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________________ MB and पुरुषार्थसिद्धथुपायं बकाया नहीं रहता इत्यादि, बस इसीसे उनको अनेकान्तका ज्ञान नहीं होता और वे अज्ञानी ( अधूरे ज्ञानी-मिथ्याज्ञानी) बने रहते हैं अर्थात् उनको शब्दको शक्तिका ज्ञान न होनेस भटकते रहते हैं, अहंमन्य अहंकारी बन जाते हैं। फलतः स्याद्वादी हो वस्तुके स्वरूपको यथार्थ समझ सका है, एकान्तबादी नहीं, यह सारांश है। इसीलिये आचार्यने स्थावाद या अनेकान्तको उपकारीहितकारी समझकर नमस्कार किया है। इस तरह वीतराग विज्ञानताके साथ अनेकान्त या स्थाद्वादका सम्बन्ध जोड़ा गया है। दिव्योपदेश ( दिव्यध्वनि ) का क्रम और उसमें निश्चम-व्यवहाररूपता ध्वनि या शब्द, अर्थ या पदार्थ, ये दो पृथक-पृथक चीजें हैं। इनका परस्पर वाचक-वाच्य सम्बन्ध पाया जाता है। ध्वनि या शब्द वाचक होते हैं और अर्थ या पदार्थ वाच्य हुआ करते हैं। परन्तु कुछ शब्द ऐसे भी हुआ करते हैं जिनमें पदार्थोंको कहने की शक्ति नहीं रहती तथा कुछ पदार्थ भी ऐसे होते हैं जो वचनों या ध्वनियोंसे नहीं कहे जा सकते.....अनिर्वचनीय होते हैं ऐसी स्थिति में दिव्यध्वनि भी सभी अर्थों को नहीं कह पाती और ऐसे अर्थ प्रायः तीन चौथाई याने बारह आने भर हैं, सिर्फ चार आना भर पदार्थ ऐसे हैं जो दिपध्वनि द्वारा कहे जाते हैं । वे भी क्रम-क्रमसे कहे जाते हैं, युगपत् (एक साथ ) नहीं कहे जाते । यही बात गोम्मटसारमें' कही है। तात्पर्य यह कि जितने पदार्थ दिव्यध्वनि द्वारा कहे जाते हैं उनमेसे श्रोतागण थोड़े पदार्थोको अपनी-अपनी भाषा में जान पाते है उन्हें उनका ज्ञान हो जाता है और गणधरदेव उसमेंसे भी थोड़े पदार्थोंका समावेशग शास्त्रों का योगदार हैं ! जसले सनात् अंग पूर्वके ज्ञाता आचार्य और थोड़ा अपनी रचनामें लिख पाते हैं। इस तरह कमती-कमती ही आगे ज्ञान ब रचना होती जाती है । इस व्यवस्थाके अनुसार कभी भी एक बार सभी पदार्थोंका कथन और उनका साास्थरूपमें प्रणायन या समावेश नहीं होता, यह नियम है। इस तरह काम-क्रमसे पदार्थोका कथन होता है तथा एक पदार्थका कथन भी उसके सम्पूर्ण धर्मों सहित एक बार नहीं होता किन्तु अनेक बार उसके अनेक धर्मोका कथन करना पड़ता है। यह क्रम व्यवस्था बहुत शब्दों और अर्थोंमें । बाधक-बाच्यरूपमें ) पाई जाती है, इसका खंडन कोई नहीं कर सका। दिव्योपदेश ( परमागम ) का रूप व भेद व परिचय मय उदाहरणके निश्चयसे यह तो प्रायः सभी विद्वान् जानते हैं कि शब्द या वचन ( ध्वनि ) यह पुद्गलको पर्याय है और जङ्गरूप है किन्तु प्रयवहारसे जब उन शब्दों का संयोग सम्बन्ध जीवद्रव्य के साथ हो जाता है तब उन शब्दों या वचनोंको जीवको कहा जाता है। इस अपेक्षासे जीव बोलता है, १. पण्णवणिज्जा भावा आणतभागो दु अणभिलप्माण । पागवणिज्जाणं पुण अणंतभागो दु सुदणिवद्धो ।।३३४11 ---जीवक्रांड __अर्थ-जितने पदार्थ केवली के शानमें आते हैं वे सब वचनीय ( वक्तव्य ) नहीं है किन्तु अनिर्वचनीय उनमें वहृत याने बारह आना है, और वचनीय कम याने चार आना भर हैं। उनमेंसे भी शास्त्रमें जो निबद्ध किये जाते हैं याने गुंथे या भरे जाते हैं वे अनन्त भाग है-सबसे थोड़े हैं यह क्रम हैं ऐसा समझना चाहिये। 5388
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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