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________________ माण पुरुषासिवाय पथ सनप्रय पूरण करनेको ओ पुरुषारथ करता है। वह श्रावक नित भाव और सरको देखत रहता है ।। अवसर देख्य मुनी बनता है, परिग्रह सारा सजता है। समयकी पूर्ति इसीसे होना निश्चित करता है।॥२१॥ अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ बद्धोद्यमेन ] मोक्षमार्ग या रत्नत्रयकी पूर्णताका पुरुषार्थ करनेवाले श्रावकको चाहिये कि वह [ बोधिलाभस्य समयं लब्ध्वा ] रत्नत्रयकी पूर्णताका अबसर या आगमका ज्ञान प्राप्त करके ( काल व मान देख करके ) [च मुनीनो पदमवलम्ब्य ] और मुनिपदको धारण करके ( अनगार बनकर ) [ सपदि परिपूर्ण कसंध्यम् ] जल्दी ही अपूर्ण रत्नत्रयको पूर्ण करे, क्योंकि विना मुनिपद धारण किये रत्नत्रय पूर्ण नहीं हो सकता यह नियम है ।। २१०॥ भावार्थ-रत्नत्रयको पूर्णता श्रावकपदमें नहीं हो सकती किन्तु मुनिपदमें ही हो सकती है यह नियम है । अतएर मुभिपदको धारण करना अनिवार्य है। फलतः मुमुक्षु जीव मुनिपदको अवश्य धारण करते हैं यह सामान्य नियम है किन्तु योग्यताके लिहाजसे इस हुंडावसपिणीके पंचम काल में, सच्चा मुभिपद धारण करना व पालना दुर्धर है । जो रत्नत्रयकी पूर्णता कर सके वह असंभव है । आजकल कोई जीव ७ वे गुणस्थानसे आगे ( अष्टमादि ) गुणस्थान प्राप्त कर ही नहीं सकता है, न श्रेणी चढ़ सकता है, न शुक्ल ध्यान प्राप्त कर सकता है ऐसा आगमका निर्देश है। मुनिपक्ष प्राप्त करनेको योग्यता (१) सबसे पहिले तत्त्वज्ञान व तत्त्वश्रद्धान ( सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान ) होना चाहिये, कारण कि विना यथार्थ जाने-माने किसका त्याग किसका ग्रहण किया जायगा? अज्ञानीको कोई विवेक या पता नहीं रहता। (२) विषयकषायका त्याग होना चाहिये अर्थात् संसार-शरोर भोगोंसे अरुचि और यथाशक्ति उनका त्याग ( संयम ) होना चाहिये, रागी द्वेषी कषायी ( असंयमो ) मुनिपद धारण नहीं कर सकते, यदि धारण करें तो वह पाखंड है, गुरुपद नहीं है। (३) ज्ञान-ध्यान-सपमें हमेशा लीन रहना चाहिये--संसारी कामोंमें नहीं पड़ना चाहिये। ( ४ ) अट्ठाईस मूलगुण निरतिचार पालना चाहिये, उनमें त्रुटि नहीं होना चाहिये । ( ५ ) एकान्त निर्जन स्थानमें रहता ध्यानासन लगाना चाहिये इत्यादि खास बातोंका होना अनिवार्य है साथ ही सम १. अदानी निषेधन्ति शुक्लध्यान जिनोत्तमाः । धर्मध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणिभ्यां प्राग वित्तिनाम् ।। ८३ ॥ तत्त्वानुशासन अर्थ....इस पंचमकाल और भरतक्षेत्रमें शुक्लध्यान नहीं होता, न श्रेणी चढ़ी जाती है क्योंकि साहम गुणस्थान तक ही होता है, व धर्मध्यान होता है, श्रेणी व शुक्लध्यान आठवें गुणस्थानसे शुरू होता है ऐसा कहा है।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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