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________________ 3 লী রুন্ধা কম্বot अतएव इस पुरुष ( जोव ) को हमेशा ऐसा अपूर्व पुरुषार्थ करना चाहिये जो पहिले कभी न किया गया हो। तह पुरुषार्थ सम्यग्दर्शनाटिलता प्राप्ति करना है और संसारके दुःखोंसे छूटकर मोक्षके सुखोंको पाना है । संसार में रहना और दुःखसुख भोगना परिसहादिको बढ़ाना-दुर्गतियोंका बंध करना यह कुपुरुषार्थ है । इसकी तारीफ नहीं होती प्रत्युत निन्दा ही होती है। ऐसा समझकर मोक्षका व उसके मार्ग ( उपाय ) का ही पुरुषार्थ करना चाहिये, उसीका पुरुषत्त्व सफल माना जाता है। जब जीवकी क्षुद्र पर्यायोंका विचार किया जाता है तब रोंगटे खड़े हो जाते हैं. दुःखकी कथाएँ ( कहानियाँ ) हृदयको व्यथित कर देतो हैं, जिनको भोगा है सुना है देखा है। फिर भी अज्ञान और कषाय के वैगमें यह जीव सब भूल जाता है, अपना सन्तुलन खो देता है यह बड़े दुःखको बात है। तब अभिमान काहेका ? पर्याएं सब विनश्वर है-एकसी सदेव रहती नहीं हैं। अतएव विवेको जीवको एकत्त्व व अन्यत्व भावना भानी चाहिए। एकत्वका अर्थ मेरा 'चेतनारूप आत्मा' अकेला है अर्थात् अपने गुणों के साथ ही अभेदरूप है, और गुणों के साथ अभेदरूप नहीं है। तथा परसे भिन्न है, ( अन्य है) परद्रव्य के साथ कभी एकरूप या तादात्म्यरूप न होकर भिन्न ही है (विभक्त है) भिन्न रहता है। तब अपना ही बल भरोसा रखना चाहिये, दूसरोंका नहीं यह सारांश है । इसपर ध्यान देना चाहिए, जो कोई मोक्ष जाना चाहता है । इति ।।१५।। प्रसंगवश-सम्यग्दर्शनावित्रयका संक्षेपस्वरूप .... आचार्य ने स्वयं आगे श्लोक २२, ३१, ३९ में क्रमशः कहा है) (१) विपरीत श्रद्धाका छोड़ना अर्थात् पर द्रव्यके साथ मेरा : आत्माका ) एकत्त्व है ( अभेद है ) ऐसी धारणाको हटाना, सम्यग्दर्शन गुण है । अथवा अपने गुणोंके साथ ही मेरा एकत्व है अन्यके साथ नहीं है, ऐसी भावना ( श्रद्धा ) भी निश्चय सम्यग्दर्शन है । विशेष आगे समझना, कर्मजनित औपाधिक पुद्गलकी पर्यायोंको आत्मा [ जीव ) की मानना व जानना व उनमें लीन रहना मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र है। (२) मेरा आत्मा पर सबसे भिन्न है, ऐसा जानना या निश्चय करना 'सम्यग्ज्ञान' है अथवा अन्यत्व भावना ( श्रद्धा ) भाना, निश्चय सम्यग्ज्ञान है। (३) आत्माके यथार्थस्वरूपको जानकर व श्रद्धानकर, उसमें स्थिर होना लीन होना तन्मय होना, निश्चय सम्यक्चारित्र है। यह सामान्य कथन है। आगे प्रत्येकका विस्तारके साथ कथन किया जायगा सो जान लेना। यहांतक संसार व मोक्षका बीज ( निदान ) बताया गया है। अस्तु । आगेके पेजमें चारित्रका दूसरा लक्षण ग्रन्थान्तरकी अपेक्षासे लिखा गया है सो समझ लेना। म स्थावरकायों में रहनेका काल, असंख्यात पगलपरावर्तन प्रमाण है। असपर्यायमें रहनेका काल कुछ अधिक दो हजार सागर प्रमाण है। नोट- संख्यातसे बड़ा पल्य, पत्यसे बड़ा सागर, सागरसे बड़ा परावर्तन होता है ऐसा समझना चाहिए।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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