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________________ ........... शुपसिबभुवन ....... पद्य ............................................. ..... miyanArrainingrejianp. ...... cgroupiyrs-5 -sizili-iHi विपरीतभिनिवेश हटाकर, सम्यक निश्श्य करता है। और उसी में लीन होयकर, सम्यक् चारित धरता है ।। घा ही पक उपाय जीव के, पुरुषारय की सिद्धि का । मोक्ष दशा का बोज वही है, संसारी अड़ कटने का ।१५।। अन्यय अर्थ-[ य: ] जो जीव, सबसे पहिले [विपरीताभिनिवेशं निरस्य ] अनादिकालसे ध्याप्त विपरीतश्रद्धानको ( मिथ्यादर्शनको) हटाकर अर्थात् निकालकर एवं [ निजतन्वं सम्यम् व्यवस्य ] आत्माके एकत्त्व विभक्त स्वरूपको यथार्थ जानकर [ यत् तस्माद विचलनं ] जो फिर अन्तमें उस अपने आत्मस्वरूपमें स्थिर या निश्चल होता है अथवा निश्चयचारित्र धारण करता है अर्थात् राग-द्वेष रहित वीतरामधर्मरूप चारित्रको प्राप्त करता है। सारांश---सम्यग्दर्शन, सम्यम्ज्ञान, सम्यक् चारित्र रूप अवस्थाको प्राप्त होता है । स एव ] वही तीनोंका समुदाय हो । अयं पुरुषासिन्युपायः ] प्रत्यक्ष या साक्षात् । निश्चयसे ) पुरुषार्थकी सिद्धिका एक अनुपम उपाय है, अर्थात् मोक्षका निश्चयरूप मार्ग है-निर्विवाद ( प्रधान ) रास्ता है ऐसा जानना ॥१५॥ भावार्थ---अनादिकालसे संसारी जीव प्रायः विपरीत बुद्धि करके अर्थात् परपदाकि साथ अपना अभेद ( एकत्त्व ) रूप श्रद्धान और शान करके उसीमें लोन या मस्त हो रहे (भूल रहे ) हैं वह भूल ही संसारका मूल या जड़ ( बीज ) है अर्थात् निदान है । उसीसे संसार फल-फूल रहा है । { बढ़ रहा है ) जब इस तथ्यको (वास्तविक रहस्यको) जीव समझ जाता है या अपनी भूलका ज्ञान उसे हो जाता है तब उसके संसारको जड कट जाती है अति उसका मिथ्यादर्शन. मिथ्या . मिथ्याचारित्र न होकर सम्यग्दर्शन. सम्यग्ज्ञान. सम्यकचारित्ररूप उत्पन्न होता है। अर्थात् मिथ्या अन्धकार मिटकर सम्यक उजेला प्रकट होता है। उसके प्रकाशमें वह अपनी पूरानी करतूत { कृति मान्यता ) पर अत्यन्त पछताता है दुःख : जाता है और आगेका सुधार करता है । यद्यपि संसारके या संयोगी पर्यायके सभी काम वह करता है जिनमें जन्ममरण, खाना-कमाना, लड़नाझगड़ना, विवाह शादी करना आदि सभी काम शामिल हैं। तथापि अरुचिपूर्वक आसक्त या दत्तचित्त न होकर एक विगारीको तरह विवशतामें करता है उत्साह और रुचिसे नहीं करता, इतना ही नहीं, यथाशक्ति उनका करना छोड़ता जाता है और अन्समें क्रमशः सबका त्याग कर देता है। जिससे वह एक समय संसारसे पार हो जाता है। यही उसकी न्यायवृत्ति है दैनिकचर्या है। ऐसा करके ही बह--- अनादिकालीम भिगोदादिकी अनन्तपर्याए छोड़ देता है। पचपरावर्तनरूप संसारसे मुक्त होकर मोक्ष स्थान प्राप्त कर लेता है। m p -imilimtinian " " १. नित्यनिगोदमें रहनेका काल, किसी के अनादि अनन्त है . किसीके अनादि सान्त है । इतरनिगोदमें रहनेका काल २॥ हाई पुद्गलपरावसन प्रमाण ( अनन्त ) है।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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