SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .. " E पुरुषार्थसिधपाय ८. आरम्भत्याग प्रतिमा--जब कोई अणुवती बाहिर आरंभ ( व्यापारादि ) का निरतिचार त्याग कर देता है तब यह ८वी प्रतिमा कहलाती है। इसमें व्यापारादि आजीविकाके बाह्य साधनोंका त्याग किया जाता है, जो एक आदर्श रूप है ( वैसी मुद्रा या वेष ) आदरणीय है, यह भी इन्द्रियसंयम व प्राणिसंयमकी निशानी है 1 यह परिग्रहपरिमाण अणुव्रतका रूप है, उसो से यह बनती है। इसमें नवीन आरंभ ( कमाई ) करनेका निषेध है किन्तु संग्रहीत कमाईका निषेध नहीं है ..अभी तक पासमें रुपया वगैरह रख सकता है। यह दो बार भोजनपान कर सकता है । इसके बामपरिग्रह ( धन ) होनेसे सवारीका उपयोग यह कर सकता है इत्यादि। ९. परिग्रहत्याग (परिमाण । प्रतिमा--जब कोई अपना पासका द्रव्य भो-भोजनवस्थका ठहराव करके दूसरोंको पंचोकी साक्षीपूर्वक दे देता है तब वह ९वी प्रतिमाधारी होता है। यह भोगावकर है। स बार मोजक्या कर सकता है। परिग्रहत्यागका ही निवरा रूप है, उसोसे होता है। यह भी सवारीका उपयोग परिमाणके अनुसार कदाचित् कर सकता है। यह अपने पास भी कुछ द्रव्य रख सकता है। नोट---इस प्रतिमा कदाचित् सवारीका त्याग हो जाता है-परावलंबी नहीं रहता स्वतंत्रवृत्ति अहिंसक होता है। १२, अनु मतित्याग प्रतिमा-मांसारिक बाह्य कार्योंके वावत यह किमीको कोई सलाह सम्मति नहीं देता, इतना निरपेक्ष हो जाता है। थोड़ा-सा बाह्यपरिग्रह इसके पास रहता है यह उत्तम त्यागो कहलाता है। यह एक ही बार भोजन पान करता है। लोटा व वस्त्र मात्र रखता है। पराश्रित भोजन हो जाता है परन्तु भिक्षा भोजन नहीं करता-स्वाध्याय आदि में ही समय बिताता है। जब कोई भोजनके समय अपने घर भोजनको लिया ले जाता है तब भोजन करता है । यह भी परिग्रहके त्यागका एक शुद्ध रूप है इससे इन्द्रियसंयम ब प्राणिर्सयम पलता है। अस्तु । पहापर भी अशक्तताके समय योग्यतानुसार सवारीका उपयोग कर सकता है बाध्य नहीं है । वह थोड़ा पराश्रितवृत्तिवाला है इत्यादि । ११. उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा-उद्दिष्ट भोजन पान आदि सभीका त्याग करनेवाला ग्यारहवीं k aichinnamorcinehengankrrixt" -र० श्रा १. मेवाकृष्टिवाणिज्यप्रमुखादारंभतो युपारमति । प्राणलिपाती शोभायारंभत्रिनिवृत्तः ॥१४४/ २. आधेषु दशसु वस्तुपु ममत्वमृत्सृज्य निमित्वरतः । स्वस्थः सन्तोषपरः परिचितपरिग्रहात विरतः॥१४५॥ ३. अनुमतिरारंभे वा परिग्रहें वहिकेषु कर्मसु बा। नास्ति खलु यस्य समाधीरनुमतिविरतः स मन्तव्यः ।।१४६|| ४. गृहतो मुनिकनमित्वा गुरूपर्कठे यतानि परिगृय । भक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखंडधरः ॥१४७|| २० श्रा०
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy