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परिशिष्ट
श्लोक नं. ४९ का स्पष्टीकरण ___ श्लोक पंक्ति नं० २ 'हिसायतननिवृत्तिः परिणामविशुद्धये तदपि कार्या' का खुलासा या गुढ़ार्थ यह है कि हिंसा दो प्रकारको होती है (१) भावहिंसा (२) द्रव्याहिंसा। अपने भावोंमें विकारका होना अथात् मारने आदिका संकल्पविकल्प ( इरादा ) होना 'भावहिंसा' है कारण कि उस विकारीभाषसे स्वयं उस जीवके भावप्राणोंका घात या हिंसा होती है....ज्ञानदर्शन सुख आदि नष्ट होते हैं अतएव वह तो अपनो हिसा होना कहलाता है और वही यथार्थ व सत्य है, जो अपने आए होतो है । फलतः उसीका फल भोगना पड़ता है, सो उसको बचाना या भावहिंसा जिनसे हो उन परिणामों ( भावों ) का न करना ही निश्चयसे अहिंसावत है यह सारांश है। हिंसाका मूल कारण वही है-परवस्तु या अन्य प्राणीका घात होना औपचारिक या व्यवहारसे हिंसा है ऐसा समझना चाहिये।
किन्तु शिथिलाचार या स्वच्छंदता न फैल जाय, इस भय व आशंकासे दूसरी द्रव्याहिंसाके म करनेका भी उपदेश दिया है कि कोई अन्य जीवोंको भी न मारे में स्थाये, अन्यथा उसको द्रव्यहिंसाका पाप अवश्य लगा। अतएव उससे बचने के लिये द्रव्याहिंसाके आयतनों (आधारभूत अन्य जीचों) का भी विधात नहीं करना चाहिये अर्थात उनकी रक्षा करना चाहिये, जिससे परिणाम विशुद्ध-करुणाभावरूप या दरारूप निर्मल ( शुभरागरूप ) रहते हैं और उनसे पुण्यकर बंध होता है-पापबंध नहीं होता, बदलाम है। सनात बता पूर्ण विकारीमावोंका त्याग न हो सके (पूर्णवीतरागता न आवे ) तबतक शुभरागरूष दयाका भाव होना भी अपेक्षाकृत अच्छा है। जब पूण वातरागता उत्पन्न हो जाती है तब अन्य जीवोंका भी विधात नहीं होता न उसके लिये कोई प्रयास ( ब्यापार ) किया जाता है किम्बहुना । जीव पूर्ण अहिंसक भाव और द्रव्य दोनों प्रकारको हिंसाओंके छोड़ने पर ही हो सकता है, अन्यथा नहीं । अतएव मुख्य व गौण रूपसे दोनोंका त्याग करना अनिवार्य है ध्यान रहे !
श्लोक नं० १२४ का विशेषार्थ अनंतानुबंधोकषाय मुख्यतः सम्यग्दर्शनकी घातक नहीं है किन्तु सहचर होनेसे गौणतया या उपचारसे वैसा कह दिया जाता है। यह बात श्री अमृतचन्द्राचार्यने हो स्वयं पंचास्तिकाय गाथा नं० १३८ की अपनी टीकामें स्पष्ट लिखी है यथा-'सत कादाविस्कविशिष्टश्याप्रक्षयोपशम सत्यज्ञानिनो भवति' अर्थ-वह अकलुषतारूप परिणाम, विशिष्टकषाय ( अनंतानुबंधी ) के क्षयोपशम होने पर अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवके भी होता है यह खुलासा लिखा है । यदि कहीं अनंतानुबंधी सम्यक्त्वकी : घातक होती तो उसके क्षयोपशम होने पर वह जीव अज्ञानी ( मिथ्यादष्टि ) कैसे लिखा जाता था रह सकता था-वह सो अनंतानुबंधीके क्षयोपशम होने पर ज्ञानी ( सम्यग्दष्टि ) ही बन जाता। अतएव निःसन्देह अनंतानुबंधीको मुख्यतः स्वरूपाचरणचारित्रकी घातक मानना चाहिये । फलतः जबतक मिथ्यात्वका भी उसके साथ क्षयोपशमादि न हो तबतक सम्यग्दर्शन कतई नहीं हो सकता, यह निष्कर्ष है अस्तु, विचार किया जाय ।