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________________ पुरुषार्थसिदभुपाय निश्चयके अज्ञानी जो जन जनको समझाने हेतु । ध्यपहारनन नपयोग करत है, मुनिजन करुणा सेतु' ।। जो केवल व्यवहार मानते. निश्चय और महीं कुछ भी। उनको जिन्न उपवेका न लगता, घे अपात्र एकाम्सी भी १६॥ अन्वय अर्थ--[ मुभीश्वराः ] गणधरादिक आचार्य । अयुश्वस्य बोधनाय अभूता देशयन्ति ! करुणाबुद्धिसे अज्ञानी और भूलेभटके (विपरीत बुद्धि ) जीवों को प्रारम्भमें निश्चयका ज्ञान करानेके लिये, व्यवहारमयका आलम्बन करके उपदेश देते हैं क्योंकि बह अनिवार्य है किन्तु [ यः केवल व्यवहार एवं अति जो जीव सिर्फ व्यवहारको हो सबकुछ मानता है अर्थात् जिसकी दृष्टिमें न कोई दूसरा ( निश्चय ) है और न उसको जिज्ञासा है ऐसा एकान्तीजीव है । तस्य देशना मास्ति ] उसको जिन वाणीका उपदेश देना ही व्यर्थ है, कारण कि वह उसको न समझ सकता है और न उसपर उसका कोई प्रभाव ( असर ) हो सकता है। फलतः वह उपदेशका पात्र नहीं है ॥६॥ भावार्य-अनादिकालसे संसारी जीव, संयोमीपर्याय में रहते हुए अनेक तरहसे अज्ञानी व भूलवाले ( विपरोतबुद्धि ) बन रहे हैं। उनमेंसे कितने ही जीव ऐसे हैं कि जो तत्त्वों ( पदार्थों) का नाम न स्वरूप तक नहीं जानते, न उन्हें द्रध्यगुण पर्यायका ज्ञान है न निश्चय और व्यवहारका ही ज्ञान है ऐसे भोले हैं, तथा कुछ ऐसे भी हैं, जो तत्वोंके नाम, लक्षण, भेद आदि सब जानते हैं किन्तु विपरीत बुद्धि व श्रद्धा होनेसे भूले हुए हैं। उनसबको ठीक ठीक समझानेके लिये आचार्य उपाय बतला रहे हैं। वह उपाय प्रारंभ दशा या हीन अवस्थामें 'व्यवहारनय' का आलम्बन करना है अर्थात् उसके द्वारा बोध कराना है अथवा उसकी सहायता लेना है ( उसे मुहरा माना है ) दूसरा (निश्चय नय) उपाय ( साधन नहीं है। कारण कि उतनी बुद्धि व विचारशक्ति उनमें नहीं पाई जाती यह स्वाभाविक है, एवं प्राचीन संस्कार पड़े रहते हैं। अस्तु, ___ नियमानुसार पदार्थोंका ज्ञान जीवको दो नयोंसे होता है.--१) निस्चयनयसे ( २) व्यवहारनयसे । परन्तु उनमेंसे निश्चयनय, पदार्थके सत्य ( असली भूतार्थ) स्वरूपका ज्ञान कराता १. पुलके समान पार करनेवाले या लगानेबाले । ___ अबुधका अर्थ भोले या बालक भी होता है उनको समझानेके लिये व्यवहार सहित निश्चयका उपदेश दिया जाता है यह करुणाभाव मुरुओंके रहता है। सद्गुरु शुभोपयोगके समय (धर्मानुरागवश ) सम्यग्दृष्टियोंको तथा सम्यग्दर्शनके सन्मुख मन्दकगायो मिथ्याष्टियोंकी तो व्यवहार सहित निश्चयका पदेश देते ही हैं किन्तु जो तीवकषायी एकान्सी (मिथ्या दृष्टि है उन्हें भी श्यवहारनय द्वारा सदाचारमें लड़ाते हैं, असदाचार छुड़ाते हैं तथा असनी पंचेन्द्रिय तकके जीवोंको दूसरोंके द्वारा बनवाते है ( रक्षा करनेका उपदेश देकर उनके प्राण बनाते हैं. ) अर्थात् किसी न किसी तरह उनका भला करते हैं यह रहस्य है।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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