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________________ MERLIAMSAPNPUROHI । lessentinusteriti 1. सम्यग्दर्शनाधिकार कहता है हाथी खम्भा जैसा होता है, कोई कहता है विष्टा जैसा होता है. कोई कुछ कहता है, कोई कुछ कहता है, इत्यादि । इतने में कोई समझदार अनेकदाष्ट्रवाला या सर्वागों को जानने देखने वाला वहाँ आया और उनके विवादको समया! और कहा, भाई ! क्यों लड़ते हो? मत लड़ो हम तुमारा अगड़ा मिटा देते हैं। बात इस तरह है कि तुम सबका कहना कुछ-कुछ सत्य है-झूठ नहीं है, किन्तु पूरा हाथी वह नहीं है, जिसे तुम लोग मान बैठे हो, यह गलत है। हाँ, सब अंगोंको परस्पर मिला दिया जाए तो पूरा व सही हाथी होता है ( बन जाता है ), बस क्या था, उन लोगों की समझ में आ गया और सब एक मत हो गये, विवाद तुरन्त मिट गया। यह सब अनेकान्तसे या स्याहादरीतिसे समझानेका ही फल है, जिसको वह समझाने वाला स्वयं ही समरता था। अतएव उसने बताया कि सब अंग मिल कर ही अंगो ( पूरा) बनता है, बिना अंगोंके अंगो नहीं बनता, इत्यादि। इसी तरह प्रत्येक पदार्थ या वस्तु अनेक धोका पिंडाव होता है...उसमें अनेक धर्म था अंग बसते हैं । अतएव किसी एक धर्म जान लेने मात्रसे पूरे पदार्थका ज्ञान हो जाना नहीं माना जा सकता, अपितु वह आंशिक ज्ञान छद्मस्थ या क्षायोगशसिक ज्ञानियों को होता है, इसीलिये उनको एक साथ पूरे पदार्थका ज्ञान नहीं हो सकता, वह सिर्फ क्षायिकज्ञानी सर्वज्ञ केवली को ही होता है अन्यको नहीं। लेकिन कथन-~-निरूपण या उपदेश सबका एक साथ पूरा नहीं हो सकता । किन्तु थोड़ा-थोड़ा होता है, बस इसीका नाम 'स्याद्वाद' है-कथंचित् या थोड़ा-थोड़ा कथन है। लेकिन उसमें विशेषता यह है कि बह क्रमशः कहा गया वस्तुका अंश शेष अकथित अंशोंके साथ सम्बद्ध रहता है, वह अकेला उतना हो वस्तुमें नहीं रहता, परस्पर वे सापेक्ष रहते हैं । फलतः अनेक धर्मवाला पदार्थ होरेसे एक धर्मरूप या एकान्तरूप ( तावन्मात्र) पदार्थ नहीं है, न माना जा सकता है । सब विरोध या विवाद, जो एकान्त माननेसे होते हैं, अनेकान्त से नष्ट हो जाते हैं । अन्तका अर्थ धर्म है। बिशेष—अनेक धमोंमें, नित्य धर्म, अनित्य धर्म, स्वभाव धर्म, विभाव धर्म, निवनय धर्म व्यवहार धर्म, उत्पादन मनौव्यधर्म, द्रध्यपर्याय व गुणपर्यायधर्म, सामान्यधर्म विशेषधर्म आदि बहुतसे शामिल हैं। उन सबसे पदार्थका सम्बन्ध है अतएब सबका विचार किया जाता है । यही अनेकान्तको जानकारी है । गौण और मुख्य यह अनेकान्तको रोति व नीति है । विश्लेषण .. 'स्याद्वाद' यह शब्दको शक्ति या स्वभाव है, जो उसमें अकृत्रिम या स्वाभाविक है। कोई भी शब्द ( पूदगलकी पर्याय ) किसी भी बस्तुका एक बारमें पूरा नहीं कह सकता, किन्तु थोड़ा-थोड़ा कह सकता है अतएव जितना आगम या उपदेश ( दिव्यध्वनि ) है वह सब स्याद्वादरूप या थोड़ाथोड़ा कथनम्रूप है । फलतः जिनध्वनिका आधार या बीज 'स्याद्वाद' या अनेकान्त ही ठहरा, क्योंकि उसी रूप वह होता है, अन्यरूप नहीं होता, ऐसा स्पष्ट समझना चाहिये। ___ इसके विरुद्ध जो एकान्ती शब्दको 'स्यावाद' रूप नहीं मानते किन्तु पूर्ण या सर्वथा मानते हैं कि शब्दोंके द्वारा जो कुछ एकबार कहा जाता है बस उतना ही पदार्थ है, और उसमें कुछ APTER- SHAATMAlle PARTMarine
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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