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________________ प्रतिमाप्रकरण उत्तर इस प्रकार है कि ऊपर सचित्त चोजोंका त्याग केवल स्वादको दृष्टिसे ( अपेक्षासे) नहीं कराया गया है कि उनमें अच्छा स्वाद नहीं आता अतएव वे त्याज्य हैं किन्तु उनके खाने में जैसे कि गढ़त के कच्चे खाने में बहुत जीवोंका घात होता है तथा उनसे कामेन्द्रियमें विशेष विकार होता है अर्थात कामोद्दीपन या कामवासना प्रबल होती है, जिससे पापका बंध अधिक होता है ( कुञील सेवन होता है, अतएव उन चीजोंके कच्चे खानेसे हानि होती है, और उन्हींको पकाकर (संक या उबालकर ) खानेसे उनकी कामोद्दीपन शक्ति नष्ट हो जाती है, जिससे लाभ है क्योंकि स्पर्शन ब रसना इन्द्रियों को जीतना कठिन है. बेहो प्रवल 1 जीती जाती हैं। जंगलो पश या घोड़ा बैल वगैरह कच्चा घास या जड़ी-बूटी खानेसे अधिक बलिष्ट ( ताकतवर ) होते हैं और शुष्क होनेपर ग्याने शक्ति पर जाती है मरदाना दहा तु कुतर्क करना व्यर्थ है-ऊपरी दृष्टि है, किम्बना । इसीका नाम इन्द्रियसंयम है कि उन्हें वशमें करना, पाँचवी प्रतिमामें यही सब होता है. अस्तु । इस प्रतिमाका मुख्य लक्ष्य इन्द्रियोंपर विजय पाना है तथा कपायों को भी कम करना है। प्रासुक करके खाना या सचित्तका न खाना एक ही बात है उसको निरतिचार पालना चाहिये। ६. रात्रिभोजनेत्याग प्रतिमा-रात्रिके समय चारों प्रकारका आहार नहीं करना रात्रि भोजनत्याग प्रतिमा कहलाती है। इसमें भी इन्द्रियसंयम ब प्राणिसंयम होता है 1 इन्द्रिय ( जिह्वा ) पर नियंत्रण होता है व जीवघात नहीं होता। यह भी भोगोपभोगत्याग शिक्षाबत का सुधरा वाप है अतः उसोसे बनता है। यह दा भंगसे पाला जाता है अर्थात् स्वयं रात्रिको भोजन नहीं करता न दूसरोंको कराता है, यह मध्यम श्रावकका भेद है इत्यादि । यहाँ पर कहींकहीं मतभेद है वह ऐसा कि रात्रिमें भुक्त या भोग ( मैथुन ) करना अर्थात् दिनको भोग नहीं करना ऐसा लिखा है, इसमें भी इन्द्रियसंयम व प्राणिसंयम दिनको त्याग देनेसे एकदेश पलता है। ७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा-इसमें अब्रह्मका त्याग किया जाता है अर्थात् बाहिर स्त्री मात्रका निरतिचार त्याग किया जाता है इस तरह वह आदर्श उपस्थित करता है-कटिन स्पर्शन इन्द्रियको जीतता है अर्थात् अनादिकालीन मैथुन संज्ञापर विजय पाता है जो प्राणिमात्र पाई जातो हैं । इसका निर्माण चौधे अणुव्रतसे होता है। प्रतिमा नाम अतिचारोंके त्यागन्ने से होता है ( अतिचार आगे बतलाये जायेंगे ) यह महान् बन है। इसका लोकमें बाह्य त्यागसे महत्व है, अस्तु । यह दो बार भोजन पान कर सकता है। क्योंकि यह मध्यम असिमाधारी है। यह व्रत अन्तमें सर्वोत्कृष्ट हो जाता है जबकि शोलके पूरे १८ हजार भेद पलने लगते हैं--पूर्ण स्वभाव या शोलमें लीन हो जाता है उसके ब्रह्म ( आत्मा ) में चर्या होने लगती है, अस्तु । र० श्रा० १. अन्नं पानं खाद्य लेा नानाति यो विभावर्याम् । सचराविभुक्तिविरतः सत्त्वेष्वनुकंपमानमनाः ॥१४॥ २. मलवीज गलयोनि गलन्मल पूतगन्धिवीमा । पश्यनङ्गमनङ्गाल विरमति यो ब्रह्मचारी यः ।।१४३॥ २० श्रा० », Tissionalaang & NAWAPUR. ( MAR RASIEN : .
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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