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________________ MES neediosanelepresTHNAHARASHAINMDOवाला । MYTANSE ७. सम्यग्दशनाधिकार उपदेश देता है, यह भी कहा जाता है एवं सत्य बोलता है, झूठ बोलता है, उभय बोलता है, अनुभव बोलता है, यह भी कहा जाता है । इसी तरह अन्त देव भी उपदेश देते हैं--मोक्षमार्ग संसारमार्गका निरूपण करते हैं, विहार करते हैं, व्यान धरते हैं इत्यादि उपचारसे कहा जाता है ! परन्तु निश्चयसे वे सिर्फ ज्ञाता, दृष्टा है..सिर्फ सब बातोंको जानते हैं। लेकिन संयोगी पायमें रहनेसे उनको यह लांछन लगाया जाता है। अस्तु, जब तक संयोगो पर्याय में रहते हुए भी जीव कषायसहित (विकारी भाव सहित ) होता है तब तक इतना जरूर होता है कि उसके जितने वचन निकलते हैं, वे सब प्रायः कषायपूर्वक या कषायके निमित्तसे निकलते हैं, यह नियम है। तभी तो कषायसहित जीवोंके वचनोंके चार भेद माने जाते हैं (१) सत्यवचन, (२) असत्यवचन, (३) मिश्रवचन, (४) अनुभयवचन। इनका सम्बन्ध जीवके आभप्राय (कषायरूप इरादा ) के साथ है अर्थात् जैसा इरादा ( अभिप्राय ) होता है वैसा ही नाम वचनोंका पड़ता है। जैसे कि यदि किसीका स्रोटा इरादा हो, बचन वह सत्य भी बोलता हो तो उसको असत्य वचन ही कहा जायगा । वह जीव असत्यवचन ( झर) का अपराधी होगा; कारण कि उसका इरादा बोलनेके समय खराब था... दूसरे प्राणीको नुकसान पहुँचानेका था---अतएव 'सत्यमपि विपदे' इस वाक्यद्वारा समन्तभद्राचायंने उसको असत्यवचनमें शामिल किया है ( रत्नकरंडथावकाचार इलोक मं० ५५) । तात्पर्य यह कि संयोगी पर्यायमें कषाय या अभिप्रायके अनुसार हो सत्य, असत्य आदिका निर्णय होता है बिना कषायके चार भेद बचनोंके नहीं होते। ___अर्हन्त भगवान्के बिना कषायो यचनोंके दो भेद (१) सत्यवचन (२: अनुभरा वचन ( न सत्य न असल्य या अक्षर रहित निरक्षर वचन ) ऐसे माने गये हैं। शेष दो भेद असत्य और मिश्र नहीं माने गये हैं। गोम्मटसारमें' उनको याने सत्यवचन और अनुभव वचनको उदाहरण देकर समझाया गया है। १० दशा प्रकारका सत्यवचन भत्तं देवी चंदप्पहाडिगा तह य होदि जिणचन्दी। सेदो दिग्धो नदि कुरीति य हवे अयण ॥२२३।। सको जंबूदीवं पल्लट्टदि पावदजवयणं च । परलोपमं च कमसो जगपदसनादिदिटुंता ॥२२४॥ गो. जीवकांड अधई ----सत्यके १० भेन, भिन्न २ अपेक्षासे माने आते हैं यह लोकरीति है-यवहारनय हैं जो पर्यायाश्रित हैं । अतः वह भी पर्यायको अपेक्षाले सत्यमें शामिल होता है। जैसे कि मद्रास देश (जनपद) में 'भक्त भात-भेड-भाटु, यह चांवलोंकी पर्याय सत्य मानी जाती है। फिर भी वह कचित् सत्य है, उस देशकी अपेक्षा सत्य है-सब देशोंकी अपेक्षा सत्य नहीं है। (१) यह सत्यका पहला उदाहरण है, इसके द्वारा सत्यका परिस्म दिया गया है, जानकारी कराई गई है। (२) सम्मलिसत्यका उदाहरण, देवी-पट्टरानो-स्त्री आदि बचन सम्मतिपसे सन्य है; कारणकि उनसे एक निश्चित अर्थ का बोध होता है । वह रूढिरण्य भी कहलाता है ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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