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________________ શું હું पुरुषार्थसिद्धघुपायें पद्य अन्य feitet प्रेरित करना - हस्ति पत्रपर अरू रखना । aftaree as मोज्यको काल उल्लंघन भी करना ॥ ere are tufer रखना, अतिचार पन होते हैं। इनसे दोष अवश्य होत है अतः बसीजन असे हे ॥ १९४ ॥ अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ पदातृव्यपदेश: सचित्तनिपतविधाने च ] दूसरे दाताको भोजन देने की प्रेरणा करना कि आप दे देना हमको अडचन है इत्यादि बहाना बनाना, पत्ता या पत्तल पर अचित्त ( प्रासुक) भोजन रख देना या उससे ढक देना [ च कालस्यातिक्रमणं सचित मास ] और भोजन ( आहार ) के कालको चुका देना अर्थात् देर कर देना तथा दूसरे दातारोंसे बुद्धि रखना) इति अतिथिदाने पंथ अशिवारा: ] इस प्रकार अतिथि संविभाग या अतिथिदान नामक शिक्षाव्रत के पाँच अतिचार होते हैं। इनको नहीं लगाना चाहिये ।। १९४ ।। भावार्थ -- आहारदानका बड़ा महत्त्व होता है व माना गया है परन्तु जब वह भक्तिभाव - विनय उत्साह के साथ हो, बरायनाम बलाय टालना जैसा न हो इत्यादि । मनमें विकारभाव या शिथिलाचार होनेसे फल नहीं लगता ( पुण्यबंध नहीं होता ) । अतएव श्रावकका कर्तव्य समझकर विधिपूर्वक अतिचार बचाते हुए आहारदान पात्रोंको अवश्य देना चाहिये । किम्बहुना | श्रावक ( गृहस्थ ) धर्मकी शोभा प्रतिष्ठा इसी में है । यद्यपि पात्रदानमें पात्र अपात्र की परीक्षा करना अनिवार्य है -- बिना परीक्षा किये आहार देना वर्जनीय है परन्तु दद्यादान में पात्र-अपात्रका विचार नहीं किया जाता। ऐसी स्थितिमें जैसा पात्र हो वैसा भाव व वैसी विधिसे भोजन देना चाहिये इत्यादि । निर्दोष आहार देने में कषायकी मन्दता रहती है, जिससे पात्रको लाभ होता है और दाताको भी पुण्यका बंध होता है स्वयं इस लोक और परलोक में साता सामग्रीका संयोग, उसका उपभोग करने का अवसर मिलता है-सुखसाताका अनुभव होता है, संसारी जोवन सुख शान्तिमय बीतता है। इत्यादि 'धर्म' करत संसार सुख' ग्रह चरितार्थ होता है अस्तु । स्वहस्त क्रियाका अर्थात् अपने हाथसे काम करने का फल -- ( कृतका फल ) विशेष होता है और दूसरेसे करवाने का फल ( कारितका फल ) सामान्य होता है अतएव यथासंभव पात्रदान वगैरह स्वयं ही करना चाहिये किम्ब हुना ।। १९४ ।। आगे सल्लेखना व्रत के पाँच अतिचार बतलाते हैं । जीवितमरणाशंसे सुहृदनुरागः सुखानुबंधश्च । सनिदानः पंचैते भवन्ति सल्लेखनाकाले || १९५ ।। १. उक्तं च-- जोवितमरणाशंसा मित्रानुरागसुखानुबंध निदानानि ॥ ३७ ॥ ० सू० अ० ७।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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