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________________ सम्यकचारित्र होने प smartwation घर... बड़े २ कर सिंह, सादि जीवोंसे भरे हए । व्याप्त ) दुर्गम बनमें भूल जाय, तो उसको उस स्थानसे निकालकर सुमार्ग बतानेवाला कोई जानकार मनुष्य हो हो सकता है- दूसरा नहीं, उसो सरह सद्गुरु हो अनादिकालसे संसार-सागरमें भूले भटके दुःखी प्राणियोंको संसारसे निकाल सकते हैं दूसरा कोई नहीं यह निश्चय है। अतएब मुमुक्षुओंको उन्होंको शरण लेनी चाहिये । यद्यपि वे निमित्तकारण हैं तथापि निमित्तताको ही श्रद्धा रखते हुए उनका आश्रय लंकार पुरुषार्थ स्वयं ही करना चाहिये अर्थात् आत्माका ही बल भरोसा रखना चाहिये कि कार्य सिद्ध हमारा हमारे द्वारा हममेसे ही होगा इयादि । व्यवहार दृष्टिसे संयोगी पर्याय में निमित्त मिलाकर पुरुषार्थ करनेका भाव कषायवश उत्पन्न होता है जो अनुचित नहीं है, परन्तु श्रद्धा नहीं बदलती, वह उपादान पर ही निर्भर ( अटल ) रहती है। अतः वस्तुके स्वरूपको यथार्थ समझकर श्रद्धा मजबूत ( दृढ़ ) करना कर्त्तव्य है। इसी तरह आगमका ज्ञान, तत्त्वार्थका श्रद्धान, संयमभाव (व्रताधनुष्ठान ) के भी 'आत्मज्ञान' का होना अनिवार्य है क्योंकि उसके बिना सब (आगमज्ञानादि त्रय) व्यर्थ हैं-- मोक्षमार्गके साधकतम नहीं हैं इत्यादि जैसे द्रव्यलिंगी मुनिके उक्त तीनोंका समागम होने पर भी 'शद्वात्माका निविकल्प ज्ञान( निश्चयरूप ) न होने से व्यर्थ है...-मोक्षरूप स नहीं होती यह तात्पर्य है । आत्माके सिवाय कपरी ( बाह्य ज्ञान श्रद्धान आचरण प्रायः सही हो सकता है असंभव नहीं है वह सरल है किन्तु आत्माका मा ज्ञान होगगुर्लभ-दुष्कर है अतएव मोक्षमार्गमें प्रयोजन मूल मुख्य वही है ऐसा समझना ( गा०२३८ प्रवचनसार गा० नं० २७६, २७७ समयसार )। भावार्थ-आत्मज्ञान शून्य (विना) तत्त्वार्थ श्रद्धान करना, आठ अंगोंका पालना, २५ दोषोंका दालना, संयमादि धारण करना सब निष्फल है 1 जैसे कलशा बिना मंदिरको शोभा नहीं होती। तदनुसार सन्त्रा तत्त्वार्थ श्रद्धान अर्थात् निश्चय व्यवहारके ज्ञानपूर्वक श्रद्धान ही कार्यकारी है अन्यथा नहीं यह तात्पर्य है ! संसारमें जैन शासनका प्रचार नयज्ञाता कुशल सद्गुरु ही कर सकते हैं इति । नोट-यहाँ आत्मज्ञान शून्यका अर्थ --- मैं ज्ञानस्वरूप हूँ या मेरा स्वरूप ज्ञानचेतनामय है अन्यरूप नहीं है, ऐसा नहीं समझना है ( स्वरूप विपर्यय है ) यही बड़ा भूल है कि अपने स्वरूप को नहीं जानना। निष्कर्ष ( चेतावनी) आत्मोन्नति के लिये संयोगोपर्यायमें रहकर पद व योग्यताके अनुसार निश्चय और व्यवहारका सम्यक्ज्ञान तथा वैसा आचरण ( वृत्ति या वर्ताव ) अवश्य होना चाहिये, तभी इष्ट ( लक्ष्य .. या साध्य ) की सिद्धि हो सकती है, अन्यथा नहीं ऐसा समझना चाहिये। इस विषय में समयसारकलशका श्लोक स्पष्टोकरणके लिये आगे लिखा जाता है। १. मैं स्वयं ज्ञामस्वरूप हूँ, ज्ञाता दृष्टा हूँ अन्य रूप नहीं हूँ में मेरा कोई कुछ कर सकता है इत्यादि ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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