SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 365
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ কথাখবিসুখম इसमें मण्यता इन्द्रियमेशाम वानिको है वोक थोड़े ( सीमित ) समयको सभी प्रवृत्तियाँ ( आरंभादि ) वन्द हो जाती हैं । निरबद्य योग हो जाता है जिससे हिंसादि पाप नहीं होते यह लाभ होता है। यहाँ पर भी बाह्य आरंभादिका त्याग होनेसे शान्तमद्रा ( वेष ) वलती है. उपल जैसी । इति वह आदरणीय मानी जाती है। इसमें सामायिक शिक्षाव्रतका बलाधान होनेसे उसी द्वारा बनी यह मानी जाती है। इसमें भी गुगवत साथ रहते हैं लगान लगा रहता है इत्यादि । इसमें प्रात:काल मध्याह्नकाल { दोपहर सायंकाल, तीनों समय नियमसे निरतिबार मामायिक करना अनिवार्य है। ४. प्रोषध या प्रोषधोपैयास प्रतिमा-भोजनादि क्रिया सोमित समयको बन्दकर देनेसे चौथी प्रतिमा पलती है। इसमें दूसरे शिक्षातका बलाधान रहता है उसोको नितिचार पालनेसे प्रतिमा नाम पड़ता है । तथा बाह्य आरम्भादिकका इसमें त्याग होता है जिससे इन्द्रियसंयम व प्राणिसं या पलता है जो आदर्शरूप है। प्रतिमाओंमें पूर्व-पूर्वके सभी कर्तव्य चालू रहते हैं, वे छटते नहीं हैं, उनका पालन करना अनिवार्य रहता है। इसकी विधि आगे इलोक नं. १५२में बताई जावेगी । किम्बहुमा । ५. सचित्त त्यागप्रतिमा--भोजनपानमें सचित्त ( जीवसहित ) चीजोंका त्यागकर देना सचित्तत्याग प्रतिमा कहलाती है। यह भोगापभोग शिक्षाव्रतका शुद्ध (निरतिचार ) रूप है। उसीसे यह प्रतिमारूप में बना है। इसमें भी इन्द्रियसंयम प्राणिसंयम पलता है। बह आदर्श उपस्थित करता है। बाह्य चीजें जैसे मूल-फल-शाक-शाखा कोरी-कन्द, फूल-बीज ये सब जब जीवों सहित (साधारण-अनंतकाय होते हैं तब इनका खाना वर्जनोम क्योंकि उनके बहुतसे असंख्यात जीवोंका घात होता है, जिससे हिंसापाप लगता है यह हानि है, किन्तु जब उपर्युक्त चीजों में से कुछ चीजें, प्रासुक ( जीवरहित ) हो जाती हैं तब उनको खाया जा सकता है। ऐसा विधान आगम ( स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रन्थ )में है। अर्थात् चीजोंको सभी अवस्थाएं अभक्ष्य या भक्ष्य ( अशुद्ध व शुद्ध ) नहीं होतो ऐसा सिद्धान्त है, उनमें परिवर्तन होता रहता है। यहाँ तक किया जाता है कि उपर्युक्त चीजोंको कच्ची ( अप्रासुक ) खाने में जन अधिक हिंसा होती है और खाने में स्वादिष्ट नहीं लगतीं तब उनके कानेका निषेध ही क्यों किया जाता है ? वह व्यर्थ अर्थात् उनका त्याग कराना व व्रत बताना निष्फल है ? इसका धार्मिक व वैज्ञानिक १. पीदनेषु चतुर्दपि मासे मासे स्वशक्तिमनि गुह्य । प्रोषधनियमविधायी प्रणधिपरः प्रोषधानमः ॥१४०॥ २० था. २. मूलफलशाकशाखाकरीरकन्दप्रसूनबीजानि । नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूतिः ।।१४१॥ ३. शुद्ध पाय-तत्तं पक्क सुक्क अविललवणेहि मिस्सयं दर्छ । जं जत्रेण व छिपण ते सर्व फासुध भणियं ।।३७९।। स्वामिकातिकमानुप्रेक्षाटीका मर्थ----सूखी वीज, पदी चीज, तपी चीज, खट्टा-वारा मिली चोज, वटी कुटी चीज सबप्रासुफ कहलासी है ऐसा आचार्य कहते हैं।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy