकार है।
(१) समताभाच...सब जीवोंके प्रति राग और द्वेषका त्याग करना अथवा मैत्री धारण करना, यह मन्दकपाय या वैराग्यका फल है उससे संबर और निर्जरा होतो है । अतः अभ्यासरूप से वह करना ही चाहिये श्रावक व मुनिका वह नित्य कर्तव्य है, अनिवार्य ड्यूटी है। मानसिक
१. अनिवार्य --अवश्य ही करमेयोग्य कार्य---अन्वराय बिना करना चाहिये।
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पुरुषार्थसिद्धयुपाये (२) स्तवभाव-धर्मानुरागसे पूज्य या महान् आत्माओंकी स्तुति करना-गुणानुबाद करना स्तव कहलाता है. इससे आदत सुधरती है भक्ति प्रकट होती है। कषायकी मन्दता होती है। इत्यादि वाचनिक क्रिया है।
(३) वन्दनाकर्म----पूज्य पुरुषोंको नमस्कार करना, पाँव पड़ना यह विनय है तथा कायिक किया है। इससे पुण्यबंध होता है, आस्तिकता जाहिर होती है।
(४) प्रतिक्रमण-किये हुए दोषों.....अपराधोंका पश्चात्ताप करना अर्थात् उनसे अरुचि या ग्लानि करना, अपनी भूल मनाना इत्यादि। यह शुभ लक्षण है, उदासीनताकी निशानी है । संवर होता है। सारांश यह कि कृतनापों या अपराधोंका स्वामित्व छोड़नेसे भेदज्ञान होनेसे हो वह सब होता है।
(५) प्रत्याख्यान----जिन दोषों या अपराधोंसे घृणा या अरुचि हुई हो-उनका आगेको स्थाग कर देना, प्रत्याख्यान कहलाता है। इससे संबर व निर्जरा होती है। यह कर्तव्यशूरता है, करके दिखाना है | आत्मबलकी स्फूति है, जो परका स्वामित्व छोड़नेसे होती है।
(६) वपुषो व्युत्सर्ग---शरीरसे भी ममत्व त्यागना---निर्मोह होता है। क्योंकि बाह्य परिग्रहों में सबसे बड़ा परिग्रह अपना शरीर है, जो पुराने साथी-दासके समान है। जीवका उसीसे सारा काम लिया जाता है-उसके बिना कुछ होता नहीं है; अत: उससे बड़ा ममत्व या राग रहता है। तब उससे ममत्व छोड़ना बड़ा कठिन है। लेकिन त्यागी वैरागी पर जानकर उससे भी ममत्व छोड़ देते हैं और घोर परीषह सहन करते हैं, आहार पानी आदि कुछ नहीं देते इत्यादि यह कठोर तपस्या है, संदर-निर्जराको भूमिका है, अतः उत्कृष्ट श्रावकका यह क्रमशः अवश्य ही दैनिक कर्तव्य है-आवश्यक है ।। २०१॥ आगे उत्कृष्ट श्रावकका और क्या कर्तव्य है, यह बताया जाता है ।
तीन गुप्तियोंका पालन करना सम्यग्दंडो वपुषः सम्यग्दंडस्तथा च वचनस्य । मनसः सम्यग्दंडो गुप्तीनां त्रितयमवगम्यम् ॥२०२।।
पध
मन वच शनको वश करना, गुमित्रय कहलाता है। गुझिकरनसे बोगत्रयका अवरोधन हो जाता है। आत्रब और बध रुकता है, योगत्रयके रोधनसे ।
उससे लक्ष्य होत है पूरा, वत्तियोंका श्रय सेवनसे ॥२०॥ अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ वपुषः सम्यग्दवः सथा बच्चनस्थ सम्यग्दंशः स मनसः सम्यग्दंडः ] शरीरका नियन्त्रण करना ( गति अवरोध होना ) बचनका नियन्त्रण करना ( बोलना बन्द करना) और मनको स्थिर करना (नियन्त्रण करना चंचलता रोकना) [गुतीनो त्रितयमव
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सकलचारित्र प्रकरण
४०१
गम्यम् ] ये सोन गुप्तियों कहलाती हैं। इनसे आत्माकी रक्षा होती है अर्थात् कर्मोका नवीन आस्रव ( आना ) नहीं होता अथवा संवर होता है ॥२०१॥
भावार्थ- गुप्तिका अर्थ रक्षा होता है । सो वह रक्षा तीन तरहसे होती है अर्थात् ( १ ) मनकी चंचलता को रोकने अर्थात् मनको स्थिर करनेसे आत्माके प्रदेशों में कम्पन नहीं होता जो योग कहलाता है, तब प्रकृति व प्रदेश नामक कर्मका आना-बंधना नहीं होता (संबर होता है ) | इस तरह मनोगुप्तिसे आत्माको रक्षा ( बचाव ) होती है । ( २ ) वचनगुप्ति-शब्दों का प्रयोग अर्थात् उच्चारण न करनेसे ( मौनालम्बनस ) आत्माके प्रदेशों में कम्पन नहीं होता तब कर्मोंका आना बन्द हो जाता है । इस तरह आत्माकी रक्षा होती है । ( ३ ) कायगुप्ति - आवागमन या आकुंचन प्रसारण आदि काकी क्रिया वन्द हो जानेसे आत्मा के प्रदेशों में कम्प नहीं होता, जिसके फलस्वरूप, कर्मका आना बन्द हो जाता है, बस यही आत्मरक्षा है। ऐसी स्थिति में, भविष्य में (आगे) व वर्त्तमानमं लाभ होने के नाते सोनी यिपालना अत्यावश्यक है, संवर-निर्जराका कारण है ।
प्रश्नोत्तरके रूपमें आलय और बन्धका भेद
आव और अन् युगपत् होता है तथापि भेद है अर्थात् लक्षण जुदे-जुदे हैं । कार्माण arer आना अब कहलाता है । और कार्माण द्रव्यका द्वितीयादि समय तक ठहरना बन्ध कहलाता है, यह भेद है ।
निष्कर्ष - जो अन्य आकर तुरन्त चली जाय, द्वितीयादि समयों तक न ठहरे, वह ईयपिथ आस्रव रूप हैं बन्ध रूप नहीं है उसको बन्ध ही नहीं कहा जा सकता । बृहद्रव्य संग्रह गाथा ३३ की टीका में देख लेना ॥ २०२॥
आगे पाँच समितियोंका पालना भो श्रावकका कर्त्तव्य है यह बताया जाता है ।
सम्यग्गमनागमनं सम्यग्भाषा तथैषणा सम्यक् ।
सम्यग्रहनिक्षेपो व्युत्सर्गः सम्यगिति समितिः ॥ २०३ ॥
पद्य
भकार देशोधनकर, प्रवृति समिति कहलाती है । पाँचभेद उसके होते हैं - मुनिजनके मन भाती ॥ ई भाषा भोजन सम्यक् ग्रहण त्याग ये पाँचों नाम : इनका पालन है आवश्यक - पुण्यबंध होता है आम ||
अन्वय अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि [ सम्यग्गमनागमनं सम्यग्भाषा ] सावधानीपूर्वक अच्छी सरह देखभालकर जाना आना, जिसमें जोब न मरें, अच्छे हितकारक वचन बोलना [ तथा सम्यक्
१. साधारण सबको होता है ।
५१
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કરે
पुरुषायसिन्धुपाय एषा, सम्यक् प्रहनिक्षेप: सम्यक युसर्गः ] और अच्छी तरह शुद्ध भोजन करना, अच्छी तरह देख शोधकर उपकरण आदिको उठाना धरना, निर्जन्तु स्थानमें मलक्षेपण करना । टट्टो पेशाब आदि करना) [इति समिति: पच ] ये पाँच समितियां होता है। व्रतीको इनका पालना अनिवार्य है 11 २०३॥
भावार्थ-इम पांच समितियोंके पालनेका उद्देश्य एकमात्र जीवरक्षा करनेका है। अच्छी तरह सावधानीपूर्वक अर्थात् प्रमाद छोड़कर कार्य या प्रवृत्त करनेसे जीवोंका घात ( हिंसा } नहीं होता, उससे पुण्यका बंध होता है.....सदाचार बढ़ता है, लोक प्रतिष्ठा होती है। हिसाका न होला अहिसाबल पालना है, जो परमधर्म रूप है ! यहाँपर दयापरिणाम या करुणाभावको 'धर्म में भारिल किया गया है, जो लयदारनयका कथन है । निश्चयनयसे शुभरागका होना भी अहिंसा नहीं है कारण [क उससे स्वयं जीवके स्वभावभावका घात होता है। निश्चयनयसे रागद्वेषका पूर्ण अभाव होना । बीत रागता आना ही परम अहिंसा धर्म है। परन्तु व्यवहारनयसे समितियों को पालना भी धर्मायतन है ( प्रशस्त रागरूप है ) ऐसा समझना चाहिये। कहीं-कहीं व्युत्सर्ग के स्थानमें 'प्रतिष्ठापना' समिति लिखा है, खाली नामभेद है, अर्थभेद नहीं है किम्बहना । शुभकार्य में प्रवृत्ति होना भी व्रत या धर्म कहलाता है और अशुभसे निवृत्ति होना भी व्रत या धर्म कहलाता है ऐसा समझाना चाहिये यह लोकाचारको बाल है, अस्तु, सागारधर्मामृत अध्याय २ में देखो ॥२०३१॥ आगे श्रावकको दश धर्मोका पालना अनिवार्य बताते हैं ।
प्रत्येकका लक्षण धर्मः सेव्यः शान्तिदुत्वमृजुता च शौचमथ सत्यम् । आकिश्चन्यं ब्रह्म त्यागश्च तपश्च संयमश्चेति ।।२०४॥
पद्य
क्षमा मार्दव आर्जव सीनों, वश्य शौच दोनों पहिचान । श्राकिन्चन्य ब्रह्म अरु स्थागः सप संथम श्रेदश परिमान । धर्म नाम है इनका भाई इनसे होत आत्मकल्यान ।
अतः इन्होंका पालन करना अतियों का कत्तव्य प्रधान ॥ २० ॥ अन्वय अर्थ आचार्य कहते हैं कि [क्षान्ति:मृदुरव ऋजुता शौचं अथ सत्यम् ] क्षमा, मार्दव, आजब, शौच, सत्य ये पांच [च आकिंजन्यं ब्रह्मा ध्याग: तपः संयमश्वेति ] आकिन्चन्य,
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१. उत्तमशमामार्दवार्जशौचसत्यसंयमतपत्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्म: ।। ६ ।। अ० १. त० सू । २. परिग्रहका बिलकुल ( पूर्ण ) त्याग हो जाना अर्थात् किंचित् ( रंचमात्र ) भी परिग्रहका न रहना। ३. दान देना।
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सकलचास्त्रिप्रकरण
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ब्रह्मचर्य, त्याग, तप, संयम ये पांच कुल दश [ धर्म: सेव्य ] धर्म सेवन करने अर्थात् पालनेके योग्य हैं, बतियोंको अवश्य पालना चाहिये । २०४ ।।
भावार्थ-उपयुक्त दक्ष धर्म, जो ब्राह्म आलम्बन रूप हैं अर्थात् बाह्य निन्द्य क्रियाओं ( असत्प्रवृत्तियों ) को त्यागकर प्रशस्त क्रियाओंके करने रूप हैं ( सदानार रूप हैं शभ प्रवृत्ति रूप हैं ) उसको व्यवहार धर्म कहा गया है जो पुण्यबंधका कारण है। अतएव हीनावस्थामें अथवा सराग या संयोगीपर्याय में, चरणानुयोगको पद्धति के अनुसार उनका पालना श्रावकका मुख्य कर्तव्य है क्योंकि उससे अधिक (बीतागतारूप शुद्ध) धर्म, यह उस अवस्थामें धारण ही नहीं कर सकता, यह नियम है । फलतः पापबंधका न होना और पुण्याबंघका होना यह क्या कम है ? नहीं है-विशेष है।
प्रत्येक धर्मका लक्षण निम्न प्रकार है।
(१) क्षमा (क्षान्ति ) धर्म-सहनशीलताका नाम या क्रोधका न होना ही क्षमाधर्म कहलाता है । परन्तु उसको पनिभान गा सना परिचय परीवा } तय होता जब कि क्रोध (विकार ) उत्पन्न होने के कारण उपस्थित हो परन्तु सामर्थ्य रहते हुए भी (प्रतीकार करनेकी शक्ति रहते हुए भी ) क्रोध न किया जाय और न उसका बदला दिया जाय । अर्थात् असमर्थ या तुच्छ जीवों (प्राणियों ) के द्वारा शक्तिशाली जीवोंको व्यर्थ सताये जाने पर भी ( मारना बांधना माली देना, कंकर पत्थर मारना रूप बाधा देनेपर भी ) क्रोध कमायको जीतने के कारण जरा भी उन शक्तिहीन या क्षुद्र प्राणियों के प्रति म क्रोध उत्पन्ना न उनको दंड देना, यह क्षमाका सही परिचय है। इसके विपरीत शक्तिशाली जीवोंके द्वारा उपद्रव या बाधा देने पर यदि कोई शक्तिहीन जीव बाहिर कुछ भी नहीं करता न कहता है, परन्तु भीतर उसका परिणाम विगढ़ रहा हैबदला लेनेकी भावना हो रही है तो वह उत्तमक्षमा गुणका धारी नहीं है न उसको क्षमावाला कहना चाहिये । इसीलिये 'जह असमस्थय दोष खमिज्जइ' इत्यादि क्षमाका लक्षण लिखा गया है। क्षमा धर्मको, पृथ्वीको उपमा गई है। जैसे पृथ्वोपर कुछ भी डालते रहो या उपद्रव करते रहो परन्तु वह चुप ( ६..त ) रहती है बदला नहीं लेती इत्यादि समझना ! क्षमा धर्मको धातक क्रोधकषाय होती है, उसके अभावमें क्षमा होती है, यह क्षमा आत्माका बड़ा गुण और भूषण है, अस्तु । निश्चयसे जबतक जीवको स्वोन्मुखता नहीं होती, परोन्मुखता ही रहती है तबतक उत्तम क्षमा ( अपूर्वक्षमा ) हो हो नहीं सकती वह सम्यग्दृष्टिके ही होती है।
(२) मार्दवधर्म---मान कषायके अभाव में होता है। मार्दवका अर्थ विनयका होना हैकठोरता या अहंकारताका छूटना है । जबतक आत्मामें पृथ्वीको तरह कठोरता रहती है, तबतक उसमें बीज डालनेसे नहीं उगता न फल देता है। मानी आदमी किसी को कुछ नहीं समझता, उसको किसीकी शिक्षा नहीं लगती यहाँ तक कि उसको अपनो आत्माका भी आदर ( गौरव ) नहीं होता हमेशा निरादर करता रहता है, उसका कल्याण नहीं होता। अतएव मानकषायको त्यागकर मादेव गुणका धारण करना अनिवार्य है। निश्चयसे मार्दवधर्म (आत्माका आदर व बिनय करना ) सम्यग्दृष्टिके ही हो सकता है, मिथ्यादृष्टिक नहीं ।
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पुरुषार्थ सिरपुपाय (३) आर्जवधर्म-सरलताका होना, कुटिलता या मायाचारका छूटना आर्जव कहलाता है। मायाकषायके अभावमें यह प्रकट होता है। यह गुण बड़ा उपकार। है । इसके हर दिना , ऋजुगति ( सोधापन ) नहीं होती, हमेशा टेडो-मेड़ो तियंचगति होती रहती है, अस्तु । सरलता प्राप्त अवश्य करना चाहिये । निश्चयसे आत्मस्वरूपके प्रति सरलता ( सोधा उपयोगका जाना) सम्यग्दृष्टिके ही होती है ।
(४) शोध धर्म-पवित्रता या निर्लोभताका होमा कहलाता है अथवा पवित्रता या वीतरागता प्राप्त होना शीच धर्म है। यह लोभ कमायके अभाव में होता है। यह अन्तरंग और बहिरंग दो तरहका होता है । (१) अन्तरंगशौच, लोन कायका छूटना है और ( २) बहिरंगशौच, शरीर, वस्त्र, बर्तन, खानपान आदिको शुद्धता करना है । यथायोग्य दोनों प्रकारका शौच धर्म पालना कर्तव्य है, अस्तु । सम्यग्दर्शनके प्राप्त हुए विना पवित्रता नहीं आती यह निश्चय है या सत्य है।
(५) सत्यधर्म-महाझूठ-कठोर-अचिकर-दुःखकर, निंदनीय, पाप उत्पादक वचनोंका त्याग करनेसे पलता है। यह सामान्यतः कषायों व नोकषायोके अभाव में या मन्दोदयमें होता व पलता है। असत्य बोलना महान् अपराध है। तीव्र पापबंधका कारण है, अस्तु । चार तरहका असत्य होता है वह वर्जनीय है । लक्षण पहिले पांच पापोंके प्रकरणमें बतलाया जा चुका है श्लोक नं० ९१-२२ आदिमें देखना चाहिए।
(६) आकिञ्चन्यधर्म-अन्तरंग बहिरंग परिग्रहके छूट जाने पर होता है अर्थात् किंचित् भो परिग्रह इसके होने पर नहीं रहता-निष्परिग्रहता हो जाती है। इसके हुए बिना मुक्ति नहीं । होती यह नियम है । अ+ किंचन अर्थात् पासमें कुछ भी नहीं रखना या रहना, अकिंचनवस या धर्म कहलाता है।
(७) तपधर्म-इच्छाओंके रोकनेको तप कहते हैं 1 जबतक इच्छाएँ अर्थात् राग आदि दूर न हों तबतक तप नहीं होता। इसके १२ बारह भेद हैं जो पेश्तर इलोका नं० १९८ व १९९ में बतला दिये गये हैं। उनसे संवर व निर्जरा होतो है ! इसका सम्बन्ध मुख्यतया मोहनीयकर्म से है ।
(८) त्यागधर्म-करुणाभावसे पात्रादिकोंको ( धर्मात्मा जीवोंको ) दान देना ( आहारऔषधि-शास्त्र-वसतिकाका उत्सर्ग करना, मेर मिला देना) त्यागधर्म कहलाता है। इसमें अन्तरंगदान ( त्याग) लोभका छूटना और बहिरंगदान, बाह्म चीजोंसे सम्बन्ध छोड़ना है यह भेद है. दोनों करना चाहिये। आत्माका स्वरूप 'एकत्वविभक्तरूप है' वैसा ही हो जाना त्यागधर्म है।
(१) संयमधर्म---इन्द्रिय व कषायोंका नियंत्रण करना ( वशमें करना) असमर्थ या व्यर्थ के कार्योंका छोड़ना, प्रतादिका धारण करना, समितियोंका पालमा यह संयम कहलाता है। यह गुण आत्माका है जो कर्तव्य है। संयमके इन्द्रियसंयम प्राणिसंयम, या उपेक्षासंयम, परिहुतसंयम आदि अनेक भेद होते है।
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सकलचारित्रप्रकरण (१०) ब्रह्मचर्यधर्म-स्थीमात्रका व कषाय ( वेद । मात्रका त्याग करनेसे ग्रह धर्म पलत्ता है, यह सर्वोत्कृष्ट धर्म है ! इसके दो भेद होते हैं (१) अणुब्रह्मचर्य ( अणुव्रतरूप अर्थात् देशचारित्र)। (२) महाब्रह्मवयं ( महाव्रतरूप पूर्णचारित्र ) । अथवा अन्नतो ब्रह्मचर्य और व्रती ब्रह्मचर्य । व्रतीब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी पाल सकता है और अव्रती ब्रह्मचर्य विद्याथी आदि पाल सकते हैं यह भेद है।
नोट-उक्त दश धर्मों के क्रम में यद्यपि परिवर्तन अनेक जगह पाया जाता है परन्तु संख्या व अर्थमें कोई भेद नहीं है, उद्देश्य सबका एक है--विकारीभावोंको आत्मासे निकालना, अतएव कोई दोष नहीं आता ऐसा समझना चाहिये ।। २०४ ।।
__आगे---१२ बारह अनुप्रेक्षाओं ( भावनाओं) का पालना भी श्रावकका मुख्य कर्तव्य बताया जाता है।
अध्रुवमशरणमेकत्वमन्यताऽशौचमास्रवो जन्म । लोककृषबोधिसंवरनिर्जराः सततमनुप्रेक्ष्याः ॥ २०५॥
पद्य
अधव अशरण एक अभ्यता अशुचि आनन संसर आन । लोक धर्म बोधि अरु संघर मिर्जर भायन बारह मान । ये उपाय उपजावन हारे-सवैराग्य कहे भगवान् ।
जिनका लक्ष्य मोक्ष जानेका इनका करें अवश आह्वान ।। २०५ ।। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ अध्रुश्चमशरणमेकरवमभ्यताऽशौचमानव जन्म ] अध्रुव अर्थात् अनित्य, अशरण, एकात्व, अन्यत्व (ता) अशौच, आस्रव, संसार ( जन्म ) ये सात तथा [लोवृषधोधिसंबनिसः ] लोक, धर्म, बोधि ( रत्नत्रय ) संवर, निर्जरा ये पांच कुल १२ बारह चीजें [ सततमनुप्रेक्ष्याः ] हमेशा बारंबार चिन्तवन करने योग्य हैं । अतः इनको अनुप्रेक्षा या भावना कहते हैं ।। २०५ ॥
भावा...आत्मकल्याण के लिये या संसार शरीर भोगोंसे निवृत्त ( पृथक् ) होने के लिये जबतक उक्त बारह प्रकारकी चीजोंका गुणदोष न विचारा जाय तबतक न उनसे अचि होती है न त्याग किया जा सकता है। अतएव नीचे उनका स्वरूप बताया जाता है। ये वैराग्यको उपजाती हैं तथा भावनाओंसे विचारों या भावोंमें ताजगी ( नवीन स्मुक्ति ) रहती है यह लाम होता है।
(१) अध्रुवानुप्रेक्षा----इसीका नाम अनित्यभावना है। इस संसारमें सन, मन, धन, १. 'एकत्वविभक्त' का नाम ही 'एकत्व अन्यत्व' है -समयसार । २. संसार।
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पुरुषार्थसिरपुपाय यौवन, मकान, दुकान, राज्यसम्पदा, इन्द्रियाँ, उनके विषय--भोगोपभोग आदि समस्त वस्त अध है--विनश्वर है, स्थायी या नित्य कोई नहीं हैं अत: उनमें राग या एकत्व स्थापित करना मसाल है उनमें अहंकार करना उनका विश्वास करना व्यर्थ है वे सब जलके बबूला या इन्द्रजाला । धनुष ) व बिजली बादलोंकी तरह क्षणभरमें विलीन हो जाते हैं, किसी भी तरह के स्थिर नहीं है। रह सकते, तब उनमें भूल जाना, आसक हो जाना महान् अज्ञानता है। ऐसा समझकर न संघको छोड़कर एक अपने विस्व आत्माका सदैव चितवन करना लोन होना ही हितकर है।
(२) अशरणभावना--संसारमें कोई किसीका शरण या रक्षक नहीं है। समः पर्वको माया है कोरा भ्रम है । जब मरण या पतन होनेवाला होता है तब बड़े-बड़े कोट किला साद अस्त्रशस्त्र सेना नौकर धन दौलत आदि नहीं बचा सकते, किसी भी पदार्थ में ऐसी मात्रि नहीं कि वह किसी अन्यको मार या बचा सके। वस्तुस्थिति ( स्वतंत्र स्वसहाय ) निश्चयसे पो हो। किन्तु व्यवहार से इसके विपरीत माना जाता है, जो असत्य है। निमित्त हमेशा निमित्त । म की तरह ही कापरी हमदर्दी करता है. भीतर वह न प्रवेश कर पाता है न कार्य कर पाता। तब उनका बल भरामा करना व्यर्थ है नहीं करना चाहिये । यह अशरण भावना है। मस्त चिन्तवम है।
(३) एकत्वभावना-हमारा आत्मा परमे भिन्न 'अकेला' है अर्थात् परवाने तादात्मरूपसे नहीं मिलता सदैव पृथक रहता है और अपना कार्य स्वयं करता है जो कछ स्वात करता है, उसका फल स्वयं भोगता है अतएव परके पीछे भूलकर अपना अहित या अकल्यान करना मुर्खता है.--विवेकहोनता है। आत्मा सदेव एकत्व विभकरूप है ऐसा चिन्तन करना। एकत्व भावना ( अनुप्रेक्षा ) है । अपने गुणों के साथ ही एकता है--स्वचतुष्टयसे अभिन्नता है।
(४) अन्यस्वभावना-आत्मा और सभी द्रक्रय ( पदार्थ ) परस्पर पृथक-पृथक रहती है। अर्थात् वे भिन्नताकर शुद्धताको नहीं छोड़ती, सब उनका कर्तृत्व एक दूसरे को मानना अमानता है अर्थात् न हमारा आरमा पर ( किमी )का कर्ता है और न पर कोई हमारा कता है खाली निमित नैमित्तिक सम्बन्ध परस्पर रहता है, परिणमन सबका स्वतंत्र अपने-अपने में है। ऐसा निपनायो समझकर कर्तृत्वका अहंकार छोड़ देना सो अन्यत्यानुप्रेक्षा ( भावना) है। परचतुष्टयसे मिलता मानना बुद्धिमत्ता है।
नोट-एकत्व और अन्यत्वभावनामें विचारोंका भेद है। अर्थात् एकत्यभावनामें अपने गुणपर्यायोंके साथ ही एकता या कालिक { सदा ) अभेद माना जाता है कि हम द्रव्यरूपी एक स्वतन्त्र ( आत्मा ) द्रव्य हैं, दुसरी कोई द्रव्य हमारेमें तादात्मरूपसे नहीं मिली है अभएक हम अकेले हैं सिर्फ हमारे गुणपर्याय ही हमारे सदा साथी हैं इत्यादि ! और अन्यत्यभायला परसे भिन्नता या परके साथ अभेदका निषेध किया जाता है। अर्थात् स्वचतुष्टय के साथ एक और परचतुष्टय के साथ भिन्नत्वका विचार किया जाता है ऐसा भेद दोनों में समझना चाहिये। 'एकत्व विभक्त' का ही दूसरा नाम 'एकत्व अन्यत्व' है-शब्द भिन्न-भिन्न है अर्थ दोनो एक है । वस्तुका अनादिनिधनस्वरूप ऐसा ही है।
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(५) अगचित्वभावना शरीर स्वभावसे अचि है-मलमत्रादिका पिंड है। दण्डागह जैसा है ) उसमें से सदैव मल नवद्वारों द्वारा बहता रहता है और आत्मा शुचि या निर्मल है फिर दोनोंकी एकता हो नहीं सकती एवं शरीरके पीछे आत्माको अशुचि । अपवित्र ) मानना मूलमें भूल है ऐसी स्थिति में शरीरको मल-मलकर साफ करमेसे शरीरका ऊपरी मल छूट सकता है किन्तु भोतरी मल नहीं छूट सकता, म आत्माका मल ( रागादिविकार ) छूट सकता है। अतः आत्मशुद्धि के विना बरोरकी झुद्धिसे मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता ऐसा जानना 1 फलत: आत्मशुद्धिका उपाय सदेय करना चाहिये व आत्मागे हो आस्था ( श्रद्धा ) रखना चाहिये, शरीरमें नहीं, यह तात्पर्य है।
(६ ) आस्रव भाबना-नवीन कर्मोका आना 'आस्रव कहलाता है जो हेय है । अतएव योग व कषाय के दूर करने का हमेशा प्रयत्न करना चाहिये क्योंकि दोनों के निमित्तसे कस्त्रिय होता है। आलयके मूल में दो भेद होते हैं ( १ ) द्रव्यास्त्रक । ( २ ) भावात्रव । कामणि द्रव्यका आना द्रव्यास्रव कहलाता है और रागादिविकारी भावोंका आना (प्रकट होना ) भावास्रव कहलाता हैं जिसके ५७ भेद होते हैं । मिथ्यात्व ५, अविरत १२. कषाय २५, योग १५, कुल ५७ भेद समझना । प्रभादका अन्तर्भाव कषायमें होता है। निश्चयसे 'आत्माके प्रदेशोंका कंपन होना' आस्रव कहलाता है जो द्वारस्य है । बार-बार आस्रव न होनेका धिचार करना च प्रयत्न करना अनुप्रेक्षा कहलाती है ! आस्रव कारणरूप है और बंध कार्यरूप है ऐसा समझना । सुक्ष्मभेद श्लोक नं० २०२ में प्रश्नोत्तररूपसे बताया गया है।
(७) संसारानुप्रेक्षा-संसारके स्वरूपका चिन्तबन करना, उसकी बुराइयोंकी ओर स्मरण करना, व्यान रखना । ऐसा करनेसे संसारसे विरक्ति होती है और उसका उपाय विवेकोजन करने लगते हैं, जिससे हित होता है । मोक्ष प्राप्तिका यह एक साधन है।
(८) लोकानप्रेक्षा--षट द्रव्यात्मक लोकका स्वरूप व उसको रचनाका विचार करना लोकानुप्रेक्षा ( भावना ) कहलाती है। यह लोक स्वयं ही बना है, किसीने इसे बनाया नहीं है, यह अनादिनिधन है, नित्य अकृत्रिम है तथा न इसको रक्षा कोई करता है न इसका विनाश कोई करता है, इसके सभी कार्य ( पर्यायें ) स्वतः सिद्ध { सहज स्वभाव ) होते हैं। अन्य मतावलंबियों जैसा इसका कर्ता भर्ता-हर्ता कोई नहीं है ( त्रिशक्तिवाला ईश्वर आदि ) 1 फलतः वस्तुका स्वतंत्र परिणमन समझ किसीपर रागद्वेष नहीं होता - संतोष रहता है । व्यवहारसे नैमित्तिकता मानो जाती है । दृश्यमान लोक पुद्गल द्रव्यको पर्यायें हैं ।
(९) धर्मानुप्रेक्षा-धर्मका अर्थात् बस्तुके स्वभावका चिन्तवन करना धर्मानुप्रेक्षा कहलाती है। अथवा स्यबहारधर्म ( उत्तमक्षमादि अनेकप्रकार का चिन्तवन करना भी धर्मानुप्रेक्षा है। निश्चय व व्यवहारधर्मके चिन्तवनसे ग्रहण व त्याग करनेकी भावना होती है और बैसा करता भी है।
१. पंचपरावर्तनका स्वरूप आगे बतलाया जायेगा जो संसाररूप है।
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पुरुषार्थसिपा
( १० ) बोधि अनुप्रेक्षा - रत्नत्रयधर्मका नाम 'बोधि' है अर्थात् सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञानसम्यक् चारित्रको 'बोध' कहते हैं। उसके प्राप्त होने का बारंबार चिन्तवन करना; क्योंकि वह दुर्लभ रत्न ( वस्तु) है, वह अवश्य प्राप्त करना चाहिये। उसके विना मनुष्यजीवन निष्फल है ऐसा समझना चाहिये ।
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( ११ ) संवरानुप्रेक्षा - कर्मास्रवको रोकना या रुकना संवर कहलाता है उससे संसारकी वृद्धि नहीं होती, कमी ही होती है । उसका बारंबार ध्यान व चिन्तयन करनेसे आत्महितको ओर झुकाव होता है, आवके कारणोंको छोड़ता है, अपना कर्तव्य पालन करता है ।
(१३) निर्जरानुप्रेक्षा -- कर्मोंको निर्जराका विचार करना मुक्ति के लिये अनिवार्य है । अतएव निर्जराके उपायका बार-बार विन्तवन करना निर्जरानुप्रेक्षा कहलाती है। उससे निर्जराका स्वरूप और उसके भेदोंका परिज्ञान होता है जो आत्माके हित में समझा जाता है ।
मोट- उपर्युक्त सभी अनुप्रेक्षाओंका बार-बार चिन्तवन करना चारित्र प्राप्तिका साधन है। अतएव चारित्रके भीतर ही उनका अन्तर्भाव होता है | चारित्रके प्रकरण में कहे गये सभी प्रकारों का उपयोग चारित्र में ही किया जाता है ऐसा समझना चाहिये । भावनाका अर्थ या उद्देश्य सिर्फ विचार करनेका नहीं है किन्तु विचारोंको शिथिल या विस्तृत न होने देना है अर्थात् जगाते रहना है ( मंत्र की तरह ) । उससे स्मृति ताजी रहकर आत्माको अपने कर्तव्य पालनको ओर प्रेरित करती है तथा यथाशक्ति बेसा व्यायादि की भी है। area भावनाका अर्थ कार्य करना क्रिया ) भी होता है ऐसा समझना चाहिये । २०५ ।।
आगे---- २२ बाईस परीषहोंका पालना श्रावकका कर्तव्य बतलाते हैं ।
आईस परीषहोंका स्वरूप
क्षुत्तृष्णा हिममुष्णं नग्नत्वं याचनारतिरलाभः |
देशो मसकादीनामाक्रोशो व्याधिदुःखमंगमलम् || २०६ || स्पर्शश्च तृष्णादीनामज्ञानमदर्शनं तथा प्रज्ञा । सत्कारपुरस्करः शय्या चर्या बधो निषद्या स्त्री ॥ २०७ ॥ द्वाविंशतिरप्येते परिपोढव्याः परीषहाः सततम् ! संक्लेशमुक्त मनसा संक्लेशनिमित्तभीतेन ॥ २०८ ॥
पक्ष
क्षुधा तृषा अरु जड़ा गर्मी नग्न याचना रति हानि । errer
१. अलाभ -लाभ नहीं होता ।
२. स्थान या घर ।
कादिककी जानो निन्दा रोग दुःख खानि ॥ २०६ ॥
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सकलचारित्रप्रकरण
४०१ मलशरीर स्पर्श तृणादिक अश अदर्शन अ प्रशा।
द शायर भर गई लाइन होगा' ।। १०७ ।। ये हैं बाइस परीषह पूरे कस्ठव इनको सहना है।
बिना क्लेश हपसे सहना मय नहिं इमसे करना है ।। २०८ ॥ अन्वय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि [ शुसृष्णा हिममुष्ण नग्नत्वं याचनाऽरतिरलाभः ] भूखप्यास, जाड़ागर्मी, नग्नपना ( दिगम्बरवेष) याचना, (भिक्षाबिना बुलाए जाना), रतिः ( अप्रीति होना), अलाभ ( आहारादिका न मिलना) तथा [ मसकादीनां दंशः माक्रोशः याधिदुःखमंगमलम् ] डांसमच्छर आदिका काटना, निन्दाकारक या कटुवचन सुनना, रोग बीमारीका दुःख (पीड़ा ) होना, शरीरमें मलका लग जाना, और [ तृणादीनां पशः प्रज्ञान अदर्शन प्रज्ञा ] काँटा व कड़ावास कंकर पत्थर आदिका चुभना, कमती ज्ञानका होना, ऋद्धि आदिका उत्पन्न होना, क्षयोपशमिक इन्द्रियाधीन ज्ञानका होना, तथा [ सरकार पुरस्कार शय्या वर्धा वधः निषशा स्त्री ] आदर सत्कारका या भेटका न मिलना विस्तरादि न मिलना, मार्गके चलने में थकावटका होना या चलने की शक्ति न होना, दुष्टजनों द्वारा मारा पीटा जाना.बैठनेकी जगह ठोक नहाना. बडखाब कष्टप्रद रहना, स्त्री सम्बन्धी बाधाका होना [एतेहाविंशतिः परांषडये सब बाईस परोषह ( बाधायें ) है सो [ संक्लेशनिमित्तभातन संक्लेशमुक्तमनसा सततं परिषोदयाः ] जो श्रावक या मुनि संबलेशता होनेके निमित्तोंसे दूर रहता है अर्थात् संक्लेशताके निमिस नहीं मिलाता तथा स्वयं संक्लेशता रहित होता है, उसको उक्ती बाईस परीषद सहन करना ही चाहिये उसका मुख्य कर्तव्य है कि इनको सहन करे ।। २०६।२०७५२०८ ।।
भावार्थ----दुःखों, कष्टों, बाधाओंके उपस्थित होनेपर विना संक्लेशताके प्रसन्नताके साथ सहन करना परीषहजय कहलाता है । यह कार्य बड़ा कठिन है, सरल नहीं है, इसको वीतरागो या मन्दकषायीजीव { मुमुक्षु ) ही कर सकते हैं-रागीद्वेषी आरामी जीव नहीं कर सकते यह नियम है। सभी तो एक वीतरागी मुनिके एक साथ १९ परीषह उपस्थित होमेपर भी सहन कर लेते है, यह बड़ा आश्चर्य है। उस ममय विरोधी ३ तीन परोषह नहीं रहसी, जैसे कि शीत व उष्ण इन दोमेसे एक ही रहेगी,१ घट जायगी, तथा शय्या-चर्या-निषद्या इन तीनमेंसे एक समय ही रहेगो, २ दो घट जायेंगी, इस तरह २२मैसे ३ तीन घट जानेपर १९ हो शेष रहती हैं ऐसा समझना चाहिये।
• कुछ विशेषताएँ-नग्नपरीषह अर्थात् नग्न होनेपर दुःख व लज्जा व भयका होना स्वाभाविक है, परन्तु वीतरागीके सब विकारीभाव नष्ट हो जाते हैं अतएव कोई भय लज्जा आदि नहीं होते, वह निर्विकार बालककी तरह हो जाता है । उसके मनमें कोई विकल्प नहीं उठते, जिससे कोई आकुलता या दुःख नहीं होता यह विशेषता पाई जाती है। चारित्र मोहकर्म के उदय में बाधा होती है।
१. स्त्रीपरीषह।
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१०
पुरुषार्थसिवापाय याचना परीषह अर्थात् विना निमंत्रण या विना बुलाए भोजनार्थ परधर जाने में बड़ा संकोच व लज्जा होती है, यह स्वाभाविक कार्य है गृहस्थाश्रममें रहनेवालेको ऐसा करते समय महान दुःख व संक्लेशता होती है, और भरसक वह वैसा नहीं करता-मर जाना पसंद करता है। परन्तु वीतरागी मुनि, अपमान, लज्जा, संकोच, मान आदिको कोई परवाह न कर ( मन में विकार न लाकर ) निर्विकल्प या निःशल्य होकर परघर भोजनार्थ जाता है, यह बड़ी विचित्रता है। उसको वैसा करने में दाव ( आकलता चिन्ता नहीं होता। ग़जदका त्याग है व वीतराग भाव है। - प्रज्ञापरोषह-क्षायोप्रशमिक्रज्ञानका नाम प्रशा है। यह क्षायोपशमिकज्ञान प्रायः सभी संसारो जोधोंके रहता है और उसके द्वारा पूर्ण ज्ञान नहीं होता, साथमें रामादिक मौजूद रहनेसे अल्पज्ञताका दुःख भी होता है कि 'हम कुछ नहीं जानते' हम बड़े मूर्ख हैं इत्यादि अथवा कुछ असिशयरूप ज्ञान ( अवधि आदि के होने पर अहंकारका होना संभव है। परन्तु उन सबसे वह पृथक् रहता है, कोई चिन्ता या विकल्प नहीं करता, समभाव धारण करता है वह बड़ा धोरवीर होता है ऐसा समझना चाहिये । वह वस्तुस्वभावका सच्चा ज्ञाता है। यहो तो ज्ञानीके ज्ञानकी विशेषता है साथमें वैराग्य त्यागका होना इत्यादि ।
२२ परिषहोंका संक्षेप स्वरूप (१) क्षुचापरोषह----असाताकमके उदय या उदो रणाके समय संयोमोपर्याय में भूख लगती है अर्थात् खानेको इच्छा ( कषाय ) उत्पन्न होती है और जबतक पूर्ति न हो तबतक आकुलता (दुःख विकल्प ) एवं बेचैनी बनी रहती है, बस यही क्षुधारोषह ( बाधा ) है । उसको त्यागी बैरागी जीव जोतते हैं अर्थात् विना संक्लेशताके सहन करते हैं, जिसका फल नवोन कर्मबंधसे बचाना होता है, संवर-निर्जरा होती है। इसका जीतना सरल नहीं है, परन्तु साधुका यह कर्तब्ध है सो वे करते हैं।
(२) तृषापरीषह-भूख की तरह प्यासको बाधा भी होती है । उस समय विना संक्लेशताक उसको सहन कर लेना. तषापरीषहजय। उस समय रामदेषादि विकारीभाव न होनेसे संघरनिर्जरा होती है। गर्मी आदिके दिनोंमें या प्रकृतिविरुद्ध भोजन मिलने में यह बाधा अवश्य होना संभव है, परन्तु कर्तव्यबस उसको सहन किया जाता है। .
(३) शीतपरीषह---जाड़ा या शीत ( ठंड )की बाधा उपस्थित होनेपर भी संक्लेशता या दुःखका अनुभव नहीं करना अथवा दुःखी नहीं होना, न उसका प्रतीकार करना और खुशी-खुशी विना रागद्वेष किये उसको सह लेना, शीतपरीषहजय कहलाता है यह व्रतियोंका कर्तव्य है।
(४) उष्णपरीषह----ार्मी पड़ने या लगने के समय बाधा ( पीड़ा का होना स्वाभाविक है किन्तु त्यागोमती निर्मोहतासे उसको उपचार किये बिना समताभावसे सह लेते हैं, संक्लेशता नहीं करते जो उनका कर्तव्य है।
(५) नग्नपरीषह-चारित्रमोहके तीन उदय रहते हुए एक उंगलोको भी उघड़ा रखना
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सकलचारित्रप्रकरण
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असंभव या कठिन है, फिर इकदम पूर्ण शरीरपरसे सब वस्त्रोंको त्याग देना और लज्जा व संकोचका न होना बड़ी बोरता है-समष्टि है, वीतरागताकी निशानी है। इस महान परीषहको सहन करना महात्माओंका ही काम है, उसका पालन करना उनका कर्तव्य है। वे निर्विकार बालककी तरह रहते व आचरण करते हैं।
(६) याचनापरीषद-दूसरेसे मांगना या बिना बुलाए आहारार्थ दूसरेके घर जाना, यारागा कामालाई करने जीत अपनी तौहीनी या मानहानि समझता है। यदि कदाचित् उसे वैसा करना हो पड़े तो उसको महान् दुःख होता है, कारणकि चारित्रमोहके उदयमें वह संभव नहीं है। परन्तु साधुन्नतीके मन में वह मान इतना कमजोर ( मन्द था क्षीण हो जाता है कि परघर बिना बुलाये जाते समय रचमात्र भी अपमानका अनुभव नहीं होता-संक्लेशता या विकल्प नहीं होता, बिना रागद्वेष किये जाते हैं। सगीद्वेषी जीव वैसा नहीं कर सकते। मांगना बड़ी बुरी बला है। हाँ साधुव्रती भोजनके उद्देश्यसे ही चर्या करते हैं किन्तु दीनता नहीं दिखातेन मुंहसे मांगते हैं । मौन रखते हैं ), न इशारा करते हैं, न बिना आदर दिये ( नवधा भक्ति विना } आहार लेते हैं यह बड़ी महानता है। इससे मालूम पड़ता है कि वे भाग्यको परीक्षा करनेका मुख्य लक्ष्य रखते हैं और भोजनका लक्ष्य गौण रखते हैं, वह भी उपेक्षावृत्तिसे, गर्तपूरणन्यायसे, हर्षविषाद नहीं करते। बस यही परीषह ( याचना ) जय कहलाता है ।
(७) अरतिपरीषह-पूर्वके भोगे हुए भोगों या क्रीड़ाओंका स्मरण होना, उनमें राग या प्रोति होना स्वाभाविक है किन्तु साधु मुनि इतने निर्मोह हो जाते हैं कि उस तरफ ख्याल हो नहीं करते, न प्रतीकार करते हैं इष्ट व अनिष्ट सब समताभावसे रागद्वेष किये बिना सह लेते हैं। यह परोषह चारित्रमोहके उदयसे ही होती है परन्तु वह मन्द या क्षीण हो जाता है। यही अरति परीषहका जय है कि अनिष्ट व इष्ट में दुःख नहीं मनाता ।
(८) अलाभ परीषह-जब कोई चीज इच्छानुसार प्रयत्न करने पर भी रागीद्वेषोको नहीं मिलती है तब उसको महान् दुःख होता है, यह स्वाभाविक बात है। परन्तु साधुमुनिको इच्छा होने पर यदि कोई वस्तु ( आहारादि ) नहीं मिलती है तो वे दुःख नहीं मनाते, सहन कर लेते हैं। यही अलाभपरोषहजय है।
(२) दशमशकपरीषह-मच्छरवगैरहके काटने पर स्वभावतः दुःख उत्पन्न होता है किन्त शरीरादिसे निर्मोही त्यागियोंको डांसमच्छरखटमल आदि द्वारा काटे जाने पर भी वे दुःखका वेदन नहीं करते और समताभावसे वे पीड़ा सह लेते हैं। बस यही परीषहका जय है।।
(१०) आक्रोशपरोषह--आक्रोशका अर्थ निन्दा है। जब कोई जीव रागद्वेषी ( मोही) को निन्दा करता है तब उसको स्वभावतः दुःख होता है किन्तु वीतरागी विपरीत ( विकारके) कारणोंके उपस्थित होने पर भी ( दुष्टों द्वारा निन्दा मारन ताड़न किये जाने पर भी) मनमें संक्लेशता नहीं लाते----दुःख नहीं मनाते सब समताभावसे सह लेते हैं । यही परोषह जय है।
(११) रोगपरीषह-बीमारी आदिके होने पर मोहो जीवोंको बड़ा दुःख व संक्लेशता होती है और उसके प्रतीकारके लिये औषधि आदि वे करते हैं परन्तु निर्मोही साधु कोई औषधि
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पुरुषार्थसिवापाथ नहीं करता, न रोग उपस्थित होने पर घबड़ाता है, न दुःखका अनुभव करता है वह वस्तुका परियमन समझ संतुष्ट रहता है। यही रोगपरीषहका जय है।
१२) मलपरीषह-शरोरमें मैल आदि लग जाने पर मोही जीव कष्टका अनुभव करते हैं, दुःस्व मनाते हैं, उसको छुटाते या दूर करते हैं, हमेशा शरीरको स्नानादि द्वारा सफाई करते हैं, किन्तु निर्मोही साधु त्यागी यह कुछ नहीं करते, मलकी बाधाको समताभावसे सह लेते हैं । यही मलपरीषहका जय है । वे शरीरका संस्कार कतई नहीं करते, उनका बह मूलगुण है।
(१३) तृणस्पर्श परीषहमान शरीर व नरमपाँवोंके होने पर कड़ाघास या उसके डआ, कोटा, कंकर, पत्थर की बाधा स्वभावत: होती है किन्तु निर्मोही साधवती उसकी परवाह
करके समताभावसे सह लेते हैं. अर्थात दःख नहीं मानते. परत्वको भावना रखते हैं अतएवं उससे राग नहीं करते। यह तृणस्पर्शपरीषद है।
(१४ ) अज्ञानपरीषह-ज्ञानावरणीकमके कमती क्षयोपशम होने पर, यदि चिरकाल सक, स्वाध्याय, तत्त्वोपदेश आदिका निमित्त मिले और विशेष ज्ञान न हो तो मोही जीवको स्वभावतः दुःख उत्पन्न होता है। लेकिन निर्मोही साधुके यदि विशेषज्ञान न हो तो वह दुःख नहीं मनाता कारण कि वह वस्तुके परिणमन पर विश्वास करता है, कि जब जैसा होना है वैसा ही होगा अन्यथा नहीं हो सकता। यह अज्ञानपरोषह जय है।।
(१५) अदर्शनपोपह-वरकालत कठिन तपस्या करनेपर मो याद कोई ऋद्धि आदिका अतिशय प्रकट न हो तो मोही जीवको दुःख उत्पन्न हो सकता है, किन्तु जो साधु निर्मोही रहते हैं, चे बिलकुल दुःख या खेद नहीं मनाते समभाव धारण करते हैं, वस्तुके परिणमनपर वे विश्वास करते हैं, सन्तुष्ट रहते हैं। यही अदर्शनपरीषह जय है।
(१६) प्रज्ञापरीषह-बुद्धि का पूर्ण विकाश होनेपर अर्थात् ज्ञानाबरणकर्मके विशेषक्षयोपशमसे बुद्धि में अतिशय प्रकट होजानेपर सूक्ष्मतत्त्वादिको समझने की योग्यता प्राप्त होजामेपर, किसी किस्मका अहंकार नहीं होना समताभाव रखना, प्रज्ञापरीषहजय कहलाता है। रागी द्वेषी जीव मोहबस थोड़े-थोड़े उत्कर्ष होनेपर मान अहंकार करने लगते हैं यह विशेषता रहती है ।
(१७ ) आदर सत्कारपरोषह-यदि कोई किसोका आदरसत्कार ( सन्मान ) न करे तो रागीद्वेषी मोही जीवको स्वभावतः दुःख उत्पन्न हो जाता है। किन्तु बीतरागी साधु अपमान होनेपर या आदरसत्कार न होनेपर दुःख नहीं मनाते-समभावसे सहलेते हैं। भवितव्यपर निर्भर रहते हैं कि ऐसा ही होना था उसे कौन टाल सकता है ? सन्तुष्ट रहते हैं।
(१८) शय्यापरीषह-यदि सोने में बाधा आजाय, ठीक स्थान या विस्तर आदि न मिले तो आरामी परिग्रही जीवको दुःख उत्पन्न होजाता है किन्तु वीतरागी साधु ककर पत्थरवाली जमीनपर भी थोड़ा सो जाते हैं और दुःखका वेदन नहीं करते-समताभावसे सहन कर लेते हैं । यह शय्यापरीषहजय है।
( १९ ) पर्यापरीषह-दूर-दूरसे आनेमें व थकावट होनेमें रागोद्वेषी जीवोंको स्वभावतः
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सकाचारित्रप्रकरण दुःख होता है। परन्तु निर्मोही साधु वैसा होनेपर दुःख नहीं मानता अपना कर्तव्य समझकर समताभावसे सह लेता है, बस यही चर्यापरीषहजय है।
(२०) बध ( साड़न ) परीषह दुष्ट कर अधर्मी मनुष्यों द्वारा सताये जानेपर या लाड़नादि किये जानेपर रागी द्वेषी जीवोंको स्वभावतः क्रोधादि उत्पन्न होता है परन्तु वीतरागी साधु उसे सह लेता है क्रोध आदि विकार नहीं करता न दुःख हो मानता है यह बड़ी विजय है, कषायोपर काबू पाता है।
(२१) निषद्याप रोषह--एकान्त निर्जन स्थानों में जमलों में अंधकार सहित कुन्द गुफाओं में, हिंसक जीवों के स्थानों में, व्यन्तरादिके निवास स्थानों में, श्मशान आदि में रहकर या ध्यान लगाकर
भी दुःख या भय न करना समताभाबसे सह लेना, निषद्यापरोषह कहलाता है, धन्य है इतनी निर्मोहताको, तभी कर्मोंकी निर्जरा होती है । संसार शरीरभो!से विरक्तिको यही निशानी है।
(२२) स्त्रीपरीषह-स्त्रियोंके हावभावभ्र कटाक्षादि देखकर रागो द्वेषी जीव विधारमय हो जाते हैं। इस वेदकमका जोतना बड़ा कठिन है किन्तु वीतरागी महात्मा बिलकुल विचलित नहीं होते न दुःख या पीडाका अनुभव करते हैं, यह विशेषता है, यह बड़ी अग्निपरीक्षा है।
इस प्रकार श्लोक नं० १९८से लगाकर २०८तक सभी कर्तव्योंको निरसिंचार ( श्रुटिरहित ) पालना व्यवहार चारित्र कहलाता है ( ६९भेद होते हैं ) सो ऐसा निर्दोष व्रतधारी एकदेश मोक्षमार्गी माना जाता है, जिसका खुलासा आगेके श्लोक नं० २०९से लगाकर किया जारहा है ( किया गया है ) उसको बाजवी समझना चाहिये । २०८ ॥
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दसवाँ अध्याय
( अन्तिम निष्कर्ष )
आचार्य उपसंहाररूप कथन करते हुए मुमुक्षुको कर्तव्य पालन करनेका क्रम बतलाते हैं । इति रत्नत्रयमेतत् प्रतिसमयं विकलेमपि गृहस्थेन । परिपालनीयमनिशं निरत्ययां मुक्तिमभिलषिता ॥ २०९ ।।
पक्ष
जो श्रावक यह चाह करत है, मुक्ति मुझे प्रापत होवे । उसका यह कस्य कहा है, रश्नत्रय को वह सेवे ॥ चाहे वह अपूर्ण ही होवे, तौ भो धारण है करना | क्रम-क्रम से पूरण होता है, मुकिरमा अन्तिम बरना ॥ २०९ ॥
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ अनिशं मिरत्ययां मुकिमभिलषता गृहस्थेन ] निरंतर निराबाध व नित्य मुक्ति (मोक्ष) को चाहने वाले श्रावकको चाहिये ( उसका कर्त्तव्य है ) कि [ समयं किमपि एतत रस्त्रश्रयं परिपालनीयम् ] वह विकल अर्थात् अपूर्ण ( रामादि विकार सहित ) रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन- सम्यज्ञान सम्यक्चारित्र ) को भी धारण-पालन करे, जैसा कि पेश्तर बतलाया गया है, क्योंकि उसके बिना मुक्ति नहीं होती यह नियम है । २०९ ॥
भावार्थ -- मोक्षको अभिलाषा करने वाले ( मुमुक्षु ) जीवोंका कर्त्तव्य है कि वे पेश्तर मोक्षके मार्ग ( सम्यग्दर्शनादित्रय) को प्राप्त करें, अर्थात् मोक्षका उपाय अपनायें, तभी उसको प्राप्ति हो सकती है, अकेले चाह करने से कुछ नहीं होता। ऐसी स्थिति में चाहे वह रत्नत्रय पेश्तर अपूर्ण ( बिकल ) ही क्यों न प्राप्त हो परन्तु उसको प्राप्त करना ही चाहिये ( अनिवार्य है ) बिना उसको प्राप्त किये कुछ नहीं होता वह मूलघन है । यद्यपि निश्चयनयसे अविकल अर्थात् पूर्ण रत्नत्रय हो साक्षात् मोक्ष प्राप्तिका मार्ग या उपाय है तथापि प्रारम्भमें वह रत्नत्रय विकल (अपूर्ण) ही प्राप्त होता है, पश्चात् वह सकल अर्थात् संपूर्ण या समग्र होता है ऐसा नियम है।
प्रश्न - विकल और सकल ( अविकल ) का क्या अर्थ है ? इसका उत्तर इस प्रकार है कि 'विकल अर्थात् अपूर्ण, जो कि रागादिक विकारोंके साथ रहते हुए पूरा नहीं हो सकता है । तदनुसार विकलका अर्थ रागादि मल या विकार सहित जो साक्षात् मोक्षका मार्ग नहीं होता किन्तु तबतक बंध होता रहता है । और 'अविकल' का अर्थ पूर्ण अर्थात् रागादिसे रहित, वीतराग,
१. अपूर्ण या असमग्र, न्यून एकदेश, त्रुटि सहित, हीन इत्यादि ।
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भीम निष्कर्ष
४१५
क्योंकि वह साक्षात् मोक्षका मार्ग है ऐसा समझना चाहिये | यह कर्त्तव्य सरागी श्रावकका पहिला है, पश्चात् क्या करना चहिये, यह आगे बताया जायगा । विशेष खुलासा — विकलका दूसरा अर्थ - एकदेश भी होता है, वह दर्शन ज्ञान चारित्र सभी में लगता है। जघन्य भी उसीका अर्थं होता है । फलत: विकल- अपूर्ण असमग्र - एकदेश- जघन्य इत्यादि शब्द एकार्थवाचक है | अकेलासकल- पूर्ण-सर्वदेव- उदाइत्यादि है यान रखा जाये ।
नोट - अन्य मतावलंबियोंने मोक्षके दो भेद माने हैं (१) सालोकमोक्ष ( स्वर्गरूप ), (२) निरालोकमोक्ष ( आवागमन से रहित निरत्ययरूप ) । परन्तु जैनशासन में सालोकमोक्ष ( स्वर्ग ) नहीं माना गया है क्योंकि वह तो संसारका ही एक भेद है, वह निराबाध ( जन्म मरणादिसे रहित ) नहीं है किन्तु बाबासहित और अनित्य है अतएव वह मोक्षरूप भी नहीं है । जैन लोगोंको यह भ्रम मिटा देना चाहिये। रत्नत्रयकी विकलता रहते हुए मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता, स्वर्ग प्राप्त हो सकता है । अतएव प्रश्न होता है कि रत्नत्रयको पूर्णता कौन कर सकता है अर्थात् रत्नत्रयको पूर्ण करने की पात्रता ( योग्यता ) किसमें है यह बताया जावे ? उसका उत्तर आगे श्लोक में दिया जा रहा है कि निश्चयसे रत्नत्रयको पूर्णता या समग्रता, जबतक रागादिकका अर्थात् मोहनकर्मका सद्भाव ( अस्तित्व ) रहता है या घातिया कर्मो का बंध होता रहता है, तबतक नहीं होती चाहे वह मुनिपद धारी ही क्यों न हो जाय । असलमें जहाँ घातिया कर्मोका स्रव और स्थिति--अनुभाग बंधका होना बन्द हो जाता है वहीं, रत्नत्रय पूर्ण हो जाता है | बिना स्थिति- अनुभाग के अघातिया कर्मोंका बंध तो नाममात्रका बंध है । आस्रव रूप ही है ) उससे हानि ( स्वभावका बात ) नहीं होती ऐसा समझना चाहिये ।। २०९ ॥
नोट - - आस्रव और बंधका भेद पेश्तर बताया जा चुका है वैसा ही यहाँ भी सम झना । जिसमें स्थिति अनुभाग न पड़े सिर्फ प्रकृति- प्रदेशरूप ही रह जाय उसको ईर्यापथ आव कहते हैं ।
आचार्य रत्नत्रयको पूर्ण प्राप्त करनेकी पात्रता ( योग्यता ) जिसमें है वह बताते हैं ( मुनि पदमें है )
बद्धोयेमेन नित्यं लब्ध्वा समयं च बोधिलाभस्य ।
पदमालम्ब्य मुनीनां कर्त्तव्यं सपदि परिपूर्णम् || २१०॥
१. उक्तं च
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सणणाण चरित्रं जं परिणमदि जहणभावेण ।
पाणी ते दु बंधदि पुलकम्मेण विविण ॥। १७२ ।। समयसार
अर्थ --जबतक दर्शन ज्ञान चारित्र जघन्य दरजेके अर्थात् अपूर्ण या एकदेश रहते हैं ( रागादिसहित होते हैं ) तबतक ज्ञानी ( भेदज्ञानी सम्यग्दृष्टि ) अनेक तरहके पुद्गल कर्मोका बंद करता है मुक्त नहीं होता ।
२. श्रावकोत्तम मुमुक्षु साधक ।
३. मौका अथवा आगमका ज्ञान प्राप्त करके ।
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माण
पुरुषासिवाय
पथ सनप्रय पूरण करनेको ओ पुरुषारथ करता है। वह श्रावक नित भाव और सरको देखत रहता है ।। अवसर देख्य मुनी बनता है, परिग्रह सारा सजता है।
समयकी पूर्ति इसीसे होना निश्चित करता है।॥२१॥ अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ बद्धोद्यमेन ] मोक्षमार्ग या रत्नत्रयकी पूर्णताका पुरुषार्थ करनेवाले श्रावकको चाहिये कि वह [ बोधिलाभस्य समयं लब्ध्वा ] रत्नत्रयकी पूर्णताका अबसर या आगमका ज्ञान प्राप्त करके ( काल व मान देख करके ) [च मुनीनो पदमवलम्ब्य ]
और मुनिपदको धारण करके ( अनगार बनकर ) [ सपदि परिपूर्ण कसंध्यम् ] जल्दी ही अपूर्ण रत्नत्रयको पूर्ण करे, क्योंकि विना मुनिपद धारण किये रत्नत्रय पूर्ण नहीं हो सकता यह नियम है ।। २१०॥
भावार्थ-रत्नत्रयको पूर्णता श्रावकपदमें नहीं हो सकती किन्तु मुनिपदमें ही हो सकती है यह नियम है । अतएर मुभिपदको धारण करना अनिवार्य है। फलतः मुमुक्षु जीव मुनिपदको अवश्य धारण करते हैं यह सामान्य नियम है किन्तु योग्यताके लिहाजसे इस हुंडावसपिणीके पंचम काल में, सच्चा मुभिपद धारण करना व पालना दुर्धर है । जो रत्नत्रयकी पूर्णता कर सके वह असंभव है । आजकल कोई जीव ७ वे गुणस्थानसे आगे ( अष्टमादि ) गुणस्थान प्राप्त कर ही नहीं सकता है, न श्रेणी चढ़ सकता है, न शुक्ल ध्यान प्राप्त कर सकता है ऐसा आगमका निर्देश है।
मुनिपक्ष प्राप्त करनेको योग्यता (१) सबसे पहिले तत्त्वज्ञान व तत्त्वश्रद्धान ( सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान ) होना चाहिये, कारण कि विना यथार्थ जाने-माने किसका त्याग किसका ग्रहण किया जायगा? अज्ञानीको कोई विवेक या पता नहीं रहता। (२) विषयकषायका त्याग होना चाहिये अर्थात् संसार-शरोर भोगोंसे अरुचि और यथाशक्ति उनका त्याग ( संयम ) होना चाहिये, रागी द्वेषी कषायी ( असंयमो ) मुनिपद धारण नहीं कर सकते, यदि धारण करें तो वह पाखंड है, गुरुपद नहीं है। (३) ज्ञान-ध्यान-सपमें हमेशा लीन रहना चाहिये--संसारी कामोंमें नहीं पड़ना चाहिये। ( ४ ) अट्ठाईस मूलगुण निरतिचार पालना चाहिये, उनमें त्रुटि नहीं होना चाहिये । ( ५ ) एकान्त निर्जन स्थानमें रहता ध्यानासन लगाना चाहिये इत्यादि खास बातोंका होना अनिवार्य है साथ ही सम
१. अदानी निषेधन्ति शुक्लध्यान जिनोत्तमाः ।
धर्मध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणिभ्यां प्राग वित्तिनाम् ।। ८३ ॥ तत्त्वानुशासन अर्थ....इस पंचमकाल और भरतक्षेत्रमें शुक्लध्यान नहीं होता, न श्रेणी चढ़ी जाती है क्योंकि साहम
गुणस्थान तक ही होता है, व धर्मध्यान होता है, श्रेणी व शुक्लध्यान आठवें गुणस्थानसे शुरू होता है ऐसा कहा है।
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अन्तिम निष्कर्ष भावका होना मुख्य है, बाह्य आरंभपरिग्रहका छोड़ना यह मोटी बात है, इससे हो मनिपद नहीं होता। मुनिपदमें पाँच बातें बाह्यमें होना अनिवार्य हैं ( १ ) दिगम्बरवेष (नग्नपना ) । (२) केशलुचन। ( ३ ) जातिशुद्धि । ( ४ ) शरीर संस्कारका त्याग ! ( ५ ) बाह्य आरंभपरिग्रहका सर्वथा त्याग। इसी तरह भाव बातें अहममें भी होना चाहिये ( मिताभाव आदि)। इस विषय में प्रवचनसारकी गाथा मं०२३७ में कहा है कि......
हि आममेण सिसिदि मद्दहणं दि प अत्थेसु ।
सहमाणो अत्थे अमंजदो ना प्य णिव्यादि ।।२३।1.---प्रवचनसार कुन्दकुन्दाचार्य अर्थ----अकेले आगमके ज्ञानसे मुक्ति नहीं होती जबतक कि तत्त्वार्थका (पदार्थोका ) श्रद्धान न हो अर्थात् जान लेनेपर भी यदि श्रद्धान न हो तो मोक्ष नहीं होता तथा श्रद्धान हो जानेपर भी जबतक संयम ( चारित्र ) न हो तबतक मोक्ष नहीं होता। फलतः सम्यग्दर्शन सभ्यग्जाम सभ्यचारित्र ये तीन ही मोक्षके मार्ग हैं और तीनौको पूर्णता निश्चयसे होना अनिवार्य है। एक भी कम नहीं होना चाहिये। आगमका ज्ञान अर्थात् अध्यात्मका ज्ञान, जो आममका सारभूत पद है। कहा भी है.
आगमधुब्छा दिदी ॥ भवधि जस्सह संजमो तस्ल ।
स्थि सि भगद सुतं असंजदो भवदि कि समयी ॥२३॥-प्रवचनसार जिस मुनिके आगम { अध्यात्म ) का ज्ञानपूर्वक श्रद्धान न हो, उसके संयम हो नहीं सकता, वह असंयमी होता है कारण कि विना भेदज्ञानके किसका त्याग व किसका ग्रहण किया जाय यह निर्धार हो नहीं सकता ! अतएव जिसके आगमका ज्ञान और तत्पूर्वक तत्त्वार्थश्रद्धान एवं संयमभाव ( चारित्र ) ये तोनों एक साथ पाये जायें यही मोक्षमार्गी साधु है अन्य नहीं, यह सिद्धान्त है ।।२३६॥
आगे आचार्य इस प्रश्नका उत्तर देते हैं कि-विकल या असमग्र या अपूर्ण एकदेश, रलत्रयधारीके कर्मोंका बंध जो होता है, उसका क्या कारण है ? अर्थात् वह बंध काहेसे होता है ?
असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबंधो यः। स बियक्षकृतोऽवश्य, मोक्षोपायो न बंधनोपायः ॥२१॥
पद्य एकदेश रत्नत्रधारी, के जो धन होता है। वह विपक्षसे होत बरावर, ऐसा निश्चय कहता है ।। असः बंधका कारण के हैं, जो रागादिक साध भरे ।
मही मोक्षका कारण बे हैं, जबतक रागन दूर करे ॥२१॥ अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ असमग्रं रस्नप्रथं भावयसः ] अपूर्ण या एकदेश ( विकल अल्प) रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्रको प्राप्त करनेवाले (मुनि या श्रावक)के
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in-two
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पुरुषार्थसिलघुपाय [यः कर्मबंधी अस्ति ] जो कर्मों ( ज्ञानावरणादि धातियामुख्य का बंध ( स्थिति-अनुभागरूप ) होता है [ स अवश्य विपक्षकृत: ] वह निश्चयसे । अवश्य ही विपक्ष ( संसारके कारण रागादि )के द्वारा होता है अर्थात् रत्नत्रयके द्वारा नहीं होता क्योंकि रत्नत्रय तो मोक्षका कारण है बंधका कारण नहीं है । फलतः वह कर्मबंध [ बंधमोपायः न मोनोपाथः ] बंध ( संसार का ही कारण ( उपाय या मार्ग) है-मोक्षका कारण नहीं है ऐसा जानना चाहिए। इस इलोकके अर्थकी पुष्टि पंचास्तिकाय ग्रन्थकी गाथा नं. १५७को टीकामें स्वयं स्पष्टरूपसे पूज्य अमृताचार्य ने की है अतएव भ्रम नहीं करना चाहिये । उल्टा अर्थ करनेसे जिनाज्ञाको अवहेलना होती है यह ध्यान रखना चाहिये। टीकायामुल्लेख :....-तत: परवरितप्रतिवन्धमार्ग एष, न मोक्षमार्ग इति ॥२१ ॥
भावार्थ-बंध और मोक्षके कारण पृथक्-पृथक हैं, ऐसी स्थितिमें जो बंधके कारण हैं वे ही मोक्षके कारण हो जाय, यह न्यायके विरुद्ध है अर्थात् जनशासनके प्रतिकूल है। फलतः बंध या संसारके कारण रागादि विकार { दोष ) हैं जो अपूर्ण रत्नत्रयके साथ रहते हैं । संयोगीपर्याय में साथ-साथ अनेक चीजें रहती हैं अतः रागादिक कषायभाव भी रहते हैं और विरागभाव भी रहते हैं। परन्तु दोनोंका भिन्न-भिन्न प्रकार होता है, एक प्रकार नहीं। इस न्यायसे विपक्ष { रागादिक ) को मोक्षका कारण मानना या कहना सिद्धान्तके विपरीत है...--अज्ञानता है। श्रद्धेय पं० टोडरमलजी स्व. को टीकाम जो जिनवाणी प्रचारक कार्यालय कलकत्तामें प्रकाशित हुई थी। ऐसा ही अर्थ है देख लेगा। इसके विरुद्ध अर्थ करना न्यायसंगत नहीं है । पक्षपात मात्र है। आगे इसीके सिलसिले में खुलासा किया जाने वाला है। इस श्लोकका अन्वय लगाने में गलती नहीं करना चाहिये । 'न' नकारका सम्बन्ध, मोक्षोपायके साथ जोड़ना चाहिये, बन्धनोपायके साथ नहीं जोड़ना चाहिये सब ठीक संगति बैठती है इलोकका दूसरा पद्यानुवाद पोछे है उसे देखो---
एकदेश रत्ननमधारी, कर्मबंध जी करते हैं। उसका कारण क्या है माई, उसे खुलासा करते हैं । कारण इसका कषाय साधी, वह ही बंध कराता है।
रत्नन नहिं बंधका कारण, बह तो मोक्ष धरासा है ॥ २१ ॥ विशेषार्थ-- रत्नत्रय आत्माका स्वभाव है और कषाय आत्माका विभाष है। अतएव स्वभाव कभी हानि नहीं पहुंचाता हानि पहुँचाने वाला विभाव ही होता है इसीसे विभाषको हटाने का प्रयत्न किया जाता है क्योंकि खतरेको कोई अपने पास नहीं रखना चाहता यह निर्धार है। ऐसा भेदज्ञान, जो स्वभाव और विभावकी पहिचान करावे-गुण दोषको एवं उसके ग्रहणत्यागको बताचे, वही आत्माका हितकारी है । उस भेदज्ञानका दूसरा नाम 'प्रशा' है और प्रज्ञाका अर्थ सत् व असत् या उपादेय व हेयको बताना है । सब ज्ञानी उस प्रज्ञारूपी छेनीके द्वारा आत्मस्थ स्वभाव व विभावको पृथक् पृथक करता है । अर्थात् बताता है कि ये दोनों जुदे जुदे हैं, एकरूप नहीं हैं। फलतः त्रिकालमें विभाव या रागादि व कर्मादि व नोकर्मादि ( शरीरादि ) को आत्मीय नहीं मानता, परकीय मानकर उन्हें छोड़ता है। इस तरह संयोगीपर्यायमें रहता हुआ सरागसम्यग्दृष्टि
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अन्तिम निष्कर्ष
1
प्रज्ञावान अन्य सब परसे अरुचि ही करता है, हेय समझता है, तथापि विवशतामें परका उपभोग करता है | उससे राग होता है, बन्ध व सजा प्राप्त करता है । सिर्फ विशेषता यह है कि वह बंध अन्तः कोड़ा कोड़ी सागरसे अधिकका नहीं होता, प्रतिसमय कमती-कमती ही होता जाता है और अन्त में अपुद्गल परावर्तनकाल पूराकर मोक्षको चला जाता है। श्रद्धा उसकी सदैव एक जातिको हेय हो रहती है वह कभी नहीं बदलती जबतक सम्यग्दर्शन रहता है, हाँ वह कभी मन्द स्मृतिरूप और कभी तीव्र स्मृतिरूप अवश्य रहती है, जिससे मूलमें भूल नहीं होती ।
areer ऐसा हुआ हो करता है जबतक कि रत्नत्रयको पूर्णता नहीं होती, वहतिक
भाव ( रागादि ) हुआ ही करते हैं । सम्यग्दृष्टिज्ञानीके जब ज्ञानचेतना अर्थात् शुद्ध स्वरूपकी अनुभूति (सुद्धोग होनी है तल बंद नहीं होता ( यही ज्ञानधाराका बहना कहलाता है ) तथा जब उपयोग हटकर अज्ञानचेतनारूप होता है अर्थात् रागादिरूप अशुद्ध परिणतिका अनुभव करता है ( कर्मधारा बहती है ) सब कर्मचेतना ( चिन्त्वन या अनुभव ) या कर्मफलचेतना होनेसे कर्मो का बंध होता है । इस प्रकार निर्धार समझना चाहिये । यही कलश में कहा गया है ||२१||
४१५
विशेषार्थ - शास्त्रों में जहाँ-तहाँ यह लिखा है कि सम्यग्दृष्टिके बंध नहीं होता है तथा उसका बंध मोक्षका कारण है, इत्यादि उस एकान्तका खण्डन इस श्लोक में किया गया है कि सम्यग्दृष्टि सम्यग्दर्शनादि तीनोंकी अपूर्णता रहनेतक अर्थात् पूर्णता होनेके पहिलेतक बराबर रागादि कषायोके रहते हुए उनसे बंध होता है और वह बंध मोक्षका कारण ( उपाय ) नहीं है किन्तु बंधन या संसारका कारण ( उपाय ) है । इस प्रकार खुलासा श्री अमृचन्द्राचार्यने किया है, उसको सीधा समझना चाहिए। उल्टा नहीं समझना चाहिए। इसकी पुष्टिमें आगेके श्लोक भी लिखे हैं । भव्यजीव ( मुमुक्षु ) संगति faठालकर श्लोकका अर्थ करें और समझें तभी कल्याण होगा । विवक्षा समझना अनिवार्य है |
आचार्य -- आगे बन्ध व मोक्षके कारणोंका और भी खुलासा करते हैं। जिससे कोई भ्रम न रहे ।
१.
येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बंधन नास्ति ।
येनांशेन तु रामस्तेनांशेनास्य बंधनं चास्ति ।। २१२ ॥
ज्ञानस्य संचेतनयैव नित्यं प्रकाशते ज्ञानमतीव शुद्धम् ।
अज्ञानतनया तु श्रावन्, बोधस्य शुद्धि निरुणद्धि नंः ||२२४ || --कलश समयसार अर्थ - जब ज्ञान अपने शुद्धस्वरूपमें अर्थात् सिर्फ ज्ञतिक्रियामें स्थिर या लीन होता है ( रागादिरूप
अशुद्धता नहीं रखता ) तब कोई बन्ध नहीं होता-ज्ञानका ही प्रकाश रहता हैं । लेकिन
जब वही ज्ञान अपने शुद्धस्वरूप ( जप्तिमात्र ) को छोड़कर अज्ञान या धारण करता है तब बन्वादि अवयय होता है । इस प्रकार बन्धका मोक्षका कारण शुद्धता है यह तात्पर्य है ॥२२४॥
रागादिरूप अशुद्धताको कारण अशुद्धता है और
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४२.
पुरुषार्थसिद्धमुपाय येनांशेन तु ज्ञानं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं चास्ति ॥ २१३ ॥ येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं चास्ति ।। २१४ ।।
है अपूर्ण अबसक रत्नत्र्य, बंध मोक्ष दीमी होते । पर कारण दोनोंके दो हैं, एक नहीं कबहू होते ।।
यथा ....
राम बंधका कारण होता, जितने अंश साथ होस । दर्शन कारण है 'अधका, यीसागता मय होता ।। २५२ ॥ इसी तरह हानादिक दोनों, जितने अंश शुद्ध होते । उतने अंश मोक्ष होता है, बंध राग साहि करते ॥ १३ ॥ अंशरूपसे दोनों होते, पूर्ण रूप नहिं होते हैं।
पूर्णरूप होने के स्वानिर, सगक्षय सय करते हैं ।। २१३॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ योनांशेन सुदृष्टिः ] जितने अंग वीतरागता सम्यग्दर्शनके साथ रहती है [ सेनाशेनास्य अंधन नास्ति ] उत्तने अंश सम्यग्दष्टि के बंध नहीं होता। [तु येनाशन रागः ] और जितने अंश सम्यादर्शनके साथ राग रहता है [ सेनांशेन अस्य बंधनमस्ति ! उतने अंश सम्यग्दष्टिके बराबर ( अवश्य ) बंध होता है क्योंकि रागबंधका कारण माना गया है। इसी तरह [सु येनोशेन ज्ञान ] जितने अंश ज्ञानके साथ वीतरागताका रहता है | तैनांशेन अस्य बंधनं मास्ति ] उतने अंश सम्यग्ज्ञानीके बंध नहीं होता। [तु येनांशेन रागस्ते नांशेनास्य गंधसमस्ति ]
और जितने अंश सम्यग्ज्ञासीके राग रहता है, उतने अंश उसके बंध बराबर होता है। इसी तरह [येनांशेन चरित्रं, तेनाशेनाध्य बंधन नास्त ] जितने अंश सम्यक चारित्रके साथ बीत रामसाका रहता है उतने अंश चारित्रधारीके बंध नहीं होता। [तु येनोशंत रागस्तनांशेनस्य बंधनं अति ] और जितने अंश चारित्रधारीके राग रहता है, उसने अंश उसके बंध होना है, यह खुलासा है। ऐसा तीनों श्लोकोंका अर्थ समझना चाहिये और भ्रमको निकाल देना चाहिये ।। २१२।२१३३२१४ ।।
चारित्रके मूल भेव (१) सम्यक्त्वाचरण (२) संयमाचरण । दूसरे शब्दों में (१) निश्चयचारित्र, जो करणानुयोगके अनुसार होता है। (२) संयमाचरण, जो चरणानुयोगके अनुसार होता है। १. मोक्ष २. वीतरागतामय । ३. कर्मके छूटने रूप ४. मोहकर्मका अभाव ।
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अन्तिम निष्कर्ष
नोट--सम्यक्त्वाचरणका नाम हो, स्वरूपाचरणचारित्र है, जो शुद्ध वीतरागतारूप है, २५ दोषोंसे रहित है । यही बात चारित्रपाहुड़में थी कुन्दकुन्दाचार्यने कही है । यथा---
जिणणादिहि-सुखं पटमं सम्मत्तचरणचारित्त । विदियं संथमचरण जिणणाण सदेसियं तं वि॥ ५ ॥ चारित्रवाह
अर्थ--जिन सर्वज्ञके ज्ञानमें शुद्ध वीतरागतारूप सम्यक्त्वाचरण अथवा स्वरूपाचरण चारित्र और संयमाचरणचारित्र ( सरागचारित्र ) दोनों प्रतिबिंबित हुए हैं । तथा स्वरूपाचरण ( सम्यक्त्वाचरण ) की धातक अनंतानुबंधो कषाय है और संयमाचरणको घातक (अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यानादि कषायें हैं)। संयमाचरण अर्थात् सरामचारित्र या व्यवहारचारित्रके ही मेद {१) सामायिक {२) छेदोपस्थापन (३) परिहारविशुद्धि ( ४ ) सुक्ष्मसाम्पराय ( ५ ) यथाख्यात हैं, ऐसा समझमें आता है क्योंकि इनमें चरणानुयोगको मुख्यता रहती है ( बाधाचरण सुधारा जाता है)। चरणानुयोगका चारित्र बाह्यशरीरादिकी क्रियाओं पर निर्भर ( अवलम्बित ). रहता है और करणानुयोगका चारित्र भीतर ( अंतरंग ) भावों पर निर्भर रहता है यह भेद है तथा स्वरूपाचरणचारित्र शुद्ध वीतरागतारूप है और संयमाचरण शुभरागरूप अशुद्ध है।
चारित्रधारियोंके भेव व मान्यता (१) मुनि ( सुगुरु ) अर्थात् सच्चे वीतरागी, विषयकवायके त्यागी, मोक्षमार्गके सम्यक आराधक, पंचाचारके पालनेवाले इत्यादि मूलगुण सम्पन्न, तत्त्वज्ञानी मुनि या सुगुरु कहलाते हैं।
(२) मुनिवेषी ( कुगुरु ) अर्थात् मात्र बाह्य वेषको धारण करनेवाले, भावलिंग ( सम्यादर्शनादि ) रहित, विषयकषायपोषक, बरायनाम नाममात्र ) मूलगुणधारक, रागीद्वेषो, निन्दास्तुति व विनय अविनयका ख्याल करनेवाले समष्टिरहित-असत्वज्ञानी-वेषी या पाखंडी मुनि कहलाते हैं । उनको सुगुरु मानना अज्ञानता है क्योंकि सच्चेके न होनेसे झूठेको सच्चा ममना हंसके अभावमें कौआको हंस मानने के समान है, कौआ कभी हंस नहीं हो जाता, कौआ ही रहता है, मान्यता से वस्तु नहीं बदल जाती यह नियम है। फल भी सच्चे जैसा नहीं मिलता। तब जैसा जो हो उसको वैसा हो मानना सम्यग्दर्शन है और अन्यथा मानना अर्थात् जैसे को तैसा न मानना मिथ्यादर्शन है जो अपराध है बड़ा पाप है। उसको पुण्य मानना व अपराधको छुटाने वाला मानना मिथ्यात्व है। निर्धार करना चाहिये ऐसा कांच हीरा नहीं हो जाता। परीक्षा करके मान्यता करना श्रेष्ठता बतलाई गई है, वह मिथ्यात्व नहीं है सम्यक्त्व है ॥ २१२१२१३३२१४ ३३
आचार्य आगे और भी खुलासा करते हैं कि बंधके कारण योग और कषाय हैं, रत्नत्रय नहीं है।
योगात्प्रदेशबन्धः स्थितिबन्धो भवति तु कषायात । दर्शनबोधचरित्रं न योगरूपं कषायरूपं च ।।२१५॥
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पुरुषार्थसिचधुपाय
योगकषाय बंधक कारण-बंध चतुर्विध होता है। प्रकृतिप्रदेश थिति अरु अनुभव क्रमशः साय उपजता है। दर्शनशानसरिन नहीं है, योगकषायरूप तीनों।
अतः उन्होंसे बंध न होता-मोक्ष होत निश्चय जानी ।। अन्य अर्थ ---आचार्य कहते हैं कि [ योगाप्रदेशचंधः ] योगसे अर्थात् आत्माके प्रदेशों में कंपनरूप क्रिया होनेसे प्रदेशबन्ध ( प्रकृतिबंधके साथ ) होता है [तु कषायात् स्थितिबंधो मबलि ] और कषायसे ( विकारीभावोंसे ) स्थितिबंध ( अनुभागके साथ होता है। इस प्रकार बंधके दो कारण जुदे-जुके हैं। परन्तु [ दर्शनबोधचरिधं, न योगरूपं न च कषायरूपं ] दर्शन-ज्ञान-चारित्र ये तीनों न योगरूप हैं न कषायरूप है तब इनसे बंध कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता, यह तथ्य है, भ्रममें नहीं पड़ना चाहिये ।। २१५ ।।
___ मावार्थ ल मा हाहण खमाव की बदलता नहीं है किन्तु वह हमेशा कायम रहता है। ऐसी स्थिति में योग और कषायका स्वभाव बन्ध या श्लेष करनेका है सो हमेशा करेगा और दर्शनशानचारित्रका स्वभाव मोक्ष करनेका है सो वही करेगा, दूसरा विरुद्ध कार्य वह नहीं कर सकता । फलतः रत्नत्रयसे बन्ध नहीं होता यह निश्चित है, न कभी रत्नत्रय योग व कषायरूप होते हैं यह भी निश्चित है। इस शाश्वतिक व्यवस्थामें कोई दखल नहीं दे सकता अर्थात् रद्दोबदल (परिवर्तन ) नहीं कर सकता यह ध्रुव है। दो द्रव्ये ( जीव व पुद्गल ) ऐसी हैं जिनका परिणमन विभाव या विकाररूप ( अशुद्ध ) भी संयोगी अवस्थामें हो जाता है क्योंकि उनमें जन्मसिद्ध । स्वत:सिद्ध ) वैसी शक्ति (वैभाविको ) हैं किन्तु शेष चार द्रव्योंमें वैसी शक्ति नहीं है न वे विभावरूप कभी परिणत होती हैं। परिणमन भी दो तरहका होता है (१) अर्थरूप ( सूक्ष्म ) (२) व्यंजन रूप ( स्थूल )। तथा विभावरूपी परिणमन भी दो तरहका होता है (१) विभाव व्यंजनरूप (२) स्वभाव व्यंजनरूप । अनेक समय व अनेक प्रदेशोंके समुदायरूप परिणमनको व्यंजन परिणमन ( व्यंजनपर्याय ) कहा जाता है।
संयोगीपर्यायमें जीव और पुद्गलका बन्ध ( परस्पर श्लेष) होता है परन्तु उनका परस्पर निमित्तनैमित्तिकसम्बन्ध ही रहता है, औपादातिकसम्बन्ध नहीं रहता। यह खास भेद समझना चाहिये । औपादानिकसम्बन्ध, जिस द्रव्यमें जो कार्य या पर्याय होती है उसका उसीके साथ रहता है, अन्यके साथ कदापि नहीं रहता यह नियम है ।
कर्मबन्ध और नौकर्मबन्ध आठ प्रकार ( ज्ञानावरणादि )के कर्मोका संयोगरूप बन्ध होना, कर्मबन्ध कहलाता है, १. उक्तंच
निर्वय॑ते येन यदा किचित्तदेव तत्स्यान्न कथं च नान्यत् । रुकोण निवृत्तमिहासिकोर्ष पश्यन्ति रुपमं न कथं च नासि ||३८॥ समयसारकलश
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उसका मूलकारण योग व कषाय ही है। इसी तरह औदारिकशरीर आदिका बन्ध होना नोकर्मवन्ध कहलाता है सो वह भी योग और कषायसे ही होता है । इसीलिये संयोगोपर्याय में बन्धके मूलकारण योग व कषाय ( निमित्तरूप ) माने गये हैं ऐसा निश्चय करना चाहिये । इसके विपरीत पुद्गलद्रव्य के परस्पर बन्ध होने में मूलकारण पुद्गलगत रूप, रस, गंध, स्पर्श हैं, उनसे ही स्कन्ध बनता है वे उसके अन्तरंग ( उपादान ) कारण हैं । बाह्य कारण ( निमित्त ) जलादिक पदार्थ है । जीवबन्ध होने में अर्थात् जीवके विकारीभाव ( रागादिक ) होने में निमित्तकारण द्रव्यकर्मका उदय है, क्योंकि उदय होते समय ही जीवद्रव्य में स्वतः स्वभाव रागादि विकारीभाव हुआ करते हैं । इसी तरह जीवद्रव्यमें विकारीभाव होने के समय ही, कार्माण ( पुद्गल ) द्रव्य जीवके साथ आकर बन्धरूप हो जाती है अतः जीवके विकारीभाव कर्मबन्धके प्रति निमित्तकारण हैं ऐसा निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध समझना चाहिये । इस प्रकार बंधकी सन्तानपरम्परा अनादिसे चलती आती है और मुक्ति होनेके पहिलेतक चलती रहेगी।
नोट- निश्चयसे भिन्न प्रदेशी दो द्रव्योंके बन्ध होने में निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध ही माना जाता है. उपादान सम्बन्ध नहीं माना जा सकता । उपादान सम्बन्ध अभिन्न प्रदेशी एक द्रव्यमें ही माना जाता है अर्थात् उस द्रव्यकी कार्यपर्यायके प्रति उसीको उपादान माना जाता है किसीका किसी में मिलाना व्यवहार है, निश्चय नहीं है ।
पुद्गलरूप (कर्म) बन्se free free
एकगुण ( जघन्य गुण वाले पुद्गलद्रव्यका और एकगुण अधिकवाले पुद्गलद्रव्यका तो कभी बन्ध होता ही नहीं है, यह अबन्ध हो रहता है किन्तु कमसे कम दो गुण अधिक ( एक दूसरेसे वाले पुद्गलोका ही बन्ध होता है ऐसा नियम है। चाहे वे रूक्ष रूक्ष हों या स्निग्ध-स्निग्व हों या रूक्षस्निग्ध हों, उनमें कोई रुकावट (निषेध ) नहीं है । कहा भी है
जिस णिण दुरायेण रुक्खरूल रुषेण दुराहिषेण ।
free green वेइ बन्धी, जण्णवज्जे विषमे समेया ६१५ || जीवांडगोम्मटसार
यहाँ भ्रम नहीं करना, नियम बराबर पाया जाता है || २१५||
आगे आचार्य निश्चय रत्नत्रयका स्वरूप बतलाते हैं ।
वह बन्धका कारण नहीं है
दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः । स्थितिरात्मनि चारित्रं कुतः एतेभ्यो भवति बंधः ॥२१६॥
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निज marat श्रद्धा करमा सम्यग्दर्श कहाता है । निज आरामका ज्ञान जु करना सम्यग्ज्ञान कहाता है
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पुरुषार्मसिन्धुपाय मिज आसममें लीन शु हमा-सम्यक चरित कहता है।
निज स्वभावक कारण इनसे बंध कभी नहिं होता है ॥ २१६ ॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि निश्चयनयसे [जामधिनिश्चिातः दर्शन मिति ] परद्रव्योंसे भिन्न अपनी आत्माका निश्चय अर्थात् श्रद्धान होना, सम्यग्दर्शन कहलाता है और [ आरमपरिभाभ बोध. इष्यते ! परद्रव्योंसे भिन्न अपनी आत्माका यथार्थज्ञान होना, सम्यग्ज्ञान कहलाता है ! तथा [आत्मनि स्थिति: श्चारित्रं] परद्रव्योंसे भिन्न अपनी आत्मामें स्थिरता अर्थात् लीनता होना, सम्यकचारित्र कहलाता है और ये तोनों आत्माके स्वभाव हैं। तब [ एतेभ्यः बंधः कुतः भवति ] इनसे आस्माका बंधन कैसे हो सकता है यह आश्चर्य है ? अर्थात् इनसे आत्माक बंधन ( संसार ) कभी नहीं हो सकता, कारपा कि स्वभाव या वस्तुका धर्म कभी बंधन में नहीं डालता उल्टा वह बंधनको काटता या छुड़ाता है ।। २१६ ॥
भावार्थ---'आत्मविनिश्चिति का यथार्थ रहस्य ( मतलब ) है 'आत्माके प्रति आस्तिक्या भाव' अर्थात् जैसा आत्मा है वैसा श्रद्धानका होना अर्थात् नास्तिकभावका नहीं होना अर्थात् विपरीतभावका { अन्यथापना ) नहीं होना । जैसे कि आत्माका यथार्थ ( असली ) रूप 'एकत्वविभक्त' है अथवा यह पर सब द्रव्योंसे भिन्न ( तादात्म्यसंबंधरहित ) और अपनी गुणपर्यायोंसे अभिन्न तादात्मरूप है ऐसा दत विश्वासका होना निश्चयसम्यग्दर्शन कहलाता है। इसी तरह आत्माके शुद्ध ( निश्चय ) स्वरूपका ज्ञान होना, सम्यग्ज्ञान कहलाता है और आत्माके शुद्ध स्वरूपमें लोन होना अनुभव करना सम्यक्चारित्र कहलाता है यह खास बात है, यही निश्चय मोक्षमार्ग है, साक्षात् मोक्षका कारण है। क्योंकि आत्मस 'ज्ञानधनरूप' है उसमें और कुछ नहीं भरा है ( अवगुण नहीं है ) सिर्फ ज्ञानदर्शनगुण ही कूट-कूटकर भरा हुआ है । जबतक ऐसा सत्य व सहो अपना खुदका ज्ञानश्रद्धान न हो और पररूपका ही ( संघोगीपर्यायरूप ) ज्ञानश्रद्धान हो तबतक आत्मकल्याण नहीं हो सकता । निजघरका पहिले परिचय पूरा होना ही चाहिये ।।२१६।।
शंका व समाधान आचार्य कहते हैं कि-सम्यग्दष्टिवती ( चारित्रधारी ) के तीर्थकर और आहारकप्रकृतिका बंध होता है ऐसा शास्त्र में उल्लेख है। उससे वादोका कहना है कि-सम्यग्दर्शन भी बंघका कारण है। उसका खंडन इस प्रकार है कि बादीको जो शक या धारणा है कि उस बंधका कारण सम्यग्दर्शन और व्रत ( चारित्र) है, यह उसे कोरा भ्रम है। असलमें उस बंधका कारण शुभराम अर्थात् करुणाभाव है ( दयापरिणाम है ) किन्तु सम्यग्दर्शन और व्रत नहीं है, क्योंकि वे दोनों मोक्षके ही कारण है बन्धके कारण नहीं है। यही बात आगे बललाते हैं
सम्यक्चारित्राभ्यां तीर्थकराहारकर्मणोः बंधः ।
योऽप्युपदिष्टः समये न नयविदां सोऽपि दोषाय ॥ २१७ ॥ १. सकषायत्त्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादसे स बंध: ॥ २॥ त० सू० अ०८
सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्बराबालतपांसि देवस्य ॥२० । सम्यक्त्वं च ।। २१ 11 सू० अ०६
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अन्तिम निष्कर्ष
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सम्यग्दृष्टि चरित्रीके भी, कमबंध जो होता है । तीर्थकर श्राहार प्रकृतिका, आगम यह असलाता है। उसका कारण नहिं दर्षन है, चारित भी नहिं होता है। मय प्रमाणका आमने हारा, भ्रममें फभी न पड़ता है ।। बंध करत है गाय साथी, जो औगुण कहलाता है।
गुण हैं दर्शनधारित दोनों, उनसे बन्ध म होता है ।। २१७ ॥ अन्वय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [समये यः सम्यकथारेत्राभ्या तीर्थकराहारकमणोः बंध उपदिष्टः ] आगममें या जैनशासनमें जो यह कहा गया है कि सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्रके द्वारा या साथ में रहते हुए तीर्थकर और आहारक पुण्यकर्मका बंध होता है [ सोऽपि नयविदा दोषाय म भवति ] उससे भी नयप्रमाणके ज्ञाता पुरुषों के मन में कोई भय ( शंका ) चिन्ता-शल्य-धबड़ाहट या आकुलता नहीं होती, कारण कि वे मयादिसे समाधान या संतोष कर लेते हैं ।। २१७ ॥
भावार्थ- जैन शासन में, स्याद्वादनय अर्थात निश्चय व्यवहारनयको अपेक्षा या द्रव्यार्थिक पर्यायाथिक नयकी अपेक्षासे तमाम शंकायें व भ्रम दूर हो जाते हैं। सबका संतोषजनक समाधान हो जाता है यह विशेषता पाई जाती है। यहाँ पर जो शंका उठाई गई है कि सम्यग्दर्शन व सम्यकृयारित्र ( स्वभाव या गुण या धर्म ) से, तीर्थकर व आहारक नामक पुण्यकर्मका बंध होता है वह सिर्फ भ्रम है या नयविवक्षाको नहीं समझना है। सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र ये दोनों स्वभाव हैं, उनसे बंध नहीं होता किन्तु उनके साथ जो रागादिक विकारीभाव ( कपायरूप) होते हैं, उनसे ही वह बंध होता है, वह भी व्यवहारनयसे बंध माना जाता है। कारण कि संयोगीपर्यायमें साथ-साथ स्वभावभाव { सम्यग्दर्शनादि ) विभावभाव ( रागादिक ) रहते हैं और आत्मा के प्रदेशोंमें ही रहते है परन्तु कायं अपना-अपना पृथक करते हैं स्वभावभाव संवर व निर्जरा करते हैं ( कर्मबंधनका छूटना रूप भोक्ष करते हैं ) और विभावभाव, आस्रव व बंध करते हैं। लेकिन इस असल बातका पता (ज्ञान) न होनेसे, संगादोष जैसा दोष, साथवाले ( सम्यग्दर्शनादि) को भी व्यवहारनयसे लगा दिया जाता है, जो असत्य है ( अभूतार्थ है ।, यह समाधान है। तभी तो तत्त्वार्थसूत्रमें संयोगीपर्यायकी अपेक्षासे व्यवहारनयकी मुस्थताकर बन्धके कारणों में सरागसंयमादिचारित्र एवं सम्यग्दर्शनको देवायु ( पुण्यकर्म ) के बाँधनेवाला बतलाया है किन्तु निश्चयसे बैसा नहीं है, साथमें रहने से साथी अपराधी था दोषी नहीं हो जाता यह नियम है ! दोषी वही होता है जो दोष ( अपराध ) करता है, और बहो सजा भोगता है, दूसरा नहीं। सबका सारांश निम्न प्रकार है।
जो शास्त्रोंके ज्ञाता प्राणी मयक झाला होते हैं। उनको बांका महिं होती है, दर्शम चारित बंधक है। तीर्थकर माहार प्रकृतिका बंध जु होला इग्बतमें।
उसका कारण योगकषायौ, साथ रहत जो उस पदमें ।। २१ 11 १. सम्यग्दर्शन व चारित्रके समय या उनके साथ ।
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पुरुषार्थसिद्धयुपायं आचर्य इसो उपर्युक्त तथ्यका खुलासा आगेके श्लोक द्वारा भी करते हैं ।
सति सम्यक्त्वचरित्रे तीर्थकराहारवन्धको भवतः । योगकषायौ नासति तत्पुनरस्मिन्नुदासीनम् ॥२१८॥
योग कषाय बंध करते हैं-तार हारकका पर दोनोंके साथ रहेसे-भ्रम होता हशचारिसका ।। दर्शन शाम उदास रहत हैं, बंधकार्य के करने में
तीर्थकर आहारकके भी नहिं समर्थ हैं बांधन में ॥३१॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [सम्यक्त्वरिने सप्ति योगकषायो तार्थ कराह बन्धकी भवतः] सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्रके साथ रहते हुए ( मौजूदगी में ) योग और कषाय ये दोनों ही तीर्थकर तथा आहारक नामक पुण्यप्रकृतियोंका बन्ध करते हैं अर्थात् सम्यग्दर्शन व सम्यकचारित्र उनका बन्ध नहीं करते, इसके सबूत ( पुष्टि में कहा जाता है कि [ नासति ! अर्थात् यदि सम्यगदर्शन व सम्यक्चारित्र, योग व कषायके साथ न हों तो कभी अकेले दर्शन-चारित्रसे उनका (तीर्थकर और आहारकका ) बन्ध कदापि नहीं होगा। मिथ्याष्टिके कभी नहीं होता व योगस्पाय रहते हैं। अतएव यह सिद्ध होता है कि [ तत्पुनः अस्मिन् उदासीनम ] वे सम्यग्दर्शन व सम्यकचारित्रबन्धके करनेमें उदासीन रहते है अर्थात् बन्ध नहीं करते क्योंकि वे वीतरागतारूप हैं, रागद्वेष रहित उपेक्षामय सदेव रहते हैं, बन्ध करना उनका कार्य नहीं है ।। २१८ ॥
भावार्थ-यथार्थमें बन्धके करनेवाले योग व कषाय है अन्य कोई ( सम्यग्दर्शनादि ) नहीं हैं क्योंकि योग व कषाय विभावरूप हैं और सम्यग्दर्शनादि स्वभावरूप हैं। वस्तु या पदार्थको रक्षा करनेवाला उसका स्वभाव या धर्म हो होता है अर्थात् जबतक स्वभावमें स्थिरता आत्माको रहती है, तबतक उसमें विभाव नहीं होता या हो पाता, बस ग्रहो तो विभावसे आत्माको रक्षा करना है। और विभावके न होनेसे आत्माके आस्रव और बन्ध भी नहीं होगा, जिससे संसार छूट जायमा यह फल होगा। कहा भी है कि 'वत्थुसहाबो धम्मो' वस्तुका स्वभाव हो उसका धर्म है { रक्षक है । जहाँ स्वभावले च्युति हुई कि विभाव परिणति हुई और उसके होनेहो बंघरूप सजा मिली । यह खराबी या होनता सिर्फ जोव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में ही होती है 1 अन्य द्रव्योंमें नहीं होती क्योंकि उनमें वैसी शक्ति नहीं है। और वह भी कब होती है जब दोनोंका परस्पर संयोग हो। ऐसी स्थिति में संयोगको दूर करना कर्तव्य है।
सारांश यह हैकि बन्धके निमित्तकर्ता योग और कषाय दोनों है, परन्तु उनके साथ यदि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र हो तो वे दोनों भी तीर्थंकर और आहारक जैसी सर्वोच्च एण्यप्रकृतियोंका बंध करते हैं, ऐसा उपचारशे कहा जाता है और यदि सम्यग्दर्शनादि तीनों या एक
१. रागद्वेषरहित वीतराग या उपेक्षारूप ।
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Samitem
अन्तिम निष्कर्ष
४२०
साथ न हो तो वे नरकगत्यादि पापप्रकृतियोंका बंध करते हैं। और जब योग व कषाय भी नहीं रहते, तब मोक्ष हो जाता है बन्ध नहीं होता। फलतः योगकषाय ( विभाव ) और सम्यग्दर्शनादि
स्वभाव का कार्य भिन्न-भिन्न प्रकार है, एक प्रकारका नहीं ऐसा समझना चाहिये। फलतः मोक्ष की प्राप्ति उपयोगशुद्धि एवं योगशुद्धि दोनोंसे होती है ।। २१८।। आचार्य आगे और भी शंका-समाधान करते हैं।
अन्य शास्त्रोंका उद्धरण देकर निर्णय करते हैं वो श्लोकों द्वारा
ननु कथमेवं सिद्धथति देवायुःप्रभृतिसत्प्रकृतिबंधः । सकलजनसुप्रसिद्धो रत्नत्रयधारिणां मुनिवराणाम् ॥ २१९ ॥
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पद्य सम्यग्दर्शन चारितसे यदि, बंध नहीं होता कोई । तो फिर देवायु आदिकका पुण्यवंध कैसे होई ।। सकल लोकमें यह प्रसिद्ध है सनत्रयधारी मुनिके।
पुण्यबंध होता है जब सक्ष, यह असत्य होगा उनके ॥ २१९ ॥ अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ननु यवं देवाशुःप्रवृतिप्रकृतिबंधः कथं सिध्यति ] शंकाकार यदि यह शंका ( प्रश्न ) करे कि-पुण्यप्रकृतियोंका बंध सम्यग्दर्शनादि रलाय नहीं करते तो फिर देवायु आदि पुण्यप्रकृतियोंका बंध होना कैसे सिद्ध होगा? यह बताया जाय । अन्यथा [ रत्नत्रयधारिणां मुनिवराणां सकलजनसुप्रसिद्धो बन्धोषिरुवघते ] रत्नत्रयधारो-मुनियोंके देवायु आदि पुण्यप्रकृतियोंका बंध होता है लोकमें यह प्रसिद्ध है, वह असत्य ठरेगा ( यह विरोध होगा )? यह पूर्वपक्षका श्लोक है। ( लोकापवादको शंका करके सिद्धान्तका खंडन नहीं किया जा सकता यह निष्कर्ष है )
आगे उत्तरपक्षका श्लोक लिखा जाता है। रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य | आस्रवति यत्त पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराधः ॥ २२० ॥
पहा
बंधहेतु सनम्रय नहिं है, उससे तो मुक्ति होती । पुण्यबंधका कारण वह है, जो शुभपरिणति संग होती। बंधरूप अपराध करत हैं, योगकषाथ उभय दोनों।
इससे उनका स्याग करत हैं, रमनयधारी, जानों ॥ २२० ।। अन्यय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [इह ननय निर्वाणस्यैव हेतुभवति अन्यस्य न ] इस
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३२८
पुरुषार्थसिद्धधुपाय इस ग्रन्थमें या मोक्षमार्गके प्रकरणमें, रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शनादिश्य ) मोक्षका ही कारण ( उपायमार्ग) होता है, संसारका कारण नहीं होता। [ तु यत् पुण्यमात्रवति ] और पुण्यका जो आस्रव या बंध होता है [ अयमपराध: शभापमोगः ] उसका कारण भोपयोग है अर्थात असीका यह अपराध है। शुभोपयोगका होना भी एक मन्दकषायरूप परिणाम है { प्रशस्तराग है । अतएव उससे पुण्यका बंध होना निश्चित है ।।२२०॥
नोट- यदि यहाँ श्लोको 'शुभोपयोगस्यागराधः' यह पद होता तो बेहतर था अस्तु ।
भावार्थ-उपयोग अर्थात् ज्ञानके व्यक्त परिणमनके अनुसार बन्धादि कार्य होता है अध्यक्त परिणमन, शक्तिरूप होनेसे कार्यकारी नहीं होता। तदनुसार यहाँ पर जब ज्ञानका उपयोग ( कार्यपर्याय ) रागादिरूप होता है अर्थात् रागादिकी ओर उन्मुख होता है तब बन्ध आदि कार्य हुआ करता है। तथा जब उपयोग विराग या स्वभावरूप होता है तब निर्जरा आदि हुआ करती है। ऐसी स्थितिमें बन्ध एवं मोक्षके कारण साथ-साथ होनेसे अपना अपना कार्य करते रहते हैं अचरजको कोई बात नहीं है, खाली समझका फेर है। शुद्धदृष्टि होनेपर सब जैसाका तैसा दिखता है और जैसा दिखता है वैसा ही श्रद्धान भी होता है और वह श्रद्धान इमादप
पक्का ) होता है कि वह बदलता ही नहीं है चाहे जैसी आपत्ति-विपत्ति क्यों न आ जाय वह निर्भय
(परके प्रवेशके भयसे रहित ) अटल (निष्कप) ही रहता है ऐसी विशेषता हो जाती है 1 यथार्थशानद श्रद्धान हो जानेपर यदि वह वैसा आचरण तुरंत न कर सके तो भी वह पर्यायगत होनसा को समझकर दुःखी होता है अरुचि करता है और उसको निकालनेका प्रयत्न भी यथाशक्ति करता है, परन्तु उसको उपादेय कदापि नहीं समझता--हेय ही सदैव समझता है। अपने को बिगारीकी तरह अनुभव करता है या पिंजड़ेमें अवरुद्ध शेरको तरह मानता हैं जो उसके हितमें है। विवेकबुद्धि ही संतोष देने वाली है-वस्तुके परिणमन पर दृष्टि दिलाने वाली है, जो स्वतंत्र हैं किसी के अधीन नहीं हैं, उसको कोई अन्यथा नहीं कर सकता अतः वह ज्ञानधासमें अवगाहन कर सुखी सदा रहता है ।। २२० ।।
पूर्वोक्त कथन में कोई शंका करता है कि एक ही आत्मामें साथ-साथ बंध व मोक्ष तथा बंध व मोक्षके कारण कैसे रह सकते हैं, परस्पर विरुद्धकार्य होनेसे ? इस शंकाका आचार्य समाधान करते हैं।
निश्चय-व्यवहारनयको अपेक्षासे एकस्मिन् समवायादत्यन्तविरुद्ध कार्ययोरपि हि । इह दहति घृतमिति यथा व्यवहारस्तादृशोऽपि रूढिमितः ॥२२१।।
पद्य एककाल में एक वस्तु विरुध धर्म दो रहते है। सहअस्तित्व हेतु है उनका क्यों अचरज कोह करते हैं । धृत में जैसे दाहकता अरु पौष्टिकता दौह होते हैं। निश्चय अरु व्यवहार पस्सुमै नयसे सब ही बनते हैं॥२१॥
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अन्तिम निष्कर्ष अन्वय अर्थ-- आचार्य कहते हैं कि [हि अत्यन्सविरुद्ध कार्ययोरपि परिमन् समन्त्रायात व्यवहारो भवति ] निश्चय ( वस्तु स्वभाव से विचार किया जाय तो एक ही वस्तुमें अत्यन्तविरुद्ध दो कार्य ( धर्म ) भी समायित्त । समाहित ) ( कचित् मौजूद ) एक साथ रहते है अर्थात् पाये जाते है तथा लोकमें भी वैसा कथन ( व्यवहार ) होता है अर्थात् रूदि मानी जातो है बचा इष्ट वृत्त दहप्ति इति व्यवहारः तारशोऽपि दिमित: ] जेसेकि 'यह घृत जलाता है' ऐसा लोक में कहा जाता है, वही रूढ़ि ( चलन ) हो जाती है । फलत: बंध च मोक्षके कारण साथ-साथ एककाल एक आत्मामें उदाहरण के अनुसार सिद्ध होते है ।। २२१॥
भावार्थ.--नयविवक्षासे या स्वचतुष्टय परचतुष्टयसे एक ही पदार्थ में एक हो काल में परस्पर अत्यन्तविरुद्ध दो कार्य या धर्म रह सकते हैं और वैसा कथन भी किया जाता है ऐसी हदि पड़ जाती है, कोई आश्चर्य नहीं होता, न होना चाहिये । उदाहरण के लिये 'जैसे घी जलाता है और पुष्टि भी करता है' यह दो धर्भ उसमें साथ-साथ पाये जाते हैं कोई विरोध या आपत्ति नहीं होती, परन्तु विषक्षाका आधार भिन्न-भिन्न प्रकारका है, उसको समझ लेना चाहिये । एक ही नय या आधारसे अनेकधर्म सिद्ध नहीं होते किन्तु अनेक नथोंसे अनेक धर्म सिद्ध होते हैं जो एक अधिकरण या आधारमें रहते हैं। अर्थात् उन सबका आधार एक रहता है और उनका कार्य पृथक्-पृथक रहता है, आपसमें कोई किसीको बाधा नहीं पहुंचाता, निराबाध रहते हैं। घी जलाता है, इस कथनमें निश्चयको अर्थात् धीकी यथार्थताको अधवा उसके पुष्टिकारक स्वभाव ( धर्म )को गौण करके उसकी अयथार्थता अर्थात् विकारीपर्याय ( उता )को जो कि अग्निके संयोगसे होती है मुख्य मानकर वैसा कहा जाता है, परन्तु उष्णताके समय वह स्वभाव ( पुष्टिकारक ) उस घृतमें विद्यमान ( मौजूद ) रहता हो है, नष्ट नहीं होता, इस प्रकार उष्ण व शीत { पुष्टिकारक ) दो धर्म युगयत् एक ही पदार्थ (घृत में बरावर रहते हैं कोई विरोध नहीं होता अथवा जैसे ठंडा जल ( स्वभाव ), पर-अग्निके संयोगसे गरम ( उष्ण ) मुख्यतया विभावरूप होजाता है और उस समय ठंडा स्वभाव गौण होजाता है तथा लोकमें गरम जल है ऐसा कहा भी जाता है, लेकिन जलका स्वभाव ठंडापन नष्ट नहीं होजाता, कुछ दबसा जाता है अर्थात् उष्णपना व्यक्त होजाता है व ठंडापना अव्यक्त होजाता है, दोनों ही ( विरुद्धधर्म ) साथ-साथ रहते हैं, अन्त में संयोगजधर्म ( उष्णपना ) नष्ट होजाता है और स्वाभाविकधर्म ( शीतपना) कायम ( स्थिर ) रह जाता है। इस प्रकार वस्तुको व्यवस्था है और वह शाश्चतिक है। यहांपर गौण मुख्य या निश्चय व्यवहारकी अपेक्षा है । स्वाश्रित वस्तुका स्वभाव निश्चयरूप ( ठंडापन ) गौण है और पराश्रित विभाव मुख्य है ( उष्णतारूप व्यवहार मुख्य है)।
इसी तरह प्रकृतमें एक आस्मामें ही रत्नत्रय ( स्वभावभाव) और योगकषायादिरूप विभावभाव दोनों एककाल रह सकते हैं व रहते हैं, कोई विरोध या आपत्ति नहीं होती। जिसका खुलासा यह है कि संयोगोपर्यायमें आंशिक रत्नत्रयरूप शुद्धता ( स्वभाव मोक्षका कारण ) और आंशिक कषायादिरूप ( विभावरूप बंधका कारण ) अशुद्धता, आत्माके प्रदेशोंमें साथ-साथ रह जाती है । आत्मा बड़ा व्यापक व उदारपदार्थ है, संयोगीपर्यायमें दोनोंका आधार है । तथा उसमें
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पुरुषार्थसिधुपाय राग और विराग, त्याग और ग्रहण सभी साथ-साथ होते रहते हैं। सारांश यह कि बस्तुका स्वभाव ( धर्म ही परद्रव्य के संयोगसे विभावरूप ( अधमरूप ) परिणत होजाता है पश्चात् वहींपर व्यका संयोग छुट जानेपर अपने मूलद्रव्यके स्वरूप में आ मिलता है अर्थात् शुद्ध स्वभावरूप परिणत होजाता है और यह षट्कर्म ( कारक ) जीव और पुद्गल दो द्रव्योंमें ही होता है क्योंकि उन्हों में ही वैसी उपादानता। पता है अन्यमें नहीं, ऐसा समझना चाहिये। कोई अचंभे या आश्चर्य करनेको बात नहीं है. अनेक धर्म वाली वस्तमें सब व्यवस्था होनेको योग्यता है-अत: उसमें अनेकान्त या अनेकधर्म निराबाध सिद्ध होजाते हैं । निश्चयनय और व्यवहारनय अथवा मस्य और गौण विवक्षासे अनेकधर्म हर बस्तु में सिद्ध होते हैं, विवाद करना व्यर्थ है, निश्चय और व्यवहारमें कुशल ( ज्ञाता ) ध्यक्ति ही सम्यग्दृष्टि एवं नियत स्वलक्षणवाली प्रज्ञाका धनी ( सम्बगज्ञानो ) होसकता है अन्य नहीं यह निष्कर्ष है। स्वाश्रितधर्म निश्चयरूप है और पराश्रितधर्म ध्यवहाररूप है ऐसा समझना चाहिये ॥ २२१॥ आचार्य अन्तमें उपसंहाररूप कथन ( निष्कर्ष ) करते हैं ।
आत्मा या पुरुषको प्रयोजनसिद्धिका उपाय यही है यह बताते हैं
सम्यक्चरित्रबोधलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः । मुख्योपचाररूपः प्रापयति परमपदं पुरुषम् ॥२२२॥
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मोक्षमार्ग ती एकरूप है, वर्शन चारित बोध मयी। उसके मी दो रूप है हैं, निश्चय अरु व्यवहार दूधी ॥ मोक्ष महल पहुँचानेवाला, मुख्यरूप निश्चन ही है।
गौणरूप म्यवहार मार्ग तो, उपचर शशि थसाता है ॥२२२ ।। अन्धय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि सम्बनचरित्रबोधलक्षणः एषः मोक्षमार्ग इति ] निश्चय से सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान-सम्यक्त्वारित्र इन तीनोंको एकतारूप एक ही मोक्षका मार्ग है ( दूसरा नहीं है ) । परन्तु कथन करने की अपेक्षासे अर्थात् वचनों या शब्दोंका सहारा लेनेसे उसके [ मुरुयोपशाररूप: ] मुख्य और उपचार ऐसे दो भेद माने गये हैं तथा [पुरुष परमपदं प्रापयति ] आत्माको वह मोक्षमार्ग, मोक्षमें पहुँचा देता है ऐसा सामान्यतः कहा गया है ।। २२२ ।।
भावार्थ-रत्नत्रयकी प्राप्ति हो जाना हो स्वाश्रित अर्थात् निश्चयनयसे मोक्षका मार्ग है और वह उस आत्माको नियमसे मोक्ष पहूंचा देता है। चाहे यह तथ्य किससे कहा जाय या न कहा जाय । क्योंकि व्यक्त गुण ही गुणीको उच्च या उन्नत बना देते हैं, उसके लिये कथन करने की घोषणा करने की या शब्दोंका सहारा लेनेकी जरूरत नहीं है, कारण कि मोक्ष, पराश्रित (कथनके आधीन ) नहीं है। यदि ऐसा होने लगे तो मूक केवलियोंको मोक्ष कदापि प्राप्त न होगा यह दोष आयमा, यत: वे बोलते ही नहीं हैं। फलत: निश्चयनयसे ( अध्यात्मकी अपेक्षा)
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गुण ही मोक्षको प्राप्त करानेवाले होते हैं, शब्दादि अन्य कोई नहीं । प्रत्युत जब तक शब्द या feossafr होती रहती है, वचननिरोध ( योग निरोध ) नहीं होता, तबतक मोक्ष भी प्राप्र नहीं होता है । ऐसी स्थितिमें यथार्थ वस्तुस्वरूपका, शब्दों द्वारा कथन करना ( वर्णन करना ) सब व्यवहार ( पराश्रितपना ) कहलाता है, वह व्यवहाररूप या भेदरूप कथन, मोक्षका मार्ग नहीं है ( अभूतार्थ है । ऐसा समझना चाहिये । कथन या शब्द या भेद मोक्षका मार्ग या मोक्षमें पहुँचानेवाले नहीं हैं किन्तु गुण अभिन्न ही जीवको मोक्षमें पहुंचानेवाले होते हैं | व्यवहार मोक्षमार्गका निषेध किया जाता है, वह सत्य व सत्ताधारी नहीं है। मोक्षका मार्ग यथार्थ में एक ( रत्नत्रय समुदायरूप ही है किन्तु भेदरूप या पराश्रित या पर्यायाश्रित ( संयोगी अवस्थारूप ) अथवा व्यवहाररूप नहीं है। यह सारांश है । पेतर श्लोक नं० ४ में भी मुख्योपचारपद द्वारा freer और व्यवहार अर्थ लिया गया है, शब्दभेदसे अर्थभेद सर्वत्र नहीं होता
शंका- मोक्षमार्गको दो भेदरूप बतानेका क्या प्रयोजन है ?
इसका उत्तर - प्रमादी व अज्ञानी जीवोंको सुधारनेका लक्ष्य है, कि किसी तरह वे संसारसे पार हो जायें, बोर हो जाय, अशुभसे छूटे | शुभराम सहित सम्यग्दर्शनादि व्यवहारमोक्षमार्ग (पर्यायाश्रित ) कहलाता है और वीतरागता सहित सम्यग्दर्शनादि, free मोक्षमार्ग कहलाता है । परन्तु निश्चयमोक्षमार्गका प्राप्त होना आजकल सरल नहीं है, अधिकतर व्यवहारमोक्षमार्गका होना संभव है । अतएव स्वेच्छाचारी प्रमादी जीव यदि अशुभरामादिको छोड़कर, शुभरागादिमें ही लग जाय या उसमें रुचि करने लगें तो भी कुछ लाभ हो जायगा, पुण्यका बन्ध होने लगेगा, पापका बंध होता बन्द हो जायगा । अतः करुणाबुद्धिसे दो भेद किये गये हैं । उद्देश्य या प्रयोजन अच्छा है। लेकिन यह ध्यान रहे कि यह आलम्बन प्रारम्भ दशामें रहने तकको है, आगे के लिए नहीं है ।
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काले कलौ च खिसे देहे अन्नादिकीटके । इदमेव महच्चित्रं जिनसिंगधरा नराः ॥
तत्वको स्वरूपको यथार्थ समझकर यदि धारणा ( श्रद्धा ) बनाई जावे और कार्य किया जाय तो अवश्य लाभ हो लेकिन विना यथार्थ समझे मनमानी धारणा बनाकर कार्यं ( प्रवृत्ति ) करने से कभी अभोष्ट लाभ ( इष्टप्राप्ति ) नहीं हो सकता, यह ध्रुव है, व्यवहारके ३ भेद होते हैं ।
१. गुणोंकी प्राप्ति करना 'करनी' कहलाती है । उसीको निश्चय कहते हैं । और प्राप्ति नहीं करना, खाली कहना मात्र 'कंपनी' कहलाती है । उसको व्यवहार कहते हैं। इन दोनोंमें करने व कहने में } करना { श्रेष्ठ है-कार्यकारी हूँ किन्तु कहना श्रेष्ठ व कार्यकारी नहीं है । इसीसे सूक्तियोंमें कहा जाता है कि कथनी करनीका दरजा ऊँचा है। पं० द्यानतरामजी ने भी लिखा है कि करनी कर कंपनी करे, ज्ञानत सोई सांचा, इत्यादि । निश्चय व्यवहारका आशय व भेद समझना चाहिये । तदनुसार 'प्राप्ति' मोक्षका कारण है, कथनी मोक्षका कारण नहीं है - वह व्यवहाररूप है ।
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पुरुषार्थसिदधुपाय (१) भेदानित ( अखण्डमें खण्ट कल्पना करनारूप ), (२) पराश्रित ( दूसरेकी सहायता लेने रूप) अर्थात् निमित्तोंको अपेक्षासे करनेरूप, (३) पर्यायाश्रित ( संयोगी पर्यायके समान माननेरूप ) क्योंकि यथार्थ में वस्तु या आत्मा वैसी नहीं है। खाली कल्पना करना है पूर्वमें कई बार कहा भो गया है ।।२२२॥ आचार्य मुक्त आत्मा ( मोक्षगामी जीव ) का स्वरूप बताते हैं।
अनुपम स्थायी सच्चिदानन्दरूप है नित्यमपि निरुपलेपः स्वरूपसमवस्थितो निरुपधातः | गगनमिव परमपुरुषः परमपदे स्फुरति विशदतमः ।।२२३।।
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आस्मान की तरह हमेशा जी निर्मल ही रहता है। नहीं घास सकता है कोई निजस्वरूप में रमता है ॥ ऐसा शन आरमा पामा मिर्मल सुखद परमपद को।
और नहीं कोई पा सकता है, पामर रागी उस पद को ।।२३३॥ अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ परमपुरुषः ] मुक्तात्मा [नित्यमपि मिरुपलेपः स्वरूपसमवस्थित: निरुपधातः गगनमिव विशवतमः ] नित्य है, निरंजन है, स्वरूपमें लीन है, बाधा आदि उपद्रवोंसे रहित है, आकाशकी तरह अत्यन्त निर्मल है, ऐसा अनेक गुणसम्पन्न होता हुआ [ परमपदे स्फुरति ] मोक्ष स्थानमें स्फुरायमान होता है अर्थात् सदैव प्रकाशमान रहता है ॥२२२।।
भावार्थ-आत्मा ( जीव ) का उपर्युक्त स्वरूप स्वाभाविक है जो हमेशा उसमें मौजूद रहता है । द्रव्यदृष्टि से कभी वह नहीं बदलता ज्योंका त्यों रहता है। 'काले कल्पातेऽपि च गते शिवानन विक्रिया लक्ष्या. यह आगमका कथन है। इसका सम्बन्ध मोक्षसे है। किन्तु वह मोक्ष, शुद्ध अर्थात् अनादिकालीन परसंयोगसे रहित आत्माको अवस्थाका ही नाम है, वह आत्मासे भिन्न परद्रव्यरूप नहीं है, अतएव वह स्वाश्रित है अर्थात् निश्चयसे आत्माका ही है, परका (आकाशादिका ) नहीं है। अत: आत्माके प्रदेशोंके साथ अनादिकालसे संयुक्त पर द्रव्यों ( कर्म नोकर्मादि) का वियोग हो जाना अथवा संयोग छट जाना ही मोक्षका लक्षण समझना चाहिये। वह सच्चिदानन्दस्वरूप मुक्तात्मा (नित्य ज्ञान दर्शन सुखवाला) अनन्तकालतक अपने निजस्वरूप
१. आकारा या आस्मान । २.. मोक्ष स्थान। ३.. कायर या अभव्य मिथ्यादृष्टि । ४. "निरवशेषनिराकृतकर्ममलकालकस्याशरीरस्थात्मनः आत्यन्तिकमवस्थान्तरं मोक्षः' ----सर्वार्थसिद्धिटीका ।
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আমি নিল में लीन रहता है, रमण करता है। इसीलिए मुमुक्षु उसके लिए उत्सुक व लालायित रहते हैं, ऐसा समझना चाहिये, यह सर्वोत्कृष्ट पदार्थ है और प्राप्तव्य है, उपादेय है।
सारांश-परसंबोगसे छूट जाना अर्थात् निष्परिग्रह हो जाना हो मोक्ष है, जबतक थोड़ा भी परका संयोग रहेगा तबतक मोक्ष नहीं होगा, परिग्रही मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते यह पक्का है । परिग्रह अन्तरंग व बहिरंग दो तरहका होता है। जब वह छूटता है सभी मोक्ष होता है। छूटनेका नाम ही मोक्ष है, धातुका यही अर्थ है ।।२२३।। आचार्य-मुक्तात्मा स्वरूपको और भी खुलासा बताते हैं ।
अन्यमतका खंडन करते हैं कृतकृत्यः परमपदे परमात्मा सकलविषयविषयात्मा । परमानन्दनिमग्नो ज्ञानमयो नन्दति सदैव ।।२२४॥
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जहां नहीं कुछ बाकी रहता, करमेको परमात्माके । सकल पदारथ जाने जाते, एककाल उस झाभीके ।। परम अतीनियसुख मिलता है कभी न अन्त होत जिसका।
ज्ञानानन्द स्वाद लेसा है, काल अनन्स मोक्षपदका २२४ ।। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि परमात्मा परमपदे कृतकृत्यः ] मुक्तात्मा मोक्षमें कृतकृत्य होजाता है अर्थात् निर्विकल्प मिन्द होजाता है, उसे कुछ करनेको शेष नहीं रहता तथा [ सकलविषयविषयारमा ] त्रिलोकवर्ती सम्पूर्ण पदार्थोंको युगवत् ( एक ही समयमें ) सर्वथा जान लेता है ( सर्वज्ञ होनेसे ) और [ परमानंदनिमग्नः ] सर्वोत्कृष्ट ( निराकुल ) अनंत सुखको भोगता है तथा [ ज्ञानमयः ] सर्वोत्कृष्ट ज्ञानगुण सम्पन्न होता है अर्थात् केवलज्ञानी रहता है और ऐसा होकर ! सदैव नंदति ] हमेशा अनन्तकालतक परिपूर्ण रहता है ( ज्योंका त्यों बना। रहता है ॥ २२४ ॥
__ भावार्थ-मोक्ष अवस्था आत्माको सर्वोत्कृष्ट उच्च व अन्तिम अवस्था है याने अनुपम व अद्वितीय पद है। जहांपर अनंतकालतक कोई परिवर्तन नहीं होता अर्थात् अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख, अनंतबल रहता है। नैयायिकों आदिकी तरह आत्माके विशेष नौगुणोंका (ज्ञान
१. परिपूर्ण जो सबकर चुका हो ।
सर्वज्ञ, सबपक्षार्थीका ज्ञाता। ३. उत्कृष्ट सुख । ४. केवलज्ञानगुण सहित । ५. बुद्धयादिविशेहगुपयोच्छेदः मोक्ष इति नैयायिकः ।
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যখলিল सुखादिका) उच्छेद ( अभाव ) नहीं होता अर्थात् वे सब मौजूद रहते हैं अन्यथा वह जड़ होजायमा यह दोष आता है। इसी तरह वहां कोई परिवर्तन नहीं होता हमेशा एकसा रहता है, परिपूर्ण ( कृतकृत्य ) अवस्था होजाती है। योष कुछ भी करने को नही रहता, स्वस्थ अवस्था होजाती है, आकुलसा आदिका नाम निशान नहीं रहता इत्यादि प्रकार गुणोंका समुदाय प्रकट होजाता है | ओगुण नष्ट होजाते हैं ।। २२४ ॥
___ आचार्य-धान्तपूर्वक अनेकान्त (स्याद्वाद) की सिद्धका जपाय { कूजी विधि या तरकीब ) बतलाते हैं।
अन्तिम शिक्षा देते हैं एकनाकर्षन्ती लथैयन्ती वस्तुतस्वमितरेण | अन्तेन जयति जैनीनीतिर्मन्थान नेत्रमिन गोपी ॥२२५॥
जैगनीतिमे निर्णय होना, सम्यक् वस्तुस्वरूपहिका । मंधानीसे धीक निकझता यथा दूध दधि दो का || जननीति स्याहाद' कहाती, अनेकाम्तमय होती है। अध्यार्षिक पर्यायाधिक दो मित्र, नाम परासी यह ही है। एकनीति जथ कड़ी ज होती, गुसरी होती रहती है। इसी सबसे वस्तुधि भी, क्रमसें निर्णय करती है !! एक हाथ पौथे काती है, एक धड़ासी भागे है।
ग्वालिमकी किरियावत् समझो सिद्धि भनेको होती है। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [जैनी मीप्ति: ] जनन्याय ( स्याहाद या अनेकान्तरूप ही. संसारमें बिजयको प्राप्त होता है अर्थात् तमाम विवादों और मतभेदों को मिटाकर सबमें मैत्री या एकता स्थापितकर विजयदुन्दुभि बजाता है क्योंकि [ एकेन अन्तेन वस्तुलपय भाकर्णET ] जैनतीति । ( स्याद्वादन्याय ) एक नयसे अर्थात् एक अपेक्षासे एकधर्म की पुष्टि या सिद्धि करती है, उसमी । मुख्यता रहता है । तथा [ इतरेण भन्सेन इलथयन्ती ] दूसरे मय या धर्मसे दूसरे धर्म को गोण करतो
१. कड़ी करमा या तानना या मुख्य करना । २. ढीली करना अर्थात् गौण करना। ३. धर्म। ४, स्यावादनाय । ५. रस्सी, जिससे घुमाया जाता है । ६. ग्वालिन, घुमानेवाली । ७, अनेकान्तकी।
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কি মিথ है। अर्थात् कथन करने के समय एक नय मुख्य रहता है अतः वैसा ही कथन किया जाता है और दूसरा नय मौण रहता है अत: दूसरा धर्म नहीं कहा जाता, परन्तु वह शक्तिरूपसे मौजूद (सापेक्ष) अवश्य रहता है. नष्ट नहीं हो जाता जिसका प्रारूप ( आकार प्रकार ) ऐसा है कि कथंचित ऐसा है और कथंचित् वैसा है, किन्तु सर्वथा न ऐसा है न बैसा है इत्यादि । यथा द्रव्याधिकनयसे ऐसा है ( नित्य है ) और पर्यायाथिक नयसे ऐसा ( अनित्य ) है, लेकिन सापेक्ष विवक्षा या नयभेदसे हो अनेकधर्म या अनेकान्त वस्तु में सिद्ध होते हैं। यह विधि ( उपाय स्याद्वादनयरूप ) और किसी मतमें नहीं पाई जाती, सिर्फ जैनमत में ही पाई जाती है, जिससे सबका समाधान होजाता है, यही उत्कृष्टताकी निशानी है । यहाँपर पुष्टि में ग्वालिनका दुष्टान्त दिया जाता है कि [ गोपी मम्थामा नेत्रमित अति जैसे ग्वालिम स्त्री मयामी में लगी रस्सीको जब एक हाथसे कड़ी और एक हायसे ढीली करती हैं. सभी बार-बार ऐसा करते-करते दूध दही मेंसे घी निकलता है, बिना ऐसा किये धी नहीं निकल सकता अर्थात् एक हाथकी रस्सीको ढीला करना और एक हाथकी रस्सीको चुस्त या कड़ा करना अम यहो घो निकालने की रोति है। इसके विपरीत यदि रस्सोको कडा व ढीला न किया जाय, न घुमाया जाय, या दोनों हाथोंको खोंच दिया जाय या ढीलाकर छोड़ दिया जाय तो घी नहीं निकल सकता व मटकिया फूट सकती है, ग्वालिन जमीनपर गिर पड़ सकती है, दूध दही बगर जा सकता है इत्यादि नुकसान ही होना सम्भव है। ऐसी अन्तिम शिक्षा देकर आचार्य ग्रन्थको समाप्तकर रहे हैं कि हमेशा गौणमुख्य न्यायसे अर्थात् व्यवहार और निश्चयसे या द्रव्यार्थिक सोर पर्यायाथिकनयसे समय-समयपर विवक्षा बदल करके अनेकान्त या एक वस्तुमें अनेक घोकी सिद्धि बराबर होसकती है कोई बाधा या अड़चन नहीं आती, परन्तु सर्वथा या एकान्तपक्ष (निरपेक्षता ) छोड़ देना चाहिये जो कि मिथ्यात्वको निशानी ( लिंग ) है वस्तु सापेक्ष है।
शब्दोंके द्वारा पदार्थक सभी धर्म एकसाथ नहीं कहे जासकते यह न्याय है एक बारमें एक ही धर्म कहा जाता है । अतएव उतना ही एकधर्म मान बैठना अज्ञानता है या पक्षपात या एकान्त है। ऐसी स्थिति में जननीति ( स्याद्वादनीति । यह कहती व समझाती है कि 'इतनो हो वस्तु नहीं है, किन्तु यह वस्तुका एक देश है, अभी वस्तुमै और अंश ( धर्म भरे हुए हैं जो क्रमशः अनेक बार कहे जायगे धबड़ाना नहीं । कथंचित् और स्थावाद या अनेकान्तकी कड़ी सबको एकत्रित कर सुमार्गपर लाती है, कुमार्गपर जाने से बचाती है अतएव उसीकी विजय हमेशा होती है ।। २२५ ।। आचार्य अन्त में अपनी लधुता या अकर्तृता बतलाते हैं।
निश्चयनयका कथन करते हैं वर्णैः कृतानि चित्रैः पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि | थाक्यैः कृतं पवित्रं शास्त्रमिदं न पुनः अस्माभिः ।।२२६॥
तरह तरह के दोसे ही पद बनते हैं नानारूप । भावारूप पदोंसे बनते वाक्य अनेक प्रकार सरूप।
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पुरुषार्थसिद्धपा
atrjie ft area aनत हैं, नहीं बनानेवाले हम यह सस्थारथ बात कही है, कर्ता हमें न मानो तुम ॥२२६॥
अभ्य अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि [विः वः पदानि कृतानि ] तरह-तरह के अक्षरों (वर्णों ) नेपद बनाए हैं अर्थात् अक्षर हो पद बनाते हैं । [तु चित्रैः पदैः वाक्यानि मानि ] और तरह-तरह के पदों द्वारा बाक्य बनते हैं अर्थात् पद वाक्योंको बनाते हैं। तथा [ वाक्यैः इदं पवित्रं शास्त्रं कृतं
क्योंने यह पवित्र ( शुद्ध निर्दोष ) शास्त्र बनाया है ( पुरुषार्थसिद्धयुपाय ) | [ पुनः अस्माभिः न कृतं ] तब हमारा इसमें कुछ नहीं लगा है अर्थात् हम इस शास्त्रके कर्त्ता नहीं हैं ऐसा समझना, इस प्रकार लघुता व सचाई बतलाई है ||२२||
भावार्थ- मुमुक्षुजन मान बढ़ाई नहीं चाहते और हृदयसे सच्ची बात कहते हैं । उपर्युक्त कथन आचार्य महाराजकी शुद्धता व निरपेक्षताका द्योतक उज्ज्वल प्रमाण है। इस पर अवश्य aara ध्यान देना चाहिये, तात्विक दृष्टिसे उनका कहना बिलकुल सत्य है । उपादानताकी दृष्टिसे वे कभी परके (शास्त्र के कर्त्ता नहीं हो सकते, पुद्गल द्रव्य ही है व हो सकती है वे तो सिर्फ निमित्त कारणमात्र हैं, तब उनको उपादान कर्त्ता अर्थात् मूलकर्ता मानना भी असत्य है, अभूतार्थ ( व्यवहार ) है सत्य बास तो पुद्गलको कर्त्ता मानना है । अतएव ऐसे स्पष्ट वकाके चरणों में मेरा साष्टांग नमस्कार है । उनके तस्वनिरूपणको तुम कर मुझे अमित लाभ हुआ है अतएव में महान् कृतज्ञ हैं, ओम् शान्तिः ।
गुरुमंत्र:
free featuresोलाइलेन, स्वयमपि विभूतः सन् पश्य घट्मास्यमेकम्, ।
हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाक्ष् मिधाम्रो ननु किमनुपलधिभीतिः किं चोपलब्धिः ॥ ३४॥
अर्थ- हे आत्मन् (जीव ) तू निरर्थक ( बेमतलब अप्रयोजनभूत ) विकल्पों में मत पड़, उनसे तेरा प्रयोजन सिद्ध न होगा ( स्वरूपोपलब्धि या आत्मदर्शन न होगा ) तू तो साररूप एक काम कर कि 'मास्य' छह कारकरूप विकल्पोंको छोड़कर सिर्फ एकत्व विभकरूप अपनेको देख ( विचार ) उपयोगको स्थिरकर, तब तुझको स्वयं अपने आप हो तेरे हो हृदय सरोवर ( चंचल मन या उपयोग ) में से एकाएकी 'आत्मदर्शन' होगा और निःसन्देह अवश्य होगा, विश्वास रख, जरा साधना करके देख, बात सही निकलेगी। यदि इतना नहीं कर सकेगा ( अपने एकस्व विभक्त स्वरूपको देखने के लिए मनको स्थिर न कर सकेगा अर्थात् सब तरफसे अथवा कर्त्ताकर्मादि छह कारकोंसे न हटायेगा ) तो पुद्गल ( जड़ कर्म व शरीरादि परद्रव्य ) से भिन्न प्रकाशवाले चित् चमत्काररूप अनुपम विभूति सहित तेरी आत्माकी उपलब्धि तुझे कदापि न होगी, अर्थात् तुझे सम्यग्दर्शन प्राप्त होगा । अतएव तु विकल्पों के भ्रमको निकालकर 'सर्व स्यज एकं भज' के मन्त्रको बारंबार स्मरणकर, तभी तेरा कल्याण होगा । सारांशकी बात ( शिक्षा ) यहीं है अधिक कहनेकी जरूरत नहीं है । इस कार्यके लिए कालकी सीमा ( छह माह ) नहीं है, वह अन्तर्मुहूर्त में हो सकता है।
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শিল্প দিক্ষ नोट---इस श्लोकमें 'षणमासमेक' यह पद कुछ संदिग्ध मालूम पड़ता है, वह कालमर्यादा सूचक नहीं होना चाहिये-इतना लम्बा काल आत्मोपलब्धिके लिए नहीं हो सकता और यह निश्चित कैसे किया गया इत्यादि प्रश्न होता है अतएव 'षटमास्य' पद रखनेसे 'षटम्+आस्य' छह कारक याने छह प्रकारके विकल्पोंको हटाकर-एकको याने शुद्धस्वरूप एकत्व विभक्तको देख ( पश्य ) यह सुन्दर घटित होता है बिचार किया जाय, किम्बहुना ।
जिस जीवने अपने जीवनमें और सब प्राप्त किया लेकिन सम्यग्दर्शनको प्राप्त नहीं किया, उसने कुछ नहीं प्रास किया वह दरिद्री ही बना रहा क्योंकि जीवन में सबसे उत्तम रत्न चिन्तामणि 'सम्यग्दर्शन' ही है, उसकी प्राप्ति बिना जीवन निष्फल है। उसके बिना संसारके दुःख नहीं छूटते । अतएव जैसे बने तैसे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति अवश्य करना चाहिये, जीवनका यही सार है, अस्तु ।।२२५॥
भादों सुदी १४ सोमवार सन् १९६३ विक्रम संवत् २०२२ में भाषा-टीका पूर्ण हुई । शहर सागर म०प्र०, भाषाकार-मुन्नालाल रांचेलीय ।
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३. ईस्वी सन् १९६३ ॥
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आत्म-निवेदन, अपना परिचय ( प्रशस्ति )
भाषाकारका वक्तव्य सागर जिलाकी गोद में, इक ग्राम पाटन' नाम है। तहसील बंडा क्षेत्र, पश्चिम दिशामें धाम है।।१।। उस ग्रामक प्रख्यात मुखिया, सिंघई नन्हें लाल थे। उनके....बंशीधर पुत्रसे, जन्मे जु 'मुन्नालाल' थे ।। २।। माता उन्हीं की राधिका' जस नाम तम गुणवती थी। उनके गरभसे जन्म लोना, जो गृहो में श्रेष्ठ थीं ॥ ३॥ वे पुण्यशाली जीव थे, जिनने चलाया 'रथ' वहाँ । जिनमन्द्र बृहत बनायके-प्रतिष्ठा कराई थी महाँ ॥४॥ अरु जाति उनको 'गोलापूरब' गोव घिलीय था। उसमें जु जन्मा कथानायक, भाई मझला नाम था ।।५।। थे तीन भाई सहोदर, अरु बड़े 'राजाराम' थे। मझले जु मुन्नालाल हैं, संजले जु'तुलसीराम' थे ।।६।। शिक्षा हुई देहातमें, जैह चार कक्षाएं रहीं। फिर जिला में आकर उन्होंने संस्कृत शिक्षा गही॥७॥ व्याकरण अरु कोश काव्य, सुधर्म त्याथ पढ़ा बहुत । सिद्धान्तका अभ्यास करने मुरेना पहुंचे तुरत ।। ८ ।। इस भावि शिक्षा प्राप्तकर कुछ वर्ष अध्यापन किया। फिर स्वयं ही वह छोड़कर व्यापारको अपना लिया ।।९।। नितकर्म पूजा पाठ अरु स्वाध्याय करना मुख्य था। धार्मिक समाजिक कार्यमें भी भाग लेना ध्येय था !॥१०॥ लेखन कलामें रुचि थी तब प्रथम रचना की स्वतः । 'भाषा स्वयंभू' स्तोत्रकी जो विद्यमान इतः ततः ॥११॥ 'मनमोहनीटोका' सुखद छहढालको कीनी बृहत् ।
बह भी प्रकाशित हो चुको, अब मांग है उसकी बहत ॥१२॥ १. अन्तर्गत। २, गारज, हाथियों के द्वारा चलनेवाला- पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराई थी सम्बत् १९४६ में नवीन मन्दिर
बनवाकर जो अभी भी सुरक्षित है।
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भास्मनिवेदन 'श्रावकका नित कर्तव्य' लिखकर सजग कीना गृहोको । अब लक्ष्य उनका प्रकट करने इस अनूपम कृतिको ।।१३१६ 'पुरुद्धिमानी गोका गु भारप्रकाशनी।। कह देंगे प्रायः श्रेष्ठजन, यह अन्धकारबिनाशनी ॥१४॥
दोहा तत्व जो इसमें भरा है, ग्रन्थ अनेक समाहि। भविजन बुधजन पाठकर भवसागर तर जाहिं ।। अल्पज्ञानके हेतुसे भुल भई जो होय । वृद्ध जान करियो क्षमा स्वारथ नाहिं जु कोय 14 गुरु गणेशके निकटमें विद्या पढ़ी अनेक । पूर्ण मनोरथ नहिं हुआ शल्प एक पर एक ।। चौदश भादों मासको शुक्ला सोम सुजान । उन्निस सौ श्रेसठ जहाँ सन् विष्टाब्द प्रभान ।। सम्वत् सहस दो बोरा है, सागर नगर महान् । अल्पबुद्धिः 'मुन्ना' रची, टीका सुखकी खाम ।
टीकाकाल विक्रम सम्बत् उन्निस सौ, अरु पचासको साल ! अगहनकारी द्वादशी, उपजो भारत लाल ।।
जन्मकाल मेमि कमल कुमार दोई हैं, मेरे बच्चे। इन्द्रानीके उदर-खसे, प्रकटित अच्छे ।। धनजनसे परिपूर्ण, वातके हैं वे सच्चे । व्यसन आदिसे दूर, झगड़के हैं वे कच्चे ।।
वर्तमानकाल
१. ईस्वी सन्।
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परिशिष्ट
श्लोक नं. ४९ का स्पष्टीकरण ___ श्लोक पंक्ति नं० २ 'हिसायतननिवृत्तिः परिणामविशुद्धये तदपि कार्या' का खुलासा या गुढ़ार्थ यह है कि हिंसा दो प्रकारको होती है (१) भावहिंसा (२) द्रव्याहिंसा। अपने भावोंमें विकारका होना अथात् मारने आदिका संकल्पविकल्प ( इरादा ) होना 'भावहिंसा' है कारण कि उस विकारीभाषसे स्वयं उस जीवके भावप्राणोंका घात या हिंसा होती है....ज्ञानदर्शन सुख आदि नष्ट होते हैं अतएव वह तो अपनो हिसा होना कहलाता है और वही यथार्थ व सत्य है, जो अपने आए होतो है । फलतः उसीका फल भोगना पड़ता है, सो उसको बचाना या भावहिंसा जिनसे हो उन परिणामों ( भावों ) का न करना ही निश्चयसे अहिंसावत है यह सारांश है। हिंसाका मूल कारण वही है-परवस्तु या अन्य प्राणीका घात होना औपचारिक या व्यवहारसे हिंसा है ऐसा समझना चाहिये।
किन्तु शिथिलाचार या स्वच्छंदता न फैल जाय, इस भय व आशंकासे दूसरी द्रव्याहिंसाके म करनेका भी उपदेश दिया है कि कोई अन्य जीवोंको भी न मारे में स्थाये, अन्यथा उसको द्रव्यहिंसाका पाप अवश्य लगा। अतएव उससे बचने के लिये द्रव्याहिंसाके आयतनों (आधारभूत अन्य जीचों) का भी विधात नहीं करना चाहिये अर्थात उनकी रक्षा करना चाहिये, जिससे परिणाम विशुद्ध-करुणाभावरूप या दरारूप निर्मल ( शुभरागरूप ) रहते हैं और उनसे पुण्यकर बंध होता है-पापबंध नहीं होता, बदलाम है। सनात बता पूर्ण विकारीमावोंका त्याग न हो सके (पूर्णवीतरागता न आवे ) तबतक शुभरागरूष दयाका भाव होना भी अपेक्षाकृत अच्छा है। जब पूण वातरागता उत्पन्न हो जाती है तब अन्य जीवोंका भी विधात नहीं होता न उसके लिये कोई प्रयास ( ब्यापार ) किया जाता है किम्बहुना । जीव पूर्ण अहिंसक भाव और द्रव्य दोनों प्रकारको हिंसाओंके छोड़ने पर ही हो सकता है, अन्यथा नहीं । अतएव मुख्य व गौण रूपसे दोनोंका त्याग करना अनिवार्य है ध्यान रहे !
श्लोक नं० १२४ का विशेषार्थ अनंतानुबंधोकषाय मुख्यतः सम्यग्दर्शनकी घातक नहीं है किन्तु सहचर होनेसे गौणतया या उपचारसे वैसा कह दिया जाता है। यह बात श्री अमृतचन्द्राचार्यने हो स्वयं पंचास्तिकाय गाथा नं० १३८ की अपनी टीकामें स्पष्ट लिखी है यथा-'सत कादाविस्कविशिष्टश्याप्रक्षयोपशम सत्यज्ञानिनो भवति' अर्थ-वह अकलुषतारूप परिणाम, विशिष्टकषाय ( अनंतानुबंधी ) के क्षयोपशम होने पर अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवके भी होता है यह खुलासा लिखा है । यदि कहीं अनंतानुबंधी सम्यक्त्वकी : घातक होती तो उसके क्षयोपशम होने पर वह जीव अज्ञानी ( मिथ्यादष्टि ) कैसे लिखा जाता था रह सकता था-वह सो अनंतानुबंधीके क्षयोपशम होने पर ज्ञानी ( सम्यग्दष्टि ) ही बन जाता। अतएव निःसन्देह अनंतानुबंधीको मुख्यतः स्वरूपाचरणचारित्रकी घातक मानना चाहिये । फलतः जबतक मिथ्यात्वका भी उसके साथ क्षयोपशमादि न हो तबतक सम्यग्दर्शन कतई नहीं हो सकता, यह निष्कर्ष है अस्तु, विचार किया जाय ।
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१. निश्चय और व्यवहारका खुलासा
( स्वरूप व संधि व सम्बन्ध ) (१) निश्चय कर) यहा योगों का दावा है, ए मामभेद तो है ही। इसी तरह लक्षणभेद भी बताया आता है, उसको ध्यान देकर समझना चाहिये और परस्पर दोनोंकी संगति भी बैठालना चाहिये सभी बुद्धिमानी है । देखिये लक्षण भेद...
(१) 'स्वाश्रितो निश्चयः' एवं 'पराश्रितो' व्यवहारः' ऐसा कहा है अथवा (२) 'भूतार्थो निश्चयः' एवं 'अभूतार्थो व्यबहार:'
अथवा (३) 'शुखरूपः निश्चयः' एवं 'अशुद्धरूपः व्यवहारः'
अथवा (४) 'अभेदरूपः मिश्चयः' एवं 'भेदरूपः व्यवहारः'
अथवा (५) 'अखंडरूपः निश्चयः' एवं 'खंडरूम, ब्यबहारः
अथवा (६) 'एकत्वरूपः निश्चयः' एवं 'अनेकत्वरूपः व्यवहारः'
अथवा (७) 'विभकरूपः निश्चयः' एवं "अविभक्तरूपः व्यवहारः'
अथवा (८) 'स्वसंवेदनरूप: निश्चयः' एवं परसंवेदनरूपः व्यवहारः'
अथवा (९) 'अनेकात्मको निश्चयः' एवं एकान्तात्मको व्यवहार
अथवा (१०) 'साध्यरूपो लिश्चयः'
'साधनरूपो व्यवहारः (११) 'उपयरूपो निश्चयः' एवं 'उपायरूपो व्यवहारः' (१२) 'ज्ञानरूपो निश्चयः 'वचनरूपो व्यवहारः'
अथवा {१३) 'सामान्यरूपो निश्चयः' एवं 'विशेषरूपो व्यवहार (१४) निविकारो निश्चयः' एवं 'सविकारो व्यवहारः'
अथवा (१५) 'निरूवाधिको निश्चयः' एवं 'सोपाधिको व्यवहार:'।
इत्यादि अनेक प्रकारके लक्षण ( निश्चय-व्यवहारके ) आचाोंने बताए है। जो कथन करने या समझानेको शैली है। परन्तु लक्ष्यों कोई भेद या फरक मा विरोध नहीं होता, यह जैनन्याय (स्याद्राद)को सास विशेषता है। स्याद्वादका विषय सर्वधा अनेकान्तरूप पदार्थ ( वस्तु ) है, एकान्तरूप वस्तु नहीं है, जिससे विरोध उपस्थित हो। अतएव विरोधको मिटाना स्थावादका प्रयोजन है और मिश्रा या संधिको स्थापित करना या आह्वान करना उसका लक्ष्य है। बड़े-बड़े अनादिकालके विरोध उससे क्षणभरमें दूर हो जाते है। इसीसे निश्चय और व्यवहारका विरोध भी मिटाया गया है, । नोट-यहाँ लक्ष्य और लाणका कथन जुदा-जुदा होनेसे ब्यबहार समझना चाहिये, निश्चय नहीं ।
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१. पर्यायाश्रितो व्यवहारः, पराश्रितो व्यवहारः, मेदानता व्यवहार: ऐसे मुख्य ३ मेद व्यवहार के हैं ।
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पुरुषार्थसिद्धधुपाय
सबकी संगति या एकीकरण (मैत्री)
[ स्याद्वस्व ( अनेकान्त ) को अध्यक्षतामें, द्रव्यार्थिक व पर्याविनयसे विचार ] (१) द्रव्याधिको अपेक्षासे सभी में एकसमान (अखंड या अभेदरूप निर्विकल्प ) हैं अर्थात् उन द्रव्योंके गुण व पर्यायोंके प्रदेश' जुदे जुदे न होनेसे एकरूप ( पिंडाकार ) हैं। तभी तो द्रव्यका लक्षण 'गुणपर्ययवद् द्रव्यं' कहा गया है। भतार जब उसमें कोई भेद ही नहीं है तब फिर अन्य विपक्षरूप भेद या आकार ( व्यवहार कैसे हो सकते हैं ? कदापि नहीं हो सकते। यदि कोई बिना समझे अज्ञानतासे या एकान्तसे ( स्याद्वादको बिना जाने माने अर्थात् वस्तु अनेक धर्मरूप है, ऐसा अनुभव किये बिना ) भेद करे या माने तो वह व्यवहार मिथ्यादृष्टि होगा कारण कि उसने वस्तुस्वरूपको समझा ही नहीं हैं, अन्यथा भेद कभी नहीं करता अर्थात् सर्वथा भेद न करता, न कहता । विचारनेकी बात है कि जब मूलद्रव्य एकमात्र अखंडरूप या अभेदरूप है, दूसरा कोई आकार या विपक्ष उसमें नहीं है तब वैसा खंडरूप उसको मानना बराबर ह रूप मिथ्यात्व व मूर्खता है। हां यदि किसी कारणवश भेदका मानना अत्यावश्यक हो तो उसको पर्याय ही मानना अर्थात् वह भेद पर्याय ( परिणमन में ) करना, द्रव्यमें नहीं करना तथा पर्यागमें भी सर्वथा भेद नहीं करना, कथंचित् भेद करना याने स्याद्वादनयका आश्रय लेना जो सच्चा निर्णायक व अध्यक्ष है। इसका खुलासा इस तरह है कि द्रव्यगुणपर्यायके प्रदेश जुदे जुदे तो हैं नहीं, अतएव तीनों अखंड या अभेदरूप द दे जुदे हैं अतएव कथंचित् भेदरूप भी है ।
( निश्चयरूप ) हैं और
प्रकृत में 'स्वाश्रित आदि पन्द्रह निश्चयके लक्षण' सर्व सपक्षरूप अखंड प्रदेशी हैं। अतएव नाम भेद होनेपर भी (लक्ष्य के साथ अभेद रूप है ) अर्थभेद नहीं है। सभी एकसमान एकाकार याने अजहद्वृत्ति हैं, ( स्वरूपमें अवस्थित हैं ), उनमें नैयाधिकादि परमतवालों को तरह सर्वथा भेद नहीं है, जिससे मिथ्यात्व सिद्ध हो। शेष जो 'पराश्रितादि १५ विपक्षरूप हैं, वे सब अन्याकार याने निश्चयके आकारोंसे भिन्नप्रकार आकारवाले ( लक्षणवाले ) होनेसे, भेदरूप बनाम व्यवहाररूप है। ऐसा निश्चय और व्यवहारको खुलासा रूपसे समझना चाहिये जिससे कोई भ्रम न रहे, गड़बड़ी मिट जाय। इसमें भारी विवाद है। यदि एकबार हृदय (पक्षपातरहितचित्त ) से इसको स्याहावनयके आधारपर समझ लिया जाय तो हमेशा के लिये सुखका स्वाद आने लगे, दुःख दूर हो जाय इत्यादि अनेकलाभ होने लगें। संक्षेपमें ग्रथ और पर्याय में अभेद व अवश्य जान लेना चाहिये। क्योंकि अनादिकालसे सर्वया मेवरूप सब वस्तुएँ हैं ऐसी एकान्तधारणा जीवोंको बनी हुई हैं जो गलत या अभूतार्थ है । असलमें उनमें कथंचित् भेद है ऐसो धारणा कर लेना चाहिये तब कल्याण होगा | व्यवहार देय है और निद्रय उपादेय है ।
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१. क्षेत्र या आधार
२ द्रव्यपर्यायोक्तयोरव्यातिरेकतः ।
प्रयोजन मेदाच तन्नानादं न सर्वथा ॥ ७
आतमीमांसा सन्तमद्राचार्य ।
भावार्थ---कहीं लक्ष्य (साध्य और लक्षण ( साधन ) अभिन्नमदेशी (आत्मभूत ) होते हैं और कहीं लक्ष्यलक्षण भिन्नप्रदेशी अनात्मभूत होते हैं, परन्तु मेद या संथ करने से सब व्यवहार के अन्तर्गत माता है। व्यवहार साधन और निश्चय साध्यरूप है। यही बात गा० नं० १५९ पंचारितान्यमे मतलाई गई है।
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नोट
fafe (सूक्ष्मता से) निर्धार किया जाय सो ज्ञान ( आत्मा ) में स्वाश्रित-पराश्रित ( निश्चयव्यवहारके लक्षणरूप ) आदि विकल्पोंका भीतर उठना और वचनोंद्वारा ( बाहिर ) कहना, यह सभी व्यवहार है ( अभूतार्थ है ) कारण कि वस्तु ( पदार्थ द्रव्य ) अनिर्वचनीय ( अवकव्य ) हैं एवं निर्विकल्प है, बहू सो सिर्फ ज्ञातव्य है अर्थात् ज्ञानकेद्वारा जामनेयोग्य है तथा जानी जाती है। तब से कहना उपचार है, पूरी नहीं कही जा सकती यह तात्पर्य है । अतएव सर्वथा ज्ञातव्य तो है किन्तु सर्वथा वक्तव्य नहीं है अथवा क्रमश: वन्य है और एकसाथ पूरी ( अक्रमसे ) वक्तव्य है । तब फिर उसमें लक्ष्य लक्षणका विकल्प ( खंड ) करना व व्यवहार है ( असत्य अभूतार्थ अशुद्ध है ) इत्यादि सत्यनिर्णय है । फलतः द्रव्ये या वस्तुएं सब जानने की है, कहने की नहीं है। यदि कहीं भी जाय तो पर ( शब्दों ) की सहायता लेनेसे व्यवहारपनाही सिद्ध होता है, यह खुलासा है, द्रव्यका लक्षण निम्न' प्रकार है । लक्ष्यलक्षणरूप भेदमें भी अभेद व भेद ६ यथा लक्ष्य और लक्षण दोनों एक साथ एकत्र रहते हैं, भिन्न २ नहीं रहते यतएव उनके प्रदेश या क्षेत्र या आधार एकही है [ अरूप है तथा उनके नाम आदि सब जुबे २ है ( भिन्न है) इसलिये अनेक हैं । फलतः स्वाद या अनेकान्तको अपेक्षासे कथंचित् अभेवरूप हैं और कथंचित् भेदरूप है, ऐसा निर्धार खुलासा सर्वत्र aar ना चाहिये ।
यही व्यवहार निश्चयकी संधि ( मित्रता ) है कि एकत्र साथ २ गौण-मुख्य रूपसे रहते हैं एवं निराET अपना-अपना स्वतंत्र कार्य करते हैं (सह अस्तित्वका परिचय देते हैं), वस्तु यह विशेषता है अर्थात् समान रूपसे सर्वथा भेदभाव रहित कार्य करनेका अवसर देना बड़ी भारी उदारता या अनुपम गुण वस्तुमें है। इसीलिये उसका 'वस्तु' ऐसा नाम रखा गया है, जिसमें समान्य विशेष आदि सभी बसते हैं । फलतः व्यवहार भी farers साथ (भेद भी अभेदके साथ ) कथंचित् उपादेय है, उपन्यसनीय है किन्तु सर्वथा उपन्यसनीय (बालFact ) और आचरणीय ( कर्त्तव्यरूप ) नहीं है, यह तात्पर्य है ( गा० ८ समयसार ) । निश्चय और व्यव हार में दोनों विकल्प हैं, जो संयोगी ( अशुद्ध } पर्याय में हुआ करते हैं अतएव पर्यायके भेद हैं, द्रव्यके नहीं हैं, एवं शोक भी हैं । सर्वदा आश्रयणीय ( अनुभवयोग्य ) नहीं हैं, आश्रयणीय एक अखंडद्रव्य ही है। विकल्प हे अपने में ही ज्ञानदर्शनचारिवादिरूप उठें या अन्यथोंके सम्बन्ध में उठें, सभी वर्जनीय व है है । जबतक आत्मायें एवं उसके शानश्रज्ञानचारिक आदि गुणोंमें निविकल्पता | खंडरहितता ) एकाकारता बनाम समाधि, उत्पन्न या प्रकट नहीं होती, वैसी परिणति आत्मा व गुणोंमें नहीं होती, तब तक कल्याण या साध्यकी fafa नहीं होती यह अटल नियम है ।
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यहां प्रश्न उठता है ?
कि क्या लक्ष्य-लक्षणरूप विकल्पका उठना और उनका कथन करना सर्वथा असत्य या हैय है ? यदि है तो पूर्वपरंपरा क्यों ऐसी चली आ रही है ? इसका समाधान निम्नप्रकार है- सर्वथा असत्य नहीं है, कथं चित् है, अर्थात् जिज्ञासुके प्रश्मके अनुसार उसको समझाने के प्रयोजनसे लक्ष्य व लक्षणका जुदा २ कथन करना
१. त सल्लाक्षणिक सन्मात्रे वा यतः स्वतः सिद्धम् । स्मादमिव
स्वसहार्थ निर्विकल्प च ॥ ८ ॥ त्रध्याय ।
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पुरुषार्थसिद्धयुपाय व समझाना सराम अवस्थामें गिर जातकोतसा :- दरमा विकला करना अनुचित हेय व वर्जनीय ( निषिध्य ) है अन्यवा नामादिक तो सत्यभेदरूप हैं किन्तु लक्ष्य व लक्षणके रहनेका आधार एक है याने अभेदरूप है अर्थात् जहाँ लक्ष्य रहता है वहीं उसका लक्षण भी रहता है अतएव भेद मानना या कहना असत्य है, इत्यादि ठोस समाधान है, इसको ध्यानमें रखना चाहिये । रमानाथकी यह रीति वनीवि है। यहां तक द्रव्याथिकमयकी अपेक्षासे निश्चय-व्यवहार कहा गया है।
पर्यायाधिक भयकी अपेक्षासे निश्चय व व्यवहार जन्म जीयको पर्याय शुद्ध वीतरागतामम होती हैं तत्र उम्पको निश्चयरूप जीव कहत है या अशद्धजीव कहते हैं। और जब जीथकी पर्याय रागादिविकारमय होती है, तब उसको व्यवहाररूप जीव या अशद्धजीव भी कहते हैं। ऐसा पर्यायको अपेक्षा निश्चय व्यवहार भेद कहा है उसे समझना चाहिये ।
यहां प्रश्न है कि जब व्यवहार हेय है ( उपादेय नहीं ) तब गास्त्रोंमें उसका उल्लेख या निरूपण' क्यों किया गया है? अरे, जिससे कोई प्रयोजन नहीं, उसका नाम भी क्यों लेना, वह सब व्यर्थ है, जिस गांवको जाना नहीं उसको क्यों पंछना । उस्सर निम्न प्रकार है-----वह ऐसा कि भ्रमनिवारण करने के लिये या दोनोंमें भेद बताने लिवे बैंसा किया जाता है, यह एक निश्चय करनेका उपाय है अथवा सही गांयको जानने की विधि है। जब सामने अनेक मांत्र दिख रहे हों, उनमें गन्तब्य गांयका पता लगाने के लिये', अगन्तन्य गोवोंका भी परिचय व नामादि पूंछा जाता है कि यह कौन गांव है ? उससे गम्सथ्थ गांवका गिलान किया जाता है, तब भ्रम या बन्देह मिट जाता है । लेकिन सच्चे गांवका पता शब्दों द्वारा पंछनेसे ह्रीं तो लगता है। यदि शब्द न बोले जाते कि 'यह गांव कौन है, सो पता कैसे लगता, कौन उस गांवको बताता? यह एक प्रश्न खड़ा रहता, समाधान नहीं होता तथा गांव स्वयं बोलता नहीं कि मैं वह गन्तव्य गांव हूँ। ऐसी { पेंचीदी ) परिस्थिति में शब्दों या वाक्यों के द्वारा ही सच्ने गम्तव्य गांवका पता लग सकता है, अन्य उपायोंसे नहीं। लक उन शब्दों वाक्योरूप व्यवहार ( निमित्तसे ) ही सत्यका पता लगता है यह न्याय है। यहां पर शज्यों में व्यवहारता इरालिये सिद्ध हुई कि वे गम्तन्य गांवके निश्चयरूप ज्ञान होने में सहायक हो गये अतएव सत्यनानके होने में, यह कहा जाता है कि इसके वचनों में या कहने से ही हमको गत्रिका ज्ञान हुआ है या वचनोंने ही ज्ञान कराया है । फलतः परमार्थ ( गन्तव्य गांव ) का ज्ञान या पता, शब्दोंने ही कराया है गा दिया है।
भावार्थ-असलीका पता देना या उसका जीवोंको ज्ञान कराना इत्यादि सब व्यवहारके ही अधीन ठहरता है अर्थात् व्यवहार ही निश्चयका ज्ञापन का सूचक होता है अतएव वह व्यवहार भी हीन अवस्थों में, जबतक प्रत्यक्ष या पूर्णज्ञान । सर्वदर्शी ) नहीं होता तबतक वह भी आलम्बनीय ( उपादेय है। सारांशस्याहादन्यायसे कर्थचित् उपादेन है और कथंत्रिम् ( उच्चावस्या ) देय है ( उपादेय नहीं है ) ऐसा निर्धार करना या समझना चाहिये । पूर्णज्ञान { स्वावलंबीज्ञान ) हो जाने पर शब्दादिकको सहायताको आवश्यकला नहीं रहती इसी तरह गुरु-शिष्य या बक्ता-बोलाका भी हाल है । शलदोंडारा ही प्रश्न किया जाता है और शब्दोंद्वारा ही असर देकर ज्ञान कराया जाता है । और यह परम्परा प्राचीन व सनातनी है । तथा नकलीके सहारेसे ही असलीका ज्ञान होता है। अर्थात् जब नकली और असली दोनों सामने हों तब
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परिशिष्ट
सत्य व सही निश्चय होता है कि यह नकली है और यह असली है पश्चात् यह असली उपादेय है और यह नकली हेय है इत्यादि निर्णय स्वयं ही जाता है । देखो इसी पूर्वोकि अर्थ या प्रयोजनकी पुष्टिके लिये शास्त्रकारोंने 'हस्तावलम्व' और म्लेच्छभाषाका प्रयोग, ये शास्त्रीय उदाहरण दिये हैं सो बात एक ही है कोई फरक नहीं है, समझ लेना चाहिए। तात्पर्यार्थ यह है कि व्यवहार व निश्चयक्का स्वरूप कथन करना दोनों में भेद बताने के लिये होता है न कि दोनोंका ग्रहण या उपादान करानेके लिये होता है किन्तु जो प्रयोजनभूत होता है ग्रहण उसीका किया जाता है और जो अप्रयोजनभू ई उ यान पई होने लगता है, उसकी वीर खुद छोड़ देता हूँ | जैसे और अमृत दोनोंका स्वरूप कथन करनेसे दोनोंमें भेद मालूम होता और तब विषका त्याग अमृता ग्रहण होना स्वभाविक है ।
res fears a एक शास्त्रोंमें ऐसा भी कहा गया है कि 'व्यवहार' तीर्थ है याने मार्गरूप है अथवा तारनेवाला या पारलगानेवाला सामन उपाय ) हूं। और 'निश्चय' उस व्यवहारका फल है ( उपेयवस्तु हैं ) । अर्थात् जिसप्रकार साधनसे या मार्ग साध्यकी ( अभीष्ट स्थान या वस्तुको ) सिद्धि या प्राप्ति होती है, ठीक उसीप्रकार व्यवहार ( साधन ) द्वारा निश्चय ( साध्य ) की सिद्धि होती है, यह नियम है ( अविनाभाव या व्याप्ति है ) । इस तरह व्यवहार और निश्चयमें तीर्थ और उसके फल जैसा सम्बन्ध सझना चाहिये, किन्तु व्यवहार व निश्चयका परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसा नहीं समझना चाहिये, यह ध्यान रखा जाय । यदि कहीं ऐसा सर्वथा सम्बन्ध न माना जाय अर्थात् बिलकुल सम्बन्ध तोड़ दिया जाय ( कथंचित् भी सम्बन्ध न माना जाय ) तब सब गड़बड़ी हो जायगी, तमाम लोक व्यवस्था नष्ट हो जायगी अर्थात न कोई लौकिक कार्य करेगा याने कोई साधन न जुटाया और साधनों के बिना न उसका कोई फल पायगा, यह बड़ी भारी हानि होगी या आपत्ति जायगी सारा संसार अकर्मण्य हो जायगा और दुःख उठाfer area atteककार्य ( असि-मषि कृषि विद्या-वाणिज्य-शिल्प आदि ) सभी साधन (व्यवहार) समझ कर अवश्य करना चाहिये, सर्वथा बन्द नहीं कर देना चाहिये, तभी लोकरोति व नीति चलेगी। साथ ही इसके यही २ सब कार्य हमेशा न करते रहना चाहिये अर्थात् हमेशा इनके करने में ही मग्न या दत्तचित्त नहीं हो जाना चाहिये, कभी इनको छोड़कर आत्मध्यान आदिमें भी लगना चाहिये, तभी पूर्ण सुख मिलेगा या शान्ति प्राप्ति होगी । सारांश यह कि योग्यतानुसार समय पर व्यवहार और निश्चय दोनोंका अवलम्बन करना ए एक नहीं, यह शिक्षा दी गई है। कार्य करते रहना, व्यवहार ( अशुद्धता ) है और उसका स्थाम करना, निश्चय है ( शृद्धता है । इसीका नाम सरागमार्ग व वीतरागमार्ग है ऐसा क्रमशः इसे समझना चाहिये अथवा संसारमार्ग व मोक्षमार्ग समझना चाहिये। व्यवहार और निश्चय न सर्वभा य है न सर्वेचा उपादेय हैं किन्तु कथंचित् य व उपादेय हैं। ऐसा जिनवाणी या स्याद्वादवाणी का उपदेश है। सिद्धान्तः निश्चय
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are fart पवितामा व्यवहारविवये मुइले ।
water for किज्जर दिव्य अण्येन उण सच्यं ।। १२ ।। समयसार क्षेत्रकगाथा :
अर्थ यदि कोई जैनपत ( सिद्धान्त को आनना चाहता है । उसको निश्चप और व्यवहार दोनों नामका बालमन या सहारा लेना पड़ेगा अर्थात् दोनों पर साहसे अभीष्ट सिद्धि होगी (मनोरथ पूर्ण होगा ) । एक किसको देने पर पूरा पदार्थ समझ में नहीं आवेश न उसका वर्णन किया जा सकेगा यह आपत्ति होगी। अतएव व्यवहारको तीर्थ याने मार्ग: रूप समझना और निश्चयको तीर्थका फल अर्थात् अभी स्थानकी प्राप्तिरूप समझना चाहिये यह सारा है (
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1
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पुरुषार्थ
और व्यवहारमें परस्पर साध्यसाधनयना है अर्थात् निश्चय साध्य है और व्यवहार साधन है अर्थात् भेदृष्टि
( विकल्परूप परिणति ) के पश्चात् अभेददृष्टि । निविकल्प परिणति ) होती हैं ऐसा क्रम है। तब विकल्प ( व्यवहार) साघन सिद्ध होता है और निर्विकल्प ( निश्चय ) साध्य सिद्ध होता है। उसके पश्चात् अन्तिम ers ( मोक्ष की fafa ( प्राप्ति होती है। ऐसी स्थिति का पारा ( तिलौलिया रूप ) कारण सिद्ध होता, वह भी रूपान्तर हो करके अर्थात् निश्चयकी स्थिति में आकर ( तदवस्थ रहते हुए महीं ) यह सात्पर्य है । गा० नं० १५६ पंचास्तिकाय ग्रन्थकी टोकामें देखो, साक्षात् व परम्परामें यह स्पष्ट है।
२. अमेद रत्नत्रय व भेदरत्नत्रय क्या है ? इसका खुलासा
(१) जिस सम्यग्दृष्टि आत्मा के अनुभव में कोई खंड या भेदका अनुभव न हो, अर्थात् ज्ञान दर्शनचारित्रका भी भेद या free न हो, उसकी अभेद रनवयवाला शुद्ध या निश्चयसम्यग्दृष्टि कहते हैं। पर्यायकी अपेक्षासे उसीको atarrer भी कहते हैं । वास्तवमें यही मोक्षगामी आत्मा होता है। कारण कि वह निर्विकल्प समाषिवाला था शाकाकारमात्र अपनेको अनुभव करनेवाला हो सकता है, दूसरा नहीं ।
( २ ) जिस सम्यग्दृष्टि जीवके अनुभव, ज्ञान-दर्शन वारित्रका भेदरूप ( रूपया विकल्प ) अनुभव हो, या रागादिरूप भेदका भी अनुभव हो, उसको सराग या नेदरत्नत्रयधारी सम्प्रदृष्टि कहते हैं । मोगामी उस अवस्थामें नहीं हो सकता यह नियम है। इसतरह अभेद रत्नत्रय व भेद रत्नत्रयका स्वरूप समझना चाहिये, अन्य प्रकार समझना गलत है ।
प्रश्न : सम्यग्दृष्टिके ऐसा क्यों होता है ? इसका उत्तर
आत्मशक्ति (वीर्य की कमीसे या संयोगीपर्याय होने की वजहसे या पाकिभावों ( क्षायोपशमिकादिभाव के योगसे या अस्तित्वसे, अथवा उपयोगकी स्थिरता नहोनेसे, व पूर्णवीतरागता प्राप्त न होनेसे, सारांश यह कि हीन अवस्था या अपूर्णदशा होनेसे पूर्वोक सभी उपद्रव ( भेद वा विकल्प वगैरह ) होते हैं जो rait बात नहीं हैं । किन्तु वे सब विकल्प पर्याय होते हैं द्रव्यमें नहीं होते, द्रव्य और उसके गुण सदैव अछूते ( शुद्ध एकाकार-भेद रहित ) रहते हैं, यह अटल नियम है तथा सभी गुण भीतर ही भीतर गोगरूपसे कार्य करते रहते हैं, सिर्फ एक कोई गुण मुख्यरूपसे प्रकट काम करता है, जो सबकी जाहिर होता है । इसीसे street उपयोगको मिश्ररूप कहा जाता है । गोण-मुख्यरूप ) यह तात्पर्य है । जैसे कि ज्ञानके समय श्रद्धान भी रहता है और दोनों अपना २ कार्य करते रहते हैं कोई बाधा नहीं आती । ज्ञानको मुताके समय भवान गौण रहता है और श्रद्धानकी मुख्यताके समय ज्ञान गौण रहता है इत्यादि खुलसा समझना चाहिये, जिसमें भ्रम नरहे ।
नोट --- - पूर्णशुद्ध सम्यग्दृष्टिके ज्ञानमें विकल्प आदि कुछ नहीं उठते क्योंकि पूर्णशुद्धसम्यग्दृष्टि वह होता है जिसके साथ न संयोगीपर्याय हो, न उसके ज्ञानमें कोई विकल्प उपजे । किन्तु जिसके साथ संयोगीपर्याय हो और विकल्प भी उपजें, उसको व्यवहार या उपचारसे पूर्ण या शुद्धसम्यग्दृष्टि कहना चाहिये, यह निर्णय है, मूलना नहीं चाहिये ।
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परिशि ३. निश्चय और व्यवहार सम्यग्दर्भनकी भूमिका क्या है ?
(विषय-क्षेत्र-आधार क्या है ) इसका खुलासा (१) जो जीव सामात्य (द्रव्यत्व-गुमान-पर्यायस्थ के साथ विशेषको ( मनुष्यादि संयोगी पर्यायको यथार्थ ( भेदशान सहित या सामान्य विशेष परस्पर सांपेक्ष, गौशमुख्यरूप ) जानता है, उसको व्यवहारसम्यग्दृष्टि' कहते हैं । अतएव उसकी भूमिका या विषय भेदरूप है संयोगी पर्याय सहित द्रव्य है ।
(२) जो जीव संयोगीपर्यायके विकल्प रहित एवं ज्ञान के विकल्प रहित शुद्ध-अखंड एक आत्माको यथार्थ जानता है, उसको निश्चय सम्यादृष्टि या शुद्ध सम्यग्दृष्टि कहते हैं। उसकी भूमिका या विषय
परस्परामा मानिससम्यक्पना है...मिथ्यापना नहीं है अस्तु ।
भावार्थ.....जहां पर ( जिस अनुभव कालमें ) अपने व्यक्तित्व (विशेष) आदि किसी भी वस्तुको तरफ ख्याल या ध्यान न रहे ऐसे विकल्प शून्य ( सामान्य ) एकमात्र आत्मानुभवमें लीनता होनेका नाम निश्चय सम्यग्दर्शन है किन्तु उस समय गौणरूपसे वे व्यनित्यादि परस्पर सापेक्ष अवश्य सत्तामें मौजूद रहते हैं, उनका अभाव नहीं हो जाता ( साथ नहीं छूट जाता ) यह तात्पर्य है।
और जहां पर अपने व्यक्तित्वादि । विशेष-भेद ) भी प्रकटरूपसे ध्यान ( उपयोग ) में रहें एवं ज्ञानदर्शनादिका भी विकल्प उपयोगमें पाया जाय, 'उसको व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं, ऐसा समझना चाहिये।
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१.जो माणदि अरहर्स इत्यत्तगुणत्तपनयन्तेष्टिं ।
सो जाणदि अप्पार्ण सो हो खल यादि तप्तलयं ॥८॥अचानसार
अर्थ-जो भव्यभोध, आईन्तदेव ( विशेष पर्याय ) को, अव्यत्र गुणत्व पर्याय ( सामान्य ) सहित जानता है अर्याग सामान्य सहित विशेष रूपसे सापेक्ष जामता है, वह जीव, मानो अपने व्यक्तित्व ( विशेष) को भी द्रव्यत्यादि सामान्य सहित सापेक्ष जानता है कारण कि वस्तु ( पदार्थ ) का स्वरूप ऐसा ही है सापेक्ष है । सब वह व्यवहार सम्यग्दृष्टि हो जाता है-उसका अज्ञान ( मोह मिथ्यात्व ) नष्ट हो जाता है ऐसा स्पष्ट समझना चाहिये । यही बात आगे कहते हैं
एकोमाः सर्वभावस्वभावः. सर्व भाषा: कमावस्वभावाः।
एको भावः तत्त्वतः येच बुद्धः, सर्वे भावाः तस्वतः तेन वृक्षाः ॥१॥ अर्थ--जिस जीवने एक ( जीवादि ) पदार्थको अच्छी तरह जान लिया हो, समझलो उसने सब पदाओंको जान लिया है कारण कि जो स्वभाव ( स्वरूप सामान्य ) एक पदार्थका है, वही स्वभाव सब प्रदायोंका है ऐसा नियम है-बस्तुव्यवस्था है।
गाथाका ताल्पयार्थ -यह है कि जब कोई चैतन्यनिधानजामी जीव अपने शानका उपयोग कर अर्हन्स आदि परको और स्वयं अपनेको सामान्यविशेषरूपसे जानता है तब उस समय अज्ञान या मोह ( अन्धकार ) नष्ट हो जाता है अतएव शानस्वरूप उपयोगका हो जाना ही सम्यग्दर्शन नहीं तो और क्या है ? यह तात्पर्य है। अज्ञानको दूर करने का एक मात्र उपाय ज्ञानस्वरूप अपनी आत्माका संवेदन ही है, अर्थात् 'स्वसंवेदन है' बनाम स्वानुभव है। विचार किया जाय । सामसे अशान नष्ट होता है मह न्याय है।
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पुरुषार्थसिधुपाय दूसरी तरह से निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शनके भेद (१) पर द्रव्योंसे भिन्न एक अखंड अपनी आत्माका ही श्रद्धान-अनुभव होना निश्चय सम्यग्दर्शन कहलाता है। इसमें एकत्व ( सामान्य ) की प्रधानता है तथा परद्रव्यों से भिन्न यहाँ विशेषकी प्रधानता है । इस तरह समुदाय रूपसे (सामान्य विशेष मिलकर) 'एकत्व विभक्तरूप, आत्माका श्रद्धान ज्ञान होना निश्चय सम्यग्दर्शन निश्चय सम्यग्ज्ञान सिद्ध होता है।
(२) जीवादिसात मोक्षमार्गोपयोगी तत्वों का यथार्थ प्रदान करना, व्यवहार सम्यग्दर्शन है । प्रश्न:यहाँपर व्यवहारता क्या है ? जबकि यथार्थ श्रद्धान सभी में मौजूद रहता है, तब फरक ( भेद ) क्यों है ? इसका उत्तर यह है कि श्रद्धान गुण, ज्ञान गुणकी तरह निबिकल्प ( भेद या खंड रहित ) है, सब फिर उसमें सात खंड या भेद या आकाररूप विकल्प करना, महो व्यवहार है वनाम अयंटमें खंड करना है इत्यादि खुलासा है।
४. मोक्षके कारणों में भेद .. यों तो मोक्षके कारण सम्यग्दर्शन ज्ञान चारिथ ये तीन है, यह सामान्य कथन है। किन्तु उसमें जो सम्यग्दर्शन कारण है, उसके दूसरो तरह दो भेद हैं ( १ ) मुख्य कारण रूप (२) नियमित कारणरूप । यथा---(१) तत्वार्थ प्रधान, देवगुरुधर्मका श्रद्धान, स्वपरका श्रद्धान, आत्माका श्रद्धान-~~~ये चार भेद मुख्य कारण के हैं अथति ये होना ही चाहिये। किन्तु (२) नियमित कारण एक ही है और वह "विपरीत अभिप्राय ( श्रद्धान ) मे रहित होता है, अर्थात् अगृहोतमिथ्यात्वका छूटना है क्योंकि उसके होनेपर सम्यग्दर्शनका होना अनिवार्य है (व्यातिरूप है)। परन्तु पूर्वोक्त तत्त्वार्थश्रद्धान आदि चार कारणोंके रहते हुए सम्यग्दर्शनका होना अनिवार्य नहीं है, होय भी और नहीं भी होम ऐसा द्वन्द्व रूप ( विकल्परूप भाज्य है ) है ऐसा भेद समझ लेना चाहिये । नियम का अर्थ अविनाभावस्य व्याप्ति है किम्बहुना इसी उक्त नियमको व्यानमें रखनेसे स्पष्ट रूपसे सम्यग्दर्शनके दो रूपया भेद सहज ही समझ में आ जा सकते है ध्यान दिया जाय !
सम्यग्दर्शनके दो भेद (१) निश्चय सम्यग्दर्शन, जिस नियमित कारण ( अगृहीत मिथ्यादर्शन या विपरीत श्रद्धानका अभाव होना ) से सम्यग्दर्शनकी उत्पप्ति होती है या मानी जाती है, याने नियमित ( सच्चे ) कारणकी बदौलत हो उसके कार्य ( श्रद्धान ) को भो सच्चा या सम्यकदर्शन कहते हैं अर्थात निश्चय सम्यग्दर्शन कहते हैं। यहाँ यह कथन कारणकी अपेक्षासे कार्यका भेव मानना रूप है अर्थात् सभ्यग्दर्शनका भेद मानना रूप है। इसी तरह
(२) व्यवहार सम्यग्दर्शन, यह दूसरा भेद है। अर्थात् जिस सम्यग्दर्शनके कारण मुख्य तो हैं किन्तु नियमित न हों किन्तु भाक्य या विकल्प रूप हों ( उनसे सम्यग्दर्शन होय न भी होय ऐसे हों) उन कारणों के कार्यको सम्यग्दर्शन कहना यह संभावमारूप, उपचार ही है ( अभूतार्थ है ) ऐसा भेद समझना चाहिये । अरे! जिसको वास्तबमें ( निश्चयों ) अखंड आत्माके श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन ग्राम हो जाता है उसको देवादिकके श्रद्धानरूप ( भेद या खंडरूप ) व्यवहार सम्यग्दर्शन तो हो ही जायगा ( अभेद या अर्षका भेद या खंड होना संभव है...योग्य है ) परन्तु खंड २ रूप व्यवहारसे अखंडस्प या अभेदरूप निश्चय हो ही जाय, यह निश्चित या ध्रुव नहीं है अतएम वह भाज्य रूप है। इस प्रकार कारणकी अपेक्षासे सम्यग्दर्शनके दो भेद बतलाये उन्हें समचना चाहिये 1 दर्शन या सम्यग्दर्शन आत्माका ही गुणरूप अंश है । जो निश्चय ( भूतार्थ ) है किन्तु गुण.
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गुणीका भेद करना व्यवहार है। भूतार्थ ( निश्चय ) का शब्दोंके द्वारा कथन करना भी व्यवहार कहलाताहै, यह व्यवहारका सामान्य लक्षण है, कारण कि निश्चयका ज्ञापन पराविद ( शब्दाश्रित ) होता है यह पराधीनता आती है।
५. साक्षात केवली ( सर्वज्ञ ) के ज्ञान में और श्रतकेवली (परोक्षज्ञानी) के ज्ञानमें
तारतम्य ( हीनाधिकता ) होता हैं । (१) केवलोका सान सबसे बड़ा है, जिसमें विश्वका कोई पदार्थ विमा जाने रह नहीं सकता, लेकिन उसके द्वारा जाने गये सम्पूर्ण पदार्थ सर्वतः कहे महीं जा सकते, बहुत थोड़े कहे जाते हैं । जो कहे जाते हैं, उनका हो लेखन व वर्णन द्वादशांगरूप शास्त्रों में है, जिसको गणधर तैयार करते है। तदनुसार उन शास्त्रोंको परोक्ष जानने वाले जीद श्रुतकेवली माने जाते है। ऐसी स्थितिमें उनको केवली जैसा ( जितना) ज्ञान न होनेसे तारतम्य ( होनाधिकता ) पाया जाता है, बराबरी नहीं है । वैसे तो निश्चयसे संक्षेपमें वह जीव श्रुतकेवली है जो सिर्फ अपने शुद्ध { अg) आत्मामात्र को श्रुतज्ञान ( स्वसंवेदमज्ञान ) द्वारा जान लेता है। इसके सिवाय केवलज्ञान या कोई भी ज्ञान मिस्त्रयसे झयोंके आधीन नहीं है किन्तु स्वतंत्र है ( ज्ञेयोंके न होनेपर भी उनमें सर्वशक्ति है ) ज्ञान व श्रद्धान गुणमें यह खास विशेषता है तथा शाम-श्रद्धाम दोनों ही अखंड या निर्विकल्प है, कभी उनमें खंड या विकल्प नहीं होते।
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(२) ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि) की क्ष्या और अज्ञानी (मिथ्यादृष्टि ) की दयामें भेद ( फर्क ) है। इसका खुलासा पंचास्तिकायकी गाया नं० १३७ में मौजूद है । सामान्यतः दया सम्यग्दृष्टि एवं मियादृष्टि दोनों पालते हैं ( करते हैं)। परन्तु सम्यग्दृष्टि मुख्यतया अपनी दया अर्थात् अपनी आत्माकी रक्षा (बचाव) करता है और उसके लिये संसार शारीर भोगोंसे अरुचि ( विरक्ति ) करता है, उन्हें हेय समझकर अपना भाव या उपयोग रागादिकसे हटाकर वीतरामता ( शुद्धता) में लगाता है, जिससे आपच और बंध नहीं होता, तब अपनी रक्षा बह कर लेता है यह तात्पर्य है। किन्तु जब उसके उपयोगमें रामपरिणति ओरधार होती है और उसका वेग दह नहीं रोक सकता तब अगत्या ( मजबूरी में । यह अरुचि पूर्वक रामज्वरको शान्त ( शमन ) करने के लिये रोगीकी तरह कड़वी औषधिको भी ग्रहण करता है ( उत्साह और चिसे नहीं), जिससे थोड़ा आस्रव और बंध भी उसको होता है अर्थात् संवर और आम्रव दीनों होते हैं, परन्तु मुख्य व गोणका भेद रहता है ऐसा समझना चाहिये । तथा उपादेशबुद्धि वीतरागतामें ही रहती है, रागमे हेयबुद्धि रहती है ।
( ३ ) अशानी मिथ्यादृष्टिके दयाभाय दूसरे तरहका रहता है, उसको प्रचुर राग रहता है, वैराग्य
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१. णाणं याणिमित्तं केवलणणं च णत्तिा सुदणाणं ।
यं केवलणाणं गाणं च मयि कालणो ॥गा ० ४१॥ अर्थ-बान पके अधीन नहीं है, सब केबलशान मी भुतान या यके अधीन महीं है। केवलान स्वई
यस्प है अ पत्र में पापना व अहानपना दो धर्म महीं हैं। फलसः सता रवाधीन मानसे ही सिद हो जाती है फिर शंका क्यों करना ?
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स्वार्था
नहीं होता । परमकरणाभाव के पीछे वह अत्यन्त आईक्लेशपरिणामवाला हो जाता है, अपना कर्तव्य पूरा करना उसी कार्यको करने में मानता है, जिससे मोक्ष नहीं होता, संसारमें ही रहना पड़ता है, यह भाव है। यद्यपि है यह शुभराम तथापि हैव है, उपादेय नहीं हैं, ऐसा खुलासा समझना चाहिये। फलतः कथंचित् पदके अनुसार दोनों उपाय है । अज्ञानी परथाकी ही दया समझता है स्वदको नही समझता ।'
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( ४ ) आत्मा या ज्ञानमें मेचकता (अनेकरूपता) व अमेचकताका निर्णय :--
' दर्शनज्ञानचारिस्त्रिभिः परिणतत्वतः, एकोपि त्रिस्वभावत्वात् व्यवहारेण मेचकः ॥ १७ ॥ परमार्थेन व्यशास्त्र ज्योतिषैककः, सर्व भावान्तरध्वंसिस्वभावत्वादभेचकः || १८ || रामप्रसारकलश
अर्थ :--- पर्यायरूप नाम या व्यवहारको अपेक्षासे एक ही वस्तु अनेकरूप बनाम मेचकरूप मानी जाती है | ऐसा वस्तु अनेकरूप या अनेकान्तरूप स्वभाव है। स्वतः सिद्धति परिणमन ( व्यक्ति ) है सब सा माननेमें कोई विरोध या आश्चर्य नहीं है, ऐसा निश्चय या समाधान कर लेना चाहिये
६. निमित्त व उपादानमें भेद और उसका खुलासा दोनों स्वतंत्र पदार्थ हैं
( १ ) एक ही पदार्थ में निमित्तता व उपादानता दोनों धर्म पायें जाते हैं क्योंकि प्रत्येक वस्तु या पदार्थ अनेकान्तरूप है ( अनेक धवाला है। किन्तु एक दूसरी वस्तुके प्रति विचार करनेपर एक वस्तुका स्वभाव, उसका अपना उपादन होता है अर्थात् गुण उपादान माना जाता है तथा परस्तु के प्रति यही स्वभाव या गुणरूप उपादान निमित्त माना जाता है, यह निर्धार है । कार्यको उत्पन्न करनेवाला विरूप उपादान कारण ही होता है, निमित्तकारण नहीं, यह निश्चित है। कारण कि वह रहते हुए भी उपादान के far कार्य कभी प्रकट नहीं होता, यह प्रत्यक्ष देखने में आता है। अथवा-
पदार्थको कार्यको प्रकट करने
( २ ) एक ही पदार्थ में रहनेवाला उपादान और निमित्त उसी वाला होता है, अन्य पदार्थके प्रति असमर्थ और निरक यह का नियम है। जैसे कि घटकार्यके प्रति उसका उपादान कारण मिट्टी और निमित्त कारण ( सहकारी ) स्थास कोशशूलादि होते हैं तभी वह घट उसमें बनता है। दोनों ही अभिवदेशी व राभूत व्यवहाररूप हैं। कुंभकार आदि सब भिन्न प्रदेशी व असद्भूत व्यवहारख्प हैं । अव उनको निमित्तकारण माननेपर निमित्तोंकी संख्या सीमित न रहेंगी एवं वस्तु पराधीन हो जायगी । लोकका न्याय और आगमका न्याय पृक्क होता है। सासंद यह कि मूलद्रव्यको उपा दान कारण कहते हैं और उसकी पूर्वपर्यायोंको निमित्तकारण कहते हैं । तदनुसार उपादान निश्चयरूप है और निमित्त व्यवहाररूप है, इस तरहकी संनति बिठा ली जाती | उकं-- 'साध्यसाधनभावेन विधकः समुपास्यताम्' || कलदा समयसार १५ ॥ तथा पं बनारसीदासजी नाटकसमयसार में लिखते हैं
"उपादान निज गुण जहाँ, यहाँ निमित्त पर होय । उपादान परमाणविधि, विरला वृझे कोय ३१ ॥ उपादान बल जंह वहां नहि निमितको दाय । एकचक्र सो रथ चले रविको यही स्वभाव ॥ २ ॥ सबै वस्तु असहाय जंह तह निमित्त है कौन । ज्यों जहाज परवाह तिरे सहज विन पीन ॥ ३॥
१. दया था सब कोई कहे दया न जाने कोय । स्वपरदया जाने विना था कहाँ से हो पंचास्तिकायको टीकामै उल्लिखित है।
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नीट- सच्ची निमित्त उपादानता, अभिशप्रदेशवाले पदार्थोंमें होती है, भिन्नप्रदेशवालोंमें मानना उपचार है । सम्यग्दर्शन और मिय्यादर्शन के निमित्तकारण कौन हैं ? उनका खुलासा
farara सम्यग्दर्शनका निभिसकारण, विपरीत अभिप्रायका निकल जाना है तथा व्यवहारनयसे सम्यग्दर्शनका निमित्तकारण मिष्यामस्य कर्मका उपशम-सय-क्षयोपशम है। इसी तरह निश्चयसे मिथ्यादर्शनका निमित्तकारण विपरीत अभिप्रायका अस्तित्व है तथा व्यवहारनयसे मिथ्यादर्शन के निमित्तकारण मिथ्यात्यकर्म का सत्त्व व उदय है ।
उपादान कारण कौन है ? उनका खुलासा
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सम्यग्दर्शनका उपादान कारण, स्वयं आत्मद्रव्य है अखंडतम्य ज्ञायकाकार एक तथा अनिश्चयrयसे भेदरूप आत्मद्रव्य ही उपादानरूप है तथा अशुढनिश्चयनयसे आत्मद्रव्य ही मिथ्यादर्शनका उपादानकारण है परन्तु औपाधिकभाव होनेसे विनश्वर है, संयोगीपर्यायरूप है ।
७. अनुजीवी व प्रतिजीवी गुणका खुलासा
freeणोंसे जीवद्रव्यका अस्तित्व एवं व्यावृतत्व सिद्ध हो उनको ( १ ) अनुजीवीगुण कहते हैं ( सामान्यत: वे सभी द्रव्योंमें पृथक पृथक रहते हैं। जैसे कि जीवद्रव्यमें जीवनत्व (चेतनत्व ) को सिद्ध करने ज्ञानदर्शन सुखबल, मुख्य या विशेष गुण हैं, उन्हींसे जीवद्रव्यको सत्ता और अन्यसे व्यावृति ( पृथकता ) सिद्ध होती है। शेष ( साधारण ) गुण जैसे कि अस्तित्व वस्तुत्व प्रमेयत्व आदिसे जीवत्व सिद्ध नहीं होता, अतएव वे सब प्रतिजीवी ( जीवत्व या वेतनत्व से भिन्न या विपरीत ) हैं, कारण कि उनसे जीवत्व सिद्ध नहीं होता, ऐसा ही प्रत्येक द्रव्य में समझना चाहिये। इसका अर्थ अभावरूपगुण है अर्थात् अनुजीवी गुणोंके अभावरूप ( भिन्न ) हैं किन्तु सत्ताके अभावरूप अर्थ नहीं है, अन्यथा सिद्धान्तविरोध हो जायगा । ऐसी स्थिति में Recent अस्तित्व और अन्यद्रव्यों भिन्नत्व उसके अंगभूत या आत्मभूत गुण ज्ञानदर्शन ही सिद्ध करते हैं, अन्य कोई नहीं, यह निष्कर्ष है ।
द्रव्यमात्रका खास अस्तित्व सिद्ध नहीं किन्तु मात्र सहविपक्षी गुण कहते हैं। जैसे कि अस्तित्व Tere क्यों कि ये जीवत्व ( चेतनत्व ) सिद्ध करने में समर्थ
(२) प्रतिजीवीगुण, जिनगुणोंसे जीवका या चरता सिद्ध हो, उनको प्रतिजीवो या अभावरूप उसके अगुरुलघुत्व प्रयत्व आदि सामान्य ( साधारण ) गुण, नहीं है। उक्तं च
प्रमेयत्वादिभिर्धरविदात्मा चिदात्मक
- शानदर्शनतस्तस्माच्चेतनाचेतनात्मक ॥ ३॥ अकलंकदेवकृत स्वरूवसंबोधन ग्रन्थ,
प्रकाशक जैन सिद्धान्तप्र० ( संस्था महावीरजी, राजस्थान ) अर्थ -- प्रमेयत्वादिधमके द्वारा चेतनरूप आत्मामें चेतनता ( जीवत्व ) की सिद्धि नहीं होती क्योंकि वे सामान्यप्रतिजीवी गुण हैं । वस्तुतः उनसे अचेतनत्व ही सिद्ध होता है । तथा दर्शन ज्ञान आदि अनुजीवी गुणों के द्वारा चेतनता सिद्ध होती है । अतएव सिद्धि व असिद्धि इन दो नयों ( न्यायदृष्टि ) की अपेक्षासे आत्मह ( जीवद्रव्य ) यो तरह ( चेतन व अचेतन ) सिद्ध होता है । इसप्रकार अनुजीवी प्रतिजीवी गुणोंका खुलासा है, भ्रम नहीं रखना चाहिये 1
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पुरुषार्थसिपा
भावार्थ - असमें आत्मा अचेतन ( अष्टरूप ) नहीं है किन्तु हेतुओं या सामान्य गुणों या प्रतिजीवीगुणोंके द्वारा उसमें बेलमला सिद्ध नहीं होती और विशेषगुणों या अनुजीवीगुणों ( हेतुओं के द्वारा घेत सिद्ध होती है, यह बतलाया गया है-- दूसरा कोई प्रयोजन नहीं हैं सिर्फ लक्ष्य लक्षणको शुद्ध निरोध बनानेका प्रयोजन है मस्तु । मेरी समझ में जो आया यह लिखा है, बुद्धिमान् विचार कर मान्यता देवे, किम्बहुना । ८. सात बच्चों में विपरीतताका खुलासा ( विपरीत श्रद्धान क्या है इत्यादि )
जैसा जीवद्रव्यका यथार्थ ( सत्य ) स्वरूप है साम जानकर उससे उल्टा या भिन्न प्रकार जानना च मानना ( अज्ञान करना ) जीवतत्वा मिथ्या ज्ञान बद्धान है अर्थात् जीवके विषय में विपरीतता है । जैसे कि जीवका सच्चा स्वरूप दर्शनज्ञानवारित्र है तथा परसे भिन्न और अपने गुणोंसे अभिन्न है। उसको सान आनकर परमें उसे मिलाकर अभिन्न जानना व मानना विपरीत अज्ञान व विपरीत ज्ञान है तथा arrant इन्द्रियात्रि दश ग्राण वाला मानना जो संयोगीपर्याय है, जिसमें जीव और अजीब ( पुद्गल ) यो द्रव्ये संयोगरूपसे मिली हुई हैं। इसमें विपरीतता या गलती यह है कि यह श्रद्धान व कथन अकेले (शुद्ध) teamer नहीं हूँ किन्तु दो द्रव्यकेि मेल से बनी संयोगीपर्याय ( अशुद्ध ) का है। यहीं अयथार्थ या मिथ्यास्वरूप जीवद्रव्यका है । फलतः उस ज्ञानवानसे मोक्ष कभी नहीं हो सकता । मोक्ष कर्मोके क्षयसे होता है परन्तु उक्त fisareeart ates कमका श्राय या संवर नहीं होता अपितु आनद और अँध होता है क्योकि परमें बोर अपने में भेद न मानने से परमें रागादिविकारी । अशुद्ध ) भाव हमेशा होते रहते हैं, जिनसे कमोंकी सन्तति निरंतर जारी रहती है कभी नए नहीं होती यह तात्पर्य है । यही विपरीतश्रद्धा संसारका कारण है । सारांश पृथक् २ दो द्रव्योंको अभेदरूप ( अपृथक ) मानना, जो असंभव है, मिथ्या है।
( २ ) इसी तरह अजीवद्रव्योम ( पुद्गलमें भी विपरीताका होता हेय है, यथा गलका प स्वरूप रूपरसगंधस्पर्श हैं, तथा परसे भिन्न है ( औवादि सबसे पृथक है और यह सिर्फ अपने- पुदगलमें हो रहता है । उसको वैसा न मानकर उल्टा मानना मिथ्यावद्धा या विपरीतता है । यथा सभी शरीरादिव ताद मेरे ( जीवारमा ) के हैं अर्थात् मेरेमें व उनमें भेत्र नहीं है, जो मैं हूँ सो वे हैं, और ये है, सो में हूँ, दोनोंमें: ( भिन्न २ होनेपर भी ) कोई भेद ( पृथक्ता ) नहीं है। अजीवतत्त्वमें विपरीतता ( मिथ्यात्व ) समझना चाहिये । इसीका नाम अज्ञानता है। बुद्धिभ्रम है ।
प्रश्न- जीव तो ज्ञानमय या ज्ञानस्वरूप है, वह अज्ञानी कैसे ?
उत्तर- इस प्रकार हैं कि जबलक जीवका ज्ञान, जो उसकी ससा में हैं, भेदज्ञानरूप न हो अर्थात् मैद अनरूप पर्यायको धारण न करें ( प्राप्त न हो तबतक वह अशानी ही रहेगा, चाहे वह कुछ भी जाने या करे, ant अज्ञानता दूर न होगी । अतएव ज्ञान रहित न होनेपर भी भेदज्ञानरूप पर्यायके अभाव में अजानी है। माना जाता है | यह आपेक्षिक कथन है | किन्तु सर्वथा ज्ञानशून्य आत्मा कभी नहीं रहता, यह सिद्धान्त है, जिसका खुलासा मिन्न प्रकार है ।
जैसा आगमशास्त्री और अज्जीवका स्वरूप लिखा है, उसे मिन्न प्रकार मानना मिथ्यात्व या विपरीता यह निष्कर्ष । मोक्षमार्गप्रकाशक पेज २२५ से आगे }
निर्णय---
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कुछ रूपान्तरम् दव्यसंग्रह ।
जं कुर्यादि भावमा कत्ता सो हीदि तस्य भाव चित्रद्वारा पोग्गलकम्माथ कचार ॥८॥
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परिशिष्ट ज्ञानगुणवाला आत्मा अनादिकालसे अज्ञानपर्याय सहित हो रहा है अर्थात् उसके ज्ञानगुणको पर्याय अज्ञानरूप बनाम सबको अपना मानने रूप ( भेदशामरहित ) अश हो रही है और वह इस तरह किज्ञानवान् ( चैतन्यनिदानजीव ) आत्मा शशस्फटिक या दर्पणकी तरह अत्यन्त स्वच्छ एवं निर्मल है, उसमें कोई मल या विकार (रागादिव अज्ञानादि माहों है सिर्फ उसमें एक स्वच्छता ही मौजद है (यह दस्त स्थिति है) । लेकिन इस सचाई ( सत्यता ) को न जानकर वह भेदज्ञान रहित अज्ञानी जीव, अपने आत्माके उस स्वच्छ निर्मल स्वभावमें जो तमाम ( कुल ) पदार्थ, रागादि द अजीबादि, प्रतिविम्बित होते हैं ( झलकते हैं । उनको वह अजानी जोय अपने मानकर अपने साथ एकता ( अभेद ) करता है कि मुझमें और इनमें कोई भेद नहीं है, सब मेरे ही हैं, जो असंभव है, त्रिकालमें में एक नहीं हो सकतें, सबको सता जुदी २ हैं। बस यही भ्रम एवं अज्ञान है, यह मूल में भूल या गलती है । दूसरी गलती उनमें रागद्वेष करना तथा उन्हें इष्ट अनिष्ट मानना है । उसका मतीजा संसारकी बेलका बढ़ना है।
ऐसी विकट ( विषम ) परिस्थितिमें जब कभी किसी तरह उसी अज्ञान पर्यायका अभाव होकर ज्ञान पर्याय (भेदज्ञानरूप ) प्रकट हो सब जीवको सञ्चचा भेदज्ञान ( सम्परज्ञान ) एवं सच्या श्रद्धान ( सम्यग्दर्शन ) प्रास हो और फिर वह अपनी भूलको समझे तथा उसको मेटने या हटानेका प्रयल ( पुरुषार्थ ) करें। देखो भेजान होनेपर वह भलीभांति समझता है कि मेरे आत्मदर्पण या स्फटिकमें जो प्रतिबिम्बरूप पदार्थ झलके है वे मुझसे भिन्न है और मैं उनसे भिन्न है। दोनोंका परस्पर प्रतिबिम्ब-प्रतिबिम्बक सम्बन्ध है, प्रकाश्य-प्रकाशक एवं ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है किन्तु एकस्व या तादात्म सम्बन्ध नहीं है । तब उनमें एकता या रागद्वेषादि क्यों करना ? सब व्यर्थ है, और वैसा करना अपराध है संसारका कारण है । मेरी ससा बयों की सत्ता सब पृथक् २ है । इस तरह समझने पर ही जीव जामी या भेदज्ञानी सिद्ध होता है और अनाविकी अज्ञानता मिटती है तथा मोक्षमार्गी सम्यग्दृष्टि छह बनता है। परपदार्थोमें एकताकी श्रद्धा व ज्ञानका होना ही विपरीतसा है, मिथ्या बुद्धि है, जो हेय है-- ( गा० १९।२० समयसार )
मोट-यह निर्णय जीव और अजीब दोनोंको विपरीततामें लागू होता है ।
इसी तरह आस्थ (३) बंध ( ४ ) संबर ( ५ ) निर्जरा (६) मोक्ष (७) इन ५ पांच मोक्षमार्गोपयोगी तत्त्वोंमें भी विपरीत श्रद्धा (मान्यता) को समझकर छोड़ देना चाहिये और सम्यश्रद्धा कर लेना चाहिये, यह सारांश है। देखो, आम्रवादि दो तरहके ( संयोगोधर्याय में ) माने जाते है अर्थात् (१) स्वाश्रित (जीदगत)। (२) पराश्रित (मुद्गलगत) । ऐसी स्थिति में केवल पोद्गालिक कोका बाना आसव है, उनका बंधना बंध है, उनका न आना संदर है, उनकी योड़ी निर्जरा होना निर्जरा है तथा उनकी पूरी निर्जरा होना ( पृथक हो जाना ) मोक्ष है । ऐसो एकान्त ( एकपक्षीय ) मान्यता विपरीत है, कारण कि वह सब दोके आश्रयसे होती है.--एकके आश्रयसे नहीं होती, यह नियम है । विचार करने पर यह मान्यता और कथन व्यवहारी ब.उपचाररूप है क्योंकि मात्र पराश्रित है।
इसी तरह-जीव शामें रागाधिक विकारी भाषोंका होना, आश्रद है। ( ३ ) उन्हीं भादोंके साथ ठहरना बंध है। (४) उन सालों का साफ जामा संवर है । (५) उन भावोंका थोड़ा अय हो जाना निर्जरा है। ( ६ ) उन भावोंका यूफ क्षय हो जाना मोथा है ।। ७) यह मान्यता व कथन अशुख निश्चय नथका है क्योंकि जीवाश्रित या जीवके प्रदेशों में यह सब होता है। तथापि इन दोनों प्रकारके आसपाधिमें परस्पर निमित्तनैमि
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पुरुषार्थ
तिक सम्बन्ध है तादात्म संबंध नहीं है ऐसा भेदविज्ञान यदि हो जाय तो वह सम्यक् श्रद्धानं व सम्यज्ञान कहलाया, उसमें विपरीत मान्यता न रहेंगी । सो ऐसा होना अनादिसे नहीं समझा है तभी जीव भूल कर मिथ्यानी मियादृष्टि हो गया है ।
नोट - इसके सिवाय, जो जीव शुभराग ( भक्ति स्तुति, दया, परोपकार दान पूजादि ) को मोक्षका कारण मानता है एवं पुष्पबंधको हितकारी मानता है, अर्थात् परसे आत्मकल्याणका होना मानता है वह भी feपरीत श्रद्धावाला मिष्या दृष्टि है, यतः पावके अनुसार अपने ही होता है पर
द्वारा नहीं, यह शाश्वतिक नियम हैं ऐसा दृढ़ श्रद्धान करना चाहिये |
९. निर्जराके विषय में अमनिवारण
शास्त्रीय भाषा में निर्जराके दो भेद कहे गये हैं ( १ ) औपक्रमिक या औद्योगिक ( २ ) अनोपक्रमिक या वैसिक अथवा सविपाक या अविपाक । किन्तु देशी भाषा में ( १ ) अकामनिर्जरा ( सकाम निर्जरा, ये नवे शब्द ( नाम मालूम पड़ते हैं और इनका अर्थ भी अस्पष्ट प्रतीत होता है इसलिये तरह २ का किया जाता है, इनकी संगति ऊपरके नामोंसे नहीं बैठती है ।
इस प्रसंग में हमारा विचार निम्न प्रकार है उस पर विचार करना चाहिये ठीक मालूम हो तो मानना भी चाहिये, इसमें पक्षपातका कोई काम नहीं है, तत्त्वनिर्णय में समदृष्टि होना चाहिये ।
[१] अकामका हिन्दी अर्थ, कामकी नहीं, अथवा व्यर्थ निष्प्रयोजन होता है, जिससे मनोरथ पूर्ण न हो, ऐसी निर्जरा (कमका अभाव ) कषायकी मन्दता होने पर होती है अर्थात् जब कभी पराधीनता । कैद मादि ) होनेके समय किसीको अपने ऐश आरामको या भोगोपभीगकी चौजोंकी इच्छा न हो एवं विकल्प न हो किन्तु शान्त चित रहे, तब उसकी मन्दकयायके फूलसे उसके कितने ही पापकर्म कमजोर जाते हैं और feate a नहीं होता ( यही निजराका रूप है ) तथा कितनेही पुण्यकर्मो ( भवनत्रिक देवोंकी आयु आदि ) का बंध होता है, यह विशेषता होती है, किन्तु मोक्षकी प्राप्ति ( साध्यकी सिद्धि ) नहीं होती । अतएव वह व्यर्थ एवं वह संवर पूर्वक नहीं होती, जिससे संसारकी संतति ( परंपरा ) बन्द हो । इम सब त्रुटियों के कारण
कामरूप या निरर्थक है, उसकी अकाम संज्ञा सार्थक सिद्ध होती है विचार किया जाय । ऐसी निर्णय मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टि दोनोंके पराधीनतामें होना संभव है व हो सकती है, सिर्फ बंध में कुछ भेद रहेगा, यह कल्पनावासी देवायुका यंत्र करेगा अन्य देवायुका नहीं, कारण कि वह शुद्ध श्रद्धालु होता है और मिथ्यादृष्टि शुद्ध श्रद्धालु होता है ।
[२] सकाम निर्जरा, इसका अर्थ कामको या मतलवकी निर्जरा है अर्थात् प्रयोजन सहित है । सो ऐसी निर्जरा सम्यग्दृष्टिके ही हो सकती है, कारण कि उसके वह निर्जरा तपद्वारा अर्थात् इच्छाओंके न होने से वीतरागता द्वारा होती है ( रागादिकको मंदतासे नहीं उनके अभावसे होती है, अतएव वह संवर पूर्वक होने से संसारकी सन्ततिको मिटाती ( छेदती ) है, यह वास्तविक भेद है, उससे मोक्ष होता है ( साध्यकी सिद्धि होती हैं ? अतएव उसका सकाम नाम सार्थक सिद्ध होता है, यद्यपि कामका अर्थ इच्छा भी होता है किन्तु उससे मोश नहीं होता, उसके अभाव से मोक्ष होता है इस प्रकार संगति बैठती हैं । विचार किया जाय, तो इसमें कोई बाधा नहीं आती। वैसे तो बंधका कारण, चाहे कल्पवासी देव हों या भवनत्रिके देव हों
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परिशिष्ट
राम या शुभराम ही है दूसरा कुछ नहीं। साथमें श्रद्धाम ( सम्यक् व मिध्या ) भी सहायक रहता है यह विल कुल खुलासा है। इस निर्णयकी पुष्टिमें पं० भूधरदासजीका निम्नलिखित पथ है---
पंचमहात्रत संचरण, समिति पंच परकार ।
ras च इन्द्रिय विजय, धार निर्जरा सार ||१०|| वारह भावना सम्बन्धी । सार, असार का अर्थ क्रमशः 'सकाम व अकाम है, यथा
धार निर्जरा सार, सार-संवर पूर्वक जो ही है ।
वही निर्जरा सार कही अविपाक निर्जरा सो हूँ ।
उदय भये फल देय निर्जर, सो सविपाक कहाये ।
तासों जियका काज न सरि है, सो सब व्यर्थ हि जाये ||१०||
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नोट --- यहां पर भी काजका अर्थ काम मतलब - फलसहित है वनाम सकाम है तथा व्यर्थ का अर्थ are है या निष्फल है. सो हमारे अर्थकी पुष्टि बराबर होती है सन्देह नहीं करना चाहिये । सार असारके प्राचीन शब्दों में फेरफार करके सकाम अकाम शब्द नये बनाए गये हैं । उसीका अर्थसंदरपूर्वक निर्जरा सार ( सकाम ) है और बिना संवर हुए निर्जरा असार ( अकाम ) है यह खुलासा है। फलतः पुराने शब्द वर्ष 'अरि कर एक यो समझना चाहिये। संगति बिठालना जरूरी है।
( वृहज्जनवाणीसंग्रह देखी )
१०. आगमभाषा व अध्यात्मभाषाका खुलासा
आगम और अध्यात्म ये दोनों आरमाके स्वभाव हैं अर्थात् दोनों प्रकारके भाव आत्मामें होते हैं । अतएव न भावों को कहनेवाले वन, बोली या भाषाका नाम ही आगम भाखा या अध्यात्म भाषा है, दूसरा कोई अर्थ नहीं है वस्तु । ( १ ) आगमस्वभावका अर्थ विकल्परूप स्वभाव है और २ ) अध्यात्मFarrant अर्थ, frfenल्पस्वभाव है। तदनुसार विकल्प या भेदोंकी बतानेवाली भाषा या बोली आगमभाषा कहलाती है । और निविकल्प या अभेद को बताने वाली बोली या भाषा, अध्यात्म भाषा कहलाती है, यह सारांश है | इसको सर्वत्र घटित कर लेना चाहिये । भेदरूप कथन करना आगमभाषा है, और अभेदरूप कथन करना अध्यात्मभाषा है। दोनोंका यह खुलासा है । विस्तार के साथ जहां पर कारणकार्यभाव, निमित उपादानता, निमित्तनैमित्तिकता आदि का कथन किया जाय, वह आगम भाषा है । सूत्ररूप विना भेंद के कथन करना अध्यात्मभाषा है ।
११. द्रव्यदृष्टिसे जीवका शुद्ध-अशुद्ध स्वभाव
१-- एक अखंड ज्ञायकाकार ( भेद रहित ) जोनका शुद्ध स्वभाव है, यह निश्चयका कथन है । उसी का नाम अध्यात्मभाषा है । तथा
२ – उक्त अखंड में ही दर्शन- ज्ञान चारित्रका भेद ( खंड) करना जीवका अशुद्ध स्वभाव है, उसका कथन करना आगमभाषा है। इसी तरह पर्यायकी अपेक्षासे भेद करके कथन करना, निमित्तकी अपेक्षा भेद करके कथन करना, सब आगमभाषा है ।
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पुरुषार्थसिन्धुपाय १२. पर्यायदृष्टिसे जीवका शुद्ध-अशुद्ध स्वभाव १–संयोगी पायमें होने वाले रागादि विकारोंका अभाव हो जाना जीवका शुद्ध स्वभाव या स्वरूप
......
..........
..................
.....
......
...........
२. रागादिधिकारीका अभाव न होना साथमें रहना जोनका अशुद्ध स्वभान हैं या अशुद्ध स्वरूप है।
१३. मूलमें भूल क्या हुई ? आत्माका और परसदार्थका परमार्थ से अकालिक शेय-शायक सम्बन्ध है जो अटल है अताएक वह बदल नहीं सकता, यह सिद्धान्त है । बस, इसी में जीव अनादि कालसे भूल गया है जो निम्न प्रकार है ।
१----जीव ( आत्मा ) में ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध स्थानमें या प्रतिबिम्ब-प्रतिविम्बको स्थानमें 'स्वस्वामिसम्बन्ध, मान लिया है अर्थात् ज्ञेयोंका स्वामी या मालिक अपनेको मान लिया है। सर्वेसर्वा खुद बन गया है जो मूल भूल है।
२ कर्ताकर्म सम्बन्ध स्थापित कर लिया है कि मैं उनका कर्ता हर्जा धर्ता हूँ इत्यादि भूल की है। ३...-फिर ममताभाव, आत्मीयता या अपनत्व अथवा ममत्त्र धारण कर लिया है कि ये सत्र में हूँ या ___ भेरे ....मुझसे इनका अभेद है, एकत्त्व है इत्यादि भूल की है। ४.... उसके बाद, रागद्वेष या इष्टानिष्ट बुद्धि उनमें करने लगा है, जो भूल है । ५..-फलस्वरूप कर्मबंधन या सजा मिलने लगी है जो भूल है ।
वह भूल कब व कैसे मिटे ? जन्म स्वरसानुभवी जीन्त्र (आत्मा) को अपने आप भेदज्ञानको उत्पत्ति होती है--कि मैं और ये पर पदार्थ भिन्न भिन्न हैं, एकरूप या अभिन्नतादात्मरूप नहीं है। अर्थात् ओ मैं हूँ सो वे नहीं है और जो वे हैं सो मैं नहीं हूँ, सब अपनी अपनी सत्ता लिये हुए पृथक् पृषक है इत्यादि भेवरूए प्रतीति होती है, तभी भूल व अज्ञान । परमें अभेदरूपज्ञान या मिथ्याज्ञान ) मिट जाता है और सही सही ज्ञान या सम्यग्ज्ञान प्रकार हो जाता है । बस उसीसे आत्मकल्याणका मार्ग ; उपाय ) मिल जाता है। उसी समय जीवको, यह मालूम होने लगता है कि अरे! मैस और अन्य पदार्थोका परस्पर सिर्फ ज्ञेय-जायक सम्बन्ध है-मैं ज्ञायक हैं, परपदार्थ सब ज्ञेय है। किन्नु मेरा उनका 'स्वस्वामी' सम्बन्ध नहीं है.-में उनका स्वामी नहीं हूँ, न ये मेरे सेवक हैं। न मैं उनका फिर्ता हूँ, न वे मेरे कर्म है। अतः उनका और मेरा कसाकर्म सम्बन्ध भी नहीं है। तब मेरी उनमें ममता भी नहीं है अर्थात् आत्मीयता बनाम वे मेरे हैं ऐसा सम्बन्ध भी नहीं है। न उनमें मेरा रागद्वेष भी है, न मैं इष्टानिय भाष उनमें करता हूँ, जिससे मुझे कर्मोका बन्ध भी नहीं होता, न सजा भोगना पड़ती है, कारण कि जब मैं कोई अपराध या गलती नहीं करता तब बंध और सजा काडेकी? मैं तो ज्ञायकाकार अपने शुद्ध स्वरूपका ज्ञाता ही हूँ न मैं उनका कत्ता हूँ, म उमका भोक्ता हूँ। ज्ञान या उपयोग या आत्माकी शुद्ध स्वतंत्र परिणामी हो जाने से कोई वसस नहीं रहता और निर्मोह या निर्विकल्प होकर अपने शुद्ध स्वरूपका हो स्वाद लेता व उसीमें लीन होता है या रमता है, कभी परका स्वाद नहीं लेता सिर्फ परको जानता मात्र
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Agarger
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परिशिष्ट
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है। बस यही मूलमें भूल होने व उसे निकालनेका तरीका है। देखो, परद्रव्यके साथ व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध मही होता, न तादात्म संबंध होता है, न कतकर्म सम्बन्ध होता है, सिर्फ ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध ही सपा काल रहता है यह तात्पर्य है । चैतम्य चमत्कार रुप दर्पणा या स्फटिको परवा प्रतिबिम्ब पड़नेपर भी दोनों पृथक् पृथक् रहते एक नहीं हो जाते ऐसा समझना चाहिये।
१४. संक्षेपमें श्लोकगत विशेषताएँ व खुलासा १-श्लोक ने० १३में कथित, कर्ता और भोक्ताके सम्बन्धमें निश्चय रूपसे निर्धार यह है कि भोक्ता कभी अज्ञानी । ज्ञानदान्य जड़ ) नहीं हो सकता, किन्तु भोक्ता वही हो सकता है, जिसको भोग्यका ज्ञान हो इत्यादि गानं०६८ पंचास्तिकागसंग्रहकी टीका देखो ।
२.-लोक नं० ३१में कथित सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करनेकी विधि या क्रम बतलाया गया है. उसका आशय यह है कि परीक्षा करके तस्वों को जानना चाहिए तभी बह 'अधिगमज' कहलायगा और वही पक्का होगा अर्थात् आम्नाय आदिसे परीक्षा करना अनिवार्य है क्योंकि परीक्षाप्रधानी औव मुख्य होता है, यह बुष्टिकी गई है।
३ श्लोक मं० ३२में कथित लक्षण नज्ञानमें भेद माना गया है. समका खलासा ऐसा है कि लक्षणभेद होने पर भी लक्ष्य । पदार्थ ) भेद नहीं होता ऐसा न्याय है। अर्थात लक्ष्य व लक्षपाके प्रदेश ( रहनेका स्थान ) पृथक् २ न होनेसे कथंचित् भेद नहीं है तथा नाम आदिका भेद होनेसे कथंचित् भेद भी है, ऐसा समझना चाहिये । यही बात पूज्य समन्तभद्राचार्यने भी कही है.--
द्रव्यपर्याययोरैक्यं तयोरव्यातिरेक्तः । प्रयोजनादिभेदाच तन्न-नात्वं न सर्वथा ॥७१॥ आममीमांसा
अर्थ-द्रव्य और उसकी पर्याय दोनोंके प्रदेश अदे २ न होनेसे दोनों एक है-कथंचितभेद नहीं है किन्तु लक्षणभेद-अर्थात् दोनोंका लक्षण, प्रयोजन आदि जुदा २ होनेसे द्रव्य व पर्याय कचित् भिन्न २ हैं । इसीतरह सम्यग्दर्शन य सम्यग्दानका लक्षण जुदा २ होनेसे दोनों कथंचित् जुदे २ भी हैं। ऐसा सर्वत्र भेद व अभेद समझना चाहिये । मोट--नाम, संख्या आदि सब पर्याएँ है अतएव दे सब स्थिर नहीं रहती बदल जाती है, यह ध्यान रखना चाहिये ।
४...इलोक नं० ३९में मुख्यतया वीतरागचारिलया निश्चयचारित्रका ( स्वाश्रितका ) कथन किया गया है किन्तु सरागचारित्रको छोड़ नहीं दिया गया है अपितु गौणरूप कर दिया गया है, अतएव यथावसर दोनों अपेक्षणीय हैं ( उपादेय है ) ऐसा अनेकान्त समझमा-एकान्त नहीं समझना यह तात्पर्य है। इसीलिये चारित्रधारियों ( साधुओं के तीन भेव किये गये है। ( समयसार ) अर्थात् ( १ ) केवल बाह्य परिग्रह त्यागी ( शुभाशुभपरिणाम सहित ) । (२) अन्तरंग परिग्रह त्यागी ( अशुभपरिणाम रहित ) । (३) धर्म ( शुभरागरूप ) परिग्रहत्यागो । बायपरिग्रह वनवान्यादि तथा अन्तरंग परिग्रह ( मोह या अशुभ-शुभभाव) त्यागी अथवा, सर्वत्यागी, शुद्धोपयोगी वीतरागी-आत्मध्यानी। ऐसे गुणस्थानों के अनुसार नम्बरवार, जघन्यमध्यम-उत्कृष्ट भेदवाले कहेगये हैं उसका तात्पर्य समझना चाहिये । ... ५-दलोक नं० ४६ में मुख्यता स्वाधीनता ( स्वाचितपना )की बतलाई गई है, पराधीनता ( पराश्रितपना )की मुख्पता नहीं बतलाई गई, यह तात्पर्य है । पराधीनता निमित्त कारणमें शामिल है, उपादानकारणमें
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पुरुषार्थसिदिधुपाय नहीं है अतएव उपादान शुरूप रहता है और निमित्त गौण रहता है यह अनेकान्तदृष्टि है । यह सात्पर्य है तभी तो
___ 'उपादानका बल जहां, नहीं निमित्तको धात्र, एकचक्रसों चलत है रविको यही स्वभाव ।। पं० बनारसोवास नाटकसमयसारमे लिखते हैं। उपादान हमेशा वस्तुका गुण या स्वभाव होता है और दिमित हमेशा पर होता है यह भेद है। अथवा स्वक्ष्या ( आत्मरक्षा-वीतरागता ; और परदया ( अन्य जीवका उद्धाररूप शुभराग का कथन या प्रदर्शन इस श्लोकमें खासकर बतलाया गया, जो अहिंसा व हिसारूप है।।
लोक नं० १२४में, सम्प्रदर्शनके घोर ( घासक ) ग्रथम कषाय ( अमंशानुबंधी ) को बतलाया है, उसका अर्थ, स्वरूपाचरणाचारित्रके वे चोर हैं ऐसा समझाना चाहिये, कारण कि उन्हीं आचार्य महाराजने पंचास्तिकायको गाथा मं० १३७ की टीकामें लिखा है कि 'तत् कायाचिकविशिष्टकषायक्षयोपशमे सत्यझानिनो भवति' अर्थात् वह अकालुष्यरूप शुभपरिणाम, अर्मतानुवंधोकशपके क्षपोपशम होनेपर अज्ञानी ( मिथ्यावृष्टि के भी होता है। यदि अनंतानुबंधोकपाय सम्यक्त्वका घातक होती तो, उसके क्षयोपशम होनेपर उस जीवके क्षयोपशम सम्यग्दर्शन होता और वह ज्ञानी कहलाता, अज्ञानी न कहलाता, फिर अज्ञानीके अकालुथ्य होता है यह क्यों कहा गया यह प्रश्न है ? उसका ध्वन्यर्थ यही है कि अनंतानुबंधी कषाय स्वरूपाचरणचारित्रकी ही घातक है, इसलिये उसके क्षयोपशम होने पर भी जीव अशानी रह सकता है, मानी या सम्यक्ती नहीं होता अन्यथा दोष आता है विचार किया जाय । टोका वाक्य स्पष्ट है।
--लोक नं० २११ में जो मोक्षके उपायमें व संसार ( अंध) उपायमें मतभेद रखते हैं तथा अर्थभेद करते हैं, उनके लिये पंचास्तिकायकी गाया नं० १५७का ठोस प्रमाण समझकर विवाद मिटा देना चाहिये जो निम्न प्रकार है।
ततः परवरितप्रवृत्तिर्बन्धमार्गः एव न मोक्षमार्गः इलि' अर्थात् रागादिकषायभावरूप परिणति या प्रवृत्ति, बंधका ही मार्ग है-मोक्षका मार्ग नहीं है, यह खुलासा है तब सोधे अर्थ को बदलकर अनर्थ करना ( भोक्षका मार्ग मानना पक्षपात या काय पोषण करना नहीं तो और क्या है? ठंडे दिलसे विचार किया जाय वैसे आगेके श्लोकमें अंशका भेद करके बंधमार्ग व मोक्षमार्ग बतलाया ही है। जब तक संगति न बैठे तबतक मान्यता गलत होती है, सत्य नहीं होती।
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शुद्धाशुद्धपत्र
पंकि
अशुन
शुन
जीयाद्रब्यका साधारण लक्षण है,
सूच्यंगुलके
( जा बहुपरमाणुओंसे बनता है ।
जीवद्रव्यका असाधारण लक्षण २ है। धनांगुलके । ( जो बहुपरमाणुओंस बनता है ) सोतिज्ञ अज्ञातरूप
ज्ञानरूप होगा मिश्या व्यवहारका
मिथ्यात्त्व व्यवहारधर्मका
मंत्रा
मंत्री
लंदानुकूल सत्यता परमान्दो
और करहते हैं ( व्यवहार कार्यपर्याय में द्रव्यका आरोप है। ऋजुसुसून
तदनुकूल मान्यता परमानन्दो क्योंकि कहते हैं (३) व्यवहार प्रब्यमें कार्यपर्यायका आरोप है। ऋजुसूत्र सद्भुत लगना है
लगता है (२[ व्यवहारनय नामनिर्दश विशेषा
और कि वह पिनसुखता पास्यव्यवहाररूप मानना
व्यवहरनय नामनिर्देश विशेषता और
मिजशुद्धता कास्मिध्यवहार मामता
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ANJALI
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पुरूषार्थसिद्धपुपायं
पृष्ठ
पनि
अशुद
४७
एलोकमें
माव्यात्सा सर्वविक्तोत्तीर्ण सर्ववित्तीत्तीर्ण अनादि होने में
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शुद्ध भव्यात्मा सर्वविवोत्तीर्ण सवितात्तीर्ण अन्त होनेसे सो किया भोका बही हो सकता है जिसको भोग्य का ज्ञान हो ॥ ६८ ॥ पंचास्तिकाय समाहित . मोह-अज्ञानभाव
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कहा अन्तमें
टिप्पणी
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aramparmanaom.. : १.० १.१.
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समवेत अज्ञानभाम करता है धरता है और रखना
धरना है ओरके करना लगानं निकालकर ज्यादती व्यवहारी
निकालकर अयवती व्यवहररी
होता
।।।।।।....... .................... - Purwarem
"NXE
सम्यक और व्यवहारसम्यादर्शन अरोप अध्याय कारना वीतरागसे प्राप्त न होने नीचे ऊँच भुलाना हो
सम्यक निकाल दो-दुवारा लिखा गया है। आरोप प्रथम अध्याय करना वीतरागतासे प्राप्त होने नीचे ऊँचे समय भुलाना चाहे
१०२
२४
सर्वज्ञामषित बन आय
सर्वजभाषित बन डाय यह
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पंकि
६
१५.
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टिप्पणी में
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निःक्रांक्षित
सम्यष्टि परता है।
उपेक्षारूप है
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मिथ्यादृष्टि
छ क्षण
द्वीप
हो जाता है
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क्योंकि
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शुद्धाशुद्धीपत्र
ती तो
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शुश्रू
पर्याय की
सकती
अरमा
आत्मा
मार्गी
मार्ग
जैसे विकल अंग होने पर भी मनुष्य या बंदर ही कहलाता है यह जोड़ लेना इस श्लोक परीक्षा करके तत्वज्ञान प्राप्त करनेको प्रधानता है यह सारांश हूँ ।
संयोग
शुद्ध
मिटाया
सान्ते
निःकांक्षित
सम्यग्दृष्टि जुधरता है
अपेक्षारूप है
होते समय
उसके
निकाल देना
उपयोग लगाना अर्थात् भनकी सहायता
लेना हैं, जो दर्शन रूप हूँ ।
४६१
गाथा नं० २९ जीवकांड गोम्मटसार मिध्यादृष्टि हैं
लक्षण
दीप
हो जाना है
स्वयं विकसित
और
व्यवहार
अन्तरंग में
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सुमन सिद्धार
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अशुद्ध कुलिंगो। जोत्रो देखने से प्यारी हो
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शुब कुलिंगो जोवो। पेलने प्यारी बड़ा बराबर बनता है
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१७४ १७५
संयोगो
संयोगी टिप्पणी कृता व्यवहार
ध्यनहर स्वभाषसे
स्थभावसे अभिन्न छोड़ देना
छोड़ देना) समझता
समझना पिएस
मिछये आत्मा का
आत्मा की जीवों को
जीवों को द्रव्यग
दृश्यगत पराकर
पर पा . एकता ता
एकता या स्वरूप गिरीतता है
( स्वरूप विपरीतता है। রুণরা
इतना निश्वयमावलंबी
निश्चयावलंबी निश्चय व्यवहार
निश्चय व्यवहार जहां जीव के
वहां जीवके, पाई आती है।
पाई जाती है यह धर्म है १५ साथ
कारण भाववरित्र
भावनारिष किसी जीवका
किसी बड़े जीवका बिचित्रमा
विधिवता प्राणाधात
प्राणघात সাক্ষাদান
प्राणघात मोट--इस पेज की टिप्पणी का सम्बन्ध ७८ पेज के उकच से है।
१७७
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५६३
१८१
१५१
समाग्री एकाह किया युद्धादि मैं जानस्वरूप हूँ बड़ा भूल ईश्राज्ञा
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सामग्री एकहि किया (युद्धादि मैं स्वयं ज्ञानशन बात्मा हूँ बड़ी भूल ईश्वराशा गुरूमें भी हों कहनेवाले धर्म विरोध हैयज्ञार्थ क्षार
करनेवाले अधर्म विरोध यथार्थ शार उस (टिप्पम ) मैं ही हूँ অণু चरित्र इत्यादि जावों चामर्थ
१२७ १९९
मैं हो आत्मा हूँ अपूर्व चारिय निकाल दो डबल है जौको च मा अलः मधु है अभक्ष्य जु
२०४
एवं
नहि अभक्ष्य
२०९
क्यों
२१२
जाये जानभतका) धमधारी पूर्ण त्यागने वाले
निकाल दो यह अधिक है। जनभूतका
पर्म त्यागनेवाले
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२२५
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अशुद्ध टिपणी में ०१ के स्थान में नं० २, और नं २के स्थान में नं.१ समझना हिस्रः
हिनाः चिकनाई
विक्रवाई के
वहा विश्याय
विश्वास मांसा
मांस विगीदाद
निर्मामादि प्रस्यासन
সংগ্রপ खुदकी
खुदही जायगा
जारहा है वरणानुयोग के
लोकाचार के व्यवहार
व्यवहर स्वभावभाव में
स्वभाव भाषसे देता है
সী पाप
पाप नहीं
लक्ष्य चाहये
चाहिये रचमा
रखना करता
घरता : २६ टिप्पणी
शुद्धभावो जा
बेकार है
जातर पाय
कषाय चरित्र मोह
भारित्रमोह सन्तुष्टी
सन्तुष्टी ) .११
सन नगोंकि
बेकार है नहीं चाहिये जसका
उसको
देवे भाणों
२५८ २५९
२६२
गत
२६७
२६८
२७०
वहीं
नहीं होगा
नहीं होगा,
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शुवाशुद्धपत्र
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सबको हिसाम्
सबको है हिंसाम्
२७५
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नहीं
२७६
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लगता है। अध्यवसाय निमिस है। यदि सुभश्रद्धा प्रथमेव नियुक्त कर्मकी सम्यसमा
लगता है,
মান निमित्त है निकाल देगलाई सत्यमा, या स्वमुखमा प्रथम मेव निन कर्मका सम्मत्तद्धा १९/२० चारित
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२८४
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सासणणामी, सामण गामो
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सासणणामी स्वमात्र त्यागनेकी अर्थात उदयमूल जवलका (अहिंसाधर्म) प्राकृतिक उजाले (निश्चय)
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मान: नैष्टिक औषधिक वधन उसकी धारण
अप्राकृतिक उजयाले (निश्चयमें) [किल शनैः शनैः नैष्ठिक औपाधिक बंधन उसको धारणा
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सामायिक
व्रतीका
उपवास
उदरपूर्ति
बनना
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पुरुषार्थी
परम
दोनों
पूर्ण सम
स्वभाव
पान
समय
रभना
क्षति
लगान
लाते हैं
विगड़ना
मिल्य
जरासि
चरित्र
पुरुषार्थ
या लगने
होने में
प्रयोजना
Team & Ca
कर्य
जिनको
अतः
मलकारण
पुरुषार्थसिद्धप
शुख
करतब
सामायिक में
तोको
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उदरपूर्तिको
बचना हो
चिस
महि
कारण-प्रमाण
पुरुषार्थी होकर
पर
दोनों
ई
पूर्णतः
समभाव
अपात्र
सम
रखना
अतः
लगान
लाता है
बिगाड़ना
जिय
जरसि
चारित्र
पुरुषार्थ
या लगाने
होलसे
प्रयोजनवश
कार्य
उनको
यतः
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________________ शुद्धाशुदपत्रं 467 विस्तार प्रायसिस भापा विस्तर प्रायशिलत्तादि तप 310 ग्वारिष 292 जिज्ञासा आमच मिनार से, 403 उत्पन्ना रतिः সিরা। ( दरूप विचार से) शुभ उपजना अरतिः सपथ आर्य इसी प्रकार 418 426 429 आच इस प्रकार मिटका अनेकी far अनुलम्बिगीतिः प्राश होगा अनेकी भिजवानो अनृपलनिवांत नाम न होगा . .. . . ... 7277 7 23-74 27 - 22224412