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________________ अदाल १. सम्यग्दर्शनाधिकार विशेष-द्रश्याथिकनयके १० भेद । पर्यायाथिकनायके ६ भेद । नैगमनयके ३ भेद । संग्रहनयके २ भेद । व्यवहारनयके २ भेद । ऋजुसूत्रनयके २ भेद । शब्द-समभिरूट-एवंभूत-नयका १, १ भेद । तथा उपनय, सद्भूत व्यवहारके शुद्ध व अशुद्ध दो भेद । उपनय, असद्भुत व्यबहारमयके ३ भेद । उपनम, उपरित असद्भुत व्यवहारनयके ३ तीन भेद इत्यादि सब विस्ताररूप कथन आलापपद्धति ग्रन्थसे समझ लेना चाहिये। उपसंहार __ इस श्लोक द्वारा आचार्यने यह बताया है कि अनादिकालमे संयोगी पर्याय में रहते हुए जीव मात्र व्यवहारनय ( अभूतार्थ } भयका आश्रय लेनेके कारण वस्तु (द्रव्य ) के असली स्वरूप या स्वभावको भूल गये हैं अर्थात् नकली या मिथ्या या विपरीत ज्ञानश्रद्धानवाले हो रहे हैं। फलतः उनका आत्मकल्याण होना या मोक्षमार्गको प्राप्त करना दुःशक्य है । अतएव निश्चयनय { भूतार्थ) द्वारा सबका या खासकर मोक्षमार्गापयोगी जीवादि सात तत्त्वोंका असली स्वरूप व स्वभाव जानकार भूल या अज्ञान मिटाना अनिवार्य है क्योंकि उसके बिना जोबोंका कल्याण नहीं हो सकता । सारांश यह कि जो जीव सदैव चाहते हैं कि 'सुखशान्ति प्राप्त हो व दुःख अशान्ति दूर हो उन्हें अभीष्टसिद्धि कदापि नहीं हो सकती जबतक अनादिको भूल न मिटे । बढ् अनादिकी भूल संक्षेप में अपने या वस्तुके स्वभावको नहीं समझकर उससे विचलित हो जाना एवं परवस्तुको अपना भान केला है ( कलश २०२० १७६-१७७ के अनुसार ) अथवा परके साथ अभेद या एकत्त्व करने लगता है, जो भ्रम है--कभी परके साथ एकत्व होता नहीं है अर्थात् तादात्म्य नहीं होता, कारण कि वस्तुका एकत्व विभक्त स्वभाव नियत है । इसप्रकार तथ्यको जानकर रत्नत्रयधर्मको धारणपालन करना चाहिये, यही सार है या मनुष्य जीवनका मुख्य कर्तव्य है। व्यवहारनय व निश्चयनयके आलम्बनका अर्थ (१) व्यवहारमय अथवा अभूतार्थ नयके द्वारा बताए गये या जाने गये पदार्थ के अशुद्ध या असत्य स्वरूपको वैसा जानना एवं वसी श्रद्धा । मान्यता) करना, व्यवहारमयका आलम्बन करना कहलाता है, जो हेय है । ( २ [ निश्चयनय अथवा भूतार्थ मयके द्वारा बताए गये या जाने गये पदार्थके शुद्ध या सत्य स्वरूपको वैसा जानना एवं वैसी श्रद्धा करना निश्चयनयका आलम्बन करना कहलाता है जो उपादेय है 11५।। ... प्रश्न होता है कि जन्न व्यवहारनय अभूतार्थ है और फलस्वरूप हेय है तब उसको ग्रहण करना एवं उसका उपयोग यापूस्तमाल करना अथवा उसकी अपेक्षा करना व्यर्थ है, कारण कि वह अकिचिकर जेसा सिद्ध होता है ? आचार्य इस प्रश्नका समाधान, अनेकान्तकी दृष्टिसे प्रारम्भिक दशामें उसका उपयोग लेना आवश्यक है, यह कहकर करते हैं : अबुधस्य बोधनार्थ मुनीश्वराः देशयन्स्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवेति यस्तस्य देशना नास्ति ॥६॥ ARTS
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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