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________________ १० पुरुषार्थसिवापाय याचना परीषह अर्थात् विना निमंत्रण या विना बुलाए भोजनार्थ परधर जाने में बड़ा संकोच व लज्जा होती है, यह स्वाभाविक कार्य है गृहस्थाश्रममें रहनेवालेको ऐसा करते समय महान दुःख व संक्लेशता होती है, और भरसक वह वैसा नहीं करता-मर जाना पसंद करता है। परन्तु वीतरागी मुनि, अपमान, लज्जा, संकोच, मान आदिको कोई परवाह न कर ( मन में विकार न लाकर ) निर्विकल्प या निःशल्य होकर परघर भोजनार्थ जाता है, यह बड़ी विचित्रता है। उसको वैसा करने में दाव ( आकलता चिन्ता नहीं होता। ग़जदका त्याग है व वीतराग भाव है। - प्रज्ञापरोषह-क्षायोप्रशमिक्रज्ञानका नाम प्रशा है। यह क्षायोपशमिकज्ञान प्रायः सभी संसारो जोधोंके रहता है और उसके द्वारा पूर्ण ज्ञान नहीं होता, साथमें रामादिक मौजूद रहनेसे अल्पज्ञताका दुःख भी होता है कि 'हम कुछ नहीं जानते' हम बड़े मूर्ख हैं इत्यादि अथवा कुछ असिशयरूप ज्ञान ( अवधि आदि के होने पर अहंकारका होना संभव है। परन्तु उन सबसे वह पृथक् रहता है, कोई चिन्ता या विकल्प नहीं करता, समभाव धारण करता है वह बड़ा धोरवीर होता है ऐसा समझना चाहिये । वह वस्तुस्वभावका सच्चा ज्ञाता है। यहो तो ज्ञानीके ज्ञानकी विशेषता है साथमें वैराग्य त्यागका होना इत्यादि । २२ परिषहोंका संक्षेप स्वरूप (१) क्षुचापरोषह----असाताकमके उदय या उदो रणाके समय संयोमोपर्याय में भूख लगती है अर्थात् खानेको इच्छा ( कषाय ) उत्पन्न होती है और जबतक पूर्ति न हो तबतक आकुलता (दुःख विकल्प ) एवं बेचैनी बनी रहती है, बस यही क्षुधारोषह ( बाधा ) है । उसको त्यागी बैरागी जीव जोतते हैं अर्थात् विना संक्लेशताके सहन करते हैं, जिसका फल नवोन कर्मबंधसे बचाना होता है, संवर-निर्जरा होती है। इसका जीतना सरल नहीं है, परन्तु साधुका यह कर्तब्ध है सो वे करते हैं। (२) तृषापरीषह-भूख की तरह प्यासको बाधा भी होती है । उस समय विना संक्लेशताक उसको सहन कर लेना. तषापरीषहजय। उस समय रामदेषादि विकारीभाव न होनेसे संघरनिर्जरा होती है। गर्मी आदिके दिनोंमें या प्रकृतिविरुद्ध भोजन मिलने में यह बाधा अवश्य होना संभव है, परन्तु कर्तव्यबस उसको सहन किया जाता है। . (३) शीतपरीषह---जाड़ा या शीत ( ठंड )की बाधा उपस्थित होनेपर भी संक्लेशता या दुःखका अनुभव नहीं करना अथवा दुःखी नहीं होना, न उसका प्रतीकार करना और खुशी-खुशी विना रागद्वेष किये उसको सह लेना, शीतपरीषहजय कहलाता है यह व्रतियोंका कर्तव्य है। (४) उष्णपरीषह----ार्मी पड़ने या लगने के समय बाधा ( पीड़ा का होना स्वाभाविक है किन्तु त्यागोमती निर्मोहतासे उसको उपचार किये बिना समताभावसे सह लेते हैं, संक्लेशता नहीं करते जो उनका कर्तव्य है। (५) नग्नपरीषह-चारित्रमोहके तीन उदय रहते हुए एक उंगलोको भी उघड़ा रखना
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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