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________________ minsomwww पुरुषार्थसिद्धयुगाय परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥२॥ पद्य जिनवाणीको नमन करत है अनेकाम्तमय जो होती। वादविवाद मिटाती वह है 'स्यावाद' संगति करती ॥ इसी नीभिसे मेल होत है, सारे काम सिद्ध होने । जन्मांधोंको ज्ञान कराती .... हाथी, मिल अंगहि जेसे ॥२॥ अन्वयार्थ आचार्य ( अनेकान्तं नमामि ) अनेकान्त बनाम 'स्यावाद' को अथवा निमित्तकारणरूप जिनवाणीको नमस्कार करते हैं, जिससे कि जीवोंको ज्ञान या बोध होता है। पुन: बह अनेकान्त कैसा है ? [ परमागमस्यबीजं | परमागम याने जिनोपदेशका बीजरूप है अर्थात् जिनेन्द्रदेव ( अर्हन्त तीर्थकर) का उपदेश ( पदार्थकथन ) सब स्याद्वादरूप या अनेकान्तरूप होता है, एकान्तरूप कभी नहीं होता जो असत्य माना जाये । तथा [ निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् ] जिस प्रकार जन्मसे अन्धे मनुष्योंका हाथ के बावत होने वाले विवादको, नीतिल सर्वाग दृष्टि रखने वाला चतुर व्यक्ति तुरन्त ही मिटा कर हाथीका यथार्थ ज्ञान करा देता है, उसी तरह (सकलनविलसितानां विरोधमथन । अनेक नयों या पक्षपातोंके द्वारा उत्पन्न होने वाले मतभेदोंको करने वाले या मरे वाले गनु.जमा विवाद विरोध ) को वह अनेकान्त नष्ट कर देता है, ऐसी अद्भुतशक्ति उस अनेकान्त-शासनमें है अतएव उसको नमस्कार करना उचित ही है। वह भी वीतरागता व विज्ञानताकी तरह हितकारी-उपकारी है, यह भी एक कृतज्ञता-प्रकाशनरूप विनयगुण है-शुभराग है, जो पुण्यबंधका कारण है। अस्तु, अनेकान्तकी महिमा इस श्लोक में बतलाई गई है। जिसके दृष्टान्तका खुलामा निम्न प्रकार है--- किसी नगरमें जन्मसे अन्धे (,प्रज्ञाचक्षु ) बहुतसे मनुष्य रहते थे। उनको हाथीके जानने की प्रबल इच्छा थी। एक बार उस नगरमें अचानक हाथी आ गया, लोग उसको देखनेके लिये दौड़ पड़े ! जन्मांध मनुष्य, ओ पहिलेसे ही हाथी जाननेको उत्सुक थे, कब मानने वाले थे, वे भी चल दिये और हाथोके पास पहुँचकर हाथीके अंगोंको पकड़ गये और अपने आप ही सोचने लगे कि हाथी ऐसा होता है। जिसमे हाथीके पाँव पकड़े वह खम्भा जैसा हाथीको मानने लगा। जिसने पेट पकड़ा वह विटा जैसा हाथीको मानने लगा, जिसने सूड पकड़ी बह डेंडा जैसा हाथीको मानने लगा, जिससे अखें पकड़ो, वह दिया जैसा मानने लगा, जिसने कान पकड़ा वह सूप जैसा मानने लगा, जिसने पूछ पकड़ी वह बारा जैसा कहने लगा, इत्यादि भिन्न-भिन्न प्रकार हाथी उनके ज्ञानमें झलक गया। पीछे वे आपसमें हाथी के स्वरूपको लेकर झगड़ने लगे। कोई का ... १. मूलाधार.--जिससे उत्पति होती है, उपादान कारण । पाठान्तर. "जीवं' शब्दका अर्थ प्राणाधार या रचनेवाला होता है।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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