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________________ सकलचारित्रप्रकरण ४०१ मलशरीर स्पर्श तृणादिक अश अदर्शन अ प्रशा। द शायर भर गई लाइन होगा' ।। १०७ ।। ये हैं बाइस परीषह पूरे कस्ठव इनको सहना है। बिना क्लेश हपसे सहना मय नहिं इमसे करना है ।। २०८ ॥ अन्वय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि [ शुसृष्णा हिममुष्ण नग्नत्वं याचनाऽरतिरलाभः ] भूखप्यास, जाड़ागर्मी, नग्नपना ( दिगम्बरवेष) याचना, (भिक्षाबिना बुलाए जाना), रतिः ( अप्रीति होना), अलाभ ( आहारादिका न मिलना) तथा [ मसकादीनां दंशः माक्रोशः याधिदुःखमंगमलम् ] डांसमच्छर आदिका काटना, निन्दाकारक या कटुवचन सुनना, रोग बीमारीका दुःख (पीड़ा ) होना, शरीरमें मलका लग जाना, और [ तृणादीनां पशः प्रज्ञान अदर्शन प्रज्ञा ] काँटा व कड़ावास कंकर पत्थर आदिका चुभना, कमती ज्ञानका होना, ऋद्धि आदिका उत्पन्न होना, क्षयोपशमिक इन्द्रियाधीन ज्ञानका होना, तथा [ सरकार पुरस्कार शय्या वर्धा वधः निषशा स्त्री ] आदर सत्कारका या भेटका न मिलना विस्तरादि न मिलना, मार्गके चलने में थकावटका होना या चलने की शक्ति न होना, दुष्टजनों द्वारा मारा पीटा जाना.बैठनेकी जगह ठोक नहाना. बडखाब कष्टप्रद रहना, स्त्री सम्बन्धी बाधाका होना [एतेहाविंशतिः परांषडये सब बाईस परोषह ( बाधायें ) है सो [ संक्लेशनिमित्तभातन संक्लेशमुक्तमनसा सततं परिषोदयाः ] जो श्रावक या मुनि संबलेशता होनेके निमित्तोंसे दूर रहता है अर्थात् संक्लेशताके निमिस नहीं मिलाता तथा स्वयं संक्लेशता रहित होता है, उसको उक्ती बाईस परीषद सहन करना ही चाहिये उसका मुख्य कर्तव्य है कि इनको सहन करे ।। २०६।२०७५२०८ ।। भावार्थ----दुःखों, कष्टों, बाधाओंके उपस्थित होनेपर विना संक्लेशताके प्रसन्नताके साथ सहन करना परीषहजय कहलाता है । यह कार्य बड़ा कठिन है, सरल नहीं है, इसको वीतरागो या मन्दकषायीजीव { मुमुक्षु ) ही कर सकते हैं-रागीद्वेषी आरामी जीव नहीं कर सकते यह नियम है। सभी तो एक वीतरागी मुनिके एक साथ १९ परीषह उपस्थित होमेपर भी सहन कर लेते है, यह बड़ा आश्चर्य है। उस ममय विरोधी ३ तीन परोषह नहीं रहसी, जैसे कि शीत व उष्ण इन दोमेसे एक ही रहेगी,१ घट जायगी, तथा शय्या-चर्या-निषद्या इन तीनमेंसे एक समय ही रहेगो, २ दो घट जायेंगी, इस तरह २२मैसे ३ तीन घट जानेपर १९ हो शेष रहती हैं ऐसा समझना चाहिये। • कुछ विशेषताएँ-नग्नपरीषह अर्थात् नग्न होनेपर दुःख व लज्जा व भयका होना स्वाभाविक है, परन्तु वीतरागीके सब विकारीभाव नष्ट हो जाते हैं अतएव कोई भय लज्जा आदि नहीं होते, वह निर्विकार बालककी तरह हो जाता है । उसके मनमें कोई विकल्प नहीं उठते, जिससे कोई आकुलता या दुःख नहीं होता यह विशेषता पाई जाती है। चारित्र मोहकर्म के उदय में बाधा होती है। १. स्त्रीपरीषह।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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