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________________ सम्यग्दर्शनके भार प्रकार ( मोक्षमार्गप्रकाशक प्रन्यमें ) दान--देवगुरुशास्त्रका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। +---3-3२-तत्त्वार्थधद्धान करना सम्यग्दर्शन है। -+-2- ३-परद्रव्योंसे भिन्न आत्माका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। ४---आत्माके स्वरूपका श्रद्धान करना सभ्यग्दर्शन है। अथवा ३ भेद या प्रकार --उपशम सम्यग्दर्शन। २~-क्षयोपशम सम्यग्दर्शन या वेदक सम्यग्दर्शन । ३- क्षायिक सम्यग्दर्शन । नोट---इसी तरह ९ प्रकार व १० प्रकार भी होते हैं जो शास्त्रों में लिस्ने हैं सो देख लेना। सम्यग्दृष्टि-सम्यग्ज्ञानीकी विचारधाराले भिन्न, मिथ्यावृष्टिको साततत्त्वोंमें विचारधारा ( विपरीताभिनिवेश ) १-जीवतत्त्व, अर्थात् जीवका स्वरूप, चैतन्य ज्ञानदर्शनादि स्वभावरूप हैं, परसे भिन्नरूप है ( विभक्तरूप है ) व अपने गुणों पर्यायों के साथ एकस्वरूप है । ऐसा श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है। परन्तु मिथ्यादर्शनके रहते हुए जीव, क्रोधमानादि विभावभावोंको और अपनेसे भिन्न पर पदार्थों को भी अपना ही मानता है और उनमें रागलेषादि करता है ऐसी विपरीत-विचारधारा या श्रद्धा जीवतत्त्वके सम्बन्धमें होती है-यह मासा है और भी इसी तरह समझना। २---अजीवतत्व, पूदगल धर्म अधर्म काल आकाश, इन अचेतन द्रव्योंमें एकता या अभेद मानना कि ये और हम एक { अभिन्न ) ही हैं। मैं इनका स्वामी व कर्ता भोक्ता इत्यादि हैं ऐसी विपरीत धारणा करना अजीब तस्वके सम्बन्धमें विपरीत श्रद्धा ( विचारधारा.) या मिथ्या दर्शन कहलाता है। जिनमें चेतना न हो ये अजीव तत्व कहलाते हैं। अतएव जीव ( चेतन । का और अजीव ( जड़ ) का अभेद या एकत्त्व कभी नहीं हो सकता फिर भी वैसा मानना मिथ्यात्त्व है। सामान्यत: सभी सजातीय या विजातीय द्रव्ये या पदार्थ, स्वभावतः एक दूसरेसे भिन्न हैं—कभी एकत्त्वरूप ( तादात्म्यरूप) नहीं होते । यह नियम है । परद्रव्य, परगुण, परपर्याय, को अपना मानमा विपरोत श्रद्धा है। अर्थात् अजीव चोजोंका स्वामी कर्ता व भोक्ता अपनेको मानना, अजीव तस्त्वमें विपरीत श्रद्धा कहलाती है। ....आस्रवतत्त्व, अनादिकालसे जोध और अजीव द्रव्यका संयोग सम्बन्ध ( एक क्षेत्रमें रहना) हो रहा है। लेकिन संयोगरूप अशुद्धताके कारण वे दोनों द्रव्य पर्यायसे अशुद्ध हो जाती हैं या मानी जाती हैं। इसलिये परस्पर उनका निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध होनेसे विपरीत धारणा
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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